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‘बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है ...’

फिल्मी गीत प्रस्तुतिकरण में शब्द का ‘बिंब अनुवाद’ प्रस्तुत किया जाता है। राजकुमार हिरानी ने ‘थ्री ईडियट्स’ में इस पर सटीक टिप्पणी की है। गीत है- ‘शाखों पर पत्ते गा रहे हैं, फूलों पर भंवरे मंडरा रहे हैं, दो पंछी गा रहे हैं, बगिया में हो रही है गुफ्तगू, जैसा फिल्मों में होता है, हो रहा है हू-ब-हू’। फिल्मकारों का यह नजरिया सरलीकरण से प्रेरित है। फिल्म ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ में हसरत जयपुरी का गीत है- ‘आसमां से आया फरिश्ता’, शम्मी कपूर को हेलिकॉप्टर से गीत गाता हुआ दिखाया गया है। इसी तरह गीत ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है’ में अनगिनत फूल बरसाए गए। गीतों के प्रस्तुतिकरण में शब्द का बिंब अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है।
‘प्यासा’ जैसी महान फिल्म के क्लाइमैक्स गीत में शायर की बरसी मनाई जा रही है और वहां शायर सभागृह के द्वार पर क्राइस्ट की मुुद्रा में खड़ा हुआ है- ‘ये दुनिया मेरे काम की नहीं’। बिमल रॉय की फिल्म मधुमति के गीत ‘मैं नदिया, फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जरा सी’ में नायिका को सूखी हुई नदी में खड़ा दिखाया गया है। गुरु दत्त और उनके शागिर्द राज खोसला गीतों के प्रस्तुतिकरण से अपनी कथा को आगे बढ़ाते हैं। फिल्म सीआईडी में वहीदा रहमान ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना के द्वारा नायक को बचकर भाग निकलने का संकेत देती है। राज खोसला की फिल्म ‘मेरा गांव मेरा देश’ में गीत के द्वारा नायक को संदेश दिया गया है। पुलिस ने घेरा डाला है। गीत- ‘हाय शरमाऊं, किस-किस को बताऊं, ऐसे कैसे मैं सुनाऊं सबको अपनी प्रेम कहानियां.., आंखों को मीचे, सांसों को खींचे, वहां पीपल के नीचे मेले में सबसे पीछे, खड़ा है...’। फिल्म बॉबी का गीत ‘हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए..’ आजकल इसे कोरोना से बचने की हिदायत की तरह दिया जा रहा है। इसी फिल्म में किशोर नायक को गीत द्वारा खतरे से आगाह किया जाता है- ‘पंछी पिंजरा लेकर उड़ जाए तो शायद जान बच जाए, किसी धोखे से, किसी मौके से बचाकर आंख पंछी उड़ जाए’।
फूलों के बाजार में लाभ, लोभ के कारण अजीबोगरीब काम किए जाते हैं। एम्सटर्डम अपने ट्यूलिप फूलों के लिए विख्यात रहा है। एक वर्ष बहुत अधिक संख्या में फूल खिले तो सरकार ने फूलों को नष्ट कर दिया ताकि उसके भाव गिर न जाएं। एक वर्ष अमेरिका में इतना अधिक अनाज उपजा कि पूरी दुनिया में कोई भूखा न रहे, परंतु अनाज समुद्र में डुबो दिया ताकि मांग बनी रहे और मुनाफा न डूबे। सच तो यह है कि धरती इतना उपजाती है कि कहीं कोई भूखा न रहे, परंतु सरकार और व्यापारी भूख के बाजार बनाए रखते हैं। याद आती है धूमिल की पंक्तियां- ‘एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है, वह सिर्फ रोटी से खेलता है, मैं पूूछता हूं कि यह तीसरा आदमी कौन है, मेरे देश की संसद मौन है’।
माखनलाल चतुर्वेदी की कविता का अंश इस तरह है- ‘चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं, चाह नहीं सम्राटों के शव पर डाला जाऊं, चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ भाग्य पर इठलाऊं, मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक’।
साहिर लुधियानवी ने फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ के लिए लिखा- ‘दो बूंदें सावन की हाय दो बूंदे सावन की, एक सागर की सीप में समाए और मोती बन जाए, दूजी गंदे जल में गिरकर अपने आप को गंवाए, किसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाए’। वर्तमान समय में दोष लगाना या प्रश्न पूछना भी एक गुनाह अजीम है। खामोश रहकर मजमा देखिए, धरती से आया फरिश्ता, कश्मीर से कन्याकुमारी तक फूल बरसा रहा है। अब यह फूल की किस्मत है कि वह शव पर गिरे या किसी इबादतगाह पर’। यशराज चोपड़ा की फिल्म ‘चांदनी’ में प्रेमी, प्रेमिका को छत पर जाने का निर्देश देता है और हेलिकॉप्टर पर बैठकर उस पर फूल बरसाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। इस तरह चांदनी मैली हो जाती है। मुहावरा है फूल और कांटे का, परंतु अभावग्रस्त व्यक्ति फूल से भी चोटिल हो जाता है। अब तो कांटों को भी मुरझाने का खौफ सता रहा है।
वैश्विक आर्थिक मंदी द्वार पर दस्तक दे रही है। साधनरहित अवाम के दिल में गूंजने वाले नगमों के लिए व्यवस्थाएं कौन से बिंब रचेंगी? जादूगर मैनड्रैक्स हथेली पर सरसों खिला सकता है, गले में धारण किया सोने का गहना गायब हो जाता है। क्रिस्टोफर मोलन की फिल्म ‘प्रीस्टेज’ में मृत्युदंड पाने वाले व्यक्ति को वह व्यक्ति मिलने आता है, जिसके कत्ल के आरोप में उसे मृत्युदंड दिया गया है। अब सारा खेल हुक्मरान की प्रीस्टेज और अवाम के प्राइड तथा प्रीज्यूडिस का बनकर रह गया है। हम अत्यंत तमाशबीन हैं, हम हमेशा ताली बजाते रहेंगे। हम तृप्त हैं, वह मुग्ध है अग्नि को गर्भ में धारण किए धरती कराह रही है।



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'Bahar Phool Barsao Mera Mehboob Aaya Hai ...'




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2020 आपके लिए ‘गैप ईयर’ हो सकता है!

‘अरे वाह, तू तो बड़ा हो गया, अभी तो तेरे लिए नया घर ढूंढना पड़ेगा।’ मुझे याद है कि मां ये शब्द एक छोटे पौधे से कह रही थीं, जो दूसरे पौधे की छांव में थोड़ा बड़ा हो गया था। यही कारण था कि वह उस छोटे पौधे से वादा कर रही थीं कि वे उसे अलग घर (यानी गमला) देंगी। मैं उनके बगल में खड़ा होकर सोच रहा था कि आखिर यह पौधा जवाब कैसे देगा। मुझे मेरी मां का पौधों से बात करना हमेशा मजेदार लगता था। और नागपुर के घर में पीछे के आंगन में बने छोटे से बगीचे में पिता अचानक घुस आते थे और मां को मजाकिया लहजे में डांटते थे- ‘अगर तुम हमारे बेटे को ये पेड़-पौधों से बात करने का पागलपन सिखाओगी तो वह कभी प्राइमरी स्कूल भी पास नहीं कर पाएगा।’ हालांकि, मैं उनके इन शब्दों से बेकल हो जाता था, लेकिन मेरी मां को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे कहती थीं- ‘अगर हमारा बेटा कुछ देर खड़ा रहेगा और कुछ नहीं करेगा तो धरती फट नहीं जाएगी।’
बचपन का यह अनुभव मुझे तब याद आया जब दिल्ली में रहने वाले मेरे प्रकाशक दोस्त पीयूष कुमार ने मुझे आज सुबह फोन किया और अपनी तीन वर्षीय बेटी पीयू से जुड़ी चिंता साझा की। उनकी बेटी को गैजेट्स की लत हो रही है। जो लॉकडाउन से पहले 30 मिनट गैजेट इस्तेमाल करती थी, अब लॉकडाउन के दौरान तीन घंटे कर रही है।
इस बात के बाद मैंने पुणे के आनंदवन व्यसनमुक्ति केंद्र में कार्यरत मेरे एक परिचित को फोन किया, जिन्होंने मेरे डर की पुष्टि की। स्क्रीन की लत एक बड़ी समस्या बन चुकी है, खासतौर पर बच्चों के लिए। लॉकडाउन में बीते हफ्तों के दौरान यह एक गंभीर सामाजिक बीमारी बनती जा रही है। इसका असर इतना है कि इस केंद्र पर रोजाना ढेरों फोन आ रहे हैं, यहां तक कि कोल्हापुर, बीड, नांदेड़ और औरंगाबाद जैसे छोटे शहरों से भी, जबकि उनके पास बच्चों के साथ वक्त बिताने के कई अन्य तरीके भी हैं।
व्यसनमुक्ति केंद्र द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार 12 से 14 साल के उम्रवर्ग के बच्चों को गेम्स की लत है, जिनकी उम्र 14 से 24 साल के बीच है वे सोशल मीडिया पर ज्यादा व्यस्त हैं, वहीं 25 से 35 वर्ष की उम्रवर्ग वाले लोग ज्यादातर बिंज-वॉचिंग (लगातार फिल्म-टीवी देखना) के साथ सोशल मीडिया में लगे हुए हैं। वहीं 35 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोग वीडियो, न्यूज और सोशल मीडिया से समय काट रहे हैं।
हिसार के विजडम स्कूल के अधिकारियों और कई माता-पिता भी इस बात पर सहमत हैं कि ‘अगर एक साल थोड़ी औपचारिक पढ़ाई नहीं भी होगी, तो कौन-सा पहाड़ टूट जाएगा।’ वे इस बात पर एकमत हैं कि सामान्य तरीकों से पढ़ाने की बजाय, गैजेट्स से पढ़ाने से कोई ऐसी बीमारी हो जाएगी, जिसे बाद में संभालना मुश्किल होगा। बच्चों को तो ऐसे ही अगली क्लास में प्रमोट किया जा सकता है। लेकिन जो 14 से 24 साल या इससे ज्यादा के उम्र वर्ग के हैं या बाजार की स्थितियों की वजह से जिनकी नौकरियां चली गई हैं, उन्हें मैं सलाह दूंगा कि अगर आर्थिक रूप से संभव हो तो अमेरिकी लाइफस्टाइल अपनाएं, जहां ‘गैप ईयर’ काफी प्रचलित है।
तो ‘गैप ईयर’ है क्या? यह आमतौर पर पढ़ाई या काम से लिया गया 12 महीने का रचनात्मक ब्रेक है, ताकि कोई व्यक्ति अपनी अन्य रुचियों पर ध्यान दे सके, जो आमतौर पर नियमित जीवन से या काम के क्षेत्र से ही जुड़ी हुई हों, लेकिन कुछ अलग हों या उससे पूरी तरह हटकर हों। इससे छात्रों को उनकी रुचि के मुताबिक ग्रेजुएशन के लिए सही कॉलेज चुनने में मदद मिलेगी। वे लोग, जिनकी कंपनियां बंद हो गईं या नौकरी चली गई है, वे इसे ‘सबैटिकल ईयर’ (विश्राम का साल) मान लें और अपनी औपचारिक नौकरी से ब्रेक लेकर अन्य नौकरियां तलाशें या अन्य रुचियां अपनाएं। हो सकता है ये आपको जीवन में किसी नई राह पर ले जाए।
फंडा यह है कि 2020 ‘गैप ईयर’ बन सकता है और अलग-अलग उम्र वर्गों के लिए इसका मतलब अलग हो सकता है। लेकिन कुल मिलाकर यह तनाव न लेकर हमारे अस्तित्व के कारण पर विचार करने का साल है।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए9190000071 पर मिस्ड कॉल करें



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भूल-चूक लेनी-देनी, कहा-सुना माफ कर देना मेरे दोस्त

प्यारे दोस्त, नमस्कार, मैं यहां पर राजी-खुशी हूं और तुम्हारी कुशलता की हार्दिक कामना करता हूं। आशा है तुम्हें मेरी पिछली चिट्ठी मिल गई होगी, जो मैंने शब्दों में नहीं सपनों में लिखी थी। हालांकि, तुमने उस चिट्ठी का जवाब नहीं दिया, लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि जवाब की राह देखे बिना मैं तुम्हें अपने गांव का समाचार दे दूं। मैं जानता हूं ऊपर अकेले बैठे-बैठे और स्वर्ग-नरक का हिसाब करते-करते तुम भी उकता जाते होंगे, अब ऐसे में मेरी चिट्ठियां ही मनोरंजन का साधन हैं तुम्हारे लिए। एक बार तुमने लिखा था कि यहां गांव में हर आदमी के साथ तुम्हारा अलग संबंध है। कोई तुम्हें दोस्त मानता है, कोई पिता, कोई माता, कोई बिना किसी रूप के मानता है और कोई ऐसा भी है, जो मानता ही नहीं। तुम्हारा किसी के साथ कोई भी संबंध हो पर मेरे लिए तुम बचपन के दोस्त ही हो। हम में न कोई औपचारिकता है और न ही दिखावा, इसलिए हम दोनों एक-दूसरे से खुलके बात कर सकते हैं। तो बात ऐसी है दोस्त कि पिछले दिनों से अपना गांव सुनसान सा हुआ पड़ा है, किसी-किसी सड़क पर कुछ आना-जाना होगा पर मुझे पक्के तौर पर इसका कोई समाचार नहीं, तुम तो जानते हो कि सुनी-सुनाई बात पर मैं अधिक विश्वास नहीं करता। तुम सोचते होंगे कि अचानक चहल-पहल वाला गांव सुनसान कैसे हो गया? वो इसलिए कि पहाड़ वाले जमींदार और दरिया पार वाले जमींदार की आपस में नहीं बन रही तो उनकी खींच-तान में अपन पिसत हैं भईया।
वैसे तुम्हें तो यह बातें सबसे पहले पता होनी चाहिए, तुम तो रोज़ शाम को पाप-पुण्य विभाग के आंकड़े देखते होंगे। अच्छा एक बात सच-सच बताओ, तुम वहां जो फैसले लेते हो वो क्या सचमुच गांव वालों के पाप-पुण्य के हिसाब से लेते हो? कई बार मुझे संदेह होता है कि हमार गांव की तरह उधर भी कोनो घपला है। जो दिनदहाड़े लोगों का खून चूस रहे हैं, उनकी तुम जेबें भर रहे हो और जो दिहाड़ी लगाकर पेटभर रहा है उसकी रोज आधी रोटी कम कर रहे हो। अब खून चूसने को तो तुम अपने बही-खाते में पाप ही लिखते होंगे न? अच्छा दिहाड़ी से याद आया कि सरजू, बिन्नी, मुल्ला, किसनू, मंगला जैसे अपने गांव के कई दिहाड़ीदार अभी तक घर नहीं पहुंचे। वहां भी नहीं जिस शहर में दिहाड़ी लगाते थे। तुम्हें ऊपर से अगर किसी सड़क पर चलते हुए दिखें तो तुरंत सूचना देना। बिन्नी की मां बहुत बीमार है, किसनू की लुगाई परेशान, मुल्ला का तो चलो कोई रोने वाला ही नहीं। तुमने एक चिट्ठी में बताया था कि यहां सब के पास पैसा, बुद्धि, शोहरत और बाकी अकड़म-बकड़म तुम्हारे यहां से ही आता है, तो यार थोड़ा समझ से तो भेजा करो। गांव में सबको लगता है कि तोहार कूरियर वाला आठ-दस लोगों से अधिक किसी का पता-ठिकाना नहीं जानता। मेरी मानो तो उसे नौकरी से निकाल दो और कोई नया ईमानदार कूरियर वाला रख लो।
अभी वाला तो तुम्हारा नाम खराब कर रहा है। आस की पूंछ भी कब तक पकड़े रहे कोई। यह तुम्हारा स्वर्ग-नरक का धन्धा भले कुछ दिन और खींच ले तुम्हारी सरकार, मगर आस-विश्वास का पपलू तो अब फिट होने से रहा। अब इधर वालों को तुम गांव-गूंव के मत समझो, सब ससुरे एक नंबर के चालू हैं। ईब यो चालूपंती का सबूत ही है कि गांव को सुनसान देखकर बिन्नी, मुल्ला, किसनू के लिए जिसे देखो चंदा जमा कर रहा है। और तो और कुत्ते-बिल्ली के नाम पर थूक लगा-लगाकर हरी पत्तियां गिन रहे हैं। बताओ भई इसके लिए चंदे की क्या ज़रूरत दो-चार कुत्ते-बिल्लियों को तो खिला ही सकते हो, है कि नहीं? कोई पूछे, कि इस दौर में किसी की अनावश्यक जरूरतें तो आप पूरी नहीं ही करोगे? भाई मेरे सारे का सारा गांव लम्पट हो गया अपना। हर कोई अपनी छपरी पे टीन लगा रहा है। किसी को किसी से तनिक मोह नहीं। अच्छा एक बात और, तुम्हारे नाम पर यहां बेबात बवाल मचाते रहते हैं कुछ गांव वाले। बेबात लड़ाते रहते हैं-उनके लिए भी कोई संदेसा भेज देना, भले मेरी चिट्ठी में ही भेज देना।
अब तुम कहोगे यह महामारी-तालाबंदी मेरा ही संदेशा है, मेरे यार ऐसा कहकर हम पर जुल्म तो मतकर। जब तक तू एक-एक को पकड़कर अच्छी तरह से सबक नहीं सिखाता तब तक कोई नहीं समझने का, ये साफ-साफ सुन ले। चल अब लिखना बंद करता हूं। भूल-चूक, लेनी-देनी, कहा-सुना माफ़ कर देना। बाकी तुम गांव की चिंता मत करना हम जैसे भी हालात हों गुजारा कर लेते हैं। यही हमारी खूबी भी है और यही कमी भी है। पवन गुरु, पानी पिता और धरती मां की ओर से तुम्हें प्यार।
तुम्हारा दोस्त।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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पुराने दौर की अच्छी बातों के साथ नए देश को आकार देने का मौका

कोरोना वायरस इटली के लिए खुद के बारे में एक पुनर्विचार का अवसर है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद जो इटली सामने आएगा वह बहुत ही अलग होगा। इसे वायरस के आने से पहले की तुलना में बेहतर होने के बारे में क्यों नहीं सोच रहे हैं? प्रधानमंत्री जिएसेपे कॉन्टे ने पिछले सप्ताह एक बेढंगी प्रेस कॉन्फ्रेंस में सात हफ्ते से कोरोना वायरस काे नियंत्रित करने के लिए लगाए गए प्रतिबंधों में ढील की रूपरेखा पेश की। इसके तहत 4 मई से पार्क, फैक्टरियां और बिल्डिंग साइट फिर से खुल जाएंगी, लेकिन स्कूल सितंबर से पहले नहीं खुल सकेंगे। यह फैसला देश में संक्रमितों की संख्या घटने के बाद लिया गया है। अब गहन चिकित्सा केंद्रों मेंभर्ती मरीजों की संख्या भी घट गई है। रविवार तक इटली में कोरोना वायरस के कुल 2,09,328 मामले आ चुके थे, जबकि 28,710 लोगों की मौत हो चुकी है। मरने वालों की यह संख्या यूरोप में सर्वाधिक है, हालांकि 28,131 मौतों के साथ दूसरे स्थान पर चल रहा ब्रिटेन जल्द ही इटली को पीछे छोड़ सकता है। इटली में 71,252 लोग अब तक ठीक भी हो चुके हैं।
हालांकि, संक्रमितों और मरने वालों की संख्या अभी भी काफी है, लेकिन प्रतिबंधों को खत्म करने की जरूरत इससे कहीं अधिक है। देश को तमाम चीजों को दोबारा शुरू करना ही होगा। सात हफ्तों के लॉकडाउन का आर्थिक नुकसान बहुत बड़ा है। रीओपनिंग के इस दौर में इटली के लोग सरकार से एकता और दक्षता की उम्मीद करते हैं। इसका मतलब है कि उद्यमियों को गतिविधियां शुरू करने में मदद और प्रक्रियाओं के बारे में नौकरशाही आदेशों का सरलीकरण हो। आशंका है कि 2020 में इटली की जीडीपी में सात फीसदी की कमी आएगी। हालांकि, देश जिस नए दौर का सामना करने वाला है, वह कठिनाइयों भरा लेकिन साथ ही बड़े और खास अवसरों वाला हो सकता है। इस दौर में नई शुरुआत के साथ ही जटिल सरकारी तंत्र का युक्तिकरण और प्रशासनिक स्टाफ का व्यावसायीकरण भी होना चाहिए। काेरोना वायरस इटली के लिए उसके स्वास्थ्य सिस्टम को नया आकार देने का भी मौका हो सकता है। पिछले दस वर्षों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के मद से कम किए गए 37 अरब यूरो के बाद अब इस संकट ने हम सभी के लिए हेल्थकेयर के महत्व को फिर से परिभाषित किया है और हमें उम्मीद है कि इन अनुभवों के बाद राजनेता जनस्वास्थ्य का महत्व पहचानेंगे।
महामारी ने हमारी आदतों और जीने के तरीकों को गहराई से बदल दिया है। यह मुश्किल समय अपने समय की चुनौतियों को बेहतर तरीके से पहचानने, कुछ सबक सीखने और अपने जीवन पर दोबारा से सोचने का भी अवसर है। यह महामारी उपभोग के तरीकों, कचरा प्रबंधन, गैसों का उत्सर्जन, ट्रैफिक और प्रदूषण पर भी सवाल उठा रही है। राजनेताओं को चक्रीय अर्थव्यवस्था, कार्बन के उत्सर्जन पर रोक और टिकाऊ गतिशीलता पर गंभीरता से सोचना होगा। इस वायरस ने यह भी दिखाया है कि विभिन्न देशों व महाद्वीपों को जोड़ने वाले अापसी संपर्कों को मैनेज करना कितना जटिल है। ये संपर्क जहां एक ओर सौभाग्य लाते हैं, वहीं दूसरी ओर से यह कमजोर होते हैं और एक तरह से हरेक को नकारात्मक गतिविधियों का बंधक बना लेते हैं। इसलिए सप्लाई चेन के स्थानीय दृष्टिकाेण पर रणनीतिक तौर पर पुनर्विचार करना महत्वपूर्ण है, ताकि अापात स्थिति और जरूरी होने आत्मनिर्भरता को बढ़ाया जा सके। हम जरा मास्क का ही मसला लें, कोविड संकट के समय इटली या कहें कि पूरे यूरोप में कोई मास्क बनाता ही नहीं था। इनके एशिया से आने तक इंतजार करना मजबूरी थी। एेसा ही अन्य सेनेटरी उपकरणों को लेकर हुआ।
यह मौका सिर्फ हमारे देश के पुनर्विचार करने का नहीं है, बल्कि पूरे समाज को मानवता को केंद्र में रखकर एक टिकाऊ तरीके के बारे में सोचना चाहिए, केवल जीडीपी व आंकड़ों के बारे में ही नहीं। मानव केंद्रित समाज को दोबारा से बनाने के लिए नौकरशाही के सरलीकरण व प्रभावी स्वास्थ्य सिस्टम के साथ ही मानवीय जरूरतों को केंद्र में होना चाहिए न कि बेलगाम उपभोक्तावाद को। इसके लिए इच्छा शक्ति और रणनीति की जरूरत है। इसलिए राजनेताओं की एकजुटता इतनी महत्वपूर्ण है। लॉकडाउन से बाहर निकलने की रणनीति अत्यंत जटिल है। देश को उबरने में बहुत लंबा समय लेगेगा। काेरोना वायरस कार्य दक्षता के नाम पर इटली के लिए खुद के नवीनीकरण का मौका है। लॉकडाउन के बाद जो देश निकलकर आएगा वह निश्चित ही अलग होगा। सवाल यही है कि क्या राजनीति फिर से पुराने ढर्रे पर वापसी करेगी या फिर पुराने समय की अच्छी बाताें को लेकर एक नए देश को आकार देने के बारे में सोचेगी। यह एक पसंद तथा राजनीतिक इच्छा शक्ति और परवाह करने का मसला है। अनेक चीजें करनी होंगी और यही सही समय है। अगर अब नहीं तो फिर कब?
(यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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60% शहरी और 89% ग्रामीण घरों में सीधे पानी की सुविधा नहीं; 60% भारतीय परिवार खाने से पहले बिना साबुन के ही हाथ धोते हैं

चीन के वुहान शहर से निकला कोरोनावायरस 5 महीने के भीतर ही दुनिया के लगभग सभी देशों में पहुंच गया है। अब तक 30 लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं और करीब 2.5 लाख लोगों की मौत हो गई है। कोरोना का अभी कोई असरदार इलाज नहीं मिल सका है। जिस तरह इसको फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन ही एकमात्र तरीका है। उसी तरह से इससे बचे रहने का भी एकमात्र तरीका साफ-सफाई और बार-बार हाथ धोना है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोरोना से बचने के लिए दिन में बार-बार कम से कम 20 सेकंड तक अच्छी तरह साबुन से हाथ धोना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से इस तरह की एडवाइजरी आ चुकी है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर हाथ धोने के लिए पानी ही न हो, तो क्या करें? मुंह पर हाथ रखकर खांसने या छींकने के बाद, आंख, नाक या मुंह पर हाथ लगाने के बाद हाथ धोना चाहिए। इसके अलावा किसी अजनबी व्यक्ति से संपर्क में आने पर, शौच के बाद, किसी सरफेस पर हाथ लगने के बाद और खाना खाने से पहले भी हाथ धोना चाहिए।

एक व्यक्ति को हाथ धोने के लिए दिन में 20 पानी चाहिए

अगर डब्ल्यूएचओ के तय मानकों पर बार-बार हाथ धोएं जाए तो एक दिन में कम से कम एक व्यक्ति10 बार हाथ धोएगा। एक व्यक्ति को 20 सेकंड तक हाथ धोने के लिए कम से कम 2 लीटर पानी की जरूरत है। मतलब दिनभर में 20 लीटर। इस तरह से 4 लोगों के एक परिवार को दिन में 10 बार हाथ धोने के लिए 80 लीटर पानी चाहिए। लेकिन, सच्चाई तो ये है कि भारत में आधे से ज्यादा आबादी के पास पानी की कोई सुविधा ही नहीं है।

आंकड़े क्या कहते हैं?
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ ने जुलाई से दिसंबर 2018 के बीच एक सर्वे किया था। इस सर्वे को पिछले साल ही जारी किया गया है। इस सर्वे के मुताबिक, देश के सिर्फ 21.4% घरों में ही पाइप के जरिए सीधे पानी आता है। यानी, 79% घर ऐसे हैं, जहां सीधे पानी नहीं आता। इसका मतलब ये हुआ कि इन्हें पानी के लिए ट्यूबवेल, हैंडपंप, कुएं, वॉटर टैंकर के भरोसे रहना पड़ता है।

शहरी : देश की 20% आबादी ही शहरों में रहती है। शहरों के 40.9% घरों में ही पाइपलाइन के जरिए पानी आता है। यानी, 59% परिवार पानी के लिए दूसरे सोर्स पर निर्भर हैं।

ग्रामीण : अभी भी 80% आबादी ग्रामीण इलाकों में ही रहती है। यहां के सिर्फ 11.3% घरों में ही पाइपलाइन के जरिए पानी आता है। यानी, यहां के 89% परिवार पानी के लिए दूसरे सोर्स पर निर्भर हैं।

सब साबुन से हाथ धोने की बात कह रहे, लेकिन हमारे यहां 60% से ज्यादा परिवारों में खाना खाने से पहले हाथ साबुन से नहीं धोते
एनएसएसओ के इसी सर्वे के मुताबिक, देश के सिर्फ 35.8% परिवार ही ऐसे हैं, जहां खाना खाने से पहले हाथ धोने के लिए साबुन या डिटर्जेंस का इस्तेमाल होता है। जबकि, 60.4% परिवार ऐसे हैं, जहां खाने से पहले सिर्फ पानी से ही हाथ धो लिए जाते हैं।

कितने घरों में खाने से पहले साबुन से हाथ धोते हैं लोग?

साबुन/डिटर्जेंट से सिर्फ पानी से
देश 35.8% 60.4%
शहरी 56.0% 42.1%
ग्रामीण 25.3% 69.9%

इसी तरह से 74% परिवार में ही शौच के बाद साबुन या डिटर्जेंट से हाथ धोए जाते हैं। जबकि, 13.4% परिवारों में शौच के बाद सिर्फ पानी से ही हाथ धुलते हैं।

कितने घरों में शौच के बादहाथ धोने के लिए साबुन भी नहीं?

साबुन/डिटर्जेंट से सिर्फ पानी से
देश 74.1% 13.4%
शहरी 88.3% 9.8%
ग्रामीण 66.8% 15.2%

एक सर्वे ये भी; 40% भारतीयों को टॉयलेट के बाद हाथ धोने की आदत ही नहीं
यूके की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी ने 24 मार्च को एक सर्वे जारी किया था। इस सर्वे में 63 देशों को शामिल किया गया था। सर्वे में शामिल लोगों से पूछा गया कि टॉयलेट के बाद हाथ धोते हैं या नहीं? हैरानी वाली बात ये है कि, इसमें 40% भारतीयों ने माना कि टॉयलेट के बाद उन्हें हाथ धोने की आदत ही नहीं है। इस मामले में भारत 10वें नंबर पर था।

चीन, जहां से कोरोनावायरस निकला, वहां के 77% लोग ऐसे थे, जिन्होंने सर्वे में टॉयलेट के बाद हाथ न धोने की बात मानी। चीन के बाद जापान के 70%, दक्षिण कोरिया के 61% और नीदरलैंड के 50% लोगों ने यही बात मानी थी। सर्वे में अमेरिका का स्कोर सबसे अच्छा रहा। वहां के 23% लोगों ने ही माना कि वो टॉयलेट के बाद हाथ नहीं धोते।



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Coronavirus (India) Update, COVID-19 News; Rural Area Water Supply and Sanitation In Uttar Pradesh Maharashtra Tamil Nadu Bihar West Bengal




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मानसरोवर में 90 और अमरनाथ में 45 किमी की चढ़ाई, 12 साल में एक बार होने वाली नंदा देवी यात्रा में 280 किमी का सफर 3 हफ्ते में

नेशनल लॉकडाउन के कारण अमरनाथ यात्रा से लेकर कैलाश मानसरोवर तक की यात्राओं पर संशय के बादल हैं। केदारनाथ के कपाट खुल चुके हैं लेकिन अभी वहां जाने पर रोक है। अमरनाथ, केदारनाथ और मानसरोवर तीनों ही दुर्गम यात्राएं मानी जाती हैं। यहां पहुंचना आसान नहीं है। पर्वतों के खतरों से भरे रास्तों से गुजरना होता है। लेकिन, ये तीन ही अकेले ऐसे तीर्थ नहीं हैं। दर्जन भर से ज्यादा ऐसे कठिन रास्तों वाले तीर्थ हैं, जहां पहुंचना हर किसी के बूते का नहीं है। कुछ स्थान तो ऐसे हैं, जहां पहुंचने में एक दिन से लेकर एक हफ्ते तक का समय लग सकता है।

ऊंचे पर्वत क्षेत्रों के मंदिर आम भक्तों के लिए कब खोले जाएंगे, ये स्पष्ट नहीं है। हाल ही में केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनौत्री धाम के कपाट खुल गए हैं, बद्रीनाथ के कपाट भी खुलने वाले हैं, लेकिन यहां आम भक्त अभी दर्शन नहीं कर पाएंगे। भारत के 14 ऐसे दुर्गम तीर्थों जहां हर साल लाखों भक्त पहुंचते हैं, लेकिन इस साल ये यात्राएं अभी तक बंद हैं...

