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परमशक्ति की ओर छलांग लगाने का अवसर

हर किसी को बहुत अखरेगा जब किनारा बिल्कुल पास दिख रहा हो और नाव डूब जाए। कोरोना के इस दौर में पूरा देश लॉकडाउन का कड़वा-मीठा स्वाद चख चुका है। हम एक ऐसे किनारे लग रहे हैं, जहां गहराई है, लहरें हैं, खाई है। बाहर की दुनिया से कटकर अपनी एक निजी दुनिया में थम से गए हैं। यह हाउस अरेस्ट कुछ लोगों को बहुत तकलीफ दे रहा होगा। कई ने अपनी जीवनशैली ऐसी बना ली थी कि घर उनके लिए धर्मशाला होकर रह गए थे, जहां सिर्फ खाने, सोने और भोग-विलास के लिए आया करते थे। लेकिन, इसे बंदिश न समझिएगा।

ऐसा कहा गया है कि दुनिया को ठुकराने से दुनिया फिर मिलती है। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे- ‘भागती फिरती थी दुनिया, जब तलबगार थे हम। अब बेतलब हो गए तो दुनिया मिलने को बेकरार है’। अध्यात्म की दृष्टि से कहें तो यह साकार से निराकार होने का समय है। ईश्वर को दो रूपों में देखा गया है- साकार यानी धर्मस्थल, मूर्ति, पूजा-पाठ। और निराकार मतलब अनुभूति, योग, ध्यान। पहले हम साकार दुनिया में रहते थे, अब कुदरत ने निराकार से मिलाने का मौका दिया है।

दार्शनिक कहा करते थे परमशक्ति को पाने के लिए एक छलांग लगाना पड़ती है जो जंपिंग बोर्ड से लगती है। इस समय हमारा परिवार जंपिंग बोर्ड है। अवसर मिला है तो लगाइए एक छलांग उस परमशक्ति की ओर जिसे शांति कहते हैं, आनंद कहते हैं, सहजता कहते हैं, सरलता कहते हैं।

जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें।



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Opportunity to leap to the ultimate power




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कोरोना कालखंड : सौर मंडल में ग्रहदशा

कोरोना संक्रमित पहला मरीज चीन में गत वर्ष नवंबर में सामने आया था और भारत में जनवरी 2020 में। गौरतलब है कि इस कालखंड के समय सौर मंडल में ग्रहों की दशा क्या थी? किन ग्रहों की युति का समय था? कुरुक्षेत्र के युद्ध में क्या प्रतिदिन बदलती ग्रहदशा से हार-जीत का समीकरण बदल रहा था? कुरुक्षेत्र में अठारवें दिन युद्ध समाप्त हुआ तब की ग्रहदशा जानते हुए यह जानना जरूरी है कि अश्वत्थामा ने द्रौपदी के सोए हुए पुत्रों को मारा तब बुध की दशा क्या थी?

व्यथित द्रौपदी ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि वह कभी मरेगा नहीं। क्या जीना एक श्राप है और मरने पर चैन न आया तो कहां जाएं? कुछ लोग पूर्व जन्म की स्मृति के साथ पैदा होते हैं, जर्मनी के डॉ. वीज ने इस विषय पर शोध किया है। इसे अवतारवाद अवधारणा से भी जोड़ा गया है। एक लेखक ने ‘दशावतार’ नामक पुस्तक में तर्क सम्मत दृष्टिकोण से अवतार अवधारणा पर शोध प्रबंध लिखा है। उनका नाम भूल जाने के लिए शर्मिंदा हूं।
इस्लाम के उदय के समय वहां के बच्चे भी प्रश्न कुंडली बनाकर सही उत्तर देने लगे थे। सेंटर गेब्रिल ने इम्तहान लेने के लिए एक किशोर से प्रश्न पूछा कि इस समय गेब्रिल कहां होंगे? किशोर ने रेत पर अपनी अंगुली से प्रश्न कुंडली बनाई। उसने जवाब यह दिया कि यहां केवल दो व्यक्ति मौजूद हैं और किशोर स्वयं गेब्रिल नहीं है तो प्रश्न पूछने वाला ही सेंटर गेब्रिल हो सकता है। इस्लाम में कुंडली और समय को पढ़ने पर रोक लगा दी गई, क्योंकि उन्हें भय था कि इस क्षेत्र में असली जानकारों का अभाव होगा और कुछ ठग इसे व्यवसाय बनाकर अवाम को लूटेंगे।

सभी अखबार, पत्रिकाओं में साप्ताहिक भविष्यफल दिया जाता है। दीपावली विशेषांक में वार्षिक भविष्यफल प्रकाशित किया जाता है। इस तरह के लेख का हथकंडा यह है कि इस सप्ताह मेष राशि के फल को अगले सप्ताह मकर राशि का भविष्यफल लिख दीजिए। इस तरह के रोटेशन से आप वर्षों अपनी रोजी-रोटी कमा सकते हैं। खाकसार के परिचित ज्वाला प्रसाद शुक्ला, मजदूर यूनियन के कर्मचारी रहे और सेवानिवृत्त होने के बाद ‘पृथ्वी धाराचार्य’ के छद्म नाम से भविष्यफल लिखने लगे।
1 सितंबर 1939 को दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ था। हिटलर को साढ़े साती लगे एक वर्ष हो चुका था। क्या यह शनि दशा का प्रभाव था कि अति आत्मविश्वास के कारण उसने अपने टैंक के पेन्जर डिवीजन को रोके रखा। उसकी पराजय में इस दुविधा का बड़ा हाथ है। सरलीकरण यह हो सकता है कि सही समय पर अच्छे लोगों से मुलाकात हो जाने को भाग्य कहते हैं। गलत समय पर गलत लोगों के मिलने से बहुत हानि हो सकती है। मध्य प्रदेश के बडनगर में रहने वाले महेश गुप्ता ने डॉक्टर द्विवेदी के शोध प्रबंध पढ़कर यह बात कही कि कुरु क्षेत्र में लड़ा गया युद्ध लगभग पांच हजार वर्ष पूूर्व लड़ा गया था। वह दिन 14 नवंबर मंगलवार था।
ऐसा माना जाता है कि पंजाब में भृगु संहिता में हर मनुष्य की कुंडली विद्यमान है। पंचांग और भृगु संहिता के जानकार लोग कुरुक्षेत्र, दूसरे विश्व युद्ध के दिन और पहर का अध्ययन करके बताएं कि क्या कोरोना कालखंड उसी यथार्थ का तीसरा चरण है? इसे हम प्रलय विवरण से नहीं जोड़ सकते? मलेरिया, हैजा और चेचक महामारी से इसकी तुलना केवल मरने वालों की संख्या तक ही सीमित रहेगी। इस तरह के अध्ययन में उस कालखंड की जनसंख्या को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए और मेडिकल सुविधाओं पर भी विचार करना चाहिए।
सलीम खान और कबूतर
सलीम खान दशकों से सुबह की सैर पर जाते रहे हैं। बांद्रा में उनके निवास स्थान गैलेक्सी से ‘ताज एंड’ होटल तक वे सैर करते रहे हैं। सैर के समय कुछ लोग उनके साथ हो जाते हैं और सैर के साथ मजेदार किस्सागोई भी होती है। दरअसल उनकी किस्सागोई उनकी पटकथाओं की तरह रोचक है। सैर के समय वे कबूतरों को दाना खिलाते हैं। कबूतरों से उनकी मित्रता हो गई। कोरोना के फैलते ही उन्होंने बांद्रा के पुलिल अफसर से अपने लिए एक पास बनवाया।

सैर वे अपने कंपाउंड में भी कर सकते हैं, परंतु उन्होंने कबूतरों को दाना देने के लिए कर्फ्यू पास बनवाया और दाना देकर वे लौट आते थे। कुछ लोगों ने इसे पक्षपात मानते हुए अफसरों से शिकायत कर दी। अत: पुलिस ने उन्हें सैर से रोका, कहा कि यह पास विकट हालात के लिए दिया गया है। कोरोना के विषम कालखंड में मवेशियों और परिंदों को भी दाने नहीं मिल रहे हैं। सड़क के कुत्ते भोजन के अभाव में पगला रहे हैं। परिंदे कभी अपना दुख और असुविधा अभिव्यक्त नहीं करते। ताजा बात यह है कि सलीम खान प्रति दिन कबूतरों के लिए दाने पुलिसकर्मी को देते हैं जो यह काम कर देते हैं।



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Corona Period: Planets in the Solar System




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बर्फबारी के कारण देश ही नहीं कश्मीर से भी कटी रहती है 40 हजार की आबादी वाली यह घाटी, 6 महीने बाद भेजे गए जरूरी सामान के ट्रक

लाइन ऑफ कंट्रोल पर बसी कश्मीर की गुरेज घाटी का कुछ हिस्सा भारत में हैं और कुछ हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा है। भारत के हिस्से वाली गुरेज घाटी बांदीपोरा जिले में आती है। आठ हजार फुट की उंचाई पर बसी यह घाटी बर्फबारी के दिनों में चारों ओर सेबर्फ के पहाड़ों से घिर जाती है। हालात यह हो जाते हैं कि हर साल छह-छह महीने तक यह कश्मीर से पूरी तरह कटी हुई रहती है।

बांदीपोरा से गुरेज को जोड़ने वाला रोड करीब 86 किमी लम्बा है। इसी रास्ते पर राजदान पास आता है, जो समुद्र तल से 11 हजार 672 फीट की ऊंचाई पर है। यहां बर्फबारी के दिनों में 35 फीट तक बर्फ जमा हो जाती है। पिछले साल नवंबर में इस रोड को बंद किया गया था। पिछले हफ्ते ही (17 अप्रैल) इसे खोला गया है।

तस्वीर पुराना तुलैल गांव की है। आगे किशनगंगा नदी बह रही है। नदी के किनारे रेजर वायर फेंस लगा हुआ है ताकि पाक अधिकृत कश्मीर से अवैध घुसपैठ को रोका जा सके।

गुरेज घाटी की जनसंख्या करीब 40 हजार है। कश्मीर से 6 महीने तक संपर्क कट जाने के कारण यहां मार्च-अप्रैल के समय दवाईयों और खाने-पीने जैसी जरूरी चीजों की किल्लत होने लगती है। दो दिन पहले ही 25 अप्रैल को यहां जरूरी सामान को पहुंचाने का सिलसिला शुरू हुआ। शनिवार को एलपीजी के 2 और डीजल के 4 ट्रक रवाना किए गए थे। रविवार को फल, सब्जी और राशन से भरे 20 ट्रक और भेजे गए।

शनिवार को एलपीजी गैस की टंकियों से भरे 2 ट्रक बांदीपोरा से गुरेज घाटी की ओर रवाना किए गए थे।

बांदीपोरा से गुरेज जाने वाला यह रोड फिलहाल सिर्फ जरूरी सामान की आपूर्ति के लिए ही खुला हुआ है। आम लोगों का आना-जाना बंद है। कोरोनावायरस संक्रमण के फैलाव से गुरेज घाटी को बचाने के लिए ही यह फैसला किया गया है। बांदीपोरा डेप्यूटी कमिश्नर शहबाज अहमद मिर्जा बताते हैं कि जिन ट्रकों में सामान जा रहा है, उन्हें भी अच्छी तरह से सेनिटाइज किया जा रहा है। ट्रकों को चलाने के लिए उन्हीं ड्राइवरों को चुना गया है, जिन्हें चेकअप के बाद डॉक्टरों की टीम ने स्वस्थ पाया था।

मिर्जा बताते हैं, “कोशिश यही है कि कश्मीर का जो हिस्सा अब तक कोरोना संक्रमण से बचा हुआ है, उसे आगे भी महफूज रखा जाए। इसलिए पूरी सावधानी के साथ गाड़ियों को घाटी में भेजा जा रहा है।”

जम्मू-कश्मीर में अब तक कोरोना के 500 से ज्यादा मामले आ चुके हैं। 7 लोगों की मौत भी हो चुकी है। ऐसे में गुरेज जाने वाले हर वाहन को इसी तरह सैनिटाइज किया जा रहा है।

बांदीपोरा-गुरेज रोड खुलने से पहले ही लोग पैदल चलकर गुरेज घाटी पहुंचने लगे थे। कोरोनावायरस के खतरे को देखते हुएअप्रैल के पहले हफ्ते में अहमदमिर्जा ने गुरेज में जाने वाले बाहरी लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया था। उन्होंनेकहा था कि बाहरी लोगों का इस तरह गुरेज में पहुंचना, भौगोलिक रूप से अलग-थलग इस घाटी में कोराना की एंट्री का कारण बन सकता है। मिर्जाने तत्काल प्रभाव से गुरेज में लोगों के जाने पर बैन लगा दिया था और इसका सख्ती से पालन कराने की जिम्मेदारी त्रगबाल की बीएसएफ यूनिट को दी थी।



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बर्फबारी के दिनों में बांदीपोरा से गुरेज को जोड़ने वाले रोड के एक हिस्से पर बर्फ की मोटी चादर बिछ जाती है। इसीलिए 6 महीने तक गुरेज घाटी का कश्मीर से संपर्क नहीं रहता।




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दृढ़ निर्णय ही विजय दिलाएगा कोरोना पर

कोरोना के इस वायरस ने जो दिखता नहीं है, लेकिन संसार को ऐसे-ऐसे दृश्य दिखा दिए जो लोगों ने इससे पहले कभी नहीं देखे थे। किसी अनदेखे से दुनिया पीड़ित हो जाए, ऐसा एक दृश्य पहले भी घटा है। देवता शिवजी को प्रेरित करना चाहते थे कि वो विवाह कर लें। तो कामदेव से कहा ऐसा प्रभाव बताओ कि शिव विवाह के लिए तैयार हो जाएं।

कहते हैं काम दिखता नहीं, पर प्रभाव पूरा छोड़ता है। उसने सारी दुनिया काममय कर दी। कोई उसे देख नहीं पा रहा था, पर सब उसकी पकड़ में थे। लिखा गया है- ‘धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे। जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ।।’

किसी ने भी हृदय में धैर्य धारण नहीं किया। कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही बचे रहे। यहां एक बात बहुत अच्छी आई है कि जिनकी रक्षा राम ने की, वे ही बच सके। बचाव के सारे प्रयास हमें ही करना हैं, पर भरोसा उस ऊपर वाले पर रखना है और वह भरोसा दृढ़ होना चाहिए।

राम-रावण युद्ध में जब मेघनाद मरता नहीं तो तुलसीदासजी ने लिखा- ‘लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा।।’ लक्ष्मणजी ने मन में दृढ़ विचार किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका हूं, अब मारना ही होगा। कोरोना से हमारा संघर्ष आसान हो जाएगा, यदि दृढ़ता से निर्णय लें स्वच्छता का, सतर्कता का, सोशल डिस्टेंसिंग का। तो दृढ़ता के साथ परमात्मा पर भरोसा रखिए, इस संघर्ष से पार पाने का यही हथियार है..।

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Only a firm decision will win over Corona




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क्या मोदी सरकार कोविड-19 के दौर में मिली ताकत छोड़ सकेगी?

जब आपके सामने बहुत अधिक ढोंग और नैतिकता का दिखावा होने लगे तो आपको एक असली पंजाबी की तरह जो सच है, उसे जस का तस कहना पड़ता है। पिछले हफ्ते पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ऐसा ही किया। इससे उन्होंने कोरोना वायरस के कारण हमारी राष्ट्रीय राजनीति और शासन में 35 साल बाद एक शक्तिशाली केंद्र की वापसी को भी रेखांकित किया। एक पंजाबी चैनल से बातचीत में उन्होंने शराब की देशव्यापी बिक्री पर केंद्र द्वारा लगाए प्रतिबंध पर सवाल उठाया। उन्होंने पूछा कि शराब का कोराना वायरस से क्या लेना-देना। पटियाला के पूर्व महाराजा अमरिंदर सिंह इस मामले को एक अच्छी वजह से उठा रहे हैं, क्याेंकि राज्य का खजाना खाली हो रहा है। शराब और पेट्रोलियम ही दो ऐसे उत्पाद हैं, जिन पर राज्य सरकारें खुद सीधे कर लगा सकती हैं। खासकर जीएसटी के बाद सभी कर केंद्र के पास चले गए और वह इसमें से राज्यों को उनका हिस्सा देता है। इसलिए शराब और पेट्रोलियम ही राज्यों की आय का प्रमुख साधन रह गए हैं। कोविड महामारी की वजह से अभूतपूर्व उपाय करने की जरूरत है। इसलिए केंद्र सरकार ने 1887 के महामारी कानून और 2005 के आपदा प्रबंधन कानून को लागू करके असाधारण शक्तियां हासिल कर ली हैं। इसी के तहत उसने देशव्यापी लॉकडाउन करके यह तय किया कि क्या खुलेगा और क्या बंद रहेगा।
असल में अमरिंदर जिस बात की शिकायत कर रहे हैं, वही सभी राज्यों की परेशानी है। लेकिन, शराब की बात कोई नहीं करना चाहता। अमरिंदर इस आडंबर को नहीं मानते। सबसे जरूरी बात यह है कि उन्हें आज केंद्र से अपने उस अधिकार के लिए मांग करनी पड़ रही है, जो हमेशा से राज्यों का अपना रहा है। इसलिए हम कह रहे हैं कि काेरोना वायरस ने उस ताकतवर केंद्र की वापसी कर दी है, जिसके बारे में हमें लगता था कि हम उसे 1989 में ही पीछे छोड़ आए हैं। आज केंद्र की टीमें यह निगरानी और ऑडिट करने के लिए राज्यों में जा रही हैं कि वे कोविड संकट से कैसे निपट रहे हैं। वे सवाल पूछ रही हैं, सूचनाएं मांग रही हैं और राज्यों की आलोचना भी कर रही हैं। राज्य सरकारें बात मान रही हैं। शुरू महाराष्ट्र से करते हैं। शायद वह राज्यों में सबसे अधिक मित्रवत रहा है। राजस्थान का प्रदर्शन भी बेहतर रहा है। ममता बनर्जी का पश्चिम बंगाल भी साथ आ रहा है। केंद्र सरकार उसके चिकित्सकीय रिकॉर्ड मांग रही है, सभी मौतों की जांच कर रही है, ताकि पता लग सके कि आंकड़ों से छेड़छाड़ तो नहीं हो रही। बंगाल सरकार को न केवल कई सवालों के जवाब देना पड़ रहे हैं, बल्कि आंकड़ों में संशोधन भी करना पड़ रहा है। गत गुरुवार और शुक्रवार के बीच राज्य ने मृतकों के आंकड़े को बढ़ाकर 15 से 57 किया।
यह संख्या कोई बड़ी नहीं है, लेकिन हमें याद नहीं है कि जाने कब पश्चिम बंगाल के साथ पहले ऐसा हुआ था, क्योंकि वह अपने अधिकारांे वाले गणतंत्र की तरह काम कर रहा था। पहले करीब 34 साल वामशासन में और लगभग एक दशक से ममताराज में। अगर आप सोचते हैं कि यह बदलाव महत्वपूर्ण नहीं है, तो जरा उस मुख्यमंत्री को याद करें, जो प्रधानमंत्री के साथ बैठक करने और वार्ता में आने से इनकार करती रही हैं। यही नहीं, एयरपोर्ट पर उनकी अगवानी के लिए भी नहीं आती हैं। वह अपने प्रिय आईपीएस को बचाने के लिए सीबीआई से लड़ती हैं और जीतती हैं। इस महामारी से यह बदलाव आया है। लेकिन, इसकी प्रमुख वजह वित्तीय है। पेट्रोल-डीजल की बिक्री गिरने आैर शराब की बिक्री बंद होने से राज्यों को वेतन देने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। यहां तक कि गरीबों के लिए मदद भी सीधे केंद्र से आ रही है।
कांग्रेस के तीन दशक के शासन, विशेषकर इंदिरा गांधी के समय हम सिर्फ नाम के ही गणराज्य रहे। अधिकतर राज्यों में कांग्रेस का शासन था और मुख्यमंत्रियों को डीएम व एसपी के तबादले के लिए भी केंद्र से अनुमति लेनी पड़ती थी। सिर्फ अंगुली के इशारे पर मुख्यमंत्रियांे को बदल दिया जाता था। 1989 में कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर प्रभुत्व खोने के बाद भारत की राजनीति बदल गई। कांग्रेस हमेशा यह डर दिखाती थी कि क्षेत्रवाद देश को तोड़ देगा, लेकिन यह गलत साबित हुआ। बल्कि भारत का संघवाद और मजबूत ही हुआ। आज भारत पहले से कहीं मजबूत है। लेकिन, मोदी के काम के तरीके से यह बदल रहा है। महामारी इसे उचित ठहराने की वजह बनी है। ऐसा अमेरिका में भी हो रहा है। यह अस्वाभाविक समय है, जो गुजर जाएगा। लेकिन, क्या ये बदलाव पलटे जा सकेंगे? अमेरिका में संस्थागत ढांचे अधिक मजबूत हैं। लेकिन, हमारे यहां केंद्र ने मोदी के नेतृत्व में उस ताकत का स्वाद ले लिया है, क्या वह वापस पुरानी व्यवस्था पर लौटेगा? हमारा राजनीतिक इतिहास बहुत आशा नहीं जगाता।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Will the Modi government give up the power it got in the Kovid-19 era?




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लोगों को रीइन्वेंट करना सिखा रहा है कोविड-19 का यह दौर

हाल ही में प्रथम महिला श्रीमती सविता कोविंद का एक फोटो वायरल हुआ है, जिसमें वे हाथ से चलने वाली मशीन पर आश्रय घर के लिए मास्क सिल रही हैं। यह एक प्रेरक और हौसला बढ़ाने वाली दृष्टि है, उनका यह योगदान इस बात का भी संकेत है कि कोविड-19 किस तरह से हमारी भूमिकाएं बदल रहा है। कोरोना वायरस का हमला हमारे जीवन की एक अप्रत्याशित घटना है और इसका एक ही प्रबंधन है- आइसोलेशन और एक-दूसरे से दूरी बनाना। यह दुनियाभर के लोगों को पुनर्विचार और खुद को रीइन्वेंट करना सिखा रहा है।

ऑटो जायंट महिंद्रा ने अपनी फैक्टरियों को वेंटिलेटर बनाने की दिशा में मोड़ दिया, फ्रांस की परफ्यूम और कॉस्मेटिक बनाने वाली एलवीएमएच ने अपनी कई यूनिटों को अस्पतालों के लिए हैंड सैनिटाइजर्स बनाने के लिए समर्पित कर दिया है। फैशन डिजाइनर मास्क बनाने के व्यापार में आ गए हैं। हमारे देशव्यापी पोस्टमैन अब स्थानीय बैंकर बन गए हैं, क्योंकि वे दूरस्थ क्षेत्रों में ग्राहकों के किसी बैंक में स्थित अकाउंट से उन्हें नगदी लाकर उपलब्ध कराते हैं।

24 मार्च से 23 अप्रैल के बीच ऐसे 21 लाख ट्रांजेक्शन के जरिये पोस्ट ऑफिसाें ने ग्रामीण व बिना बैंकों वाले इलाकों में 412 करोड़ रुपए लोगों तक पहुंचाए। अप्रैल तक ही रेलवे अपने 5000 कोचों को आइसोलेटेड वार्डों मंे बदल चुका है, ताकि जरूरत पड़ने पर देश के पिछड़े इलाकों में चिकित्सीय सुविधा उपलब्ध कराई जा सके। इससे स्पष्ट है कि बदलाव आज की जरूरत है।
जैसे उद्योग और व्यापार और अन्य सेक्टर इस संकट के समय अपने उत्पादों और सेवाओं में बदलाव करके चुनौतियों से निपट रहे हैं, वैसे ही लोग और ग्रुप भी मदद की अपनी छिपी हुई क्षमताओं का अहसास कर रहे हैं। मीडिया में जनसेवकों द्वारा अपने क्षेत्रों में जरूरतमंदों को भाेजन व राशन वितरित करने की अनगिनत कहानियां हैं।

नगर निगम के मालियों द्वारा मदद के लिए स्वच्छता टीम में शामिल होने की भी खबरें हैं। अपनी नियमित ड्यूटी के अलावा पुलिस व हेल्थ वर्कर लोगों की मदद के लिए आजकल अपनी भूमिकाओं से भी आगे बढ़कर काम कर रहे हैं। डॉक्टर भी जिंदगी बचाने के अलावा मृतकों का अंतिम संस्कार भी कर रहे हैं। आईएफएस, आईएएस, आईपीएस और आईआरएस जैसी सिविल सेवाओं के संगठनों ने वायरस से लड़ने के लिए ‘करुणा (सीएआरयूएनए)’ नाम से पहल की है।

सीएआरयूएनए का मतलब ‘सिविल सर्विस एसोसिएशन रीच टु सपोर्ट नेशनल डिजास्टर’ है। इस पहल के जरिये सिविल अधिकारी माइग्रेशन की जानकारी और डाटाबेस तैयार करने, जरूरी सामान की आपूर्ति और औपचारिक प्रयासों को गति देने के लिए मास्क, वेंटिलेटर व पीपीई आदि की व्यवस्था के लिए अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं।
अनगिनत स्वयंसेवी संगठन, सिविल सोसायटी ग्रुप और अनौपचारिक समूह गरीबों, बुजुर्गों और संकट में फंसे अन्य लोगों तक पहुंच रहे हैं। लोगों को जरूरी चीजें, दवाएं, सूचनाएं और अन्य तरह की मदद उपलब्ध कराने के लिए भी लोग आगे आ रहे हैं। इस दाैर में स्टार्टअप्स ने अपने नवाचारांे को जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोड़ दिश है। कोविड-19 के प्रबंधन में आईआईटी अनुसंधान के क्षेत्र में सबसे आगे है।

जीवन के हर क्षेत्र में यह बात नजर आ रही है कि हमें अपने आराम के जोन से बाहर निकलकर औरों की मदद करनी चाहिए। यहां तक कि हमारे व्यक्तिगत जीवन में बदलाव आ रहा है। हम अपने पास समय और इंटरनेट होने की वजह से अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नया कर रहे हैं। कुछ कुकिंग कर रहे हैं, अन्य संगीत या कोई विदेशी भाषा सीख रहे हैं। कुछ लोग लिख रहें या पढ़ने में व्यस्त हैं। कला वीथियों, या शहरों के वर्चुअल टूर, आॅनलाइन संगीत समारोह, ओपेरा या फिर साधारण हैंगआउट भी उपलब्ध हैं। जिज्ञासा और अपनी रुचि की किसी भी चीज को जानने कीे आज जगह मिल रही है। ऑनलाइन दुनिया में वह हर चीज कोर्सों से भरी पड़ी है, जिसके बारे में सोचा जा सकता है। लाॅकडाउन के इस दौर में नियमित तौर पर सीखने की ललक अपने आप उभर रही है।
महामारी के फैलने से पहले लोगों ने अलग-अलग काम किए। भाग्यशाली लोगों के पास ही नियमित नौकरी, निर्धारित भूमिका और वह दायरा है, जिसमें वे रहते और काम करते थे। कई बार काम, नौकरी या भूमिका से अधिक हमने जो प्रदर्शन किया वह हमें परिभाषित करता है। कोई एक ऑटो जायंट या एक कॉस्मेटिक बनाने वाला या एक रेलवे कैरियर या पोस्टल विभाग या एक एंटरटेनर रहा होगा। व्यक्तिगत तौर पर कोई सिविल सेवक, पुलिस, मैनेजर, आर्टिस्ट, बैंकर या कॉर्पोरेट प्रमुख या ऐसा ही कुछ हो सकता है।

इस वायरस ने इन परिभाषाओं की बाध्यताओं को पिघला दिया है। इसने हमें यह अहसास कराया है कि हम अपनी नौकरी और भूमिकाओं से बहुत अधिक हैं। आज एक व्यक्ति और समूह के तौर पर हम आइडिया, प्रक्रियाएं और पहल को तलाशने की अपनी क्षमता का विस्तार कर रहे हैं। जब हम अपनी जिंदगी के इस दौर से गुजर जाएंगे तो यह ज्ञान और क्षमता निश्चित ही हमारे साथ रहेगी। नौकरी और भूमिकाओं की जो परिभाषाएं हमें सीमा में बांधती हैं, हम उनसे कहीं अधिक हैं। प्रथम महिला की यह फोटो इसका ही प्रमाण है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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This round of Kovid-19 is teaching people to reinvent




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शुभ, मंगल, सावधान और विविध व्यवसाय

प्रेम और विवाह की यथार्थ घटनाएं बड़जात्या परिवार की विवाह फिल्मों से अधिक रोचक होती हैं। उज्जैन के युवा का विवाह इंदौर में रहने वाली कन्या के साथ तय हुआ था। कोरोना महामारी के कारण अनगिनत विवाह स्थगित हो गए हैं। बहरहाल, साहसी युवा इंदौर आया। पंडित ने मोबाइल पर मंत्र पढ़े और शुभ मंगल सावधान संपन्न झाला। बाद में ज्ञात हुआ कि वह पंडित फिल्मों में पंडित की भूमिका करता था।

ज्ञातव्य है कि देव आनंद और कल्पना कार्तिक अभिनीत फिल्म की शूटिंग चल रही थी। देव आनंद ने शादी का प्रस्ताव रखा जिसे कल्पना कार्तिक ने स्वीकार किया। देव आनंद के स्वभाव में त्वरित कार्य करने की प्रवृत्ति रही है। वे एक विचार कागज पर लिखते और स्याही सूखने से पहले उस विचार से प्रेरित फिल्म की शूटिंग कर लेते। बॉक्स ऑफिस परिणाम से वे कभी विचलित नहीं हुए। वे प्रतिदिन सुबह की सैर करते हुए इतनी तेजी से चलते कि तन्हा रह जाते थे।
देव आनंद भविष्य में विचरण करते, उनके समकालीन राज कपूर को वर्तमान से लगाव रहा तो दिलीप कुमार विगत में विचरण करते थे। प्रतिस्पर्धा के बावजूद वे तीनों गहरे मित्र भी रहे हैं। देव आनंद ने ताउम्र महानगर के बेरोजगार युवा की भूमिकाएं अभिनीत की थीं। उन्होंने अपने जीवन में एक गांव भी नहीं देखा था। एक फिल्म में फूस की झोपड़ी पर गीत फिल्माया तो उसमें भी देव आनंद थर्मस (आधुनिकता का प्रतीक) लेकर फूस की अटारी पर चढ़ते हैं।
आदित्य चोपड़ा ने अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह को पहला अवसर देकर फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ बनाई थी। विवाह के आयोजन ने कुछ नए व्यवसाय विकसित किए हैं। ‘वेडिंग प्लानिंग’ भी उन्हीं में से एक है। मैरिज ब्रोकर विवाह योग्य व्यक्तियों के चित्र, कुंडली, परिवार की बैंक बैलेंसशीट इत्यादि साथ रखकर जोड़े बनाते हुए इस कहावत को गलत साबित करते हैं कि विवाह के जोड़े आसमान में बनते हैं।

मदन मोहन मालवीय के अथक प्रयास से विवाह सादगी से होने लगे थे, परंतुु सूरज बड़जात्या की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ की अपार सफलता के बाद विवाह समारोह खर्चीले और पांच दिवसीय उत्सव में बदल गए।
अमेरिकी नोए सिनेमा अर्थात मनुष्य अवचेतन के अंधकार के सिनेमा में फिल्म ‘बियॉन्ड अ रीजनेबल डाउट’ में एक स्मार्ट व्यक्ति अमीरजादियों को प्रेमजाल में फंसाकर विवाह करता है। कुछ समय बाद उनकी हत्या इस ढंग से करता है कि वो दुर्घटना लगे। विवाह दर विवाह वह धनवान बनता जाता है। ऐसे ही एक प्रकरण में वह आरोपी बना और उसकी महिला वकील ने उसे निर्दोष सिद्ध कर दिया। कालांतर में उनकी मित्रता विवाह की मंजिल तक पहुंची। वकील महिला का एक मित्र जासूस है और मन ही मन वकील मोहतरमा से इश्क भी करता था। उसने जोड़े पर निगाह रखी और अपने गुप्तचर साथियों की सहायता ली। जासूस ने वकील मोहतरमा
को बताया कि शीघ्र ही उसकी भी हत्या होने वाली है, परंतु वह विचलित न हो। इस तरह वह अपराधी रंगे हाथों पकड़ा जाता है। बाद में जासूस और महिला वकील की शादी होती है।
एक अन्य अमेरिकन फिल्म ‘वाट ए वे टू गो’ में नायिका उम्रदराज लोगों से शादी करती है और बार-बार विधवा होकर अधिक धनवान होती जाती है। शर्ले मैकलीन, रॉबर्ट मिचेल और पॉल न्यूमैन अभिनीत इस फिल्म को जे.ली.थॉमसन ने 1964 में प्रदर्शित किया था। इसी तरह की फिल्म ‘डॉली की डोली’ अरबाज खान ने बनाई थी, परंतु भारी घाटा हुआ। इसी विषय पर पंजाब में बनी फिल्म सफल रही थी। ख्वाजा अहमद अब्बास की बहु सितारा फिल्म ‘चार दिल चार राहें’ में एक पात्र तथाकथित छोटी जाति की कन्या से विवाह करना चाहता है। कोई साथ नहीं देता। दूल्हा स्वयं एक बाजा बजाता हुआ कन्या पक्ष के घर जाता है और चांवरी से विवाह करता है। शादी उत्सव प्रेरित फिल्मों में विविधता रही है। ‘तनु वेड्स मनु’ में दुल्हन के द्वार पर दो दूल्हे पहुंचते हैं।



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Good, Mars, careful and diverse business




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आपका व्यवहार तय करेगा बिजनेस का भविष्य

सोमवार की सुबह मैं काफी देर से उठा। लगभग 6.45 बजे यानी रोज से दो घंटे लेट। अजीब बात यह थी कि मेरे पालतू डॉगीज ने भी मुझे नहीं उठाया। रोजाना अलार्म बजने के बाद मेरी एक डॉगी की आदत है कि वह बिस्तर पर चढ़ जाती है और मुझे पंजों से नोचना शुरू कर देती है। मैं उसे दूर करता हूं तो वह मेरा चेहरा चाटना शुरू कर देती है, जिससे मुझे आखिरकार बिस्तर से बाहर आना ही पड़ता है। आज मेरा सुबह का रुटीन बिगड़ गया, जिसमें दूध के पैकेट लाने की जिम्मेदारी भी शामिल है।
मैं अपने साथ एक पड़ोसी के लिए भी दूध लाता हूं। बहुत से लोगों ने ऐसी अतिरिक्त जिम्मेदारी ली है, क्योंकि अभी हमारी बिल्डिंग में दूध वाले का आना प्रतिबंधित है और हम नहीं चाहते कि दूध के काउंटर्स पर एक ही कॉलोनी के बहुत से लोगों की भीड़ जमा हो। मैंने जल्दी से मास्क पहना, जो अब यूनिफॉर्म की तरह हो गया है, भले ही कॉलोनी से कुछ मीटर दूर ही क्यों न जाना हो। मैं मेन गेट पर पहुंचा तो देखा कि हमें रोजाना साइकिल पर ब्रेड बेचने वाला अपने पास दूध के पैकेट भी रखने लगा है। यह अवसरवादी आधा लीटर का पैकेट 5 रुपए और एक लीटर का पैकेट 10 रुपए महंगा बेच रहा था। जब मैंने उससे इसका कारण पूछा तो वह बोला कि वह उन लोगों की ‘मदद’ कर रहा है, जो जल्दी नहीं उठ सकते और घर से 200 मीटर दूर भी नहीं जा सकते।
हालांकि, वह हमारी गेट वाली कम्युनिटी में नियमित आता है, लेकिन मैंने पिछले 20 साल में उससे कभी कुछ नहीं खरीदा। इसके पीछे सीधा सा कारण यह था कि मुझे कभी उसके व्यापार में नैतिकता नहीं दिखी। और यह फैसला 20 साल पुराना है। मैंने उसे हमेशा लोगों को ठगते देखा और वह हमेशा बच निकलता। , क्योंकि मुंबईकरों के पास ऐसी धोखाधड़ी का सामना करने के लिए समय नहीं रहता है। चूंकि मैं ‘ऑब्जर्वेशनिस्ट’ (अवलोकनवादी) हूं, ऐसी गति‌विधियां मेरी नजरों से बच नहीं पातीं। लॉकडाउन के बाद से सभी के पास बहुत समय है, इसलिए लोगों को अब अहसास हो रहा है कि वह ब्रेड वाला उन्हें ठगता है। और आज, दूध के दाम इस तरह बढ़ाने के बाद, वे लोग भी उसके ग्राहकों की सूची से बाहर हो गए, जो उससे ब्रेड खरीदते थे। क्योंकि ये जरूरी सामान कॉलोनी से 200 मीटर दूर ही कम कीमत पर मिल रहा है। स्वार्थी सोच वाले इस ब्रेड वाले की वजह से मुझे 83 वर्षीय ‘इडली पाटी’ (इडली दादी) एम कमलथाल याद आईं। तमिलनाडु के कोयंबटूर में अलदुरै के पास वादीवेलमपलयम में अपने घर में ही बनी दुकान से सभी ग्राहकों को एक रुपए में इडली बेचने का उनका वीडियो लॉकडाउन के पहले वायरल हुआ था। दूध के पैकेट के साथ घर लौटकर मैंने कोयंबटूर के अपने रिश्तेदार को फोन किया, जो कमलथाल को जानते हैं।
उन्होंने मुझे तीन घंटे बाद वापस फोन किया और बताया कि कोरोना की वजह से किराने के दाम बढ़ गए हैं, लेकिन कमलथाल ने कीमत नहीं बढ़ाई है। वे बताती हैं कि उड़द दाल और सिकी दाल की कीमत 100 से बढ़कर 150 रुपए प्रति किलो हो गई है और एक किलो मिर्च 150 की जगह 200 रुपए में मिल रही है। हालांकि यह उनके लिए मुश्किल समय है, लेकिन उन्होंने दाम बढ़ाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ‘वे लोग क्या करेंगे जो अपने लिए मुश्किल से अच्छा खाना खरीद पाते हैं?’ कमलथाल ने अपनी इडली के दाम 30 साल से नहीं बढ़ाए हैं। आज उनकी उम्र 80 वर्ष से ज्यादा हो चुकी है, फिर भी वे रोजाना 300 लोगों को इडली खिला रही हैं। इसी
तरह दादी के शुभचिंतक भी किराना खरीदने में कभी-कभी उनकी मदद करते हैं। यहां तक कि डीएमके अध्यक्ष एम के स्टालिन ने भी इस शनिवार की शाम उनसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये बात की।
फंडा यह है कि मुश्किल समय में आपके व्यवहार में थोड़ा सा भी अच्छा या बुरा बदलाव आपके बिजनेस का भविष्य तय करेगा।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें।



