india news ढाई वर्ग किमी में रहती है 15 लाख की आबादी; दस बाई दस के कमरे में 10-10 लोग, 73% पब्लिक टॉयलेट इस्तेमाल करते हैं By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 09:41:00 GMT धारावी चारों ओर से सील है। कोई भी बाहरी व्यक्ति यहां अंदर नहीं जा सकता। हर ओर पुलिस के बैरिकेट्स हैं और सख्त पहरा भी। यह शहर के अंदर एक शहर है। फिल्मों और लेखकों का पसंदीदा मुद्दा और लोकेशन रहा है। इतना पसंदीदा की मुंबई में धारावी के लिए स्लम टूरिज्म होता है।दुनिया के इस सबसे बड़े स्लम (2.6 स्क्वायर किलोमीटर इलाका) में 15 लाख लोग रहते हैं। यहां दस बाईदस फीट का कमरा 8-10 लोगों का घर होता है। यहां 73 फीसदी लोग पब्लिक टॉयलेट इस्तेमाल करते हैं। किसी टायलेट में 40 सीट होती हैं, कहीं 12 और कहीं 20 सीट वाले टॉयलेट होते हैं। एक सीट को रोज अंदाजन 60 से 70 लोग इस्तेमाल करते हैं, यानी एक दिन में एक हजार से ज्यादा लोग पब्लिक टॉयलेट में आते हैं।जाहिर है इन सबके बीच सोशल डिस्टेंसिंग कैसे संभव हो सकती है। जिस सोशल डिस्टेंसिंग के लिए पूरा देश घर के अंदर रहता है, उसी सोशल डिस्टेंसिंग के लिए धारावी घर से बाहर रहता है। यहां सुबह होते ही लोग इन घुटन भरे कमरों से बाहर गलियों में निकल आते हैं।यहां सायन अस्पताल के एक 20 बेड के वॉर्ड को क्वारैंटाइन सेंटर बनाया गया है। यहां भर्ती होने के तीन या चार दिन बाद सैंपल लिया जाता है और तीन दिन बाद रिपोर्ट आती है। जहां से कोरोना पॉजिटिव मरीज मिलता है, उसके घर में जगह है तो परिवार और आसपास के लोगों को घर में क्वारैंटाइन होने के लिए कहा जाता है। उनसे बोल दिया जाता है कि लक्षण आने पर वे फौरन अस्पताल आएं, बीएमसी के डॉक्टर भी कॉल करके फॉलोअप लेते हैं। लेकिन अब मरीज इतने हो गए हैं कि डॉक्टर कॉल नहीं कर पा रहे हैं। पॉजिटिव मिलने पर उन्हें अस्पताल ले जाया जाता है। जाना तो कोई नहीं चाहता लेकिन उन्हें जबरदस्ती ले जाया जाता है।बॉलीवुड-हॉलीवुड की कई फिल्मों में धारावी को दिखाया गया है। दुनिया के इस सबसे बड़े स्लम में ढाई स्क्वायर किमी में 15 लाख लोग रहते हैं।15 अप्रैल को धारावी में 56 वर्षीय मोहम्मद तालिब शेख का कोविड-19 से इंतकाल हो गया। उनके दोनों बेटे उनके पास नहीं थे। एक सउदी में तो दूसरा उत्तर प्रदेश में है। उनके करीबी रिश्तेदार मतिउर्ररहमान बताते हैं, "हम कोरोना से इतना परेशान नहीं थे, उसका इलाज करवा लेते लेकिन शेख साहब को वक्त पर डायलिसिस नहीं मिला। क्योंकि कोरोना मरीजों का डायलिसिस अलग मशीन से किया जा रहा है और पूरे मुंबई में वह मशीन खाली नहीं थी। मेरे सामने हर दिन उनका पेट फूलता चला गया और वह बुरी तरह तड़प कर मरे हैं। ‘ मतिउर्ररहमान, तालिब शेख की वजह से धारावी के पास सायन अस्पताल में पांच दिन तक रहे।