अमरनाथ यात्रा

सबसे कठिन तीर्थ यात्राओं में से एक है अमरनाथ की यात्रा। से कश्मीर के बलटाल और पहलगाम से अमरनाथ यात्रा शुरू होती है। ये तीर्थ अनंतनाग जिले में स्थित है। अमरनाथ की गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग बनता है। यहां पहुंचने का रास्ता चुनौतियों से भरा है। प्रतिकूल मौसम, लैंडस्लाइड, ऑक्सीजन की कमी जैसी समस्याओं के बावजूद लाखों भक्त यहां पहुंचते हैं। शिवजी के इस तीर्थ का इतिहास हजारों साल पुराना है। यहां स्थित शिवलिंग पर लगातार बर्फ की बूंदें टपकती रहती हैं, जिससे 10-12 फीट ऊंचा शिवलिंग निर्मित होता है। गुफा में शिवलिंग के साथ ही श्रीगणेश, पार्वती और भैरव के हिमखंड भी निर्मित होते हैं।

हेमकुंड साहिब

उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित हेमकुंड साहिब सिखों का प्रमुख धार्मिक स्थल है। यहां बर्फ की बनी झील है जो सात विशाल पर्वतों से घिरी हुई है, जिन्हें हेमकुंड पर्वत भी कहते हैं। मान्यता है कि हेमकुंड साहिब में सिखों के दसवें गुरु गुरुगोबिंद सिंह ने करीब 20 सालों तक तपस्या की थी। जहां गुरुजी ने तप किया था, वहीं गुरुद्वारा बना हुआ है। यहां स्थित सरोवर को हेम सरोवर कहते हैं। जून से अक्टूबर तक हेमकुंड साहिब का मौसम ट्रैकिंग के लिए अनुकूल रहता है। इस दौरान अधिकतम तापमान 25 डिग्री और न्यूनतम तापमान -4 डिग्री तक हो जाता है। यहां पहुंचने के लिए ग्लेशियर और बर्फ से ढंके रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है।

कैलाश मानसरोवर

शिवजी का वास कैलाश पर्वत माना गया है और ये पर्वत चीन के कब्जे वाले तिब्बत में स्थित है। ये यात्रा सबसे कठिन तीर्थ यात्राओं में से एक है। यहां एक सरोवर है, जिसे मानसरोवर कहते हैं। मान्यता है कि यहीं माता पार्वती स्नान करती हैं। प्रचलित कथाओं के अनुसार ये सरोवर ब्रह्माजी के मन से उत्पन्न हुआ था। इसके पास ही कैलाश पर्वत स्थित है। इस जगह को हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म में भी बहुत पवित्र माना जाता है। मानसरोवर का नीला पानी पर्यटकों के लिए आकर्षण और आस्था का केंद्र है। यह यात्रा पारंपरिक रूप से लिपुलेख उत्तराखंड रूट और सिक्किम नाथुला के नए रूट से होती है।

वैष्णोदेवी

जम्मू के रियासी जिले में वैष्णोदेवी का मंदिर स्थित है। ये मंदिर त्रिकुटा पर्वत पर स्थित है। यहां भैरव घाटी में भैरव मंदिर स्थित है। मान्यता के अनुसार यहां स्थित पुरानी गुफा में भैरव का शरीर मौजूद है। माता ने यहीं पर भैरव को अपने त्रिशूल से मारा था और उसका सिर उड़कर भैरव घाटी में चला गया और शरीर इस गुफा में रह गया था। प्राचीन गुफा में गंगा जल प्रवाहित होता रहता है। वैष्णो देवी मंदिर तक पहुंचने के लिए कई पड़ाव पार करने होते हैं। इन पड़ावों में से एक है आदि कुंवारी या आद्यकुंवारी।

केदारनाथ

बुधवार, 29 अप्रैल को केदारनाथ धाम के कपाट खुल गए हैं। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग केदारनाथ है। ये मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। मान्यता है कि प्राचीन समय में बदरीवन में विष्णुजी के अवतार नर-नारायण इस क्षेत्र में पार्थिव शिवलिंग बनाकर पूजा करते थे। नर-नारायण की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए थे। केदारनाथ मंदिर का निर्माण पाण्डव वंश के राजा जनमेजय द्वारा करवाया गया था और आदि गुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर का जिर्णोद्धार करवाया था। गौरीकुंड से केदारनाथ के लिए 16 किमी की ट्रेकिंग शुरू होती है। मंदाकिनी नदी के किनारे बेहद खूबसूरत दृश्य दिखाई देते हैं। एक यात्रा गुप्तकाशी से भी होती है। नए रूट में सीतापुर या सोनप्रयाग से यात्रा शुरू होती है। गुप्तकाशी रूट पर ट्रैकिंग ज्यादा करना होती है।

श्रीखंड महादेव

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में श्रीखंड महादेव शिवलिंग स्थित है। यहां शिवलिंग की ऊंचाई करीब 75 फीट है। इस यात्रा के लिए जाओं क्षेत्र में पहुंचना होता है। यहां से करीब 32 किमी की ट्रेकिंग है। मार्ग में जाओं में माता पार्वती का मंदिर, परशुराम मंदिर, दक्षिणेश्वर महादेव, हनुमान मंदिर स्थित हैं। मान्यता है शिवजी से भस्मासुर को वरदान दिया था कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। तब भगवान विष्णु ने भस्मासुर को इसी स्थान पर नृत्य करने के लिए राजी किया था। नृत्य करते-करते भस्मासुर ने खुद का हाथ अपने सिर पर ही रख लिया था, जिससे वह भस्म हो गया।

नंदादेवी यात्रा

उत्तराखंड के चमोली क्षेत्र में हर 12 साल में एक बार नंदादेवी की यात्रा होती है। नंदा देवी पर्वत तक जानेवाली यह यात्रा छोटे गांव और मंदिरों से होकर गुजरती है। इसकी शुरूआत कर्णप्रयाग के नौटी गांव से होती है। 2014 में ये यात्रा आयोजित हुई थी। मान्यता है कि हर 12 साल में नंदा मां यानी देवी पार्वती अपने मायके पहुंचती हैं और कुछ दिन वहां रूकने के बाद भक्तों के द्वारा नंदा को घुंघटी पर्वत तक छोड़ा जाता है। घुंघटी पर्वत को शिव का निवास स्थान और नंदा का सुसराल माना जाता है।

मणिमहेश

हिमाचल के चंबा जिले में स्थित है मणिमहेश। यहां शिवजी मणि के रूप में दर्शन देते है। मंदिर भरमौर क्षेत्र में है। भरमौर मरु वंश के राजा मरुवर्मा की राजधानी थी। मणिमहेश जाने के लिए भी बुद्धिल घाटी से होकर जाना पड़ता है। यहां स्थित झील के दर्शन के लिए भक्त पहुंचते हैं।

शिखरजी

झारखंड के गिरीडीह जिले में जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ शिखरजी स्थित है। ये मंदिर झारखंड की सबसे ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। इस क्षेत्र में जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थंकरों ने मोक्ष प्राप्त किया था।

यमनोत्री

यमुनादेवी का ये मंदिर उत्तराखंड के चारधामों में से एक है। यमुनोत्री मंदिर उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में स्थित है। ये यमुना नदी का उद्गम स्थल है और ऊंची पर्वतों पर स्थित है। हनुमान चट्टी से 6 किमी की ट्रेकिंग करनी होती है और जानकी चट्टी करीब 4 किमी ट्रेकिंग करनी होती है।

फुगताल या फुक्ताल

लद्दाख के जांस्कर क्षेत्र में स्थित है फुगताल यानी फुक्ताल। यहां 3850 मीटर ऊंचाई पर बौद्ध मठ स्थित है। ये मंदिर 12वीं शताब्दी का माना जाता है।

तुंगनाथ

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में तुंगनाथ शिव मंदिर स्थित है। मंदिर के संबंध में मान्यता है कि ये हजार साल पुराना है। यहां मंदाकिनी नदी और अलकनंदा नदी बहती है। इस क्षेत्र में चोपटा चंद्रशिला ट्रेक पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

गौमुख

उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री स्थित है। यहां से करीब 18 किमी दूर गौमुख है। यहीं से गंगा का उद्गम माना जाता है। इस क्षेत्र में गंगा को भागीरथी कहते हैं। ये क्षेत्र उत्तराखंड के चार धामों में से एक है।

रुद्रनाथ

रुद्रनाथ मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल में स्थित है। यहां शिवजी का मंदिर है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 3,600 मीटर है। मान्यता है कि रुद्रनाथ मंदिर की स्थापना पांडवों द्वारा की गई थी। सभी पांडव यहां शिवजी की खोज में पहुंचे थे। महाभारत युद्ध में मारे गए यौद्धाओं के पाप के प्रायश्चित के लिए पांडव यहां आए थे।



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Pilgrimage in India | 14 Famous Pilgrimage in India Full List Updates; Amarnath Yatra to Kailash Mansarovar




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हालात ठीक हैं, लेकिन लॉकडाउन बढ़ाकर जोखिम ले रही है सरकार

लॉकडाउन कितना सफल रहा? अगर पूर्ण लॉकडाउन नहीं होता तो स्थिति कितनी खराब होती? क्या होगा जब इसमें छूट मिलेगी? 138 करोड़ के देश में, जहां अधिकतर गरीब लोग हों और कोई भी छूट कैसे ले सकते हैं? क्या प्रधानमंत्री ने नहीं कहा था- ‘जान है जहान है’? जान तो है, हम सब जीवित हैं। किसी भी प्रमुख देश की तुलना में कोरोना वायरस से सबसे कम मौत भारत में हो रही हैं। इसलिए अपने भगवान को शुक्रिया अदा कीजिए, प्रधानमंत्री के प्रति आभार व्यक्त कीजिए और वापस घर में बंद हो जाइए। क्या सचमुच? लाॅकडाउन के 40 दिन से अधिक पूरे होने के बाद भी हमें ऐसा ही करना चाहिए?

हम सभी लोग जिंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हमारी आजीविका तो ठप है। कई लोगाें की अाजीविका वापस भी नहीं आने वाली। करोड़ों लोग जो 1991 के बाद गरीबी रेखा से ऊपर आने में कामयाब रहे थे वे किसी भी वक्त दोबारा गरीबी रेखा के नीचे फिसल सकते हैं। हम जिंदा हैं, लेकिन अमिताभ बच्चन का वह संवाद याद कीजिए जो उन्होंने 1979 की फिल्म मिस्टर नटवरलाल में बोला था- ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’
जरा पांच दशक पीछे चलते हैं। गोपालदास नीरज (1925-2018) को गहरी उदासी का कवि माना जाता है। हालांकि, उन्होंने कई रूमानी गीत भी लिखे हैं। इनमें लिखे जो खत तुझे (कन्यादान) और फूलों के रंग से (प्रेम पुजारी, 1970) शामिल हैं। परंतु जिस गीत ने उनकी कविता को अमर बनाया वह एक दुखभरा गीत है- ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’। 1966 में आई ‘नई उम्र की नई फसल’ फिल्म का यह गीत मोहम्मद रफी ने गाया था। इस पर खूब पैरोडी भी बनीं। ऐसी ही एक पैरोडी थी- मर गया मरीज, हम बुखार देखते रहे।

मैं बुखार और कोरोना वायरस का संबंध जानता हूं। मुझ पर यह आरोप भी लग सकता है कि मैं एक त्रासदी का मखौल बना रहा हूं, परंतु लगातार बढ़ाया जा रहा लॉकडाउन भी तो यही कर रहा है। अगर वायरस हमें नहीं मारेगा तो हम बेरोजगारी, भूख, अकेलेपन, अवसाद और स्वाभिमान के नष्ट होने से मर जाएंगे। यह समय दोबारा से काम शुरू करने का है। लेकिन, सरकार ने लॉकडाउन दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया है और जिस तरह से चुनिंदा जगहों को खोला जा रहा है, उससे साफ है कि हालात जल्दी नहीं बदलेंगे।
संभव है कि भारत के पास अमेरिका की तरह नकदी का भंडार न हो, न ही नई मुद्रा छापने की गुंजाइश हो, लेकिन हमारे पास थलसेना, नौसेना और वायुसेना तो हैं न जो हमारे जज्बे में जान फूंकेंगी। फ्लाईपास्ट, बैंड, कोराना वायरस पीड़ितों का इलाज करने वाले अस्पतालों पर फूल बरसाते हेलिकॉप्टर जैसे विचार आकर्षक हैं। परंतु जब लाखों गरीब मजदूर आज भी पैदल अपने घरों को लौट रहे हैं तो क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसा फ्रांस की महारानी ने कभी कहा था- ‘उनके पास रोटी नहीं है, तो उनसे केक खाने को कहो।’ उन्हें यह आश्वस्त करने की जरूरत है कि उनकी नौकरी नहीं जा रही है और काम जल्द शुरू होने वाला है।
वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना रोज जो ब्रीफिंग करती थी, उसे प्रेस ने पांच बजे की मूर्खता नाम दिया था। ऐसा तब होता है, जब सरकारें नागरिकों को बच्चा समझने लगती हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की कोविड-19 के हालात को लेकर होने वाली ब्रीफिंग पर नजर डालिए, वहां केवल संक्रमण और मृत्यु के आंकड़े और यह बताया जाता है कि शेष दुनिया की तुलना में हम कितना अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। सूचनाओं की इतनी कमी थी कि एक दिन मैं भी पीआईबी की इस ब्रीफिंग में शामिल हुआ। मैंने एक सवाल पूछा कि ‘कोविड-19 के मौजूदा संक्रमितों में से कितने वेंटिलेटर पर हैं?’ वहां मौजूद वैज्ञानिक/चिकित्सक ने इसका उत्तर नहीं दिया, बल्कि एक अफसरशाह ने दिया। वही पुराने अफसरशाही वाले अंदाज में, ‘मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा, लेकिन आप अगर मेरा नाम पूछेंगे तो मैं जन्मतिथि बताऊंगा।’
देश में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के तीन महीने बाद हमें रोज के आंकड़ों के अलावा भी जानकारी चाहिए। हमें आगे की राह पर नजर डालनी होगी कि हालात सामान्य कैसे होंगे। हम तो यही देखकर खुश हैं कि लोग लॉकडाउन के बिना सोचे-समझे लिए गए तुगलकी फैसले का कितने आज्ञाकारी ढंग से पालन कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि हम डरे हुए हैं। 138 करोड़ लोगों का यह देश जिसे दुनियाभर में उनकी आकांक्षाओं और उद्यमिता के लिए जाना जाता है, उसे यह भी पता नहीं है कि दो हफ्ते के बाद क्या होने जा रहा है।
हम जानते हैं कि अत्यंत बीमार मरीज को चिकित्सकीय कोमा में रखा जाता है, ताकि उसका शरीर स्वस्थ हो सके। परंतु आपको यह पता होना चाहिए कि इसे कब खत्म करना है, ताकि बीमार खुद से जिंदा रहे। यदि उसे कोमा में रहने देंगे और हर बार उसके सभी प्रमुख अंगों के ठीक से काम करने पर आप खुश हांेगे तो डर यह है कि मरीज मर जाए और आप बुखार नापते रह जाएं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Things are fine, but the government is taking risks by increasing the lockdown




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हमारी जीवनशैली रोक रही कोरोना का प्रसार

हर बुराई को एक न एक दिन खत्म होना होता है। समझदार व्यक्ति दूसरी बुराई कब पनपेगी, इस अंतर को बढ़ा देता है। बुराइयां कभी खत्म होंगी भी नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि आप उसे किस योग्यता से निपटाते हैं। यदि कोरोना को एक बुराई मान लें तो इस समय समझदारी यह होगी कि इसे किस ताकत के साथ निपटाएं। तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए एक पंक्ति लिखी है- ‘बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो।।’ मेघनाद के मरने के बाद हनुमानजी उसे आसानी से उठाकर लंका के द्वार पर छोड़ आए। मेघनाद भी एक बुराई था, इसलिए मरना तो था ही।

आज कोरोनारूपी बुराई या बीमारी हमारे जीवन में किन कारणों से आई, यह इस पर बहस का समय नहीं है। हमें उसके लक्षण पकड़ना हैं। मरते-मरते मेघनाद ने राम कहां है.., लक्ष्मण कहां है.. ऐसा पूछा था। उसे इन दोनों का नाम लेते देख अंगद और हनुमान ने कहा था- तू धन्य है जो लक्ष्मणजी के हाथ मारा गया और अंत समय में श्रीराम को याद किया।

भारत की धरती पर इस महामारी से जो संघर्ष हो रहा है, उसमें हमारा अध्यात्म, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा के साधन और भारतीयों की शाकाहारी जीवनशैली ही इसे पसरने से रोक रहे हैं। ऐसे चिंतन को, ऐसे विचारों को, ऐसी जीवनशैली को जीवन से जोड़ें और ज्ञात-अज्ञात जो भी ताकत आपके पास है, उसे पूरी तरह से झोंकते हुए मेघनाद ही की तरह कोरोना को भी मार दें, समाप्त कर दें, कहीं दूर पटक आएं।

जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें



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कोरोना की वजह पर मौलाना दोस्त के दावों से इमरान खान सवालों में

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हाल ही में चीन के साथ चल रहे आरोप-प्रत्यारोपों को यह कहकर तेज कर दिया कि उनके पास इस बात के सबूत हैं कि यह वायरस चीन की एक प्रयोगशाला से निकला है। उन्हांेने वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की ओर अंगुली उठाई है, लेकिन उनके ही देश में बड़ी संख्या में लोग उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं कि कोई ट्रम्प के मन में चीन के प्रति गलतफहमी पैदा कर रहा है। केवल एक ही आदमी है, जो इन गलतफहमियों को दूर कर सकता है। ट्रम्प को मौलाना तारीक जमील से मिलना चाहिए। यह पाकिस्तानी मौलाना उन्हें कोरोना वायरस का सच बता सकता है। अाप पूछोगे कि मौलाना तारीक जमील कौन है? तारीक जमील एक मुस्लिम उपदेशक है और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान का करीबी दोस्त है।

कुछ लोग कहते हैं कि वह एक चापलूस है। वह नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ के भी करीब रहा। आजकल वह इमरान के करीब है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति के काफी करीब हैं। अगर ट्रम्प चाहें तो इमरान खान निश्चित ही ट्रम्प की मौलाना से वीडियो कॉल करना चाहेंगे। इस मौलाना ने कोरोना वायरस के बारे में तमाम वैज्ञानिक दावों को नकार दिया है। उसने खुलासा किया है कि इस महामारी की असली वजह महिलाओं के छोटे कपड़े और नग्नता है। चौंकिए नहीं, मैं आपको आंखों देखी बता रहा हूं।
मौलाना ने यह ऐतिहासिक दावा पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री इमरान खान के सामने किया। सौभाग्य से मैं वहीं था। प्रधानमंत्री ने गरीबों के लिए चंदा जुटाने के लिए तीन घंटे की एक टेलीथॉन में शामिल होने के लिए अन्य पत्रकारों के साथ मुझे आमंत्रित किया था। इस टेलीथॉन को लगभग सभी टीवी चैनलों ने प्रसारित किया था। इस लाइव कार्यक्रम में दुनियाभर से लोगों ने सीधे प्रधानमंत्री से बात की और लाखों रुपए दान दिए। आखिर में मौलाना तारीक काे दुआ पढ़ने के लिए बुलाया गया। मौलाना ने सीधे दुआ पढ़ने की बजाय इस महामारी के फैलने की वजहों को बताना शुरू कर दिया। सबसे पहले मौलाना ने मीडिया के झूठ को महामारी के लिए दोष दिया। जब उसने कहा कि पूरी दुनिया और पाकिस्तान का मीडिया झूठ बोलता है, मैंने प्रधानमंत्री की ओर देखा, जो मेरे बगल में ही बैठे थे। उन्होंने मेरी आंखों में छिपे सवाल को पढ़ लिया और दुआ के बहाने अपनी आंखें बंद कर लीं।

मौलाना ने कहा कि ‘मैंने एक चैनल के मालिक को उसके चैनल पर झूठ को रोकने के लिए कहा तो उसने जवाब दिया कि अगर मैं झूठ बंद कर दूंगा तो मेरा चैनल ही बंद हो जाएगा’। मौलाना ने महामारी की एक और वजह बताते हुए कहा कि यह समाज में महिलाओं में बढ़ती अश्लीलता, नग्नता और अशिष्टता पर अल्लाह का कहर है। मौलाना इसके बाद रोने लगे। मैं सोच रहा था कि पाकिस्तान में अधिकांश लोगों को यह संक्रमण लाहौर में तब्लीगी जमात के कार्यक्रम से हुआ है। पाकिस्तानी पंजाब के आधे से अधिक मरीज तब्लीगी जमात से संबंधित हैैं। इसमें भाग लेने वालों ने पूरे पाकिस्तान में इस वायरस को फैला दिया। इनमें से सभी ने कपड़े पहने हुए थे, लेकिन फिर भी वे अल्लाह के निशाने पर आ गए। पवित्र मक्का और मदीना इस महामारी की वजह से बंद हैं। सऊदी अरब में तो कोई नग्नता नहीं है, फिर इन शहरों को वायरस निशाना क्यों बना रहा है? मैं कुछ पूछना चाहता था, लेकिन तभी मौलाना ने रोना बंद कर दिया और कार्यक्रम खत्म हो गया।
उसी शाम अपने चैनल पर एक कार्यक्रम में मैं मौलाना से जानना चाहता था कि वह कौन सा चैनल मालिक है, जो झूठ के बिना अपने चैनल को नहीं चला सकता। हालांकि, अगले दिन मौलाना ने एक अन्य चैनल पर पत्रकार मोहम्मद मलिक के कार्यक्रम में मुझसे और मीडिया के लाेगों से माफी मांगी। हालांकि, उन्होंने उस चैनल मालिक का नाम बताने से इनकार कर दिया। मौलाना ने मीडिया से तो माफी मांगी पर महिलाआें से नहीं। एक वरिष्ठ मंत्री शीरीन मजारी ने मौलाना की महिलाओं पर की गई टिप्पणी को तत्काल ही नकार दिया।

आश्चर्यजनक रूप से संसदीय कार्यमंत्री अली मोहम्मद खान सहित सरकार के अनेक लोग मौलाना से सहमत नजर आए। असल में मौलाना ने इमरान की कैबिनेट को ही दाेफाड़ कर दिया। ध्यान रहे कि सभी मौलानाओं और तब्लीगी जमात के सभी सदस्यों ने मौलाना के विचारों का समर्थन नहीं किया। पाकिस्तान में अधिकांश धार्मिक विद्वान इस महामारी के पीछे वैज्ञानिक वजहों को ही मानते हैं, लेकिन मौलाना की दोस्ती की खातिर इमरान खान की चुप्पी से कई सवाल खड़े होते हैं।
कई लोगों का कहना है कि एक देश के प्रधानमंत्री को ऐसे विवादित लोगों को महिलाआंे को नीचा दिखाने का माैका नहीं देना चाहिए था। ये लोग धर्म के नाम पर समाज को बांटते हैं। महामारी का धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इमरान की चुप्पी से लगता है कि वह मौलाना की अवैज्ञानिक बातों से सहमत हैं। अगर ऐसा है तो वह ट्रम्प की मौलाना से बात कराकर वायरस पर चीन के प्रति उनके ‘भ्रम’ को दूर क्यों नहीं कर देते।

(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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प्रवासी मजदूर गरीब नहीं हैं, हम उनकी अमीरी देख नहीं पा रहे!

इसी महीने में 42 साल पहले जब मैं 18 साल का हुआ था तो मेरे पिता ने मुझे जन्मदिन की बधाई दी थी और कहा था- ‘अब तुम्हें नौकरी तलाशनी चाहिए। मैं जो कर सकता था, कर चुका। आज से कुछ करने की और मुझ पर निर्भर न रहने की तैयारी शुरू कर दो। यानी अब तुम्हें कमाना शुरू करना पड़ेगा। अब से तुम्हारे भविष्य की पढ़ाई और जीवनयापन की जिम्मेदारी तुम पर ही है। मैं किसी से पैसे उधार नहीं लूंगा, क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं है। बॉम्बे, मद्रास (जैसा कि इसे तब कहते थे) और दिल्ली में फैले अपने सभी चाचा-मामा और रिश्तेदारों की मदद लो और जिंदगी में गंभीर हो जाओ।’ उन्होंने मेरे कंधे पर थपकी दी और कहा ‘मैं जानता हूं तुम ऐसा कर लोगे।’
खुलकर कहूं तो उस दिन मुझे कुछ हो गया था। मेरी मां पूछती रहीं, ‘क्या हुआ, तुम कुछ खा क्यों नहीं रहे?’ लेकिन मैं जवाब न दे सका। मेरे अदंर से आवाज आई कि यह जिम्मेदार व्यक्ति की तरह व्यवहार करने का समय है। तब तक मेरे सामने एक ही हीरो था, मैं जिसकी नकल कर सकता था। ये मेरे पिता थे, लेकिन उनकी नकल करना मुश्किल था। मुख्यत: इसलिए क्योंकि कोई भी मौसम हो, वे सुबह 4 बजे उठ जाते थे और मैंने जब से उनका हाथ पकड़ चलना शुरू किया था, तब से सालों तक मैंने उन्हें रोजाना एक ही तरह से काम करते देखा था।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि दो हफ्ते बाद ही फोन कर मेरे मामा ने नौकरी के लिए मुझे अपने शहर बुला लिया। हाथों में 600 रुपए लेकर मैंने नागपुर छोड़ दिया। वह पैसा मुझे सीने पर बोझ लग रहा रहा था, क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने पिता से कर्ज लिया है, हालांकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा। मैंने 18 घंटे के सफर में उसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया और सिर्फ वही खाया जो मां ने रास्ते के लिए दिया था। फिर मैं बॉम्बे शहर में मामा के घर पहुंचा, वे वर्सोवा बीच के पास एक बिल्डिंग में तीसरी मंजिल पर रहते थे। ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाले एक व्यक्ति ने मामा का अभिवादन किया और मामा ने मेरा परिचय कराया कि मैं उनका भांजा हूं जो नौकरी की तलाश में बॉम्बे आया है। उन सज्जन ने मेरी तरफ देखते हुए बस ‘हम्म’ कहा। मैं उनकी नजर और ‘हम्म’ का मतलब समझ सकता था। उसका मतलब था ‘ये लो, और एक बाहरी आ गया।’ उस समय मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंची। शायद इसलिए क्योंकि उस समय शिव सेना इस आम भावना को भुना रही थी कि ‘बाहरी’ लोग मराठी बोलने वालों से नौकरियां और अवसर छीन रहे हैं और हमें तब नकारात्मक भाव से ‘मद्रासी’ कहा जाता था। मामा के घर नहाकर, खाना खाने के बाद मैंने कारण बताते हुए घर वापस जाने की इच्छा जाहिर की। इस राजनीतिक उठापटक के बीच रह चुके मेरे मामा ने शांति से कहा- ‘फिलहाल तुम्हारी महत्वाकांक्षा, तुम्हारे आत्मसम्मान से बड़ी होनी चाहिए। परिवार के बारे में सोचो, यहां रहने वालों को साबित करके दिखाओ के तुम इस शहर के लिए मूल्यवान हो।’ बाकी फिर इतिहास है।
काफी बाद में मुझे पता चला कि न केवल रोमांस के किंग शाहरुख खान शुरुआती दिनों में रेलवे स्टेशन पर सोए, बल्कि ऐसे कम से कम 12 अभिनेता हैं, जिन्हें कुछ बनने से पहले मुंबई में संघर्ष करना पड़ा। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने तो बतौर चौकीदार भी काम किया।
अब सीधे आते हैं कोविड-19 के दौरान प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर। वे बस संपत्ति और पैसों के मामले में ही गरीब हैं। वे अपनी मेहनत से रोजाना अपने लिए खाना कमाते हैं, वे कभी खैरात के भरोसे नहीं रहते। यही वजह है कि वे अपने घर जाना चाहते हैं, ताकि वहां कुछ काम कर सकें। उनका सम्मान करें, क्योंकि वे महत्वाकांक्षा और आत्मसम्मान के मामले में अमीर हैं। हम नहीं जानते कि उनमें अगला शाहरुख कौन होगा।



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‘बैरी सजनवा भाग न बांटा जाए . . .’

ऑस्ट्रेलिया में क्रिसमस के अगले दिन ‘बॉक्स-डे’ मनाया जाता है। सभी लोग अपने पोस्टमैन को नमन करते हैं और उसे भेंट देेते हैं। यह डाकिये की वर्षभर की सेवा के लिए उसे धन्यवाद ज्ञापन करना होता है। इसी तरह कोरोना कालखंड में हमें अपने घर अखबार पहुंचाने वाले हॉकर को धन्यवाद देते हुुए उसे कुछ भेंट देना चाहिए। समाज की मशीन को चलायमान बनाए रखने के लिए धन्यवाद ज्ञापन तेल का काम करता है। हर रिश्ते के निर्वाह के लिए किसी न किसी तेल की आवश्यकता पड़ती है। राजकुमार हिरानी की मुुन्नाभाई में जादू की झप्पी इसी तेल की तरह थी।
भारत का डाक विभाग सक्षम और सक्रिया रहा है, परंतुु बाजार की ताकत ने महंगी कूरियर सेवा द्वारा उसमें सुुरंग लगा दी। पहले जो काम सस्ते में होता था, उसे महंगा बना दिया गया है। राज कपूर की राजा नवाथे द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आह’ में पोस्ट मास्टर के मार्फत भेजे गए प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान से जन्मी प्रेम कथा प्रस्तुत की गई थी। आह असफल रही, परंतु उसके गीत आज भी लोकप्रिय हैं। इसे यशराज चोपड़ा द्वारा निर्मित एक फिल्म में दोहराया गया था। खाकसार ने भी प्रेम पत्र की घोस्ट राइटिंग की है। छात्रावास में रहते हुए दूसरों के लिए प्रेम पत्र लिखकर पैसे कमाए थे। टेक्नोलॉजी के कारण प्रेम पत्र लिखने की कला लुप्त हो गई। आज एसएमएस द्वारा प्रेम अभिव्यक्त किया जाता है। हुड़दंगियों द्वारा डर्टी एसएमएस द्वारा इस क्षेत्र में भी प्रदूूषण फैला दिया गया है।
फ्रेंच भाषा में लिखी एक प्रेम कथा में साहित्य अनुरागी व्यक्ति अपने मित्र के लिए प्रेम पत्र लिखता है। इन पत्रों से प्रभावित महिला विवाह के बाद जान लेती है कि उसके पति का साहित्य से कोई रिश्ता नहीं है। कथा के अंत में वह असली खत लेखक को चीन्ह लेती है, परंतुु युद्ध में उसका पति और पत्र लेखक दोनों मर जाते हैैं। वह महिला कहती है कि उसने एक बार प्रेम किया और दो बार खोया। हसरत जयपुरी ने अपनी प्रेमिका को प्रेम पत्र लिखा था, जिससे प्रेरित गीत ‘संगम’ में प्रयुक्त किया गया- ‘ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर के तुम नाराज न होना, तुम मेरी जिंदगी हो, तुम्हीं मेरी बंदगी हो…’। फिल्मों में प्रेम पत्र का कालीन के नीचे चले जाना मेलोड्रामा रचने के काम आता रहा है। वर्षों पहले लिखा प्रेम पत्र पति के हाथ लग जाता है तो विवाह टूटने की कगार पर जा पहुंचता है। किशोर वय में पड़ोसन से किए गए एकतरफा अनअभिव्यक्त प्रेम की कसक जीवनभर सालती है। किशोर, बारातियों की जूठन उठाते हुए सोचता है कि वह प्रेम पर्वत पर चढ़ रहा है और चिर विरह की पताका चोटी पर फहराएगा। फिल्मकार टे. गारनेट की फिल्म ‘पोस्टमैन आलवेज रिंग्स टुवाइस’ में एक कस्बाई रेस्त्रां के उम्रदराज मालिक की युवा पत्नी को अपने कर्मचारी से प्रेम हो जाता है। उन्हें एक ही रास्ता दिखाई देता है कि मालिक की हत्या कर दुर्घटना का रूप दे दें। दो बार ‘दुर्घटना’ रची जाती है जिसमें उम्रदराज पति और पत्नी की मृत्यु हो जाती है। रेस्त्रां के मालिकाना हक लेने के लिए नकली दस्तावेज रचे जाते हैं, अंत में कातिल को सजा मिल जाती है।
राजेश खन्ना ने एक फिल्म में डाकिये की भूमिका अभिनीत करते हुए गीत गाया- ‘डाकिया डाक लाया…’। गुजश्ता दौर में मृत्यु का समाचार देने के लिए लिखे गए पोस्टकार्ड का एक कोना काट दिया जाता था। कोना कटा पोस्टकार्ड कांपते हाथों में रखकर पढ़ा जाता था। कूरियर सेवा ने सब मिटा दिया।
बिमल रॉय की ‘बंदगी’ में राखी के समय महिला कैदी की वेदना शैलेंद्र ने यूं बयां की हैै- ‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय, लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां, दीजौ संदेसो पठाय..’। ज्ञातव्य है कि साहिर लुधियानवी और अम्रता प्रीतम के प्रेम पत्र प्रकाशित हुए हैं। इसी तरह कैफी आजमी और शौकत आजमी का पत्र व्यवहार भी यादगार है। हसरत जयपुरी का गीत है- ‘लिखे जो खत तुझे, वे तेरी याद में हजारों रंग के नजारे बन गए...’। मनुष्य का आशावाद देखिए कि बुरी खबर देने वाले पत्र की अंतिम बात शेष शुभ होती है।



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राहुल देव बने पाकिस्तान एयरफोर्स के पहले हिंदू पायलट; 12 लाख सैनिकों में हिंदू कितने कोई नहीं जानता, खबर सिर्फ उनकी जो मारे गए या मशहूर हुए

पाकिस्तान एयरफोर्स में पहली बार एक हिंदू पायलट बना है। नाम है राहुल देव और वे सिंध इलाके के थरपरकर से हैं। राहुल पाकिस्तान एयरफोर्स में दूसरे हिंदू होंगे, उनसे पहले एयर कमोडोर बलवंत कुमार दास पाकिस्तानी एयरफोर्स में भर्ती हुए थे, लेकिन वह एयर डिफेंस का हिस्सा था, जिसके जिम्मे ग्राउंड ड्यूटी से जुड़े काम होते थे।


राहुल बतौर जीडी पायलट भर्ती हुए हैं। जनरल ड्यूटी (जीडी) के जो पायलट होते हैं वह कोई भी एयरक्राफ्ट उड़ा सकते हैं, फिर चाहे वह फाइटर हो या ट्रांसपोर्ट। पाकिस्तान एयरफोर्स में जीडी पायलट अहम होता है और वह ज्यादा ताकतवर एयरक्राफ्ट उड़ता है।


16 अप्रैल को 143 जीडी पायलट, 89 इंजीनियरिंग, 99 एयर डिफेंस और बाकी कोर्स की ग्रेजुएशन सेरेमनी पाकिस्तान एयरफोर्स एकेडमी रिसालपुर में थी। जहां वायुसेना प्रमुख एयरचीफ मार्शल मुजाहिद अनवर खान चीफ गेस्ट थे।


राहुल से जुड़ी इस खबर को सबसे पहले प्रिंसिपल स्टाफ ऑफिसर रफीक अहमद खोखर ने जासूस से राजनेता बने इंटीरियर मिनिस्टर रिटायर्ड ब्रिगेडियर एजाज शाह से ट्वीट के जरिए साझा की थी -

पाकिस्तान फोर्सेस में अल्पसंख्यकों की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब कमोडोर बलवंत कुमार दास के बारे में पता करने की कोशिश की तो बस इतना ही पता चला की वह ग्राउंड ड्यूटी ऑफिसर थे और उन्होंने युद्ध में हिस्सा लिया था। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की स्थिति कोई रहस्य नहीं है। बार-बार इल्जाम लगता है कि पाकिस्तान हिंदुओं को वह जिंदगी नहीं देता जो इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान में मिले संविधान के तहत उनका हक है। बावजूद इसके हाल ही में यूनाइटेड स्टेट्स कमिशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम ने यह कहा था कि पाकिस्तान के हिंदू और सिखके लिए मुल्क पहले आता है।

हाल ही के दिनों में पाक मिलिट्री में भर्ती होने वाले हिंदुओं और सिखोंकि संख्या बढ़ गई है। जबकि, पाकिस्तान बनने से लेकर दशकों तक मिलिट्री में सिर्फ मुसलमानों का एकाधिकार रहा है। वहीं ईसाइयों को पाकिस्तानी फोर्सेस में जगह भी दी गई और ओहदा भी।

2000 तक हिंदुओं की सेना में शामिल होने पर भी पाबंदी थी। जनरल परवेज मुशर्रफ के मिलिट्री रूल के वक्त वह पहली बार सेना में शामिल हो पाए। 2006 में कैप्टन दानिश पाकिस्तान सेना के पहले हिंदू ऑफिसर बने।

ब्रिगेडियर एजाज के साथ काम करने वाले इंटीरियर मिनिस्ट्री के एक ऑफिसर के मुताबिक राहुल देव का इंडक्शन इसलिए भी खास है क्योंकि वह सिंध के थरपरकर जैसे कमजोर इलाके से आते हैं।

सिंध के अंदरूनी इलाकों में हिंदुओं की ठीक-ठाक आबादी है। इस इलाके में जरूरी सुविधाएं भी मौजूद नहीं हैं। हाल के कुछ सालों में यहां भूख और कुपोषण से मौत की कई खबरें आई हैं जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। महेश मलानी इसी थरपरकर इलाके से नेशनल असेंबली में सीट जीतने वाले पहले हिंदू हैं।