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Your behavior will decide the future of business




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राजनीति से ऊपर पीएम 

कोरोनावाइरस के द्रुत परीक्षण (रैपिडटेस्ट) उपकरण राजस्थान सरकार ने अस्वीकार कर दिए। राजस्थान के बीजेपी नेताओं ने दलील दी कि ममता बनर्जी सरकार की तरह अशोक गहलोत सरकार भी मेडिकल किट पर राजनीति करने की कोशिश कर रही है। लेकिन पीएम की प्रतिक्रिया भिन्न थी। उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री से इन किट्स पर तथ्यात्मक रिपोर्ट पता करने को कहा। स्वास्थ्य मंत्री ने तुरंत आईसीएमआर से बात की। आईसीएमआर ने पहले 2 दिनों के लिए परीक्षणबंद कर दिया और फिर इन किट्स को लौटाने का निर्देश दे दिया।
छोटे उद्योगों पर नजर
ए. के. शर्मा गुजरात कैडर के 1988 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। 2001 से मोदीजी के साथ हैं। पहले सीएमओ में उनके सचिव रहे और बाद में पहले दिन से पीएमओ में उनके साथ रहे हैं। लेकिन अब उन्हें एमएसएमई में सचिव बनाया गया है। 18 वर्ष से प्रधानमंत्री के सबसे प्रिय अधिकारी को एमएसएमई में भेजे जाने का अर्थ है कि प्रधानमंत्री एमएसएमई को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहे हैं। एमएसएमई को एडीबी और वर्ल्ड बैंक के साथ-साथ बहुत सारी अन्य क्रेडिट स्कीमों से फंड मिलने वाला है, जहां बजट एक लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। ए. के. शर्मा के लिए भी यह एक नया अनुभव होगा, और माना जा रहा है कि इससे भविष्य में शर्मा की बड़ी भूमिका का भी रास्ता खुल जाएगा।
एस. अपर्णा की वापसी
गुजरात कैडर की 1988 बैचकी एक अन्य आईएएस अधिकारी हैं एस. अपर्णा। फिलहाल वह विश्व बैंक में कार्यकारी निदेशक हैं। अब वह पीएमओ या अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालय ज्वाइन कर सकती हैं। लेकिन वाशिंगटन डीसी से उनकी वापसी लॉकडाउन के कारण अटकी हुई है।
कला का पारखी चाहिए!
महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे को 28 मई के पहले-पहले माननीय बनना जरूरी है, वरना...। अब चुनाव तो हो नहीं सकते, लिहाजा सीएम चाहते हैं कि वह विधानपरिषद में मनोनीत हो जाएं। लेकिन परिषद का मनोनीत सदस्य कला थिएटर या फिल्म जैसे पेशेवर क्षेत्र से होना चाहिए। राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने फाइल रोक रखी है। गवर्नर सलाह ले रहे हैं। सरकार का कहना है कि आखिर उद्धव भी कलाकार हैं। वह मराठी नाटक में अभिनय करते थे और अपने पिता की तरह कार्टून भी बनाते हैं। लेकिन यह तभी होगा, जब गवर्नर उनकी कला को स्वीकार करें। वो कहावत है ना- कार्टून बना तब मानिये, जब हस्ताक्षर हो जाएं।
काले हाथों की धुलाई जारी
कोरोनावाइरस महामारी के भारी दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय भ्रष्टाचार पर सख्ती में ढील देने के लिए जरा भी तैयारी नहीं है। कोयला वाशरी के माफियाओं पर नकेल डाली जा रही है, और जल्द ही बड़े नतीजे देखने को मिलेंगे।
वरिष्ठ कैमरा रोग विशेषज्ञ!
कोरोनावाइरस का पहला निशाना वे चिकित्सक बने हैं, जो वास्तव में इन मामलों के विशेषज्ञ हैं। वॉइरोलॉजिस्ट, इम्यूनोलाजिस्ट, महामारी रोग विशेषज्ञ और इंटेंसिविस्ट तो गुमनाम हो गए हैं, लेकिन हृदय रोग विशेषज्ञ, हृदय रोग सर्जन और अन्य विशेषज्ञ कोरोना विशेषज्ञ बन बैठे हैं। खैर, टीवी पर ही तो बैठना है।
सुन भई सीएम
एक छोटा सा राज्य। छोटी-छोटी सीटें। और वहां सत्तारूढ़ पार्टी के लगभग 42 विधायकों ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में काम नहीं हो रहा है। मतलब साफ है।
दामाद जी का संकट
अवधेश नारायण सिंह बिहार बीजेपी के बड़े नेता हैं। वह विधान परिषद के सभापति और पूर्व मंत्री रह चुके हैं। मई में सभापति का पद ख़ाली हो रहा है। लेकिन अवधेश नारायण सिंह दावेदार नहीं हैं। बाकी बातों के अलावा मामला यह है कि उनके दामाद विधान परिषद के स्नातक क्षेत्र से चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। वह सीट फिलहाल जदयू के पास है। अब पार्टी बदली जा सकती है, दामाद तो नहीं बदला जा सकता है।
बाहर घूम रहा है ‘यमराज’
लॉकडाउन का उल्लंघन करेंगे, तो पुलिस क्या कर लेगी? ज्यादा से ज्यादा डंडा शस्त्र और डंडास्त्र? लेकिन दक्षिण भारत का अंदाज देखें। तमिलनाडु में पुलिस वाले एक एम्बुलेंस लेकर खड़े रहते हैं, और आवारा घूमते लोगों को उसमें बैठाने की कोशिश करते हैं। उस एम्बुलेंस में एक पुलिसकर्मी पहले से लेटा होता है, जिसके बारे में कह दिया जाता है कि वह कोरोना पीड़ित है। फिर उस एम्बुलेंस में बैठने के नाम पर बड़े-बड़े सूरमाओं की हालत खराब हो जाती है। कर्नाटक में पुलिस टीम बाकायदा ‘यमराज’ को साथ लेकर चलती है। भयंकर दाढ़ी मूंछें, ड्रेस वगैरह सब कुछ। साथ में एक यमदूत भी। जो प्रतिबंधों का पालन नहीं करता, यमराज उसे बाकायदा गिरफ्तार कर लेते हैं। संदेश यह कि प्रतिबंधों का उल्लंघन किया, तो यमराज आपके पास आया। तेलंगाना पुलिस यह पहले ही कर चुकी है।
दिग्विजय का गुगली लेखन
दिग्विजय सिंह ने सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिखा। अरे भई, कुछ तो खुराफात होगी ही, तभी तो लिखा है। हां, तो लिखा कि आपने रामायण और महाभारत दिखा दी, अच्छा किया, इससे नई पीढ़ी को भारतीय संस्कृति का प्रबोधन मिलेगा, लेकिन अब नेहरू की लिखी भारत एक खोज भी दिखा दीजिए। किरपा रहेगी।
खिल गया ‘कमल’
कोरोना के मध्य, मध्य प्रदेश में बने एक मंत्री को पार्टी के एक बड़े नेता की पत्नी के साथ लंबे समय काम करने का लाभ मिल ही गया। वरना मुख्यमंत्री और उनके बीच 36 का आंकड़ा किसी से छुपा नहीं था। पिछले कार्यकाल में तो बॉस के ख़िलाफ़ उन्होंने ख़ूब चिट्ठीबाजी भी की थी। फिर उनके दिल्लीवाले आका भी सक्रिय हुए। उन्होंने ज़ोर का झटका धीरे से दिया और कमल खिल गया।



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PM above politics




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दुनियाभर में अवसाद और घबराहट के मरीज बढ़ रहे, 12% भारतीयों को भी कोरोना के डर से नींद नहीं आती: रिपोर्ट

संतोष कौर (65) पंजाब के फगवाड़ा की रहने वाली थीं। 4 अप्रैल को उन्होंने सुसाइड कर लिया। पुलिस का कहना हैकि उनके दिमाग मेंकोरोना संक्रमित होने का डर बैठ गया था। संतोषकी बेटी बलजीत कौर ने भी बतायाकि न्यूज चैनल देख-देख कर उन्होंने दिमाग में बैठा लिया था कि मुझे भी कोरोना हो गया है।

यह महज एक मामला है। पिछले 2-3 महीनों में ऐसे कई मामले भारत और बाकी कोरोना प्रभावित देशों से आते रहे हैं। सुसाइड के मामले इतने ज्यादा तो नहीं हैं, लेकिन तनाव, घबराहट के मामले इतने आ रहे हैं कि इन्हें गिना नहीं जा सकता। कहीं कोराना संक्रमित होने के डर से लोगों में घबराहट और अवसाद बढ़ रहा हैतो कहीं लॉकडाउन के कारण लोगों की मानसिक हालत बिगड़ रही है। जिन लोगों को होम क्वारैंटाइन या क्वारैंटाइन सेंटरों में रखा गया है, वहां तो हालात और ज्यादा खराब है।

कोरोना के इस दौर में लोगों को नींद नहीं आ रही है, वे डरे हुए हैं, उदास हैं और कहीं-कहीं गुस्से में भी हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट, अलग-अलग यूनिवर्सिटी की स्टडी और मेडिकल जर्नल में यह सामने आया है कि कोरोना और लॉकडाउन के चलते लोग अवसाद में जा रहे हैं। इससे निपटने के लिए अलग-अलग तरह की सलाहें भी दी जा रही हैं। डब्ल्यूएचओ ने तो लोगों को यह तक सलाह दे दी थी कि चिंता और घबराहट बढ़ाने वाली खबरों को देखना और पढ़ना बंद कर दें।

भारत में कोरोना के 30 हजारमामले हैं। अन्य देशों के मुकाबले यहां मौतों का आंकड़ा (900) कम है। लेकिन लोगों में घबराहट बनी हुई है। एशियन जर्नल ऑफ सायकाइट्री में छपी एकस्टडी में भारतीय लोगों में डिप्रेशन की रिपोर्ट सामने आई थी। अप्रैल के पहले हफ्ते में 18 से ज्यादा उम्र के 662 लोगों पर हुई स्टडी में 12% लोगों का कहना था कि कोरोना के डर के कारण उन्हें नींद नहीं आती। 40% का कहना था कि महामारी के बारे में सोचते हैं तो दिमाग अस्थिर हो जाता है। 72% ने यह माना था कि उन्हें इस महामारी के दौर में खुद की और परिवार की बहुत ज्यादा चिंता होती है। 41% का कहना ये भी था कि जब ग्रुप में कोई बीमार होता है तो हमारी घबराहट बढ़ जाती है।

भारत में 25 मार्च से लॉकडाउन है। फिलहाल 3 मई तक यह जारी रहेगा। इसके आगे भी बढ़ने के आसार हैं। तस्वीर नई दिल्ली के जंगपुरा इलाके की है।

लॉकडाउन के पांचवे दिन (29 मार्च) स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि कोरोनावायरस के डर और लॉकडाउन के चलते लोगों के मानसिक और व्यवहारिक तौर-तरीकों में बदलाव की खबरें मिल रही हैं। इसे देखते हुए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (निमहान्स) ने हेल्पलाइन नम्बर (08046110007) जारी किया है। अगर किसी को तनाव या घबराहट हो रही है तो इस टोलफ्री नम्बर पर कॉल कर आप डॉक्टरों से सुझाव ले सकते हैं।


वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 7.5% भारतीयों को किसी न किसी तरह का मानसिक रोग है और इनमें से 70% को ही इलाज मिल पाता है। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 2020 में भारत की 20% जनसंख्या का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा। महज 4000 विशेषज्ञों के लिए यह संख्या बहुत ज्यादा होगी।

केरल में लॉकडाउन के 100 घंटे के अंदर 7 सुसाइड हुए थे। शराब न मिलने के कारण लोग सुसाइड कर रहे थे। इसके बाद राज्य सरकार ने शराब के आदी लोगों के लिए डॉक्टर से पर्ची लाकर शराब खरीदने की मंजूरी दी थी।

अमेरिका में कोरोनावायरस से 55हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। यहां एक सर्वे के मुताबिक, 45% लोगों को महसूस हो रहा है कि कोरोना के कारण उनकी मानसिक स्थिति को नुकसान हुआ है। केजर फैमिली फाउंडेशन का यह सर्वे 25 से 30 मार्च के बीच हुआ था। इसी तरह वॉशिंगटन पोस्ट और एबीसी न्यूज पोल के के सर्वे में 77% अमेरिकी महिलाओं और 61% पुरुषों ने संक्रमण के डर से तनाव और घबराहट की बात कही थी। अमेरिका ने भी ऐसे मामलों की संख्या बढ़ने पर हेल्पलाइन नम्बर के साथ-साथ बच्चों, वयस्कों और बुजुर्गों के लिए अलग-अलग एक्टिविटीज कराने की एडवाइजरी जारी की थी।

ब्रिटेन कोरोना से हुई मौतों के मामले में 5वेंनम्बर पर है। यहां भी लोगों में डिप्रेशन है लेकिन यह थोड़ा चौंकाने वाला है। यूनिवर्सिटी ऑफ शेफिल्ड और अल्सटर यूनिवर्सिटी की स्टडी के मुताबिक, लॉकडाउन के बाद यहां अचानक डिप्रेशन बढ़ा है। लॉकडाउन के दूसरे दिन 38% लोगों में डिप्रेशन और 36% लोगों में घबराहट की बात सामने आई थी। लॉकडाउन के ऐलान के एक दिन पहले तक ऐसे लोगों का प्रतिशत 16 और 17 था।

अमेरिका के लुईसविले शहर के एंट्री पॉइंट पर पॉजिटिव मैसेज देता पोस्टर लगा हुआ है। घबराहट को दूर करने के लिए इस तरह के पोस्टर कई अमेरिकी शहरों में दिखाई दे रहे हैं।

ब्रिटेन में 23 मार्च से लॉकडाउन है। 2 हजार लोगों पर यह स्टडी हुई थी। इस स्टडी में यह भी पाया गया था कि 35 से कम उम्र के लोगों में अवसाद और घबराहट सबसे ज्यादा था। ये वे लोग थे जिनकी इनकम बहुत कम थी या लॉकडाउन के बाद उनके पास पैसा आना पूरी तरह से बंद हो गया था। ब्रिटेन सरकार ने भी महामारी और लॉकडाउन के कारण मानसिक हालत को हो रहे नुकसान से बचाने के लिए मार्च के आखिरी हफ्ते में ऑनलाइन सपोर्ट और प्रैक्टिकल गाइड लाइन जारी की थी।

चीन के वुहान से कोरोना दुनियाभर में फैल चुका है। ज्यादातर देशों की सरकारों ने इसके लिए लॉकडाउन को ही सबसे बड़ा उपाय माना है। कहीं सख्त लॉकडाउन है तो कहीं बहुत सारी छूट के साथ यह लागू है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया की एक तिहाई जनसंख्या इन दिनों घरों में कैद है। इन्हें अपनी नौकरी जाने का डर है, खुद और परिवार के लोगों को कोरोना होने का डर है, किसी ने अपनो को खोया है, कोई क्वारैंटाइन में रहकर मानसिक रोगों का शिकार हो रहा है। अलग-अलग देशों की सरकारें लोगों में देखे जा रहे इस मानसिक अवसाद को दूर करने के लिए अपने-अपने स्तर पर कोशिशें कर रही हैं। इस क्रम में सबसे अच्छी कोशिश चीन में ही देखी गई थी। यहां सरकार ने सेल्फ क्वारैंटाइन के पहले फेज में ही वुहान शहर में सॉयकोलॉजिस्ट और सायकायट्रिस्ट की टीम को पहुंचा दिया था।

यूरोपीय देश और अमेरिकी हॉस्पिटल्स में मरीजों और उनके परिवारों को अवसाद से निकालने के लिए गाना-बजाना होता रहता है।

पहले की महामारियों के दौरान भी कई स्टडियों में अवसाद और घबराहट को देखा गया था। दुनिया के सबसे पुराने मेडिकल जर्नल “द लॉसेंट” 26 फरवरी को क्वारैंटाइन के सॉयकोलॉजिकल प्रभाव पर एक पेपर पब्लिश हुआ था। इसमें पुरानी महमारियों के रिसर्च पेपरोंं का रिव्यू कर बताया गया था कि अपने किसी खास साथी को खो देना, अपने अधिकारों का सीमित हो जाना, रोग की स्थिति और अनिश्चितिता और जिंदगी में आई उदासी के कारण लोगों में अवसाद, घबराहट और गुस्से के लक्षण आने लगते हैं। कई बार यह सुसाइड का कारण बन जाता है। पिछली महामारियों के दौरान लोगों ने इस तरह के क्वारैंटाइन पर केस भी फाइल किए थे।”



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अमेरिका के फाल्स चर्च शहर का इनोवा फेयर फैक्स हॉस्पिटल। नर्स कोरोनावायरस के कारण आइसोलेशन में रह रहीं एक मरीज के साथ कांच के ग्लास पर मार्कर के जरिए टिक-टेक-टौ खेल रही हैं। क्वारैंटाइन पीरियड में लोगों का अवसाद दूर करने के लिए इस तरह के उपाय कई देशों में अपनाए जा रहे हैं।




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उत्तराखंड की बड़ी आबादी के घरों के चूल्हे में चारधाम यात्रा ईंधन का काम करती है; यह सिर्फ धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि रोजी-रोटी का भी जरिया

अरविंद गोस्वामी गौरीकुंड के रहने वाले हैं। ये वही जगह है जहां से केदारनाथ की पैदल यात्रा शुरू होती है। साल 2013 तक गौरीकुंड के मुख्य बाजार में अरविंद का एक होटल हुआ करता था। ‘गौरी शंकर’ नाम का यह होटल ही उनकी आय का मुख्य स्रोत था जो उस साल आई भीषण आपदा की भेंट चढ़ गया।

अरविंद बताते हैं, ‘वह आपदा हमारा सब कुछ बहा ले गई। मेरा 22 कमरों का होटल जहां था, अब वहां सिर्फ मलबा बचा। मुआवजे के तौर पर सरकार ने सिर्फ 3 लाख रुपए दिए, जिसमें होटल तो क्या दो कमरे भी नहीं बन सकते थे। उस नुकसान से अभी हम उभर भी नहीं सके थे कि ये कोरोना की महामारी ने फिर से कमर तोड़ दी है।’

अरविंद गोस्वामी की यह आपबीती केदार घाटी के हजारों अन्य व्यापारियों की भी कहानी कहती है। 2013 की आपदा में यहां के अधिकांश व्यापारियों की दुकानें, होटल, ढाबे आदि मंदाकिनी नदी के रौद्र रूप ने लील लिए थे। इस क्षेत्र के तमाम व्यापारी केदारनाथ यात्रा पर ही निर्भर हैं। लेकिन आपदा के दो-तीन साल बाद तक भी यात्रा बहुत हद तक प्रभावित रही लिहाजा इन व्यापारियों को हुए नुकसान की भरपाई भी समय रहते संभव नहीं हुई।

अरविंद बताते हैं, ‘साल 2016 और उसके बाद यात्रा ने कुछ रफ्तार पकड़ी तो हम सबने हिम्मत जुटाकर दोबारा काम-धंधा जमाने के प्रयास शुरू किए। बैंक से कर्ज लिया और होटल-दुकानें दोबारा बनानी शुरू की। मैंने भी 11 लाख का लोन लेकर पिछले साल कुछ कमरे बनवाए ताकि यात्रा के दौरान उन्हें किराए पर चढ़ा सकूं। लेकिन इस साल कोरोना की महामारी आ गई और यात्रा फिर से चौपट हो गई है। अब अगर सरकार कोई मदद नहीं करती है तो हम इस कर्ज की किस्त भी कैसे चुका पाएंगे?’

अरविंद गोस्वामी उत्तराखंड की उस बड़ी आबादी का हिस्सा हैं जिनके घर के चूल्हे में चारधाम यात्रा सीधे-सीधे ईंधन का काम करती है। यात्रा अच्छी हुई और यात्रियों की संख्या ज्यादा रही तो इस आबादी की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है और यात्रा मंद हुई तो इनकी आर्थिक स्थिति डगमगाने लगती है। यही डगमगाहट इस साल भी कोरोना की महामारी ने इन लाखों लोगों के जीवन में पैदा कर दी है।

सिर्फ होटल और दुकान चलाने वाले व्यापारी ही नहीं बल्कि उत्तराखंड के लाखों अन्य लोग भी चारधाम यात्रा पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर रहते हैं। यात्रा शुरू होती है और मंदिर के कपाट खुलते हैं तो पंडे-पुरोहितों का बड़ा वर्ग बद्रीनाथ-केदारनाथ पहुंचता है जिनका परंपरागत काम यहां आने वाले यात्रियों की पूजा करवाना है। देवप्रयाग निवासी तुंगनाथ कोटियाल बताते हैं, ‘सिर्फ देवप्रयाग के ही करीब दो हजार परिवार बद्रीनाथ में पंडागिरी करते हैं और इनकी आय का एकमात्र स्रोत यही है। यात्रा के समय ही जो कमाई इन लोगों की होती है, उसी से साल भर का खर्च चलता है।’

हर साल अक्टूबर-नवंबर में केदारनाथ के पट 6 महीने के लिए बंद हो जाते हैं। अप्रैल-मई में अक्षय तृतीया के आसपास इन्हें खोला जाता है।

पंडों की तरह ही कई अन्य लोग भी हैं जिनके लिए सिर्फ छह महीने की यह यात्रा ही आय का मुख्य साधन होती है। इसमें चारधाम यात्रा पर चलने वाली टैक्सी भी शामिल हैं, घोड़ा-खच्चर चलाने वाले वे तमाम लोग भी जो प्रदेश के अलग-अलग इलाकों से अपने जानवर लेकर यहाँ पहुंचते हैं, वे सफाईकर्मी भी जो मैदानी इलाकों से छह महीने के लिए आते हैं और यात्रियों को अपने कंधे पर लादने वाले वे लोग भी जो अधिकांश नेपाल से यहां पहुंचते हैं।

इनके अलावा बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष रूप से यात्रा पर निर्भर रहते हैं। जोशीमठ निवासी सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती बताते हैं, ‘यात्री कम होते हैं तो सिर्फ व्यापारियों का ही नहीं बल्कि किसानों का भी नुकसान होता है। हमने भी 2013 की आपदा के बाद ही इस पहलू पर ध्यान दिया। उस वक्त देखा गया कि यात्रा कमजोर रही तो गांवों में होने वाले राजमा, सेब, खुमानी जैसी तमाम चीजों के दाम बहुत कम मिले।’

ऐसा ही प्रभाव पहाड़ के उन तमाम गांव के लोगों पर भी पड़ता है जो मंदिरों में प्रसाद स्वरूप चढ़ने वाली चीजों का उत्पादन करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता मोहित डिमरी बताते हैं, ‘रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी ने पिछले दो साल से यह व्यवस्था की थी कि गांव में उगने वाली चौलाई के लड्डू बनाए जाएं और इन्हें केदारनाथ मंदिर में प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाए। इससे गांव की सैकड़ों महिलाओं को रोजगार मिला था। इस साल इन तमाम महिलाओं के लिए भी रोजगार का संकट बन पड़ा है।’

उत्तराखंड राज्य को चारधाम यात्रा से 1200 करोड़ से ज्यादा का सालाना कारोबार मिलता है। यह राज्य की आय के मुख्य स्रोतों में से एक है। ऐसे में स्वाभाविक है कि राज्य की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा इस पर निर्भर है। लिहाजा चारधाम यात्रा का प्रभावित होना यहां के लोगों के लिए सिर्फ धार्मिक आस्था का मुद्दा नहीं बल्कि रोजी-रोटी का अहम सवाल भी है। ऐसा सवाल जो आने वाले दिनों में लगातार विकराल होने जा रहा है।

जब केदारनाथ के पट बंद होते हैं तो भगवान को उखीमठ ले जाया जाता है। वहीं ओंकारेश्वर मंदिर में उनकी पूजा होती है। जब पट खुलते हैं तो इसके एक दिन पहले इन्हें पालकी में फिर से केदारनाथ लाया जाता है।

देशभर में चल रहे लॉकडाउन के बीच ही केदारनाथ मंदिर के कपाट 29 अप्रैल को खुलने जा रहे हैं। आमतौर पर कपाट खुलने वाले दिन जहां केदारनाथ मंदिर में 15 से 20 हजार लोग मौजूद होते हैं वहीं इस बार अनुमान लगाया जा रहा है कि यह संख्या शायद मात्र 15 से 20 लोगों तक ही सीमित कर दी जाए। सिर्फ रावल, पुजारी, धर्माधिकारी और कुछ हकहकूकधारी जैसे वे ही लोग इस दिन शामिल हों जिनकी उपस्थिति पारंपरिक तौर से इस आयोजन में अनिवार्य मानी जाती है।

आम जनता के लिए यात्रा खोली जाएगी या नहीं, इसका फैसला आने वाले दिनों में राज्य सरकार करेगी। लेकिन देशभर में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए इसकी संभावनाएं बेहद कम ही हैं कि यात्रा बड़े पैमाने पर हो सकेगी। चारधाम यात्रा के लिए मई और जून का महीना सबसे अहम होता है। बरसात शुरू होने से पहले इन्हीं दो महीनों में सबसे ज्यादा यात्री यहां पहुंचते हैं और इसके लिए काफी पहले से ऑनलाइन बुकिंग शुरू हो जाती हैं। यह बुकिंग इस बार भी काफी पहले हो गई थी लेकिन लॉकडाउन के बाद यह उतनी ही तेजी से कैंसिल भी हो चुकी हैं।

यात्रा के इस तरह रद्द होने का सकारात्मक पहलू भी है जिसकी ओर इशारा करते हुए अतुल सती कहते हैं, ‘पर्यावरण की दृष्टि से बद्रीनाथ-केदारनाथ बहुत संवेदनशील इलाके हैं। इन इलाकों को अगर किसी भी बहाने एक साल आराम करने का मौका मिलता है, यहां का बोझ काम होता है तो यह अच्छी बात है। वरना हम लोगों ने इन जगहों पर मानव हस्तक्षेप की सभी सीमाएं पार कर दी हैं और इसके खतरे हम 2013 में केदारनाथ में देख भी चुके है। जो वर्ग आर्थिक तौर से यात्रा पर निर्भर है उसके लिए अगर सरकार उचित व्यवस्था कर सके और उस वर्ग के सामने खड़ी आर्थिक चुनौती से अगर निपटा जा सके तो बद्रीनाथ-केदारनाथ के लिए पर्यावरण के नजरिए से यह लॉकडाउन सम्भवतः अच्छा है।’



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26 अप्रैल को फूलों से सजी पालकी में भगवान शिव की प्रतिमा उखीमठ से रवाना हो चुकी है। पालकी फाटा और गौरीकुंड होते हुए 28 अप्रैल को केदारनाथ पहुंचेंगी। इसके बाद 29 अप्रैल को मंदिर के पट खोल दिए जाएंगे।




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अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को बदलेगा कोरोना पर वाग्युद्ध

कोरोना के संकट ने भारत को ही नहीं, दुनिया के लगभग सभी देशों को घेर लिया है। जो राष्ट्र खुद को विश्व महाशक्ति बताने की शेखी बघारते थे, उस अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और रूस के होश फाख्ता हैं। उक्त देशों के कई विद्वान मित्र और अपने लोग भी जानना चाहते हैं कि ऐसे में भारत कहां खड़ा है? मेरी राय में उक्त देशों के मुकाबले भारत कई दृष्टियों से बेहतर है। सबसे पहले तो यह अच्छी बात है कि कोरोना को लेकर चल रहे अंतरराष्ट्रीय दंगल से भारत ने अपने को अलग रखा है।

भारत के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या किसी भी पार्टी के जिम्मेदार नेता ने चीन के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया, जैसा कि अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के नेता कर रहे हैं। जर्मनी और ब्रिटेन ने तो चीन से करोड़ों डाॅलर का हर्जाना मांगा है। इनका आरोप यह है कि चीन ने कोरोना की बीमारी जान-बूझकर फैलाई है। महाशक्तियों और चीन के बीच चला हुआ यह वाग्युद्ध अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को बदले बिना नहीं रहेगा।
दूसरा, इस संकट के दौरान भारत के राजनीतिक दलों के बीच वैसी तू-तू, मैं-मैं नहीं हो रही है, जैसी हम अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान और लातीनी-अमेरिकी देशों में देख रहे हैं। भारत में कांग्रेस के नेता अपनी बेढप ढपली कभी-कभी बजा देते हैं, लेकिन उस पर शायद ही कोई ध्यान देता है। एकाध को छोड़कर सभी विपक्षी मुख्यमंत्री कोरोना के युद्ध में प्रधानमंत्री का साथ दे रहे हैं। भारत की इस विलक्षण राष्ट्रीय एकता को दुनिया देख रही है।

तीसरा, भारत की जनता जिस निष्ठा के साथ तालाबंदी का पालन कर रही है, उसका महत्व विशेष इसलिए है कि भारत एक तो 140 करोड़ लोगों का देश है और अत्यंत विविधतामय है। यहां गरीबी है, अशिक्षा है, चिकित्सा साधनों की कमी है, लेकिन फिर भी लोग अनुशासित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस मामले में भारत की तारीफ की है।

चौथा, यह ठीक है कि भारत के डाॅक्टर्स और नर्सेस के साथ दुर्व्यवहार की कुछ घटनाएं घटी हैं, लेकिन वे बहुत कम हुई हैं। इनके पीछे गलतफहमियां और अफवाहें थीं। विदेशों में इन छिटपुट घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया गया है, लेकिन भारत सरकार ने इन पर काबू करने के लिए कठोर अध्यादेश जारी कर दिया है। सरकार, भाजपा और संघ ने इस संकट को सांप्रदायिक रूप देने का स्पष्ट विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि कुछ संगठनों के अपराध को पूरे समुदाय पर मढ़ देना अनुचित है।
पांचवां, इस संकट के दौरान कई शक्तिशाली राष्ट्र एक-दूसरे पर वाग्बाण छोड़े चले जा रहे हैं, लेकिन भारत अकेला देश है, जिससे दुनिया के 55 देशों ने कुनैन की गोलियां करोड़ों की संख्या में मंगवाई हैं। वे गोलियां कितनी कारगर होंगी, यह अलग बात है, लेकिन कई देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों ने भारत का बहुत आभार माना है। भारत पहली बार विश्व-त्राता के रूप में उभरा है।

छठा, सारी दुनिया में यह चर्चा का विषय है कि भारत में कोरोना का प्रकोप इतना कम क्यों है? भारत और अमेरिका की जनसंख्या के अनुपात से देखा जाए तो भारत में अब तक तीन-चार लाख लोगों को कोरोना का शिकार हो जाना चाहिए था। देश में मरीजों की कम संख्या भी बड़ी उपलब्धि है।

सातवां, भारत के हर घर में रोजमर्रा के खाने में जो मसाले इस्तेमाल होते हैं, वे सब आयुर्वेद की परखी हुई औषधियां हैं। उनकी प्रतिरोध क्षमता ने कोरोना को लंगड़ा कर दिया है। विदेशों में भी उनका इस्तेमाल होने लगा है। आयुष मंत्रालय हवन सामग्री के धुएं से वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा है। भारत के आयुर्वेद की चर्चा भी विश्वभर में हो रही है।
आठवां, भारत थोड़ी देर से जागा। यह सत्य है, लेकिन उसने जिस मुस्तैदी से लाखों जांच यंत्र, करोड़ों मुखपट्टियां और हजारों रोगी बिस्तर तैयार कर लिए हैं, यह एक मिसाल है। भारतीय वैज्ञानिक शीघ्र ही सस्ते सांस यंत्र यानी वेंटिलेटर और वैक्सीन भी बाजार में लाने वाले हैं।

नौवां, भारत सरकार ने हजारों प्रवासी भारतीयों और विदेशों में फंसे भारतीय यात्रियों को वापस लाने में जो तत्परता दिखाई है, उसकी सर्वत्र तारीफ हो रही है।

दसवां, भारत ने अपने पड़ोसी राष्ट्रों को कोरोना से सावधान करने की पहल की है। उसने दक्षेस राशि कायम की और उसमें करोड़ों रुपए दान किए। इन राष्ट्रों के नेताओं से हमारे प्रधानमंत्री का सतत संपर्क बना हुआ है।

ग्यारहवां, चीन और अमेरिका पर कोरोना फैलाने के आरोप लगाए जा रहे हैं, लेकिन भारत की छवि पर कोई छींटा नहीं है।

बारहवां, भारत सरकार ने चीन जैसे देशों के भारत में विनियोग पर प्रतिबंध लगा दिए हैं, ताकि इस संकट के दौरान वे भारतीय कंपनियों पर कब्जा न कर सकें।

तेरहवां, विश्व-व्यापार में चीन और अमेरिका को जो धक्का लगने वाला है, भारत अब उसका फायदा उठा सकता है। उसे अपना आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने के अवसर मिलने वाले हैं। कुल मिलाकर कोरोना संकट के बाद का भारत, विश्व राजनीति के मैदान में बेहतर छवि लेकर उतरेगा। वह विश्वशक्ति बनकर भी उभर सकता है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Conflict over Corona will change the nature of international politics




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नया सीखें, पॉजिटिव देखें, खुद पर व अपने रिश्तों पर काम करें

इतने लंबे लॉकडाउन में कोई भी व्यक्ति निराश या कुंठित हो सकता है। स्वाभाविक है कि लोग नकारात्मक महसूस करेंगे, क्योंकि एक महीने से ऊपर हो चुका है। हमें ऐसे जीवन की आदत है, जिसमें हम बाहर जाते हैं, नौकरी के लिए, घूमने-फिरने के लिए। सब डिस्टर्ब हो गया है, तो फ्रस्ट्रेशन स्वाभाविक है। ऐसे में सबसे पहले जरूरी है कि हम फ्रस्ट्रेशन को स्वीकार करें। हमें ऊर्जा असली समस्या का हल निकालने में लगानी चाहिए। सबसे पहले स्वीकृति बहुत जरूरी है कि फ्रस्ट्रेशन है और यह स्वाभाविक है।

अगर हमें अपने आप को बचाना है, अपने रिश्तेदारों को बचाना है, अपने परिवार, समाज, समुदाय, देश और विश्व को बचाना है तो लॉकडाउन जरूरी है। हमें अपना ध्यान बार-बार इस पर लाना जरूरी है कि नियमों का पालन करें। कहते हैं न कि पैर की मोच और छोटी सोच इंसान को आगे बढ़ने नहीं देती। पैर में मोच आ जाए तो इंसान शारीरिक रूप से आगे नहीं बढ़ सकता। इसी तरह मन में छोटी सोच आ जाए तो भी इंसान आगे नहीं बढ़ सकता। तो यह छोटी सोच से ऊपर उठने का वक्त है। यह भी कहा जाता है कि सिर सलामत तो पगड़ी हजार। तो अभी सिर सलामत रखने का समय है। हमें इस समय को तपस्या के दृष्टिकोण से स्वीकार करना चाहिए। वैसे किसी को भी तपस्या अच्छी नहीं लगती, लेकिन तपस्या का परिणाम हमेशा अच्छा होता है।
जब लॉकडाउन शुरू हुआ तो हमने जैसे-तैसे तीन हफ्ते निकाल लिए। उन तीन हफ्तों में हमारे पास थोड़ा आराम का समय था, क्योंकि कभी इतना समय मिलता ही नहीं था। लेकिन, जब लॉकडाउन बढ़ गया तो यह तपस्या की तरह हो गया। ऐसे में हमें जीवन में अनुशासन लाने की जरूरत है।

एक अमेरिकी लेखक और आंत्रप्रेन्योर थे- जिम रॉन। उन्होंने एक बहुत अच्छी बात कही- ‘तय करें कि आप दिन को चलाएंगे या दिन आपको चलाएगा।’ जब दिन आपको चलाएगा तो अनुशासन नहीं होगा। लेकिन जब आप दिन को चलाते हैं तो एक शेड्यूल बनाएं। उस शेड्यूल के हिसाब से खुद पर काम करें, अपने रिश्तों पर काम करें, कुछ नया सीखें, कुछ पॉजिटिव देखें, तभी जाकर मनोबल बना रहेगा।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सामाजिक दूरी, मानसिक दूरी को बढ़ा देगी? सामाजिक रिश्ता बनाने के लिए इकट्‌ठा होना जरूरी होता है और अब सोशल डिस्टेंसिंग ने इसे रोक दिया है। लेकिन, साथ आने के लिए भौतिक रूप से मौजूद होना हमेशा जरूरी नहीं है। बल्कि मानसिक रूप से इनवॉल्वमेंट यानी जुड़ाव जरूरी है।

आज स्थिति अलग है, इसलिए हमें अपना मानसिक इनवॉल्वमेंट बढ़ाना होगा। आज हमारे पास इंटरनेट है, जिसके माध्यम से अब सामाजिक इनवॉल्वमेंट ऑनलाइन शुरू कर देना चाहिए। कोई प्रोजेक्ट हो, समाजसेवा हो, सब ऑनलाइन कर सकते हैं। दोस्त, दूर के रिश्तेदार, साथी सब ऑनलाइन साथ आते रहें तो ये मानसिक दूरी नहीं बढ़ेगी। यदि इनवॉल्वमेंट नहीं रखेंगे तो दूरी बढ़ सकती है, जिसे दूर करने में समय लगेगा। मानसिक दूरी बढ़ती है तो रिश्तों पर असर की भी आशंका होती है।

हम संबंधों के लिए हमेशा कहते थे कि जिसे हम प्यार करते हैं, उसके लिए सबसे मूल्यवान तोहफा है हमारा वक्त। लेकिन, रिश्तों को गहरा बनाने में तीन चीजें बहुत जरूरी हैं- पहली, हम घर की जिम्मेदारियां बांटें। महिलाएं तो घरेलू काम की जिम्मेदारी लेती ही हैं। लेकिन मध्यमवर्गीय घरों के पुरुषों को यह समझना जरूरी है कि महिलाओं का घर में एक स्पेस होता है। अगर महिला जॉब करने वाली है तो वह दोगुनी जिम्मेदार होती है। तो आज सभी को अवसर मिला है कि सभी मिल-बांटकर अपनी जिम्मेदारियां निभाएं।