धारावी के मरीजों और संदिग्धों के लिए यहीं क्वारैंटाइन सेंटर बनाया गया है। मतिउर्रहमान बताते हैं कि यहां 20 बेड का एक कमरा है, जहां कोरोना पॉजिटिव, निगेटिव और संदिग्ध मरीजों को रखा गया है। तालिब शेख को लक्षण आने के बाद 7 अप्रैल को सायन अस्पताल के क्वारंटीन सेंटर ले जाया गया था, जहां तीन दिन बाद उनका टेस्ट हुआ।वह पहले से किडनी और लो बीपी के मरीज थे। उनकी हालत ऐसी नहीं थी कि वह वहां ज्यादा दिन रह सकते लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी। स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना था कि उनके पास टेस्टिंग किट आएगी तो ही वह टेस्ट कर सकेंगे।मतिउर्ररहमान ने दबाव से तालिब शेख को उस क्वारैंटाइन सेंटर से निकाला और चैंबूर के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवा दिया, जहां उनकी कोरोना की रिपोर्ट पॉजिटिव आई लेकिन यह सुनते ही तालिब शेख को हार्ट अटैक आ गया।धारावी में सामुदायिक तौर पर कोरोना फैलने की शुरुआत हो चुकी है। इसमें कोई शक नहीं कि यहां लोग लॉकडाउन को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं और कोरोना के भयानक नतीजों से भी बेखबर हैं। शाम के वक्त जब खाना बंटता है तो यहां मेला लग जाता है। सामान्य दिनों से ज्यादा बुरी हालत होती है।एक अनुमान के मुताबिक, धारावी में 1 बिलियन डॉलर का कारोबार इनफॉर्मल इंडस्ट्री से होता है। फिलहाल यहां सबकुछ बंद है।टेड स्पीकर और टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) के छात्र फाहद अहमद बताते हैं, "हम मुंबई के बड़े स्लम धारावी-कमाठीपुरा में राशन और खाना बंटवाते हैं लेकिन धारावी में स्थितियां हाथ से निकल चुकी हैं। सरकारी मदद के बिना धारावी को बचाया नहीं जा सकता है।""पहले यह होता था कि धारावी में लोग सुबह काम पर निकल जाते थे और रात में बुरी तरह थककर सो जाते थे। पांव पसारने की जगह भी मिल जाती थी तो नींद आ जाती थी अब सुबह से रात तक एक खोली में 10-10 लोगों के रहने से मानसिक बीमारियां भी हो रही हैं और ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग तो हो ही नहीं सकती है।"फहाद कहते हैं, "धारावी में लॉकडाउन असंभव है। अगर लॉकडाउन लगवाना है तो यहां के हर घर से आधे से ज्यादा लोगों को किसी स्कूल या किसी मैदान में शिफ्ट करना होगा। तब जाकर पॉपुलेशन डेनसिटी कम होगी।"फाहद बताते हैं, "बीमारी फैल रही है इसमें यहां लोगों की भी गलती है। कुछ लोग तो पुलिस को भी चिढ़ाते लगते हैं कि देखो हम घर से बाहर हैं। मेरे सामने कोरोना से चार मौतें हो चुकी हैं लेकिन अब कुछ दिनों में भूख से मौतें शुरू हो जाएंगी। खाने की कतारें हर दिन लंबी होती जा रही हैं। हर दिन 40 से 50 लोगों को बिना खाने के लौटाना पड़ता है।"धारावी में राशन बंटने के दौरान इसी तरह भीड़ इकट्ठा हो जाती है।लंबे समय से विदेशी मीडिया के लिए धारावी कवर कर रहे पार्थ एमएन कहते हैं, "अगर धारावी पैरालाइज हो गया तो मुंबई की आर्थिक व्यवस्था में यह एक बड़ा धक्का होगा। कामगारों की एक बड़ी संख्या यहां से ही आती है। यहां दस हजार से ज्यादा मैन्युफैक्चिरिंग यूनिट्स हैं जो कि बंद पड़े है। यहां घर-घर में जींस, रेडीमेड कपड़े, लेबलिंग, प्लास्टिक और लैदर का होलसेल काम होता है और फैक्ट्रियां चलती हैं। 