अधिकारी के मुताबिक, पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिए सबसे खराब देश है। यहां जबरन धर्म परिवर्तन आम है, ईशनिंदा के मामले और धर्म के नाम पर हत्याएं भी होती रहती हैं। यहां कानून के जरिए समुदायों को ठगा जाता है। हांलाकि यह बदल रहा है।

इंटीरियर मिनिस्ट्री के अधिकारी इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि हिंदू और सिखऑफिसर के कमिशन की शुरूआत करने में इस देश को इतना वक्त क्यों लगा।

सीनियर जर्नलिस्ट नसीम जेहरा का ये ट्वीट पढ़िए -

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ट्विटर पर जहां राहुल के लिए सरहद के दोनों ओर से बधाईयों का ढेर लग गया वहीं एक शहीद हिंदू सैनिक का परिवार इस मसले पर बात करने राजी हुआ। 27 साल के लालचंद रबारी बेहद भावुक व्यक्ति थे और उनका सपना था देश की रक्षा। 2017 में मंगला फ्रंट पर लड़ते हुए उनकी मौत हुई।

मेजर कैलाश पिछले साल ही पहले हिंदू अफसर हैं जो मेजर बने। उन्हें सियाचिन पोस्टिंग के लिए तमगा-ए-दफा भी हासिल हुआ।

रबारी इस्माइल खान नौटकानी गांव बादिन जिले के रहनेवाले थे। गरीब चरवाहे पिता और किसान मां की पांचवी औलाद। उनके भाई कहते हैं रबारी की पोस्टिंग फाटा इलाके के वजीरिस्तान में हुई थी। वह देश को तबाह करने वाले आतंकियो को कुचलना चाहता था। वह कहते हैं मेरे भाई की तकदीर में लिखा था कि वह देश के लिए लड़ते शहीद होगा।

रबारी के मुताबिक जिस देश में हम रहते हैं वह हमारा घर है। जो भी उसपर हमला करेगा उसे हम जवाब देंगे, अपनी आखिरी सांस तक। वह ये भी कहते हैं कि हम राजपूत हैं जो हमेशा दुश्मन से खून के आखिरी कतरे तक लड़ते हैं।

कराची के एक हिंदू रिसर्चर कहते हैं, ‘अगर हमारी पाकिस्तान के साथ वफादारी पर कोई शक है तो उसे आंकड़ों से साबित करो। बताओ कितने पाकिस्तानी हिंदू हैं जिन्होंने देश को धोखा दिया या जिनपर धोखेबाजी के केस कोर्ट में चल रहे हैं? यह सिर्फ झूठा प्रोपेगेंडा है, जो बंद होना चाहिए और पाकिस्तान को हमें अपना मानना चाहिए। सरकार ने हम गैर मुसलमानों की उपलब्धियों को कभी माना ही नहीं।’

एयर कमोडोर बलवंत कुमार दास पाकिस्तान एयरफोर्स के पहले सीनियर हिंदू ऑफिसर थे। उन्होंने 1948 और 1965 की जंग में हिस्सा भी लिया, लेकिन उनकी कहानी को सालों पहले भुला दिया गयाा है।

कैजाद सुपारी वाला पहले पारसी और गैर मुसलमान पाकिस्तानी जनरल हैं। 1965 और 1971 की जंग में उनकी काबीलियत के किस्से सब जानते हैं लेकिन सरकार, मीडिया या लोग कभी उनका जिक्र तक नहीं करते।

एक और हिंदू सैनिक अशोक कुमार हैं जिन्होंने 2013 में वजीरीस्तान में आतंकवादियों से लड़ते अपनी जान दी। उन्हें तमगा-ए-शुजात दिया गया। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि उनके नाम के आगे शहीद की जगह महरूम लिखा गया। जबकि मुसलमान शहीदों के साथ ऐसा नहीं होता।

हैदराबाद के डॉक्टर कैलाश गरवड़ा पिछले साल पहले हिंदू मेजर बने। उन्होंने युगांडा, मिस्त्र, दुबई, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड, बेल्जियम, इटली और स्विट्जरलैंड में पाकिस्तान को रिप्रेजेंट किया। 36 दिन भारत पाकिस्तान के बीच विवादित के-2 के पास बाल्त्रो सेक्टर में दुनिया की सबसे ऊंचाई पोस्ट पर रहने के बाद उन्होंने तमगा-ए-दफा हासिल किया।

ये मेडल सियाचिन में पोस्टिंग पाने वाले सैनिकों को दिया जाता है। वह वजीरिस्तान में आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन एमीजन और स्वात में ऑपरेशन राहे निजात का हिस्सा भी थे।

मेजर हरचरण सिंह पाकिस्तान सेना में कमिशन पाने वाले पहले सिख अफसर हैं।

वहीं मेजर हरचरण सिंह ने 2007 अक्टूबर में सेना के पहले सिखअफसर बनकर इतिहास रचा। ननकाना साहिब में 1986 में पैदा हरचरण ने पाकिस्तान मिलिट्री एकेडमी से पास होते वक्त कहा था, ‘ये मेरे लिए गर्व की बात है कि आज आपके सामने खाकी वर्दी पहने खड़ा हूं, मुझे बड़ी जिम्मेदारी मिली है।पगड़ी पहने सरदार को बलूच रेजिमेंट का बैच लगाए देखना फख्र की बात है।’


पाकिस्तान की आबादी 22 करोड़ है। उसमें से हिंदू 80 लाख हैं। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के आंकड़े तो यही कहते हैं, हालांकि जबरन धर्मपरिवर्तन को लेकर सही आंकड़े बताना मुश्किल है। सबसे ज्यादा हिंदू सिंध में हैं जहां आबादी में हिंदू94 प्रतिशत हैं।

वहीं पाकिस्तान की सेना में 12 लाख 40 हजार सैनिक हैं। इनमें से 6 लाख एक्टिव हैं। बाकी रिजर्व। इनमें कुल 100 भी हिंदू नहीं हैं। कितने हैं इसका कोई हिसाब नहीं है। न पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के पास न ही इंटीरियर मिनिस्ट्री की फाइलों में। खबर सिर्फ उनकी है जो या तो मशहूर हुए या मारे गए।



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राहुल देव उसी सिंध प्रांत से आते हैं जहां हिंदुओं की आबादी 94 प्रतिशत है।




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शराब नहीं बिकने से राज्यों को हर दिन 700 करोड़ रुपए तक का नुकसान हो रहा था; जब बिकती है तो हर साल 24% तक की कमाई कर लेती हैं सरकारें

कोरोना को फैलने से रोकने के लिए देश में लगे लॉकडाउन में अब थोड़ी ढील मिलने लगी है। जान के साथ-साथ अब जहान की भी फिक्र होने लगी है।


इस बार जब लॉकडाउन में क्या छूट मिलेगी गृह मंत्रालय ने लिस्ट जारी की तो सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा चर्चा शराब की दुकानें खुलने को लेकर थीं।

किस जोन में ये दुकानें खुलेंगी और कहां नहीं इसे लेकर जमकर पूछ परख होने लगी और सोशल मीडिया पर मीमभी चल पड़े।

सोमवार से शराब की दुकानें खुलने भी लगीं। इन्हीं पर सबसे ज्यादा भीड़ भी देखी गई। और तो और सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां भी यहीं उड़ीं। इतनी किकई जगह पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा।

लेकिन, सवाल यह है कि जब 40 दिन से देश में टोटल लॉकडाउन था और 17 मई तक भी लॉकडाउन ही रहेगा, तो फिर शराब की दुकानें खोलने की क्या जल्दबाजी थी? जवाब है- राज्यों की अर्थव्यवस्था। दरअसल, शराब की बिक्री से राज्यों को सालाना 24% तक की कमाई होती है।

कुछ दिन पहले पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने केंद्र सरकार से शराब की दुकानें खोलने की इजाजत मांगी थी। लेकिन, सरकार ने उनकी इस मांग को ठुकरा दिया। अमरिंदर सिंह ने एक इंटरव्यू में बोला भी कि उनकी सरकार को 6 हजार 200 करोड़ रुपए की कमाई एक्साइज ड्यूटी से होती है। उन्होंने कहा, 'मैं ये घाटा कहां से पूरा करूंगा? क्या दिल्ली वाले मुझे ये पैसा देंगे? वो तो 1 रुपया भी नहीं देने वाले।'

ये तस्वीर पूर्वी दिल्ली के चंदेर नगर में बनी एक वाइन शॉप के बाहर की है। लोग यहां सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें, इसके लिए मार्किंग तो थी, लेकिन फिर भी लोग एक-दूसरे से चिपक कर खड़े हुए थे।

आखिर कैसे शराब से राज्य सरकारों की कमाई होती है?
राज्य सरकारों की कमाई के मुख्य सोर्स हैं- स्टेट जीएसटी, लैंड रेवेन्यू, पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले वैट-सेल्स टैक्स, शराब पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी और बाकी टैक्स।

सरकार को होने वाली कुल कमाई में एक्साइज ड्यूटी का एक बड़ा हिस्सा होता है। एक्साइज ड्यूटी सबसे ज्यादा शराब पर ही लगती है। इसका सिर्फ कुछ हिस्सा ही दूसरी चीजों पर लगता है।

क्योंकि, शराब और पेट्रोल-डीजल को जीएसटी से बाहर रखा गया है। इसलिए, राज्य सरकारें इन पर टैक्स लगाकर रेवेन्यू बढ़ाती हैं।

पीआरएस इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य सरकारों को सबसे ज्यादा कमाई स्टेट जीएसटी से होती है। इससे औसतन 43% का रेवेन्यू आता है। उसके बाद सेल्स-वैट टैक्स से औसतन 23% और स्टेट एक्साइज ड्यूटी से 13% की कमाई होती है। इनके अलावा, गाड़ियों और इलेक्ट्रिसिटी पर लगने वाले टैक्स से भी सरकारें कमाती हैं।

ये तस्वीर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की है।40 दिन के लॉकडाउन के बाद जब सोमवार को शराब की दुकानें खुलीं, तो लोग इकट्ठे चार-पांच बोतलें खरीदकर ले गए।

पिछले साल ही शराब बेचने से राज्य सरकारों को 2.5 लाख करोड़ रुपए का रेवेन्यू मिला था।

लेकिन, लॉकडाउन की वजह से देशभर में शराब बंदी भी लग गई थी। अंग्रेजी अखबार द हिंदू के मुताबिक, शराब की बिक्री बंद होने से सभी राज्यों को रोजाना 700 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।

यूपी-ओड़िशा की 24% कमाई शराब बिक्री से
शराब पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी से राज्य सरकारों को 1 से लेकर 24% तक की कमाई होती है। इससे सबसे कम सिर्फ 1% कमाई मिजोरम और नागालैंड को होती है। जबकि, सबसे ज्यादा 24% कमाई उत्तर प्रदेश और ओड़िशा को होती है।

कमाई प्रतिशत में। सोर्स- पीआरएस इंडिया

बिहार और गुजरात दो ऐसे राज्य हैं, जहां पूरी तरह से शराबबंदी है। 1960 में जब महाराष्ट्र से अलग होकर गुजरात नया राज्य बना, तभी से वहां शराबबंदी लागू है। जबकि, बिहार में अप्रैल 2016 से शराबबंदी है। इसलिए, इन दोनों राज्यों को एक्साइज ड्यूटी से कोई कमाई नहीं होती।

पहले दिन 5 राज्यों में ही बिक गई 554 करोड़ रुपए की शराब

इसको ऐसे भी देख सकते हैं कि देश के 5 राज्यों में एक ही दिन में 554 करोड़ रुपए की शराब बिक गई। सोमवार को उत्तर प्रदेश में 225 करोड़, महाराष्ट्र में 200 करोड़, राजस्थान में 59 करोड़, कर्नाटक में 45 करोड़ और छत्तीसगढ़ में 25 करोड़ रुपए की शराब बिकी।

देश में हर व्यक्ति सालाना 5.7 लीटर शराब पीता है
भारत में शराब पीने वाले भी हर साल बढ़ते जा रहे हैं। 2018 में डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट आई थी। इसके मुताबिक, देश में 2005 में हर व्यक्ति (15 साल से ऊपर) 2.4 लीटर शराब पीता था, लेकिन 2016 में ये खपत 5.7 लीटर हो गई। हालांकि, इसका मतलब ये नहीं है कि देश का हर व्यक्ति शराब पीता है।

इसके साथ ही पुरुष और महिलाओं में भी हर साल शराब पीने की मात्रा भी 2010 की तुलना में 2016 में बढ़ गई। 2010 में पुरुष सालाना 7.1 लीटर शराब पीते थे, जिसकी मात्रा 2016 में बढ़कर 9.4 लीटर हो गई। जबकि, 2010 में महिलाएं 1.3 लीटर शराब पीती थीं। 2016 में यही मात्रा बढ़कर 1.7 लीटर हो गई।

साल देश पुरुष महिला
2010 4.3 7.1 1.3
2016 5.7 9.4 1.7

(आंकड़े लीटर में)

ये तस्वीर भी दिल्ली के चंदेर नगर में बनी वाइन शॉप के बाहर की है। यहां शराब खरीदने के लिए सुबह से ही लोग दुकान के बाहर लाइन लगाकर खड़े हो गए थे। यहां सोशल डिस्टेंसिंग की खुलेआम धज्जियां उड़ीं।

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में भारत में शराब पीने की वजह से 2.64 लाख से ज्यादा मौतें हुई थीं। इनमें 1 लाख 40 हजार 632 जानें सिर्फ लिवर सिरोसिस से गई थी। जबकि, 92 हजार से ज्यादा लोग सड़क हादसों में मारे गए थे।

शराब पीने की वजह से हुई मौतें

लिवर सिरोसिस 1,40,632
सड़क हादसों में 92,878
कैंसर 30,958
कुल 2,64,468


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India Liquor Lockdown News | State Liquor Tax Revenue and Economy Update: Rajasthan Haryana Maharashtra Chhattisgarh Madhya Pradesh




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2020 नए सिरे से कार्ल मार्क्स की वापसी का साल है, इसलिए इस वर्ष का शब्द सिर्फ कोरोना नहीं होगा

यह साल मार्क्स की वापसी का वर्ष है। इसलिए कि इस वर्ष का शब्द सिर्फ कोरोना नहीं होगा बल्कि जो शब्द इस साल पूरी दुनिया में केंद्रीय शब्द बनकर उभरा, वह हैश्रमिक या मज़दूर। और श्रमिक शब्द सुनते ही जो पहली तस्वीर उभरती है, वह है कार्ल मार्क्स की। वह श्रमिक अचानक सामने निकल आया। वह फिलीपींस में पैदल चल रहा था, वह भारत में पैदल चलते हुए दम तोड़ रहा था, वह दुनिया के सबसे गर्वीलेपूंजीवादी देश अमेरिका में खाने के लिए कतारों में खड़ा था।

यह श्रमिक था, इस दुनिया की नींव जो अब तक वस्तुओं में छिपा था और अब वह साक्षात सामने था। और सरकारों ने उसे एक बड़ी समस्या या सिरदर्द की तरह देखा,लेकिन वे उस श्रमिक को मरने नहीं देना चाहतीं, इतनी मानवीयता उनमें है। वे उन्हें दो शाम खाना खिला रही हैं, उनके खाते में एक महीने का 500रुपया डाल रही हैं।क़िस्सा कोताह यह कि वे उन्हें मरने नहीं देंगी। मार्क्स व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हुए पूछते हैं, “क्या सचमुच मानवीयता है जो इन्हें ज़िंदा रखना चाहती है या है वह पूंजी की मजबूरी ? क्या यह साफ़ नहीं हो गया है कि इस शरीर के बिना जिसे बस ज़िंदा रखने की इंसानियत इन समाजों में है, सारा कारोबार ठप हो गया है और अगर उसे वापस पटरी पर लाना है तो इस शरीर की ज़रूरत होगी ही। यह शरीर जो इस श्रमिक का है, श्रम जिसका गुण है।”

क्या मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूंजी ही पूंजी को पैदा नहीं करती? श्रम के बिना वह एक निष्क्रिय, अनुत्पादक वस्तु है। उसमें जीवन श्रम ही भरता है। सच तो यह है, जो मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले ही कहा था, पूंजी और कुछ नहीं, संचित श्रमहै। फर्क़ सिर्फ़ यह है कि यह श्रम अब मज़दूर की देह से अलग हो गया है और उस पर उसकी मिल्कियत भी नहीं रह गई है। जितना ही वह पूंजी मुटियाती जाती है, मज़दूर उतना ही कंकाल होता जाता है।

ये सारी बातें पुराने जमाने की मान ली गई थीं। मार्क्स ने चेतावनी दी थी कि यह जो पूंजी का विराट रूप दिख रहा है, वह स्वास्थ्य का नहीं, व्याधि का लक्षण है। यह स्वस्थ नहीं, सूजा हुआ शरीर है । लेकिन इसके सामने है वह मात्र जीवनशेष , जीवन की कगार पर किसी तरह पांव टिकाए मज़दूर। यह नहीं कि मज़दूर ही खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता, पूंजी भी अपनी हिफ़ाज़त खुद नहीं कर सकती। क्या अब भी यह स्पष्ट नहीं है जब वह सरकारों के सामने गुहार लगा रही है कि हमें उबार लो! और उबारने के लिए किसका निवेश होगा फिर? हमारा और आपका और उसका जो अब कृपापूर्वक ट्रेनों और बसों में अपने अपने घरों को भेजा जा रहा है।

सबसे पहला भरोसा क्या दिलाया सरकार ने इन पूंजीपतियों को? घबराइए नहीं, हम काम केघंटेबढ़ाकर 12 कर देंगे। कार्ल मार्क्स फिर मुस्कुराते हैं, “इन्हीं घंटों में तो सारा राज छिपा है। काम के घंटे जितने बढ़ेंगे, काम पर मज़दूर उतने ही कम होंगे। श्रम और समय के योग का कोई रिश्ता तो है मूल्य से जो उस वस्तु का होता है जो पैदा की जा रही है?”

डेविड हार्वे इस समस्या पर विचार करते हैं। अभी सशरीर श्रम के अलावा दूसरी जो चीज़ सबसे अधिक महसूस हुई, वह थी समय। समय ही समय था। वह भी शरीर से विलग समय। कुछ के लिए वह समय उनके आंतरिक जगत में प्रवेश का एक अयाचित अवकाश था तो बहुलांश के लिए जबरन उनपर लाद दिया गया बोझ था। उस समय के सहारे अपने आंतरिक जगत को उपलब्ध करने की सुविधा उन्हें नहीं थी। वह समय उन्हें आत्मा को धारण करने वाली बाहरी काया में बचाए रखने की जुगत में ही लगाने की बाध्यता थी। संक्षेप में, आध्यात्मिकता की सुविधा उन्हें क़तई नहीं।

इस बात को फूहड़ क्रूरता के साथ शासक दल के एक सांसद ने कह ही दिया जब झुंड के झुंड मज़दूर सड़कों पर निकल आए अपने घरों के लिए। इन “ग़ैरज़िम्मेदार” मज़दूरों को बिना मांगे अवकाश मिल गया है और वे सोचते हैं कि यह उन्हें यार दोस्तों के साथ मेलजोल के लिए मिला है।यही आशय था उस भर्त्सना का। इस वाक्य में यह भाव छिपा है कि अवकाश अधिकार नहीं है इन मज़दूरों का, वह अतिरिक्त विलासिता है। इनके समय या अवकाश की मिल्कियत पूंजी कीहै या उसकी चौकीदार सरकारों की जो इसका इस्तेमाल “राष्ट्रीय संपदा” के उत्पादन और संचयन के लिए करते हैं। सांसद महोदय जो कह रहे थे, वह सिर्फ़ उन्हीं की बात न थी। यह तो समझ ही है कि मज़दूरों को बस खुद को जीवित रखना है राष्ट्र के लिए, वे खुद को बीमार नहीं पड़ने दे सकते, यह आगे राष्ट्रीय संपदा के निर्माण में बाधा है, उनके स्वास्थ्य पर अलग से खर्च देश पर अतिरिक्त बोझ है।

इस तरह हम देख पा रहे हैं कि एक ही देशकाल में समय का अर्थ मज़दूरों के लिए जो है वह अन्य वर्गों के लिए नहीं है। इसका मतलब सिर्फ़ यही है कि हम कितना ही साझेदारी और सामूहिकता की बात करें, वास्तव में इस समाज में कोई साझा समय नहीं है।

जब साझा समय नहीं है तो सामने पड़ी विपदा का सामना करने के लिए जिस साझा सक्रियता की मांग की जा रही है, वह कैसे और क्यों कर हो? हार्वे इस समस्या पर विचार करते हुए मार्क्स को याद करते हैं।अगर हमें वापस अपने देश या राष्ट्र को स्वास्थ्य और संपन्नता को ओर ले जाना है तो एक सामूहिकता विकसित करनी होगी जो समय से जुड़े अंतर्विरोध को हाल की बिना नहीं हासिल की जा सकती।

तो एक संपन्न देश कौन या कैसा होगा? मार्क्स का उत्तर स्पष्ट है, “एक सच्चा संपन्न देश वह है जहांकाम के घंटे 6हों, न कि 12। संपदा अतिरिक्त श्रम समय पर नियंत्रण नहीं है, बल्कि सीधे उत्पादन के में लगे समय के अलावा बचा हुआ समय है जो पूरे समाज में प्रत्येक व्यक्ति के पास होगा जिसे वह अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल कर सकेगा।

मार्क्स श्रमिक को और हर किसी को विलक्षण व्यक्ति के रूप में ग्रहण करने और स्वीकार करने के लिए सामूहिक सक्रियता पर ज़ोर देते हैं। बहुतों के पास कोई अतिरिक्त समय न हो और बहुत कम के पास समय ही समय हो, यह अन्याय है। वह सामूहिकता का उल्लंघन भी है।

कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सामूहिक एकजुटता का बारंबार आह्वान किया गया है। वह एकजुटता नामुमकिन है अगर श्रमिकों के अतिरिक्त समय को उनसे छीन लिया जाए। श्रमिकों के ख़ाली बदन से इस समय को निचोड़ने के लिए राज्य के सारे बल का इस्तेमाल।फिर विद्रोह क्यों नहीं? उनके जन्म के 202 साल बाद मार्क्स का वही पुराना सवाल नया बन कर सामने आ खड़ा हुआ है।

अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।



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The year 2020 is the year of renewed Karl Marx's return, so the term of this year will not be just Corona




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स्वच्छता को सुघड़ता में बदलना होगा

हमारे देश में इस समय देसी तरीकों की बाढ़ आ गई है। सोशल मीडिया ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए इतने तरीके प्रचारित कर दिए कि लोग भ्रम में पड़ गए। यह सही है कि स्वच्छता अब पुण्य और गंदगी सबसे बड़ा पाप होना चाहिए। भारत में पाप और पुण्य की बड़ी महिमा है, लेकिन हमारी व्यवस्था, सामान्यजन की जीवन शैली क्या इस पाप से मुक्त होने देगी.? हम सोशल डिस्टेंसिंग के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं, पर जिन घरों में एक-एक कमरे में पांच-सात लोग रहते हों, वहां क्या करेंगे? जबकि भारत में आज भी कुछ घर ऐसे हैं जहां जूताघर ही इतना बड़ा है, जिसमें एक पूरा परिवार रह ले।

स्वच्छता के साथ एक और शब्द है सुघड़ता। स्वच्छता जब सतर्कता और व्यवस्थित तरीके से होती है तो वह सुघड़ता कहलाती है। मुझे वर्षों पहले के एक रिश्तेदार याद हैं जिन्हें हम ‘काका मां’ कहते थे। उनके यहां एक कमरे में आठ-दस सदस्य रहते हुए देखे हैं। लेकिन, उनकी सुघड़ता थी कि कोने-कोने में स्वच्छता दिखती थी।

ऐसे कई परिवार आज भी हैं। हमें अपनी स्वच्छता को सुघड़ता में बदलना होगा। मैं स्वयं एक बड़े परिवार के साथ छोटे घर में रहा हूं और मैंने अपनी मां की सुघड़ता देखी है। ऐसी कई माताएं तब भी थीं और आज भी हैं। हमें उनसे सीखकर समय रहते सुघड़ता पर काम करना पड़ेगा, अन्यथा सोशल डिस्टेंसिंग, लॉकडाउन और कोरोना से निपटने के जो भी प्रयास कर रहे हैं, ये सब धरे रह जाएंगे और यह तूफान फिर नजर आने लगेगा..।

जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें



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बॉलीवुड में रेल यात्रा और रेल डकैती की फिल्में

होमी वाडिया की फिल्म में वाडिया का घोड़ा चलती हुई रेलगाड़ी की छत पर सरपट दौड़ता था। उस दौर में ट्रिक फोटोग्राफी अपने पालने में बोतल से दूध पीने का प्रयास कर रही थी। आज ग्राफिक्स द्वारा सब संभव है। ‘बाहुबली’ ने अपनी ट्रिक से सहज मानवीय करुणा की फिल्मों को नदारद कर दिया। रेलगाड़ी हमारे सामूहिक अवचेतन में उत्तेजना की लहर की तरह प्रवाहित रहती है। सत्यजीत रे का अप्पू, रेलगाड़ी देखने के लिए मीलों पैदल चलता है और युवा होने पर अप्पू को रेलवे ट्रैक के नजदीक बने घर में रहना पड़ता है, साथ ही रेल का शोर उसे बेचैन कर देता है। खाकसार के मित्र प्रोफेसर के.सी.शाह का घर रेलवे स्टेशन के नजदीक था। कालांतर में वे अन्य स्थान पर रहने गए तो ट्रेन का शोर उन्होंने टेप किया और उसे बजाने पर ही उन्हें नींद आती थी। कवि मंगलेश डबराल कहते हैं- ‘हमारी नींदों में हमारे बुजुर्गों के रतजगे और थकान शामिल है। हम जब सोते हैं तो हमारे दादा तस्वीर में जागते हैं’।
दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म ‘गंगा-जमुना’ के ट्रेन डकैती दृश्य को इंदौर-महू रेलवे ट्रैक पर शूट किया था। इसके कुछ वर्ष पश्चात रमेश सिप्पी ने विदेशी तकनीशियंस की सहायता से ‘शोले’ के रेल डकैती दृश्य की शूटिंग की, परंतु गंगा-जमुना वाला प्रभाव पैदा नहीं कर पाए। बोनी कपूर ने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ में ट्रेन डकैती के दृश्य को बड़े कौशल से शूट किया। डेविड लीन की फिल्म ‘डॉ. जिवागो’ का रेल कम्पार्टमेंट का दृश्य दिल दहलाने वाला है। तानाशाह से बचने के लिए लोग रेल के डिब्बे में जानवरों की तरह ठुंसे हुए हैं। पामेला रुक्स ने खुशवंतसिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ से प्रेरित फिल्म बनाई थी। सनी देओल अभिनीत फिल्म ‘गदर’ का नायक अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर ट्रेन द्वारा पाकिस्तान से भारत आता दिखाया गया है। इस प्रेम कहानी का इंजन भी वही है और ड्राइवर भी वही है।
‘राम तेरी गंगा मैली’ में नायिका अपने शिशु के साथ यात्रा कर रही है। रेल के चलते समय उत्पन्न ध्वनि में एक रिदम होती है। इसी ताल पर गीत है- ‘मैं जानूं मेरा राजकुमार भूखा है, दूध कहां से लाऊं आंचल सूखा है, अपनी आंख में आंसू लिए कैसे कहूं तू चुप हो जा, हो सके तो मुन्ना सो जा’। अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास ‘मर्डर इन ओरिएंटल एक्सप्रेस’ से प्रेरित बहुसितारा फिल्म भी बनी है। एक अन्य फिल्म ‘द ट्रेन’ में प्रस्तुुत किया गया है कि दूसरे विश्व युद्ध के समय कुछ लोग फ्रांस की सांस्कृतिक धरोहर को एक ट्रेन में रखकर सुरक्षित जगह छिपाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि अगर वे सांस्कृतिक विरासत को बचा लेंगे तो राजनीतिक स्वतंत्रता देर-सबेर मिल ही जाएगी। ज्ञातव्य है कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की जमा जोड़ जनसंख्या के बराबर लोग प्रतिदिन भारतीय रेल में सफर करते हैं। पूरे विश्व में भारतीय रेल का सफर सबसे सस्ता है। माधवराव सिंधिया ने रेल मंत्री बनते ही भारतीय रेल में बहुत सुधार किए।
कोरोना कालखंड में लोग एक स्थान पर फंस गए हैं और वे अपने जन्म स्थान पर लौटना चाहते हैैं। वे जानते हैं कि कस्बाई जन्म स्थान में अस्पताल नहीं है, स्कूल नहीं है, हजारों गांवों में बिजली नहीं पहुंची है। इस जानकारी के होते हुए भी वे जन्म स्थान लौटना चाहते हैं। लॉकडाउन में ट्रेन उनींदी हो गई और उन्हें जगाकर फंसे हुए लोगों को अपने घर पहुंचाने का काम दिया गया। रेलवे निगम ने घोषणा की थी कि यात्री कर राज्य सरकार वसूल करे। बाद में एक अन्य घोषणा में यात्रा मुफ्त करने की बात कही गई। व्यवस्था दो कदम आगे जाती है, तीन कदम पीछे हट जाती है। सुनील दत्त अभिनीत फिल्म ‘रेलवे प्लेटफार्म’ में एक ट्रेन रोक दी गई है। आगे खतरा है। प्लेटफार्म पर ही एक व्यापारी कालाबाजारी करता है। याद आता है शैलेंद्र रचित काला बाजार का गीत- ‘मोह मन मोहे लोभ ललचाए, कैसे-कैसे ये नाग लहराए मेरे दिल ने ही जाल फहराए अब किधर जाऊं, तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो प्रभु तर जाऊं..’।



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‘रिवेंज शॉपिंग’ देखकर रिटेल बिजनेस का प्लान न बनाएं

मुझे वे सारे वीडियो याद हैं जो मुझे लॉकडाउन के 41 दिनों के दौरान मिले। पहला वीडियो लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में मिला था, जिसे गोवा में मांडोवी रिवरफ्रंट पर बनाया गया था, जहां किनारे से कुछ दूर नदी में कैसिनो और क्रूज बोट्स बहुत सलीके से खड़ी की गई थीं और लॉकडाउन की वजह से पूरी तरह खाली थीं। शांत रिवरफ्रंट पर नदी खुशी-खुशी लहरें भर रही थी मानो पक्षियों और मछलियों से अटखेली कर रही हो। नदी, किनारे से यूं टकरा रही थी, जैसे पत्थरों ने उससे कहा हो, ‘दे ताली’। पंछी चहचहा रहे थे, कुछ जोर-जोर से चीख भी रहे थे। मुझे ऐसा लगा जैसे पक्षियों के कुछ समूह दूसरों से कह रहे हों, ‘सुनो, यहां आ जाओ। यहां भी कोई इंसान नहीं है।’ मछलियां पानी पर थिरक रही थीं, जैसे ऊंची कूद लगा रही हों। इस यादगार वीडियो के लिए वे होठों को सिकोड़कर ऐसे मुंह बना रही थीं जैसे कई लोग सेल्फी लेते हुए बनाते हैं।
अब सीधे इस सोमवार पर आते हैं। सोमवार को आए वीडियोज ने पुराने वीडियोज की खुशी पर पानी फेर दिया। इन वीडियोज ने दिखाया कि कैसे कई शहरों में कुछ दुकानें खुलीं, जिनमें शराब की दुकानें भी शामिल हैं और कैसे क्वारेंटाइन से बाहर आए लोग न केवल एक शहर में, बल्कि देशभर में लंबी कतारें लगाते नजर आए। बेतरतीब पार्किंग, गलियों में अनुशासनहीनता और रास्ता पार करने में लापरवाही इस अराजकता का हिस्सा थी। आबकारी अधिकारियों के मुताबिक केवल बेंगलुरु शहर में ही करीब 4500 दुकानों पर 8.5 लाख लीटर भारत में बनी शराब और 3.9 लाख लीटर बीयर दिनभर में बिकी, जिसकी कीमत 45 करोड़ रुपए है। कई जगहों पर दोपहर तक ही दुकानें खाली हो गईं। सोमवार रात को कई टीवी चैनल्स पर कुछ लोगों ने अपील की कि ये दुकानें रोज खुलेंगी, फिर इतनी जल्दबाजी क्यों? शराब दुकानों के बाहर इस पागलपन को, जिसे ‘रिवेंज शॉपिंग’ कहते हैं, देखकर कई दुकान मालिक खुश थे और उन्होंने इस उम्मीद में तैयारी शुरू कर दी कि जब दुकानें पूरी तरह खुलेंगी तो ऐसी ही भीड़ होगी। लेकिन यह आकलन पूरी तरह से गलत साबित हो सकता है।
तो ‘रिवेंज शॉपिंग’ क्या है? इसका मतलब है ऐसे ग्राहकों द्वारा जरूरत से ज्यादा शॉपिंग करना, जिन्हें लॉकडाउन की वजह से लंबे समय से खरीदारी का मौका नहीं मिल रहा था। ऐसे में ग्राहक अपनी पसंदीदा दुकानों से जरूरत से ज्यादा चाही-अनचाही चीजें खरीदने लगते हैं। ऐसा कई अन्य देशों के लिए तो पूरी तरह सही साबित हुआ है। जैसे चीन में गुआंगझो में हर्मिस का फ्लैगशिप स्टोर खुला तो वहां करीब 20 करोड़ रुपए की बिक्री हुई, जो एक दिन में सबसे ज्यादा बिक्री थी। लेकिन इस वैश्विक अनुभव और शराब विक्रेताओं के अनुभव के आधार पर अपने लिए यह आकलन मत कीजिए कि बाकी दुकानों में भी लोग ‘रिवेंज शॉपिंग’ के खुमार में आ जाएंगे।
एक समाज के रूप में भारतीय हमेशा सावधानी के साथ खरीदारी करते हैं और हम मोलभाव या छूट वाली खरीद में विश्वास रखते हैं। भारतीय सहज रूप, समझदार खरीदार होते हैं और कभी भी शॉपिंग के वैश्विक तरीकों से प्रभावित नहीं होते। इसलिए खरीदारी आवश्यकता आधारित ही होगी और लोग बिना सोचे-समझे सामान इकट्‌ठा नहीं करेंगे। चूंकि हमने फॉर्मल कपड़े लॉकडाउन के दौरान इस्तेमाल नहीं किए हैं, इसलिए अलमारियों में कपड़े-जूते उपयोग के आधार पर व्यवस्थित ढंग से जमा लिए होंगे। इसके अलावा कम से कम 35 फीसदी लोगों के लिए वर्क फ्रॉम होम जारी रह सकता है, इसलिए त्योहारों का मौसम शुरू होने से पहले तक तो बड़े पैमाने पर शॉपिंग शुरू नहीं होगी।