जब यह सब दिल से करेंगे तो अपने आप रिश्ते सुधर जाएंगे। दूसरी चीज है- रिश्तों में हर इंसान को उसका मेंटल स्पेस देना बहुत जरूरी है। इसका मतलब है कि हर चीज में हस्तक्षेप न करें। पति को फिल्म देखनी है और पत्नी को नहीं देखनी है, तो ठीक है न... उनको उनका स्पेस दीजिए। तीसरी चीज यह है कि सभी साथ में इतना सारा समय बिता रहे हैं, तो दूसरों के दोष दिखने लगते हैं, जिससे हम चिढ़चिढ़े होने लगते हैं। ऐसे में सामने वाले की पॉजिटिव चीजों पर भी ध्यान देना पड़ेगा। ऐसा जान-बूझकर करना होगा। जो अच्छी चीज है, उसे देखें, उसकी सराहना करें। रिश्तों में सराहना बहुत जरूरी है।
लॉकडाउन के इस दौर में वर्क फ्रॉम होम का ट्रेंड बढ़ा है। हो सकता है कुछ लोग सोचते हों कि घर पर ज्यादा बेहतर काम कर पा रहे हैैं। कुछ सोचते हैं कि ऑफिस में ही ज्यादा अच्छा काम कर पाते थे। जो नहीं कर पा रहे हैं, उनके लिए जरूरी है अनुशासन लाना। घर में रहते हैं तो सब अपने हिसाब से करने लगते हैं। अगर हम लेटकर काम करेंगे, किसी भी समय काम करने लगेंगे तो प्रेरित कैसे रहेंगे? इसलिए अनुशासन लाएं। काम का समय तय करें, घर में जगह तय करें। इसके अलावा अपने ऑफिस के साथियों के साथ मीटिंग आदि के अलावा भी एक घंटा अलग से ऑनलाइन बिताएं। इससे भी मोटीवेशन आएगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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गंगा आए, जाए कहां से कोई न जाने

कोरोना कालखंड में गंगा का पानी स्वच्छ हो गया है। सभी नदियां कुछ हद तक प्रदूषण से मुक्त हो गई हैं। स्पष्ट है कि महामारी के कारण लॉकडाउन लगाया गया। नदियों के घाट पर स्नान बंद हो गया। कोई लोटा लेकर भी गंगा किनारे बैठा नजर नहीं आया। स्पष्ट है कि मनुष्य ही गंगा में गंदगी प्रवाहित करते थे। स्वीमिंग पूल में प्रवेश के पहले स्नान करना जरूरी होता है। यह सावधानी हमने नदियों के साथ नहीं बरती।

कुछ शहरों में नगर पालिका का कचरा नदी में मिलाया जाता है। गंगोत्री से समुद्र में समाने तक गंगा 2525 किमी का सफर तय करती है। अनेक नदियां गंगा में मिलती हैं। इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है। सरस्वती शोर नहीं करती और न ही दिखाई देती है। सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त लोग भी खामोशी से अपना काम करते हैं। दक्षिण भारत से निकली सोन नदी भी इलाहाबाद से कुछ दूरी पर गंगा से मिलती है।
यह स्थान इलाहाबाद से कुछ किलोमीटर दूर है। इसे त्रिवेणी या संगम नहीं समझा जाना चाहिए। जो लोग भारत के नक्शे को दीवार पर टांगते हैं, उन्हें आश्चर्य होता है कि सोन नदी चढ़ाई कैसे कर सकती है। वे यह भूल जाते हैैं कि धरती दीवार पर नहीं, वरन दीवार धरती पर खड़ी है। विश्व में गंगा से अधिक लंबा सफर करने वाली कई नदियां हैं, परंतु गंगा के साथ किंवदंतियां, कथाएं और लोक गीत जुड़े हैं। भारत के सांस्कृतिक इतिहास की छाया गंगा के जल में देखी जा सकती है। अनगिनत लोग गंगाजल घर में रखते हैं।

पूजा-पाठ, हवन इत्यादि के साथ ही मृत्यु के समय दो बूंद गंगाजल मनुष्य को दिया जाता है। अजूबा यह है कि वर्षों तक गंगाजल स्वच्छ बना रहता है। वह सूखता भी नहीं। इसका कारण यह है कि गंगा अनेक वृक्षों की जड़ों के संपर्क में रहती है और इन्हीं जड़ी-बूटियों के कारण वह जल स्वच्छ बना रहता है। शहंशाह अकबर ने जगह-जगह घुड़सवार नियुक्त किए थे जो उन्हें ताजा, स्वच्छ गंगाजल उपलब्ध कराते थे।
गंगा नदी को पृष्ठभूमि बनाकर मनोहर मूलगांवकर ने उपन्यास लिखा ‘ए बेंड इन द गेंगेज’।

अंग्रेजी के नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि टी.एस. इलियट अपनी कविता में गंगा लिखते हैं, जबकि भारतीय लेखक ‘गेंगेज’ लिखते हैं। अधिकांश भारतीय लोग चाहते हैं कि उन्हें गंगा किनारे बनी चिता प्राप्त हो या कम से कम उनकी अस्थियां गंगा में विसर्जित की जाएं।

ज्ञातव्य है कि ‘मसान’ नामक फिल्म में गंगा किनारे दाह संस्कार कराने वाले डोम परिवार के युवा की दुविधा और प्रेम की कथा प्रस्तुत की गई है। एक फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा ने डोम की भूमिका अभिनीत की है। एक उम्रदराज व्यक्ति को दाह संस्कार के लिए लाया गया है। उसकी युवा विधवा को भी सती हो जाने के लिए बाध्य किया गया है। यह फिल्म डोम और युवा विधवा की प्रेम कहानी है।

केतन मेहता की फिल्म ‘मंगल पांडे’ में एक अंग्रेज अफसर जबरन की जा रही सती को बचाकर अपने घर लाते हैं। सती को उनसे प्रेम हो जाता है। रूढ़िवादी ताकतें उन पर आक्रमण करती रहती हैं। राज कपूर की दो फिल्मों के टाइटल गंगा प्रेरित हैं- ‘संगम’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’।

बिहार में फिल्म ‘गंगा मइया तोहरी पियरी चढ़ाइवे’ अत्यंत सफल रही। फिल्मकार सुल्तान ने ‘गंगा की सौगंध’ बनाई। गंगा किनारे वाला छोरा गीत लोकप्रिय है। दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ विधवा जीवन की व्यथा-कथा है।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इलाहाबाद में जन्मे। नेहरू की आखिरी वसीयत एक कविता की तरह है। उनकी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों का एक छोटा भाग गंगा में प्रवाहित हो और शेष भाग हेलिकॉप्टर द्वारा खेतों में छितरा दिया जाए।

वसीयत की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं- ‘गंगा से लिपटी हुई है भारत की जातीय स्मृतियां, उनकी आशाएं, उसके डर, उसकी जय, पराजय, वह नदी मात्र नहीं, एक संस्कृति का प्रवाह है। वह सदा बदलते और बहते हुए भी गंगा ही बनी रहती है। वह मुझे हिमालय और घाटियों की याद दिलाती है... मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कुराते, उछलते, कूदते, इठलाते देखा है और शाम के साए में उदास, काली सी चादर ओढ़े हुए, भेदभरी मंद मुस्कान लिए। जाड़ों में सिमटी सी, आहिस्ता-आहिस्ता बहती हुई और बरसात में दौड़ती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए, गंगा भारत की प्राचीनता की यादगार है, जो वर्तमान तक बहती हुई और बहती जा रही है महासागर के भविष्य की ओर...’



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Ganges come, no one knows from where




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रसोई एक कक्षा है, जहां सिलेबस ‘पकता’ है

क्या आपने जीपीईपी के बारे में सुना है? इसे पीपीपी यानी पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप मत समझिएगा। वह तो सरकारी स्तर पर होती है। मैं तो हमारे रुके हुए प्रोजेक्ट की बात कर रहा हूं। इस नए लघुरूप का मतलब है- गवर्नमेंट-प्राइवेट-एम्प्लॉयीज-पार्टनरशिप यानी सरकारी-निजी-कर्मचारी साझीदारी! क्या आपने कभी सरकारी और प्राइवेट कर्मचारी को एक ही प्रोजेक्ट पर साथ काम करते देखा है? बहुत से लोगों ने देखा होगा, लेकिन वह नहीं देखा होगा जो मैंने देखा!
चलिए मैं आपको इस प्रोजेक्ट के दर्शन कराता हूं। प्रोजेक्ट का नाम था ‘लॉकडाउन 1 और 2’! और इसमें मुख्य काम है घर के सेवकों की मदद के बिना घर को चलाना। इस कहानी का हीरो प्राइवेट कर्मचारी जैसा है, जो ग्रोथ के चक्कर में जोखिम लेकर नौकरियां बदलता रहता है। यानी वो ‘स्थायी रूप से अस्थायी’ नौकरी पसंद करता है। इससे उलट उसकी पत्नी को सरकारी जैसी स्थायी नौकरी पंसद थी, जो स्थिरता दे। शायद विपरीत लोग एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं, इसलिए दोनों की शादी हुई होगी।
अब आप मेरे हीरो-हीरोइन को जान ही गए हैं, तो चलिए मौजूदा लॉकडाउन पर आते हैं। बर्तन धोना एक प्रोजेक्ट है। हम लोग कटरीना कैफ तो हैं नहीं, जो बर्तन धोते हुए वीडियो बनाएं और वह वायरल हो जाए। लेकिन मेरे हीरो और हीरोइन के बर्तन धोने में एक मूलभूत अंतर है। हीरोइन को यह दिखाने का शौक है कि उसने कितने बर्तन धोए हैं। वह तब तक बर्तनों का ढेर लगाती जाएगी, जब तक कोई यह न कह दे, ‘हे भगवान, तुम्हें कितने सारे बर्तन धोने पड़ते हैं!’
लेकिन जब हीरो की बारी आती है तो उसे अपनी टेबल पर एक भी ‘पेपर’ पसंद नहीं। उसे काम जल्दी निपटाना पसंद है। यही उसकी कंपनी का कल्चर भी है। इसलिए अगर सिंक में एक चम्मच या कप भी पड़ा है, तो वह तुरंत धोकर, सुखाकर अपनी जगह पर रख देता है। उसका एक ही उद्देश्य है कि जब किचन उसकी जिम्मेदारी हो तो सिंक में एक भी बर्तन न रहे। इस प्रक्रिया में वह यह समझ ही नहीं पाता कि उसने दूसरों से ज्यादा बर्तन धो लिए हैं।
जब हीरो की झाड़ू-पोंछा करने की बारी आती है तो उसे पता ही नहीं चलता कि वह निचोड़ा जा रहा है। कैसे? मैं बताता हूं। जब वह झाड़ू लगाता है तो हीरोइन टोकती रहती है, ‘किताबों की अलमारी पर धूल है, ये जो तुम विदेश से सजावट के इतने सारे छोटे-छोटे सामान लाते रहते हो, वे अच्छे से नहीं जमे हैं। वो देखो टीवी पर तो अभी भी धूल है, और ये इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तो साफ ही नहीं किए।’ और फिर थक-हारकर हीरो सोचता है कि उसे झाड़ू-पोंछा में इतना समय क्यों लग रहा है, जबकि हीरोइन तो ये सब झट से निपटा देती है।
जब हीरो खाना बनाता है तो हीरोइन उसे काम का सही तरीका याद दिलाती रहती है। कोई भी नियम न मानने पर, उसकी मां, सास और चार दादी-नानी की नियमों की किताब खुल जाती है और ‘बेचारा’ हीरो समझ नहीं पाता कि वह किसकी बात माने। आखिरकार वह आत्मसमर्पण कर देता है और हीरोइन की नई सातवीं नियम पुस्तिका स्वीकार कर लेता है।
रात को हीरोइन किसी के सामने अपनी तारीफों के पुल बांधना शुरू करती है (यहां कोई दोस्त या रिश्तेदार, ऑफिस में बॉस)। फोन पर रात 8 बजे शुरू हुई बात 10 बजे तक चल सकती है। ये हीरोइन द्वारा अपने प्रदर्शन की पर्फेक्ट मार्केटिंग होती है, जैसी हीरो कभी कर ही नहीं सकता। हीरोइन अपनी बात बोलकर रख देती है और हीरो एक्सल में उलझा रहता है।
इसमें कोई शक नहीं कि लॉकडाउन 1 और 2 ने काम करने के अलग-अलग तरीकों की वजह से कई घरों में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि परिवार का हर सदस्य अलग-अलग संस्कृति वाले, अलग-अलग संस्था में काम करता है। काम सभी करते हैं पर तरीके अलग हो सकते हैं।
फंडा यह है कि कई बार घर के काम भी सिखा सकते हैं कि ऑफिस पॉलिटिक्स कैसे ‘पकती’ है, दूसरों से काम करवाने के लिए रणनीतियां कैसे बनाई जाती हैं और मार्केटिंग कैंपेन कैसे शुरू किया जाता है।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें।



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The kitchen is a classroom where the syllabus 'cooks'




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समझाने के लिए सख्ती की भाषा जरूरी

इन दिनों तीन तरह के लोग नजर आ रहे हैं- समझदार, नादान और दुश्मन। कोरोना के मामले में मूर्ख की श्रेणी खत्म हो गई। समझदार वो हैं जो सेवा कर रहे हैं, नियमों का पालन कर रहे हैं और जो यह समझ गए कि कोरोना से निपटने का सही तरीका क्या है। नादान वे जो अशिक्षित हैं और सिर्फ रोजगार के लिए अज्ञानवश कदम उठा रहे हैं। इनकी संख्या भी कम नहीं है। फिर भी ऐसे लोग निर्दोष माने जा सकते हैं।

लेकिन, तीसरे वे लोग हैं जो बिलकुल समाज के दुश्मन हैं। बेवजह बाहर निकलते हैं, अकारण व्यवस्था में लगे लोगों को परेशान करते हैं। भीड़ का हिस्सा बनकर संक्रमण की संभावना बढ़ाते हैं। ये लोग कोरोना के दोस्त हैं और मनुष्यता के दुश्मन। इन दुश्मनों से पूरी सख्ती से ही निपटा जाना चाहिए।

शास्त्रों में लिखा है- ‘समुझइ खग खगही कै भाषा’। यह बात शंकर ने पार्वतीजी से कही थी कि पक्षी, पक्षी की ही भाषा समझते हैं। वास्तव में पशु की भाषा पशु ही समझते हैं और इस दौर में कुछ मनुष्य पशु जैसा ही व्यवहार कर रहे हैं। इन्हेंं समझाने की एक ही भाषा होना चाहिए सख्ती की। वह सख्ती पुलिस के डंडे में हो सकती है, कानून की धाराओं में हो सकती है, पर यह संदेश स्पष्ट रूप से जाना चाहिए कि कोरोना भी बख्शा नहीं जाएगा और उसे गंभीरता से नहीं लेने वाले समाज के दुश्मन भी जरूर दंड पाएंगे। यदि फिर भी ये लोग नहीं सुधरे तो इन्हें समाज के दुश्मन की जगह ‘मौत के सौदागर’ कहने में भी कोई बुराई नहीं होना चाहिए..।



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Strict language is necessary to explain




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हर दिन प्याज के 1000 ट्रक नीलाम होते थे, कई देशों में प्याज का एक्सपोर्ट होता था, इन दिनों सब थम गया; अब व्यापारियों को बांग्लादेश बॉर्डर खुलने का इंतजार

महाराष्ट्र के नासिक में एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी है...लासलगांव प्याज मंडी। देश में प्याज के दाम क्या रहने वाले हैं, ये यहीं से तय होता है। आम दिनों में इस मंडी में एक हजार से ज्यादा प्याज के ट्रकों की नीलामी होती है, लेकिन इस बार यह आंकड़ा तकरीबन 500-700 से ऊपर नहीं जा रहा।

सरकार की ओर से प्याज को बाहर भेजने पर तो कोई रोक नहीं है लेकिन न किसानों को मजदूर मिल रहे हैं और न ही मंडियों के व्यापारियों को। लॉकडाउन लगतेही दूसरे राज्यों के मजदूर अपने-अपने घर निकल गए थे। यहां ज्यादातर मजदूर यूपी-बिहार और पश्चिम बंगाल से होते हैं। अब हालत यह है कि आम दिनों में मंडी में जहां रोज 20-25 करोड़ और महीने में तकरीबन 750 करोड़ का व्यापार होता है, वहअब 25% तक घट गया है।

मंडी की कृषि उत्पन्न बाजार समिती की अध्यक्ष सुवर्णा जगताप बताती हैं कि व्यापारियों और मजदूरों में कोरोना का डर भी है, इसलिए भी कम ही लोग मंडी आ रहे हैं। हम यहां आने वाले किसानों की स्क्रीनिंग और चेकअप लगातार कर रहे हैं, मंडी को भी हर दिन सैनिटाइज किया जा रहा है ताकि लोगों का डर खत्म किया जा सके। वे यह भी कहती हैं कि किसान और व्यापारियों को नुकसान तो हो रहा है, लेकिन एक अच्छी खबर यह है कि प्याज को बाहर भेजने के लिए सरकार बांग्लादेश बॉर्डर खोल रही है। इससे एक्सपोर्ट बढ़ने की उम्मीद है।

देश में सबसे ज्यादा प्याज महाराष्ट्र में ही पैदा होता है। देश का कुल 37% प्याज यहीं से आता है। साल 2019-20 में राज्य में 90 लाख टन प्याज का उत्पादन हुआ। पिछले साल राज्य से 2655 करोड़ का 14.91 लाख टन प्याज बाहर निर्यात किया गया था।

इस बार लॉकडाउन के चलते एक्सपोर्ट बंद है, ऐसे में एक्सपोर्ट कंपनियां भी किसानों से प्याज नहीं ले रही
पुणे से सटे बारामती में स्थित 'ईवॉल एग्रो फार्मर प्रडूसर कंपनी लिमिटेड' एक बड़ी प्याज एक्सपोर्ट कंपनी है। इसके डायरेक्टर महेश प्रताप लोंढे ने बताया कि उनकी कंपनी का सालाना 500 टन का एक्सपोर्ट बिजनेस है। लेकिन पिछले दो महीने से हुए लॉकडाउन ने उनके बिजनेस को पूरी तरह से ठप कर दिया है। महेश की कंपनी गल्फ देश, इंडोनेशिया और बांग्लादेश समेत 10 देशों में प्याज का एक्सपोर्ट करती है।

महेश बताते हैं, “ट्रांसपोर्ट बंद होने के कारण किसान अपना माल हम तक नहीं पहुंचा सकते, जो कुछ थोड़ा आ भी रहा है, उसे हम बाहर नहीं भेज पा रहे। हमें बाहरी देशों से डिमांड तो है लेकिन लॉकडाउन की वजह से न कंटेनर मिल रहे। न ही इन्हें लोड करने के लिए मजदूर। प्याज को पैक करने के लिए प्लास्टिक मैटेरियल भी नहीं मिल रहा है।" महेश कहते हैं किहम किसानों से प्याज खरीद सकते हैं लेकिन हम उनका करेंगे क्या? जब एक्सपोर्ट ही बंद है तो हम उसे कहां स्टोर करेंगे। इसलिए फिलहाल हमने किसानों से प्याज लेना बंद कर दिया है।

किसान अब खुले बाजार में 10 रुपए किलों के दाम से प्याज बेच रहे
किसान विक्रम कुन्डाल बताते हैं, "फरवरी में हमारे यहां 50 टन प्याज हुआ। हमसे खरीदकर व्यापारी इन्हें एक्सपोर्ट कर देते हैं। अब एक्सपोर्ट बंद हैं तो हम इसे खुले बाजार में 10 रुपए किलो के हिसाब से बेच रहे हैं। पिछले साल मार्च 4 लाख रुपए के प्याज बेचे थे, इस बार यह 1 लाख केभी नहीं बिके।

विक्रम कहते हैं कि प्याज एक कच्ची फसल है, इसे स्टोर करके भी नहीं रखा जा सकता। अगर लॉक डाउन आगे ऐसे ही जारी रहा तो हमारी स्थिति और बिगड़ सकती है।

उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के मुताबिक, 3 फरवरी 2020 को खुदरा बाजार में प्याज औसतन 46.64 रुपए प्रति किलोग्राम के दाम से बिक रहा था। एक महीने बाद यह 32.52 रुपए हो गया।



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देश में 2018-19 के रबी सीजन में 158.28 लाख टन प्याज का उत्पादन हुआ था। इस साल 20 फीसदी ज्यादा प्याज होने की उम्मीद है। लेकिन ट्रांसपोर्ट और एक्सपोर्ट बंद होने के कारण किसानों को अच्छे दाम मिलने में मुश्किल आ रही है।




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भोपाल में तोपों से होता था चांद का ऐलान, रातभर खुली रहती थी चटोरी गली, इस बार टूट गईं कई परंपराएं

रमजान के मौके पर भोपाल की गलियों को भले ही इस बार लॉकडाउन ने सूना कर दिया हो, लेकिन लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। लोग मस्जिदों में नहीं जा पा रहे लेकिन घरों में इबादत में लगे हैं। नवाबों के दौर से ही भोपाल में रमजान की एक अलग रवायत रही है। चाहे खाना-पीना हो या तोपों से चांद का ऐलान करने की परंपरा रही हो। चाहे चटोरीगली के स्वादिष्ट व्यंजन हों या चौक बाजार की रौनक। भोपाल की अपनी एक अलग पहचान है।

जो बाजार रातभर गुलजार होते थे, वो सूने पड़े हैं
रमजान पर लखेरापुरा, इब्राहिमपुरा, चौक बाजार, लोहा बाजार, आजाद मार्केट देर रात तक गुलजार हुआ करते थे। खाने-पीने के साथ ही कपड़ा, ज्वेलरी, जूते-चप्पल, सजावट का सामान, इलेक्ट्रॉनिक आयटम के साथ ही वाहनों की भी जमकर खरीदी हुआ करती थी, लेकिन अभी सब ठंडा है। किराना व्यापारी महासंघ, भोपाल के महासचिव अनुपम अग्रवाल कहते हैं कि, 20 से 25 करोड़ की ग्राहकी तो प्रभावित हुई है, लेकिन यह नुकसान नहीं है क्योंकि ग्राहक का पैसा ग्राहक के पास है और व्यापारी का माल व्यापारी के पास है। 3 मई के बाद छूट मिलती है तो अच्छी ग्राहकी हो सकती है। किराना का तो पूरा सामान सप्लाई किया ही जा रहा है।

वे कहते हैं कि, ईद के एक दिन पहले चांद रात में भी शहर में जमकर खरीदी होती है। भोपाल में तो यह परंपरा भी रही है कि चांद रात के दिन कोई व्यापारी किसी ग्राहक को वापिस नहीं लौटाता। मुनाफा न कमाकर या थोड़ा बहुत नुकसान उठाकर भी माल दे देता है। ऐसा मुस्लिम और हिंदू दोनों व्यापारी ही सालों से करते आ रहे हैं।

फोटो भोपाल के जहांगीराबाद का है। इफ्तारी के चलते प्रशासन ने कुछ समय शाम को दुकानों को छूट दी है।

फतेहगढ़ किले के बुर्ज पर रखी तोप से होता था ऐलान
एनसीईआरटी के डिपार्टमेंट ऑफ लैंग्वेज में प्रोफेसर रहे मोहम्मद नौमान खान
कहते हैं कि, कई ऐसी बातें हैं, जो भोपाल को एक विशेष पहचान देती हैं। 'यहां नवाबों के दौर में फतेहगढ़ किले के बुर्ज पर रखी तोप चलाकर चांद के दिखने का ऐलान किया जाता था। सहरी और इफ्तार के वक्त भी तोप चलती थी। उस समय तोप की आवाज मंडीदीप से बैरसिया तक गूंजती थी, क्योंकि तब न शहर में वाहनों की आवाजों का इतना शोर नहीं था, जितना आज है।

यह काम सरकारी बजट से ही होता था और रियासत ही इसका पूरा प्रबंध करती थी। बाद में यह सिलसिला बंद हो गया और फिर जगह-जगह गोले छोड़कर ऐलान किया जाने लगा।' प्रोफेसर कॉलोनी में रहने वाले फैजल मोहम्मद खान बताते हैं कि, नवाबी दौर में तो सुबह 4 बजे के करीब आदमी आकर आवाज लगाते थे कि सहरी कर लीजिए। जो आवाज देने आता था, उसे ईनाम भी दिया जाता था। अब तो यह परंपरा चली गई क्योंकि पटाखों के जरिए आवाज तो अभी भी की जाती है।

गौहर महल के पास स्थित नवाब कालीनसीढ़ी घाट वाली मस्जिदमें कोरोनावायरस संक्रमण के डर से जनामाज

(जिस पर नमाजीनमाज पढ़ते हैं ) कोभी बाहर धूप में सुखाया जा रहा है, ताकि वायरस हो तो खत्म हो जाए। फोटो : शान बहादुर

दिन में दुकानें नहीं खुला करती थीं
प्रोफेसर नौमान के मुताबिक, 'नवाबी दौर में शहर में रमजान के दौरान दिन में दुकानें नहीं खुला करती थीं, ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि रोजा रखने वालों का कहीं ध्यान न भटके। खाने-पीने का मन में लालच न आए। पकवानों के पकने की खुशबू न आए। तब दुकानों पर दोपहर में पकवानों की तैयारी शुरू होती थी और शाम के समय इन्हें पकाया जाता था। इफ्तारी के बाद लोग दुकानों पर खाने-पीने पहुंचते थे। अब भी बाजार में इफ्तारी के बाद रौनक होती है, लेकिन अब दुकानें दिन में भी खुली रहती हैं। हालांकि कुछ दिनों पर परदा डाल दिया जाता है, जिसे शाम को हटाया जाता है।

नुक्ती और खारे के मिक्सचर के लिए भोपाल पुराने समय से जाना जाता है। नुक्ती और खारे सालभर नहीं मिलते थे, लेकिन रजमान के महीने में जगह-जगह नुक्ती और खारे की दुकानें आज भी लगी देखी जा सकती हैं। इसमें हरी, लाल, पीली नुक्ती और सेंव मिलाए जाते हैं। नुक्ती-खारे खाने का कल्चर भोपाल से ही फैला है। यह स्वादिष्ट होने के साथ ही स्वास्थ्य के लिए भी ठीक होते हैं। इनसे नमक और मीठा दोनों ही शरीर को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में मिल जाते हैं। शबीना भी भोपाल के कल्चर का हिस्सा रही है। इसमें रात भर खुद की इबादत की जाती है। बड़े परिवारों में इसका आयोजन किया जाता था। सेहरी के पहले तक कुरान का पाठ चलता था। लोग खाते-पीते थे। कुरान सुनते थे। चाय-नाश्ता चलता था। इसमें तीन से चार दिन या हफ्तेभर में कुरान का पाठ पूरा कर लिया जाता था। शबीना भोपाल का खास ट्रेडीशन रहा है। कुछ मस्जिदों में भी इसका आयोजन किया जाता था।

भोपाल में सामूहिक रोजा इफ्तार की परंपरा करीब 60 साल पुरानी है। इस बार शहरकाजी ने घर पर हीइबादत करने की अपील की है।

सफेद रंग से सजा होता था शहर
नवाबी रवायतोंकी गहरी समझ रखने वाले आर्किटेक्ट एसएम हुसैन कहते हैं कि, रमजान शुरू होते है पूरे भोपाल में रौनक आ जाया करती थी। पुराने समय में सरकारी बिल्डिंगों से लेकर घरों तक को चूने से पुतवाया जाता था। हर जगह सफेद रंग दिखता था, क्योंकि यह पैगंबर साहब का पसंदीदा रंग है। हर मस्जिद में तरावीह की जाती थी।

जिस दिन कुरान शरीफ का पाठ पूरा होता था, उस दिन मस्जिदों में डेकोरेशन भी होता था। बिजली नहीं आने के पहले रोशनी के जरिए यह किया जाता था, बाद में लाइटें लगने लगीं। चिरागदानों से रोशनी की जाती थी। इसमें सरकार की तरफ से तेल भरवाया जाता था।

इस बार इफ्तार में भी बाहर के लोगों को नहीं बुलाया जा रहा। घर परिवार के लोग इफ्तार कर रहे हैं।

इस बार शॉपिंग नहीं कर पा रहे
मोहम्मद नसीम खानबताते हैं, जिस गंगा जमुनी तहजीब की बात देशभर में की जाती है, भोपाल पुराने समय से ही इसका गवाह रहा है। रमजान माह में जामा मस्जिद के बाहर तक नमाजी नमाज पढ़ा करते थे, तब हिंदू कपड़ा व्यापारी थान में नया कपड़ा निकालकर नमाजियों को बैठने के लिए दे दिया करते थे। यह भाईचारा भोपाल में ही देखने को मिला करता था।

चौक बाजार में शीर खुरमा, सेवइयां, शीरमाल आदि व्यंजन खाने बड़ी संख्या में मुस्लिम लोग जाया करते थे। शहर में सामूहिक इफ्तारी का कल्चर भी पुराने समय से रहा है। रात में बाजार गुलजार होते हैं। चटोरी गली रातभर खुलती है। तरावीह पढ़ने के बाद लोग वहां जाकर स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं। कपड़े, जूतों, ज्वेलरी की दुकानें रात में खुलती हैं और दिन में बंद हुआ करती हैं। लोग रात में शॉपिंग करते हैं। पूरा बाजार रात में गुलजार होता है। खाने-पीने और शॉपिंग का यह कल्चर अभी भी जिंदा है, इस बार बस लॉकडाउन ने रमजान का रंग फीका कर दिया है।

इस बार टूट गईं कई परंपराएं

  • प्रो. नौमान कहते हैं कि, इस बार कई परंपराएं लॉकडाउन की वजह से टूट गईं। पहली बार मस्जिदों में नमाज नहीं हो रही। पहली बार तरावीह मस्जिदों में नहीं हो रही। हाफिज सामूहिक तौर पर मस्जिदों में तरावीह करवाया करते थे, लेकिन इस बार सबको घर पर ही करना है।
  • जुमे की नमाज भी शायद पहली दफा मस्जिदों में नहीं हो पा रही। जुमे की नमाज घरों में नहीं पढ़ी जा सकती।
  • प्रो. नौमान के मुताबिक, 18वीं सदी में भी प्लेग महामारी के चलते इस तरह की दिक्कतें आईं थीं। तब के बाद अब 2020 में ऐसे हालात बने हैं, जब सब बंद हो गया है।
  • इस बार इफ्तार पार्टीकी परंपरा भी टूट गई क्योंकि लोग एक-दूसरे से मिल ही नहीं सकते। न शॉपिंग, न खाना-पीना। हालांकि वे कहते हैं कि, यह सब कदम हमारी जिंदगी बचाने के लिए उठाए गए हैं, जिंदगी होगी तो ये सब फिर शुरू हो जाएगा।


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Ramadan /Ramzan 2020 in Bhopal Update On Cannons Fire Over Madhya Pradesh Coronavirus Lockdown




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भारत और न्यूजीलैंड में एक ही दिन लॉकडाउन लगा, लेकिन वहां कोरोना खत्म होने पर; 15 दिनों से वहां रोज 20 से भी कम मरीज आ रहे

भारत और न्यूजीलैंड दो देश। दोनों के बीच करीब 12 हजार किमी की दूरी। दोनों की आबादी में भी जमीन-आसमान का अंतर। एक तरफ भारत की आबादी 135 करोड़। दूसरी तरफ न्यूजीलैंड की आबादी करीब 50 लाख।भारत और न्यूजीलैंड दोनों ही देशों में कोरोना को फैलने से रोकने के लिए एक ही दिन लॉकडाउन लगाया गया। भारत में 25 मार्च से ही लॉकडाउन लागू है, तो वहीं न्यूजीलैंड में भी इसी दिन दोपहर 12 बजे से।


दोनों ही देशों में लॉकडाउन लगे एक महीने हो चुके हैं। इस एक महीने में एक तरफ न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने दो दिन पहले कहा था किउनका देश कोरोनावायरस से लड़ाई जीत गया है। उनका कहना था कि हम इकोनॉमी खोल रहे हैं, लेकिन लोगों की सोशल लाइफ नहीं।दूसरी तरफ, भारत में 3 मई के बाद भी हॉटस्पॉट वाले इलाकों में लॉकडाउन बढ़ाने की तैयारी हो रही है। अभी देश में 170 से ज्यादा इलाके हॉटस्पॉट हैं।

हालांकि, कोरोना से लड़ने में न्यूजीलैंड को अपनी कम आबादी और ज्योग्राफी का भी फायदा मिला। पिछले 15 दिन से वहां रोज 20 से कम ही मरीज आ रहे हैं। 28 अप्रैल तक वहां 1472 केस आ चुके हैं, जिसमें से अब सिर्फ 239 केस ही एक्टिव हैं,जबकि19 लोगों की मौत हुई है। जबकि, भारत में कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा 31 हजार के पार पहुंच गया है। यहां अब तक 1 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

फरवरी में ही चीन से आने वाले यात्रियों की एंट्री पर रोक
न्यूजीलैंड में कोरोना का पहला मरीज 28 फरवरी को मिला था। लेकिन, उससे पहले से ही सरकार ने इससे निपटने की तैयारियां शुरू कर दीं।3 फरवरी से ही सरकार ने चीन से न्यूजीलैंड आने वाले यात्रियों की एंट्री पर रोक लगा दी थी। हालांकि, इससे न्यूजीलैंड के नागरिकों और यहां के परमानेंट रेसिडेंट को छूट थी। इसके अलावा, जो लोग चीन से निकलने के बाद किसी दूसरे देश में 14 दिन बिताकर आए, उन्हें ही न्यूजीलैंड में आने की इजाजत थी।


इसके बाद 5 फरवरी को ही न्यूजीलैंड ने चीन के वुहान में फंसे अपने यात्रियों को चार्टर्ड फ्लाइट से देश लेकर आ गई। इनमें 35 ऑस्ट्रेलियाई नागरिक भी थे। इन सभी लोगों को आर्मी के बनाए क्वारैंटाइन सेंटर में 14 दिन रखा गया।इसके अलावा, न्यूजीलैंड में 20 मार्च से ही विदेशी नागरिकों की एंट्री पर रोक लगा दी थी, जबकिभारत में 25 मार्च से अंतरराष्ट्रीय उड़ानें बंद हुईं।

ये तस्वीर न्यूजीलैंड के ऑकलैंड शहर की है। सोमवार से ही यहां पर लॉकडाउन में थोड़ी ढील देकर लेवल-3 लागू किया गया है।

4-लेवल अलर्ट सिस्टम बनाया, बहुत पहले ही लॉकडाउन लगाया
23 मार्च को न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने देश को संबोधित किया। उन्होंने कहा, ‘हमारे देश में अभी कोरोना के 102 मामले हैं। लेकिन, इतने ही मामले कभी इटली में भी थे।' ये कहने का मकसद एक ही था कि अभी नहीं संभले तो बहुत देर हो जाएगी।’वहां की सरकार ने कोरोना से निपटने के लिए 4-लेवल अलर्ट सिस्टम बनाया। इसमें जितना ज्यादा लेवल, उतनी ज्यादा सख्ती, उतना ज्यादा खतरा।


21 मार्च को जब सरकार ने इस अलर्ट सिस्टम को इंट्रोड्यूस किया, तब वहां लेवल-2 रखा गया था। उसके बाद 23 मार्च की शाम को लेवल-3 और 25 मार्च की दोपहर को लेवल-4 यानी लॉकडाउन लगाया गया। सोमवार से वहां लेवल-4 से लेवल-3 लागू कर दिया गया है। 25 मार्च से लेकर अभी तक दोनों ही देशों में लॉकडाउन है। न्यूजीलैंड में जब लॉकडाउन लगा तब वहां कोरोना के 205 मरीज थे और भारत में जब लॉकडाउन लगा, तब यहां 571 मरीज थे।

कोरोना पॉजिटिव मरीजों की कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की
न्यूजीलैंड में अगर कोई व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव मिलता, तो वहां की सरकार 48 घंटे के अंदर उसकी कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग भी करती है। यानी, किसी व्यक्ति के कोरोना पॉजिटिव मिलने पर उसके सभी करीबी रिश्तेदारों-दोस्तों को कॉल किया जाता था और उन्हें अलर्ट किया जाता था।ऐसा इसलिए ताकि लोग खुद ही टेस्ट करवा लें या सेल्फ-क्वारैंटाइन में चले जाएं।

ये तस्वीर न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की है। यहां महीनेभर बाद मंगलवार को फिर कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूर दिखाई दिए।

लॉकडाउन तोड़ने वालों पर सख्ती, तुरंत एक्शन
25 मार्च को लॉकडाउन लागू होने के बाद भी कुछ लोग घरों से बाहर निकल रहे थे। इनमें ज्यादातर यंगस्टर्स थे। इस पर प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डन ने समझाइश दी कि देश में कोरोना के ज्यादातर मामले 20 से 29 साल के लोगों में आ रहे हैं। अगर आप घर से बाहर निकलेंगे तो आपको कोरोना होने के चांस ज्यादा हैं।

31 मार्च कोरेमंड गैरी कूम्ब्स नाम का व्यक्ति लोगों पर थूक रहा था। उसने इसका वीडियो बनाकर फेसबुक पर शेयर भी किया। उसके बाद 4 अप्रैल को भी वह ऐसा ही कर रहा था। अगले ही दिन पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया। और उसके अगले दिन कोर्ट ने उसे जेल भेज दिया। हालांकि, बाद में उसे जमानत मिल गई। कूम्ब्स की सजा पर 19 मई को फैसला होना है।


न्यूजीलैंड पुलिस के मुताबिक, 28 अप्रैल तक 5 हजार 857 लोगों ने लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन किया। इनमें से 629 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया। जबकि, 5 हजार 41 लोगों को वॉर्निंग देकर छोड़ दिया गया।



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Coronavirus India Lockdown Vs New Zealand Comparison Update, COVID-19 News; Total Corona Cases and Death From Virus Pandemic