1 बिलियन डॉलर का कारोबार यह इनफॉर्मल इंडस्ट्री से होता है।"लगभग दस लाख आबादी वाले धारावी को 7 वॉर्ड में बांटा गया है। यहां के सबसे अधिक प्रभावित वॉर्ड के नगर सेवक बाबू खान बताते हैं कि अगर धारावी के लिए पहले से प्रशासन सतर्क होता तो शायद हालात संभले हुए होते। लोग डरे हुए हैं, बदहवास हैं, इनके हलक सूखे हुए हैं, ये भूखे हैं, बिना पैसे के हैं, दूसरी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं।बाबू खान को बीएमसी की तरफ से 500 पैकेट खाने के दिए जाते हैं। जिसमें चावल होते हैं। वह कहते हैं कि एक मजदूर का उस चावल से क्या होगा? दूसरा यह भी कि इलाके में डेढ़ लाख लोग रहते हैं। डेढ़ लाख में से बीएमसी सिर्फ 500 लोगों को मुट्ठी भर चावल दे रही है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today धारावी में बड़ी संख्या में कामगार और मजदूर रहते हैं। यहां दस हजार से ज्यादा मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स हैं। यहां घर-घर में जींस, रेडीमेड कपड़े, लेबलिंग, प्लास्टिक और लैदर का होलसेल काम होता है। Full Article
india news लॉकडाउन के कारण नहीं हो रही फूलों की बिक्री, कर्ज में डूबे किसान; 9 साल के बच्चे ने वीडियो में कहा- देखो, गेंदा कैसे फेंकना पड़ रहा By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 09:47:49 GMT कुणाल की उम्र नौ साल है और वो मेरठ जिले के लावड कस्बे में रहते हैं। उनके दादा छेद्दा सिंह एक किसान हैं और बीते कई साल से गेंदे के फूल की खेती कर रहे हैं। इस साल जब लॉकडाउन के चलते छेद्दा सिंह की फूलों की सारी फसल बर्बाद होने लगी तो कुणाल ने अपने दादा की मदद के लिए एक बेहद मासूम प्रयास किया।कुणाल ने एक बर्बाद होते फूलों का एक वीडियो बनाया और टिकटॉक पर इसे साझा करते हुए कहा, ‘देखिए भाइयों देखिए। किसानों को खेत से बाहर कैसे फेंकना पड़ रहा है गेंदा। किसानों का कोरोनावायरस की वजह से बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है। इसीलिए इस वीडियो को लाइक और शेयर करके आगे बढ़ाएं।’ देश में सबसे अच्छा गेंदा मेरठ में होता है, उस इलाके से एक रिपोर्ट...भरपूर मासूमियत और बेहद उत्साह के साथ कुणाल बताते हैं कि उनका ये वीडियो अब तक 125 लोगों ने देख लिया है। यह पूछने पर कि उन्होंने यह वीडियो क्यों बनाया, वे पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, ‘ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जान सकें कि कोरोनावायरस के कारण किसानों को कितना नुकसान हो रहा है।’