फंडा यह है कि ‘रिवेंज शॉपिंग’ हमारे वैश्विक समाज में अभी नया बुखार है, लेकिन इसके आधार पर अपने बिजनेस की योजना न बनाएं, क्योंकि भारतीय उपभोक्ता अभी भी मूल्य आधारित पुरानी विचारधारा को मानते हैं।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें



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महामारी के बाद ‘स्वदेशी’ मोड़ ले सकती है वैश्विक अर्थव्यवस्था

कोरोना वायरस जैसे जिंदगी बदलने वाले संकट को देखकर अब इन अटकलों का उठना स्वाभाविक है कि यह महामारी किस तरह से हर चीज को बदल देगी? कोरोना वायरस ने ऐसे समय पर हमला किया है, जब दुनिया पहले ही भीतर की ओर मुड़ रही है यानी स्वदेशी का रुख कर रही है। लोगों के, धन के और सामान के मुक्त प्रवाह के रास्ते में देश बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। अब ये सभी रुझान तेज हो रहे हैं, खासकर जनवादी नेतृत्व वाले देशों में, जो इस महामारी का इस्तेमाल बाधाओं को खड़ी करने में कर रहे हैं। कोरोना वायरस के बाद का युग बहुत हद तक 2008 के संकट के बाद जैसा ही होगा, लेकिन इसमें अंदरूनी प्रवृत्तियां बहुत अधिक होंगी। जनवादी नेता विदेशियों पर प्रहार करने के प्रति अधिक उत्साही होते हैं, ये देश वैश्विक व्यापार, वैश्विक बैंक व अंतरराष्ट्रीय प्रवासन के लिए खुद को खोलने के प्रति भी कम इच्छुक होते हैं। इनकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थानीय उद्योगों पर अधिक निर्भर होती है। हालांकि, आज ऑनलाइन इकोनाॅमी की दुनिया में लोग हर जगह राेजगार, शिक्षा व मनोरंजन के लिए कोरोना वायरस से मुक्त घर का आश्रय ले रहे हैं।
2008 से पहले वैश्विक व्यापार वैश्विक अर्थव्यवस्था की तुलना में दोगुनी गति से बढ़ रहा था, लेकिन हाल के वर्षों में यह इस गति को नहीं बनाए रख सका और अब तो कुछ भी कहना मुश्किल है। 2020 में वैश्विक व्यापार में 15 फीसदी की कमी और इकोनॉमिक आउटपुट तीन गुना कम रहने का अनुमान है। इसके अलावा व्यापार की राजनीति वायरस के बाद उबरने की गति को भी धीमा कर देगी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भूमंडलीकरण के खिलाफ बयानबाजी जारी है। उनका कहना है कि ‘मैं सुनिश्चित नहीं हूं कि कौन ज्यादा खराब है, विश्व व्यापार संगठन या विश्व स्वास्थ्य संगठन’। वह दोनों पर ही चीन का समर्थक होने का आरोप लगाते रहे हैं। अब अंतर यह है कि ब्रिटेन, फ्रांस, ब्राजील, जापान और भारत समेत अनेक देशों में चीन विरोधी बयानबाजी बढ़ रही है। खाद्य राष्ट्रवाद बढ़ रहा है। 60 से अधिक देशों ने मास्क, दस्ताने और अन्य रक्षात्मक उपकरणों के निर्यात पर रोक लगा दी है। इस वायरस को रोकने के लिए हर तरह के राजनेताओं ने अकूत शक्तियों को हासिल कर लिया है। सत्तावादी प्रवृत्ति के नेता तो इस महामारी से अधिक अधिकारों के साथ बाहर निकलेंगे।
उभरते बाजारों में भाग्य चमकाने के लिए आए निवेशक वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से ही लौट रहे थे, लेकिन इस साल के पहले तीन महीनों में वापसी की यह गति तेज हो गई है और इस अवधि में उभरते स्टॉक मार्केटों से 6750 अरब रुपए से अधिक निकाले जा चुके हैं। 1980 के बाद गिरती ब्याज दरों और वित्तीय विनियमन की वजह से 2008 का संकट शुरू होने से पहले तक कर्ज देने में भारी तेजी आई। जिसने दुनिया पर कर्ज के बोझ को वैश्विक आर्थिक आउटपुट का तीन गुना कर दिया। उसी साल जमा में भारी कमी आने से बैंक बुरी तरह प्रभावित हुए और लोगों पर नए कर्ज लेने का डर हावी हो गया।
अब, आर्थिक लॉकडाउन में नगदी का प्रवाह रुकने से अमेरिका, यूरोप और एशिया की कर्ज में डूबी कंपनियों के दिवालिया होने का खतरा पैदा हो गया है। जो सप्लाई चेन अब तक दुनिया में फैली थी और बहुत हद तक चीन की फैक्टरियों पर निर्भर थी, अनेक देश उस पर पुनर्विचार कर रहे हैं। हाल ही में दुनिया के 12 उद्योगों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि इनमें से ऑटो, सेमीकंडक्टर और मेडिकल उपकरण जैसे दस क्षेत्रों की कंपनियों का कहना है कि वे सप्लाई चेन के अंतिम सिरे पर जाने की योजना बना रही हैं और इसका सीधा अर्थ है कि वे चीन से बाहर जा रही हैं।
इस महामारी ने इंटरनेट सहित सभी चीजांे को नियंत्रित करने की इच्छा रखने वाले जनवादियों को प्रोत्साहित किया है। चीन ने एक राष्ट्रीय इंटरनेट बनाकर रास्ता दिखाया है और कई लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं। अब लॉकडाउन ने लोगांे को घर पर बैठकर ही काम और खरीदारी करने, पढ़ने व खेलने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे विकसित देशाें में इंटरनेट ट्रैफिक 50 से 70 फीसदी बढ़ गया है। ये आदतें महामारी के बाद भी रह सकती है। मार्च के शुरू से अब तक गूगल क्लासरूम का इस्तेमाल करने वालों की संख्या दोगुनी होकर दस करोड़ से अधिक हो गई है। यद्यपि, इस वर्चुअल अर्थव्यवस्था का विकास भी घर पर स्क्रीन के सामने बैठकर काम कर रहे अकेले कर्मचारी की ओर आंतरिक मोड़ लिए हुए है, लेकिन दक्षता की ओर उसका फोकस उत्पादकता को बढ़ा सकता है। 2008 के संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे उबर पाई थी और अब भी लोगों का, धन का और सामान का धीमा प्रवाह है, जिसका मतलब कम प्रतिद्वंद्विता व कम निवेश है। जिन रुझानोंको आने में पांच या दस साल का समय लगना चाहिए था, इस महामारी से वे कुछ हफ्तों में ही आ गए हैं और सभी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे भी भीतर की ओर ही जा रहे हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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कोरोना से मिले प्रकृति के संकेतों को हमें समझना व सीखना होगा

कोरोना वायरस ने मानव सभ्यता के सामने कुछ मूूलभूत प्रश्न खड़े कर दिए हैं। ऐसा नहीं है कि ये प्रश्न हमने स्वयं से पहले कभी नहीं पूछे थे। पर शायद पहले हम इस प्रकार के प्रश्नों को इतनी गंभीरता से नहीं लेते थे। शायद हममें से कई थे जो बढ़ते उपभोक्तावाद से चिंतित होते थे, मात्र पैसे कमाने को ही जीवन का ध्येय समझ लेने की सोच से असहमत होते थे। पर कहीं उनके यह प्रश्न जीवन की आपाधापी में खो जाते थे। अब परिवार और रिश्तों को ही ले लें। कहीं अवचेतन में हम सभी को लगता था कि शायद हम रिश्तों को इतना समय नहीं दे रहे हैं। उन्हें सींच नहीं रहे हैं। पर, बार-बार जीवीकोपार्जन के क्रूर तथ्य के नीचे वे कोमल भावनाएं मौन हो जाती थीं। लॉकडाउन के दौरान मेरे कई मित्रों ने मुझे यह बताया कि वर्षों बाद उन्होंने इस तरह अपने परिवारों के साथ समय बिताया है और इस दौरान न जाने कितने भूले-बिसरे प्रसंग और यादें ताजा हो गई हैं। जीवन की न जाने कितनी ऐसी गलियों से वे पुन: गुजरे हैं, जिन्हें वे प्राय: भूल चुके थे। बशीर बद्र साहब का शेर है- ‘इस वक्त जो घर जाऊंगा, सब चौंक पड़ेंगे, इक उम्र हुई, दिन में कभी घर नहीं देखा’।
दरअसल पिछली कई पीढ़ियों की जीवनचर्या बिलकुल अलग रही है। उनकी प्राथमिकताएं अलग रही हैं। हमारी संस्कृति मूल रूप से व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को परिवार और समाज से कभी ऊपर नहीं रखती थी। पर धीरे-धीरे हमने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को जरूरत से ज्यादा महत्व देना शुरू कर दिया। ‘मैं’ अधिक महत्वपूर्ण हो गया और ‘रिश्ते’ कहीं पीछे रह गए। रिश्ते हमें अपने सपनों की दौड़ में बोझ लगने लगे। तब भी हम में से कुछ थे जिन्हें जीवन की प्राथमिकताओं में भावनाओं का पिछड़ जाना कचोटता रहा। पर हम भी एक पेंडुलम की तरह महत्वाकांक्षाओं और रिश्तों के बीच झूलते से दिखाई दिए।
कोरोना संकट ने एकाएक हमारे सामने फिर से वही प्रश्न खड़े किए तो इस बार इन प्रश्नों में धार थी। एक चेतावनी थी। आने वाले कल का संकेत था। हमने जब एक पल ठहर कर स्वयं के जीवन पर दृष्टि डाली तो हम सबको कहीं अंदर से यह अहसास हुआ कि हम शायद जीवन में जरूरी और गैर जरूरी का अंतर भूल चुके हैं। पर यहां मैं निराशावादी नहीं हो रहा हूं। मानव की यह खूबी है कि उसे स्वयं को बदलना भी आता है। और मुझे विश्वास है कि कोरोना संकट के बाद हमारे रिश्ते ज्यादा बलवान होंगे। उनमें अधिक सुवास होगी। आज जहां हम सोशल डिस्टेंसिंग और दूरियों की बात कर रहे हैं, वहीं हम रिश्तों में नजदीकियों की बात भी कर रहे हैं। विरोधाभास है, लेकिन सत्य भी है। संकट हमें तोड़ने के लिए आते हैं पर हमारा जुुड़ना हमारी शक्ति बन जाता है।
एक दूसरा प्रश्न मानव और प्रकृति के संबंध के विषय में है। यहां भी मुझे लगता है कि अगर हम भारतीय संस्कृति पर दृष्टि डालें तो एक अलग दृश्य दिखाई देगा। एक दृश्य जहां प्रकृति मानव को दुलार रही है। सत्य यह है कि हमारी संस्कृति ने कभी हमें प्रकृति से प्रतिद्वंद्विता करना नहीं सिखाया। हम तो प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं। उसके आदेशों को स्वीकार करते हैं। उस पर विजय पाना हमारा उद्देश्य कभी नहीं रहा। अब कहीं हम यह भी भूल गए और परिणाम स्वरूप हमें मिली कुपित प्रकृति, जिसका प्रकोप हमें झेलना ही होगा। प्रकृति के संकेतों को हमें समझना और सीखना होगा। और यहां भी मुझे लगता है हम इस संकट के दौरान जीते हैं। चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, हमने प्रकृति के साथ अपने रिश्ते पर एक दृष्टि तो डाली है। हम प्रकृति का इसी तरह लगातार शोषण नहीं कर सकते। हमारी नदियों ने, हमारे पहाड़ों ने, हमारी वायु ने कब से यह कहना शुरू कर दिया था कि ऐसे नहीं चल सकता। मानव को अपने आचरण को सुधारना ही होगा। और भी कई प्रश्न हैं जो आज हमारे सम्मुख आ खड़े हुए हैं। और मैं आशान्वित हूं, क्योंकि हम आज सुनने को तैयार हैं। हम आज बात करने को तैयार हैं। हम आज अपनी गलतियों से सीखने को तैैयार हैं। यदि मानव सभ्यता अपना अहं छोड़कर इन प्रश्नों का सही उत्तर खोजने का प्रयास करेगी तो एक नए युग का उदय होगा। मैं आशान्वित हूं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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चीन में परिवारवालों को बिना बताए कोरोना मरीजों के शव जला दिए गए, इटली के लोगों को भी अपनों को देखने का मौका नहीं

चीन के नेशनल हेल्थ कमीशन ने 2 फरवरी को एक आदेश जारी किया था, इसमें स्थानीय प्रशासन को कोरोना के मरीजों (चाहे वे किसी भी धर्म के हों) के शवों को जलाने के निर्देश दिए थे। इसमें शवों को हॉस्पिटल से ले जाकर अंतिम संस्कार करने तक क्या-क्या सावधानियां बरतनी हैं, वह भी बताया गया था। चीन सरकार के इस आदेश पर बड़ा विवाद हुआ था। मृत व्यक्ति के परिवारवालों के विरोध के बावजूद सरकार अपने आदेश पर कायम रही थी।

हालांकि, इस आदेश से पहले ही चीन के वुहान शहर में कोरोना से हो रही मौतों के बाद शवों को फौरन जला दिया जा रहा था। यहां तक कि वहां मृत व्यक्ति के परिवार के बिना ही अंतिम संस्कार किया जा रहा था। यहां घर के लोग अपनों की अस्थियां तक लेने हॉस्पिटल नहीं जा सकते थे।


ये कोरोना के शुरुआती प्रकोप का असर था कि चीन में सभी धर्म के लोगों का अंतिम संस्कार जलाकर ही किया जा रहा था। वैसे हिंदू धर्म में शव को जलाने की परंपरा रही है। सिख धर्म और बौद्ध धर्म में भी यही रिवाज है। लेकिन अब्राहमिक रिलिजियन (यहूदी, क्रिश्चियन और इस्लाम) में हमेशा से ही शवों को दफनाया जाता रहा है।

हां, कुछ ऐसी चीजें हैं जो इस दौरान हर समाज में एक जैसी होती हैं, जैसे उस शख्स को अंतिम विदाई देने के लिए परिवार, दोस्त, पड़ोसी समेत दूर-दूर के रिश्तेदारों का इकट्ठा होना, शव को नहलाकर नए कपड़े पहनाना, परिजनों का शव से लिपट-लिपटकर रोना। लेकिन इन दिनों अंतिम विदाई की ऐसे तस्वीरें दिखाईं नहीं दे रहीं।

खासकर कोरोना संक्रमित किसी शख्स के अंतिम संस्कार के लिए ये तरीके अब पूरी तरह बदल गए हैं...

ये तस्वीर यूरोपीय देश बेल्जियम की है। यहां मरने के बाद शव को दफनाया जाता है। लेकिन, कोरोना से जान गंवाने वाले लोगों का दफनाने की बजाय जलाकर अंतिम संस्कार किया गया।

चीन से निकलकर यह वायरस दुनिया के 200 से ज्यादा देशों में फैला। हर देश में चीन की तरह ही कोरोना संक्रमित व्यक्ति (जिंदा या मुर्दा) सरकार की प्रॉपर्टी हो गया। कोरोना संक्रमण का पता लगते ही व्यक्ति के सारे अधिकार खत्म कर दिए जाते हैं, उन्हें घर से उठाकर तुरंत क्वारैंटाइन कर दिया जाता है और इलाज के दौरान ही अगर वो मर जाता है तो उसका अंतिम संस्कार कैसे किया जाएगा वो भी सरकार ही तय करती है।


दुनियाभर में किसी कोरोना मरीज के अंतिम संस्कार पर जो तस्वीरें नजर आएंगी, उनमें कुछ मुठ्ठीभर लोग मास्क या पीपीई किट पहने नजर आएंगे। किसी देश में इन लोगों को शव को एक बार देखने की छूट है तो किसी देश में घरवालों को ये भी नसीब नहीं है। कहीं-कहीं पूरे रिवाजों के साथ अंतिम संस्कार तो हो रहा है लेकिन उसके लिए वॉलेंटियर रखे गए हैं।

आमतौर पर अंतिम संस्कार में घरवालों को ढांढस बंधाती तस्वीरें नजर आती थीं यानी परिजन मृत व्यक्ति के घरवालों को गले लगाते या आंसूपोछते दिखाई देते थे लेकिन अब ये लोग करीब 6-6 फीट दूर खड़े नजर आते हैं। किसी-किसी देश में तो रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार करने की भी मनाही है।


चीन की तरह ही श्रीलंका में भी कोरोना मरीज के शव को जलाने का ही आदेश है। मृत व्यक्ति अगर कोरोना नेगेटिव पाया गया हो लेकिन उसमें लक्षण इसी महामारी के हो तो भी उसे जलाया ही जा रहा है। यहां मुस्लिमों ने इस आदेश का विरोध भी किया लेकिन सरकार अपने आदेश पर कायम रही।

भारत में कोरोना संक्रमित मरीज की मौत के बाद घर वाले शव को देख तो सकते हैं, लेकिन छू नहीं सकते। अंतिम संस्कार में भी सिर्फ परिवार के लोग ही शामिल हो सकते हैं और सभी को पीपीई किट पहनना जरूरी है। (तस्वीर दिल्ली की है)

भारत सरकार कोरोना संक्रमित शव को जलाने और दफनाने दोनों की परमिशन देती है। हालांकि अंतिम संस्कार के लिए कुछ सख्त गाइडलाइन्स हैं। यहां कोरोना संक्रमित का शव प्रशिक्षित हेल्थ प्रोफेशनल ही ले जाते हैं। ये हेल्थ प्रोफेशनल पीपीई किट में होते हैं।

शव भी एक प्लास्टिक बैग में होता है। घर वाले शव को देख तो सकते हैं, लेकिन छू नहीं सकते। अंतिम संस्कार में शव को बिना छूए जो रिवाज हो सकते हैं, बस वही किए जा रहे हैं। इसके बाद सीधे शव को या तो जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है। यहां सिर्फ परिवार के लोगों को ही अंतिम संस्कार में आने की अनुमति होती है और सभी को पीपीई किट पहनना जरूरी है।


हालांकि मुंबई नगर निगम ने मार्च में ही एक विवादित आदेश दिया था। इसमें महामारी एक्ट 1897 के तहत बीएमसी ने सर्कुलर जारी कर हर कोरोना संक्रमित शव को जलाने का आदेश दिया था। मुस्लिम और ईसाई समाज के लोगों ने इसका विरोध किया था। इसके बाद विवाद बढ़ने पर इस फैसले को वापस भी ले लिया गया था।


कोरोना संक्रमित शव के अंतिम संस्कार के लिए हर देश की अपनी गाइडलाइन्स हैं। वैसे डब्लूएचओ की गाइडलाइन्स के मुताबिक, रिवाजों के हिसाब से शव को दफनाया भी जा सकता है और जलाया भी। परिवार वाले मृत व्यक्ति को देख भी सकते हैं लेकिन उन्हें छू नहीं सकते। जो टीम शव को कब्र में डालती है या लकड़ी पर लेटाती है, उन्हें पीपीई किट में होना चाहिए और पूरी प्रक्रिया के बाद पीपीई किट फेंककर अपने हाथों को धोना चाहिए। इसमें अंतिम संस्कार के दौरान ज्यादा लोगों की भीड़ न करने की भी सलाह दी गई है।

ये तस्वीर इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता की है। यहां कोरोना संक्रमित की मौत के बाद उसके परिजन कई फीट दूर खड़े हैं और हेल्थ वर्कर्स उसके शव को दफना रहे हैं।

अमेरिका इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित है। यहां फ्यूनरल के लिए सेंट्रल फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की गाइडलाइन्स के मुताबिक, लोगों को अपने रिवाजों के हिसाब से अंतिम संस्कार करने की परमिशन है लेकिन 10 से ज्यादा लोगों की भीड़ न करने की सलाह दी गई है। अमेरिका में नियम अन्य देशों के मुकाबले थोड़े लचीले हैं।

सीडीसी के मुताबिक, कोरोना संक्रमित शव को छूने से बचना चाहिए। वैसे हाथ-पैर को छूने से कोरोना फैलने का खतरा इतना ज्यादा नहीं है। लेकिन छूने के बाद अपने हाथ साबुन से 20 सेकंड तक धोने का कहा गया है। किसिंग, बॉडी को नहलाने जैसी चीजों को न करने की सलाह दी गई है।


यहां अगर किसी सभ्यता में नहलाने, बाल बांधने जैसी रिवाज जरूरी है, तो पीपीई किट पहनने की सलाह दी गई है। जिसमें गॉगल्स, फेस मास्क, ग्लव्स सभी शामिल हैं।


कोरोना के दूसरे सबसे ज्यादा प्रभावित देश ब्रिटेन में भी मृत व्यक्ति के परिवार वालों को ही फ्यूनरल में जाने की परमिशन होती है। हर देश की तरह यहां भी संक्रमित शव का जल्द से जल्द अंतिम संस्कार करने की एडवायजरी है।


मार्च में जब इटली में कोरोना से मौतें बढ़ने लगी तो यहां अंतिम संस्कार के लिए सख्त नियम बने। हॉस्पिटल से ही डेड बॉडी को कॉफिन में रखकर बाहर निकाला जाता है। 2 से 4 रिश्तेदार ही इस दौरान साथ होते हैं। किसी को शव देखने की भी अनुमति नहीं है। आमतौर पर मृत व्यक्ति को उसकी पसंद के कपड़े पहनाकर अंतिम विदाई देने की यहां परंपरा रही है लेकिन कोरोना मरीजों को हॉस्पिटल के गाउन में ही दफनाया जा रहा है। यहां फ्यूनरल हाउसेस के लोग ही परिवार वालों द्वारा दिए गए कपड़े शव के ऊपर रख देते हैं।


ईरान में तो यह हालत थी कि लाशें ट्रकों में आ रहीं थीं और इन्हें बिना इस्लामी रिवाज पूरे किए सीधे दफनाया जा रहा था। हालांकि बाद में परिजनों के सामने गहरा गड्ढा खोदकर शव को दफनाया जाने लगा।


दक्षिण कोरिया में किसी की मौत हो जाने पर तीन दिन तक प्रार्थना सभाएं और दावतें होती हैं। आमतौर पर हॉस्पिटल में ही अंतिम संस्कार होता है। अब मुठ्ठीभर लोग ही शोक सभाओं में आते हैं और अपनी संवेदना देकर चले जाते हैं।

ये तस्वीर इराक की है। यहां कोरोना से मरने वाले लोगों को दफनाने के लिए नजफ शहर से 20 किमी दूर कब्रिस्तान बनाया गया है।

यहूदियों में भी शवों को नहलाकर नए कपड़े पहनाने का रिवाज होता है। इजरायल में पहले इस रिवाज पर बैन लगाया गया लेकिन बाद में कोरोना संक्रमितों के शवों को नहलाने और कपड़े पहनाने की परमिशन दी गई लेकिन ये काम घर के लोग नहीं बल्कि वॉलेंटियरों द्वारा किया जाता है।

इजरायल की हेल्थ मिनिस्ट्री की गाइडलाइन्स के मुताबिक अंतिम संस्कार के लिए यहां महिला और पुरुष वॉलेंटियरों को तैयार किया गया है। यहां घर वालों को मृत व्यक्ति का चेहरा देखने की परमिशन है। फ्यूनरल में आने वाले लोगों को भी पीपीई किट पहनना जरूरी है।


तुर्की में भी कुछ इसी तरह का नजारा दिखता है। यहां कोविड मरीज के शव को दफनाने से पहले नहलाए जाने की परमिशन तो है लेकिन ये काम परिवार वाले नहीं बल्कि कब्रिस्तान वालों के जिम्मे ही होता है। ये पूरी सतर्कता के साथ अंतिम रिवाज पूरे करवाते हैं। इमाम भी मास्क लगाकर बहुत दूर से प्रार्थना करते हैं।


आयरलैंड में भी चर्च के अंदर जाने की मनाही है। ऐसे में लोग बाहर दूर-दूर खड़े होकर लोगों को अंतिम विदाई देते देखे जा रहे हैं।


सभी देशों में फ्यूनरल पर कम से कम लोगों को आने के लिए कहा गया है। फ्रांस और ब्राजील जैसे देशों में यह संख्या 10 तक सीमित कर दी गई है। फिलीपींस में तो कोरोना मरीज को 12 घंटे के अंदर दफनाने के आदेश हैं।



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ये तस्वीर मुंबई की है। यहां कोरोना से पीड़ित मरीज की मौत के बाद नगर निगम के कर्मचारी उसके शव को ले जा रहे हैं और परिजन दूर खड़े हुए रो रहे हैं।




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‘रमजान में हर साल हम गरीबों की मदद करते थे, लेकिन इस साल खुद मदद के लिए भटक रहे, यह महीना इतना काला कभी नहीं था’

इस साल फरवरी में तीन साल बाद आया एक ज्यादा दिन फ़हमीदा के जीवन का सबसे बड़ा दिन होने वाला था। 29 फरवरी को उनका निकाह होना तय हुआ था। अपने जीवनसाथी के साथ पहली ईद मनाने को लेकर फ़हमीदा ने कई सपने बुने थे। लेकिन, ये सपने सच होने की जगह दिल्ली में हुए दंगों में जलकर राख हो गए। निकाह से ठीक चार दिन पहले दंगाइयों ने फ़हमीदा का पूरा घर फूंक डाला। रमज़ान का ये महीना जो फ़हमीदा के लिए बेहद ख़ास होने वाला था, उनके जीवन के सबसे काले दिनों में बदल गया।


काली पड़ी दीवारें, जल चुके खिड़की-दरवाज़े और लगभग टूटने को तैयार छत के नीचे फ़हमीदा किसी तरह अपने परिवार के साथ दिन गुज़ार रही हैं। उनके पिता मोहम्मद असद कहते हैं, ‘कई साल मेहनत-मज़दूरी करके बेटी की शादी के लिए पैसे जुटाए थे। सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी और बेटी के हाथों में उस दिन मेहंदी लग रही थी जब दंगाइयों ने हमारा घर जला दिया। बस किसी तरह हम लोग अपनी जान बचा सके। शादी के लिए जो कुछ भी जमा किया था वो या तो लूट लिया गया या जला दिया गया।’


उत्तर पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाके में बीती फरवरी जब दंगे भड़के तो मोहम्मद असद भी इलाके के बाकी लोगों की तरह अपना सब कुछ पीछे छोड़ इस इलाके से पलायन कर गए थे। दंगों के बाद वे कभी किसी मस्जिद में रहे तो कभी किसी मददगार की पनाह में। वो बताते हैं, ‘दंगों में मौत को इतना करीब से देखा था कि वापस लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।


लेकिन, फिर कोरोना के चलते लॉकडाउन हुआ तो राहत शिविर भी खाली करवाए जाने लगे और सार्वजनिक जगहें भी। जिनकी माली हालत थोड़ा ठीक थी, उन्होंने तो किराए पर घर ले लिए, लेकिन हमारे बस में ये नहीं था। काम-धंधा ही नहीं है तो किराया भी कहां से जुटाते। सो वापस यहीं लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।’

दंगाइयों ने लोगों के घर तक जला दिए थे। इसी जले हुए घर में परिवार के साथ रह रहे हैं नूर इस्लाम। लॉकडाउन की वजह से वे घर की मरम्मत भी नहीं करवा पा रहे।

मोहम्मद असद की ही तरह दर्जनों दंगा पीड़ित परिवार इन दिनों जल चुके जर्जर मकानों में रहने को मजबूर हो गए हैं। इन मकानों की स्थिति ऐसी है कि अंदर घुसते हुए डर बना रहता है कि जाने कब मकान की छत गिर पड़े। दीवारों से लेकर छत तक जगह-जगह दरारें पड़ गई हैं, कई मकानों की छतें झूल रही हैं, जहां-तहां आग की कालिख फैली हुई है और जला हुआ सामान अब भी घरों में ही पड़ा है।

लॉकडाउन के चलते इन घरों की मरम्मत भी फिलहाल नामुमकिन हो गई है और ऐसे में ये तमाम लोग इन्हीं जर्जर इमारतों में कैद होकर रह गए हैं।


ऐसे ही एक घर में रह रहे 52 साल के सदरे आलम कहते हैं, ‘मेरा बड़ा बेटा इलेक्ट्रिशियन का काम करता है। उसने ही घर में किसी तरह दो बल्ब जलाने का इंतज़ाम कर दिया है। इस कालिख और जले हुए सामान के बीच ही किसी तरह दिन गुजार रहे हैं। मुआवजे के नाम पर अभी तक हमें एक रुपया भी नहीं मिला है। कुछ मुआवज़ा मिलेगा और लॉकडाउन ख़त्म होगा तो घर की हालत सुधारने की सोचेंगे।’


वैसे सदरे आलम जैसे कम ही लोग हैं जिनके घर दंगों में जलने के बावजूद भी अब तक कोई मुआवज़ा नहीं मिला है। ज़्यादातर दंगा पीड़ितों को घर जलने के एवज में मुआवजा मिलने की शुरुआत हो चुकी है। यह मुआवजा किसी को अब तक डेढ़-दो लाख ही मिल सका है तो किसी को सात-आठ लाख तक भी मिला है। लेकिन इसके बाद इन पीड़ितों के सामने कई तरह की समस्याएं खड़ी हैं।

साहिदा भी उन लोगों में से हैं, जिनके घर में दंगाइयों ने घुसकर तोड़-फोड़ की थी। दंगाइयों द्वारा तोड़ी गई अपनी गई एलईडी स्क्रीन दिखातीं साहिदा।

मोहम्मद शाहिद बताते हैं, ‘दंगा प्रभावित इलाक़ों में रहने वाले अधिकतर लोग दिहाड़ी वाला काम ही किया करते हैं। कोई इलेक्ट्रिशियन है, कोई ऑटो चलाता है, कोई पल्लेदारी करता है तो कोई चौकीदारी करता है। इन दिनों लॉकडाउन के चलते सारे काम बंद हैं। हमारे लिए तो लॉकडाउन से भी महीने भर पहले से ही काम बंद हो गए थे जब दंगों में सब कुछ जल गया। मुझे ढाई लाख रुपए मुआवजा मिला है। लेकिन इस पैसे से घर कैसे बनवा पाऊंगा। महीनों से काम-धंधा बंद है तो इसी पैसे से खर्च चल रहा है और इस दौरान हुई उधारी चुका रहा हूं।’


रमज़ान का महीना इबादत और मदद का होता है। मोहम्मद नफ़ीस कहते हैं, ‘इन दिनों हर साल हम गरीबों की मदद किया करते थे लेकिन इस साल खुद ही मदद के लिए भटक रहे हैं। हालात ने मंगता बनाकर रख दिया है। रमज़ान का महीना है तो कई लोग राशन बांटने आ रहे हैं। उसी से परिवार का पेट भरते हैं और कालिख भरी इन दीवारों के बीच ही सो जाते हैं। रमज़ान का महीना इतना काला कभी नहीं था। ख़ुदा करे कभी आगे भी कभी न हो।’


दंगा प्रभावित इन इलाक़ों में सरकारी मदद भले ही अब तक सीमित पहुंची हो लेकिन रमज़ान में दान-धर्म का काम करने वाले कई लोग यहां आकर पीड़ितों की मदद कर रहे हैं। यहां रहने वालीं रशीदा बताती हैं, ‘कई लोग ऐसे भी मदद कर जाते हैं कि राशन के पैकेट के अंदर हजार-हजार रुपए रखे मिलते हैं। एक विधवा औरत को तो किसी ने नई स्कूटी भी खरीद कर दान की क्योंकि उसकी स्कूटी दंगों में जल गई थी। नई स्कूटी देने वाले ने अपना नाम भी नहीं बताया बस चुपचाप स्कूटी खरीद कर दे गया। जबकि कई लोग यहां ऐसे आते हैं कि दो किलो राशन देकर बीस फोटो उतारते हैं। ऐसे में राशन लेते हुए शर्म भी आती है लेकिन जब हालात ने ही ऐसे दिन दिखा दिए तो क्या कर सकते हैं।’

जिन इलाकों में दंगे भड़के थे। वहां दो महीने बाद अब भी बिना बिजली और पानी के जले हुए घरों में ही रहने को मजबूर हैं दर्जनों परिवार।

पतली-तंग गलियों में बने इन संकरे और ऊंचे घरों में गर्मियां आफत बनकर टूटती हैं। दंगों की आग की कालिख ने इस बार गर्मी को और भी क्रूर बना दिया है। चूंकि घरों में लगी बिजली की सभी तारें जल चुकी हैं लिहाजा इन लोगों के पास पंखों तक की व्यवस्था भी नहीं है। लेकिन, दंगों की आग में झुलस चुके इन लोगों की परेशानी इतनी बड़ी हैं कि गर्मी से लड़ना बहुत छोटी बात जान पड़ती है। 65 वर्षीय मोहम्मद साफ़िर कहते हैं, ‘गर्मी तो हम किसी भी तरह झेल लेंगे। हमें चिंता तो इस बात की है कि कहीं पूरा मकान ही न गिर पड़े। दंगों के दौरान मेरे घर में सिलेंडर फटा था जिसके कारण घर कभी भी गिरने की हालात में हो गया है। अब जो बचा है, वह पूरा तोड़कर दोबारा बनाना होगा। चिंता ये है कि कहीं लॉकडाउन के ख़त्म होने से पहले ही ये टूट न जाए। रात को सोते हुए यही डर बना रहता है।’


कोरोना संक्रमण के चलते हुए लॉकडाउन में देश के लाखों प्रवासी मज़दूर अलग-अलग शहरों में फंसे हुए हैं। इनमें कई ऐसे भी हैं जिन्हें बेहद मुश्किल हालात में ये दिन गुजारने पड़ रहे हैं और वे बस अपने घर लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन खजूरी ख़ास के इन दंगा प्रभावितों से ज़्यादा अमानवीय स्थिति में शायद ही कोई और फंसा हुआ हो।


जले हुए जर्जर मकानों में दंगों के भयावह निशानों के बीच फंसे इन लोगों के पास घर लौट जाने का भी विकल्प नहीं है क्योंकि ये अपने ही घरों में फंस गए हैं। वही घर जो इन कामगार लोगों ने दशकों की मेहनत के बाद खड़ा किया था और जिसे हर साल रमज़ान के महीने ये चमका कर नए जैसा करते आए थे। इस साल बस घर की दीवारों से कालिख धो-धोकर किसी तरह उम्मीद बांधे ये लोग इंतज़ार में हैं कि लॉकडाउन खुलने और घर की मरम्मत होने से पहले ही कहीं पूरी इमारत ढह न जाए।



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फहमीदा का निकाह 29 फरवरी को होना था, लेकिन दंगों की वजह से नहीं हो सका। फहमीदा की तरह ही रवीना की शादी भी पहले दंगों और फिर लॉकडाउन के चलते नहीं हो सकी।