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साथ चलने दीजिए शुद्धिकरण, पवित्रिकरण

अब तो हर दिन नई-नई बातें सामने आ रही हैं। लोग भ्रम में पड़ गए हैं, प रेशान हो गए हैं कि आखिर कोरोना से बचने के क्या उपाय किए जाएं। यह तो तय है कि इसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है। जो-जो भी मिल रही हैं, सभी सलाहें इससे बचने की ही हैं। सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क का उपयोग सहित अन्य चिकित्सकीय दिशा-निर्देशों का पालन तो करना ही है, यह सलाह भी एकदम सही है कि भोजन या खाने की किसी भी वस्तु को शुद्ध किए बिना उपयोग में न लें।

यानी अन्न की शुद्धि का पूरा ध्यान रखा जाए। हमारे ऋषि-मुनि बहुत समय से यह बात कहते आ रहे हैं कि अन्न के प्रति अत्यधिक सावधान रहें। आज जिसे हम सेनिटाइज़ करना कहते हैं, यह एक तरह का शुद्धिकरण है जिसे रासायनिक क्रिया बना दी गई। शुद्धिकरण को और गहरे में ले जाना हो तो पवित्रिकरण हो जाता है। हमारे यहां अन्न को पवित्र करने के लिए मंत्र बोले जाते थे। पूरी एक वैज्ञानिक क्रिया थी वह। इसलिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करते रहिए। भोजन करने से पहले मंत्र पढ़िए। इसमें कहीं अंधविश्वास नहीं है। दरअसल मंत्र की शक्ति आसपास के वातावरण को तरंगों से शुद्ध करेगी। इसके दो फायदे हैं- प हला तो जो अन्न आप ग्रहण कर रहे हैं वह शुद्ध होगा और दूसरा उसे पचाने की आपकी रासायनिक क्रिया पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। बाहर का सेनिटाइज़ेशन जो आधा काम छोड़ देगा, उसे मंत्र पूरा कर देंगे। तो शुद्धिकरण और पवित्रिकरण एक साथ चलने दीजिए..।



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पुलिस को पत्थरदिल समझने वालों, एक ट्वीट करके तो देखो

इस हफ्ते की शुरुआत में कई वीडियो वायरल हुए। इनमें हाल ही में आया 69 वर्षीय करन पुरी का एक वीडियो भी था। वे चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में किताबों की दुकान चलाते हैं और पंचकूला के सेक्टर 7 में अकेले रहते हैं। वीडियो में वे घर पर अकेले टहल रहे हैं, क्योंकि उनके पास करने को कुछ नहीं है। अचानक वे देखते हैं कि पुलिस की गाड़ी बाहर रुकती है और उसमें से यूनिफॉर्म में कुछ महिलाएं ‘अंकल-अंकल’ आवाज देते हुए बाहर निकलती हैं।
एसएचओ इंस्पेक्टर नेहा और उनकी सहकर्मियों को देखकर करन यह सोचकर अंदर भागे कि वे उन्हें डांटेंगी। हालांकि, उन्होंने बताया कि वे बस मिलना चाहती हैं। फिर करण गेट की तरफ बढ़े और बोले, ‘हैलो, मैं सीनियर सिटीजन हूं और अकेला रहता हूं।’ जैसे ही वे गेट पर पहुंचे, तीनों महिलाएं और एक पुरुष पुलिसकर्मी एक साथ गाने लगे, ‘हैप्पी बर्थडे टू यू…।’ और करन की आंखों से आंसू बहने लगे। वे कई कदम पीछे जाते हुए पुलिसकर्मियों से अपने आंसू छिपाने की असफल कोशिश कर रहे थे।
पुलिसवालों ने एक बर्थडे कैप और एक बड़ा क्रीम केक निकाला फिर उनसे बोले, ‘हम भी आपके बच्चे हैं।’ करन लगातार रो रहे थे। उन्होंने गेट की दूसरी तरफ ही खड़े रहकर, टोपी पहनकर केट काटा और सभी पुलिसवालों ने हैप्पी बर्थडे गाना गाया। इस प्लान की शुरुआत 26 अप्रैल को करण के जन्मदिन से दो दिन पहले शुरू हुई थी, जब 25 वर्षीय विशाल निझावन ने पंचकूला पुलिस के ट्विटर हैंडल पर ट्वीट कर अकेले रह रहे करन के लिए सरप्राइज देने की योजना बनाने का निवेदन किया।
कॉलेज के दिनों के दौरान करन ने ही विशाल को सिविल सर्विस में कॅरिअर बनाने के लिए प्रेरित किया था और इस तरह वे दोनों करीब आ गए थे। जब विशाल को चंडीगढ़ में रहने के लिए जगह नहीं मिल रही थी, तब करन ने ही उसे दूसरा घर न मिलने तक अपने घर में पनाह दी थी। दरअसल करन ने पंजाब विश्वविद्यालय के प्रांगण में कई छात्रों को प्रेरित किया है। उनके दो बेटे दिल्ली और ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। नेहा कहती हैं कि अगर एक केक और एक बार मिलने जाने से किसी का अकेलापन कम होता है, तो ऐसा प्रयास जरूर करना चाहिए।’
एक और घटनाक्रम में मुंबई के उपनगर गोरेगांव में रहने वाले 33 वर्षीय बिजनेस मैन शैलेष पांडे उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ से अपने पिता का फोन आने के बाद चिंतित थे। उनके पिता को डायबिटीज है। पिता ने बताया कि कम सप्लाई के कारण उन्हें दवाएं नहीं मिल पा रहीं और उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का डर है। शैलेष ने कुरियर सेवा तलाशनी शुरू की ताकि वे प्रतापगढ़ से 84 किमी दूर घरैया गांव में अपने 70 वर्षीय पिता राजेंद्र पांडे तक दवाएं पहुंचा सकें। हालांकि, पूरा देश लॉकडाउन में होने के कारण शैलेष को उम्मीद नहीं थी कि वे बीमार पिता को दवाएं भेज पाएंगे। शैलेष के दोस्त और पड़ोसी डॉ. सचिन शिंदे ने इस बारे में मुंबई पुलिस को ट्वीट किया। मुंबई पुलिस ने जवाब दिया कि उन्होंने समस्या प्रतापगढ़ पुलिस के साथ साझा कर दी है। इस बीच डॉ. सचिन ने प्रतापगढ़ पुलिस का कॉन्टेक्ट नंबर ऑनलाइन ढूंढा और उस पुलिसवाले को दिया, जिसने मदद का आश्वासन दिया था।
फिर प्रतापगढ़ के पुलिसवालों ने स्थानीय स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी से बात करवाई, जिसने ऐसे मेडिकल स्टोर के बारे में बताया, जहां दवा उपलब्ध थी। सचिन ने मेडिकल स्टोर को फोन किया और दवा की पर्ची साझा कर ऑनलाइन पेमेंट कर दिया। प्रतापगढ़ के एसपी ऑफिस द्वारा बनाई गई एक पुलिस टीम ने दवाएं लीं और राजेंद्र पांडे के घर पर, गांव में डिलीवर कर दीं। यह सब 16 घंटे के अंदर हुआ।



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इरफान: हिंदी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम और फिल्म मीडियम

जयपुर में जन्मे इरफान खान ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा नई दिल्ली में प्रशिक्षण लिया और मुंबई में लंबे समय तक संघर्ष किया। उन्होंने उतने रोजे नहीं किए जितने फांके (अभाव के कारण भूखा रहना) किए। मुंबई में संघर्ष करते हुए स्टूडियो दर स्टूडियो भटके। उनका चेहरा-मोहरा पारंपरिक सितारे की तरह नहीं था। उन्हें हम ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह की स्वाभाविक अभिनय की परंपरा का कलाकार मान सकते हैं। इरफान खान को टेलीविजन के लिए चाणक्य, चंद्रकांता और अनुगूंज में कंजूस के दिल के समान छोटी भूमिकाएं करनी पड़ी। दूरदर्शन के लिए ‘लाल घास’ नामक कार्यक्रम में उन्हें दो-चार कदम चलने का अवसर मिला। संघर्ष के समय पैरों से अधिक जख्म हृदय में लगे। उन्हें पहली सफलता फिल्म ‘पानसिंह तोमर’ में मिली। पीकू, तलवार और जज्बा में उन्हें सराहा गया। सनी देओल अभिनीत फिल्म ‘राइट और राॅन्ग’ में अपराधी के खिलाफ यथेष्ट प्रमाण नहीं जुटा पाने की वेदना से उनका शरीर ऐसा दिखा मानो किसी ने पलीता (बम) लगा दिया हो। विशाल भारद्वाज की ‘मकबूल’ में नकारात्मक भूमिका में उन्होंने जबर्दस्त प्रभाव पैदा किया। पंकज कपूर जैसे निष्णात अभिनेता के साथ अभिनय करते हुए शॉट दर शॉट मुकाबला किया, परंतु अपनी हत्या के दृश्य में पंकज कपूर जैसे अभिनेता हमेशा बघनखा धारण किए होते हैं।
बहरहाल, हॉलीवुड में प्रतिभा की पहचान करने के लिए एक दूरबीन है और हॉलीवुड ने इरफान खान को लाइफ ऑफ पाई, द वॉरियर, सलाम बॉम्बे, स्लमडॉग मिलेनियर और अमेजिंग स्पाइडर मैन में अवसर दिए। इरफान ने भारत में जितने रुपए नहीं कमाए, उससे अधिक डॉलर कमाए। इरफान खान की ‘लंच बॉक्स’ में लीक से हटकर बनी प्रेम कथा है। क्या फिल्मकार को इसकी प्रेरणा उस कहावत से मिली कि पुरुष के हृदय का रास्ता उसके पेट से होकर गुजरता है। इरफान खान अभिनीत ‘हिंदी मीडियम’ में पाकिस्तानी कलाकार सबा कमर ने उनकी पत्नी की भूमिका की थी। अपने बच्चे को गरीबों के लिए आरक्षित सीट दिलाने के लिए वे गरीबों की बस्ती में घर लेते हैं। फिल्म में एक संवाद का आशय यह है कि इरफान खान अभिनीत पात्र का दिवाला निकला है और अभी-अभी गरीब हुआ है। वह पुश्तैनी गरीबों के संघर्ष को नहीं समझ सकता। बस्ती में कोई सात पीढ़ियों से गरीब है और कुछ को यह भी याद नहीं कि कितनी सदियों से वे गरीबी झेल रहे हैं। उन्हें भूख ने बड़े प्यार से पाला है। पूंजीवाद का सबसे पुराना और विलक्षण आविष्कार गरीबी है। उन्होंने ऐसा प्रॉडक्ट बनाया है जिसकी कोई एक्सपायरी डेट ही नहीं है। दो वर्ष पश्चात आने वाली आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी दशकों पूर्व की गई थी। कोरोना ने उस मंदी के लिए जमीन बना दी है। दार्शनिक बेन्जामिन फ्रेंकलिन ने सही आकलन किया था कि पूंजीवाद अपने ही पलटकर आए शस्त्र से घायल होगा। अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी को बढ़ावा देने के दुष्परिणाम सामने आएंगे।
बहरहाल, इरफान अभिनीत नई फिल्म में उसकी पुत्री इंग्लैंड जाकर पढ़ना चाहती है। दरियागंज दिल्ली का व्यापारी एक करोड़ रुपए कैसे जुटाए। इंग्लैंड में उच्च पढ़ाई क्यों आवश्यक है, का जवाब यह दिया जाता है कि महात्मा गांधी, बाबा साहेब आम्बेडकर और नेहरू जैसे नेता भी इंग्लैंड में पढ़े और अपनी जुबां पर स्वतंत्रता का स्वाद लेकर भारत लौटे। भारतीय शिक्षा, पाठ्यक्रम सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन्हें तक्षशिला का राग आलापने मात्र से कुछ नहीं होगा। इरफान खान के अभिनय की विशेषता भाव-भंगिमा की किफायत में देखी जा सकती है। हृदय की आवश्यकता से किंचित भी अधिक कोई मांसपेशी हरकत नहीं करती। अपने अवचेतन और शरीर पर संपूर्ण नियंत्रण से ऐसा कर पाना संभव होता है। इस तरह अभिनय कला साधना बन जाती है। कोई आश्चर्य नहीं एक कलाकार का नाम पॉल मुनि था और हमारे अशोक कुमार भी दादा मुनि कहलाते थे। इरफान खान की मां का निधन कुछ दिन पूर्व ही हुआ। ज्ञातव्य है कि साहिर लुधियानवी और उनकी मां का निधन भी लगभग साथ ही हुआ था। क्या अम्लिकल कोर्ड (नाल) काटे नहीं कटती।



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Irfan: Hindi Medium, English Medium and Film Medium




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देश जानना चाहता है कि स्वदेशी विकल्प इस्तेमाल क्यों नहीं किया

चीन से टेस्टिंग किट खरीदने पर व्यर्थ हुए समय आैर धन को लेकर मचे बवाल ने सरकार और उसकी प्रिय एजंेसी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के स्तर पर नीति और निर्णय लेने में गंभीर विफलता की ओर इशारा किया है। इन किटों की सफलता दर महज पांच फीसदी है। इसी सप्ताह देश की इस सर्वोच्च बायोमेडिकल रिसर्च एजेंसी ने टेस्ट के परिणामों में व्यापक अंतर होने की बात स्वीकारते हुए इससे कोविड-19 की टेस्टिंग पर रोक लगा दी है। इस पूरे प्रकरण ने कोविड-19 के प्रबंधन में सरकार की गंभीर लापरवाही को उजागर किया है। मुझ जैसे जिन विपक्षी नेताओं ने इस मामले को उठाया, उन्हेें सरकार के समर्थकों के गुस्से से दो-चार होना पड़ा। उनका कहना है कि ‘मोदी सरकार इसके बारे में क्या कर सकती थी? कई अन्य देशों का भी ऐसा ही अनुभव है।’ उनकी दूसरी प्रतिक्रिया है- ‘सरकार के पास और विकल्प ही क्या थे? कांग्रेस रैपिड टेस्ट की मांग कर रही थी, लोग और विशेषज्ञ भी इसी पर जोर दे रहे थे।’ इस सभी आपत्तियों को पलटने का मुझे मौका दें। पहली आपत्ति का जवाब है कि यह बात सही है। लेकिन, कोई सरकार दूसरों की गलती से नहीं सीखती तो वह कितनी होशियार है? क्या यह सरकार की बेवकूफी नहीं है कि उसने यह जानते हुए भी कि यह गलत है, वही गलती की जो दूसरे कर रहे थे। ऐसे समय पर जब व्यापक रूप से यह माना जा रहा है कि टेस्टिंग बहुत जरूरी है, तब चीनी किटों की दुनियाभर में आलोचना हुई है।

इस बीमारी की रोकथाम के लिए यूरोप व अमेरिका की मेडिकल एजेंसियों के मुताबिक टेस्ट किट कम से कम 80 फीसदी सटीक होनी चाहिए, लेकिन चीनी किट बुरी तरह से विफल रहीं। भारत के ऑर्डर देने से पहले ही ये चेक गणराज्य में 30 फीसदी, स्पेन व तुर्की में 35 फीसदी और फिलीपींस में 40 फीसदी ही सही परिणाम दे रही थीं। भारत में तो यह स्तर पांच फीसदी ही रहा। कोरोना से बुरी तरह प्रभावित स्पेन ने चीन के उत्पादक शेनझेन बायोइजी टेक्नोलॉजी को करीब 6 लाख किट वापस की थीं। इटली और नीदरलैंड ने चीनी किटोंसे जांच बंद कर दी थी। चीनी किटांे के खराब प्रदर्शन से नाराज ब्रिटेन ने चीनी कंपनियों से दो करोड़ डॉलर का रिफंड मांगा है।
निश्चित ही चीनी प्रवक्ता दावा करते रहे कि अगर अधिकृत उत्पादक से खरीदी जाती हैं तो उनकी किट सही हैं और भारत को दी गईं किट ‘वेरिफाइड’ है। चीनी दूतावास के प्रवक्ता जी रोंग ने दावा किया कि चीन निर्यात किए जाने वाले मेडिकल उत्पादों की गुणवत्ता को बहुत महत्व देता है। लेकिन, भारत ने गुआंगझोउ की जिस वोंडफो को ऑर्डर दिया, उसके साथ ही ब्रिटेन का अनुभव खराब था। क्या यह मूर्खता या सांठगांठ या इससे भी खराब को नहीं दर्शाता? इस फैसले के बारे में कोई भी शब्द कहना कठिन है। सरकार के बचाव में एक तर्क यह हो सकता है कि ऑर्डर विदेशों से आने वाली खराब जानकारी से पहले ही दे दिया गया था, फिर इसे रद्द क्यों नहीं किया गया?
सरकार के सहायकों का दूसरा तर्क कि कोई विकल्प नहीं था, स्वीकार करने योग्य नहीं है। विकल्प थे। इसका जवाब स्वदेशी किट बनाना था, जैसे अमेरिका, साउथ कोरिया और जर्मनी ने किया। भारतीय भी ऐसा करने में सक्षम हैं। असल में मेरे खुद के लोकसभा क्षेत्र तिरुवनंतपुरम में प्रतिष्ठित संस्थानों ने दो सफल पहल कीं, वहां का सांसद होने की वजह से मैं उनसे करीब से जुड़ा रहा। श्री चित्र तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी (एससीटीआईएमएसटी) का आरटी-एलएएमपी टेस्ट एक निर्णायक और तेज होने के साथ ही मौजूदा आरटी-पीसीआर टेस्ट की तुलना में सस्ता भी है और राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी (आरजीसीबी) की रैपिड टेस्ट किट (जो चीन जैसी ही है), दोनों ही हफ्तों पहले सभी तरह की औपचारिकताएं पूर्ण किए जाने के बावजूद आईसीएमआर की स्वीकृति का इंतजार कर रही हैं।

मैंने प्रधानमंत्री द्वारा सांसद निधि पर रोक लगाने से ठीक पहले 30 मार्च को एससीटीआईएमएसटी को एक करोड़ की फंडिंग की थी। उसके बाद एससीटीआईएमएसटी ने बहुत तेज काम किया। उसने अनुसंधान और विकास पूरा किया, अपने उत्पाद की जांच की और ट्रायल में सौ फीसदी सही परिणाम हासिल किए। लेकिन आईसीएमआर का प्रमाण-पत्र नहीं मिलने से इसका बड़े पैमाने पर निर्माण शुरू नहीं हो सका है। यही मामला आरजीसीबी के साथ है। इसी बीच, दक्षिण कोरिया की कंपनी एसडी बायोसेंसर ने भारत में रैपिड टेस्टिंग किट का निर्माण शुरू कर दिया है और उसकी क्षमता हर सप्ताह पांच लाख किट बनाने की है। एससीटीआईएमएसटी व आरजीसीबी के उत्पाद और अब एसडी बायोसेंसर समेत सरकार के पास स्थानीय विकल्पों की कमी नहीं है। जब दुनिया में चीन की सरकार और उसके उत्पादों पर संदेह बढ़ रहा है, तब सरकार ने चीन से खराब किट क्यों खरीदी? टेलीविजन के एक शोमैन के शब्दों में ‘द नेशन वांट्स टू नो’।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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The country wants to know why the indigenous option was not used




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लॉकडाउन का फैसला किसे बचाएं, किसे नहीं पर निर्भर

लॉकडाउन के बीच टेलीविजन पर एक गरीब प्रवासी श्रमिक को यह कहते सुना- ‘अगर कोरोना मुझे नहीं मारता है तो बेरोजगारी और भूख मार डालेगी’। असल में उसने सरकार के सामने उपलब्ध कठिन विकल्पों को अभिव्यक्त किया था कि ‘किसे जीना चाहिए और किसे मर जाना चाहिए?’ इस दुविधा का हल ही 4 मई को लॉकडाउन खत्म होना तय करेगा। क्या हमें आज कोविड-19 से एक जिंदगी बचानी चाहिए, लेकिन इससे कहीं अधिक जिंदगियों को लॉकडाउन मंें व्यापक बेरोजगारी, भूख और कुपोषण से जोखिम में डाल देना चाहिए? यह एक गंभीर धर्मसंकट है।
अगर भारत लॉकडाउन के जरिये मौतें रोकने में सफल हो भी जाता है तो भी जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती, कोरोना वायरस फैलता रहेगा। इसमें कई महीने या साल भी लग सकते हैं। लॉकडाउन भारी बेरोजगारी और मंदी को पैदा करेगा। इससे सर्वाधिक प्रभावित 40 करोड़ दैनिक वेतनभोगी होंगे अौर उनमें से कई की भूख से मौत हो सकती है। लॉकडाउन में कल्याण पैकेज की वजह से सरकार का खजाना नष्ट हो जाएगा, जो मंदी की वजह से पहले ही बहुत कमजोर है। यह महामारी भारत को कई दशक पीछे ले जाएगी। भारत एक बहुत ही गरीब देश बन सकता है।
इसी वजह से अमेरिका के कुछ राज्यों और स्वीडन ने लाॅकडाउन न करने का फैसला लिया, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि यह इलाज बीमारी से भी खराब था। टेक्सास के ले. गवर्नर ने इस धर्मसंकट के एक और पहलू को उभार दिया। उन्होंने कहा कि इस वायरस से सबसे अधिक खतरा बुजुर्गों को है, उन्हें इस आधार पर युवाओं के लिए मरने को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि उन्होंने एक पूरी जिंदगी जी ली है, जबकि युवाओं के पास पूरा जीवन बाकी है। उन्होंने लॉकडाउन नहीं किया और आर्थिक गतिविधियों काे चलने दिया। हमारी नैतिक बुद्धि इस धर्मसंकट को हल करने के बारे में क्या कहती है?

इसका कोई आसान जवाब नहीं है, क्योंकि दोनों ही विकल्प खराब हैं। हम लोगों को वायरस से भी बचाना चाहते हैं, लेकिन हम बचे लोगों को भूख और गरीबी की जिंदगी का दंड भी नहीं दे सकते। महाभारत में ऐसी स्थिति के बारे में विदुर कहते हैं कि वे एक गांव को बचाने के लिए एक व्यक्ति और एक देश को बचाने के लिए एक गांव की बलि दे सकते हैं। कहने का आशय यह है कि अगर बीमारी की तुलना में लाॅकडाउन से अधिक जानें जा रही हों तो वह लॉकडाउन को हटा देते।

पहली नजर में मैं विदुर से सहमत दिखता हूं, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से वायरस से लाखों जानें बच सकती हैं, लेकिन यह करोड़ों को ऐसी जिंदगी में धकेल सकता है, जो रहने लायक न हो। लेकिन, जब मैं दुविधा को व्यक्तिगत करता हूं कि क्या होगा अगर लाॅकडाउन हटने से मेरे बेटे की मौत हो सकती हो? क्या मैं अपने बेटे को कोविड से मरने के लिए छोड़ सकता हूं? मेरी नैतिक बुद्धि स्पष्ट है- मैं अपने बेटे को बचाने के लिए 4 मई के बाद भी लाॅकडाउन को जारी रखना चुनूं्गा। इस तरह से मैं आज की जिंदगी बचाने को प्राथमिकता दूंगा और भविष्य की जिंदगियांे की चिंता नहीं करूंगा। राजधर्म और व्यक्तिगत धर्म का यही अंतर है।
इसलिए राज्य सरकारें मध्य मार्ग पर चलते हुए 4 मई के बाद लॉकडाउन को जांच के परिणामों और संक्रमण की दर के आधार पर चयनित इलाकों में खोलेंगी, ताकि बीमारी से जनहानि को न्यूनतम करने के साथ ही आर्थिक नुकसान और बेराेजगारी में भी कमी की जा सके। मेरा अनुमान है कि 65 साल से अधिक के लोग लॉकडाउन में ही रहेंगे। देश को जाेन में बांटकर, रेड जोन यानी हॉटस्पॉट में लॉकडाउन जारी रहेगा। कार्यस्थल और जन परिवहन में मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग अनिवार्य होगी।
भविष्य का अनुमान लगाना कठिन है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि मई मध्य में संक्रमण तेज हो सकता है। इसका मतलब एक और लॉकडाउन होगा। सरकार को पहले की गलतियों से सीखना चाहिए। 1. लोगों को तैयारी के लिए समय दें। 2. प्रवासी मजदूरों के रहने और खाने की बेहतर व्यवस्था हो। 3. एमएसएमई को पैकेज के जरिये कर्मचारियों के वेतन का प्रावधान हो। 4. पुलिस को पास जारी करने के लिए कहकर लाइसेंसराज न कायम करें, लोगों को स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति हो, लेकिन उन्हें दंडित करें जो नियम तोड़ें।

आने वाले समय में कई दुविधाएं उत्पन्न होंगी, जैसे एक आईसीयू बेड, दो मरीज किसे दें? एक 20 साल का, दूसरा 50 का किसे दें? अगर मुझे तय करना हो तो मैं पहले आओ पहले पाओ या लॉटरी से फैसला करूंगा। संकट के बाद दूसरी तरह की भी दुविधा होगी। आज एप के माध्यम से संक्रमित लोगों की निगरानी हो रही है, लेकिन बाद में हम सरकार को यह ताकत नहीं देना चाहेंगे। लोग संकट खत्म होने के बाद कैसे अपनी निजता सुरक्षित रखेंगे? इस न दिखने वाले वायरस से उत्पन्न नैतिक दुविधाओं पर हमारे नेता कैसे प्रतिक्रिया करते हैं और कितनी जान बचाते हैं यह हमारे देश के मूल्यों को प्रबिंबित करेगा। इसलिए जरूरी है कि हम अपने मूल्यों की रक्षा पर उचित प्रतिक्रिया दें।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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The decision to lockdown depends on whom to save, not whom




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वादियों में 15 फिल्में शूट करने वाले ऋषि कहते थे- हमारे खानदान का कश्मीर की मिट्‌टी से रिश्ता है, हमेशा इसका कर्जदार रहूंगा

ये गुलमर्ग, यही कश्मीर है, वह जगह जिसने मुझे बनाया, जो कुछ भी मैं आज हूं। हमारे खानदान का कश्मीर की मिट्‌टी से रिश्ता है। मैं ताउम्र कश्मीर से प्यार करता रहूंगा और इसका कर्जदार भी रहूंगा। 2011 में 23 साल बाद जब ऋषि कश्मीर गए तो उन्होंने यही बात कही थी।


ऋषि का कहना था, ‘‘मैंने फैसला किया है कश्मीर की उन सब जगहों पर जाने का जहां मेरे पिता ने मेरी पहली फिल्म की शूटिंग की थी। यूं तो मैं नॉस्टैल्जिक ट्रिप से नफरत करता हूं, क्योंकि पीछे देखने का वक्त कहां मिलता है? लेकिन ये यात्रा खास है।’'


ऋषि कपूर की मौत की खबर आई तो सोशल मीडिया जिस बात से पट गया वह ये थी कि लोगों के बचपन की पहली फिल्म बॉबी है और ऋषि कपूर रोमांस का पहला एहसास दिलाने वाले हीरो। इनमें 1970-80 के दशक में पैदा हुए लोग ज्यादा थे। ऐसा कहने वालों में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी शामिल हैं।

ऋषि को याद करते समय बॉबी सबसे पहले याद आती है। उनकी इस पहली फिल्म की शूटिंग कश्मीर में हुई थी। पिता राज कपूर उसके डायरेक्टर थे। इस फिल्म के नाम पर गुलमर्ग और पहलगाम में एक-एक हट आज भी हैं। उनकी यह फिल्म कश्मीर के इकलौते सिनेमाहॉल पैलेडियम में कई हफ्ते चली थी।

ये उसी हट की तस्वीर हैं जहां हम तुम एक कमरे में बंद गाने की शूटिंग हुई थी। अब ये हट बॉबी हट के नाम से मशहूर है।

कपूर खानदान का कश्मीर कनेक्शन खास है। ऋषि अपने दादापृथ्वीराज कपूर और पिताराज कपूर की परंपराओं को भाइयों और बेटे-भतीजियों के बीच बखूबी ले जाने की एक कड़ी थे। 1972 से 1988 के बीच ऋषि ने कश्मीर में 15 फिल्मों की शूटिंग की।


पृथ्वीराज कपूर 1940 में अपने थियेटर ग्रुप के साथ दो महीने के लिए कश्मीर गए थे। राजकपूर पहले फिल्ममेकर थे जिन्होंने कश्मीर में फिल्मों की शूटिंग शुरू की। बरसात फिल्म की शूटिंग के वक्त पैसों की कमी थी और पूरे क्रू को ले जाना मुमकिन नहीं था, इसलिए वे सिर्फ कैमरामेन जालमिस्त्री के साथ अकेले चले गए थे। शम्मी कपूर और शशि कपूर का कश्मीर कनेक्शन सब जानते हैं। रणबीर कपूर की फिल्म रॉकस्टार की शूटिंग भी कश्मीर में हुई है।


लार्जर देन लाइफ फिल्में और फिर फिल्मी परदे के बाहर हर मसले पर राय रखने वाले बॉलीवुड के ये बेबाक कपूर हर खांचे में अपनी छाप छोड़ते थे। कश्मीर मसले पर नवंबर 2017 में उन्होंने फारूकअब्दुल्ला को जवाब देते हुए एक ट्वीट किया था, जिस पर काफी विवाद भी हुआ। वह ट्वीट था -फारूकअब्दुल्ला जी, सलाम, मैं आपसे सहमत हूं, सर। जम्मू-कश्मीर हमारा है और पीओके उनका। इसी तरीके से हम अपनी समस्या सुलझा सकते हैं। स्वीकार करें। मैं 65 साल का हूं और मरने से पहले पाकिस्तान देखना चाहता हूं। मैं चाहता हूं मेरे बच्चे अपनी जड़ें देखें। बस करवा दीजिए, जय माता दी।

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चांदनी फिल्म की शूटिंग भी कश्मीर में हुई थी।




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ऋषि 1990 में पाकिस्तान में पेशावर वाले पुश्तैनी घर आए थे, लौटते वक्त आंगन की मिट्‌टी साथ ले गए, ताकि विरासत याद रख सकें

लगातार दूसरा दिन है जब किसी बॉलीवुड सितारे की मौत हुई है। सिसकियां सरहद के इस ओर से भी सुनाई दी हैं। एक दिन पहले इरफान खान और आज ऋषि कपूर की मौत का गम पाकिस्तान में भी है।

जहां एक ओर दिलों पर राज करने वाले ऋषि कपूर की इबारत भारतीय सिनेमा में हमेशा के लिए जिंदा रहेगी, वहीं उनके खानदान की विरासत सरहद के इस पार पाकिस्तान में भी खड़ी है। पाकिस्तान में ऋषि कपूर को उनकी अदाकारी के अलावा खैबर पख्तून की राजधानी पेशावर में मौजूद उनके खानदान की जड़ों के लिए भी पहचाना जाता है।

भारतीय सिनेमा के कपूर खानदान की यह मशहूर कपूर हवेली पेशावर के रिहायशी इलाके में हैं।यह कपूर परिवार की कई पुश्तों का घर रहा है। बंटवारे से पहले बनी यह हवेली पृथ्वीराज कपूर के पिता और ऋषि कपूर के परदादा दीवान बशेश्वरनाथ कपूर ने 1918-1922 के बीच बनवाई थी। पृथ्वीराज कपूर फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री लेनेवाले कपूर खानदान के पहले व्यक्ति थे। इसी हवेली में पृथ्वीराज कपूर के छोटे भाई त्रिलोकी कपूर और बेटे राजकपूर का जन्म हुआ था।

हवेली के बाहर लगी लकड़ी की प्लेट के मुताबिक, बिल्डिंग का बनना 1918 में शुरू हुआ और 1921 में यह तैयार हो गई। इस हवेली में 40 कमरे हैं और हवेली के बाहरी हिस्से में खूबसूरत मोतिफ उकेरे हुए हैं। आलीशान झरोखे इस हवेली के ठाठ की गवाही देतेहैं।

यह फिल्म हिना का सीन है जो भारत और पाकिस्तान के बीच नायक-नायिकाओं की एक प्रेम कहानी है। इसकी शूटिंग पाकिस्तान में भी हुई थी।

1947 में बंटवारे के बाद कपूर खानदान के लोग बाकी हिंदुओं की तरह शहर और हवेली छोड़कर चले गए। 1968 में एक ज्वैलर हाजी कुशल रसूल ने इसे खरीद लिया और फिर पेशावर के ही एक दूसरे व्यक्ति को बेच दिया।

फिलहाल हवेली के मालिक हाजी इसरार शाह हैं। वह कहते हैं कि उनके पिता ने 80 के दशक में यह हवेली खरीदी थी। उस इलाके में रहनेवालों के मुताबिक, इस जगह का इस्तेमाल बस शादी ब्याह जैसे जश्न में किया जाता है। पेशावर में ही रहनेवाले वहां पुराने मेयर अब्दुल हाकिम सफी बताते हैं कि ये हवेली पिछले दो दशकों से खाली पड़ी है और इसके मालिक भी कभी कबार हीयहां आते हैं।

राजकपूर के छोटे भाई शशि कपूर और बेटे रणधीर-ऋषिको 1990 में पाकिस्तान के पेशावर वाले अपने पुश्तैनी घर जाने का मौका मिला था। लौटते वक्त वह आंगन की मिट्‌टी साथ ले गए थे, ताकि अपनी विरासत को याद रख सकें।

ऋषि कपूर ने अपनी इस यात्रा का जिक्र एक इंटरव्यू में भी किया था। वह 1990 में फिल्म हिना की शूटिंग के लिए लाहौर, कराची और पेशावर गए थे। इसके डायलॉग राजकपूर के कहने पर पाकिस्तानी लेखक हसीना मोइन ने लिखे थे।

हवेली के पुराने मालिकों ने इस धरोहर की ऊपरी तीन मंजिलों को कई साल पहले गिरा दिया। भूकंप से उनकी दीवारों में दरारें पड़ गईं थीं। अब यह हवेली आसपास से दुकानों से घिरी हुई है, जो इसकी दीवारों पर बोझ बन इसके लिए खतरा पैदा कर रही हैं।

हाल ही में ऋषि कपूर ने पाकिस्तान की सरकार से इसे बचाने के लिएमदद मांगी थी। विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी कहते हैं, ऋषि कपूर ने मुझे फोन किया था। वह चाहते थे कि उनके पारिवारिक घर को म्यूजियम या इंस्टीट्यूट बना दिया जाए। हमने उनका आग्रह मान लिया है।

पाकिस्तान सरकार पेशावर किस्सा ख्वानी बाजार के इसघर को अब म्यूजियम बनाने जा रही है। इसमें आईएमजीसी ग्लोबल एंटरटेंमेंट और खैबर पख्तून की सरकार भी मदद कर रही है। यहपाकिस्तान में बॉलीवुड की सबसे मजबूत धरोहर है।कई विदेशी पर्यटक और स्थानीय लोग इसे देखने आतेहैं।

एक किस्सा यह भी..

रावलपिंडी में रहनेवाले सिनेमा एक्सपर्ट आतिफ खालिद कहते हैं, कपूर पेशावर के जानेमाने पठान थे। वे पृथ्वीराज कपूर का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जब सब इंस्पेक्टर बशेश्वरनाथ का बेटा (पृथ्वीराज) पेशावर से बांबे फिल्मों में काम करने गया तो भारत में तब की सबसे बड़ी फिल्म मैगजीन के एडिटर बाबूराव ने लिखा था - जो पठान ये सोचते हैं कि वह एक्टर बन जाएंगे तो उनकी यहां कोई जगह नहीं है। लेकिन कपूर खानदान ने वहां जो नाम कमाया, वैसा और किसी के हिस्से नहीं आया।

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यह पुश्तैनी हवेली पेशावर में है जहां ऋषि कपूर के दादा पृथ्वीराज कपूर और पिता राज कपूर का जन्म हआ था।




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उम्दा इफ्तार इस बार नहीं होंगे, मस्जिदों से बमुश्किल अजानें आएंगी, वहां इबादत नहीं होगी

कहते हैं कश्मीर में एक मौसम रमजान का होता है, और वह सारे मौसमों से ज्यादा खूबसूरत है। कुबूल हो चुकी दुआओं जैसा रमजान। यूं तो कश्मीर में रमजान के आने की आहट वहां के लोकगीतों से पता चलती है, लेकिन इस बार धुन गुमसुम हैं।


सालभर सुरक्षा हालात भले कितने ही खराब रहें, लेकिन रमजान आने तक माकूल होने लगते हैं। कोरोना की वजह से इस बार परेशानी दूसरी है। तय आलीशान इफ्तार अब नहीं होंगे, मस्जिदों से बमुश्किल अजानें आएंगी वहां इबादत नहीं होगी। होंगे तो बस रोजे और घर में बैठे रोजेदार।


घाटी में हर दिन इफ्तार की तैयारियां दोपहर से ही कंडूर यानी स्थानीय कश्मीरी रोटी बनानेवाले की दुकान के सामने जमा होती भीड़ से होती थी। कंडूर स्पेशल ऑर्डर लेता था और लोगों को अपनी कस्टमाइज ब्रेड मिलती थी, गिरदा, ज्यादा घी और बहुत सारी खस-खस या तिल वाली। लेकिन इस साल ऐसा माहौल ही नदारद है।

रमजान के महीने में दान का भी बड़ा महत्व है। इसमें दान के दो रूप होते हैं। पहला- जकात, जिसमें कुल कमाई का तय हिस्सा दान में देना होता है। और दूसरा- सदका, इसमें मुसलमान अपनी मर्जी से जितना दान देना चाहें, उतना दे सकते हैं। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)

गलियों और मोहल्लों में जो जश्न था वो भी नहीं है। सिविल लाइन्स की मशहूर फूड स्ट्रीट जहां हर किसी की जेब की हद में आनेवाला सेवन कोर्स कश्मीरी वाजवान मिल जाता था, अभी खाली पड़ा है। इस बार वह सब भी नहीं है जो इफ्तार के बाद जहांगीर चौक के कश्मीरी हाट को रमजान की नाइट लाइफ हर रोज गुलजार करता था। यूं कह सकते हैं कि साल के इकलौते सबके चहेते इस त्यौहार में इफ्तार से सुहूर तक जिस कश्मीरी नाइटलाइफ को सरकार मशहूर करना चाहती थी वह अब सिर्फ भुलाई जा चुकी कहानी भर है।


मोहम्मद रफीक, पुराने शहर के नवाकदल इलाके में मेवों की दुकान चलाते हैं। कहते हैं लॉकडाउन का छोटे व्यापारियों पर बड़ा असर होगा। खासकर उनपर जिनकी सालभर की कमाई रमजान पर निर्भर रहती है। और क्योंकि रमजान में खानेपीने के सामान की जरूरतें बढ़ जाती हैं तो पैनिक बायिंग और सप्लाय कम पड़ने की भी चिंता है।


कश्मीर की मशहूर हजरबल दरगाह हो या फिर खूबसूरत दस्तगीर साहब हर मस्जिद और श्राइन पर इफ्तार के लिए दस्तरख्वान सजाए जाते हैं। सेब, खजूर और किसी पेय के साथ। इस बार इन मस्जिदों से सिर्फ अजानों की आवाजें आ रही हैं। न इबादत की इजाजत है और आलीशान इफ्तार की तो गुंजाइश भी नहीं।


डाउन टाउन में बनी सबसे बड़ी जामा मस्जिद जो यहां आने वालों से आबाद रहती थी, खासतौर पर आखिर जुमा यानी रमजान के आखिरी शुक्रवार के लिए, जब पूरे शहर के कोनों से लोग यहां आते थे इस बार खाली और सूनी पड़ी है।


डल झील के किनारे बनी हजरतबल श्राइन जो मोहम्मद साहब की पवित्र निशानी मुए ए मुकद्दस का घर भी है इन दिनों बंद कर दी गई है।


फिजिकल डिस्टेंसिंग जो कोरोना के वक्त में सबसे अहम है रमजान के रिवाज पर सबसे ज्यादा मुश्किल साबित हो रहा है। अपने इलाके के बुजुर्ग मोहम्मद शाहबन के लिए ये बेहद कठिन वक्त है। उनके मुताबिक मुइजिन को मिलाकर गिनते के चार लोगों को इलाके की मस्जिद में नमाज पढ़ने की इजाजत है, जबकि ज्यादातर बंद कर दी गई है। वह कहते हैं, जब हम गले मिलकर अपने रिश्तेदार, दोस्त और आसपड़ोसियों को मुबारकबाद देना चाहते हैं उस वक्त हमें हाथ मिलाने की भी मनाही है। उनका मानना है कि यह हमारी रूह पर असर डाल रहा है।


जकात या सदका यानी चैरिटी इस महीने का अहम हिस्सा है। मुस्लिम धर्म में जकात और सदका जरूरी माना जाता है। इसे लेनेवाले उम्मीद लिए दरवाजों तक आते हैं। लेकिन इस बार दरवाजों पर ताले हैं। गलियों में सिर्फ तेज हवाओं की आवाजें आती हैं।

रमजान के शुरुआती 15 दिनों में 'जूनी रातें' बहुत महत्वपूर्ण थीं क्योंकि, इन्हें चांद रातों के रूप में माना जाता था। उस समय शांत माहौल होने से लोगों में एकजुटता भी दिखती थी। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)

घाटी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एसएमएचएस के रजिस्ट्रार डॉक्टर खावर खान कहते हैं जरूरत है कि मौलवी और मौलाना को आगे आकर लोगों को इक्ट्‌ठा होने और अपनी सेहत का ख्याल रखने की हिदायत देनी चाहिए। शायद लोग उनकी बात सबसे ज्यादा मानें।


72 साल की नाजिया बानो पुराने शहर हब्बाकदल में रहती हैं। कहती हैं बचपन में वह अपनी सहेलियों के साथ रमजान में एक दूसरे के घर गाना गाने जाया करती थीं। इफ्तार से पहले नाच-गाना होता था और वह कश्मीरी डांस रऊफ भी करतीं थीं। अब सब रिवायतें और रिवाज बदल गए हैं। अब ये भी नहीं मालूम की हमारा हमसाया कौन है और पास के घर में कितने लोग रहते हैं।


मशहूर इतिहासकार जरीफ अहमद जरीफ कहते हैं लोगों की लाइफस्टाइल बदल रही है। पहले सुहूर की नमाज पढ़ने मर्द और औरतें एक साथ पुराने शहर बोहरी कदल में बनी खानख्वाह ए मौला मस्जिद जाते थे। बेटियां खेतों में आकर रऊफ करतीं थी। अब आदतें भी बदल गई हैं और माहौल भी।



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डल झील के किनारे दिनभर किसी रोजी का इंतजार करते ये शिकारे वाले यूं वहीं खाली पड़ी बेंच पर नमाज पढ़ लेते हैं। इबादत के लिए इससे खूबसूरत शायद ही कोई दूसरी जगह हो। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)




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ट्रैवल इंडस्ट्री की मुर्दानगी ऐसी कि पर्यटन को उकसाने वाले ही अब लोगों को स्टे-होम का पाठ पढ़ाने को मजबूर हैं

कोरोनावायरस पैंडेमिक से ज़माने भर में सफरबाज़ों की दुनिया उलट-पुलट हो गई है। ट्रैवल इंडस्‍ट्री में हड़कंप है, सफर बिखर गए हैं और मंजिलोंपर सन्‍नाटा है। सीज़न में फुल की तख्तीलगाए एयरबीएनबी, होटल-होमस्‍टे वीरान हैं; वॉटर-पार्क, एंटरटेनमेंट पार्क, थियेटर, म्यूजियम, गैलरियां, कैथेड्रल, मंदिर-मस्जिद, मकबरे, कैफे, बार, रेस्‍टॉरेंटमें मुर्दानगी छायी है। डिज्नीलैंडने कर्मचारियों को छुट्टी पर भेज दिया है, पर्यटन को उकसाने वाले ही अब लोगों को #स्‍टेहोम #ट्रैवलटुमौरो का पाठ पढ़ाने की मजबूरी से गुजर रहे हैं।

वर्ल्‍ड ट्रैवल एंड ट‍ूरिज्मकाउंसिल ने आखिरकार वो बम गिरा ही दिया जिसका अंदेशा था। डब्ल्यूटीटीसी के मुताबिक, कोरोनावायरस पैंडेमिक के चलते दुनियाभर में ट्रैवल इंडस्‍ट्री से जुड़ी करीब 10 करोड़ नौकरियां जा सकती हैं और इनमें साढ़े सात करोड़ तो जी20 देशों में होंगी। यानी भारत के पर्यटन उद्योग पर भी भारी खतरा है।

डब्‍ल्‍यूटीटीसी की अध्‍यक्ष एवं मुख्‍य कार्यकारी अधिकारी ग्‍लोरिया ग्‍वेवारा ने कहा, ‘हालात बहुत कम समय में और तेजी से बिगड़े हैं। हमारे आंकड़ों के मुताबिक, ट्रैवल एंड टूरिज्मसेक्टरमें पिछले एक महीने में ही करीब 2.5 करोड़ नौकरियों पर गाज गिरी है। इस वैश्विक महामारी ने पूरे पर्यटन चक्र का आधार ही चौपट कर डाला है।'

फरवरी 2020 तक गुजरात में बने स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को देखने 29 लाख से ज्यादा लोग पहुंचे हैं जिससे 82 करोड़ की कमाई हुई है। इन दिनों यह वीरान है।

महामारी के चलते लॉकडाउन ने पूरी दुनिया में पर्यटन के पहिए को जाम कर दिया है। एयरलाइंस से लेकर मनी एक्‍सचेंजर तक और टूरिस्‍ट गाइड से नेचर पार्कों तक की आमदनी पर ताले लटक गए हैं, और किसी को नहीं मालूम कि यात्राओं की दुनिया पर छायी यह मनहूसियत कब दूर होगी। ग्‍लोरिया का कहना है, ‘यात्रा संसार में आयी यह रुकावट इसलिए भी गंभीर है, क्‍योंकि ट्रैवल एंड टूरिज्मसैक्‍टर वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था की रीढ़ है। इसमें सुधार लाए बगैर दुनिया में कहीं भी अर्थव्‍यवस्‍था को उबारना आसान नहीं होगा और आने वाले कई सालों तक लाखों लोग आर्थिक और मानसिक तबाही झेलने को अभिशप्‍त होंगे।'

युनाइटेड नेशंस वर्ल्‍ड टूरिज्मऑर्गेनाइज़ेशन (यूएनडब्ल्यूटीओ) के महासचिव जुराब पोलोलिकाश्विल ने दो टूक कह दिया है- ‘अर्थव्‍यवस्‍था के मोर्चे पर सबसे बुरा हाल टूरिज्मसैक्‍टर का है। सरकारों को कोविड-19 पैंडेमिक से खतरे में पड़ी आजीविकाओं को बचाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। सिर्फ मीठे अल्‍फाज़ों से ही नौकरियां नहीं बचायी जा सकेंगी। उन्‍होंने सरकारों को सलाह दी है कि ‘यात्राओं पर लगी बंदिशों को, जितना जल्‍दी हटाया जाना सुरक्षित हो, हटा लिया जाना चाहिए।'

लेकिन यह तय है इस धक्‍के से उबरने में लंबा वक्तलगेगा और वापसी की रफ्तार भी धीमी होगी। टूरिज्मजैसे संवेदनशील उद्योग को 9/11 के बाद पुराना रुतबा हासिल करने में दो साल लगे थे। इसी तरह, सार्स और स्‍वाइन फ्लू ने भी पर्यटन के दौड़ते पहियों में ब्रेक लगायी थी। कोविड-19 इस लिहाज से और भी गंभीर परिणाम लेकर आने वाला है।


पोस्‍ट-कोविड काल में कैसा होगा सफर

यह अभूतपूर्व संकट है, जिसने दुनियाभर में आयोजनों, त्‍योहारों, यात्रा अनुभवों, सिनेमा, थियेटर, मेलों, प्रदर्शनियों पर रोक लगा दी है। पिछले 5-7 सालों में पर्यटन सैक्‍टर की उपलब्धियां, कोविड-19 के असर से मटियामेट होने के कगार पर हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि लॉकडाउन हटने के बाद भी विभिन्‍न देश कब और किसके लिए अपनी सीमाएं खोलेंगे?

शैंगेन बॉर्डर शेष दुनिया के यात्रियों के लिए अगले दो या तीन महीनों में खुलेंगे? अमरीका कब दुनिया के दूसरे महाद्वीपों के ट्रैवलर्स को अपने यहां आने की इजाज़त देगा? क्‍या कोविड प्रभावित क्षेत्रों के यात्रियों को क्‍वारंटाइन में रहना होगा? और क्‍या वे अपने सफर में इस मियाद को भी शामिल रखने का जोखिम उठा पाएंगे?

जब लॉकडाउन खुलेगा, रेलगाड़‍ियों और जहाज़ों के इंजन फिर घनघनाएंगे, यात्रियों की आमद होगी, उत्‍सवों के आमंत्रण होंगे तब क्‍या पहले की तरह सब सामान्‍य हो जाएगा?

द रिवरव्यू रिट्रीट, कॉर्बेट रेसोर्ट उत्तराखंड में लॉकडाउन में कर्मचारियों की रोज थर्मल स्कैनिंग की जाती है, खाली वक्त में सभी के लिए योग, व्यायाम और पूजा-पाठ का इंतजाम भी होता है।

जिंदगी पर फुर्सत और सब्र हावी होंगे
एक प्रमुख लग्‍ज़री होटल चेन लैज़र होटेल्‍स में जनरल मैनेजर अजय करीर कहते हैं, ‘पोस्‍ट कोविड ट्रैवल की दुनिया काफी बदलेगी। बहुत मुमकिन है कि आने वाले समय में लोगों की जिंदगी में फुर्सत और सब्र जैसे पहलू ज्‍यादा हावी होंगे, भागता-दौड़ता टूरिज्मकम होगा।

होटल ब्रैंड भी ‘कस्‍टमर डिलाइट’ पर ज्‍यादा ज़ोर देंगे, लिहाज़ा ‘कैंसलेशन पॉलिसी’ काफी लचीली रखी जाएगी। स्‍थापित ब्रैंड्स रेट कम नहीं करेंगे, लेकिन बुकिंग्‍स के मामले में ऑफर्स और आकर्षक पैकेज ला सकते हैं। बजट होटल या अपने अस्तित्‍व को लेकर संकट से जूझ रहे मीडियम रेंज होटल टैरिफ घटाने जैसी मजबूरी से गुजरेंगे।'

‘इस बीच, एक और बड़ा शिफ्ट जो होगा वो यह कि किचन ऑपरेशंस में बड़े पैमाने पर तब्‍दीली होगी। फ्रैश और ऑर्गेनिक फूड पर ज्यादा जोरहोगा। दूरदराज के बाज़ारों से एग्‍ज़ॉटिक फलों और सब्जियों की खरीद की बजाय स्‍थानीय उत्‍पादकों को तरजीह देने का चलन बढ़ेगा।'

ट्रैवल के तरीकों में बदलाव भी लाजमी हैं

ट्रैवल राइटर और ब्‍लॉगर पुनीतिंदर कौर सिद्धू कहती हैं, ‘यात्राएं कभी मरती नहीं हैं, यह अस्‍थायी ब्रेक है और मेरे जैसे कितने ही घुमक्‍कड़ किसी ‘सुरक्षित’ मंजिल पर निकलने को बेताब हैं। सुरक्षा के लिहाज़ से मैं बड़े होटलों की बजाय बुटिक, स्‍टैंडएलॉन और छोटी प्रॉपर्टी को प्राथमिकता दूंगी।

शुरुआत में मास ट्रांसपोर्ट से हर संभव तरीके से दूर रहने की कोशिश होगी, यानी रोड ट्रिपिंग की वापसी होगी। लेकिन कार रेंटल को लेकर बहुत से लोग शुरु में हिचकेंगे और सैल्‍फ-ड्राइविंग हॉलीडे को पसंद किया जाएगा। यात्राओं की रफ्तार धीमी ज़रूर रहेगी मगर वे बेहतर तरीके से होंगी। ‘स्‍लो टूरिज्म’ और ‘बैकयार्ड टूरिज्म’ बढ़ेगा।'

इस बीच, कई एयरलाइंस भी अगले महीने से आसमानों में उड़ान भरने की अपनी तैयारियों के संकेत दे रही हैं। पैसेंजर टर्मिनलों और हवाई जहाज़ों में क्रू तथा यात्रियों के लिए मास्‍क लगाना अनिवार्य होगा और जगह-जगह सैनीटाइज़र की व्‍यवस्‍था, कॉन्‍टैक्‍टलैस वेब एवं मोबाइल चेक-इन, थर्मल स्‍क्रीनिंग, स्‍वास्‍थ्‍य घोषणा पत्र, अतिरिक्‍त चेक-इन काउंटर जैसी शर्तें आम होंगी।

दुनियाभर की एयरलाइन्स ने अगले पांच सालों तक ट्रैफिक में कमी की आशंका जताई है। इन दिनों अमेरिकन एयरलाइन के पैसेंजर एयरक्राफ्ट, कार्गो लाने ले जाने के काम में लिए जा रहे हैं।

यात्रियों के बीच डिस्‍टेन्सिंग के लिए हर कतार में सीट खाली रखने जैसी शर्त पर फिलहाल स्थिति बहुत साफ नहीं है। ऐसा हुआ तो खाली सीटों के साथ उड़ान भरने पर होने वाले नुकसान की भरपाई कैसे होगी? क्‍या टिकटों की कीमतें बढ़ेंगी? या महामारी के डर से घरों में दुबके पैसेंजरों को ललचाने के लिए हवाई खर्च में कटौती की जाएगी?

सवाल बहुत हैं और जवाब समय के गर्भ में छिपे हैं। धीरे-धीरे स्थितियां साफ होंगी मगर इतना तय है कि बेहतर हाइजिन, सैनीटाइज़ेशन, डिस्‍इंफेक्‍शन यात्राओं की बहाली का प्रमुख मंत्र रहेगा।

यायावर लेखक और फोटोग्राफर डॉ कायनात काज़ी कहती हैं, ‘जिसके लिए यात्राएं जीने का सामान है, जिसकी रगों में दौड़ती रवानी की तरह है आवारगी, वो और इंतज़ार नहीं कर सकता। कम से कम मैं तो कतई नहीं रुक सकती।

उम्‍मीद है लॉकडाउन हटने के बाद, घरेलू यात्राओं के रास्‍ते खुल जाएंगे और मैं फ्लाइट टिकट खरीदने के रोमांच से खुद को रोक नहीं पाऊंगी! अलबत्‍ता, जब फिर सफर करना शुरू करूंगी तो सावधानियां, सैनीटाइज़र, मास्‍क और कुछ हद तक सोशल डिस्‍टेंसिंग की आदतें मेरी हस्‍ती का सामान बन चुकी होंगी।'

  • अलका कौशिक ट्रैवलजर्नलिस्ट हैं


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Tourism in a lockdown Update On Travel Jobs; 10 Crore Jobs at Risk Due to Lockdown




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अभाव में भी आनंद उठाया जा सकता है

रुपया संरक्षण मांग रहा है। हमारी संपत्ति हमारे सामने कंपकंपा रही है। हमारा वैभव मुरझा गया है, प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। अपने मनुष्य होने पर भय लगने लगा है। जान और जीविका दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े हो गए। जान पर काम करो तो जीविका सवाल उठाती है, जीविका की सोचो तो जान साथ छोड़ने की बात करती है। ऐसे में क्या किया जाए? चलिए, अभी सिर्फ जीविका की बात करते हैं। सबको फिक्र है और शुरुआत हो चुकी है। नुकसान नौकरी का हो या व्यापार का, होगा जरूर।

आज हम जिन परिस्थितियों से गुजर रहें हैं, ये केवल स्थितियां नहीं, घाव बन गई हैं और यह घाव किसी सर्जरी से ठीक नहीं होगा। इसमें अध्यात्म का मरहम लगाना होगा। एक प्रतिष्ठित व्यवसायी ने मुझे सुझाव दिया था कि हम यह मान लेंगे कि महीने कम हो गए और साल 12 की जगह 10 महीने का रह गया। नुकसान की भरपाई हम इस सोच से कर लेंगे। लेकिन, अब तो यह भी नहीं पता कि साल में कितने महीने कम करना हैं।

हिंदू कैलेंडर में होते तो 12 महीने हैं, लेकिन यदि आपको रुपए की रक्षा करना हो तो एक विचार अपनाया जा सकता है कि यह वर्ष छह माह का था और इन छह माह को ऋतु से जोड़ लें। हिंदुओं ने एक ऋतु में दो मास रखे हैं। ये छह ऋतु हैं- वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। तो ऐसा मान लीजिए कि इस वर्ष छह ऋतुओं यानी छह माह में ही कमा पाए हैं। बाकी छह माह अज्ञात, अभाव के रह गए और इसी अभाव में आनंद आएगा।
जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें



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अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बने राष्ट्रीय योजना

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से बाहर निकलने पर देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जरूरी है कि सभी सरकारें, सभी पार्टियां मिलकर एक राष्ट्रीय नवनिर्माण योजना पर सहमत हों। यहां मैं इस योजना के एक हिस्से का प्रस्ताव रख रहा हूं जिसमें एक पंथ दो काज हो जाएंगे। रोजगार सृजन भी होगा और देश को भविष्य की सबसे बड़ी आपदा से बचाने में मदद भी मिलेगी।

देश में बेरोजगारी के आंकड़े नियमित रूप से इकट्ठे करने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनाॅमी के अनुसार कोरोना का कुछ भी असर होने से पहले फरवरी के महीने तक देश में कुल 40.4 करोड़ लोग किसी न किसी तरह के रोजगार में थे। अप्रैल के अंतिम सप्ताह में इनकी संख्या घटकर 28.1 करोड़ हो गई। यानी कि 12 करोड़ रोजगार खत्म हो गए।

लॉकडाउन खुलने के बाद भी शहरों में फैक्ट्री या उद्योग खोलने की बंदिश धीरे-धीरे ही हटेगी। इसके बावजूद मंदी के चलते सभी पुराने रोजगार वापस नहीं आएंगे। उधर, गांवों में अधिकांश जगह पर फसल की कटाई का काम पूरा हो चुका है। फसल की रोपाई से पहले कोई खास काम नहीं है। मानसून के दौरान भवन निर्माण का काम भी बहुत घट जाता है। इसलिए, आने वाले तीन चार महीने देश के गरीबों के लिए आजीविका के संकट का समय है।
इसलिए तत्काल एक ऐसी योजना की आवश्यकता है, जो बेरोजगार हुए लोगों को अगले कुछ महीने के लिए सार्थक रोजगार दे सके। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक बना बनाया ढांचा है, जिससे इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है। लेकिन, इस योजना का विस्तार कर इसे ग्रामीण से शहरी इलाकों में भी ले जाना होगा, इसके बजट को कई गुना बढ़ाना होगा, इसकी कुछ वर्तमान शर्तों में ढील देनी होगी। इस राष्ट्रीय नवनिर्माण योजना का मुख्य उद्देश्य होगा देश को भविष्य में ऐसे किसी प्रकोप से बचाना।

महामारी के बाद जो इससे बड़ा खतरा मुंह बाएं खड़ा है, वह जलवायु परिवर्तन का है। इस संकट को देश को जलवायु परिवर्तन के महासंकट से बचाने के एक अवसर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए दो बड़े काम हैं, जिनके लिए बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत है। पहला काम है देशभर के जलाशयों, तालाबों, जोहड़, बावड़ी कुंओं को सुधारने का। इसके साथ नहरों को गहरा करने और नदियों की सफाई का काम भी जोड़ा जा सकता है। दूसरा काम है जंगल के संरक्षण, संवर्धन और वृक्षारोपण का।

बारिश का मौसम शुरू होने से पहले इन दोनों कामों को युद्धस्तर पर एक राष्ट्रीय मिशन बनाकर किया जा सकता है। जब मानसून आने पर यह काम रुक जाए, उस वक्त देशभर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की अवस्था सुधारने और देश के हर नागरिक के स्वास्थ्य की जांच के काम और सरकारी स्कूलों में सुधार का काम लिया जा सकता है।
इसके लिए वर्तमान मनरेगा योजना में सुधार करने होंगे। पहला, फिलहाल मनरेगा के तहत प्रत्येक परिवार को एक जॉब कार्ड मिलता है जिसके तहत परिवार को कुल मिलाकर साल में अधिकतम 100 दिन का रोजगार मिल सकता है। इस सीमा को प्रति व्यक्ति 100 दिन कर दिया जाए या फिर परिवार के लिए अधिकतम सीमा को बढ़ाकर 200 दिन कर दिया जाए।

दूसरा, जिन परिवारों के पास जॉब कार्ड नहीं है, उन्हें मौके पर एक अस्थायी कार्ड देने की व्यवस्था की जाए। तीसरा, मनरेगा के तहत पेमेंट केवल बैंक में भेजने के वर्तमान नियम में ढील देकर इन महीनों में नकद या खाद्यान्न के रूप में पेमेंट की व्यवस्था की जाए। चौथा, सीधे दिहाड़ी के हिसाब से पेमेंट किया जाए। पांचवां, कुछ राज्यों में कोरोना के भय से 50 वर्ष से ऊपर के लोगों को मनरेगा में रोजगार देने पर जो पाबंदी लगी है, वह हटाई जाए।
इस राष्ट्रीय मिशन में शहरी इलाकों के लिए भी एक रोजगार गारंटी योजना शुरू करनी होगी। ऐसी योजना का प्रारूप अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमित बासोले और राजेंद्रन पेश कर चुके हैं। उस प्रस्ताव में कुछ संशोधन कर अगले छह महीने के लिए विशेष योजना चलाई जा सकती है जिसमें हर परिवार को ₹400 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से कम से कम 100 दिन रोजगार दिया जा सकता है।

जाहिर है ऐसे बड़े राष्ट्रीय मिशन के लिए बड़ी धन राशि की आवश्यकता होगी। इस साल सरकार ने मनरेगा के लिए केवल 60 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान रखा था। ग्रामीण इलाकों के लिए इस राशि को बढ़ाकर दो लाख करोड़ रुपए करना होगा। शहरी क्षेत्र के लिए अलग से एक लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना होगा।

देखने में तीन लाख करोड़ रुपए की यह राशि बड़ी लग सकती है, लेकिन अगर केंद्र की तरह राज्य सरकारें भी सरकारी कर्मचारियों का महंगाई भत्ता रोक लेती हैं तो केवल इस एक कदम से 1.2 लाख करोड़ रुपए की बचत होगी। यूं भी जहां चाह, वहां राह। इस वक्त लोगों को दिया गया रोजगार देश को भुखमरी से बचाने और अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने का सबसे प्रभावी कदम होगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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National plan made to bring the economy back on track




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स्वास्थ्य सेवाओं को स्वच्छता की तरह आंदोलन बनाएं मोदी

मैंने जब 2013 में नरेंद्र मोदी के पक्ष में लिखना शुरू किया तो यह मेरे सेकुलर दोस्तों को बर्दाश्त नहीं हुआ। वे कहते थे आप कैसे किसी ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा कर सकती हो, जिसके राज में 2002 के दंगे हुए थे। वो प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो देशभर में दंगे हो सकते हैं। मेरा जवाब होता था कि मैंने कई सेकुलर प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के दौर में कई बार दंगे देखे हैं। लेकिन, उनको हमने कभी इतना बदनाम नहीं किया, जितना मोदी को बदनाम किया है। क्या 1984 में राजीव गांधी के कार्यकाल के शुरू होते ही 3000 सिख दिल्ली के नरसंहार में नहीं मारे गए थे? क्या यह सच नहीं है कि राजीव इसके बावजूद बोफ़ोर्स घोटाला होने तक हमारे लिए एक चमकता सितारा नहीं थे। राजीव को कभी अमेरिका ने वीजा देने से इनकार नहीं किया, क्योंकि हम पत्रकारों ने उनकी छवि कलंकित होने से बचाकर रखी थी। मैं उस समय यह भी कहती थी कि कांग्रेस ने अपने दशकों लंबे राज में कभी गरीबी हटाने की कोशिश ईमानदारी से नहीं की है। ईमानदारी से की होती तो गरीबों के हाथ में वह औजार दिए होते जिससे गरीबी दूर हुई है, अन्य देशों में जैसे- बेहतरीन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं। हमारे देश में गरीबी हटाने के नाम पर मनरेगा जैसी योजनाओं द्वारा सिर्फ खैरात बांटी गई है। अच्छे स्कूल और अस्पताल आम नागरिक को कभी नहीं दिए गए। दरअसल, जिन लोगों को इन आम सेवाओं के निर्माण का काम सौंपा गया था, उन्होंने कभी न तो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने की जरूरत महसूस की और न ही किसी परिजन का इलाज सरकारी अस्पतालों में करवाने की। मुझे मोदी पर विश्वास था कि वह जब परिवर्तन लाने की बातें करते थे तो इन क्षेत्रों में परिवर्तन जरूर लाकर दिखाएंगे। माना कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, लेकिन मोदी के दौर में कभी वो समय भी रहा है जब सभी बड़े राज्यों में उनके मुख्यमंत्री थे। जिस तरह स्वच्छ भारत आंदोलन मुख्यमंत्रियों के जरिये युद्धस्तर पर सफल बनाया था, उसी तरह स्कूल और अस्पताल भी सुधारे जा सकते थे। ऐसा उन्होंने नहीं किया और आज हम इसका खमियाजा भुगत रहे हैं।
कोरोना महामारी के इलाज के लिए खास अस्पतालों की जरूरत है। लेकिन, जब हमारे आम सरकारी अस्पताल ही इतने बेकार हैं कि गरीब भारतीय भी प्राइवेट में इलाज करवाने पर मजबूर है, तो कहां से आएंगे वह खास कोरोना अस्पताल? कोरोना के गंभीर मरीजों के लिए वेंटिलेटर जरूरी हैं, क्योंकि इस बीमारी के कारण फेफड़े फूल जाते हैं। करोना मरीजों का जो डॉक्टर और नर्स इलाज कर रहे हैं, उनके लिए खास लिबास, मास्क और गॉगल्स जरूरी हैं, ताकि वे खुद बीमार न हो जाएं। जब विकसित पश्चिमी देशों में इन चीजों का अभाव दिखने लगा है तो हमारे इस गरीब, बेहाल देश में कहां से आएंगी यह चीजें? प्रधानमंत्री ने जब 14 अप्रैल को देशवासियों को संबोधित किया था तो उन्होंने आश्वासन दिया कि कोविड-19 को हराने के लिए देश तैयार है। लेकिन, यह नहीं बताया कि इस तैयारी में नए कोरोना अस्पताल कितने बने हैं, क्या उनमें हर बिस्तर के साथ वेंटिलेटर और ऑक्सीजन देने की सुविधाएं हैं कि नहीं।
उनकी सरकार की लॉकडाउन की तैयारी इतनी कच्ची थी कि उन्होंने मजदूरों के पलायन की भी तैयारी नहीं की थी। अगर आप मज़दूरों को अपने गांव जाने से रोकना चाहते हैं तो कम से कम उनके रहने और खाने का पूरा प्रबंध पहले से किया जाना चाहिए था। माना कि पहले लॉकडाउन में कुछ गलतियां हो गई थीं, तो कम से कम दूसरे लॉकडाउन में मुंबई, दिल्ली, सूरत और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों से मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए थे? उनका घर जाना ख़तरनाक है, क्योंकि वे वायरस को अपने साथ ले जा सकते हैं। अगर यह महामारी ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने लगती है तो यहां लाखों की तादाद में लोग मर सकते हैं। रही बात शिक्षा की तो यह भी कहना होगा कि अगर हमारे सरकारी स्कूल अच्छे होते तो उनमें साक्षरता के बदले शिक्षा मिलती। आम लोग शिक्षित होते तो उनको मज़दूरी नहीं अच्छी नौकरियां मिलतीं। वे झुग्गियों में नहीं अच्छे घरों में रहते जहां सोशल डिस्टेंसिंग आसान होता है। जब 80 फीसदी देशवासियों का आवास एक कमरा हो तो सोशल डिस्टेंसिंग करने की सलाह देना क्या उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने के समान नहीं है?
मायूसी और मंदी के इस दौर में अगर इस महामारी से कुछ अच्छा हो सकता है तो वह सिर्फ़ यह है कि मोदी जैसा लोकप्रिय राजनेता अब स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार लाने पर विशेष ध्यान लगा दे। ऐसा करना मुश्किल नहीं है, क्योंकि विश्व के सबसे अच्छे प्राइवेट अस्पताल और डॉक्टर भारत में हैं। उनकी मदद से हमारे सरकारी अस्पतालों में भी सुधार लाया जा सकता है। अभी तक प्रधानमंत्री से हमने सिर्फ़ आदेश सुने हैं कि हमें कैसे बचना है कोरोना से। क्या उम्मीद कर सकते हैं कि अपने अगले भाषण में प्रधानमंत्री हमें बताएंगे कि उनकी सरकार हमारे लिए क्या कर रही है? क्या उम्मीद कर सकते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए वह कम से कम उतना ध्यान देंगे, जो उन्होंने स्वच्छ भारत आंदोलन को दिया था?
(यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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Modi should make health services a movement like cleanliness




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हम न रहेंगे, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां

तीन वर्ष की आयु में ऋषि कपूर ने अपने पिता राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ के गीतांकन में हिस्सा लिया। गीत की पंक्ति है- ‘हम न रहेंगे, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां..’। कुछ वर्ष पूर्व उनकी आत्मकथा ‘खुल्लम-खुल्ला’ का प्रकाशन हुआ। किताब का नाम ही उसकी विचार शैली का परिचय देता है। उसने कभी कुछ छिपाकर नहीं किया। बहरहाल, खुल्लम-खुल्ला के प्रकाशन से उन्होंने कहा कि किताब का हिंदी अनुवाद श्रीमती ऊषा जयप्रकाश चौकसे से ही कराया जाए। वे मेरी बहन ऋतु नंदा की तीन किताबों का अनुवाद कर चुकी हैं।
सन 2008 में खाकसार, ऋषि कपूर के कक्ष में बैठकर फिल्म से जुड़े लेखकों को हरिकृष्ण प्रेमी जन्मशती समारोह में आने के लिए निमंत्रण दे रहा था। ऋषि कपूर ने कहा कि वे स्वयं इंदौर आएंगे। हरिकृष्ण प्रेमी की लिखी फिल्म में राज कपूर ने अभिनय किया था। उन्होंने समारोह में कहा कि पिता कभी मरता नहीं, वह अपनी संतानों की श्वास में जीवित रहता है। उन्होंने लगभग 30 मिनट भाषण दिया। वह ऋषि कपूर की दूसरी इंदौर यात्रा थी। सन् 1986 में इंदौर के नेहरू स्टेडियम में ‘राम तेरी गंगा मैली’ का रजत जयंती समारोह मनाया गया।

उस उत्सव में वे ‘मैं हूं प्रेम रोगी’ गाते हुए जमकर थिरके। ऋषि कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ में सोलह वर्षीय किशोर की भूमिका अभिनीत की, जिसके लिए उन्हें अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। ‘प्रेमरोग’ और ‘हिना’ में उन्होंने अभिनय किया। हबीब फैजल की ‘दो दुनी चार’ में गणित के शिक्षक की भूमिका अभिनीत की। अपने आदर्श से नहीं डिगने वाला शिक्षक जीवन में पहली बार एक छात्र के अंक बढ़ाने के लिए संकोच के साथ तैयार होता है। हा

लात कुछ ऐसे थे कि उसे मारुति कार खरीदना है। रिश्वत लेने के समय वहां मौजूद उनका भूतपूर्व छात्र उनके चरण छूते हुए कहता है कि उनकी शिक्षा ने ही उसे सफल और समृद्ध व्यक्ति बनाया है। उसी क्षण वे रिश्वत लेने से इनकार कर देते हैं। हबीब फैजल के पिता भोपाल में शिक्षक रहे थे। पिता-पुत्र का रिश्ता भी तीर-कमान की तरह होता है। पिता के कमान की प्रत्यंचा पर तनाव बढ़ते ही पुत्र रूपी तीर जीवन में निशाने पर जा लगता है।
करण जौहर की ‘अग्निपथ’ में ऋषि कपूर जैसे मासूम से दिखने वाले व्यक्ति ने एक कसाई की भूमिका विश्वसनीय ढंग से अभिनीत की। उन्होंने एक फिल्म में दाऊद इब्राहिम प्रेरित भूमिका भी की थी। उनकी व्यक्तिगत सोच ऐसी थी कि किसी भी प्रस्ताव को पहली बार सुनकर मना कर देते थे। बाद में विचार करके स्वीकार करते थे। उनसे कोई काम कराने का कारगर तरीका यह था कि नीतू कपूर के माध्यम से बात पहुंचाई जाए। वे नीतू को कभी ‘ना’ नहीं करते थे।

मुंबई के पाली हिल क्षेत्र में उनके बंगले का नाम ‘कृष्णा-राज’ था, जिसे तोड़कर बाईस माला बहुमंजिले के निर्माण में फिल्म शूटिंग के लिए उपकरण सहित सारी व्यवस्था का भी प्रावधान किया गया था। गोया कि फिल्म निर्माण कार्य चेंबूर से हटाकर पाली हिल लाया जा रहा था। उनकी सोच हमेशा फिल्म केंद्रित रही।
कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने भारी मात्रा में विविध प्रकार के चावल खरीदे और दीपावली के अवसर पर एक-एक किलो के पांच पैकेट मित्रों को भेंट स्वरूप भेजे। वे रिश्तों की अहमियत समझते थे। इंदरराज आनंद ने आग और संगम लिखी थी। उनका विवाह पृथ्वीराज कपूर के रिश्तेदार की कन्या से हुआ था। इंदरराज आनंद का बेटा बिट्‌टू आनंद ऋषि कपूर का बचपन का मित्र था। सितारा बनते ही ऋषि कपूर ने बिट्टू आनंद को फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित किया और अपना मेहनताना भी नहीं लिया।

फरीदा जलाल अभिनय छोड़कर अपने पति के साथ बंगलौर रहने चली गई थीं। हिना के निर्माण के समय ऋषि कपूर ने उन्हें वापस बुलाया। हिना से फरीदा जलाल की दूसरी पारी शुरू हुई। फरीदा ने बॉबी में भी काम किया था। ऋषि कपूर को जल्दी गुस्सा आ जाता था, परंतु गुबार निकलते ही वे क्षमा मांग लेते थे। उनका कद सामान्य से कम था, परंतु अभिनय क्षेत्र में वे टिंगू कभी नहीं रहे। ज्ञातव्य है कि ‘आ अब लौट चलें’ उनके द्वारा निर्देशित फिल्म थी।



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We will not live, you will not live, we will still live




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झूठ बोलने पर हमेशा कौआ नहीं काटता

उन्होंने अपनी मां से झूठ बोला कि उन्हें दिल्ली में टीचर की नौकरी मिल गई है, जबकि उनका चयन दिल्ली में ही नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के एक्टिंग कोर्स में हो गया था। क्या आप जानते हैं, उन्होंने झूठ क्यों बोला? क्योंकि वे मां को दु:ख नहीं पहुंचाना चाहते थे कि उन्होंने ऐसा कॅरिअर चुना जो शायद मां को पसंद न आए।

ये व्यक्ति थे बॉलीवुड एक्टर इरफान खान, जिनका 29 अप्रैल को देहांत हो गया। जब इरफान जैसे लोग पसंद के कॅरिअर में सफल होते हैं, तो वे अच्छाई फैलाना जारी रखते हैं। वे अपने दोस्तों को परेशान नहीं देख सकते। फिल्म क़िस्सा की शूटिंग के दौरान जेनेवा के फिल्ममेकर, डायरेक्टर अनूप सिंह सेट से चले गए, क्योंकि एक निर्माता के साथ उन्हें कोई समस्या हो गई थी। उस रात इरफान उनके कमरे में अपने म्यूजिक सिस्टम के साथ गए। उन्होंने इसे खुद जमाया और अनूप के लिए नुसरत फतेह अली खान के गाने बजाए। गाने कई घंटे चले। जब सुबह-सुबह उन्होंने अनूप को मुस्कुराते देखा, तभी वे वहां से गए।
मुझे कुछ ऐसा ही चेन्नई के एम्बुलेंस ड्राइवर एस चिन्नाथंबी के मामले में दिखा। उसने पूरे परिवार से झूठ बोला कि वह तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिला जा रहा है। जबकि वह मिजोरम की 3,450 किमी की यात्रा पर जा रहा था, जहां से लौटने में उसे 8 दिन लगते। वह यह बताकर अपने करीबियों को दु:खी नहीं करना चाहता था कि इस महमारी के बीच वह जान जोखिम में डाल रहा है।
वह दरअसल विविअन रेमसंगा के परिवार को उनके बेटे को दफनाने का मौका देना चाहता था! इस 23 अप्रैल को 28 वर्षीय विविअन की हार्ट अटैक से अपने अपार्टमेंट में ही मृत्यु हो गई। चूंकि देश में लॉकडाउन है, इसलिए उसके शव को घर ले जाना लगभग असंभव था, क्योंकि अभी हवाई रास्ते तक बंद हैं।

जब परिवार की मदद को कोई आगे नहीं आया तो चिन्नाथंबी और साथी ड्राइवर पी जयनध्रन के साथ विविअन के दोस्त राफेल एवीएल मलच्चहनहिमा ने विविअन का शव लेकर मिजोरम पहुंचने के लिए 6 राज्यों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, प. बंगाल, असम और मेघालय को पार करने की जिम्मेदारी ली। ऐसी यात्राओं के लिए तीन लोगों की जरूरत होती है, क्योंकि अगर एक आराम करता है तो दूसरा ड्राइवर से बात करता रहे, ताकि वह गाड़ी चलाते हुए सो न जाए।
वे अनगिनत नाकेबंदियों से गुजरे, कई पुलिसवालों ने पूछताछ की और हर सुनसान हाईवे पर जांच हुई। हाईवे पर सभी ने उन्हें शकभरी निगाहों से देखा, लेकिन मिजोरम पहुंचते ही उनका मूड अचानक बदल गया। उन्होंने देखा कि सड़क पर दोनों ओर लोग उन्हें शाबाशी दे रहे हैं, उनके साथ सेल्फी ले रहे हैं। वहीं उनके प्रयासों को मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने भी सराहा। फिर विविअन की मां आई और तीनों के हाथ पकड़कर कुछ पल के लिए खामोश खड़ी रहीं। उनकी आंखें सब कुछ कह रही थीं। यह देख रास्ते में हुई सारी परेशानियों का उनका दर्द दूर हो गया।

यह अच्छे लोगों की दर्दभरी आंखों की शक्ति होती है, जैसी इरफान की भी थी। आपको मक़बूल फिल्म का वह दृश्य याद होगा, जब इरफान बेहोश पत्नी तब्बू को आईसीयू बेड से अपनी बाहों में उठाते हैं और कहते हैं, ‘दरिया घुस आया है मेरे घर में’। मुझे नहीं पता कितने लोगों को उनका दु:ख से भावहीन हुआ चेहरा याद होगा। उनकी पत्नी ने तभी पहले बच्चे को जन्म दिया था, लेकिन तब उनकी आंखों में पुलिस एनकाउटर में मारे जाने का खौफ नजर आता है। इरफान ने यह खौफ आंखों से ही बयां कर दिया था। इरफान और फिर चिन्नाथंबी के झूठ से मुझे ऋषि कपूर की 1973 की फिल्म ‘बॉबी’ का गाना ‘झूठ बोले कौवा काटे…’ याद आ रहा है, जिनका देहांत इरफान के निधन से एक दिन बाद हुआ।
फंडा यह है कि कभी-कभी अच्छे लोग झूठ बोलते हैं, ताकि उनके करीबियों का दिल न दुखे। शायद भलाई वाला झूठ बोलने पर कौआ हमेशा नहीं काटता!