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6 माह की प्रेग्नेंट महिला अकेली सऊदी अरब में फंसी, पति हॉन्गकॉन्ग में, कुछ दिन और निकल गए तो फिर आना मुश्किल

मप्र के सतना की माधुरी शुक्ला त्रिपाठी सऊदी अरब में फंसी हुई हैं। न उनके साथ पति हैं, न परिवार। कंपनी ने दिसंबर तक का अनिवार्य अवकाश दे दिया है, तो अब सैलरी भी नहीं मिल रही। इस बीच तीन गुना दाम पर खुद ही सब्जियां-फल खरीद रही हैं। राशन खरीदने के लिए पैदल जा रही हैं। और बार-बार पति और परिवार से वॉट्सऐप के जरिए बात कर रही हैं।

माधुरी की मदद के लिए उनके साथ अभी कोई नहीं है।

माधुरी अरब एयरलाइंस में क्रू मेम्बर हैं। फरवरी में वे लंबी छुटि्टयों पर भारत आईं थीं। यहीं उन्हें पता चला कि वे प्रेग्नेंट हैं। इसके बाद वे मैटरनिटी लीव (मातृत्व अवकाश) की प्रक्रिया पूरी करने 11 मार्च को दिल्ली से वापिस सऊदी गईं।

उन्होंने जनवरी 2021 तक की छुटि्टयों के लिए अप्लाई किया था, ताकि प्रेग्नेंसी में किसी तरह की दिक्कत न हो।

जब वहां पहुंची तब तक सऊदी अरब में कोरोनावायरस फैल चुका था। पूरे देश में अफरा-तफरी मची हुई थी। इसी कारण माधुरी की छुट्‌टी की प्रॉसेस को पूरा करने में कंपनी ने टाइम लगा दिया और 15 मार्च को उन्हें अप्रूवल मिल पाया, लेकिन तब तक भारत के लिए फ्लाइट बंद हो चुकीं थीं और सऊदी अरब में लॉकडाउन हो गया था।

हैरत की बात यह है कि वहां लोगों तक समय पर यह जानकारी पहुंच ही नहीं पाई थी कि भारत के लिए आखिरी फ्लाइट कब निकलने वाली है।

पति से वॉट्सऐप के जरिए संपर्क में रहती हैं।

कुछ दिनों बाद ट्रैवल करना भी हो जाएगा मुश्किल
माधुरी ने बताया कि, मैं प्रेग्नेंट हूं और प्रेग्नेंसी के 6 माह पूरे होने के बाद फ्लाइट में ट्रैवल भी नहीं कर सकूंगी। ट्रैवल तभी कर पाऊंगी जब कोई डॉक्टर मुझे अप्रूवल दे और ऐसी स्थिति में कोई डॉक्टर रिस्क नहीं लेना चाहते। 6 महीने पूरे होने में कुछ दिन ही रह गए हैं।

वे कहती हैं, यहां कंपनी के कैंपस में ही रह रहे हैं। कई देशों के लोग फंसे हुए हैं। हॉस्पिटल जाओ तो डॉक्टर पूरा ध्यान नहीं देते। लड़ाई-झगड़ा करके खुद काईलाज करवाना पड़ता है। कोरोना के चलते कोई जांच भी नहीं हो पा रहीं।

भारत की 3 माह की एक और प्रेग्नेंट महिला भी फंसी
माधुरी के मुताबिक, उनके साथ भारत की भावना डूबर नाम की एक अन्य महिला भी यहीं फंसी हैं, जो तीन माह की प्रेग्नेंट हैं। उन्हें कुछ दिन पहले दर्द हुआ था, तब ऑफिस के सहकर्मीडॉक्टर के पास लेकर गए थे।

लेकिन कोरोना के चलते कोई जांच नहीं हो पाई। डॉक्टर ने सिर्फ इतना ही बताया कि बच्चे का मूवमेंट नहीं हो पा रहा है। जैसे-तैसे वे एक अन्य डॉक्टर के पास पहुंची, उन्होंने ब्लड और यूरिन के सैंपल लिए हैं, जिसकी रिपोर्ट एक हफ्ते बाद आएगी।

माधुरी ने बताया कि कई बार दूतावास में संपर्क कर चुके हैं लेकिन वहां से कहा गया है कि अभी हमें भारत की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली है। जब कोई सूचना आएगी तो सोशल मीडिया पर जानकारी डाल दी जाएगी।

माधुरी 2015 से सऊदी अरब में जॉब कर रही हैं।

पति का चिंता में बुरा हाल, हॉन्गकॉन्ग में फंसे हैं
माधुरी के पति हेमंत त्रिपाठी हॉन्गकॉन्ग में जॉब करते हैं। भास्कर से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि, हॉन्गकॉन्ग में सब नॉर्मल है। यहां कोई लॉकडाउन भी नहीं लेकिन अब मुझे अपनी वाइफ की चिंता हरदम सता रही है।

जब मुझे उसके साथ होना था, तब मैं नहीं हूं। उसे हर काम अकेले करना पड़ रहा है। मैं कई बार उसे वीडियो कॉल करता हूं। लेकिन उसकी तकलीफ अब देखी नहीं जाती।



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Saudi Arabia India Coronavirus Lockdown News Updates; Madhya Pradesh Woman From Satna Stranded In Jeddah, Appeal For Help




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जिंदगी और जीविका में संतुलन बनाना होगा

राजा का लॉकडाउन प्रजा ने पाला। अब प्रजा का लॉकडाउन शुरू हो गया है और प्रजा को ही पालना पड़ेगा। सत्ता ने अपनी पूरी ताकत और समझ लगा दी कोरोना से युद्ध करने में। इस युद्ध में यह बात निकलकर आ गई कि इससे निपटने का सबसे बड़ा उपचार है अपनी सुरक्षा स्वयं करना। इस समय देश के हर समझदार व्यक्ति के भीतर एक द्वंद्व चल रहा है। मस्तिष्क में आधा हिस्सा जीवन की बात और बाकी आधा हिस्सा जीविका की चर्चा कर रहा होगा। जीविका चाहती होगी अब तो लॉकडाउन पूरी तरह खुल जाए और जीवन कहता होगा बचने के लिए यह भी जरूरी है। सोशल डिस्टेंसिंग, टेस्टिंग, कोरेंटाइन ये सब छोटी-छोटी दवाएं हैं और अब इन्हें समझने का समय आ गया। आज बहुत से लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि देश में ऐसा कठिन दौर कभी नहीं आया। लेकिन हमारा भारत बहुत निराला है। हमने इससे भी कठिन दौर देखे हैं। जब इस धरती पर राम थे, कृष्ण थे तब भी कठिन समय आया है। सीता का अपहरण, भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण? क्या दौर रहा होगा वह भी। कंस के अत्याचारों की कहानियां तो सुनकर रूह कांप जाती है। कुल मिलाकर कोई न कोई दैत्य अपने वरदानों की आड़ में हमेशा ही अत्याचार करता आया है। लेकिन उस वरदान के पीछे के शाप को ढूंढकर कहां उसे रोका जा सकता है, कहां मोड़ा जा सकता है और कैसे मिटाया जा सकता है? अब इस समझ के साथ जिंदगी और जीविका का संतुलन बनाना होगा..।

जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें



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बिजनेस में इनोवेशन से खींचिए सबका ध्यान

आप जब ये लेख पढ़ रहे होंगे तब ‘वंदे भारत मिशन’ नाम का एक विशाल एयरलिफ्ट ऑपरेशन चल रहा होगा, जिसमें 65 फ्लाइट्स करीब 15 हजार भारतीयों को 12 देशों से ला रही होंगी। यह उस ऑपरेशन का पहला हफ्ता है जो लाखों लोगों को स्वदेश लाएगा। इस गौरवपूर्ण पल के बीच इसमें कोई शक नहीं कि लॉकडाउन का कई बिजनेस पर आर्थिक असर भी पड़ा है। लेकिन कुछ बिजनेस बदलाव लाकर कुछ नया कर रहे हैं, ताकि संकट में भी बिजनेस चलता रहे। ये कुछ उदाहरण हैं।
पहली कहानी: जल स्रोतों, जैसे बारहमासी नदियां, तालाब या समुद्र किनारा या फिर ठंडे पहाड़ी इलाकों के रिजॉर्ट इन दिनों अच्छा बिजनेस करते हैं। खासतौर पर तब, जब हिंदू पचांग के अनुसार यह समय ‘अग्नि नक्षत्र’ का होता है, जब गर्मी चरम पर होती है। सामान्य परिस्थितियों में इन रिजॉर्ट्स में कमरा मिलना मुश्किल होता है। लेकिन कोरोना वायरस ने बिजनेस को अस्तव्यस्त कर दिया है। केरल पर्यटन विभाग ने प्राकृतिक इलाके में रिजॉर्ट्स की उपलब्धि की जानकारी इकट्ठा की और कुमाराकोम के 19 में से 12 रिजॉर्ट्स ने लौट रहे प्रवासियों को पेड क्वारेंटाइन की सुविधा देने की इच्छा जताई। इन रिजॉर्ट्स में 357 कमरे तैयार हैं। आमतौर पर दो लोगों के लिए कमरे का 60 हजार रुपए होता है लेकिन अभी कीमत घटाकर 17 हजार रुपए (टैक्स अतिरिक्त) कर दी है। जिन कमरों की कीमत 9 से 12 हजार रुपए थी, वे अब 4,500 रुपए में मिल रहे हैं, वहीं अकेले व्यक्ति के लिए सिंगल रूम की कीमत 3000 रुपए प्रतिदिन है।
कीमतों में कटौती का मुख्य कारण इन प्रॉपर्टीज को जीरो प्रॉफिट पर चलाना है, क्योंकि लॉकडाउन के बाद बंद प्रॉपर्टी के रखरखाव में बहुत खर्च करना पड़ता। कई होटलों ने हाइजीन और सेफ्टी मैनेजर्स रखे हैं, कोविड-19 की जांच के लिए मानक प्रक्रियाएं अपनाई हैं, दो ग्राहकों में सुरक्षित दूरी बनाए रखने के लिए रेस्तरां और लॉबी में बदलाव किए हैं और सार्वजनिक जगहों पर बार-बार छुई जाने वाली बिंदुओं पर इलेक्ट्रोस्टेटिक स्प्रेयर लगाए गए हैं। पर्यटन पर निर्भर राज्य के हॉस्पिटैलिटी पेशेवर इस कदम को पर्यटन सेक्टर के पुनरुद्धार का तरीका मान रहे हैं। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी, क्योंकि होटल स्थानीय लोगों से सब्जियां, अंडे और दूध खरीदेंगे। इसी तरह केरल की एयरपोर्ट से चलने वाली टैक्सियों में अपनी तरह का पहला प्रयोग हुआ है। इनमें ड्राइवर और यात्री को अलग करने के लिए बीच में फाइबर ग्लास लगाए गए हैं, जो सालभर लगे रहेंगे।
दूसरी कहानी: सैलून को कीटाणुओं और कोरोना वायरस के फैलने के ठिकाने के रूप में देखा जा रहा है और चरणबद्ध तरीके से खोले जाने वाले लॉकडाउन में इन्हें खोलना आखिरी प्राथमिकता होगी। हम-आप तो फिलहाल घर पर हैं, लेकिन सबसे बुरा असर पुलिसवालों पर हुआ है, जिन्हें नियमानुसार छोटे बाल रखना जरूरी है। सैलून बंद होने के कारण उन्हें तेज धूप में पसीना बहाना पड़ रहा है। लेकिन केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम के पास त्रिपुनिथुरा में केरल सशस्त्र पुलिस बटालियन-1 को इसका हल निकालने में ज्यादा समय नहीं लगा। कोविड-19 को कम करने के प्रयासों पर चर्चा के दौरान जम्मू में आर्मी डॉक्टर विकास यादव ने अस्थायी चलित सैलून और रिफ्रेशमेंट वाहन का सुझाव दिया। वरिष्ठ अधिकारियों की अनुमति के बाद स्थानीय स्रोतों और विशेषज्ञों की मदद से ऐसा वाहन तैयार कर लिया गया।

फंडा यह है कि वैश्विक महामारी का यह समय सभी के लिए कठिन है। लेकिन यह सभी बिजनेसमेन के लिए इनोवेशन या कुछ बहुत नया करने का समय भी है, जो सभी का ध्यान खींचे।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें



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धरती पर मुक्ति : बुद्धम शरणम गच्छामि

पंजाब के गुरदासपुर में सफल वकील किशोरीलाल आनंद ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और जेल भी गए। उनके ज्येष्ठ पुत्र चेतन आनंद को उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी भेजा। चेतन आनंद ने लाहौर के कॉलेज में भी शिक्षा ग्रहण की और बाद में लंदन में भी अध्ययन किया। चेतन आनंद अपनी पत्नी उमा और भाइयों देव आनंद तथा विजय आनंद के साथ मुुंबई आए। उन्होंने पाली हिल में एक बंगला किराए पर लिया। वह बंगला वामपंथी लेखकों और कवियों का मिलन स्थल बन गया। चेतन आनंद और बलराज साहनी गहरे मित्र रहे। बलराज और चेतन में विवाद के बाद संवाद रुक गया। कुछ वर्ष पश्चात चेतन आनंद ने तत्कालीन पंजाब मुख्यमंत्री की आर्थिक सहायता से अपनी फिल्म ‘हकीकत’ प्रारंभ की। लेखन और निर्माण में अपने मित्र बलराज साहनी से सहायता मांगी और दोनों सृजनधर्मी पुन: हमराही हो गए।
चेतन आनंद ने महात्मा बुद्ध के संदेश से प्रेरित ‘अंजलि’ फिल्म की रचना की। फिल्म को दर्शक नहीं मिले। सन् 1946 में फ्यौदार दोस्तोवस्की की ‘लोअर डेप्थ’ से प्रेरित फिल्म ‘नीचा नगर’ चेतन आनंद बना चुके थे। उन्होंने मूल रचना के पात्रों को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े लोगों के चरित्र से जोड़कर भूमिकाएं विकसित कीं। फिल्म के पूंजी निवेशक ने वितरकों की नापसंदगी के कारण फिल्म को अपने कपड़ा गोदाम में फेंक दिया। हिदायत उल्ला अंसारी की सिफारिश पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘नीचा नगर’ देखी और उसके प्रदर्शन के लिए राह बनाई। नेहरू के मित्र अलेक्जेंडर कोरबा ने फिल्म के लंदन प्रदर्शन की व्यवस्था की। नेहरू-चेतन आनंद पत्र उमा आनंद की किताब ‘पोएटिक्स ऑफ फिल्म’ में प्रकाशित है। फिल्म को पुरस्कार दिया गया था।
हमारे संविधान की रचना करने वालों में अग्रणी नेता बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन से प्रेरित सीरियल टेलीविजन पर दिखाया जा रहा है। उन्होंने भी बौद्ध धर्म का प्रचार किया है। बालपन से ही भीम प्रश्न करता है कि जल एक है तो प्यास को किसने बांटा, ज्ञान एक है तो शिक्षा को किसने बांटा, मनुष्य को जातियों में किसने बांटा। बांटकर ही हम पर शासन किया गया है और यह सिलसिला आज भी जारी है। ज्ञातव्य है कि हिमांशु राय और देविका रानी ने महात्मा बुद्ध से प्रेरित ‘लाइट ऑफ एशिया’ बनाई थी। महात्मा बुद्ध प्रेरित दूसरी फिल्म किशोर साहू द्वारा बनाई गई ‘कुणाल की आंखें’ थी। संतोष शिवन ने करीना कपूर और शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘अशोक’ बनाई थी। इतिहास में दर्ज हैै कि महत्वाकांक्षा के घोड़े पर सवार सम्राट अशोक ने स्वजनों की हत्याएं की थीं। कलिंग युद्ध के पश्चात उन्होंने महात्मा बुद्ध के आदर्श को अपनाया और विदेशों में प्रचार भी किया। बुद्ध पूर्णिमा के दिन महात्मा बुद्ध को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हुआ था। माना जाता है कि पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था और उस स्थान को बोध गया कहा जाने लगा। भारत ने चीन को महात्मा बुद्ध के आदर्श दिए और चीन ने हमें कोरोना दिया। ज्ञातव्य है कि कोनरेड रुक्स ने शशि कपूर और सिमी ग्रेवाल अभिनीत फिल्म ‘सिद्धार्थ’ बनाई थी। फिल्म अपने बेबाक दृश्यों के लिए चर्चित हुई, परंतु दर्शक वर्ग को आकर्षित नहीं कर पाई। फिल्मकार के. विश्वनाथ ने अनिल कपूर और विजया शांति अभिनीत फिल्म ‘ईश्वर’ का निर्माण किया था। इस फिल्म के क्लाइमैक्स में समूह गीत प्रस्तुत किया गया है.. ‘बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि..। दया-धर्म से, भले कर्म से स्वर्ग बने धरती, कर्म करो, दान करो, पुण्य करो तो यहीं मिले मुक्ति.... बुद्धम शरणम गच्छामि...।’



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Salvation on Earth: Buddham Sharanam Gachchhami




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धारणाएं बदलकर अमीर बनने के लिए काम करने की जरूरत

क्या आप जानते हैं कि भारतीय लॉकडाउन से लोगों को इतनी तकलीफ क्यों हुई है, जबकि हमने कोरोना को नियंत्रित करने में तुलनात्मक रूप से बहुत अच्छा काम किया है? दुनिया के प्रमुख देशों में केवल हमारे यहां ही लोग भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित अपने गांवों के लिए क्यों जा रहे हैं? या हमारी सरकार दुनिया के दर्जनों देशों की तरह बड़े आर्थिक पैकेज क्यों नहीं दे पा रही है? जो जवाब शायद आप सुनना पसंद नहीं करेंगे, वह है- हम गरीब हैं। हमारे पुराने वैभव, संभावनाआें वाले भारत और देश के प्रति आपके प्रेम के बावजूद यह जवाब बदल नहीं सकता। हमारे लोग गरीब हैं। हमारी सरकार गरीब है, इसलिए हम यूरोप या अमेरिका की तरह लॉकडाउन नहीं कर सकते, इससे हमें अधिक दिक्कत होगी। उनको लॉकडाउन से सिर्फ खुजलीभर होगी, लेकिन हम खून-खून हो जाएंगे।
हम आज की दिक्कतों के लिए आसानी से कोरोना वायरस को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन अगर ईमानदारी से कहें तो लॉकडाउन ने हमें इसलिए अधिक चोट पहुंचाई, क्योंकि हम गरीब हैं। हम 2020 में काेरोना की वजह से गरीब नहीं हैं, बल्कि उस सब की वजह से जो हम पिछले एक या दो दशक से कर रहे हैं। हमने पहचान की राजनीति की, एक अनुपयुक्त समाजवाद की कोशिश की और भारत के उद्यमी वर्ग के पीछे कसाई की तरह पड़ गए। भारत के एक अरबपति ने एक बार मुझसे कहा था कि भारत इसलिए गरीब है, क्योंकि हम गरीब रहने के आदी हो गए हैं। यह सच है, ऐसा लगता है कि हम इसे चाहते हैं। हमारी नैतिकता या मूल्य इस समस्या की जड़ में है। इसलिए समाधान नीतिगत उपायों में नहीं बल्कि उन जीर्ण-शीर्ण, बेवकूफाना और खुद को नुकसान पहुंचाने वाली धारणाओं पर हमले का है। मैं इन मौजूदा मूल्यों की शुरुआत के बारे में तो नहीं जानता, लेेकिन भारतीय इन्हें आंख मूंदकर अच्छा या बुरा कह सकते हैं।
सबसे पहले बुरी बातें- धन के पीछे भागना बुरा है। जो लोग पैसे के पीछे भागते हैं, खराब हैं। जो लोग अच्छी जिंदगी के पीछे भागते हैं, बुरे हैं। जो लोग नया फोन, नई कार, नए कपड़े चाहते हैं, बुरे हैं। जो लोग शराब या बीयर पीते हैं, बुरे हैं। जो लोग अमीर बनना चाहते हैं, बुरे हैं (सोचा जाता है कि ये सभी काले धन को रखते हैं), जो लोग एयरकंडीशनिंग को पसंद करते हैं, बुरे हैं।
जिन्हें हम अच्छा कहते हैं- सादा जीवन जीना चाहिए (इसलिए जीडीपी सिकुड़ रही है, उपभाेग घटाने की आदत महान है), बड़ों का सम्मान करें (भारत के बारे में उनके जीर्ण-शीर्ण विचारांे का भी, जिन्होंने इसे गरीब रखा है), अपनी धर्मिक और जातीय पहचान पर गर्व करें (इसलिए चुनाव में यह सबसे ऊपर हो जाती है), हर चीज का विनियमन और उसका ध्यान रखने का जिम्मा सरकार पर छोड़ दो और नेताओं को किसी धार्मिक नेता की तरह पूजो (लेकिन, जिम्मेदार मत ठहराओ)।
इस मानसिकता के साथ, जहां हम न तो संपति बनाने को समझते हैं और न ही इसका जश्न मनाते हैं। हम सरकार को सभी बिजनेसों को अंगुली पर नचाने देते हैं और हिंदू-मुस्लिम को सबसे प्रमुख मुद्दा समझने लगते हैं, इससे देश कभी संपन्न नहीं हो सकता। लॉकडाउन दिखाता है कि हमने पिछले एक या दो दशकों मेें क्या गलतियां की। अमीर बनने की कोशिश अशिष्ट नहीं है। एक भूखे मजदूर का कई दिनों से बच्चांे को सिर पर उठाकर चलना अशिष्ट है। सरकार द्वारा बिजनेस का नियंत्रण करना अच्छा नहीं है। इससे संपत्ति का निर्माण रुकता है और विदेशी निवेशक वहां भाग जाते हैं। आप मानें या न मानें, भारत दुनिया का केंद्र नहीं है। दुनिया आगे बढ़ती रहेगी और अपना काम करती रहेगी। यह भारत पर है कि वह कोविड के बाद निवेश को आकर्षित करे। यह तभी आएगा, जब हम असल में अपनी मानसिकता बदलेंगे, जो हमारी संपत्ति बनाने की नीतियों और आदतों को प्रतिबिंबित करें। हमें कहना होगा कि ‘यह घिनौना है कि हम इतने गरीब हैं कि हम एक बीमारी का सामना भी गरिमा के साथ नहीं कर सके’। हमें स्वीकार करना होगा कि जिंदगी में धन ही सब कुछ नहीं है, लेकिन यह एक व्यक्ति और देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कोरोना के बाद हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं ध्वस्त हो जाएगी।

अच्छी खबर यह है कि पूरी दुनिया की हालत भी खराब है। इससे शानदार अवसर उभरेंगे। लोग चीन से बाहर निकलना चाहेंगे। अब यह हम पर है कि हम उन्हें भारत के प्रति आकर्षित करने के लिए क्या करते हैं। हमें व्यापार को एक दिन में 10 सर्कुलर जारी करने वाले बाबुओं के चंगुल से मुक्त करना होगा, वरना यहां कोई नहीं आएगा। कोरोना ने हमें अनेक चीजें सिखाई हैं। जनस्वास्थ्य और निजी स्वच्छता में निवेश स्वाभाविक है। लेकिन, एक और बड़ा सबक है कि यह गरीब बना देता है, खासकर संकट के दौरान। अपनी मानसिकता को भारत को गरीब बनी रहने वाली न बनाएं। यह समय है, जब हमें अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को बेकार की बातों से हटाकर सिर्फ भारत को अमीर बनाने पर केंद्रित करना चाहिए।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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अगले साल भी ओलिंपिक के आयोजन पर खड़े हुए सवाल

ओलिंपिक खेलों को एक साल के लिए टाले जाने की 26 मार्च को हुई घोषणा से पहले जापानी राजनेता, जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ और ओलिंपिक खेलों की आयोजन समिति इसे इसी साल जुलाई में आयोजित करने के लिए जी-जान से जुटी थी। अचानक हुए इस फैसले की बहुत आलोचना हुई और इससे भ्रम की स्थिति भी उत्पन्न हुई। इसलिए इस बार निर्णय करने वाले लोग समय से पहले ही दुनिया को इस खेल के दूसरी बार टलने के लिए तैयारी कर रहे हैं। जो सच अनेक लोग कह रहे हैं, वह है कि खतरा बहुत बड़ा है। जैसे-जैसे 2021 की गर्मियां करीब अाएंगी और जैसा दिख रहा है कि महामारी दुनियाभर में जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती रहेगी तो खिलाड़ी भी ओलिंपिक में भाग लेने के बारे में सवाल करेंगे। और अगर खिलाड़ी ही नहीं हांेगे तो क्या खेल होगा? पूरा का पूरा ओलिंपिक अनुभव ही खुद ध्वस्त हो सकता है।
दुनिया 2021 की गर्मियों में भी ओलिंपिक खेलों के आयोजन के लिए शायद ही तैयार हो, इसका पहला संकेत कोब विश्वविद्यालय के संक्रामक रोग विभाग के प्रोफेसर केंटारो इवाटा ने दिया। उन्होंने पिछले महीने की 20 तारीख को चेताया कि 2021 में ओलिंपिक और पैरालिंपिक शायद ही हों, क्योंकि तब तक दुनिया कोरोना वायरस से मुक्त होने में सफल नहीं हो पाएगी। उन्होंने कहा कि वह इन खेलों को लेकर बहुत ही निराशावादी हैं, अगर इस बीमारी के एक बार फिर लोगों को चपेटे में लेने की थोड़ी भी आशंका होगी तो आयोजकों के पास इन्हें रद्द करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। जापान मेडिकल एसोसिएशन के प्रमुख योशीताके योकोकुरा ने भी पिछले सप्ताह के आखिर में ऐसा ही कहा। उनके मुताबिक अगर कोरोना की वैक्सीन नहीं आती है तो अगली गर्मियों में इन खेलों का आयोजन अत्यंत कठिन होगा। वैसे भी जब कोई मेडिकल विशेषज्ञ अपनी राय दे रहा हो तो उसे गंभीरता से सुना जाना चाहिए। क्योंकि वह उनमें नहीं है, जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं, उनका काम लोगाें काे स्वस्थ देखना है। इन खेलों के लिए जापान की आयोजन समिति के अध्यक्ष योशिरो मोरी ने टोक्यो के एक समाचार पत्र से साक्षात्कार में इन अटकलों को और तेज किया। उनका कहना था कि अगर अगले बसंत तक महामारी पर विजय हासिल नहीं हुई तो सिर्फ इन खेलों को स्थगित करना ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा। उन्हांेने इन खेलों को 2022 तक अागे बढ़ाने की किसी भी संभावना से भी दो टूक इनकार कर दिया।
इन सभी की राय के बाद प्रधानमंत्री शिंजो आबे के सामने बहुत अधिक विकल्प नहीं रह गए और उन्होंने अगले ही दिन इस बात की पुष्टि की कि अगर महामारी पर नियंत्रण नहीं होता है तो 2021 में आेलिंपिक खेलों का आयोजन कठिन होगा। जापानी में कठिन एक ऐसा अलिखित कोड है, जिसका सीधा अर्थ असंभव है। उन्होंने संसद में कहा कि ‘हमें कोरोना वायरस पर मानवता की विजय के साक्षी के तौर पर ओलिंपिक का आयोजन करना चाहिए।’ हालांकि, उन्हांेने स्वीकार किया कि हकीकत असंभव काे पाने जैसी है।
अगर ये खेल रद्द होते हैं ताे यह निश्चित ही इतिहास में सबसे महंगी खेल विफलता होगी। रिपोर्टों के मुताबिक टाेक्यो को दुनिया के सामने सबसे आधुनिक शहर के तौर पर दिखाने के लिए नए स्टेडियमों, इंफ्रास्ट्रक्चर और अनगिनत परियोजनाओं पर अब तक 2125 अरब रुपए खर्च हो चुके हैं, जो 2013 में इन खेलों पर अपने दावे के समय जापान द्वारा तय 531 अरब रुपए के बजट से कहीं अधिक हैं। सरकार ने निश्चित ही अनुमान लगाया होगा कि ओलिंपिक के दौरान बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने, होटलों के भरने, उपभोग बढ़ने, विज्ञापन और आयोजक देश को मिलने वाली अन्य तमाम चीजों से इस खर्च की पूर्ति हो जाएगी। खेल न होने पर जापानी करदाताओं को उस ओलिंपिक का बिल भरना पड़ेगा, जो कभी हुआ ही नहीं। आबे की भी इच्छा थी कि सितंबर 2021 में पद छोड़ने से पहले ये खेल उनके लिए महत्वपूर्ण होंगे। मार्च के मध्य में इन खेलों के 2021 तक स्थगित होने से ठीक पांच दिन पहले उप प्रधानमंत्री तारो आसो ने कहा था कि टोक्यो ओलिंपिक ‘शापित’ हैं। 1940 में भी टोक्यो में ओलिंपिक का आयोजन विश्व युद्ध की वजह से स्थगित हो चुका है और आेलिंपिक को लेकर समस्या हर 40 साल में आती है। 1980 में जापान ने अफगानिस्तान में सोवियत कब्जे के विरोध में मास्को आेलिंपिक मेें हिस्सा नहीं लिया था।
अगर अगले 10 महीनों में वैक्सीन नहीं आती और संक्रमण के उभरने की जरा भी आशंका रहती है तो टोक्यो आेलिंपिक ऐसा इतिहास बना सकता है, जिसे शायद ही किसी ने चाहा हो। यही वजह है कि आबे, मोरी और मेडिकल विशेषज्ञ दुनिया को इसके लिए तैयार कर रहे हैं। लेकिन, ऐसे में ओलिंपिक की जटिलताएं 2021 से भी आगे जा सकती हैं और आगे उन शहरों को तलाशना मुश्किल हो सकता है, जो इन खेलों के आयोजन का भारी भरकम खर्च उठा सकें। हो सकता है कि कोरोना वायरस और टोक्यो 2020 ओलिंपिक को एक संस्था के तौर पर हमेशा के लिए बदल दे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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26 अप्रैल को आ गई थी रिपोर्ट, मरीज को 2 मई को मिली, हॉस्पिटल ने 76 हजार रुपए भरवाए

जो इंदौर कोरोनावायरस का हॉटस्पॉट बना हुआ है, वहां अब मरीजों से कोरोना के नाम पर लूट की शिकायतें भी सामने आ रही हैं। कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें कोरोना की रिपोर्ट के आधार पर मरीजों को जबरन हॉस्पिटल में एडमिट किया गया और फिर लंबा बिल थमा दिया गया।

एक कोरोना मरीज की रिपोर्ट 26 अप्रैल को आ गई थी लेकिन मरीज को उसके बारे में 2 मई को पता चला। हॉस्पिटल ने मरीज से 2 मई तक का कुल 76 हजार रुपए बिल भरवाया।

इसी तरह के अन्य मामले में हॉस्पिटल मरीज की रिपोर्ट देने से इंकार करता रहा और मरीज के परिजन खुद ही लैब से रिपोर्ट लेकर हॉस्पिटल पहुंच गए, तब जाकर कहीं मरीज की छुट्टी हो पाई।

पहला मामला 59 वर्षीय ओमप्रकाश पांडे का है। उन्हें तेज बुखार के बाद 24 अप्रैल को गोकुलदास हॉस्पिटल में एडमिट करवाया था।

निमोनिया से संक्रमित पाए गए ओमप्रकाश 28 अप्रैल तक ठीक हो चुके थे। इसके बाद परिजनों ने हॉस्पिटल प्रबंधन से डिस्चार्ज करने की बात कही।

अपने परिवार के साथ ओमप्रकाश पांडे।

इस पर हॉस्पिटल ने यह कहते हुए डिस्चार्ज करने से मना कर दिया कि अभी कोरोना की रिपोर्ट नहीं आई है और मरीज कोरोना संदिग्ध हैं। इसलिए डिस्चार्ज नहीं कर सकते।

परिजनों ने भी प्रबंधन की बात का समर्थन किया लेकिन उनका सब्र तब टूट गया जब रिपोर्ट अगले चार दिनों तक भी उन्हें नहीं दी गई।

मरीज की परिजन नम्रता पांडे ने बताया कि, प्रबंधन रिपोर्ट के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं दे रहा था। वे लोग सिर्फ इंतजार करने का कह रहे थे।

फिर जब 2 मई को हमने काफी ज्यादा पूछताछ की तो बताया गया कि आपकी रिपोर्ट धोखे से अहमदाबाद चली गई है, जो शाम तक आ जाएगी।

इसी बीच नम्रता के एडवोकेट भाई ने छोटी ग्वालटोली थाने के जरिए रिपोर्ट की जानकारी ली। वहां से पता चला कि ओमप्रकाश पांडे की रिपोर्ट नेगेटिव है। जो 26 अप्रैल को ही आ गई थी।

जबकि हॉस्पिटल ने इस बात की जानकारी मरीज को 2 मई को दी। उन्होंने पूछा कि, रिपोर्ट 26 अप्रैल को आ गई थी तो हमें 2 मई को क्यों दी गई तो प्रबंधन ने कहा कि, हमें 2 मई को ही मिली, इसलिए लेट दी।

इसके बाद मरीज से 2 मई तक का 76 हजार रुपए बिल जमा करवाया गया। इसका मरीज के परिजनों ने पहले विरोध किया लेकिन बाद में उन्हें पैसे जमा करना ही पड़े।

तेज बुखार के बाद ओमप्रकाश पांडे को हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया था।

नम्रता का कहना है कि, हमारे पिताजी का निमोनिया का इलाज हुआ है। वो 27-28 अप्रैल को ही ठीक हो गए थे।

हमें 28 तक का पैसा भरने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन 2 मई तक रिपोर्ट के बारे में न बताकर हमारे साथ धोखाधड़ी की गई है।

मरीज को लिखित में रिपोर्ट नहीं दी गई। सिर्फ मौखिक बताया गया कि रिपोर्ट नेगेटिव है और 2 मई को डिस्चार्ज कर दिया गया।

नम्रता ने बुधवार रात इस मामले में पुलिस में लिखित में शिकायत दर्ज करवाई।

जिम्मेदार बोले, 48 से 72 घंटे तक का लगता है समय
भास्कर ने इंदौर में कोरोनावायरस की रिपोर्ट का कामकाज देख रहे एमवाय के डॉ.बृजेश लाहोटी (पीडियाट्रिक सर्जन) से रिपोर्ट तैयार होने की प्रक्रिया और समय जाना।

उन्होंने बताया कि, रिपोर्ट तैयार होने में 48 से 72 घंटे तक लग जातेहैं। लैब से रिपोर्ट आने के बाद डीन के पास जाती है।
वहां से सभी प्रक्रियाएं पूरी होने के बाद ईमेल के जरिए उसी दिन हॉस्पिटल को भेज दी जाती है।