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें।



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लॉकडाउन में निकले मजदूरों की कहानी: कोई 25 दिन में 2800 किमी सफर कर घर पहुंचा, तो किसी ने रास्ते में ही दम तोड़ा

देश में कोरोना के चलते अचानक लगाया लॉकडाउन प्रवासी मजदूरों पर सबसे ज्यादा भारी पड़ा है। उन्हें जब ये पता चला की जिन फैक्ट्रियों और काम धंधे से उनकी रोजी-रोटी का जुगाड़ होता था, वह न जाने कितने दिनों के लिए बंद हो गया है, तो वे घर लौटने को छटपटाने लगे।

ट्रेन-बस सब बंद थीं। घर का राशन भी इक्का-दुक्का दिन का बाकी था। जिन ठिकानों में रहते थे उसका किराया भरना नामुमकिन लगा। हाथ में न के बराबर पैसा था। और जिम्मेदारी के नाम पर बीवी बच्चों वाला भरापूरा परिवार था। तो फैसला किया पैदल ही निकल चलते हैं। चलते-चलते पहुंच ही जाएंगे। यहां रहे तो भूखे मरेंगे।

कुछ पैदल, कुछ साइकिल पर तो कुछ तीन पहियों वाले उस साइकिल रिक्शे पर जो उनकी कमाई का साधन था।जो फासला तय करना था वह कोई 20-50 किमी नहीं बल्कि 100-200 और 3000 किमी लंबा था।

1886 की बात है। तारीख 1 मई थी। अमेरिका के शिकागो के हेमोर्केट मार्केट में मजदूर आंदोलन कर रहे थे। आंदोलन दबाने को पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें कुछ मजदूर मारे भी गए। प्रदर्शन बढ़ता गया रुका नहीं। और तभी से 1 मई को मारे गए मजदूरों की याद में मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

आज फिर 1 मई आई है। इस बार थोड़ी अलग भी है। इसलिए, मजदूर दिवस पर लॉकडाउन में फंसे, पैदल चले और अपनी जान गंवा बैठे प्रवासियों के संघर्ष और सफर की पांच कहानियां -

ये तस्वीर 27 मार्च की दिल्ली-यूपी बॉर्डर की है। लॉकडाउन लगने के दो दिन बाद ही प्रवासी मजदूर बच्चों को कंधे पर बैठाकर पैदल ही घर के लिए निकल पड़े थे।

पहली कहानी : मुंबई से 500 दूर उप्र सिर्फ बिस्किट खाकर निकले थे, घर तो पहुंचेलेकिन मौत हो गई

उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले का इंसाफ अली मुंबई में एक मिस्त्री का हेल्पर था। लॉकडाउन की वजह से काम बंद हुआ तो घर पहुंचने की ठानी। इंसाफ 13 अप्रैल को मुंबई से यूपी के लिए निकल पड़ा। 1500 किमी के सफर में ज्यादातर पैदल ही चला। बीच-बीच में अगर कोई गाड़ी मिल जाती, तो उसमें सवार हो जाता।
जैसे-तैसे 14 दिन बाद यानी 27 अप्रैल को इंसाफ अपने गांव मठकनवा तो पहुंच गया, लेकिन वहां क्वारैंटाइन कर दिया गया। उसी दिन दोपहर में इंसाफ की मौत हो गई। पत्नी सलमा बेगम का कहना था कि इंसाफ ने उसे फोन पर बताया था कि वह सिर्फ बिस्किट खाकर ही जिंदा है।

ये तस्वीर भी 27 मार्च की दिल्ली-यूपी बॉर्डर के पास एनएच-24 की है। प्रवासी मजदूरों की जो भीड़ शहरों से अपने गांव की तरफ जा रही थी। उनमें छोटे-छोटे बच्चे भी थे।

दूसरी कहानी : 1400 किमी दूर घर जाने के लिए पैदल निकला, 60 किमी बाद दम तोड़ दिया

मध्य प्रदेश के सीधी के मोतीलाल साहू नवी मुंबई में हाउस पेंटर का काम करते थे। जब देश में पहला लॉकडाउन लगा तब तक मोतीलाल मुंबई में ही रहे। लेकिन, दूसरे फेज की घोषणा होने के बाद 24 अप्रैल को वे पैदल ही घर के लिए निकल पड़े। उनका घर नवी मुंबई से 1400 किमी दूर है।

मोतीलाल के साथ 50 और प्रवासी मजदूर भी थे। मोतीलाल खाली पेट ही चल पड़े थे। उन्होंने 60 किमी का सफर तय किया ही था कि रास्ते में ठाणे पहुंचते ही उनकी मौत हो गई। उनके परिवार में पत्नी और तीन बेटियां हैं और बड़ी मुश्किल से घर का गुजारा हो पाता है।

तीसरी कहानी : दिल्ली से 1100 किमी दूर बिहार जा रहे थे, आधे रास्ते पहुंच बेहोश होकर गिर पड़े, मौत हो गई

बिहार के बेगूसराय के रहने वाले रामजी महतो दिल्ली से अपने घर के लिए पैदल ही निकल पड़े। दिल्ली से बेगूसराय के बीच की दूरी 1100 किमी है। उन्होंने 850 किमी का सफर तय भी कर लिया था। रामजी 3 अप्रैल को दिल्ली से निकले, लेकिन 16 अप्रैल को यूपी के वाराणसी में बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें एंबुलेंस में चढ़ाया ही था कि उन्होंने दम तोड़ दिया।

जिन घर वालों के पास पहुंचने के लिए रामजी बिना कुछ सोचे-समझे पैदल ही निकल पड़े थे, उन घर वालों के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे वाराणसी जाकर रामजी का शव ले सकें और उनका अंतिम संस्कार कर सकें। बाद में वाराणसी पुलिस ने ही उनका अंतिम संस्कार किया।

ये तस्वीर 30 मार्च की मुंबई-अहमदाबाद हाईवे की है। इसी रास्ते से पालघर में मजदूरी करने वाला एक मजदूर अपने पूरे परिवार के साथ भूख-प्यास की चिंता किए बगैर घर की ओर लौट रहा है।

चौथी कहानी : 300 किमी जाना था, 200 किमी चलने के बाद पुलिस के मुताबिक हार्टअटैक से मौत हो गई
39 साल के रणवीर सिंह मध्य प्रदेश के मुरैना के बादफरा गांव के रहने वाले थे। तीन साल पहले पत्नी और तीन बच्चों की परवरिश के लिए दिल्ली आ गए। यहां आकर एक रेस्टोरेंट में डिलीवरी बॉय का काम भी किया। लेकिन, लॉकडाउन की वजह से सब काम बंद हो गया। इससे रणवीर दिल्ली से मुरैना के लिए पैदल ही निकल गए।

दिल्ली से उनके गांव तक की दूरी 300 किमी के आसपास थी। वे 200 किमी तक चल भी चुके थे, लेकिन 28 मार्च को रास्ते में ही आगरा पहुंचते ही उनकी मौत हो गई। उनके घरवालों का कहना था कि रणवीर की मौत भूख-प्यास से हुई है। जबकि, पुलिस का कहना था कि पोस्टमार्टम के मुताबिक, उनकी मौत हार्ट अटैक से हुई है।

पांचवी कहानी : 25 दिन में 2800 किमी का सफर तय कर गुजरात से असम पहुंचे जादव

पैदल घर जाने वालों में एक नाम जादव गोगोई का भी है। वे असम के नागांव जिले में रहते हैं। लेकिन, मजदूरी गुजरात के वापी शहर में करते हैं। लॉकडाउन लगने के बाद 27 मार्च को जादव वापी से अपने घर आने के लिए निकल पड़े। 25 दिन में 2800 किमी का सफर तय करने के बाद, 19 अप्रैल को आखिरकार जादव अपने घर पहुंच ही गए।

46 साल के जादव चार हजार रुपए लेकर वापी से निकले थे। कभी पैदल तो कभी ट्रक वालों से लिफ्ट भी ली। ऐसा करते-करते बिहार तक आ गए। बिहार से फिर पैदल ही असम भी पहुंच गए।



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Labour Day 2020/Majdur Diwas | Latest Story On Migrant Workers Travel Death Due To Coronavirus Lockdown




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शाम के सात बजते ही मस्जिद की मीनारों से अजान तो हमेशा की तरह हुई, लेकिन सजदे में झुकने वाले सर नदारद रहे

शाम के सात बजने को हैं। रमजान का महीना है और दिल्ली के जामा मस्जिद में मगरिब की अजान होने में बस कुछ ही मिनट बाकी हैं। आम तौर पर रमजान के दिनों में जामा मस्जिद के इस इलाके में पैर रखने की भी जगह नहीं होती। करीब 15 से 20 हजार लोग हर शाम यहां रोजा खोलने और नमाज के लिए पहुंचते हैं। लेकिन इन दिनों कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन में यह पूरा इलाका सन्नाटे में डूबा हुआ है।

जामा मस्जिद के गेट नंबर 1 के बाहर दिल्ली पुलिस के कुछ जवान तैनात हैं। उनके साथ ही अर्धसैनिक बलों की एक टुकड़ी भी यहां मौजूद है। इन लोगों के अलावा सड़क पर दूर-दूर तक कोई इंसान नजर नहीं आ रहा। मुख्य सड़क पर एक-एक दुकान बंद है और एक-एक गली खाली।

दिल्ली पुलिस की एक गाड़ी अभी-अभी लगभग 40-50 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 1 नंबर गेट से तीन नंबर गेट की तरफ गई है। दशकों में शायद पहली बार ऐसा हुआ है जब इस इलाके में कोई गाड़ी इस रफ्तार से चली है। पुरानी दिल्ली का यह इलाका जिसने भी देखा है, वह समझ सकता है कि यहां किसी गाड़ी का ऐसे गुजरना कितनी गैर-मामूली घटना है। जिसने यह इलाका नहीं देखा वह इस तथ्य से अंदाजा लगा सकता है कि ये देश ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे व्यस्त इलाकों में शामिल है और यहां पैदल आगे बढ़ना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता।

17वीं सदी में बनी जामा मस्जिद देश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। सदियों से यहां रमजान के दौरान रोजेदारों की भीड़ आती रही है। मस्जिद की मीनारों से उठती अजान की आवाज के साथ ही हजारों सिर सजदे में झुकते रहे हैं। आज भी ठीक सात बजते ही अजान तो हमेशा की तरह हुई है लेकिन सजदे में झुकने वाले सर नदारद हैं। मस्जिद के बाहर सड़क पर बैठे एक बेघर शख्स के अलावा आज यहां ऐसा कोई नहीं है जो अजान होने पर रोजा खोलता नजर आया हो।

गुरुवार की शाम 7 बजे जब जामा मस्जिद की मीनारों पर लगे माइकों से अजान की आवाज आई तो इस बेघर शख्स ने फुटपाथ पर ही कालीन बिछाकर नमाज अता की। लॉकडाउन के चलते मस्जिद में लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध है।

पुरानी दिल्ली के रहने वाले अबू सूफियान बताते हैं, ‘रमजान के दौरान मटियामहल से लेकर तिराहा बैरम खां तक बड़ा जबरदस्त बाजार सजता रहा है। खाने-पीने की तमाम दुकानों से लेकर कपड़ों और जूतों तक की दुकानें यहां लगती हैं जिनमें खरीददारी के लिए लोग देश भर से आते हैं। यह बाजार सिर्फ दिन में ही नहीं बल्कि रात भर भी लगा करता था और चौबीसों घंटे रौनक रहती थी। इस रौनक की कमी खलती तो है लेकिन यह लॉकडाउन बेहद जरूरी भी है।’

लॉकडाउन ने पुरानी दिल्ली में होने वाली रमजान के बाजारों की रौनक को ही नहीं बल्कि ऐसी कई परंपराओं पर भी अल्पविराम लगा दिया है जो बीते कई दशकों से यहां होती आई थी। मसलन रोजा खुलने के वक्त मस्जिद से हरा झंडा फहराया जाता था, फिर पटाखों का शोर होता था और इसके साथ ही सबको मालूम चलता था कि इफ्तार का वक्त हो गया है। इस बार ऐसा कुछ नहीं है, सिर्फ मस्जिद की अजान ही है जिसे लोग अपने-अपने घरों में सुनकर ही रोजा खोल रहे हैं।

अबू सूफियान बताते हैं, ‘सहरी के वक्त गली-गली में जाकर लोगों को जगाने वाले लोग खास तौर से आया करते थे। इनके अलावा कई लोग रात के दो-ढाई बजे तक नात-ए-पाक गाते थे जिसे सुनना बेहद दिलचस्प होता था। मस्जिद के अंदर भी रात भर रौनक रहती थी क्योंकि ईशा की नमाज के बाद तरावीह पढ़ने का दौर चलता था। तरावीह वो लोग पढ़ते हैं जो हफिजी कुरान होते हैं, यानी जिन्हें पूरी कुरान कंठस्थ होती है। उनके पीछे आम लोग पढ़ते हैं। लोग साल भर इस मौके का इंतजार करते हैं।’

पुरानी दिल्ली का यह इलाका खान-पान के लिए खास तौर से जाना जाता है। मस्जिद के एक नंबर गेट के ठीक सामने वाली गली में मौजूद करीम और अल-जवाहर जैसी दुकानें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम बना चुकी हैं। इसके अलावा तौफीक की बिरयानी, असलम का बटर चिकन, बड़े मियां की खीर और चंदन भाई का ‘वेद प्रकाश बंटा लेमन’ खास तौर से लोगों को आकर्षित करता रहा है। मजेदार है कि रमजान के दौरान पूरी रात बंटा-लेमन बेचने वाले चंदन भाई इसे गंगाजल मिलाकर तैयार करते हैं और दिन भर रोजे में रहने वाले हजारों खुश्क गले रात भर इसकी ठंडक से तरावट पाते हैं।

रमजान के वक्त जामा मस्जिद के आस-पास इन गलियों में दुकानें सजी होती थीं, इन दिनों सब-कुछ बंद है।

जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर उज्मा अजहर अली बताती हैं, ‘रमजान के दौरान पुरानी दिल्ली में कई फूड वॉक हुआ करती हैं जिनके लिए लोग बहुत पहले से बुकिंग शुरू कर देते हैं। इस दौरान कई लोग तो सिर्फ और सिर्फ नहारी बनाया करते हैं और पूरे साल की कमाई इसी दौरान करते हैं। शीरमाल, शाही टुकड़ा और खजला-फेनी जैसे व्यंजन भी रमजान में खास तौर से बनाए जाते हैं और लोग दिल्ली के कोने-कोने से यहां इनका लुत्फ लेने आते हैं। इसके अलावा एक शेक वाला भी पुरानी दिल्ली में खासा मशहूर है जहां रमजान के दौरान खूब भीड़ हुआ करती है। फलों से बनने वाला वह शरबत ‘प्यार मोहब्बत का शरबत’ के नाम से पुरानी दिल्ली में मशहूर है।’

ये सारी रौनक इस साल सिर्फ लोगों की यादों तक ही सिमट गई है। लेकिन लोगों में इसे लेकर कोई नाराजगी का भाव नहीं दिखता। जामा मस्जिद के ठीक सामने ही रहने वाले मोहम्मद अब्दुल्ला कहते हैं, ‘इस वक्त जब पूरी दुनिया ही ठप पड़ी है तो पुरानी दिल्ली क्यों न हो। ये महामारी ही ऐसी है कि इससे निपटने के लिए घरों में कैद रहना जरूरी है। ये महामारी निपट जाए तो रौनक तो अगले साल फिर से लौट ही आएगी। उन लोगों के नुकसान की चिंता जरूर होती है जो पूरे साल रमजान का इंतजार किया करते थे कि इस दौरान कुछ कमाई हो सके।’

रमजान के दौरान पुरानी दिल्ली में सैकड़ों करोड़ का कारोबार होता है। असंगठित क्षेत्र के इस कारोबार का कोई सटीक आंकड़ा मिलना मुश्किल है लेकिन इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां छोटी-मोटी दुकान चलाने वाला आदमी भी रमजान के दौरान औसतन दस हजार रुपए का कारोबार हर दिन करता है।

मटियामहल के रहने वाले सैय्यद आविद अली कहते हैं, ‘ईद नजदीक आती है तो हर कोई खरीददारी करता है। घर के बच्चे से लेकर बूढ़े तक, सभी उस दिन नए कपड़े पहनते हैं। जूतों से लेकर रूमाल तक नया रखते हैं। जाहिर है कि इतनी खरीददारी होती है तो इतनी ही बिक्री भी होती है। बहुत लोगों के लिए रमजान का महीना पूरे साल की कमाई का समय होता है। उन लोगों के लिए ये वक्त बेहद मुश्किल बन पड़ा है।’

शाम को सुनसान नजर आ रही पुरानी दिल्ली की इन गलियों मेंइन दिनों बस कुछ देर की ही चहल-पहल हो रही है। कई बार तो यह चहल-पहल भगदड़ में भी बदल जाती है। कोरोना संक्रमण के चलते यहां कई इलाकों को ‘रेड जोन’ घोषित किया गया है लिहाजा पूरे क्षेत्र में पाबंदियां कुछ ज्यादा हैं। इन दिनों पुरानी दिल्ली के अधिकतर इलाकों में सिर्फ तीन या चार घंटों के लिए फल-सब्जी जैसी जरूरी चीजों की दुकानें खुल रही हैं। सीमित वक्त के खुल रही इन दुकानों पर कई बार बहुत ज्यादाभीड़ हो जाती है।

मोहम्मद अब्दुल्ला बताते हैं, पहले यहां दुकानें करीब चार घंटे सुबह और चार घंटे शाम को खुल रही थी। लेकिन बीते कुछ समय से सिर्फ दोपहर तीन से शाम के छह बजे तक ही दुकान खुल रही हैं। इस कारण कभी इतनी भीड़ हो जाती है कि भगदड़ जैसा माहौल बन पड़ता है। दो दिन पहले तो पुलिस ने यहां लाठी चार्ज करके भीड़ को हटाया है।’

पुरानी दिल्ली में रमजान की ऐतिहासिक रौनक को कोरोना संक्रमण ने इस साल फीका कर दिया है। लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो इसे सकारात्मक नजरिए से देख रहे हैं और धार्मिक पहलू से इसे बेहतर मान रहे हैं। ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के मुखिया डॉक्टर उमेर अहमद इलयासी कहते हैं, ‘इससे बेहतर क्या होगा कि इस बार लोग पूरा महीना घरों में बंद हैं तो इबादत को गंभीरता से ले रहे हैं।

जामा मस्जिद को भी इबादत के लिए मशहूर होना चाहिए, लेकिन वो इलाका खाने-पीने के लिए ज्यादा मशहूर है। वहां लोग इबादत से ज्यादा खाने-पीने पहुंचते थे। इस बार कुछ नया अनुभव करने का मौका है। लोगों को घरों में रह कर सच्चे मन से इबादत करनी चाहिए। रमजान का महीना आखिर इबादत का ही होता है।



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17वीं सदी में बनी जामा मस्जिद देश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। रमजान के दिनों में रोजेदारों की भीड़ के बीच पैरों को यहां बमुश्किल जगह मिल पाती थी।




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भारत में हर 10 कैंसर मरीजों में से 7 की मौत हो जाती है, यहां एक डॉक्टर पर 2000 मरीजों का बोझ होता है

पिछले दो दिनों में बॉलीवुड ने अपने दो बेहतरीन कलाकार खो दिए। दोनों को वह बीमारी थी, जो दुनिया की हर छठीमौत का कारण बनती है।ऋषि कपूर को ब्लड कैंसर था और इरफान खान को ब्रेन कैंसर। दोनों का इलाज देश में भी चला और विदेश में भी, लेकिन इलाज के 2 साल के अंदर ही दोनों की मौत हो गई।

हर साल देश और दुनिया में कैंसर से लाखों मौत होती हैं। डबल्यूएचओ के एक अनुमान के मुताबिक, 2018 में कैंसर से कुल 96 लाख मौतें हुईं थीं। इनमें से 70% मौतें गरीब देश या भारत जैसे मिडिल इंकम देशों में हुईं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में कैंसर से 7.84 लाख मौतें हुईं। यानी कैंसर से हुईं कुल मौतों की 8% मौतें अकेले भारत में हुईं।


जर्नल ऑफ ग्लोबल ऑन्कोलॉजी में 2017 पब्लिश हुईएक स्टडी के मुताबिक, भारत में कैंसर से मरने वालों की दर विकसित देशों से लगभग दोगुनी है। इसके मुताबिक भारत में हर 10 कैंसर मरीजों में से 7 की मौत हो जाती है जबकि विकसित देशों में यह संख्या 3 या 4 है। रिपोर्ट में इसका कारण कैंसर का इलाज करने वाले डॉक्टरों की कमी बताया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2000 कैंसर मरीजों पर महज एक डॉक्टर है। अमेरिका में कैंसर मरीजों और डॉक्टरों का यही रेशियो 100:1 है, यानी भारत से 20 गुना बेहतर।


कम डॉक्टर होने के बावजूद भारत में कैंसर के कई बड़े अस्पताल हैं, जहां स्पेशलिस्ट और सुविधाएं बेहतर हैं। खाड़ी देशों समेत कई अफ्रीकी देशों के मरीज भी यहां इलाज के लिए आते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि विकसित देशों के मुकाबले में भारत में कैंसर का बेहद सस्ता इलाज होता है। लेकिन इसके बावजूद भारत से कई लोग विदेशों में कैंसर का इलाज करवाना पसंद करते हैं।


ऋषि कपूर अपने इलाज के लिए न्यूयॉर्क गए थे। इसी तरह इरफान खान का इलाज लंदन में चला था। बॉलीवुड में यह फेहरिस्त लंबी है। इसमें सोनाली बेंद्रे और मनीषा कोइराला और क्रिकेटर युवराज सिंह जैसे सितारे भी शामिल हैं, जिनका इलाज अमेरिका के ही कैंसर अस्पतालों में हुआ।


एक्सपर्ट मानते हैं कि कैंसर के इलाज में भारत कहीं भी विकसित देशों से पीछे नहीं हैं लेकिन जब लोगों के पास पैसा होता है तो वे और बेहतर के विकल्प खोजते रहते हैं। हां यह जरूर है कि भारत में सभी मरीजों को सही इलाज नहीं मिल पाता इसलिए विकसित देशों के मुकाबले डेथ रेशियो ज्यादा है, लेकिन जिन्हें भी सही इलाज मिल जाता है, तो ठीक होने की संभावना विकसित देशों के ही बराबर ही होती है।

भारत: साल 2018 में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में कैंसर के मामले कम रहे, लेकिन मौतें ज्यादा हुईं
डब्लूएचओ की ही रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में साल 2018 में महिलाओं में कैंसर के 5.87 लाख मामले आए थे जबकि पुरुषों में यह संख्या 5.70 लाख थी। हालांकि कैंसर से हुईं मौतों के मामले में पुरुषों की संख्या महिलाओं से 42 हजार ज्यादा थी। 2018 में कैंसर से 4.13 लाख पुरुषों की मौत हुई जबकि महिलाओं की संख्या 3.71 लाख थी। पुरुषों में जहां सबसे ज्यादा मामले मुंह और फेफड़ों के कैंसर के आए, वहीं महिलाओं में सबसे ज्यादा मामले ब्रेस्ट और गर्भाशय के कैंसर के रहे।

पुरुषों में

कैंसर

नए मामले

महिलाओं में

कैंसर

नए मामले

मुंह

92 हजार

ब्रेस्ट

1.62 लाख

फेफड़े

49 हजार

गर्भाशय

97 हजार

अमाशय

39 हजार

अंडाशय

36 हजार

मलाशय

36 हजार

मुंह

28 हजार

आहारनली

34 हजार

मलाशय

20 हजार

सोर्स: ग्लोबल कैंसर ऑब्जर्वेटरी, डब्लूएचओ (आंकड़े-2018)

-भारत में साल 2018 में ब्रेस्ट कैंसर से 87 हजार महिलाओं की मौत हुई यानी हर दिन 239 मौत। इसी तरह गर्भाशय के कैंसर से हर दिन 164 और अंडाशय के कैंसर से हर दिन 99 मौतें हुईं।


दुनिया : 18% मौतें फेफड़ों के कैंसर से
साल 2018 में कैंसर के कुल 1.81 करोड़ मामले आए। इसमें पुरुषों के 94 लाख और महिलाओं के 86 लाख मामले थे। मौतें भी पुरुषों में ज्यादा देखी गई। 53.85 लाख पुरुषों की कैंसर से मौत हुई, वहीं महिलाओं की संख्या 41.69 लाख रही। पुरुषों में सबसे ज्यादा मामले फेफेड़ों, प्रोस्टेट और मलाशय कैंसरके आए। वहीं महिलाओं में ब्रेस्ट, मलाशय और फेफड़ों के कैंसर के ज्यादा केस थे।

कैंसर

मामले मौतें

फेफड़े

20.93 लाख

17.61 लाख

ब्रेस्ट

20.88 लाख

6.26 लाख

प्रोस्टेट

12.76 लाख

3.59 लाख

आंत

10.96 लाख

5.51 लाख

अमाशय

10.33 लाख

7.82 लाख

सोर्स: ग्लोबल कैंसर ऑब्जर्वेटरी, डब्लूएचओ (आंकड़े-2018)

- दुनियाभर में साल 2018 में कैंसर की22% मौतों का कारण महज तंबाकू था। गरीब और मिडिल इनकम देशों में कैंसर के25% मामले हैपेटाइटिस और एचपीवी जैसे वायरस इंफेक्शन के कारण हुए।



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In India, 7 out of every 10 cancer patients die, here a doctor carries a burden of 2000 patients.




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सिनेमा के कवि सत्यजीत रे की जन्म शती

सत्यजीत रे का जन्म दो मई 1921 को हुआ था और अगले वर्ष उनकी जन्मशती दुनियाभर में मनाई जाएगी। सत्यजीत रे एक प्रकाशन संस्था में पुस्तक सज्जा का काम करते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के एक संस्करण का कवर उन्होंने डिजाइन किया था। यह किताब विदेशों के पाठ्यक्रम में शामिल है। प्रकाशन संस्था का हेड ऑफिस लंदन में था। सत्यजीत रे ने कुछ समय लंदन में काम किया। कलकत्ता में ‘द रिवर’ नामक फिल्म की शूटिंग सत्यजीत रे ने देखी और इस माध्यम के प्रति उनकी उत्सुकता जागी। उन्होंने फिल्म माध्यम पर लिखी हुई किताबें पढ़ीं। विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ से प्रेरित पटकथा लिखी। उनकी लिखी पटकथाओं में शब्दों से अधिक रेखा चित्र बनाए जाते थे। उन्होंने नए कलाकारों और तकनीशियंस का चयन किया। सोमवार से शुक्रवार वे कंपनी के दफ्तर में काम करते थे। शनिवार और इतवार को ही शूटिंग करते थे। इस तरह वे सप्ताहांत फिल्मकार कहलाए। उनके सीमित साधनों से फिल्म की तीन चौथाई शूटिंग पूरी की गई। उनके पिता के मित्र बी.सी. रॉय तत्कालीन सीएम थे। बी.सी. रॉय की सिफारिश पर उन्हें बंगाल सरकार से ‘पाथेर पांचाली’ को पूरा करने का धन प्राप्त हुआ। पारंपरिक वितरण व्यवस्था में सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ के लिए कोई स्थान नहीं था। बंगाल सरकार की सिफारिश पर फिल्म को कान फिल्म महोत्सव में भेजा गया।
समारोह आयोजकों ने इस फिल्म का प्रदर्शन प्रात: 10 बजे रखा। जूरी सदस्य देर रात तक चली दावत के कारण उनींदे से फिल्म देखने महज रस्म अदायगी की खातिर गए। फिल्म शुरू होते ही सदस्य सो गए। जूरी सदस्य आन्द्रा वाजा जागते रहे। फिल्म समाप्त होने पर उन्होंने अपने साथियों को कॉफी पीकर तरोताजा होने की सलाह दी और फिल्म दोबारा चलाई गई। जूरी सदस्यों ने एकमत से ‘पाथेर पांचाली’ को सर्वकालिक महान फिल्म माना। इस तरह एक जागते रहने वाले मनुष्य आन्द्रा वाजा ने विश्व सिनेमा को एक अजर अमर फिल्म प्रदान की। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्यजीत रे से कहा कि वे पंडित नेहरू पर वृत्तचित्र बनाएं। सत्यजीत रे ने कहा कि उन्हें राजनीति में दिलचस्पी नहीं है। कुछ समय बाद सत्यजीत रे ने विदेशी मुद्रा के लिए आवेदन किया। पहली मुलाकात के समय मौजूद अफसर ने आवेदन अस्वीकृत किया, यह सोचकर कि इंदिरा गांधी को अच्छा लगेगा। फिल्म समीक्षक चिदानंद दासगुप्ता ने इंदिरा गांधी से बात की। इंदिराजी ने उस अफसर को लताड़ा और सत्यजीत रे को विदेशा मुद्रा उपलब्ध करा दी। ज्ञात हो कि इंदिरा गांधी के निकट रही नरगिस दत्त ने राज्यसभा में कहा कि सत्यजीत रे की फिल्मों में भारत की गरीबी का प्रदर्शन होता है और विदेशी वाह-वाह करते हैैं। इंदिरा गांधी ने नरगिस को अपना बयान वापस लेने का आदेश दिया। मुद्दा तो गरीबी दूर करने का है। फिल्म में उसे दिखाना कोई मुद्दा ही नहीं है।
यह एक रोचक जानकारी है कि ‘पाथेर पांचाली’ के निर्माण के लिए किशोर कुमार ने भी सत्यजीत रे को पांच हजार रुपए दिए थे। किशोर कुमार की पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता के परिवार का सत्यजीत रे से दूरदराज का रिश्ता था। जब भी सत्यजीत रे ने पांच हजार रुपए लौटाने का प्रयास किया, किशोर कुमार ने इनकार कर दिया। वे इस महान फिल्म से इसी नाते जुड़े रहना चाहते थे। किशोर कुमार की ‘दूर गगन की छांव में’ सत्यजीत रे से प्रभावित व प्रेरित फिल्म है। राज कपूर ने सत्यजीत रे की ‘गोपी गायेन बाघा बायेन’ हिंदी में बनाना चाहा तो बात इसलिए नहीं बनी कि सत्यजीत रे अपनी बंगाली फिल्म के कलाकारों को लेना चाहते थे, परंतु राज कपूर चाहते थे कि मुंबई के कलाकारों के साथ फिल्म बनाई जाए। जीवनभर सिने इतिहास रचने वाले ने अपनी मृत्यु पूर्व भी ऑस्कर के इतिहास में पहली बार परिवर्तन कराया। सत्यजीत रे को ऑस्कर देने के लिए कमेटी के अध्यक्ष कलकत्ता आए। सत्यजीत रे बीमारी के कारण यात्रा नहीं कर सकते थे। मानवीय करुणा के गायक की जन्मशती तक संसार कोरोनामुक्त हो जाए। इदन्नमम्।



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Birth centenary of cinema poet Satyajit Ray




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आने वाले दिनों में आंत्रप्रेन्योरशिप नई नौकरी होगी

कु छ दिन पहले मुझे वॉट्सएप पर एक अनजान नंबर से मैसेज आया। मुझे यह समझने में कुछ सेकंड लगे कि मैसेज उस सब्जीवाले का था, जो लॉकडाउन के बाद से मेरी कॉलोनी में आकर सब्जी बेच रहा है। वह बस यह जानना चाहता था कि क्या मैं सब्जी खरीदना चाहता हूं और अगर हां, तो क्या-क्या चाहिए। वॉट्सएप पर फोटोज थीं, जिन पर रेट भी लिखे थे। तब से ऐसा रोज होने लगा और कल के मैसेज में आम खरीदने का विकल्प भी था। जैसे ही मैंने मैसेज वापस भेजा, उसने मेरा सामान पैक किया और मुझे बिल भेज दिया। जब उसने सामान मेरे घर पहुंचा दिया और मेरी पत्नी ने उसकी क्वालिटी जांचकर धो लिया तो मैंने सब्जी वाले को किसी एप से पैसे भेज दिए। अगर कुछ सब्जियों की क्वालिटी मेरी पत्नी को ठीक नहीं लगती है, तो वह बिना कोई सवाल उठाए उन्हें वापस ले जाता है।
इस हफ्ते इरफान और ऋषि के गम में डूबे मेरे शहर से दूर जुड़वां शहर हैदराबाद और सिंकदराबाद में डाकिए कई रहवासियों के घर बंगानापल्ले आम पहुंचा रहे हैं। इसके लिए तेलंगाना के स्टेट हॉर्टिकल्चर डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने भारतीय डाक के साथ अनुबंध किया है, जिसके तहत स्थानीय रहवासी वॉट्सएप पर ऑर्डर देते हैं और यूपीआई एप्स, गूगल पे या फोन पे से पेमेंट कर देते हैं। अब वापस मुंबई आते हैं। यहां भारतीय डाक सुनिश्चित कर रही है कि गोवा, सिंधुदुर्ग और रत्नागिरि के किसानों द्वारा उगाए गए जीआई टैग वाले अल्फांसो आम ग्राहकों तक पहुंचें। इसके लिए गाड़ियों का एक काफिला बनाया है और इसे ‘इंडिया पोस्ट किसान रथ’ का नाम दिया है। अब तक कई टन आम ग्राहकों तक पहुंच चुके हैं।
इस बीच काम तलाश रहे गोवा के मोटर साइकिल पायलट रोजी-रोटी के लिए होम डिलीवरी पर नजर जमाए हुए हैं। जी हां, लॉकडाउन के बाद से पणजी के मोटरसाइकिल पायलट्स के पास काम नहीं है, साथ ही सोशल डिस्टेंसिंग गाइडलाइंस के मुताबिक अभी दोपहिया वाहन पर पीछे सवारी नहीं बैठा सकते। राज्य के गोवा मोटरसाइकिल टैक्सी राइडर्स एसोसिएशन में 417 मोटरसाइकिल पायलट पंजीकृत हैं। अब वे सरकार से खाने और दवाई की डिलीवरी और घर में फंसे बुजुर्गों के लिए रोजमर्रा का सामान पहुंचाने की अनुमति देने की मांग कर रहे हैं।

वे सभी पहले से ही ये काम कर रहे हैं, लेकिन अब आधिकारिक अनुमति चाहते हैं।
कभी एक रुपए भी कम न करने वाले मेरे सब्जी वाले से लेकर गोवा के मोटरसाइकिल पायलट्स तक के रवैये में आए बदलाव और भारतीय डाक के डाकियों की बदली भूमिका से मुझे दो विपरीत दृष्टिकोण याद आए। पहला है, महात्मा बुद्ध के ‘अष्टांग मार्ग’ में से एक ‘सम्यक जीविका’ (सम्यक यानी सही), जो ऐसा पेशा अपनाने को कहता है, जिसमें इंसानों और प्रकृति को शारीरिक या नैतिक रूप से नुकसान न पहुंचता हो।
दूसरा है, अर्थशास्त्र के पितामह एडम स्मिथ का दृष्टिकोण, जिन्होंने कहा था, ‘हमें भोजन किसी कसाई, शराब बनाने वाले या बेकरी वाले की दया से नहीं मिलता है, बल्कि यह उनके खुद के हित के लिए किए गए कार्यों का प्रतिफल है।’

सब्जी वाले से लेकर, डाकिए जैसे सरकारी कर्मचारी तक, सभी नए आइडिया के साथ खुद में बदलाव ला रहे हैं, क्योंकि उन सभी को रोजी-रोटी कमानी है और नौकरी बचानी है। यह अब खुला सच है कि कुछ नौकरियां जाएंगी। लेकिन इसी के साथ आंत्रप्रेन्योरशिप के रास्ते से नई नौकरियां भी उभरेंगी। इसलिए यह खुद को डूबने से बचाने और टिके रहने की दिशा में पहला कदम है। और इसके लिए ‘खुद के हित’ के बारे में सोचना गलत नहीं है, जैसा कि एडम स्मिथ ने कहा। लेकिन अगर आप इसमें थोड़ी ‘सही जीविका’ का विचार भी जोड़ दें, जैसा महात्मा बुद्ध चाहते थे, तो यह सोने पर सुहागा हो जाएगा।
फंडा यह है कि आने वाले दिनों में आंत्रप्रेन्योरशिप नई नौकरी होगी। इससे पहले कि देर हो जाए, आंत्रप्रेन्योरशिप के इस नए विचार को चुनिए।

मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें।



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बाहर अभाव, लेकिन भीतर आनंद ही आनंद है

कोरोना के इस दौर में कुछ शब्द जिंदगी में ऐसे उतर गए हैं कि हैं तो हितकारी, पर उनकी बात करने पर एक अजीब सी निगेटिविटी उतर आती है। क्वारेंटाइन, आइसोलेशन, टेस्टिंग, सोशल डिस्टेंसिंग, हॉट स्पॉट, रेड जोन और सबसे विकराल लॉकडाउन। ये सारे शब्द हमारे हित के लिए हैं, पर आज ऐसा लगता है इनका उच्चारण करो तो एक सिहरन सी आ जाती है शरीर में। तो क्यों न अब कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करें जिनमें जीवन के संदेश हों। अभी कोरोना के दौर के जो शब्द हैं, ये जीवन बचाने के हैं, लेकिन कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भी कीजिए जो जीवन जीने के हैं। जैसे- कोई पूछे कैसे हैं?

तो कहिएगा अभाव के आनंद हैं। कोई प्रश्न करे- क्या करेंगे? तो आप कहिए खुश रहेंगे-खुश रखेंगे। अगर पूछा जाए- क्या सोच रहे हैं? तो कहिए- कुछ हम करें-कुछ होने दें। कोई पूछ ले- क्या कर रहे हैं इन दिनों? तो कहिएगा- कर हम रहे हैं-करा कोई और रहा है।

जब आप के कृत्य में ‘मैं’ का बोध समाप्त हो जाए तो इसे निष्कामता कहते हैं और जिसके भीतर निष्कामता उतरी, उसे कोई अशांत नहीं कर सकता। सालों मेहनत करके आपने जो भी साधन, सुविधाएं अर्जित की, आज वो कोई काम नहीं आ रही हैं। तो अपने आप को समझाइए कि यह जो अभाव का दौर आया है, ये सब बाहर ही बाहर है। भीतर तो सदैव से आनंद है। अभाव के आनंद को जितना अच्छे से समझ लेंगे, आप कोरोना के साइड इफेक्ट से उतना ही बचे रहेंगे।



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इस समय आपके हर विचार, हर शब्द में आशीर्वाद होना चाहिए

घर में हम अपने परिवार के साथ बैठे हैं, आपस में बातचीत कर रहे हैं। एक-दूसरे को बीच-बीच में याद भी दिला रहे है। पूछ रहे हैं- बच्चे ने हाथ धोए- गुड। उसे बस इतना ही कहना है। ये नहीं कहना कि हाथ धोओ नहीं तो आपको वायरस पकड़ लेगा। अपने बच्चे को आशीर्वाद दीजिए, दुआ दीजिए। याद करिए जब वो बच्चा घर से बाहर जाता था तो आप कहते थे कि ध्यान से गाड़ी चलाना। लेकिन अगर कोई कहे कि ध्यान से गाड़ी चलाओ नहीं तो एक्सीडेंट हो जाएगा। यह आशीर्वाद नहीं है। आपने उसे जाते-जाते एक्सीडेंट शब्द बोलकर क्यों भेजा? आपके संकल्पों में एक्सीडेंट क्यों है?

इसी तरह कहिए- हाथ धो लो। यह मत कहिए- तुम्हें पता है कोरोना कितना बढ़ गया है। तुम्हें हो गया तो घर में औरों को हो जाएगा। ध्यान रखिए संकल्प से सिद्धि होती है। जैसे ही कोई घर में नकारात्मक बोलना शुरू करे तो आपकी जिम्मेदारी है कि उसको याद दिलाना कि संकल्प सिद्ध होते हैं, ध्यान से बात करिए। क्योंकि हमें समाज से डर को खत्म करना है, इम्युनिटी सिस्टम को बढ़ाना है। हमें इस वायरस को खत्म करना है तो हमें यही विचार उत्पन्न करना पड़ेगा।

ब्रह्माकुमारीज में हृदय के रोगियों के लिए एक प्रोजेक्ट चलाया जाता है। जिसमें पॉजिटिव संकल्प द्वारा हार्ट के ब्लॉकेज को खोला जाता है। धमनी ब्लॉक है, लेकिन लाइफ स्टाइल का ध्यान रखते हैं। लेकिन, विचार क्या उत्पन्न करते हैं? ध्यान के द्वारा स्वयं को परमात्मा से जोड़ कर विजुअलाइज करते हैं कि हार्ट की ब्लॉकेज साफ हो रही है। उस समय हम यही संकल्प करते हैं कि मैं पूरी तरह स्वस्थ हूं, मैं निरोगी हूं। अभी बीमार हैं, लेकिन उस बीमारी को खत्म करना है।

धमनी ब्लॉक है, लेकिन विचार यह उत्पन्न करना है कि वो ब्लॉकेज खुल रहे हैं, हमें वो सोचना है जो हम सच बनाना चाहते हैं। इसे अगर हम बार-बार रिवाइज करेंगे तो इससे हमारी शब्दावली बदल जाएगी। अगर आपने इतना ध्यान रखा तो आधे से ज्यादा डर को तो यही खत्म कर देगा। फिर हम अपनी सोच को बदलेंगे। किसी को ध्यान रखने के लिए बोलिए, लेकिन दुआ देकर बोलिए। आशीर्वाद देकर बोलिए, कभी किसी को डराकर मत बोलिए। आपने पॉजिटिव सोच के द्वारा घर में जो उच्च ऊर्जा उत्पन्न की उससे बच्चे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं। आज हमें जानकारी है, नॉलेज है, लेकिन बच्चे के अंदर हम कितना डर पैदा कर रहे हैं। हाथ धोओ नहीं तो कुछ हो जाएगा। इससे बच्चों के अंदर घबराहट उत्पन्न हो जाएगी। इसलिए यह समय है जब हमारे हर विचार, हर शब्द में आशीर्वाद होना चाहिए। यानी आप ठीक हैं, आप निरोगी हैं, आप निडर हैं और आप हमेशा रहेंगे।
सोच का असर तो हमेशा होता है। जब हम कहते हैं संकल्प से सिद्धि... तो इसका मतलब है कि आपने एक विचार उत्पन्न किया और वह सिद्ध हो जाएगा। मैंने एक विचार किया कि मैं गिर सकती हूं। मैं बहुत बार वही सोचती हूं। बहुत बार वही बोलती हूं। फिर थोड़ी देर के बाद मेरे आसपास के लोग भी वैसा ही सोचना और बोलना शुरू कर देते हैं। तो हमारे उस संकल्प के सिद्ध होने के मौके कई गुना बढ़ जाते हैं। इस समय सिर्फ हमारी अकेले की सोच वो नहीं चल रही है। ये सामूहिक संचेतना भी हमारे ऊपर हावी हो रही है। थोड़ी देर हम उसे दूर करना भी चाहते हैं, लेकिन आप देखिए हम फिर भी उसके प्रभाव में आ जाते हैं। क्योंकि यह सिर्फ आपकी समस्या नहीं है। यह पूरे विश्व की समस्या है। इस समय पूरे विश्व की ऊर्जा एक जैसी है।
पहले ज्यादातर हमारी समस्या अपनी हुआ करती थी या ज्यादा से ज्यादा हमारे दफ्तर की हुआ करती थी या फिर हमारे घर की हुआ करती थी। आज जब एक वैश्विक समस्या है तो पूरे विश्व की सोच भी एक जैसी है। हम अपने आपको पांच मिनट उधर से हटाते हैं तो देखते हैं कि मैं नहीं सोच रही हूं तो कोई और सोच रहा है। हम नहीं बात कर रहे हैं तो पड़ोस में कोई और बात कर रहा है। हम इस बीमारी से दूर होने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन फिर पांच मिनट के बाद हम वही बात करने लगते है। मतलब हम उस संक्रमण को कैच कर रहे हैं।

भावनात्मक संक्रमण उसे कैच कर रहा है। इसलिए इस समय हमारा विचार सिर्फ औसत नहीं हो सकता। हम अपने आपका ध्यान हटाने के लिए थोड़ी देर टीवी पर धारावाहिक या फिल्म देख लेते हैं। लेकिन उसकी ऊर्जा क्या है? अगर उसकी ऊर्जा में वायरस की बात नहीं है, लेकिन किसी और बात की वजह से हिंसा है, एंग्जायटी है, डर है, अपराध है, तनाव है तो मेरी वायब्रेशन फिर से कैसी हो गई? हमारा मन लो फ्रीक्वेन्सी पर चला गया। फिर हमने किसी और से किसी दूसरी समस्या के बारे में बात की।

स्वभाविक है कि हमने उसमें भी वैसा ही डर और अशांति उत्पन्न कर दी। हमें कुछ ऐसा करना है जिससे हमारी वायब्रेशन ऊपर उठे। सिर्फ टाइम पास करना हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि हमारा मानसिक स्तर भी ऊंचा उठना चाहिए।

(यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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At this time every thought, every word should be blessed




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कोविड से निपटने के तरीकों से ट्रम्प की लोकप्रियता में गिरावट

कोरोना वायरस से 63,000 से अधिक लोगों की मौत और लगभग 11 लाख लोगों के संक्रमित होने के बावजूद अभी अमेरिका का इस महामारी से बाहर निकलना दूर है। हालांकि, न्यूयॉर्क में कोरोना से मरने वालों की संख्या घटकर आधी से भी कम हो गई है, लेकिन बाकी राज्यों में वायरस का प्रकोप बढ़ रहा है। बृहस्पतिवार को पड़ोसी न्यू जर्सी राज्य में 460 से अधिक लोगों की मौत हुई है। यहां पर मरने वालों की कुल संख्या 7228 हो गई है। ऐसा नहीं लगता कि यह महामारी पूरी तरह से रुक सकेगी, जबकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका की अर्थव्यवस्था को खोलने की बात करना शुरू कर दिया है। अधिकांश अमेरिकियों को लगता है कि अगर आज लॉकडाउन खत्म होता है तो महामारी का दूसरा दौर आ सकता है। लेकिन, इस राष्ट्रीय संकट में एक बात तो तय है कि ट्रम्प के सामने एक नई चुनौती आ रही है, इस महामारी से निपटने के खराब तरीकों से उनकी लोकप्रियता तेजी से गिर रही है। ट्रम्प बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि वह महामारी के खिलाफ इस युद्ध को जीतेंगे, लेकिन अगर बड़ी संख्या में हो रहे सर्वेक्षणों पर भरोसा करें तो अमेरिकियों को उन पर विश्वास नहीं है। असल मंे तो अधिकांश अमेरिकी इस पूरे संकट में उनके व्यवहार के लिए नकारात्मक रेटिंग्स देते दिख रहे हैं।
ट्रम्प की स्वीकार्यता दर के गिरने के कारण हैं- ट्रम्प हर दिन अपनी न्यूज ब्रीफिंग व ट्विटर पर न केवल गलत जानकारी, बल्कि खतरनाक जानकारी और पूरी तरह से बकवास फैलाकर वायरस के खतरे को कम दिखाते रहे हैं। अधकचरे उपचारोें को बढ़ावा, जांच अौर सुरक्षात्मक उपकरणों की उपलब्धता को गलत तरीके से पेश करना, अपने राज्यों को बचाने की कोशिशों मंे लगे गवर्नरों से विवाद करना और विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर ओबामा प्रशासन पर वे दोष मढ़ते रहे हैं। पिछले सप्ताह तो तब हद हो गई जब उन्होंने वायरस से निपटने के लिए लायजोल जैसे कीटाणुनाशकों के इस्तेमाल का सुझाव दे डाला। इसके बाद तमाम लोगों को चेतावनी जारी करनी पड़ी कि इन्हें निगलना कितना खतरनाक हो सकता है और किसी को भी यह नहीं करना चाहिए। बाद में ट्रम्प ने सफाई दी कि उन्होंने मजाक में यह बयान दिया था।
रायटर्स/आईपीएसओएस के मंगलवार को जारी सर्वेक्षण के मुताबिक 43 फीसदी अमेरिकियों का कहना है कि वे ट्रम्प के कुल प्रदर्शन से संतुष्ट है, इतने ही लोग कोविड-19 से निपटने में उनके काम को मंजूरी देते हैं। पंजीकृत वोटरों में 44 फीसदी आज चुनाव होने पर डेमोक्रेट प्रत्याशी जो बिडेन का समर्थन करने की बात करते हैं। फ्लोरिडा, मिशिगन, पेन्सिल्वेनिया और विसकोंसिन सहित कई राज्यों के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि लोगों की नजरों से दूर रहने से संभावित डेमोक्रेट प्रत्याशी को लाभ हुआ है। गैलप सर्वे में भी कार्यभार संभालने के बाद ट्रम्प की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आई है। प्यू रिसर्च के मुताबिक 65 फीसदी लोगों का मानना है कि राष्ट्रपति कोरोना वायरस के खिलाफ बड़े कदम उठाने में धीमे रहे हैं। ओपिनियन पोल में यह भी सामने आया है कि लोगों को लगता है कि सभी 50 राज्यों के गवर्नरों ने राष्ट्रपति की तुलना में बेहतर काम किया है। लोकप्रियता के फिसलने से ट्रम्प इतने निराश हुए कि उन्हें अपनी कैंपेन टीम और मैनेजरों को आड़े हाथों लेना पड़ा। जैसे-जैसे ट्रम्प की लोकप्रियता गिर रही है, उनकी रिपब्लिकन पार्टी के सहयोगी निराश हो रहे हैं। नेशनल रिपब्लिकन सीनेटोरियल कमेटी ने तो एक मेमो जारी करके अपने सदस्यों को ट्रम्प का बचाव न करने की सलाह दी है। इस मेमो में कोरोना वायरस को लेकर राजनीतिक प्रभावों से निपटने की रणनीति को रेखांकित करते हुए पार्टी नेताओं को इस वायरस के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराने के राष्ट्रपति के प्रयासों को अपनाने के लिए भी कहा गया है। लेकिन, अमेरिकी मीडिया में तिरछे शब्दों मंे लिखे गए ‘ट्रम्प का बचाव न करें’ की ज्यादा चर्चा है।
इस महामारी का एक सकारात्मक पक्ष यह उभरा है कि जो अमेरिका पूरी तरह से ध्रुवीकृत और बंटा हुआ नजर आ रहा था वह अब एक दिख रहा है। इस वायरस ने अमेरिकियों को एक-दूसरे को राजनीति से अलग हटकर लोगों के भीतर के डर, साहस और काेमलता को देखने का मौका दिया है। लेकिन, ट्रम्प अपने राजनीतिक शब्दाडंबर से बाहर नहीं निकल सके। एबीसी न्यूज के सर्वे के मुताबिक 98 फीसदी डेमोक्रेट अौर 82 फीसदी रिपब्लिकनों ने सामाजिक दूरी के नियमों का समर्थन किया है। एक अन्य सर्वे में नौकरी खोने वाले लोगों ने भी नौकरी न खोने वाले के समान ही लॉकडाउन का समर्थन किया है। 9/11 के बाद अमेरिका अाज कहीं अधिक एकजुट है। ट्रम्प की विफलता यह है कि उनके पास विकल्प था कि वह देश के नेता बनकर उभरते और लोगों का नेतृत्व करते, चाहे वे किसी भी पार्टी के वफादार हों। इसके बजाय ध्रुवीकृत बयानाें, गवर्नरों और डेमोक्रेटों से ट्रम्प के विवादाें के बावजूद लोग एकजुट हैं, लेकिन वे ट्रम्प के पीछे नहीं हैं। ट्रम्प ने मौका खो दिया है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Trump's popularity declines with ways to deal with Kovid.




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मेरे जीवन में पहली बार हुआ कि केदारनाथ के कपाट खुले और मैं मौजूद नहीं था, लेकिन मुझे कानून और परंपरा दोनों का ध्यान रखना था

केदारनाथ के कपाट खुल गए हैं। लेकिन कोराेना के चलते इस बार आम यात्रियों के लिए यहां आने पर पाबंदी है। पहली बार ही केदारनाथ के रावल जिनका स्थान गुरु के बराबर है, वह भी कपाट खुलते वक्त मौजूद नहीं थे। रावल भीमाशंकर लिंग के मुताबिक उनके जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है। भीमाशंकर लिंग केदारनाथ के 324वें रावल हैं। दक्षिण भारत में उनका जन्म हुआ और महाराष्ट्र के सोलापुर के गुरुकुल में वेदों की पढ़ाई। हर साल रावल महाराष्ट्र से उत्तराखंड आते हैं। वह इन दिनों केदारनाथ से 70किमी दूर ऊखीमठ में हैं और क्वारैंटाइन का पालन कर रहे हैं। उन्होंनेभास्कर से फोन पर बात की -


आप कब से केदारनाथ के रावल हैं?

मैं 2001 से केदारनाथ में रावल के पद पर हूं। ये मंदिर का प्रथम और महत्वपूर्ण पद है। मेरी जिम्मेदारी मंदिर की पूजा व्यवस्थाओं को देखना है। केदारनाथ के रावल पूजा-पाठ नहीं करते, बल्कि उनकी देखरेख में पूजा होती है।

कपाट खुलने की तारीख बदलती तो आप इस परंपरा में शामिल हो सकते थे?

कपाट खुलने की तारीख बदलने पर विचार चल रहा था। मुझे कानून और परंपरा दोनों का ध्यान रखना है। कपाट खुलने की तारीख में बदलाव नहीं चाहता था। इसलिए समय पर ऊखीमठ में आकर क्वारैंटाइनहो गया। 19 अप्रैलकोऊखीमठ पहुंचकरयह मुकुट मंदिर समिति के लोगों को सौंप दिया। 2 मई को क्वारैंटाइन के 14 दिन खत्म होंगे और 3 को केदारनाथ जाऊंगा।

आपके क्वारैंटाइन होने से पूजा और परंपराओं में बदलाव हुआ?
नहीं, रावल पूजा-पाठ नहीं करते, उनकी देख-रेख में पूजा होती है। मेरी गैरमौजूदगी में मुख्य पुजारी शिव शंकर लिंग ने पूजा और परंपराएं पूरी की। क्वारैंटाइन खत्म होने पर वहां जाकर छूटी हुई पूजा करवाएंगे। इसके बाद से मेरे मार्गदर्शन में पूजा होने लगेंगी।

आप महाराष्ट्र में फंसे थे, ऊखीमठ तक कैसे आए?
मैं महाराष्ट्र के नांदेड़ में था। वहां से कार से आया। एक दिन में करीब 1000 किमी का सफर तय किया। बीच में रुक कर खुद ही अपना खाना बनाता और खाता था। पूजा-पाठ भी चलती रही। इस तरह दो दिन में ऊखीमठ पहुंच गया।

क्या आपके लिए क्वारैंटाइन एकांतवास है, कैसे बीतता है आपका दिन ?
एकांतवास और क्वारैंटाइन में अंतर है। दिनभर में करीब 10 से 12 घंटे तक पूजा-पाठ चलती है। आमतौर पर पूजा-पाठ में इतना समय नहीं दे पाते हैं। क्योंकि उस दौरान श्रद्धालुओं और लोगों से मिलना पड़ता है।

ऑनलाइन दर्शन करवाए जा सकते थे, उसका विरोध क्यों हुआ ?
परंपराओं को टूटने से बचाना था, इसलिए ही ऑनलाइन दर्शन का विरोध हुआ। ऑनलाइन दर्शन करवाने से चारधाम यात्रा और ज्यादा प्रभावित हो सकती थी। देश में अलग-अलग आस्था और मत वाले लोग रहते हैं। उनका ध्यान रखते हुए भी ये फैसला लिया।

केदारनाथ को चढ़ने वाला मुकुट आपके पास था, ये परंपरा कब से है ?
ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके पीछे आस्था है कि जिन 6 महीनों में केदारनाथ के दर्शन नहीं होते उस समय धार्मिक कार्यक्रमों में रावल इस मुकुट को पहनते हैं। लोग इस मुकुट के दर्शन करते हैं। जिससे उनको केदारनाथ दर्शन का फल मिलता है।



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रावल श्री भीमाशंकर लिंग की देखरेख में ही भगवान केदारनाथ की पूजा होती है। कपाट बंद होने पर भगवान केदारनाथ को चढ़ने वाला मुकुट ये ही पहनते हैं।




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पेशे से सराफा कारोबारी, लेकिन इन दिनों काम कोरोना पॉजिटिव की मौत होने पर अंतिम संस्कार करना

कोरोना से फैली बीमारी का सबसे डरावना पक्ष है मौत। वह मौत जिसके बाद अपने अंतिम संस्कार करने को भी राजी नहीं होते। वह मौत जिसके बाद शव छूने की इजाजत तक नहीं। कई मामलों में तो आखिर बार अपनों को मरनेवाले की सूरत देखना भी नसीब नहीं होता। सोशल डिस्टेंसिंग की चीख-पुकार के बीच कोरोनावायरस ने दूरी इतनी बना दी है कि परिजन शवों के करीब भी जाना नहीं चाहते। कुछ मामले तो ऐसे भी आए, जहां परिजन शवों का दाह संस्कार नहीं करना चाहते।

लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं, जो इन परायों को अपनों की तरह अलविदा कर रहे हैं। जो कोरोना संक्रमण के बीच शवों के करीब भी जा रहे हैं। उन्हें कंधा भी दे रहे हैं। परिजनों के न होने पर अग्नि भी दे रहे हैं। यहां तक कि कुछ तो अंतिम संस्कार का खर्च तक उठा रहे हैं। वक्त सुबह से लेकर शाम तक श्मशान में शवों के बीच गुजर रहा है। परिवार इनका भी है। घर पर छोटे बच्चे भी हैं। खतरा इन्हें भी है, लेकिन बावजूद इसके ये बेखौफ यह काम कर रहे हैं। इंदौर, जयपुर और मुंबई के ऐसे ही तीन योद्धाओं की कहानी।

पहली कहानी इंदौर की...
प्रदीप वर्मा जूनी इंदौर मुक्तिधाम में शवों का निशुल्क अंतिम संस्कार करते हैं। पेशे से सराफा कारोबारी वर्मा 22 मार्च से मुक्तिधाम पर रोजाना ड्यूटी दे रहे हैं। सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक यहीं रहते हैं। वे कहते हैं कि, ‘लावारिस शवों को मैं खुद अग्नि देता हूं। कोरोना संक्रमित शव भी आ रहे हैं, इन्हें भी अग्नि दे रहा हूं।' वर्मा पिछले 8 सालों से मुक्तिधाम में सेवाएं दे रहे हैं। लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का खर्च वह खुद उठाते हैं।

वर्मा अपने साथियों के साथ पीपीई किट पहनकर यह काम करते हैं।

एक शव को जलाने में 1700 से 1800 रुपए का खर्चा आता है। इसमें ढाई क्विंटल लकड़ी, 30 कंडे और दो संटी लगती हैं। एमवाय से मुक्तिधाम तक शव को लाने में 250 रुपए लगते हैं। हर महीने 10-12 हजार इस काम पर खर्च करते हैं।
इतने सब खर्च के बीच आप अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे कर रहे हैं? ये पूछने पर बोले- मेरी सराफा में दुकान है। सामान्य दिनों में दुकान पर रहता हूं और एक टाइम मुक्तिधाम में रहता हूं। कोरोनावायरस के बाद से दुकान बंद है, तब से पूरा समय मुक्तिधाम में ही बिता रहा हूं।

कोरोना मरीजों के आने पर डर लगता है? बोले, नगर निगम ने मुझे पीपीई किट दी है। इसे पहनकर ही पूरी सुरक्षा के साथ सेवाकार्य में जुटा हुआ हूं। अब घरवाले तो बाहर निकलने से भी मना करते हैं, लेकिन नहीं निकलूंगा तो यह सेवा कैसे कर पाऊंगा।

सुबह से शाम तक मुक्तिधाम में ही रहते हैं।

प्रदीप कहते हैं, बहुत से शव लावारिस होते हैं। मेरा नंबर एमवाय अस्पताल में भी है। लावारिस शव आने पर वो लोग मुझे सूचना देते हैं। मैं एम्बुलेंस से शव बुलवा लेता हूं। फिर यहां उसका अंतिम संस्कार करता हूं। कई बार परिजन साथ होते हैं कई बार नहीं होते। बोले, कुछ समय पहले एमवाय का एक स्वास्थ्यकर्मी खुद ही कोरोना संक्रमण का शिकार हो गया। हमने ही उसका अंतिम संस्कार किया। वो कोरोना मरीजों की सेवा के लिए अरबिंदो अस्पताल गया था, लेकिन फिर लौटकर वापिस नहीं आ पाया।

दूसरी कहानी जयपुर की...
कुछ ऐसी ही जिम्मेदारी जयपुर में विष्णु गुर्जर निभा रहे हैं। पिछले 7 सालों से मुर्दाघर में नौकरी कर रहे विष्णु बीते 28 दिनों से घर नहीं गए। वे कहते हैं कि हम शवों का पोस्टमार्टम भी करते हैं और अंतिम संस्कार भी करते हैं। अभी सिर्फ उन्हीं शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं जो कोरोना पॉजिटिव होते हैं क्योंकि नेगेटिव वाले शवों को तो परिजन ले जाते हैं।
बहुत से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें शव के साथ कोई होता ही नहीं। परिजन या तो आते नहीं या होते ही नहीं। ऐसे शवों का अंतिम संस्कार भी यही करते हैं। विष्णु ने बताया कि, कोरोना से बचने के लिए मैं पीपीई किट पहनता हूं। घरवालों को चिंता होती होगी? ये पूछने पर बोले, सर घर पर पत्नी, 6 माह की बेटी और एक तीन साल का बेटा है। परिवार में किसी को मेरे कारण संक्रमण न हो इसलिए लॉज में ही एक कमरा लिया है, वहीं रुका हूं।

विष्णु बीते 28 दिनों से अपने घर नहीं गए।

विष्णु कहते हैं, हम हिंदू ही नहीं बल्कि मुस्लिमों का भी अंतिम संस्कार कर रहे हैं। उन्हें दफनाने का काम करते हैं। कई बार उनकी साथी आ जाते हैं तो उनकी मदद कर देते हैं। बोले, कोरोना के कारण डर तो लगता है लेकिन हमे विश्वास है कि कुछ नहीं होगा। कुछ दिन पहले कोरोना टेस्ट भी करवाया है, जो निगेटिव आया।

विष्णु की टीम में मंगल, अर्जुन, मनीष और रोशन भी शामिल हैं। इन लोगों को 6 से 8 हजार रुपए महीना तक मिल जाता है। नगर निगम एक शव का पोस्टमार्टम करने से लेकर अंतिम संस्कार करने तक का 500 रुपए देती है। कई बार शव के साथ परिजन आते हैं लेकिन वे नजदीक नहीं जाते, ऐसे में पूरी प्रक्रिया हम लोगों को ही पूरी करनी होती है।

तीसरी कहानी मुंबई की....
मुंबई में शवों का दफनाने का काम शोएब खतीब अपनी टीम के साथ निभा रहे हैं। वे कहते हैं, हमारी 35 लोगों की टीम है। जिस भी हॉस्पिटल में मौत होती है, वहां के नजदीकी कब्रिस्तान में शव लाकर दफनाने का काम करते हैं।
कई बार तो शव को अस्पताल से क्लेम करने भी जाते हैं, क्योंकि परिवार क्वारेंटाइन में है। टीम में हर किसी ही अलग-अलग जिम्मेदारी है। कोई शव को एम्बुलेंस से उतारने का काम करता है। कोई गड्‌ढा खोदने का काम करता है तो कोई दफनाने का।

शवों का दफनाने का काम शोएब खतीब अपनी टीम के साथ कर रहे हैं।

शोएब कहते हैं कि, हम तो चौबीस घंटे इसी काम में लगे हैं। दिन ही नहीं रात में भी शव को दफना रहे हैं। सुरक्षित रहने के लिए पीपीई किट पहनते हैं। सैनिटाइजर पास रखते हैं, लेकिन खतरा तो होता ही है। बोले, जामा मस्जिद ऑफ बॉम्बे ट्रस्ट द्वारा यह पूरा सेवाएं फ्री दी जा रही हैं। इसके लिए लोगों से पैसा नहीं वसूला जाता।



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After Death, This Businessman Funeral Coronavirus




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कोरोना के स्याह लाल, नीले रंग

आजकल अखबारों में हिंदुस्तान का नक्शा विविध रंगों में प्रस्तुत किया जा रहा है। कुछ-कुछ क्षेत्र लाल रंग से रंगे हैं, कुछ नारंगी और कुछ हरे रंग से। रंग संक्रमित लोगों की संख्या का संकेत देते हैं। हर पहर रंग बदल रहे हैं। कहते हैं कि मानसरोवर झील का पानी सुबह जिस रंग का आभास देता है, दोपहर में वह रंग बदल जाता है। पहाड़ों से घिरी झील में सूर्य किरण के बदलते हुए कोण के कारण यह इंद्रधनुषी प्रभाव पैदा होता है। मनुष्य मन भी मानसरोवर की तरह है। परिस्थितियों के कोण से इसे विविध रंग देते हैं। एक मनुष्य सुबह अपने परिवार के साथ करुणामय बना रहता है, दफ्तर में वह तल्ख हो जाता है, भीड़ का हिस्सा बनते ही उसके हाथ में पत्थर होता है। वह हुड़दंगी हो जाता है।
मानव त्वचा के रंग ने कहर ढाया है। अमेरिका के समाज में सतह के नीचे रंगभेद की लहर आज भी प्रवाहित है। भारत में कन्या की त्वचा का रंग दहेज की रकम में अंतर पैदा करता है। अखबार में विवाह के लिए दिए गए विज्ञापन में भी त्वचा का रंग मोल-भाव बदल देता है। फिल्में भी विविध रंग की रही हैं। लंबे समय तक श्याम-श्वेत फिल्में बनती रहीं। ‘आन’ और ‘झांसी की रानी’ रंगीन थीं, परंतु शम्मी कपूर अभिनीत ‘जंगली’ से रंग का दौर शुरू हुआ। शैलेंद्र ने रंग के दौर में भी ‘तीसरी कसम’ श्याम-श्वेत बनाई। रंगीन फिल्म से वे अभावभरी जिंदगी को ग्लैमराइज नहीं करना चाहते थे। बिहार की श्याम सलोनी भूमि पर वे रंग से दाग नहीं लगाना चाहते थे। श्याम-श्वेत फिल्म में कैमरामैन को अपनी योग्यता का परिचय देना होता है। रंगीन फिल्मों के बनते ही कैमरामैन का जादू टूट गया।
के.आसिफ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’ श्याम-श्वेत थी, परंतु दो गाने रंग में प्रस्तुत किए गए। कुछ वर्ष पश्चात पूरी फिल्म को रंगीन किया गया। यह महंगी विधा है, क्योंकि हर फ्रेम को रंगना होता है। बाद में बलदेव राज चोपड़ा ने अपनी ‘नया दौर’ को भी रंगीन किया, परंतु इसे दर्शक नहीं मिले।

इस तरह एक खर्चीली और अनावश्यक कवायद पर रोक लग गई। ईस्टमैन कलर, टेक्नी कलर, आगफा कलर इत्यादि रंगीन नेगेटिव के ब्रैंड नाम हैं। रंगीन निगेटिव के इमल्शन में अंतर आता है। इसलिए सजग फिल्मकार अपना पूरा निगेटिव एक ही लॉट से खरीद लेते थे। शूटिंग पूरी करने के बाद फिल्म रसायनशाला में हर प्रेम का कलर करेक्शन किया जाता है ताकि समरूपता दिखाई दे।
गुरु दत्त के कैमरामैन वीके मूर्ति श्याम-श्वेत फिल्म में प्रकाश और छाया के संयोजन द्वारा पात्रों के मनोभाव प्रस्तुत करते थे। यह ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के कैमरामैन आर.डी. माथुर का कमाल है कि कांच के टुकड़ों से बनाए सेट पर वे काम कर पाए। विश्व सिनेमा में पहली बार एक चादर पर प्रकाश डालकर परिवर्तित किरणों के प्रकाश में शूटिंग की गई। सत्यजीत रे ने भी इसी तरीके को अपनाया। कैमरामैन एक पेंटर की तरह प्रकाश और छाया की कूंचियों से कलाकृति रचता है।
क्या यह महज इत्तफाक है कि रमेश सिप्पी ‘शोले’ के बाद उससे बेहतर फिल्म नहीं बना पाए। ‘शोले’ के कैमरामैन द्वारका दिवेचा की मृत्यु के बाद रमेश सिप्पी भी वह जादू नहीं जगा पाए। याद आता है दृश्य जिसमें ठाकुर की हवेली में कक्ष दर कक्ष बत्ती गुल की जा रही है। एक रोशन खिड़की में जया बच्चन खड़ी हैं। मानो खिड़की की फ्रेम में एक उदासी कैद है। प्रकाश छाया संयोजन से ऐसा जादू जगाया जाता है। फिल्म ‘श्री 420’ के दृश्य में गरीबों की बस्ती के निकट ही लोकल ट्रेन के आने-जाने को प्रस्तुत किया गया है। स्टूडियो के सेट पर यह प्रभाव बच्चों के खेलने की ट्रेन से पैदा किया गया है।
राधू करमाकर ने राज कपूर की ‘आवारा’ से ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक फिल्मों की फोटोग्राफी की है। उन्होंने सोहनलाल कंवर इत्यादि की फिल्में भी की, परंतु वह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो सका। उन्होंने बताया कि प्रभाव दो बातों पर निर्भर करता है। फिल्मकार कैमरामैन को कितने लेंस और लाइट उपलब्ध कराता है और सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या फिल्मकार कैमरामैन को अपनी आंख की तरह इस्तेमाल करना जानता है।
कैमरामैन वी.के. रेड्डी गुरु दत्त की खामोशी को भी पढ़ लेते थे। फिल्म माध्यम निर्देशक का माध्यम है।

कुछ निर्देशक तो इतने अनाड़ी थे कि कैमरामैन को साफ-सुथरी जगह कैमरा रखने का मशविरा देते थे, क्योंकि उन्हें खुद नहीं मालूम था कि क्या करना है। प्रकाश और छाया का प्रयोग संवेदनशीलता से किया जाना चाहिए। कैमरा एक मशीन है जिसमें प्राण फूंकता है कैमरामैन। बहरहाल रंग प्रतीकात्मक होते हैं। मात्र काले रंग के वस्त्र धारण करने से दु:ख अभिव्यक्त नहीं होता। शफ्फाख सफेद द्वारा भी मायूसी बयां की जाती है।

कुछ राजनीतिक विचारधाराएं भी रंग को प्रतीक की तरह उपयोग में लाती हैं। खून का रंग लाल होता है, परंतु बेईमान व्यक्ति का खून सफेद माना जाता है। मुद्राएं भी स्याह-सफेद होती हैं। राष्ट्रीय झंडे के रंग भी उसके संविधान का परिचय देते हैं। राजशेखर ने ‘तनु वेड्स मनु’ के लिए गीत लिखा... ‘रंगरेज तू ही बता कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है। खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है।’ कुछ व्यवस्थाएं भी ऐसे रंगरेज की तरह होती हैं। समवेत प्रार्थना है कि मानवता कोरोना से मुक्त हो और बीमारों की संख्या रंग द्वारा अभिव्यक्त नहीं करनी पड़े।



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Dark shade of corona




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2025 में आप 2020 की कहानी कैसे सुनाएंगे?