उन्होंने बताया कि, रिपोर्ट के पहले और बाद की कागजी प्रक्रिया भी काफी लंबी है। सभी जानकारियों का दो बार मिलान होता है इसके बाद ही रिपोर्ट जारी कर पाते हैं, ताकि किसी तरह की गड़बड़ी न हो।

थाने से जो पीडीएफ मिली, उसमें तारीख 26 अप्रैल
नम्रता के भाई ने अपने व्यक्तिगत संपर्क से छोटी ग्वालटोली थाने से कोरोना जांच वाले मरीजों की लिस्ट निकवाई तो वहां से पता चला कि ओमप्रकाश पांडे की रिपोर्ट 26 अप्रैल को ही नेगेटिव आ गई थी।

सभी एसडीएम द्वारा थानों को भी कोरोना मरीजों की रिपोर्ट मुहैया करवाई जा रही है, ताकि वे पॉजिटिव मरीजों को क्वारेंटाइन करवा सकें।

अब सवाल ये खड़े हो रहे हैं कि, जब रिपोर्ट 26 अप्रैल को आ गई थी तो फिर मरीज को छटवें दिन क्यों दी गई? और इन दिनों के पैसे भी जमा करवाए गए।

डॉक्टर ने कहा, बिल का क्या है मैडम
नम्रता ने बताया कि, डिस्चार्ज करने पर जब मैंने हॉस्पिटल में डॉक्टर से कहा कि सर हमारा बिल बढ़ रहा है और हम इतना अफोर्ड नहीं कर सकते।

उन्होंने जवाब दिया कि, बिल का क्या है मैडम। बाहर जाओ, पुलिस डंडे मारती है तब भी तो बचने के लिए पैसे देना ही होते हैं।

हॉस्पिटल ने 76 हजार 600 रुपए बिल वसूला।

नम्रता के मुताबिक, हमारा परिवार जिस स्थिति से गुजरा, उसे बयां भी नहीं कर सकते। मेरे देवर आर्मी में हैं, जो अभी असम में पोस्टेड हैं। घर में चार बच्चे, देवरानी और पति हैं।

जब तक पिताजी की रिपोर्ट नहीं आई तब तक हम लोग मानसिक रूप से प्रताड़ित होते रहे। दिनरात चिंता लगी रहती थी। न खाने में मन लगता था, न ही नींद आती थी।

बोंली, रिपोर्ट देरी से आई या हॉस्पिटल ने देर से दी तो इसमें हमारी क्या गलती। यह खर्चा हम क्यों भुगतें।

रश्मि तिवारी का भी ऐसा ही मामला

राधानगर की रहने वाली कोरोना पॉजिटिव रश्मि तिवारी के साथ भी ऐसा ही मामला सामने आया है। वे भी एक निजी अस्पताल में एडमिट थीं।पहले उनकी रिपोर्ट 2 मई को आने वाली थी। लेकिन नहीं आई।

फिर उनका 4 मई को दोबारासैंपल लिया गया और कहा गया कि पिछले सैंपल की रिपोर्ट नहीं आ पाई है, इसलिए ये सैंपल ले रहे हैं।

शक होने पर उनके पतिविशाल तिवारी ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज में संपर्क किया तो उन्हें 4 मई को ही वहां से रिपोर्ट मिल गई जो नेगेटिव निकली। उन्होंने रिपोर्ट हॉस्पिटल में दिखाई तो मरीज की उसी दिनछुट्टी कर दी गई।



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Indore Coronavirus Latest News Updates; COVID19 Hospital Looting Suspect Patients In The Name Of Corona Report




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राज्य की अर्थव्यवस्था विदेशों से आने वाले पैसों पर निर्भर, हर साल प्रवासी भेजते हैं 60 हजार करोड़ रुपए, उनके लौटने का सीधा असर इकोनॉमी पर होगा

केरल तैयार है अपने प्रवासियों के स्वागत को। आज पैसेंजर को लेकर पहली फ्लाइट केरल पहुंचेगी। जिस दिन से केरल के प्रवासियों के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन शुरू हुआ है तभी से बड़ी संख्या में लोग वतन वापसी के लिए इस पर रजिस्टर कर रहे हैं।

केरल सरकार के एनओआरकेए नॉन रेसिडेंट केरलाइट्स अफेयर्स के डेटा के मुताबिक, 3 मई तक दुनिया के अलग-अलग देशों के कुल 4.13 लाख लोगों ने उन्हें वहां से वापस घर भेजने के लिए रजिस्टर किया था। इसके अलावा भारत के अलग-अलग राज्यों में फंसे 1.5 लाख केरल वालों ने भी इसके लिए रजिस्टर किया है। लेकिन ये केरल के कुल प्रवासियों का सिर्फ 10 प्रतिशत हैं जिन्होंने वापसी के लिए आवेदन किया। जबकि एनओआरकेए के मुताबिक केरल के 40 लाख लोग विदेशों में हैं।

विदेशों से रजिस्टर्ड 4.13 लाख लोगों में से 61 हजार सिर्फ इसलिए लौट रहे हैं क्योंकि उनको नौकरी से निकाल दिया है। वहीं 9 हजार के करीब गर्भवती महिलाएं हैं और 10 हजार बच्चे और और 11 हजार बुजुर्ग। 41 हजार वो लोग हैं जो टूरिस्ट वीजा पर विदेश गए हुए थे। इसके अलावा जिन्होंने वापस वतन आने को आवेदन दिया है उनमें 806 नॉन रेसिडेंट केरेलाइट्स हैं जिन्होंने जेल की सजा पूरी कर ली है। वहीं अकेले यूएई से आनेवाले डेढ़ लाख मलयाली हैं।

विदेशों में रहने वाले केरल के इन लोगों को फ्लाइट तिरुवनंतपुरम, कोच्चि और कोझिकोड एयरपोर्ट पर उतारेगी। यहां इन लोगों की स्क्रीनिंग भी होगी।- फाइल फोटो

कोचीन इंटरनेशनल एयरपोर्ट इन प्रवासियों को रिसीव करने की तैयारी लगभग पूरी कर चुका है। ये फ्लाइट्स 7 से 13 मई के बीच आनी हैं। पहले फेज में 10 फ्लाइटें आएंगी जिनमें 2150 यात्री होंगे। एयरपोर्ट पर सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना से जुड़े सभी प्रोटोकॉल को लेकर एहतियात बरते जा रहे हैं। तीन फेज में डिसइंफेक्टेंट स्प्रे किया जाएगा, जिसकी मॉक ड्रिल की जा रही है। टेस्टिंग पूरी हो चुकी है। टेम्प्रेचर गन तैयार है। अराइवल गेट पर थर्मल स्कैनर इंस्टॉल किए जा रहे हैं। सिंथेटिक और टेक्सटाइल लगे सभी फर्नीचर को टेम्पररी फर्नीचर यानी प्लास्टिक चेयर से बदल दिया गया है। इसके अलावा भारतीय नौसेना ने भी लोगों को वापस लाने के लिए ऑपरेशन चलाया है और इसके लिए जहाज तैनात किए हैं। ये जहाज लोगों को कोच्ची और कोझीकोड लेकर आएंगे।

हालांकि ऐसे भी प्रवासी हैं जिन्होंने वापस नहीं लौटने का फैसला किया है। लिजिथ शाहरजहां में काम करते हैं। वह कहते हैं, ‘मैं 15 सालों से इस कंपनी के लिए काम कर रहा हूं, मैंने यहीं रुकने का फैसला किया है। यदि मैं तुरंत लौट जाता हूं तो हो सकता है मुझे फायदा न हो। और इसकी भी कोई ग्यारंटी नहीं है कि मुझे वापस इस देश में एंट्री मिले। यदि एंट्री मिल भी गई तो नौकरी का क्या भरोसा।’

एक रिपोर्ट के मुताबिक, केरल की कुल जीडीपी का 36% हिस्सा विदेशों से पैसे भेजने वाले केरलवासियों का होता है।- फाइल फोटो

दुबई में सुपरवाइजर की नौकरी कर रहे सुधीश एनीडिल का कहना कुछ अलग है। सुधीश बोले, ‘मैंने लौटने के लिए रजिस्टर इसलिए नहीं किया क्योंकि ऐसे कई लोग हैं जिनका लौटना ज्यादा जरूरी है। मुझे उतनी दिक्कतों को सामना नहीं करना पड़ रहा है जितना बाकी कई लोगों को। कई की नौकरी चली गई है और कितनों के वीजा खत्म होने को हैं। कुछ ऐसे हालात में रह रहे हैं जहां फिजिकल डिस्टेंसिंग असंभव है। मैं रोज ऑफिस जा रहा हूं और वतन वापसी का हक किसी से छीनना नहीं चाहता।’इस सबके बीच जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है वो है केरल की अर्थव्यवस्था। इतनी ज्यादा संख्या में प्रवासियों की नौकरी जाना यहां की अर्थव्यवस्था पर इसलिए भी बुरा असर डालेगी क्योंकि यह राज्य काफी हद तक विदेशों से आनेवाले पैसों पर निर्भर है।कोच्चि स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के चेयरमैन डॉ. डी धनुराज के मुताबिक 'केरल पर प्रवासियों के लौटने का भारत के किसी भी राज्य से ज्यादा बुरा असर होगा। यह न केवल अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा बल्कि सामाजिक तानेबाने को भी।’

थिंक टैंक के मुताबिक केरल की सम्पन्नता काफी ज्यादा विदेशों से आने वाले पैसों पर निर्भर है। हर साल यहां 60 हजार करोड़ रुपए विदेशों से आते हैं। यदि केरल में सर्विस सेक्टर से लेकर हेल्थ या फिर रीटेल में ग्रोथ हो रही है तो उसका सीधा कारण बाहर से आनेवाला पैसा है। हो सकता है केरल में लोन डिफॉल्टर बढ़ जाएं। राज्य की अर्थव्यवस्था में 65 प्रतिशत सर्विस सेक्टर से है।

राज्य सरकार के मुताबिक, विदेशों से लौटने वाले लोगों के लिए 2 लाख टेस्टिंग किट तैयार है। साथ ही सभी 14 जिलों में क्वारैंटाइन सेंटर भी बनाए गए हैं, जिनमें 2.5 लाख बिस्तर हैं।- फाइल फोटो

धनुराज कहते हैं, ‘बाकी राज्यों में महामारी खत्म होते ही इंडस्ट्रीज खुल जाएंगी। लेकिन वह केरल में संभव नहीं होगा। इसके अलावा प्रवासियों का पुर्नवास भी बड़ी चुनौती होगा। जो भी लौटकर आ रहे हैं उनमें कई सारे ऐसे लोग हैं जिनकी नौकरी चली गई है। सरकार को इनके लिए कुछ सोचना होगा।’बिनोय पीटर सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूजिव डेवलपमेंट सीएमआईडी के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। उनका कहना भी कुछ ऐसा ही है। बिनोय के मुताबिक प्रवासियों का लौटना सिर्फ इकोनॉमी नहीं बल्कि समाज पर भी असर डालेगा क्योंकि ये मसला परिवारों से जुड़ा है। वह कहते हैं जो केरेलाइट्स विदेशों में ब्लू कॉलर जॉब कर रहे थे वो ऐसा केरल में नहीं कर पाएंगे। यही नहीं उन्हें विदेशों में पूरी सेफ्टी के साथ नौकरी करने की सुविधा थी जो यहां नहीं है।’



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Coronavirus Lockdown In Kerala Latest News | Kerala Economy Updates; Migrant Worker Sent Approx Rs Sixty Thousand Crore To Kerala From Abroad




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सुबह 4 बजे नजारा देखा तो सन्न रह गए, कोई डिवाइडर पर पड़ा था, कोई नाले में गिरा, सब इधर-उधर भाग रहे थे

विशाखापट्‌टनम के आरआरवेंकटपुरम गांव में एलजी पॉलिमर इंडस्ट्री से तड़के 3 बजे के करीब गैस लीक हुई। लोकल रिपोर्टर से जानकारी मिलने के बाद जब सुबह 4 बजे के करीब हम लोग वहां पहुंचे तो नजारा देखकर सन्न रह गए।

जहरीली गैस के संपर्क में आने से कई लोग सड़क पर बेहोश होकर गिर गए।

चारों तरफ अफरा-तफरी मची थी। लोग इधर-उधर भाग रहे थे। पुलिसकर्मी लोगों की मदद कर रहे थे। वे लोगों को बचाने के लिए गाड़ियों में बैठा रहे थे। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक हर कोई अपनी जान बचाने में लगा था। बहुत सारे लोग चक्कर खाकर गिर रहे थे। कोई नाले में गिरा तो कोई सड़क पर ही गिर पड़ा। कोई डिवाइडर पर पड़ा था। जो भी गैस के संपर्क में आया, उसे कुछ ही मिनटों में बेहोशी आ गई।

बचावकर्मी के साथ बाइक पर मरीज को ले जाता हुआ शख्स।

लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। घबराहट हो रही थी। शरीर पर चकत्ते आने लगे थे। आंखों से पानी आने लगा था। पलकें झपकने और खोलने तक में दिक्कत होने लगी थी।

सिर्फ इंसान ही नहीं, बल्कि जानवर भी गैस के संपर्क में आने से मर गए। कई गाय अब भी सड़क पर मरी पड़ी हैं।

जो लोग ठीक थे, वे बचने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। शुरुआतमें किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। कोई अपने बच्चे को बचाने की कोशिश कर रहा था तो कोई बुजुर्ग मां-बाप को दूर ले जाते हुए दिख रहा था। कुछ लोग अपनी बाइक से ही पीड़ितों को हॉस्पिटल ले जाते हुए दिखे।

बड़ी संख्या में एम्बुलेंस से लोगों को हॉस्पिटल पहुंचाया गया।

कुछ ही देर में पुलिस के साथ ही एम्बुलेंस भी आ गईं थीं। लोगों को एम्बुलेंस और पुलिस वाहनों के जरिए सीधे केजीएच हॉस्पिटल ले जाया गया। अब इस पूरे क्षेत्र को खाली करवा दिया गया है। यहां से मीडियाको भी बाहर कर दिया गया है। अंदर सिर्फ पुलिसकर्मी और बचावकर्मी हैं। पुलिस ने यहां बहुत अच्छा काम किया है। यदि पुलिस लोगों को समय पर हॉस्पिटल ले जाना शुरू नहीं करती तो कई लोगों की जान जा सकती थी।

पहले शहर के बाहर थी यह जगह
वेंकटपुरम गांव के गोपालनट्‌टनम इलाके में एलजी पॉलिमर्स का प्लांट 1997 से है। पहले यहां निर्माणकार्य नहीं हुए थे। बसाहट भी नहीं थी और यह एरिया शहर से बाहर गिना जाता था।2000 के बाद से बसाहट बढ़ना शुरू हो गई। इमारतें बनने लगीं। कई लोग रहने लगे। गैस लीक क्यों हुई, इसका अभी तक कारण पता चल नहीं पाया है। लॉकडाउन के कारण फैक्ट्री तो बीते कई दिनों से बंद थी।

हादसे की खबर लगते ही आसपास से कई लोग मदद के लिए पहुंचे, लेकिन वो ही प्रभावित एरिया में पहुंचते ही बेहोश होकर गिर गए।आसपास के घरों में भी लोग बेहोश मिले। कुछ लोगों के शरीर पर लाल निशान पड़ गए।



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Visakhapatnam Gas Leak News | Visakhapatnam Plant Gas Leak Live Ground Report Latest News Updates On Andhra Pradesh Vizag Gas Leak




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कोरोना से लड़ाई में अब राजनीतिक सहभागिता की अधिक जरूरत

बीबीसी टेलीविजन के सीरियल यस मिनिस्टर में वरिष्ठतम नौकरशाह सर हम्फ्रे एपलबी अपने मंत्री जेम्स हैकर से कहते हैं कि ‘सर आप यहां इस विभाग को चलाने के लिए नहीं हैं।’ इस पर नाराज मंत्री गुस्से में कहते हैं कि ‘इससे आपका क्या मतलब है? मैं सोचता हूं कि मैं इंचार्ज हूं और लोग भी यही सोचते हैं।’ लेकिन नौकरशाह ने कहा- ‘मंत्री जी, आप और लोग गलत हैं।’ हताश मंत्री ने पूछा, ‘तो फिर विभाग कौन चलाता है।’ सर हम्फ्रे मुस्कुराते हैं ‘मैं चलाता हूं!’ यही बात हमारे देश में भी लागू होती है, सत्ता के पहिए को नियंत्रित करने वाले सभी ताकतवर नौकरशाह अक्सर भवनों और सचिवालयों के अनाम स्टील फ्रेम के पीछे होते हैं। यह सही है कि औद्योगिक लाइसेंसिंग के खत्म होने से नौकरशाहों की कुछ विवेकाधीन शक्तियां खत्म हो गई थीं, लेकिन इसके बावजूद उनके पास अधिकारों का भंडार है, खासकर संकट के समय। और जैसा पिछले छह हफ्तों में दिखा है कि अगर निर्णय करने में अस्पष्टता हो तो कानून अाधारित ताकत कितना खतरनाक हथियार हो सकता है।
मार्च मध्य में कोविड-19 को लेकर जारी रेड अलर्ट के बाद देश को नौकरशाहों के एक छोटे ग्रुप द्वारा संचालित किया जा रहा है और वह भी औपनिवेशिक काल में प्लेग को रोकने के लिए बने महामारी कानून 1887 के जरिये। जब इसे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के साथ मिलाकर देखा जाता है तो 1.3 अरब भारतीयों के भाग्य तय करने का अधिकार नाॅर्थ और साउथ ब्लॉक के कुछ नौकरशाहों के हाथ आ जाता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि अभूतपूर्व मौकों पर अभूतपूर्व उपायों की जरूरत होती है। इस बात पर काेई बहस नहीं की जा सकती कि कोरोना वायरस से लड़ाई में कुछ समय हासिल करने के लिए राष्ट्रीय लॉकडाउन एक उपयोगी और जरूरी उपाय था। लेकिन, एक नौकरशाही फरमान और पुलिस के डंडे से लाॅकडाउन को लागू करके जिंदगी बचाना एक चीज है और आजीविका को सुरक्षित रखने के हालात पैदा करना दूसरी चीज। जहां छह सप्ताह पहले कड़े कानूनों की जरूरत थी, वहीं आज इस बात का खतरा है कि नौकरशाही उलझनों की वजह से लॉकडाउन से बाहर निकलना कहीं अधिक जटिल हो सकता है। उदाहरण के लिए ई-कॉमर्स डिलीवरी पर पैदा हुए भ्रम को ही ले लें। पहले ई-कॉमर्स को डिलीवरी से मना किया गया, फिर जरूरी और गैर जरूरी में अंतर किया फिर लाल, हरा और नारंगी जोन का मुद्दा। लगातार अपने ही आदेशों पर स्पष्टीकरण जारी करके सरकारी मशीनरों ने लोगों की सामान तक सुरक्षित पहुंच में बाधा ही उत्पन्न की है।
डर लाॅकडाउन को लागू कराने के लिए जरूरी था, लेकिन यह एक निगरानी करने वाला देश बनने का बहाना नहीं हो सकता। अब जरा गृह मंत्रालय के इन निर्देशों को ही लें, जिनमें कहा गया था कि अगर कोविड-19 को फैलने से रोकने के किसी भी उपाय का उल्लंघन हुआ तो मुख्य कार्यकारी से श्रमिक तक किसी को भी जेल भेजा जा सकता है। इसने छोटे-बड़े सभी उद्यमियों में घबराहट पैदा कर दी। डंडा संचालित लाइसेंस राज की वापसी की आशंकाओं के बाद मजबूर हाेकर गृह मंत्रालय ने एक और स्पष्टीकरण जारी किया कि कार्यस्थल पर सामाजिक दूरी का पालन करना होगा, लेकिन औद्योगिक यूनिटों को परेशान करने की कोई कोशिश न हो। जरा प्रवासी श्रमिकों का ही मुद्दा लें, जहां पर सरकार के हर कदम में सहानुभूति का अभाव दिखा। ताजा मामला श्रमिकों के गांव जाने के लिए मुफ्त रेल यात्रा की सुविधा का है। रेल मंत्रालय के शुरुआती नोट के क्लॉज 11 के मुताबिक ‘स्थानीय राज्य सरकारें चयनित यात्रियों को टिकट देंगी और किराया लेकर पूरी राशि रेलवे को सौंपेंगी।’ क्या यह पहचानने के लिए कि लॉकडाउन से सर्वाधिक प्रभावित इन लोगों को घर जाने के लिए मुफ्त और सुरक्षित सवारी मिले, सोनिया गांधी के दखल की जरूरत थी, चाहे वह केंद्र हो या राज्य?
हो सकता है कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष की टिप्पणी में राजनीतिक तिकड़म हो, क्योंकि कांग्रेस शासित राज्यों पर भी प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त काम न करने का आरोप है, लेकिन इसने इस बात का तो संकेत दिया है कि कोरोना से लड़ने के लिए पार्टी लाइन से उठकर वृहद राजनीतिक समावेश की जरूरत है। क्यों न इस समय सभी प्रमुख नेताओं को साथ लेकर कोरोना के खिलाफ नेशनल टास्क फोर्स बने? क्योंकि एक वास्तविक विविधता वाला और लोकतांत्रिक समाज अपनी सारी शक्तियों को नौकरशाहों काे नहीं सौंप सकता। दिल्ली और जिलों के नौकरशाह ही इस लड़ाई में मुख्य खिलाड़ी हैं और कई बहुत अच्छा काम भी कर रहे हैं। लेकिन कई बार अफसरों में जनसंपर्क की कमी दिखती है और वे लालफीताशाही में बंधे होते हैं। इसलिए आने वाले समय में हमें अधिक राजनीतिक सहभागिता की जरूरत होगी।
पुनश्च: इस सप्ताह के शुरू में मुझे मेरे एक दोस्त ने बताया कि वह दिल्ली की अपनी बुकशॉप को खोल रहा है। लेकिन, कुछ घंटांे के बाद ही उसने मुझे सूचित किया कि नगर निगम के एक अधिकारी ने उसे दुकान बंद करने को कहा है। वजह? स्कूल और कॉलेज की किताबों की दुकानें ही खुल सकती हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Now more need for political participation in fight with Corona




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उद्योगों को सुरक्षा मानदंडों में नहीं मिले काेई रियायत

जहां एक ओर विशाखापत्तनम स्थित दक्षिण कोरियाई केमिकल फैक्ट्री के हादसे ने कई जानें लेकर सैकड़ों लोगों को अस्पताल पहुंचाकर देश को हिला दिया है, वहीं केंद्र सरकार चीन से अपने उद्योग हटाने वाली बड़ी विदेशी कंपनियों को भारत बुलाने के लिए पलकें बिछाए हुए है। कुछ दशकों पहले भोपाल गैस हादसा भी एक अमेरिकी कंपनी में हुआ था। सवाल यह है कि क्या ये कंपनियां अपने रसूख के कारण सुरक्षा मानदंडों की अनदेखी करती हैं? क्या भ्रष्ट सरकारी तंत्र इन्हें इन मानदंडों की अनदेखी की छूट देता है? क्या भारत स्थित इन विदेशी कंपनियों के कर्मचारी तकनीकी रूप से सक्षम नहीं होते?

इसलिए सरकार जब नए विदशी उद्योगों को भारत आने का न्योता दे रही हो तो उनके लिए सुरक्षा मानकों पर खरे उतरने की भी शर्त रखनी होगी। ध्यान रहे कि हाल के दशक में जब-जब सरकार ने परमाणु संयंत्र लगाने का उपक्रम किया, उस क्षेत्र की जनता ने इस शंका के आधार पर कि अगर कहीं संयंत्र में दुर्घटना हुई तो हजारों-लाखों जानें जा सकती हैं, व्यापक तौर पर विरोध किया। बहरहाल, सरकार का विदेशी निवेश और विदेशी कंपनियों को भारत में उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास आवश्यक इसलिए है, क्योंकि भारत जैसे गरीब मुल्क में कोरोना महामारी से करोड़ों नौकरियों पर संकट आ गया है। चूंकि चीन के वुहान से शुरू हुए इस संकट के बाद से दुनिया के बड़े उद्यमियों का विश्वास चीन से उठता जा रहा है, लिहाजा भारत के लिए देश को अंतरराष्ट्रीय उत्पादन हब बनाने का यह एक सुनहरा अवसर है।

चूंकि एशिया में तकनीकी मानव संसाधन में चीन के बाद भारत का ही स्थान है, लिहाज़ा केंद्र ऐसे उद्योगों के लिए कुल 5000 वर्ग किलोमीटर का काॅम्प्लेक्स बनाने का उपक्रम कर रहा है, ताकि इन उद्योगों को कोई अड़चन न आए। इस क्रम में भूमि अधिग्रहण कानून और जमीन के दस्तावेज को पूरी तरह कम्प्यूटराइज किया जा रहा है। बाहर के उद्यमियों की सबसे बड़ी शिकायत श्रम कानूनों पर भारत सरकार ने पुनर्विचार का वादा किया है। इसका भाजपा के भारतीय मजदूर संघ सहित देश के सभी बड़े श्रमिक संगठनों ने विरोध किया है। इनकी मांग है कि श्रमिकों के कल्याण की शर्तों को उद्यमियों के हित में और कमज़ोर न करें। बहरहाल, केंद्र का प्रयास दूरगामी लाभ दे सकता है।



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No concession to industries found in safety norms




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तात्कालिक तालाबंदी को स्थायी नशाबंदी में क्यों न बदला जाए?

तालाबंदी को ढीला करते ही सरकार ने दो उल्लेखनीय काम किए। एक तो प्रवासी मजदूरों की घर वापसी और दूसरा शराब की दुकानों को खोलना। नंगे-भूखे मजदूर यात्रियों से रेल का किराया वसूल करने की इतनी कड़ी आलोचना हुई कि उनकी यात्राएं तुरंत निःशुल्क हो गईं, लेकिन जहां तक शराब का सवाल है तो इसके शौकीनों ने 40 दिन तो शराब पिए बिना काट दिए, लेकिन हमारी सरकारें शराब बेचे बिना एक दिन भी नहीं काट सकीं। तालाबंदी में ढील के पहले दिन ही देश के लगभग 600 जिलों में शराब की दुकानें क्यों खुलीं? क्योंकि राज्य सरकारों ने केंद्र पर दबाव डाला कि यदि उन्हें शराब से जो टैक्स मिलता है, यदि वह नहीं मिला तो उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाएगी। सभी राज्यों को लगभग 2 लाख करोड़ रु. टैक्स शराब की बिक्री से मिलता है। पहले दिन ही 1000 करोड़ रु. की शराब बिक गई।
कुछ राज्यों ने ऑर्डर मिलने पर शराब की बोतलें घरों में पहुंचाने का इंतजाम भी किया। लेकिन, सारे देश में लाखों लोग शराब की दुकानों पर टूट पड़े। दो गज की शारीरिक दूरी की धज्जियां उड़ गईं। एक-एक दुकान पर दो-दो किमी लंबी लाइनें लग गईं। हर आदमी ने कई-कई बोतलें खरीदीं। जब पुलिस ने उन्हें एक-दूसरे से दूर खड़े होने के लिए धमकाया तो भगदड़ और मारपीट के दृश्य भी देखे गए। ये विचित्र दृश्य हमारे टीवी चैनलों पर विदेशों में भी लाखों लोगों ने देखे। उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि भारत में इतनी बड़ी संख्या में शराबी रहते हैं। कुछ विदेशी मित्रों ने मुझे यहां तक कह दिया कि यह भारत है या दारुकुट्टों का देश है? उनके मन में भारत की छवि वह है, जो महर्षि दयानंद, विवेकानंद और गांधी के कारण बनी हुई है। मैंने उन्हें बताया कि भारत में लगभग 25-30 करोड़ शराबी हैं। यानी पांच में से एक शराबी है, लेकिन रूस, यूरोप, अमेरिका और ब्रिटेन में 80 से 90 प्रतिशत लोग शराबखोर हैं।
आज भी भारत में शराबियों को आम आदमी टेढ़ी नजर से ही देखता है। भारत में शराब पहले लुक-छिपकर पी जाती थी। लेकिन, अब भारत के बड़े होटलों, बस्तियों और बाजारों की दुकानों में भी शराब धड़ल्ले से बिकती है। इसलिए इन लंबी कतारों ने लोगों का ध्यान खींचा है। अब भारत में सिर्फ बिहार, गुजरात, नगालैंड, मिजोरम और लक्षद्वीप में शराब पर प्रतिबंध है, बाकी सब प्रांत शराब पर मोटा टैक्स ठोंककर पैसा कमा रहे हैं। दिल्ली समेत कुछ राज्यों ने इन दिनों शराब पर टैक्स की भारी वृद्धि कर दी है। भारत की लगभग सभी पार्टियों के नेतागण शराब की बिक्री का समर्थन करते हैं। सिर्फ नीतीश कुमार की जदयू उसका विरोध करती है। अपने आप को गांधी, जयप्रकाश, लोहिया और विनोबा का अनुयायी कहने वाले नेताओं की जुबान पर भी ताले पड़े हुए हैं। आश्चर्य तो यह है कि देश में और कई प्रदेशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की सरकारें हैं, लेकिन वे भी पैसों पर अपना ईमान बेचने पर तुली हुई हैं। इस मुद्दे पर उनकी चुप्पी भारतीय संविधान की धारा 47 का सरासर उल्लंघन है। संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि सरकार नशीली चीजों पर प्रतिबंध लगाने की भरपूर कोशिश करे। कांग्रेस, जनता पार्टी और भाजपा के पिछले 73 साल के राज में भारत में शराबखोरी 70-80 गुना बढ़ी है।
जहां तक शराब से 2 लाख करोड़ रु. कमाने की बात है, पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाकर यह घाटा पूरा किया जा रहा है और यदि पानी जितने सस्ते हुए विदेशी तेल को खरीदकर भारत अपने भंडारों में भर ले तो वह शराब की आमदनी को आराम से ठुकरा सकता है। यदि कोरोना से लड़ने के लिए वह अपनी दवाइयां, आयुर्वेदिक काढ़े और हवन सामग्री दुनिया में बेच सके तो वह अरबों-खरबों रु. कमा सकता है। इस कोरोना-संकट से पैदा हुए मौके का फायदा उठाकर वह शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा सकता था। मौत का डर शराबियों को इस प्रतिबंध के लिए भी राजी कर लेता। 40 दिन की यह मजबूरी का संयम स्थायी भी बन सकता था। तात्कालिक तालाबंदी को स्थायी नशाबंदी में बदला जा सकता था।
शराब पीने से आदमी की रोग प्रतिरोधक शक्ति घटती है या बढ़ती है? कोरोना से मरने वालों में शराबियों की संख्या सबसे बड़ी है। यूं भी हर साल भारत में शराब पीने से 2.5 लाख मौतें होती हैं। शराब के चलते लाखों अपराध होते हैं। देश में 40 प्रतिशत हत्याएं शराब पीकर होती हैं। ज्यादातर लोग शराब के नशे में ही दुष्कर्म करते हैं। कार दुर्घटनाओं और शराब का चोली-दामन का साथ है। रूस और अमेरिका जैसे देशों में शराब कई गुना ज्यादा जुल्म करती है। यह एक मौका था जब भारत इन देशों के लिए एक आदर्श बनता। कानून बनाने से भी बड़ी चीज़ है, संस्कार बनाना। शराब पीने से मनुष्य विवेक शून्य हो जाता है। वह अपनी पहचान खो देता है। उसकी उत्पादन क्षमता घटती है और फिजूलखर्ची बढ़ती है। यह उसके परिवार और भारत जैसे विकासमान राष्ट्र के लिए गहरी चिंता का विषय है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Why not convert instantaneous lockout into permanent prohibition?




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शरीर रूपी खदान में छिपा है आनंद का हीरा

जीवन में कुछ ऐसा भी ढूंढिए जो बाहर कहीं नहीं मिलेगा और आप ही के भीतर समाया हुआ है। लेकिन इंसान की फितरत है कि जब भी ढूंढने का मौका आएगा, वह बाहर हाथ-पैर चलाता है। कबीरदासजी ने एक जगह लिखा है- ‘मोहि फिर फिर आवत हांसी। सुख स्वरूप होए सुख को ढूंढत, जल में मीन प्यासी’। पानी में रहकर मछली यदि प्यासी रह जाए तो इसमें पानी का क्या कसूर? इंसान अपने भीतर की खुशी, अपने भीतर का सामर्थ्य ढूंढ नहीं पाता और बाहर भाग रहा है। अपने निज स्वरूप का ज्ञान समय रहते कीजिए।

अब यह भी जीवन शैली में शामिल कर लीजिए कि इस नए संघर्ष के दौर में प्रतिदिन थोड़ा समय इस बात के लिए देंगे कि आप क्या हैं, यह जान सकें। इसके लिए थोड़ा शरीर को रोकिए। कमर सीधी रख, नेत्र बंद कर सांस के माध्यम से अपने ही भीतर प्रवेश कीजिए। शाश्वत शांति वहीं मिलेगी। हीरे को न पहचानकर, पत्थर मानकर उसके दुरुपयोग के हमारे यहां कई किस्से हैं। किसी को हीरा मिला, उसने पत्थर समझकर फेंक दिया तो किसी ने पशु के गले में बांध दिया। कुल मिलाकर उसका दुरुपयोग हुआ। संयोग से किसी जौहरी के हाथ लगा तब उन्हें पता चला हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। इस दौर में ऐसी गलती हम न कर जाएं। जीवन में कुछ ऐसी मौलिकताएं हैं जो हमें हीरे के रूप में मिली हैं। थोड़ा सा उतरिए शरीर रूपी उस खदान में जहां निजी प्रसन्नता और आनंद के रूप में आपका हीरा सलामत है..।



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Anand's diamond is hidden in the body mine




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नशा शराब में होता तो नाचती बोतल...