हाल ही में यूएन पॉपुलेशन फंड द्वारा जारी आंकड़ों में दावा किया गया है कि लॉकडाउन की वजह से करीब 70 लाख ऐसी ‘अनइंटेंडेड’ प्रेग्नेंसी हो सकती हैं, जिनकी प्लानिंग नहीं की गई। अगर यह सच है तो चार-पांच साल बाद हमें इन बच्चों को आज की कहानी सुनानी पड़ेगी, जो कुछ इस तरह होगी:
बच्चा बोलता है, ‘प्लीज मेरी पसंदीदा वो वाली कहानी सुनाओ न, जब मैं पैदा हुआ था और दुनिया पर वायरस का हमला हुआ था।’ पिता कहानी शुरू करता है, ‘वह कचरे और अचंभे की दुनिया थी। हमने बहुत कम समय में लंबी बिल्डिंग्स बना लीं, कुछ हफ्तों में ही पुल बना दिए और वह सबकुछ हासिल किया जो हम पाना चाहते थे। हम 24 घंटे में ही दुनिया के किसी भी कोने से जो चाहें, मंगवा सकते थे क्योंकि तब आसमान में पंछी कम हवाईजहाज ज्यादा थे।

लेकिन इस प्रक्रिया में हम कचरा कम करना भूल गए और हमें हैसियत से भी बाहर, बेहिसाब खरीदारी की बीमारी हो गई। हमने सारा प्लास्टिक समंदर में फेंक दिया, जिससे व्हेल जैसे जानवर तक मर गए। उत्पादकों ने ज्यादा से ज्यादा सामान बनाने के लिए हमने पेड़ काटे, जितना हो सके उतना तेल निकाला, चौबीसों घंटे, सातों दिन फैक्टरी चलाईं, लेकिन यह नहीं समझ पाए कि हम नीले आसमान को काला कर रहे थे।
फिर हमने मोबाइल फोन की खोज की, जो सबसे पास था, यहां तक कि तुम्हारे जैसे बच्चों के पास भी। उसके बाद लोगों ने एक ही कमरे में रहते हुए भी एक-दूसरे से बात करना बंद कर दिया। हम प्रार्थना और एक्सरसाइज तक ऑनलाइन करने लगे। धीरे-धीरे अकेलापन पैर पसारने लगा, खासतौर पर बच्चों को यह बहुत महसूस होने लगा। फिर 2020 में वायरस आया। लाखों लोग मारे गए। हम सभी मौत के डर से महीनों घरों में कैद रहे। हमने एक-दूसरे से बात की, साथ में नाचे, कहानियां पढ़ीं, दूसरों के लिए खाना पकाया, जरूरतमंदों की मदद की। अ

चानक इंसान खुद के लिए नहीं, दूसरों के लिए जीने लगा, जैसा हम आज करते हैं। न सिर्फ हमारे माता-पिता, बल्कि हमारे दादा-दादियों ने भी जीवन में जो कुछ किया, उसे हमने अपना बनाया और तुम सभी के लिए इस धरती को फिर से खूबसूरत बनाया। प्रकृति के साथ रहने की नई आदत ने प्रकृति को नुकसान पहुंचाने की पुरानी आदत खत्म कर दी। यही कारण है कि तुम समंदर किनारे कछुए, फुटपाथ पर नाचते मोर, सड़क के डिवाइडर्स पर सोते हिरण और बेडरूम की खिड़की पर चहचहाती चिड़िया देख पाते हो।’
जिज्ञासु बच्चे ने पूछा, ‘मानवता केलिए यह अच्छा है, आपको यह बताने के लिए वायरस की जरूरत क्यों पड़ी?’ यह सुनकर बच्चे के जन्मदिन के लिए केक बना रही मां बोल पड़ीं, ‘मैं समझाती हूं।’
उसने बच्चे को गले लगाया और पूछा, ‘तुम्हें केक पसंद है?’ बच्चे ने कहा, ‘हां, बहुत।’ मां ने उसके माथे को चूमा और पूछा, ‘तो तुम कच्चा अंडा क्यों नहीं खाते?’ बच्चा बोला, ‘छी, मैं नहीं खा सकता।’ फिर मां ने बेकिंग सोडा, थोड़ा आटा और कड़वे कोको समेत सारी चीजें उसकी ओर बढ़ा दीं। बच्चे ने इन्हें छूने से इनकार कर दिया। तब मां बोलीं, ‘जब तुम इन सभी चीजों को सही मात्रा में मिलाते हो, तभी मेरे राजा बेटे के लिए शानदार चॉकलेट केक बनता है, है न?’
बच्चे ने हामी भरी और मां को चूम लिया। मां ने आंखें बंदकर बच्चे के इस प्रेम का आनंद लिया और बोली, ‘भगवान भी ऐसे ही काम करते हैं। जब तुम उनकी रचनाओं का सम्मान नहीं करते और उन्हें नष्ट करते हो तो वे थोड़े मुश्किल दौर में डाल देते हैं। लेकिन भगवान जानते हैं कि वे जब उन सभी चीजों को सही ढंग से रखेंगे, तो वे सभी मानवता के हित में काम करेंगी। भगवान तुम्हें बहुत चाहते हैं। वे रोज सुबह ताजा फूलों के साथ धूप भेजते हैं। क्योंकि वे सोचते हैं कि तुम खास हो क्योंकि तुम 2020 के दौर में तब पैदा हुए, जब इंसान ने उनकी रचनाओं का सम्मान करना शुरू किया।’ जब तक कहानी खत्म हुई, केक बन चुका था।
फंडा यह है कि इस लॉकडाउन में हो रहे छोटे-से-छोटे बदलाव को भी अपनी यादों में दर्ज करें। हो सकता है कि ये सीखें हमारे बच्चों, नाती-पोतों के लिए 2025 में शानदार कहानियां बन जाएं।



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एक प्रदेश के दो इलाके, जम्मू में जीरो जबकि श्रीनगर में 106 पॉजिटिव केस, कश्मीर में बाहर से आनेवालों ने छिपाई ट्रेवल हिस्ट्री, स्क्रीनिंग से भी भागे

कोरोना के खिलाफ 54 दिन की लंबी और कठिन लड़ाई जम्मू ने जीत ली है। जम्मू जिले में कोरोना का अब एक भी केस नहीं है। 15 अप्रैल से ही जम्मू में कोरोना का कोई नया मरीज नहीं मिला है। यही नहीं जितने मरीज पॉजिटिव टेस्ट हुए थे, वह भी ठीक होकर अपने घर लौट गए हैं।


जम्मू और कश्मीर के बीच यूं तो बस एक जवाहर टनल का फासला है, लेकिन जम्मू से 250 किमी दूर कश्मीर में कोरोना अब भी चुनौती बना हुआ है। जम्मू और कश्मीर में कुल 666 केस अब तक मिले हैं, जिनमें से 606 कश्मीर डिविजन में और 60 जम्मू डिविजन में।

पॉजिटिव केस मिले 666
जम्मू डिविजन 60
कश्मीर डिविजन 606
मरीज ठीक हुए 254

कश्मीर डिविजन में 396 एक्टिव केस हैं जबकि जम्मू में एक्टिव केस सिर्फ 8 हैं। इनमें से 2 केस उधमपुर, 2 सांबा और एक-एक राजौरी, रियासी, रामबन और कठुआ में एक्टिव है।


जम्मू जिले में एक भी केस नहीं है, जबकि श्रीनगर जिले में 106 केस हैं।


कश्मीर में सबसे ज्यादा बांदीपोरा जिले में हैं जहां 128 केस मिले हैं, जबकि एक्टिव 91 हैं। इसी जिले में जिस मरीज की सबसे पहली मौत हुई थी, उसके कॉन्टैक्ट में आए 40 से ज्यादा लोगों को संक्रमण हुआ था।

जम्मू में रेड जोन में आनेवाले इलाकों में टेस्टिंग के बावजूद 15 अप्रैल के बाद से कोई केस नहीं मिला है। वहीं कश्मीर घाटी में गुरुवार को 33, शुक्रवार को 25 और शनिवार को 25 नए केस मिले थे।


30 अप्रैल को जम्मू में इलाज ले रहे 4 केस मुस्कुराते हुए अस्पताल से घर लौटे और डॉक्टर्स-मेडिकल स्टाफ ने तालियां बजाकर उनका हौसला बढ़ाया।

हालांकि जम्मू को कोविड फ्री घोषित करने से पहले डिप्टी कमिश्नर जम्मू ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि, जिले के सभी 26 केस ठीक होकर घर जा चुके हैं, लेकिन अभी एहतियात बरतनी होगी।

जम्मू कश्मीर सरकार के प्रवक्ता रोहित कंसल के मुताबिक, उनकी कोशिशें सफल हो रही हैं और लॉकडाउन फायदेमंद रहा है। रोहित कंसल के मुताबिक वह हर दिन 1800 लोगों की जांच कर रहे हैं और कुछ दिन में 2000 की करने लगेंगे। जम्मू कश्मीर में 254 लोग ठीक हो चुके हैं। 74 हजार को कोविड सर्विलेंस में रखा गया था और उनमें से 56 हजार ने 28 दिन का सर्विलांस पूरा भी कर लिया है।

जम्मू में मरीजों की कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की गई। मरीज के संपर्क में आने वाले लोगों को पहले ही क्वारैंटाइन कर दिया गया।

आखिर जम्मू ने किया क्या?

8 मार्च को जम्मू में कोरोना वायरस का पहला पॉजिटिव केस मिला था। इस पर जम्मू की डिप्टी कमिश्नर सुषमा चौहान ने तुरंत एक्शन लिया। मरीज कारगिल का रहने वाला था और उसकी ईरान की ट्रैवल हिस्ट्री थी। उससे मिलने वाले सभी लोगों की पहचान की गई और उन्हें क्वारैंटाइन किया गया। सैम्पल लेने से पहले सभी को क्वारैंटाइन कर दिया गया था।

रिपोर्ट्स पॉजिटिव आए उससे पहले जिला प्रशासन ने कंटेन्मेंट प्लान पर काम शुरू कर दिया था। 11 मार्च से स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी बंद कर दिए थे और सरकारी दफ्तर की बायोमैट्रिक एटेंडेंस भी।

फिर मॉल्स, सिनेमा हॉल और भीड़ वाले बाजार बंद कर दिए गए। मार्च के पहले हफ्ते में ही एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन और बस स्टॉप पर यात्रियों की स्क्रीनिंग की जा रही थी। होटल से मेहमानों की ट्रैवल हिस्ट्री मांगी गई। इसी के साथ सभी धार्मिक स्थल मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और चर्च को बंद कर दिया गया।


18 मार्च को बंद कर दी वैष्णोदेवी यात्रा

17 मार्च को माता वैष्णोदेवी श्राइन बोर्ड ने एडवायजरी जारी की और 18 से यात्रा बंद कर दी। इसी दिन इंटर स्टेट बस सर्विस और गाड़ियों की आवाजाही को भी रोक दिया गया। जम्मू कश्मीर की सीमा लखनपुर को सील कर दिया गया और भीतर आनेवालों के लिए 14 दिन का क्वारैंटीन अनिवार्य कर दिया।

इस दौरान जम्मू में 6 डॉक्टर और एक हेल्थ वर्कर पॉजिटिव पाए गए। अब वे सभी ठीक होकर घर जा चुके हैं। इन सभी के परिवार वालों को भी नियम के मुताबिक क्वारैंटाइन किया गया। जिनमें से कुछ पॉजिटिव भी मिले और अब वे सब भी ठीक हो गए हैं।

अब हेल्थ डिपार्टमेंट के लोग घर-घर जाकर स्क्रीनिंग कर रहे हैं। जिसमें आशा वर्कर और सरकारी कर्मचारी शामिल हैं। सबसे बड़ी चुनौती पॉजिटिव केस के कॉन्टैक्ट में आए लोगों की पहचान करना था।

पुलिस ने निजामुद्दीन मरकज से आए लोगों और धार्मिक नेताओं की पहचान करने के लिए तब्लीगी लिंक के लोगों की स्क्रीनिंग की। इसी के साथ रोहिंग्या बस्ती में घनी आबादी के बीच भी स्क्रीनिंग की गई।

जम्मू में कोरोना का पहला मरीज 8 मार्च को आया था। उसके बाद इस डिविजन में टेस्टिंग बढ़ा दी गई।

कश्मीर से क्या गलतियां हुईं?

कश्मीर में इसके उलट लोगों को बाहर से लौटे यात्रियों के स्क्रीनिंग न करवाने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जनवरी से मार्च का वक्त उन कश्मीरियों की घर वापसी का समय था जो हर बार सर्दियों में जम्मू, दिल्ली या घाटी से कहीं और चले जाते हैं। बाहर से लौटने वाले विदेश से लौटे लोग भी शामिल हैं।

एयरपोर्ट पर प्रशासन ने हेल्प डेस्क और स्क्रीनिंग काउंटर बनवाया है। लेकिन लोगों ने ओहदे और पहुंच का फायदा उठाया और स्क्रीनिंग को बायपास कर वहां से निकल लिए।

कइयों ने तो अपनी ट्रैवल डिटेल्स छिपाई और बाद में उनमें कोरोना के लक्षण मिले। यही नहीं ये लोग कई और लोगों से मिले जुले भी और बाद में पुलिस को इनके कॉन्टैक्ट में आए लोगों का पता लगाने में पसीने आ गए। कश्मीर में धार्मिक स्थलों को बंद करने का फैसला काफी बाद में लिया गया जिससे कई पॉकेट्स में कोरोना काफी गहरे फैल गया।

कश्मीर में सबसे ज्यादा प्रभावित बांदीपोरा, यहां 52 पॉजिटिव

बांदीपोरा में एक तब्लीगी धार्मिक नेता के संपर्क में आने से 40 से ज्यादा लोगों को संक्रमण फैला। बांदीपोरा कश्मीर का सबसे प्रभावित जिला है जहां 52 में से 48 केस गुंड जहांगीर गांव के एक ही मोहल्ले डांगेरपोरा के हैं। इस मोहल्ले के सभी लोगों के कोरोना टेस्ट करवाए गए। जिसमें 700 से ज्यादा नेगेटिव भी आए।

कश्मीरियों ने पहले तो ट्रैवल हिस्ट्री छिपाई। लेकिन, जब श्रीनगर में कोरोना से पहली मौत हुई तो उसके बाद खुद ही प्रशासन को फोन कर इसकी जानकारी देने लगे।

जनाजे में शामिल हुए सैंकड़ो लोग

कश्मीर के सोपोर में स्थानीय गांववालों ने आतंकवादियों के जनाजे में शामिल होकर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाईं। 9 अप्रैल को शोपियां में जैश के एक आतंकी के जनाजे में 400 से ज्यादा लोग शामिल हुए। जिसके बाद प्रशासन ने आतंकवादियों के शव परिवार को सौंपना और उनके नाम पब्लिक करना बंद कर दिया।

25 अप्रैल को अनंतनाग में एक गर्भवती महिला और उनके जुड़वां बच्चों की मौत हो गई थी। उसके शव को यूं ही घरवालों को दे दिया था, बाद में उस महिला का टेस्ट पॉजिटिव आया था। उसके जनाजे में कई लोग शामिल हुए थे।

26 मार्च को पहली कोरोना संक्रमित की मौत हुई थी। मरने वाला श्रीनगर के डाउनटाउन का एक 65 वर्षीय आदमी था। पहली मौत के बाद लोगों ने प्रशासन को कंट्रोल रूम में फोन लगाने शुरू किए और जानकारियां देने लगे। हर दिन 400-500 लोगों की जानकारियां प्रशासन को मिलने लगी।

इससे पहले सिर्फ लोग छिप रहे थे। लेकिन इसके बाद प्रशासन ने भी आतंकवादियों को ढूंढने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नेटवर्क को कोरोना मरीजों को ढूंढने में इस्तेमाल किया।

कई इलाकों में हेल्थ वर्कर और स्क्रीनिंग के लिए आए कर्मचारियों पर पथराव भी किए गए। 18 अप्रैल को हेल्थ वर्कर की टीम बांदीपोरा गई थी। ये दो पॉजिटिव केस को लेने गए थे। इन पर स्थानीय लोगों ने पथराव कर दिया और कर्मचारी को चोटें आई थीं।



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जम्मू और कश्मीर में कुल 666 केस अब तक मिले हैं, जिनमें से 606 कश्मीर डिविजन में और 60 जम्मू डिविजन में।




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मशीनों में कैश डालने वाली इस कंपनी में 4500 कैश कस्टोडियन के बीच देशभर में सिर्फ 3 महिलाएं, कारगिल और जम्मू जैसे इलाकों में ड्यूटी करती हैं

कोरोनावायरस से जारी युद्ध में जिस शिद्दत से डॉक्टर, नर्स, पुलिसकर्मी और सफाईकर्मी जुटे हैं, उसी जुनून से बैंककर्मी भी। सोचिए यदि एटीएम जाएं और वहां पैसा न मिले तब? यहां बात उन तीन महिलाओं की हो रही है जो एटीएम में पैसा डालने वाली कंपनी एजीएस में काम करती हैं। देशभर में इस कंपनी के 12000 कर्मचारी हैं। इनमें से करीब साढ़े चार हजार कैश कस्टोडियन हैं। इन साढ़े हजार कैश कस्टोडियन में सिर्फ 3 महिलाएं हैं। कंपनी ने इन्हें सालभर के अंदर ही अपॉइंट किया है। फिलहाल इनकी ड्यूटी बर्फ के रेगिस्तान कहलाने वाले लद्दाख सेक्टर के कारगिल और जम्मू में हैं।जहां देश में सबसे ऊंचाई पर स्थित एटीएम के लिए यह काम करती हैं।

गर्भवती हैं, सर ने कहा-छुट्‌टी ले लो तो मना कर दिया

जम्मू शहर में रहने वाली बिल्किस बानों गर्भवती हैं। 6 माह पहले की कैश कस्टोडियन की नौकरी मिली। कोरोनावायरस आया तो कंपनी की तरफ से कहा गया कि, आप गर्भवती हैं, इसलिए चाहो तो छुट्‌टी ले लो। लेकिन बिल्किस ने छुट्‌टी लेने से इंकार कर दिया और प्रेग्नेंसी के आठवें महीनें में भी फील्ड पर जाकर अपना फर्ज निभा रही हैं।

बोलीं, मैं रोजाना सुबह साढ़े नौ बजे एक गनमैन, ड्राइवर और सहयोगी के साथ निकलती हूं। जो भी हमारा रूट होता है, हम उन मशीनों में कैश डालते हैं।
कोरोनावायरस आने पर मुझे कंपनी की ओर से फील्ड में जाने का मना किया गया था, लेकिन मैं नहीं मानी। मुझे लगता है कि ऐसे समय में हम जो भी सेवाएं दे सकते हैं हमे देना चाहिए। मैं पूरी सेफ्टी के साथ अपनी ड्यूटी निभा रही हूं। मुझे ये दिन हमेशा याद रहेंगे कि जब दुनिया में कोई महामारी आई थी तो हमने भी लोगों की मदद की थी।

पति की दुकान बंद, घर भी संभालती हैं और ड्य्टी का फर्ज भी

सईदा पिछले 6 माह से कैश कस्टोडियन के पद पर कंपनी में सेवाएं दे रही हैं।

33 साल की सईदा बेगम की 12 साल की बेटी है। पति की दुकान है लेकिन लॉकडाउन के चलते उनका काम धंधा बंद है। कहती हैं, मुझे कई लोगों ने बोला कि, अभी कोरोनावायरस चल रहा है, छुट्टी ले लो लेकिन मेरे लिए अपना फर्ज पहले है।
चेहरे पर मास्क, हाथों में ग्लव्ज और हैंड सैनिटाइजर लेकर हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। अभी तक हमने अपने इलाके के किसी भी एटीएम में कैश की कमी नहीं आने दी। हालांकि लॉकडाउन के कारण अब कैश निकल भी कम रहा है, लेकिन रोजाना फील्ड पर जाते ही हैं और जहां पैसा डालना होता है, वहां डालते हैं।
सईदा के पास इस काम का कोई अनुभव नहीं था, लेकिन ट्रेनिंग ली और काम शुरू कर दिया। बोलती हैं, अब कोरोनावायरस के बीच अपनी जिम्मेदारी निभा कर गर्व की अनुभूति भी होती है। मशीनों में कैश डालने जाते हैं तो कई बार लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं, कि देखो लड़कियां भी अब यह जिम्मेदारी निभा रही हैं। यह सुनकर अच्छा लगता है।

कारगिल में दो-तीन मामले आए, लेकिन सावधानी रखकर काम में जुटीं

कारगिल में स्थित एटीएम में कैश पहुंचाने का काम करती हैं जाकिया बानो।

देश के सबसे ऊंचे इलाकों में से एक लद्दाख के कारगिल के एटीएम तक पैसे पहुंचाने का काम जाकिया बानो कर रही हैं। जाकिया 27 साल की हैं और इनके परिवार में चार बहनें और एक भाई है। बोलीं, कारगिल में एक एटीएम में कैश पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी है। कोरोना से डर लगता है? ये पूछने पर बोलीं, हमारे यहां दो-तीन केस आए हैं, लेकिन हम मास्क और ग्लव्ज पहनकर अपना काम कर रहे हैं।

देशभर में 60 हजार से ज्यादा एटीएम को मैनेज करने वाली एजीएस ट्रांजैक्ट टेक्नोलॉजी लिमिटेड के एचआर (ग्रुप हेड) पाथ समाई कहते हैं कि, फील्ड में काम कर रहे हमारे कर्मचारियों के लिए भी उनकी फैमिली फिक्रमंद रहती है। जितना रिस्क डॉक्टर, नर्स उठा रहे हैं, उतना ही रिस्क एटीएम तक पैसा पहुंचाने वाली टीम भी उठा रही है। खतरे के बावजूद हर कोई अपना सौ प्रतिशत दे रहाहै, इसी का नतीजा है कि एटीएम में कैश की किल्लत नहीं हो रही।



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Coronavirus In Jammu Kashmir/Kargil Lockdown Update; Meet Woman Who Deliver Money to ATM




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बेजान चेहरे और थके हुए शरीर बता रहे थे कि कितने मुश्किल से कटे दिन, अपने राज्य में पहुंचते ही मिला सुकून

लॉकडाउन के बीच देश के दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों को लाने का सिलसिलाशुरू हो चुका है। कई दिनों से दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों ने शनिवार को जब अपने ठिकानों पर कदम रखे तो सुकून की सांस ली। इनके चेहरे पर न गुस्सा था न ही आक्रोश था। इन्हें सरकार से कोई गिला-शिकवा भी नहीं। हर किसी के मन में इसी बात की तसल्ली थी कि, जो भी हुआ, जैसा भी हुआ, कम से कम अपने घर तो आ गए।

पटना पहुंची ट्रेन के यात्रियों के हाल...

रेलवे स्टेशन पर यात्रियों ने सोशल डिस्टेंसिंग को फॉलो किया।

1200 से ज्यादा मजदूरों को लेकर पटना पहुंची ट्रेन
जयपुर से मजदूरों को लेकर निकली पहली ट्रेन शनिवार दोपहर 2 बजकर 6 मिनट पर पटना के दानापुर रेलवे स्टेशन पहुंची। इसमें 1200 से अधिक मजदूर थे। प्लेटफॉर्म नं. 5 पर खड़ी हुई इस ट्रेन के लिए कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी। प्लेटफॉर्म के रॉन्ग साइड पर भी पुलिस के जवान तैनात थे ताकि कोई यात्री दूसरी तरफ उतरकर कहीं चला न जाए।

डीएम, एसएसपी, एसपी समेत पुलिस और प्रशासन के कई बड़े अधिकारी मौजूद थे। यात्रियों को लाइन में एक दूसरे से दूरी बनाकर खड़ा किया गया और सोशल डिस्टेंसिंग को फॉलो करवाते हुए ही स्टेशन परिसर से बाहर करवाया गया। स्टेशन के नजदीक की स्थित रेलवे स्कूल के परिसर में सभी यात्रियों की स्क्रीनिंग हुई। यहां खाने का इंतजाम भी था। यहां से मजदूरों को उनके जिले के ब्लॉक में बने क्वारैंटाइन सेंटर तक बस से भेजा गया। मजदूरों को 21 दिन क्वारैंटाइन सेंटर में रहना होगा। इसके बाद ही अपने घर जा सकेंगे।

बेजान चेहरे, थके हुए शरीर बहुत कुछ बयां कर रहे थे
इन मजदूरों ने लॉकडाउन के 38 दिन कैसे काटे, यह उनके बेजान चेहरे और थके हुए शरीर को देखकर ही महसूस किया जा सकता था। लेकिन अपने राज्य में कदम रखते ही इन उदास चेहरों पर मुस्कान आ गई। खुशी इस बात की थी कि, आखिरकार जिंदा अपने घर पहुंच ही गए। लॉकडाउन में इन मजदूरों को काम ही नहीं मिला, इस कारण मजदूरी भी नहीं मिली।

थोड़े बहुत जो पैसे थे, उनसे कुछ दिन कट गए, बाद में तो खाने के भी लाले पड़े गए।इन्हीं में से किशनगंज के अशोक कुमार ने बताया कि, दो वक्त खाने की भी परेशानी हो गई थी। हमेशा बस मन में यही ख्याल रहता था कि कैसे भी अपने घर पहुंच जाएं, ताकि जिंदा रहें। जिस गांव में रहते थे, वहां के प्रधान से ट्रेन के बारे में जानकारी मिली। ट्रेन में खानेका इंतजाम भी सरकार की तरफ से किया गया था। किसी को टिकट भी नहीं लेना पड़ी। जयपुर में खाना मिला था, रास्ते में मिला।

ट्रेन में एक सीट पर एक यात्री को बिठाया गया था।

एक सीट पर एक आदमी को बैठाया गया
बेतिया के झुन्ना कुमार बोले, शुक्र है। घर पहुंच गए। बोले, सफर काफी अच्छा रहा। एक सीट पर एक आदमी को बैठाया गया था। किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई। रास्ते में खाना-पानी भी मिला। रास्ते में हम लोग आपस में बात कर रहे थे कि किसी तरह अच्छे से अपने घर पहुंच जाएं। पटना पहुंच गए, अब राहत मिली।

रोहतास के गजाधर साह ने कहा कि, मैं नागौर जिले के लादेर में काम करता था। मेरी कंपनी के अधिकारी ने कहा कि ट्रेन जा रही है। गांव जाना है तो तैयार होकर आ जाओ। मैं अपने साथ काम करने वाले पांच लोगों के साथ आया हूं। कंपनी ने जयपुर तक पहुंचाने की व्यवस्था की। अब अपने राज्य में आकर सुकून मिला है।

पुलिस से मिली ट्रेन की सूचना
अजमल अली बोले, मैं नागौर जिले में काम करता था। पुलिस ने सूचना दी कि एक ट्रेन बिहार जाने वाली है। जयपुर तक पहुंचाने के लिए बस की व्यवस्था की गई। सभी मजदूरों के नाम की लिस्ट पहले से बनी थी। उसी लिस्ट के अनुसार हम लोगों को बस पर सवार किया गया। मैं वहां सीमेंट प्लांट में काम करता था। मजदूरों ने घर भेजने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन भी किया था। आखिरकार हम घर आ गए। बोले, मेरी पत्नी और बच्चे चिंता में रो रहे थे। मुझे उनकी भी हरदम चिंता सता रही थी।

घर पहुंचकर बहुत खुश हूं
रोहतास के ही अमित कुमार ने कहा कि, मैं नागौर जिले के मूण्डवा में एक फीटर के साथ काम करता था। कंपनी के लोगों से ट्रेन के बारे में जानकारी मिली। सफर में कोई परेशानी नहीं हुई। जयपुर में खाना खाकर ट्रेन में सवार हुए थे, फिर मुगलसराय में खाना मिला। बहुत खुशी की बात है कि अपने घर आ गया हूं। एक माह से अधिक समय से लॉकडाउन में फंसा था।

रांची पहुंची ट्रेन के यात्रियों के हाल...

हैदराबाद के लिंगमपल्ली स्टेशन से रांची के हटिया स्टेशन पर स्पेशल ट्रेन के जरिए शुक्रवार रात को 1200 प्रवासी मजदूरों को लाया गया। यहां सभी मजदूरों की थर्मल स्क्रीनिंग की गई। फिर उन्हें बसों के जरिए सोशल डिस्टेंसिग का पालन करते हुए उनके घर भेज दिया गया। अलग-अलग जिलों में शनिवार सुबह मजदूरों के पहुंचने के बाद उनकी फिर से स्क्रीनिंग की गई और फिर उन्हें एहतियातन होम क्वारैंटाइन कर दिया गया। घर पहुंचे दो मजदूरों की कहानी, उन्हीं की जुबानी-

ऐसा लगा गार्ड मजाक कर रहा है
चतरा जिला के पत्थलगड़ा थाना क्षेत्र निवासी उदय राम भी हैदराबाद की ट्रेन में सवार होकर घर पहुंचे हैं। बोले, हैदराबाद में मैं जिस कंपनी में काम करता हूं, वहां पास में ही एक कॉलोनी है जहां बिहार और बंगाल के भी मजदूर रहते हैं। गुरुवार को हम सभी करीब 9 बजे के बाद खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहे थे।

तभी कॉलोनी के गार्ड ने आकर बताया कि जिसे झारखंड जाना है, सामान लेकर बाहर आ जाओ, झारखंड के लिए ट्रेन जाने वाली है। पहले मुझे लगा कि गार्ड मजाक कर रहा है। फिर थोड़ी देर बाद वो बाहर आकर देखा तो मजदूर लाइन लगा रहे थे। पुलिस भी थी। मैं भी अंदर गया। 10 मिनट में जल्दी-जल्दी अपना सामान पैक किया और बाहर खड़ा हो गया। वहां पुलिस ने मुझसे आधारकार्ड मांगा। कागजात चेक किए और फिर लाइन में खड़ा कर दिया।

अपने राज्य में पहुंचते ही मजदूरों ने राहत की सांस ली।

रास्त में खाना-पानी मिला, सफाई भी थी
थोड़ी देर बाद वहां बस आई जिससे एक फीट की दूरी पर हम लोगों को बिठाया गया और रेलवे स्टेशन ले जाया गया। यहां भी स्टेशन के बाहर एक-एक फीट की दूरी पर खड़ा किया। फिर सभी के हाथ सैनिटाइज कराए गए और थर्मल स्क्रीनिंग हुई। पुलिस ने एक-एक करके स्टेशन के अंदर एंट्री दी। ट्रेन के पास एक प्रशासन का कर्मचारी खड़ा था जिसने हमें बस की तरह टिकट फाड़ कर दिया।

अंदर स्लीपर बोगी में एक सीट पर एक आदमी को बैठाया गया। रास्ते के लिए खाना, पानी भी दिया गया। कहीं भी रुपए नहीं देने पड़े। बाथरुम वगैरह सबकुछ साफ था। नियम भी पहले की तरह था। लेकिन नया ये था कि हर बार स्लीपर बोगी में साबुन नहीं रहता था, इस बार साबुन भी था। पूरी ट्रेन में सिर्फ झारखंड के लोग सवार थे, वहां कोई नहीं छूटा है। हां बिहार और बंगाल के लोग वहीं रह गए। जब से लॉकडाउन लगा तब से ही मैं घर जाने का इंतजार कर रहा था। ट्रेन में सब कोरोनावायरस को लेकर ही बातचीत करते सुनाई दिए।

साहब ने बताया कि ट्रेन जा रही है
चतरा जिले के पत्थलगड़ा थाना क्षेत्र के बेलहर गांव निवासी रंजन दांगी भी ट्रेन से लौटने वालों में हैं। उन्होंने कहा- हैदराबाद में मुझे मेरे ऑफिस के साहब ने बताया कि झारखंड के लिए जाना है तो बाहर निकलो। वह भी हैदराबाद में उसी कालोनी में रहते हैं। उस वक्त रात के 11 बज रहे थे। बाहर निकले तो हमें बस में बिठाया गया और फिर लिंगमपल्ली ले जाया गया। यहां आने के बाद पता चला कि हमें ट्रेन से ले जाया जाएगा। स्टेशन पर मेडिकल जांच हुई। बस में एक सीट पर एक ही आदमी को बिठाया गया था।

ट्रेन में खाने-पीने का पूरा इंतजाम किया गया था।

पूड़ी-सब्जी और दाल-चावल खाने में मिला
ट्रेन के अंदर रांची तक पहुंचने में तीन टाइम खाना और पानी मिला। पानी की पांच-पांच बोतल मिली थी। दो बार चावल दाल और एक बार पूड़ी सब्जी दी गई। किसी भी चीज के लिए हमें एक रुपए भी नहीं देने पड़े। ट्रेन में हमें हिदायत दी गई थी टॉयलेट के अलावा कोई अपनी जगह से ईधर-उधर नहीं जाएगा। हमेशा मुंह पर मास्क लगाकर रखना है। किसी से कोई बातचीत नहीं करना है।

लिंगमपल्ली से चलने के बाद सिर्फ एक जगह ट्रेन रूकी थी। जहां खाना लिया गया था। फिर ट्रेन आगे चल पड़ी। मेरे दो जानकार वहां रह गए हैं। हम महीनों से घर जाने का इंतजार कर रहे थे। वहां खाने की कोई दिक्क्त नहीं थी। लेकिन डर लगता था। बार-बार बस घर जाने का ही मन करता था।



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कमांडिंग ऑफिसर अपनी यूनिट का पिता होता है, खुशनसीब हैं हम जिनके पास कर्नल आशुतोष जैसे कमांडिंग ऑफिसर्स हैं

रविवार सुबह हम सब जागे तो 21 राष्ट्रीय राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल आशुतोष की शहादत की खबर मिली। कर्नल आशुतोष वीर योद्धा थे, जिन्हें दो बार सेना मेडल मिल चुका था। सेना मेडल की प्रतिष्ठा ये गवाही देती है कि वह कितने बहादुर थे।

आमतौर पर इस तरह के ऑपरेशन पर जूनियर ऑफिसर जाते हैं। कमांडिंग ऑफिसर उन्हें पीछे से ऑर्डर दे रहे होते हैं। पर यहां कर्नल शर्मा सामने से लीड कर रहे थे। अपनी जान को जोखिम में डालकर। लीडरशिप का सबसे खूबसूरत उदाहरण कायम करते हुए। भारतीय सेना में शायद कमांडिंग ऑफिसर इसी के लिए होते हैं। नेतृत्व करने, मेंटर करने और उदाहरण बन जाने के लिए।

पॉजिटिव रहना, प्रभावी और हौसला देना ही अहम जिम्मेदारियां होती हैं कमांडिंग ऑफिसर होने की। टेक्टिकल प्लानिंग और एडमिनिस्ट्रेशन के इतर। वह यूनिट के लिए पिता की तरह होता है। जिसके जिम्मे होता है हर एक व्यक्ति और उनके परिवारों की सुरक्षा और देखभाल।

वह अपने यूनिट के ऑफिसर और जवानों का रोल मॉडल होता है। वह सैनिकों को कर के दिखाता है कि क्या करना चाहिए, कैसे और कब करना चाहिए। हालात चाहें कुछ भी हों, कमांडिंग ऑफिसर वह करता है जो उसके देश, यूनिट और सैनिकों के लिए बेस्ट हो।

यह जानना जरूरी है कि सेना की पिरामेडिक हेरारकीमें सिर्फ 30% ऑफिसर ही कमांडिंग ऑफिसर बन पाते हैं। वो भी लंबी और मुश्किल सवालों वाले बोर्ड को पास करने के बाद एक ऑफिसर जो कर्नल तो होता है वह कमांडिंग ऑफिसर बन पाता है।

फौज के ज्यादातर ऑफिसर ये कबूल करते हैं कि कमांडिंग ऑफिसर बनना सर्विस का सबसे अच्छा वक्त होता है,क्योंकि तब वह कमांड में सबसे सीनियर होते हैं और अपने जवानों के सबसे करीब भी। उनका अपने जवानों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

यह साथ इतना मजबूत होता है कि जवानों और उनके परिवार का ख्याल भी सीओ ही रखते हैं। उनकी हर हरकत पूरीयूनिट देख और अपना रहीहोतीहै। यह उनकी जिम्मेदारी कई गुना बढ़ा देता है। दबाव तो बेहिसाब होता है, भीतर भी और बाहर भी। यूनिट की देखरेख के आलावा उसके बेहतर होने का भी ध्यान रखना होता है।

यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर को टाइगर कहा जाता है और उनका ऑफिस टाइगर्स डेन कहलाता है। उनकी सहजता के साथ किलर इंस्टिंक्ट और बेपनाह एनर्जी ही उन्हें ये नाम देती है। अपनी ऊर्जा का फायदा उठाना और वह भी संयमित और शांत रहकर ही असली कमांडिंग ऑफिसर बनाता है। यूनिक की तरक्की और बेहतरी दोनों उन्हीं के कंधों पर निर्भर करती है।

खुशनसीब है हमारी भारतीय सेना जिसके पास बेस्ट ऑफिसर्स और कर्नल आशुतोष जैसे कमांडिंग ऑफिसर्स हैं। जो हर दम अपने सैनिकों को इंस्पायर करते हैं। अपनी पूरी पीढ़ी को यह सिखाते हैं कि सर्विस बिफोर सेल्फ आखिर होता क्या है।


जय हिंद।

अंबरीन जैदी मशहूरलेखिका और ब्लॉगरहैं। उनके पति खुद भी कमांडिंग ऑफिसर रह चुके हैं।वह अपने ऑर्गनाइजेशन चेंजमेकर के जरिए शहीदों के परिवारोंके लिए काम करती हैं।



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The commanding officer is the father of his unit, our army is fortunate to have commanding officers like Colonel Ashutosh.




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अब सोचने का समय जनता का है

कोरोना के दौर की तीसरी तालाबंदी शुरू हो चुकी है। दृश्य ऐसा लग रहा है कि कलाकार ने डोर कठपुतली के हाथ में ही सौंप दी है। सख्ती और ढील की दोधारी तलवार पर अब जनता को खुद संभलकर चलना होगा। तालाबंदी-1 मानो राम के युग त्रेता की थी, दूसरी कृष्ण का युग द्वापर था और इस तीसरी में कलियुग का प्रवेश हो गया है। भागवत में कथा आती है कि राजा परीक्षित ने एक काले आदमी को गाय और बैल को मारते देखा तो पूछा- आप कौन हैं.? उस आदमी ने कहा- मैं कलियुग। गाय धरती, बैल धर्म है। मैं जब आता हूं तो इन पर प्रहार करता हूं। आप राजा हैं, आपके राज्य से मुझे प्रवेश करना है तो मुझे इसकी अनुमति दें। परीक्षित ने चार स्थान कलियुग को प्रवेश के लिए दिए थे- मदिरा, जुआ, व्यभिचार और हिंसा। कलियुग ने कहा- ये चार कम हैं, एक और दीजिए। तो स्वर्ण दे दिया। इन पांच स्थानों से कलियुग आया और पसर गया। कलियुग और कोरोना इस समय एक जैसे हैं। इन पांच स्थानों से तालाबंदी-3 के दौरान हम कोरोना का प्रवेश देख सकेंगे और यदि इन पर जरा भी लापरवाह हुए तो कोरोना हमसे बहुत बड़ी कीमत वसूलेगा। कलियुग की विशेषता है कि इसमें समझ में आना बंद हो जाता है क्या सही है, क्या गलत। जैसे थूकना मना है, पर पान की दुकानें खोल दी गईं। मंदिर बंद हैं, मैखाने खुल गए। उस पर लोगों से कहा जा रहा है- होश मत छोड़ना..। ऐसे में अब जनता को खुद ही सोचना होगा। सब कुछ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता..।

जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें



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