लॉ कडाउन के समय ‘उत्तम प्रदेश’ और कुछ अन्य स्थानों पर शराब की दुकानें खोली गईं। इस कदर लंबी कतारें लगीं कि एक लतीफा यूं बना कि एक भारतीय ने बताया कि शराब खरीदने वालों की कतार इतनी लंबी थी कि वह काठमांडू पहुंच गया। शराब की दुकानें खोली गईं, क्योंकि सरकार को अपने प्रचार के लिए धन की आवश्यकता है। सौ रुपए की शराब पर सत्तर रुपए कोरोना टैक्स लगाया गया। जब सरकार शराब बंदी करती है तब अवैध शराब की भट्ठियां भभकने लगती हैं। शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘रईस‘ में अवैध शराब बेचने वाले पात्र को महिमामंडित किया गया है। विगत सदी के आठवें दशक में इंदौर में अवैध जहरीली शराब पीने से सैकड़ों लोग मर गए तो कुछ अंधे हो गए।

शायर कासिफ इंदौरी की मृत्यु जहरीली शराब पीने के कारण हुई थी। उनका शेर कुछ इस तरह है- ‘सरासर गलत है मुझ पर इल्जामे बलानोशी, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब’। यह संभव है कि कमजोर पड़ती हुई स्मृति के कारण शब्द आगे-पीछे हो गए हों, परंतु आशय स्पष्ट है। यह सारा प्रकरण खाकसार की फिल्म ‘शायद’ का एक हिस्सा बना।
वर्तमान दौर के सितारे शराब नहीं पीते। जिम जाकर जिस्म की मांसपेशियों को मजबूत बनाना उनका नशा है। अमिया चक्रवर्ती की फिल्म ‘दाग’ में दिलीप कुमार ने लतियल शराबी की भूमिका अभिनीत की थी। देव आनंद ने ‘शराबी’ नामक फिल्म में अभिनय किया और राज कपूर ने ‘मैं नशे में हूं’ में अभिनय किया। अगले दौर के धर्मेंद्र शराब पीना पसंद करते रहे। उनके समकालीन मनोज कुमार ने सरेआम शराब नहीं पी, क्योंकि वे अपनी भारत कुमार छवि की रक्षा करना चाहते थे। राजेंद्र कुमार कभी-कभी थोड़ी सी पीते थे, परंतु ‘संगम’ के बनते समय उन्हें इसमें आनंद आने लगा था। अगली पीढ़ी के राजेश खन्ना, संजीव कुमार, ऋषि कपूर शौकीन रहे हैं। राकेश रोशन और प्रेम चोपड़ा ने हमेशा पीने को संतुलित रखा। वे बहके, परंतु लड़खड़ाए नहीं। जितेंद्र शौकीन रहे और क्षमता भी अच्छी खासी थी, परंतु अपनी पुत्री एकता के आग्रह पर उन्होंने तौबा कर ली।
नरगिस, नूतन और मधुबाला शराब से दूर रहीं, परंतु मीना कुमारी हमेशा ही पीती रहीं। मीना कुमारी ‘नाज’ के नाम से शायरी भी करती थीं। धर्मेंद्र भी शायरी करते हैं। संगत इस तरह भी उजागर होती है। धर्मेंद्र से अंतरंगता के दौर में वे खुलेआम पीने लगीं। यह सत्य नहीं है कि ‘साहब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू पात्र को अभिनीत करते समय उन्होंने पीना शुरू किया था। उनकी पार्श्व गायिका गीता दत्त इसका बहुत शौक रखती थीं। दोनों की ही मृत्यु ‘सिरोसिस ऑफ लिवर’ नामक बीमारी के कारण हुई। मीना कुमारी का शेर- ‘सब लोग ही प्यासे रह जाएं, पैमाने कुछ इस तरह छलक, आंख ने कसम दी आंसू को, गालों पर हर दम यूं न छलक’।
संगीतकार शंकर और गीतकार हसरत ने कभी नहीं पी, परंतु जयकिशन और शैलेंद्र शौकीन रहे। संगीतकार सी. रामचंद्र और भगवान दादा अतिरेक कर जाते थे। नीरज और निदा फाजली भी शौकीन रहे। हरिवंशराय बच्चन ने शराब पर खूब लिखा है, परंतु उन्हें तौबा किए अरसा गुजर गया था। प्रकाश मेहरा की फिल्म के एक गीत का आशय था कि अगर शराब में नशा होता तो नाचती बोतल। इसी आशय को जुदा अंदाज में मेहमूद अभिनीत फिल्म में यूं अभिव्यक्त किया है- ‘मुत्थू कोड़ी कवारी हड़ा, जो होता नशा तो नाचता दारू का घड़ा’। शहरी लोग बोतल में शराब रखते हैं। ग्रामीण लोग घड़े में शराब रखते हैं। बस्तर की जनजातियां सल्फी पीती हैं। एक वृक्ष के फल से सल्फी बनती है और वृक्ष ही परिवार का पालन-पोषण करता है। दरअसल यह भरम है कि महंगी शराब उतना नुकसान नहीं करती जितनी सस्ती शराब। स्कॉटलैंड की शराब लकड़ी के बैरल में रखते हैं और वह लकड़ी शराब सोंखती नहीं। छह वर्ष तक रखी शराब को रेड लेबल कहते हैं। बारह वर्ष तक संजोई हुई शराब को ब्लैक लेबल कहते हैं। निदा फाजली ने ‘शायद’ फिल्म के लिए गीत लिखा- ‘दिनभर धूप का पर्वत काटा, शाम को पीने निकले हम, जिन गलियों में मौत छिपी थी, उनमें जीने निकले हम’।



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If you were intoxicated, then a dancing bottle ...




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युद्ध जैसी स्थितियों में हमें आस्था पार लगाती है

‘ज य श्री कृष्णा।’ मेरी कॉलोनी के पास रहने वाले एक व्यक्ति मॉर्निंग वॉक के दौरान ऐसे ही अभिवादन करते हैं। कई लोगों को इस बात पर हैरानी होती थी कि वे इतने धार्मिक हैं, फिर भी शराब का व्यापार करते हैं। हालांकि, उन्हें भी अपने चुने हुए ईश्वर को पूजने और बिजनेस करने का अधिकार है। लॉकडाउन शुरू होने के दो दिन बाद वे नकदी (चल निधि) के संकट में फंस गए, क्योंकि बहुत सारा स्टॉक रख लिया था। उन्होंने एक दोस्त के सामने तनाव वाले इस बिजनेस को हमेशा के लिए छोड़ने की इच्छा तक जाहिर कर दी। लॉकडाउन जारी रहा और उन्होंने अपनी प्रार्थनाएं जारी रखीं। इस गुरुवार वे चिंतामुक्त नजर आए, क्योंकि उन्होंने आठ घंटे में एक-एक बूंद शराब बेच दी और लॉकडाउन में एक विजेता बनकर उभरे। अब मुंबई में शराब दुकानें फिर बंद हो गई हैं।
इससे मुझे महाभारत की एक कहानी याद आई। घुड़सवारों के साथ विशाल सेना के आवागमन के लिए कुरुक्षेत्र की रणभूमि तैयार की जा रही थी। पेड़ उखाड़ने और मैदान खाली करने के लिए हाथी इस्तेमाल हो रहे थे। ऐसे ही एक पेड़ पर एक चिड़िया चार बच्चों के साथ रहती थी। जैसे ही पेड़ गिराया गया, उसका घोंसला बच्चों समेत जमीन पर आ गिरा। बच्चे अभी उड़ नहीं सकते थे, लेकिन चमत्कारिक रूप से बच गए। घबराई हुई चिड़िया मदद तलाश रही थी और उसने कृष्ण को अर्जुन के साथ मैदान का मुआयना करते देखा। अपने छोटे पंखों से उड़ती हुई चिड़िया कृष्ण के रथ के पास पहुंची। चिड़िया ने गुहार लगाई- ‘हे कृष्ण, मेरे बच्चों को बचा लो। युद्ध शुरू होने पर वे कुचले जाएंगे।’ कृष्ण ने जवाब दिया- ‘मैं तुम्हारी बात समझ सकता हूं, लेकिन प्रकृति के नियम में दखल नहीं दे सकता।’ चिड़िया बोली- ‘हे ईश्वर, मैं बस इतना जानती हूं कि आप रक्षक हैं। मैं अपने बच्चों का भाग्य आपको सौंपती हूं। यह आप पर है कि उन्हें मरने देते हैं या बचाते हैं।’ कृष्ण बोले- ‘समय का पहिया किसी से भेदभाव नहीं करता’, जिसका मतलब था कि वे कुछ नहीं कर सकते। इस पर चिड़िया पूरी आस्था से बोली- ‘मैं आपका दर्शन नहीं जानती, मैं यह जानती हूं कि आप ही समय का पहिया हैं।’ ‘अपने घोंसले में तीन हफ्तों का खाना इकट्‌ठा कर लो।’ कृष्ण बस इतना कहकर आगे बढ़ गए। इस संवाद से अनजान अर्जुन ने चिड़िया को एक तरफ हटा दिया।
दो दिन बाद, युद्ध के शंखनाद से पहले कृष्ण ने अर्जुन से धनुष-बाण मांगा। अर्जुन चौंक गए, क्योंकि कृष्ण ने युद्ध में हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा ली थी। अर्जुन से धनुष लेकर कृष्ण ने एक हाथी पर निशाना साधा। लेकिन बाण हाथी को गिराने की जगह उसके गले में बंधी घंटी में जा लगा और घंटी नीचे गिर गई। अर्जुन यह देख हंसी नहीं रोक पाए कि कृष्ण इतना आसान निशाना चूक गए और पूछा- ‘मैं चलाऊं?’ अर्जुन की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर कृष्ण ने धनुष वापस कर दिया और कहा- ‘और कुछ करने की जरूरत नहीं है।’ युद्ध शुरू हुआ और खत्म भी हो गया। एक बार फिर कृष्ण अर्जुन के साथ रक्तरंजित मैदान पर गए। कृष्ण एक जगह रुके और अर्जुन से कहा, ‘क्या तुम हाथी की यह घंटी उठाकर एक तरफ रख दोगे?’ अर्जुन एक बार फिर हैरान रह गए कि रणभूमि में कई चीजें हटाना जरूरी है, फिर कृष्ण धातु के तुच्छ टुकड़े को रास्ते से हटाने को क्यों कह रहे हैं? वे तर्क नहीं कर सकते थे। जैसे ही उन्होंने झुककर घंटी उठाई, उनकी दुनिया हमेशा के लिए बदल गई। एक, दो, तीन, चार और पांच। चार छोटे पंछी एक के बाद एक उड़े और पीछे-पीछे एक चिड़िया भी गई। मां चिड़िया खुशी से कृष्ण की परिक्रमा लगाने लगी। अठारह दिन पहले गिरी एक घंटी ने पूरे परिवार की रक्षा की। अर्जुन बोले, ‘हे कृष्ण, मुझे क्षमा करना।’
फंडा यह है कि युद्ध जैसी स्थितियों से उबरने में कई बार आस्था भी हमारी मदद करती है।



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It makes us believe in situations like war




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मजदूर कह रहे- किराया हमसे लिया, भाजपा का दावा- रेलवे 85% सब्सिडी दे रही है और तो और रेल मंत्रालय की गाइडलाइन में साफ लिखा है टिकट का पैसा मजदूर देंगे

'25 मार्च को लॉकडाउन लगा, तो हम पैदल ही घर के लिए निकल पड़े। लेकिन, नासिक में ही पुलिस ने हमें पकड़ लिया और क्वारैंटाइन सेंटर भेज दिया। वहां हम 20-25 दिन रहे। 1 मई को पता चला कि ट्रेन निकलनेवाली है। हमें बताया गया कि घर जाना है तो टिकट तो खरीदना ही पड़ेगा। नासिक से लखनऊ तक की टिकट 470 रुपए की थी। मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने अपने रिश्तेदारों से मांगे। जब मैंने टिकट खरीदा, तभी मुझे वहां से आने को मिला। ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नहीं, कई लोगों के साथ हुआ।'

ये बात लखनऊ के रहने वाले जगत सिंह की है। जगत नासिक में मजदूरी करते हैं। और 3 मई को स्पेशल श्रमिक ट्रेन से अपने घर लौटे हैं। जगत ही नहीं, यूपी के श्रावस्ती में रहने वाले इलियास भी कुछ ऐसी ही बात बताते हैं।

इलियास बताते हैं, 'मुझे नासिक से लखनऊ आना था। मेरे पास पैसे नहीं थे। लेकिन, फिर भी मुझसे 420 रुपए की टिकट खरीदने को कहा गया। मैंने साथियों से मांगे, लेकिन उनके पास भी नहीं थे। फिर मैंने अपने घर वालों से पैसे खाते में मंगवाए। अचानक से बताने की वजह से पैसे का इंतजाम करना भी मुश्किल था। फिर भी घर वालों ने मेरे खाते में पैसे भेजे। तब जाकर मैं घर आ सका।'

25 मार्च से लॉकडाउन लगने के बाद से अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे प्रवासी मजदूर पैदल ही घर को जाने को मजबूर थे। कुछ घर पहुंचे भी। तो कुछ ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

पैदल चलने की वजह से करीब 50 मजदूरों की मौत होने के बाद 29 अप्रैल को गृह मंत्रालय ने दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों को मूवमेंट करने की इजाजत दी। 1 मई से रेल मंत्रालय ने लॉकडाउन में फंसे मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए स्पेशल श्रमिक ट्रेनें चलाईं। अब तक 160 से ज्यादा ट्रेनों से 1.60 लाख से ज्यादा मजदूर घर आ चुके हैं।

लेकिन, अभी भी एक कन्फ्यूजन जिस बात को लेकर हो रहा है, वो है किराया। कई मजदूरों का कहना है कि उनसे किराए के पैसे लिए गए हैं। लेकिन, भाजपा का कहना है रेलवे मजदूरों को किराए पर 85% की सब्सिडी दे रही है। और बाकी के बचे 15% राज्य सरकार दे रही है।

जबकि, 2 मई को रेल मंत्रालय ने श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को लेकर 19 पॉइंट की एक गाइडलाइन जारी की थी। इस गाइडलाइन में एक 11वां पॉइंट है, जिसमें लिखा है 'सेल ऑफ टिकट' यानी 'टिकट की बिक्री'। इस पॉइंट में तीन सब पॉइंट में भी हैं।
a) स्पेशल श्रमिक ट्रेनों में कम से कम 1200 या 90% यात्री होने चाहिए।
b) राज्य सरकारें रेलवे को मजदूरों के नाम और उनके डेस्टिनेशन की डिटेल्स देंगी। उस आधार पर रेलवे तय डेस्टिनेशन की टिकट प्रिंट करके स्टेट अथॉरिटी को देगी।
c) इसके बाद स्टेट अथॉरिटी पैसेंजर को टिकट देंगे। इनसे टिकट का पैसा लेंगे और उसके बाद ये पैसा रेलवे को देंगे।

रेलवे ने ये गाइडलाइन 2 मई को जारी की थी। पूरी गाइडलाइन देखने के लिए क्लिक करें


इससे तो यही लग रहा है कि जो जाएगा, किराया भी वही देगा। जा कौन रहा है? मजदूर। तो किराया कौन देगा? मजदूर।

इन स्पेशल ट्रेनों का किराया कितना लग रहा है?
रेल मंत्रालय ने 1 मई को स्पेशल ट्रेन के किराए को लेकर एक सर्कुलर जारी किया था। इस सर्कुलर के मुताबिक, किसी एक जगह से दूसरी जगह जाने पर जितना किराया लगता है, उतना तो लगेगा ही। इसके अलावा 30 रुपए सुपरफास्ट चार्ज और 20 रुपए एक्स्ट्रा चार्ज देना होगा। यानी, किराए के ऊपर 50 रुपए एक्स्ट्रा लगेंगे।

ये रेल मंत्रालय का 1 मई को जारी किया गया सर्कुलर है।


तो फिर 85:15 वाली बात कहां से आई?
जब श्रमिक ट्रेनें चलनी शुरू हुईं तो ये खबरें भी आईं कि ट्रेन का किराया मजदूरों से ही लिया जा रहा है। इस पर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने 4 मई को ट्वीट किया और लिखा, 'एक तरफ रेलवे दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों से टिकट का भाड़ा वसूल रही है। वहीं दूसरी तरफ रेल मंत्रालय पीएम केयर फंड में 151 करोड़ रुपए का चंदा दे रहा है। जरा ये गुत्थी सुलझाइए!'

राहुल गांधी के ट्वीट पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने जवाब दिया। संबित पात्रा ने श्रमिक ट्रेन को लेकर जारी गृह मंत्रालय की गाइडलाइन दिखाई। इस गाइडलाइन में लिखा था 'No tickets being sold at any station' यानी 'किसी भी स्टेशन पर टिकट नहीं बेची जाएंगी।'

इसमें उन्होंने ये दावा भी किया कि, मजदूरों के किराए पर 85% की सब्सिडी रेलवे दे रही है और बाकी के 15% राज्य सरकार देगी।

सिर्फ संबित पात्रा ही नहीं, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष ने भी ट्वीट कर यही दावा किया।

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इतना ही नहीं, 4 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय की डेली ब्रीफिंग में भी स्वास्थ्य सचिव लव अग्रवाल ने भी कहा कि टिकट का 85% खर्च रेलवे और 15% खर्च राज्य सरकार दे रही है।

रेलवे सच में कितनी सब्सिडी देती है?
रेल मंत्रालय ने पिछले साल 18 जून को 100 दिन का एक्शन प्लान बनाया था। इस प्लान में रेलवे ने बताया था कि वो यात्रियों से 53% किराया ही वसूलती है। यानी, अगर एक जगह से दूसरी जगह तक जाने का किराया 100 रुपए है, तो उसमें से यात्री सिर्फ 53 रुपए ही देते हैं।

इस पूरे एक्शन प्लान को पढ़ने के लिए क्लिक करें

कन्फ्यूजन क्यों हो रहा है?
1)
रेलवे ने श्रमिक ट्रेन को लेकर 2 मई को गाइडलाइन जारी की थी। लेकिन, इसमें कहीं भी ये नहीं लिखा कि किराए पर 85% सब्सिडी मिलेगी और बाकी 15% किराया राज्य सरकार देगी। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी इस पर कुछ नहीं बोला।
2) कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि मजदूरों से किराए के पैसे लिए जा रहे हैं। भास्कर के ही गुजरात एडिशन में 5 मई को खबर छपी थी कि, सूरत से गईं 9 ट्रेनों के 10 हजार 800 मजदूरों से 76 लाख रुपए वसूले गए थे।



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वैसे तो एक कोच में 72 सीट होती है. लेकिन श्रमिक स्पेशल ट्रेन में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो, इसके लिए एक कोच में सिर्फ 54 लोगों को ही बैठाया जा रहा है।




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पूरा वेतन न मिलने से नाराज यूपी-बिहार के मजदूर सड़क पर उतर आए, तोड़फोड़ कर रहे थे, एसएसपी ने भोजपुरी में समझाया तो लौट गए

जम्मू के कठुआ जिले में शुक्रवार को कपड़ामिल मजदूर सड़क पर उतर आए। पूरा वेतन नहीं मिलने का विरोध कर रहे इन मजदूरों ने देखते ही देखते पत्थरबाजी शुरू कर दी। भीड़ सड़कों पर दौड़ने लगी। नारेबाजी होने लगी। हाईवे जाम कर दिया।मजदूरों ने कई जगह तोड़फोड़ भी शुरू कर दी। इस दौरान मौके से गुजर रहीं कई गाड़ियों को नुकसान पहुंचा।

सूचना मिलते ही एसएसी शैलेंद्र मिश्रा मौके पर पहुंचे। उन्होंने न डंडा चलाया, न किसी तरह की सख्ती की,बल्कि जीप के बोनट पर खड़े हो गए और भोजपुरी में मजदूरों को समझाया। विरोध करने वाले मजदूरी यूपी-बिहार के थे।

नतीजा यह हुआ कि मजदूर उनकी बात ध्यान से सुनने लगे। कुछ ही मिनटों में तोड़फोड़ रुक गई। मजदूरों ने न सिर्फ एसएसपी की बात सुनी, बल्कि तालियां बजाकर उनके प्रति अपना समर्थन भी जताया।एसएसपी ने मजदूरों में से ही कुछ लोगों को भी बोलने का मौका दिया और पूरे मामले को बिना किसी सख्ती के शांत कर दिया।

गाड़ी के बोनट पर खड़े होकर मजदूरों से बात करते एसएसपी मिश्रा।

उन्होंने भोजपुरी में कहा कि,'पहिला नुकसान बा कंट्रोल के दूसरा नुकसान बा पुलिसवाला के और आपका पेमेंट वाला जौन मुद्दा बा उकरा बदे हम परसाशन से बात कईले बानी उमेश गुप्ता जी से हमार सीधे बात भईले बा। उमेश गुप्ता जी हम बात करतानी उकरा बदे हम परमान मंगनी हैं स्टाफ के कितना सैलरी दिहले हईं सल्यूशन खातर हम यहां आईल हईं'।

2009 बैच के आईपीएस अधिकारी एसएसपी शैलेंद्र मिश्रा ने भोजपुरी में मजदूरों को समझाया।

एसएसपी ने कहा किहमने फैक्ट्री संचालक से खुद बात की है और पूरे प्रमाण मांगे हैं। जिन मजदूरों ने विरोध किया वे चेनाब कपड़ा मिल में काम करते हैं।

बड़ी संख्या में मजदूर सड़कों पर जमा हो गए थे।

मिश्रा ने मीडिया से बातचीत में कहा किलॉ एंड ऑर्डर में जख्म तो पुलिसवालों को भी लगता है। कुछ मजदूरों को भी चोट आई है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। हमें थोड़ी देर से जानकारी मिली। लोगों को काम नहीं मिल रहा। घर में बैठे हैं। कहीं न कहीं यह गुस्सा फूटना था, इसलिए आज यहां फूट गया।

(सभी फोटो, वीडियो अंकुर सेठी)



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Jammu Kashmir Coronavirus Lockdown News Updates; Kathua SSP On Workers Protest Over Not Getting Full Salary




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हमारी अशांति कहीं फिर बीमारी न बढ़ा दे

कोरोना के इस दौर में बहुत से लोगों ने बहुत सी चीजें खो दीं। कई की रोजी-रोटी चली गई। व्यापार का नुकसान बड़ी समस्या बनकर कई के सामने खड़ा है। आगे क्या होगा, हर कोई इसी चिंता में डूबा दिख रहा है। सरकारें, संसार ये तो अपने ढंग से काम कर ही रहे हैं, पर ऐसे समय अध्यात्म भी बहुत बड़ी ताकत है। अपने धर्म को समझें, अपने अध्यात्म को जीने का प्रयास करें। अध्यात्म में एक शब्द है- ‘अभाव का आनंद’। इसी बात को उल्टा बोलें तो हो जाता है ‘आनंद का अभाव’। और सच भी है, जिनके पास दो वक्त की रोटी की भी व्यवस्था नहीं हो वो अभाव का आनंद कैसे उठाएंगे? अभाव के आनंद का अर्थ है अपनी आवश्यकताओं और उपभोग के अंतर को समझना। दो समय की रोटी तो हम सभी की आवश्यकता है, लेकिन हमारे पास अच्छी-अच्छी गाड़ियां हों पर उनका उपयोग न कर सकें, जेब में पैसा हो पर खर्च न कर सकें, रिश्ते हैं पर नजदीकी से निभा नहीं पा रहे हों। इन बातों में अभाव का आनंद ढूंढना है। चूंकि मनुष्य अपने उपभोग-विलास के कारण अशांत है, इसलिए अभाव के आनंद को जीने की आदत डालना पड़ेगी। हां, जिनकी मौलिक आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो रही हों, उनके तो जीवन में आनंद का अभाव है, लेकिन आज भी देश को चलाने वाले वो ही लोग हैं जो समर्थ हैं, पर अशांत हैं। यह अशांति कहीं फिर इस बीमारी को मौका न दे दे। इसलिए अभाव के आनंद को भी एक उपचार मानकर समर्थ हो जाएं, सक्षम हो जाएं..।



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May our disturbance never aggravate the disease




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अब टेक्नोलॉजी पैरेंट्स के लिए कक्षाओं की सीमाएं बना रही है

मैं यह दृश्य कभी नहीं भूल सकता। मैं तब तीसरी कक्षा में था और नागपुर के मेरे घर के बरामदे में बैठकर दोस्तों के साथ कैरम खेलता था। वहीं सफेद धोती-कुर्ता पहने मेरे पिता बैठकर अखबार पढ़ते थे। हमारे घर के सामने से गुजरने वाला लगभग हर व्यक्ति उनका अभिवादन करता था और पिता कुर्सी पर बैठे-बैठे ही जवाब देते थे। वे कभी खुद किसी से बात नहीं करते थे। लेकिन जब वे दो लोग वहां से गुजरते थे तो मेरे पिता खड़े हो जाते और पहले अभिवादन करते थे और वे दोनों जवाब देते थे। वे जब उस सड़क से गुजरते थे तो मेरे पिता मेरे कंधे पर भी हाथ रख मुझे खड़े होने का इशारा करते थे। ये दोनों व्यक्ति थे हमारे पारिवारिक चिकित्सक डॉ. हरिदास और मेरे क्लास टीचर सरस्वती कुप्पूस्वामी।
वे दोनों भी कुछ देर के लिए रुक जाते और मेरे पिता से कुछ मिनट के लिए दुनियादारी की बातें करते थे।

लेकिन कभी भी हमारे स्वास्थ्य या स्कूल में मेरे व्यवहार की बात नहीं होती थी। मेरे पिता भी कभी हमारी परिवार से जुड़ी बातें नहीं पूछते थे। तब तक मेरा कैरम बोर्ड गेम रुका ही रहता था और उनके जाने के बाद ही शुरू होता था। पिता उन्हें इतना सम्मान देते थे कि परिवार में कभी किसी को उनके काम की समीक्षा करने का अवसर नहीं मिला। वे जो भी कह देते, वही अंतिम फैसला होता था और हम उसका पालन करते थे। पिता की इस अच्छी आदत ने शिक्षण और चिकित्सा क्षेत्र के प्रति मेरे बालमन और परिवार के अन्य सदस्यों के दिल में एक सीमा बना दी थी, जिसे हममें से किसी ने कभी नहीं लांघा। अब आते हैं कोविड-19, लॉकडाउन 3 और ऑनलाइन क्लासेस पर। आज स्कूलों को ऑनलाइन क्लासेस के दौरान माता-पिता के उत्साह को नियंत्रित रखने और अत्यधिक संवाद को रोकने के लिए कई तरीके अपनाने पड़ रहे हैं, ताकि शिक्षकों की प्राइवेसी बनी रहे।

ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि आजकल पैरेंट्स शिक्षकों की शिक्षण क्षमताओं की समीक्षा करने और उनके बारे में अपना मत रखने के लिए वॉट्सएप प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे स्कूल भी जुड़े हुए हैं और उस पर सभी पैरेंट्स के नंबर शामिल हैं। वे फीस और स्कूल के अन्य मुद्दों के बारे में नकारात्मक लहजे में बात करते हैं, जिससे शिक्षक हतोत्साहित होते हैं और उनके मनोबल पर असर होता है। यही कारण है कि कोलकाता का ‘ला मार्टीनिएरे फॉर बॉयज स्कूल’ केवल शिक्षकों को मैसेज करने की अनुमति दे रहा है, पैरेंट्स को नहीं। कलकत्ता गर्ल्स हाई स्कूल ने दिन में दो घंटे तय किए हैं, जब शिक्षक पैरेंट्स या बच्चों के सवालों के जवाब देंगे। कोलकाता में ही बिड़ला वर्ल्ड एकेडमी ने भी केवल स्कूल के समय में ही वॉट्सएप पर बात करने की अनुमति दी है।
कुछ स्कूल इससे भी आगे बढ़े हैं। कोलकाता का महादेवी बिड़ला वर्ल्ड एकेडमी स्कूल मीटिंग शुरू होने से दो मिनट पहले ही लॉगइन पासवर्ड भेजता है और क्लास शुरू होने के पांच मिनट बाद ऑनलाइन मीटिंग रूम लॉक कर देता है, क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कई पैरेंट्स क्लास शुरू होने के बाद दूसरे कम्प्यूटर से लॉगइन कर लेते हैं, ताकि वे देख सकें कि टीचर कैसे पढ़ा रहा है। उन्होंने बच्चों के लिए कैमरा ऑन रखना और ऑडियो म्यूट रखना अनिवार्य कर दिया है।
चूंकि पैरेंट्स टीचर्स की प्राइ‌वेसी का सम्मान नहीं कर रहे हैं, कोलकाता का साउथ पॉइंट स्कूल उन्हें स्कूल एप के जरिये ही मीटिंग लिंक्स और पासवर्ड भेज रहा है। इस तरह वे अपने टीचर्स की प्राइवेसी की रक्षा कर रहे हैं। अगर पैरेंट्स के कोई सवाल होते हैं तो वे केवल स्कूल को ही लिख सकते हैं। हर टीचर अलग-अलग मीटिंग एकाउंट बनाए, इसकी जगह स्कूल एक सेंट्रल मीटिंग एकाउंट बनाता है, ताकि पैरेंट्स को टीचर्स के पर्सनल फोन नंबर न मिलें। चूंकि पैरेंट्स क्लास में हस्तक्षेप कर रहे हैं और टीचर्स के बारे में आलोचनात्मक हो रहे हैं, इसलिए स्कूल अनावश्यक रूप से जिज्ञासु पैरेंट्स को दूर रखने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ले रहे हैं।
फंडा यह है कि आधुनिक समय में क्लास अब घरों पर आ गई हैं, इसलिए पैरेंट्स को क्लास रूम की उन सीमाओं को समझना होगा, जिन्हें टेक्नोलॉजी ने बनाया है।
मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें।



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Now technology is making class boundaries for parents




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गैस रिसाव त्रासदी के साइड इफेक्ट्स

विशाखापट्टनम के रासायनिक कारखाने में गैस रिसाव से बड़ी दुर्घटना घटी है। जो सन् 1984 की भोपाल गैस त्रासदी की कड़वी यादों को ताजा कर देती है। इस तरह के कारखानों में बचाव प्रणाली होती है कि गैस रिसाव के समय पानी के फव्वारे चालू हो जाते हैं और हानि नियंत्रित हो जाती है। बचाव संयंत्र का प्रतिदिन निरीक्षण नहीं किया जाता और इस चूक से दुर्घटना घट जाती है। इसलिए फायर ब्रिगेड नियमित ड्रेस रिहर्सल करता है। शेक्सपियर का कथन याद आता है कि ‘ट्रेजडी ऑफ एरर्स, गॉड फॉर, द एनिमी लाइस विदिन द मैन’ अर्थात त्रासदी का कारण प्राय: मानवीय गफलत होती है, जिसके लिए ऊपर वाले को दोष देना अनुचित है। भोपाल गैस त्रासदी के समय कारखाने के मालिक को तत्कालीन मुख्यमंत्री के विभाग से सुरक्षित जगह भेज दिया गया था। व्यवस्थाएं हमेशा पूंजीवाद की सहायक रही हैं। जब विदेशी कंपनी ने मुआवजा देना स्वीकार किया तब रिश्वत लेकर कम मुआवजे के दस्तावेज बनाए गए। विदेशियों को हैरानी थी कि इस तरह के प्रकरण में भी मनुष्य की कीमत कम आंकी जाती है?
भोपाल में अवाम नीचे नगर में रहता है। मंत्री और अफसर ऊंचे नगर में रहते हैं। गैस रिसाव निचले स्तर पर रहने वालों के लिए घातक सिद्ध हुआ। बिपाशा बसु अभिनीत मधुर भंडारकर की फिल्म ‘कॉर्पोरेट’ में दिखाया गया है कि औद्योगिक घराने जासूस तंत्र भी रचते हैं। एक प्रोडक्ट को बाजार में लाने से पहले ही प्रतिद्वंद्वी उद्योग उसी तरह का माल बाजार में भेज देता है। फिल्म ‘कॉर्पोरेट’ में बिपाशा बसु अभिनीत पात्र प्रतिद्वंद्वी के अफसर को शराब पिलाकर, शबाब की झलक दिखाकर उसके कम्प्यूटर का डाटा चोरी कर लेती है। फिल्म के क्लाइमैक्स में कंपनी दावा जीत जाती है कि उनका प्रोडक्ट डिजाइन चोरी कर लिया गया है। बिपाशा बसु के मालिक सारे कांड का भांडा बिपाशा बसु के सिर पर फोड़ देते हैं और स्वयं बच निकल जाते हैं। ज्ञातव्य है कि कुंदन शाह की ‘जाने भी दो यारों’ में भी ऐसा ही होता है।
इस घटना में एक पेंच यह भी था कि बिपाशा बसु और अन्य कंपनी का अफसर कभी एक-दूसरे से प्रेम करते थे। प्रेमी अपनी भूतपूर्व प्रेमिका के खिलाफ गवाही देता है। दिलीप कुमार ने भी निर्माता का पक्ष लेते हुए मधुबाला के खिलाफ गवाही दी थी। जाने क्यों हमारे बहुबली सुपर सितारे हमेशा व्यवस्था के पक्ष में खड़े रहते हैं, जबकि उनकी स्क्रीन छवि भ्रष्ट व्यवस्था को तोड़ने वाले नायक की रहती है। यह सिलसिला आज भी जारी है।
जंगल के शेर और सर्कस के शेर में भारी अंतर होता है। जुड़वां जन्मे शेरों की रोचक फिल्म का नाम ‘टू ब्रदर्स’ है। ज्ञातव्य है कि अमेरिका में जो मजदूर अपनी सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने और वेतन वृद्धि को लेकर हड़ताल कर रहे थे, उन पर गोली चलाई जाती है। मामला गंभीर हो जाता है। सीनेटर वेगनर ने बीच-बचाव किया और मजदूरों को यूनियन बनाने की इजाजत दिला दी। सीनेटर वेगनर ने कारखाने के मालिकों को आश्वासन दिया कि मजदूर यूनियन के चुनाव में ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि उनके अपने लोग ही यूनियन का चुनाव जीतें। ऋषिकेश मुखर्जी की ‘बैकट’ से प्रेरित फिल्म ‘नमक हराम’ में भी इसी पैंतरे का इस्तेमाल दिखाया गया है। पूंजीवाद की महाभारत समझे जाने वाले मारियो पुजो की ‘गॉडफादर’ में भी यह कहा गया है कि औद्योगिक घरानों की नीव में कंकाल गढ़े होते हैं।
गुरु दत्त की धर्मेंद्र और तनुजा अभिनीत फिल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ का विषय एक कारखाने की मालकिन और मजदूर यूनियन के नेता की प्रेम कहानी से प्रेरित है। गुरु दत्त की इस फिल्म को उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई ने पूरा किया था। सलीम-जावेद की ‘दीवार’ में भी नायक के पिता मजदूर नेता थे और उन्हें फंसाया गया था। मजदूर अपनी पीठ पर उद्योग खड़े करता है। उसकी लहूलुहान पीठ पर मालिक का हंटर प्राय: कहर ढाता है। ज्ञातव्य है कि भोपाल गैस त्रासदी पर किताबें लिखी गई हैं। डाॅक्यू ड्रामा भी बनाए गए हैं। कुछ लोग त्रासदी प्रेरित किताबें और फिल्में बनाने के मौके को चूकते नहीं। इस तरह डिजास्टर साहित्य और सिनेमा भी रचा जाता है। भविष्य में कोरोना कालखंड प्रेरित किताबें लिखी जाएंगी और फिल्में भी बनेंगी, जिन्हें हम पॉपकॉर्न खाते हुए देखेंगे।



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Side Effects of Gas Leak Tragedy




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रेलगाड़ी से मजदूरों का कटना सरकारी नीतियों की विफलता

जिन्हें रेलगाड़ी के ऊपर सवार होना चाहिए था, जब वे रेलगाड़ी के नीचे आ जाते हैं तब सिर्फ उन बेचारों की ही नहीं, हमारी मौत होती है। तब भी होती है, जब हम इस हादसे को महज एक दुर्घटना मान लेते हैं, जैसे सड़क पर किसी कार और ट्रक का भिड़ जाना। (काश यह मजदूर ट्रेन के सामने खड़े होकर भिड़कर मरे होते, जैसे चीन के तियानामेन स्क्वायर के सामने वो साधारण व्यक्ति टैंक से भिड़ गया था। कम से कम शहीद तो कहलाते!) जब हम बतियाने लगते हैं कि भला रेल की पटरी भी कोई सोने की जगह है, तब हम हत्या में शरीक होते हैं। हमारी मौत होती है, जब हम गणमान्य लोगों के संवेदना संदेश पढ़कर संतोष कर लेते हैं। सोचिए और कह भी क्या सकते थे? बोल सकते थे अपने मन की बात कि मजदूर ही तो थे, मर गए तो क्या हुआ? इतने मरते हैं, किस-किस का ध्यान रखें? यह सच मान सकते थे कि यह मौत उनकी नीतियों का नतीजा है?
हमारी मौत होती है, जब हम सरकार की जांच के परिणाम का इंतजार करते हैं। किस की जांच होगी? क्या ठीकरा उस बेचारे ट्रेन ड्राइवर के सिर फूटेगा, जिसे सुबह-सुबह दिखाई नहीं दिया कि दूर पटरी पर कुछ लोग सोए पड़े हैं? जिसने इतनी बड़ी ट्रेन को रोकने की भरसक कोशिश की मगर रोक नहीं पाया? क्या उन अनुशासनहीन मजदूरों को दोषी पाया जाएगा, जो थकान से चूर होकर कुछ देर के लिए पटरी पर सिर रखकर लेटे होंगे? या जांच उन रोटियों की होगी, जो घटनास्थल पर बिखरी पाई गईं, जिनके लालच में यह मजदूर शहर छोड़कर वापस मध्य प्रदेश में अपने गांव तक चले जा रहे थे? या जांच सौ के उस तुड़े-मुड़े नोट की होगी, जो पटरी पर मिला? क्या कभी हिम्मत होगी उन बड़ी कुर्सियों की जांच करने की, जिनके आदेशों के चलते यह मजदूर पैदल चलने को मजबूर हुए?
हमारी मौत तब होती है जब हम रोज लॉकडाउन के चलते होने वाली मौत की खबरों से आंख मूंद लेते हैं। औरंगाबाद के हादसे से पहले लॉकडाउन के कारण 356 मौत हो चुकी थी (इनका पूरा विवरण thejeshgn.com वेबसाइट पर उपलब्ध है) इनमें से सबसे अधिक मौत उन लोगों की हुई, जिन्होंने कोरोना पॉजिटिव पाए जाने की आशंका से आत्महत्या कर ली, जो खाने और पैसे के अभाव में मर गए या जो सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए। कोरोना के हर केस की गिनती रखने वाले मीडिया में शायद ही इस आंकड़े की कभी सुध ली। इसमें वह मौतें शामिल नहीं हैं जो अस्पताल न पहुंच पाने से हुईं या आजीविका खत्म होने के कारण पैदा हुई भुखमरी से होंगी।
हमारी मौत तब होती है, जब हम मौत का इंतजार करते हैं। जब पूरे देश को लॉकडाउन करते समय हम सोचते भी नहीं की दिहाड़ी मजदूर का क्या होगा? जब वित्त मंत्री के राहत पैकेज के बाद हम पूछते भी नहीं कि जिस गरीब के पास राशन कार्ड नहीं है, उसका क्या होगा? जब हम मांग नहीं करते कि केंद्र देशभर में मिड-डे मील की जगह भूखे लोगों के लिए लंगर शुरू कर दे। जब हम आवाज ऊंची करके नहीं पूछते कि इस संकट के समय भी सरकार गेहूं-चावल के दाम पर भाव तौल क्यों कर रही है। जब देश की सर्वोच्च अदालत यह नहीं सोचती कि घर में बंद परिवार को रोटी के अलावा भी पैसे की जरूरत हो सकती है।
हमारी मौत तब होती है, जब हम टीवी पर गठरी उठाए सड़क पर चलते मजदूरों की तस्वीर को बस देख लेते हैं। खबर टीवी से उतरी और हम मान लेते हैं कि समस्या सुलझ गई। जब हर रोज मजदूरों के सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की खबर आती है और हम उसे रोमांचक कहानियों की तरह पढ़ते रहते हैं। जब सैलानियों और तीर्थयात्रियों को लग्जरी बस में लाया जाता है और गरीब मजदूर को सड़क पर घिसटने के लिए छोड़ दिया जाता है और हम चुप रहते हैं। जब विदेश से भारत के नागरिकों को मुफ्त हवाई जहाज से लाया जाता है और बेंगलुरु तथा मुंबई से बिहार या मध्य प्रदेश आने वाले प्रवासी मजदूर से किराया मांगा जाता है। जब सत्ताधीश यह झूठ बोलकर पिंड छुड़ा लेते हैं कि हम तो टिकट का 85% खर्च उठा रहे हैं और हम उनकी बात पर भरोसा कर लेते हैं।
हमारी मौत तब होती है, जब देशभर में मजदूरों के कानून रातोंरात बदल दिए जाते हैं और हम ध्यान भी नहीं देते। जब सरकारें देसी-विदेशी कंपनियों को खुला आमंत्रण देती है “आप निवेश करो, लेबर की चिंता मत करो’ और हम भी निवेश के आंकड़े गिनने में व्यस्त हो जाते हैं। पिछले 50 दिन में कोरोना के चलते देश में 1890 मौत हुई है। आशा करनी चाहिए कि और बहुत मौत नहीं होंगी। इन दिनों करोड़ों आजीविका भी छिनी हैं, आशा करनी चाहिए कि इस असर को जल्द ही हम पलट सकेंगे। लेकिन, हमारी सामाजिकता और संवेदनाओं की जो मौत हुई है, उसका क्या करेंगे?
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Failure of government policies by cutting workers by train




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इस समय सिर्फ यही सोचें, हम स्वस्थ हैं और स्वस्थ रहना है

संकल्प से सृष्टि बनती है। जब हम एक ही विचार को बार-बार दोहराते हैं तो वह सिद्ध हो जाते हैं। इस समय हमारा एक विचार नहीं है, बल्कि बार-बार विचार आ रहे हैं। इसे हम कहते हैं अफरमेशन यानी आप किसी बात को बार-बार कर रहे हैं। जैसे हम मंत्र का जाप करते हैं। उसमें हम एक उच्च ऊर्जा वाले शब्द को लेते हैं और हम उसको बार-बार दोहराते हैं। तो हमारी वायब्रेशन हाई होने लगती है। वातावरण शुद्ध होने लगता है। शरीर की हीलिंग होने लगती है, क्योंकि हमने उच्च ऊर्जा वाले शब्द को लिया और उसे दोहराया। यह हम जान-बूझकर पांच मिनट, दस मिनट या एक घंटा करते हैं। जब हम कम ऊर्जा वाले शब्द को अनजाने में बार-बार दोहराते हैं तो उससे हमारी वायब्रेशन घटती है, शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ता है, वातावरण अशुद्घ होता है, लेकिन वो हम ध्यान नहीं रखते हैं। इसलिए हमें संचेतन रहकर सकारात्मक अफरमेशन लेना चाहिए। आज हमारी शब्दावली में 2000 अनजाने नकारात्मक अफरमेशन हैं।
अभी नकारात्मक अफरमेशन को खत्म करने के लिए सकारात्मक अफरमेशन लेने पड़ेंगे।

हमारी सोच अपने आप नहीं बदल जाएगी। वो तो फिर उधर ही चली जाएगी। हम नहीं भी जाना चाहेंगे तो वातावरण खींचकर ले जाएगा। इसलिए हमें सकारात्मक अफरमेशन उत्पन्न करने पड़ेंगे। अफरमेशन के साथ जो दूसरी शक्ति है वो पॉवर ऑफ विजुअलाइजेशन। जो आप सोच रहे हैं, उसे आप विजुअलाइज जरूर कीजिए। आजकल लोग इसे अपने प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करते हैं। यह ट्रेनिंग का हिस्सा है। इसके चौंकाने वाले परिणाम होते हैं। जो वो नहीं कर पा रहे थे, वो चीज आपने करनी है और अगर आप भी नहीं कर पा रहे हो तो आप उसको सुबह उठकर सिर्फ अपने मन के अंदर देखो और आप पुष्ट करो कि मैं ये कर रहा हूं। यह हो रहा है। अपने आपको विजुअलाइज करो। फिर जब वो आप खेलने जाओ या परफॉर्म करने जाओ तो वो करना बहुत आसान हो जाता है।
एक बहुत सुंदर अध्ययन हुआ है, जिसमें दो ग्रुपों को लिया गया। दोनों कोर स्टडी ग्रुप थे। एक ग्रुप को कहा गया कि आपको रोज दो घंटा प्यानो बजाना है। दूसरे ग्रुप को कहा गया आपको रोज दो घंटे अपने मन के अंदर प्यानो बजाना है। वे विजुअलाइज कर रहे हैं कि वे प्यानो बजा रहे हैं। एक सप्ताह दो घंटे प्रतिदिन दोनों ग्रुपों ने ऐसा किया। फिर दोनों के ब्रेन पैटर्न का अध्ययन किया गया। दोनों के ब्रेन पैटर्न लगभग समान थे। दिमाग वास्तविक और काल्पनिक के बीच अंतर नहीं करता। प्रभाव वही होगा।
इसलिए जब हम चिंता करते हैं कि वो चीज अभी हुई नहीं है तो आप कल्पना कर रहे हैं। आपके घर में कोई बीमार नहीं है, आप बीमार नहीं हैं। सब सुरक्षित हैं, लेकिन आप कल्पना कर रहे हैं, विजुअलाइज कर रहे हैं। जब आप कल्पना कर रहे हैं और विजुअलाइज कर रहे हैं तो आपके दिमाग पर उतना ही असर पड़ रहा है। लेकिन जब अंत:करण से सकारात्मक सोचेंगे और सकात्मक विजुअलाइज करेंगे तो उसका भी आपके दिमाग और शरीर पर जादुई असर होने वाला है। इस समय हमें अफरमेशन विजुअलाइजेशन की शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए। यह वास्तव में मेडिटेशन है।

मेडिटेशन में हम क्या करते हैं- एक विचार पैदा करते हैं, उसे विजुअलाइज करते हैं। अगर आप सिर्फ सकारात्मक विचार पैदा करें, उसका भी अच्छा परिणाम मिलता है। लेकिन, अगर साथ में उसको विजुअलाइज कर लें तो इसका फायदा बढ़ जाता है। कारण कि आप उसको अंत:करण से सोच रहे हैं। अगर आप चाहें तो उसे बोल भी सकते हैं। कई बार हममें से कुछ विचारांे पर उतना नियंत्रण नहीं कर पाते हैं, फिर हम उसको बोलते हैं। इसलिए प्रार्थना हम बोलते हैं। मंत्र हम बोलते हैं। जिन्होंने पहले मेडिटेशन का अभ्यास नहीं किया है, इस समय एंग्जायटी है और वो सिर्फ विचारों में करें। शायद तत्काल नहीं कर पाएंगे पहले दिन। तो आप तत्काल परिणाम के लिए आप उसको अंत:करण से बोलिए। आप अफरमेशन को सिर्फ सोचिए नहीं, उसको बोलिए। बोलते-बोलते धीरे-धीरे मन की स्थिति जब थोड़ी सी ताकतवर हो जाएगी फिर आपको बोलना भी नहीं पड़ेगा। आप उसको विचारों में करना शुरू करेंगे।

धीरे-धीरे आप उस स्टेज पर पहुंच जाएंगे जहां पर आपकी सोचने की प्रक्रिया प्राकृतिक हो जाएगी। ये सिर्फ पांच मिनट और दस मिनट के लिए नहीं होगा। इसमें कई साल नहीं लगने वाले हैं। एक सप्ताह में ही आपको परिणाम मिलने शुरू हो जाएंगे। कोई भी इसे विधिपूर्वक कर सकता है। परमात्मा कहते हैं विधि से सिद्धि मिलती है। विधि से आप उसे कर लो तो सिद्धि तो होने ही वाली है। कुछ अफरमेशन हम अभी बनाते हैं, माना कुछ संकल्प अभी लेते हैं कि हमें कौन से संकल्प उत्पन्न करने हैं। हरेक को अपनी-अपनी स्थिति के हिसाब से, अपने परिवार, अपने काम के हिसाब से ये उत्पन्न करने हैं। जो हमें चाहिए वो हमें सोचना है। जब हम सोचेंगे तो ये नहीं सोचना कि ये होना चाहिए। हम ये सोचेंगे कि ये पहले से ही हमारे पास है। इन परिस्थितियों में हमें यही विचार पैदा करना है कि हम स्वस्थ हैं और स्वस्थ रहना चाहते हैं। हम अफरमेशन में वायरस शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। नकारात्मक शब्द आना ही नहीं चाहिए।
(यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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This time, just think, we are healthy and we have to be healthy




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ये लोग जिंदगीभर के लिए बना लेते हैं शहीदों के परिवार से रिश्ता, बहन से राखी बंधवाते, मां से किस्से सुनते, पिता को अपनेपन का अहसास दिलाते

कहा जाता है कि शहीद कभी मरा नहीं करते, वे हमेशा हमारे बीच ही रहते हैं। देश के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले इन वीर सपूतों की जिंदगी दूसरों को प्रेरणा देने वाली बन जाती है। लोग तरह-तरह से इन्हें याद करते हैं। कोई परिवार के बीच जाता है तो कोई किस्से-कहानियों में इनके बारे में बताता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इन परिवारों से जिंदगीभर का रिश्ता बना लेते हैं। शहीदों की बहनों से राखी बंधवाते हैं, मां से बेटे की बहादुरी के किस्से सुनते हैं, पिता को अपनेपन का अहसास दिलाते हैं।

लॉकडाउन के चलते जब ये लोग हंदवाड़ा में शहीद हुए जवानों के घर नहीं जा पाए तो फिर ट्विटर पर ही उन्हें श्रद्धांजलि दी।

4 मई ट्विटर पर शहीदों की याद में दीये जलाए गए।

जम्मू कश्मीर के नगरोटा में 2016 में शहीद हुए मेजर अक्षय गिरीश की मां मेघना गिरीश और उनके साथ मिलकर तमाम लोगों ने 4 मई को सोशल मीडिया पर देश के इन वीर जवानों को याद किया और घरों दीये जलाए।

यह इनिशिएटिव लेने वाली मेघना गिरीश शहीद अक्षय गिरीश की मां हैं।

परिवारों से बन गया कभी न खत्म होने वाला रिश्ता, 21सालों से यात्रा जारी

जम्मू के विकास मन्हास पिछले 21सालों से यह काम करते आ रहे हैं। वे शहीदों के घर जाते हैं। परिजनों के सुख-दुख बांटते हैं। उनकी बातें सुनते हैं। विकास कहते हैं, 1994में एक आतंकी हमले में सात जवान जम्मू-कश्मीर में शहीद हुए थे। उस समय उनके शव भी घरों तक नहीं जा पाए थे। जम्मू-कश्मीर में ही अंतिम संस्कार हो गया था। इस घटना ने मन को झकझोर कर रख दिया था।

विकास बताते हैं कि एक शहीद जवान जिसने देश के लिए प्राण त्याग दिए, घरवाले आखिरी बार उसका चेहरा तक नहीं देख सके। फिर 1999 में कारगिल युद्ध हुआ, जिसमें देश ने 527 वीर सपूतों को खो दिया। तभी से मैंने शहीदों के घरों में जाना शुरू कर दिया। पहली बार जम्मू में शहीदों के परिवार में गया। वे कहते हैं, जवान के शहीद होने पर शुरुआत में तो कई लोग आते हैं। सरकार आती है। लोग आते हैं लेकिन कुछ समय बाद वे बड़े अकेले हो जाते हैं।

विकास मन्हास शहीदों के घर जाते हैं। उन्हें सुनते हैं। उन्हें अपनेपन का अहसास दिलाते हैं।

अब मैं उनके घरों में जाता हूं और उनकी बातें सुनता हूं। कोई मां अपने वीर बेटे की कहानी सुनाती है तो कोई बहन मुझे अपना भाई समझकर राखी बांधती है। बस पिछले करीब 21सालों से यही सिलसिला चल रहा है और करीब 400-500 शहीदों के परिवारों में आना-जाना होता है, हालांकि इसका मेरे पास कोई डाटा नहीं है।

विकास कहते हैं पिछले 21 सालों में ऐसा पहली दफा हुआ है जब में बीते 50 दिनों से किसी भी शहीद के घर नहीं जा सका हूं।

विकास के मुताबिक, उनकी इस यात्रा से तमाम लोग जुड़ चुके हैं, जो शहीदों के घर जाते हैं। कहते हैं,लोग जुड़तेगए और कारवां बनता गया। बिहार के दरभंगा में रहने वालीं पूजा गुप्ता कहती हैं कि, मैं पिछले तीन सालों से इस यात्रा से जुड़ी हुई हूं। हंदवाड़ा में शहीद हुए जवानों की याद में हमने ट्विटर पर दीये जलाए। हम शहीदों के परिजनों से जिंदगीभर का रिश्ता बनाते हैं। हम उन्हें कोई फाइनेंशियल मदद नहीं करते लेकिन उन्हें अपनेपन का अहसासदिलाते हैं।

पूजा कहती हैं कि आमतौर पर शहीदों के परिवार को वित्तीय मदद नहीं चाहिए होती लेकिन उन्हें ऐसे अपने लोग चाहिए होते हैं, जो उनकी बातें सुनें। उनसे मिलें। सुख-दुख बांटें। बस हम लोग यही कर रहे हैं।

शहीदों की माताओं के साथ पूजा की तस्वीर। यह उन्होंने हाल ही में ट्विटर पर शेयर की।


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These people create a life-long relationship with the family of the martyrs, get Rakhi tied with the sister, hear stories from the mother, make the father feel connected.




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भवानी माता मंदिर में काेराेना संक्रमण से बचाव के लिए रोज हाे रहा यज्ञानुष्ठान

ग्राम हरसोला स्थित प्राचीन मां भवानी माता मंदिर पर ब्रह्म मुहूर्त में कोरोना महामारी के संक्रमण को खत्म करने के लिए हवन-पूजन किया जा रहा है। मंदिर समिति के सामाजिक कार्यकर्ता मदन परमालिया ने बताया कोरोना संक्रमण से मालवा प्रदेश, देश व विदेश में महामारी जैसी स्थिति न बने इसलिए पं. बालकृष्ण शर्मा द्वारा राेज मां भवानी मंदिर पर हवन-पूजन किया जा रहा है। प्रार्थना की जा रही है कि इस बीमारी के संक्रमण से शीघ्र मुक्ति मिले। हवन-पूजन के दाैरान लॉकडाउन का पालन भी किया जा रहा है। भरत शर्मा, बंटी शर्मा, दिनेश दुबे, तरुण शर्मा व अन्य विद्वान पंडितों द्वारा इस कार्य में सहयोग किया जा रहा है।



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In the Bhawani Mata temple, the Yagyanishuthan was daily to protect from the infection of Kareena




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ऑनलाइन आपूर्ति नहीं हो रही, 2 घंटे दुकानें खोलने की छूट दें

काेराेना संक्रमण के चलते शहर में जारी लाॅकडाउन के साथ ही अनिश्चितकालीन कर्फ्यू व के ग्रामीण क्षेत्रों में एक महीने से ज्यादा समय से जारी बंद से लाेगाें की स्थिति खराब हाे चुकी है। प्रशासनिक स्तर पर आवश्यक सामग्रियाें की व्यवस्था करने संबंधी दुकानें खाेलने के लिए जाे दिशा-निर्देश जारी किए थे, उनका समुचित पालन नहीं हाेने से परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। इस अाशय का एक ज्ञापन नगर कांग्रेसाध्यक्ष महेश जायसवाल ने एसडीएम अभिलाष मिश्रा काे माेबाइल के माध्यम से प्रेषित कर समस्या के निराकरण की मांग की है।
ज्ञापन से उन्हाेंने बताया महू का व्यवसाय, यातायात व सामान्य जीवन ठप हो गया है। इस संक्रामक बीमारी से निजात पाने के लिए आपके द्वारा प्रशासनिक कार्रवाई की गई है। इनमें से कुछ कार्रवाई तो सफल है कुछेक की निगरानी नहीं होने से गुणात्मक सुधार नजर नहीं आ रहे हैं। उन्हाेंने चार सवालाें के अाधार पर ज्ञापन मेें समस्याओंकी जानकारी देते हुए बताया कि जिन काेराेना संदिग्धाें के सैंपल लिए गए हैं। उनकी रिपोर्ट लंबे समय से नहीं मिल पा रही है। समय से रिपोर्ट नहीं मिल पाने की स्थिति में डाॅक्टर उनका उपचार अन्य दवाइयों के आधारहीन प्रयोग से कर रहे हैं। इस दौरान कुछ की ताे मौत हाे चुकी है।
कम मात्रा में सामग्री मांगने पर नहीं दे रहे दुकानदार
लाॅकडाउन व अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते प्रशासनिक स्तर पर आवश्यक सामग्री की अाॅनलाइन अापूर्ति नहीं हाे पा रही है। विशेषकर जिन किराना दुकान संचालकाें की सूचना प्रशासन ने वाट्स-एप मैसेज व अखबारों के माध्यम से करीब 25 दिन पहले सार्वजनिक की थी, वे आपूर्ति नहीं कर रहे हैं। ये संबंधित किराना व्यवसायी छोटे जरूरतमंद तबकों के परिवार को कम मात्रा में किराना सामग्री मांगने पर नहीं दे रहे हैं। कई ऑनलाइन किराना दुकानदारों ने दिए गए मोबाइल नंबर भी बंद कर रखे हैं। आग्रह है गली-मोहल्लाें की कुछ किराना दुकानाें काे राेज करीब दाे घंटे खाेलने की रियायत दी जाए, जिससे आम छोटे तबकों के जरूरतमंद वर्ग को किराना सामान मिल सके। इसी प्रकार साग-सब्जी, फल के वितरण के लिए व्यवस्था संबंधी योजना बनाई जाए। नगर के आसपास करीब 170 से अधिक ग्रामीण क्षेत्र हैं। इनके वासियाें का जीविकोपार्जन कृषि उत्पादन से होता है। इनके माध्यम से उत्पादित सब्जी, आलू, प्याज, फल के लिए प्रशासन सोसाइटी के माध्यम से केंद्र बनाकर आमजनता काे उपलब्ध कराई जाए।
उन्हाेंने यह भी मांग रखी कि निजी डाॅक्टराें के नगर में 25 से अधिक क्लिनिक हैं, कुछ उनके निवास स्थान पर हैं। आम दिनाें में इन डॉक्टराें के पास 50-100 से अधिक मरीज चेकअप करा अपना इलाज कराते हैं। इनमें छह से अधिक डॉक्टर ताे बच्चाें का इलाज करते हैं। डॉक्टरों ने स्वयं को काेराेना वायरस संक्रमण से सुरक्षित करने के उद्देश्य वर्तमान में अपने निजी क्लिनिक बंद कर दिए हैं। इसकी वजह से आम मरीज अधूरे इलाज के अभाव में अपना जीवन घर में गुजार रहे हैं। उपचार नहीं मिल पाने से जीवन-मौत से जूझ रहे हैं। अतः निजी डॉक्टरों के क्लिनिक को खुलवाया जाए अन्यथा इनके विरूद्ध कार्रवाई की जाए। एसडीएम मिश्रा ने इन बिंदुअाें पर ध्यान देकर इस संबंध में उचित निर्णय लिए जाने का अाश्वासन दिया है।



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No supply online, allow 2 hours to open shops




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कंटेनमेंट एरिया में घर की गैलरी से ही ले रहे सामान

शहर में मुसलिम व बाेहरा समाज द्वारा रमजान में राेजा रखने के साथ ही इबादत की जा रही है। लाॅकडाउन के चलते दाेनाें समुदाय के लाेग घराें में ही इबादत कर रहे हैं। एमजी राेड कंटेनमेंट एरिया में सर्वाधिक बाेहरा समाज के घर हैं, वहां समाजबंधु जरूरी सामग्री मंगाने के लिए भी गैलरी से ही रस्सी लटकाकर सामान ले साेशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं।

लाॅकडाउन में रमजान घर से ही कररहे इबादत

कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर लॉकडाउन और कर्फ्यू के चलते इस बार रमजान माह में सामूहिक नमाज अदा न करते हुए समाजजन घरों में ही परिवार के साथ नमाज अदा कर रहे हैं। कई लोग तो अपने अांगन में ही इबादत करते नजर अा रहे हैं। वहीं मुसलिम समुदाय भी पांचाें टाइम की नमाज घर में ही अदा करने के साथ ही शाम के समय बाहरी व्यक्तियाें के साथ सामूहिक राेजा इफ्तारी की बजाय परिवार के लाेगाें के साथ ही राेजा इफ्तारी कर रहे हैं।



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Taking items from home gallery in the Containment Area




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डीपी कैंट अस्पताल काे बनाएंगे डेडिकेटेड काेविड केअर सेंटर, 10 बैड की रहेगी सुविधा

प्लाउडन राेड स्थित डीपी कैंट अस्पताल काे अब डेडिकेटेड काेविड सेंटर बनाया जा रहा है। यहां पर येलाे जाेन अस्पताल के मरीज जिनकी रिपाेर्ट पैंडिंग है, लेकिन वे स्वस्थ्य हैं, एेसे मरीजाें काे रखा जाएगा। इस सेंटर में 10 बैड की क्षमता रहेगी।
तहसीलदार धीरेंद्र पाराशर ने बताया येलाे जाेन अस्पताल में बड़ी संख्या में एेसे मरीजाें की संख्या है, जिनकी रिपाेर्ट अभी आना बाकी है। वर्तमान में वे येलाे जाेन अस्पताल में उपचारत हैं, लेकिन स्वस्थ हाेने के चलते उन्हें ऑक्सीजन आदि जैसी सुविधा की आवश्यकता नहीं है। ऐसे मरीजाें काे अब येलाे जाेन वाले गेटवेल अस्पताल से डीपी कैंट अस्पताल शिफ्ट किया जाएगा। यहां पर अस्पताल में ऊपरी मंजिल पर 10 बैड की जगह ऐसे मरीजाें के लिए रखी है। मरीजाें काे ले जाने का रास्ता भी अस्पताल के मुख्य द्वार की बजाय साइड के रास्ते से दिया गया है।

लिखा पत्र : सुरक्षा की दृष्टि से सेंटर कहीं और बनाएं

डीपी कैंट अस्पताल घनी बस्ती सांघी स्ट्रीट से सटा हुआ है। ऐसेमें यहां के रहवासियाें काे जैसे ही सूचना मिली कि यहां पर काेविड संबंधित पेशेंट काे रखने की याेजना है, ताे रहवासियाें ने इसका विराेध शुरू कर दिया है। रहवासियाें ने साेशल मीडिया के माध्यम से स्थानीय प्रशासन काे इस अस्पताल काे काेविड केअर सेंटर नहीं बनाने की मांग भी की है। रहवासियाें ने पत्र के माध्यम से लिखा है कि जिस जगह अस्पताल है, उसके पिछले हिस्से में ही 10 से 12 फीट की दूरी पर ही करीब 10 से ज्यादा परिवाराें के मकान हैं। ऐसे में काेविड के पेशेंट से यहां पर खतरा रहेगा। इसके अलावा रहवासियाें ने बताया इन परिवाराें में बुजुर्ग भी रह रहे हैं। एेसे में सुरक्षा की दृष्टि काे ध्यान में रखते हुए सेंटर काे अन्यत्र स्थान पर बनाया जाए।



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DP Cantt Hospital to set up dedicated cadet care center, 10 beds to be available




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महू में 15 नए पॉजिटिव, इनमें से 2 की पहले ही हो चुकी है मौत, अब तक 61 संक्रमित, 32 में से 17 की रिपोर्ट आई निगेटिव

शहर में कोरोना संक्रमितों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। मंगलवार देर रात मिली 32 और सैंपल रिपोर्टों में से 15 पॉजिटिव निकली हैं, शेष 17 की रिपोर्ट निगेटिव आई है। संक्रमितों का अब तक का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है। पॉजिटिव रिपोर्टों में शामिल दो की रिपोर्ट आने के पहले मौत हो चुकी है। इन्हें मिलाकर संक्रमितों की कुल संख्या 61 हो चुकी है। कुल संक्रमितों की रिपोर्ट में शामिल मृतकों की संख्या आठ हो चुकी है। जिन 15 लोगों की रिपोर्ट आई है उनमें शहर के दो नए क्षेत्रों पेंशनपुरा और राजा गली के भी शामिल हैं।
स्थानीय प्रशासन ने अागामी अादेश तक के लिए कर्फ्यू लगाया है। मंगलवार काे शहर के विभिन्न स्थानाें पर लाेग कर्फ्यू का उल्लंघन करते हुए घर से ही सब्जी व किराना का व्यापार कर रहे थे। इस मामले में पुलिस-प्रशासन ने अलसुबह ही दबिश देकर ऐसे लाेगाें काे पकड़ा। इसमें सब्जी बेचने के मामले में महिला सहित दाे व बेवजह घूमते हुए पांच लाेगाें पर लाॅकडाउन उल्लंघन की कार्रवाई की गई। अभी भी लोगों द्वारा लॉकडाउन का पालन नहीं किया जा रहा है। यदि ऐसा ही रहा तो संक्रमण का खतरा अाैर बढ़ने की संभावना है।

शहर में मंगलवार सुबह छह बजे से ही नायब तहसीलदार रीतेश जाेशी पुलिस बल के साथ हाट मैदान पहुंचेे। यहां पर भगवान काैशल अपने घर से ही बड़ी मात्रा में सब्जी बेचने का काम करता मिला। जिस पर सब्जी जब्त करने के साथ ही उसे पकड़कर थाने भिजवाया। इसके अलावा गुजरखेड़ा में भी राधा नामक महिला अपने घर से सब्जी बेच रही थी। टीम ने उसे भी पकड़ा व थाने भिजवाया।

188 में कार्रवाई : हाट मैदान के काैशल काे दूसरी बार सब्जी बेचते पकड़ा...
प्रशासन ने हाट मैदान में भगवान काैशल काे घर से सब्जी बेचते हुए पकड़ा है। इस पर घर से सब्जी बेचने व लाॅकडाउन उल्लंघन की दूसरी बार कार्रवाई की गई है। इससे पहले भी कर्फ्यू के दाैरान प्रशासन काैशल काे घर से सब्जी बेचने के मामले में पकड़ा जा चुका है, उस पर लाॅकडाउन उल्लंघन के तहत 188 की कार्रवाई की गई थी।
बेवजह घूम रहे लोगों को कोर्ट में पेश किया : राजमाेहल्ला, श्याम विलास चाैराहा, हाट मैदान आदि क्षेत्राें से प्रशासन ने दाेपहिया वाहनाें पर बेवजह घूम रहे उमेश पिता श्रीराम पाल निवासी गुजरखेड़ा, भीम पिता कुंजीलाल काैशल निवासी हाट मैदान, पिंटू पिता रामअवतार वर्मा निवासी राजमाेहल्ला पर भी केस दर्ज किया। दाेपहर में इन सभी काे प्रशासन ने न्यायालय में भी पेश किया गया। शहर के अलग-अलग इलाकाें में काेराेना संक्रमित मिलने के बाद बनाए गए कंटेनमेंट एरिया में लाेगाें की सुबह के समय खासी चहल-पहल देखी जा रही है। इसके लिए प्रशासन काे सतर्कता बरतने की खासी जरूरत है।

घर से बेच रहा था किराना, दुकान बंद करवाई...
नायब तहसीलदार जाेशी काे सूचना मिली थी कि गाेकुलगंज क्षेत्र में कुणाल नामक व्यक्ति अपने घर से ही किराना बेच रहा है। जिस पर टीम ने वहां दबिश दी, ताे कुणाल अपने घर से ही लाेगाें काे किराना सामग्री बेचता मिला। जिस पर उसे भी पकड़कर थाने भिजवाया। अभी कर्फ्यू के दाैरान प्रशासन ने सिर्फ एक दिन छाेड़कर एक दिन किराना सामग्री हाेम डिलीवरी के माध्यम से ही सप्लाय करने की अनुमति दी है। इसके बावजूद नगर में सब्जी बेची जा रही है।

एसएएफ की कंपनी भी शहर पहुंची, आज से 80 जवान संभालेंगे माेर्चा
शहर में लगातार बढ़ रहे काेराेना संक्रमित अांकड़े काे लेकर लाेगाें से सख्ती के साथ लाॅकडाउन का पालन कराने के लिए पुलिस-प्रशासन लगातार काेशिश कर रहा है। इसी के चलते अब ईगल वन कमांडेंट छिंदवाड़ा धर्मराज मीणा ने एसएएफ के 80 जवानाें की कंपनी अाैर बुलवाई है। इस कंपनी के जवानाें काे बुधवार से शहर के विभिन्न पाइंट पर तैनात किया जाएगा, जिससे लाॅकडाउन का पालन अाैर बेहतर तरीके से हाे सके।



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15 new positives in Mhow, 2 of them have already died, 61 infected so far, 17 out of 32 reported negative




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लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की दी समझाइश

लाॅकडाउन के चलते मंगलवार काे प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियाें ने नगर भ्रमण कर लाेगाें काे साेशल डिस्टेंस, संक्रमण से बचाव अादि की समझाइश दी।
अधिकारियाें का दल मंगलवार सुबह 9 बजे अंकिता ठाकुर पटवारी, एसआई बिहारीलाल सांवले, अजीतसिंह पवार व नगर परिषद के कर्मचारी ने नगर में घूमकर दुकानदारों को सोशल डिस्टेंस का पालन करने व ग्राहकों को बिना मास्क के सामान नहीं देने की समझाइश दी। साथ ही दुकानाें पर खड़े ग्राहकों को सोशल डिस्टेंस का पालन करने का आग्रह किया। नगर के अनेक मोहल्लों व गलियों में यह दल घूमता नजर आया। साथ ही नगर परिषद का वाहन अनाउंसमेंट करता चल रहा था।



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Explained to people to follow social distancing