जिस नुकसान का जिक्र कुणाल कर रहे हैं उसकी मार इन दिनों मेरठ की सरधना तहसील के सैकड़ों किसान झेल रहे हैं। यहां लावड कस्बे में सब्जियों और फूलों की अच्छी-खासी खेती होती है। सैकड़ों किसान अपने खेतों में गेंदे के फूल उगाते हैं जिनकी बिक्री उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों से लेकर दिल्ली तक होती है। इन दिनों लावड के खेत गेंदे के सुंदर फूलों से लहलहा रहे हैं, लेकिन इन्हें खरीदने वाला कोई नहीं है। लिहाजा किसान इन फूलों को फेंकने को मजबूर हो गए हैं और लाखों रुपए के कर्ज में डूब गए हैं।मेरठ की सरधना तहसील के लावण कस्बे में 90 के दशक में गेंदे के फूलों की खेती शुरू हुई थी। अब यहां सैकड़ों किसान इसकी खेती करते हैं।60 साल के हरपाल सिंह ने अपने छह बीघे के खेत में गेंदे के फूल उगाए थे। फूलों की पैदावार भी इस साल अच्छी हुई और हरपाल को उम्मीद थी कि उन्हें फूलों के अच्छे दाम मिल जाएंगे। लेकिन कोरोना के चलते हुए देशव्यापी लॉकडाउन ने उनकी तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया।हरपाल बताते हैं, ‘मंडी सिर्फ दो घंटे के लिए खुल रही है। उसमें भी सिर्फ सब्जियां ही बिक पाती हैं। फूलों की बिक्री बिलकुल बंद है। एक दिन हम फूल लेकर मंडी गए भी थे लेकिन तभी पुलिस डंडे बजाने लगी। सारे फूल वहीं छोड़ कर किसी तरह खुद को बचाकर भागे।’ हरपाल अब अपने पूरे खेत से गेंदे को उखाड़ कर फेंक चुके हैं और नए सिरे से सब्जियां उगा रहे हैं। यही स्थिति इस इलाके के तमाम अन्य किसानों की भी हो गई है।70 साल के छेद्दा सिंह उन लोगों में से हैं जिन्होंने लावड के इस इलाके में फूलों की खेती की शुरुआत की थी। वो बताते हैं कि 90 के दशक की शुरुआत में जब उन्होंने यहां फूल उगाने शुरू किए तो उन्हें अच्छा मुनाफा होने लगा। लेकिन उस वक्त स्थानीय मंडी में फूलों की ज्यादा मांग नहीं थी लिहाजा उन्हें फूल बेचने दिल्ली आना पड़ता था। तब उन्होंने इलाके के कई किसानों को फूलों के बीज मुफ्त बांटे और उन्हें भी इसकी खेती के लिए प्रेरित किया ताकि सब किसान मिलकर अपने फूल दिल्ली ले जाएं और ढुलाई का खर्चा कम आए।छेद्दा सिंह की पहल से स्थानीय किसानों को अच्छी खासी बचत होने लगी तो देखते ही देखते इलाके के सैकड़ों किसानों ने गेंदे की खेती शुरू कर दी। छेद्दा सिंह कहते हैं, ‘गेंदे का फूल किस कीमत बिक जाए, कोई भरोसा नहीं। कभी ये पांच रुपए किलो बिकता है तो कभी पचास रुपए किलो तक भी बिक जाता है। लेकिन मोटा-मोटा औसत देखें तो मरे-से-मरा भी दस रुपए किलो तो हर साल बिकता ही है। इस रेट पर भी अगर इस साल माल बिकता तो मेरे 12 बीघे की फसल का कम-से-कम दो लाख रुपए तो तय था। किस्मत अच्छी रहती तो तीन-चार लाख तक भी मिल सकता था। लेकिन सब बर्बाद हो गया और एक पैसा भी नहीं आया।’छेद्दा सिंह ने अपने 14 बीघे के खेत में से 12 बीघा पर गेंदा ही उगाया था। इसके लिए उन्होंने आढ़तीयेसे पचास हजार का कर्ज भी लिया था।छेद्दा सिंहकहते हैं, ‘मैंने ये सोच कर कर्ज लिया था कि पैदावार अच्छी होने पर चुका दूंगा। क्या मालूम था कि अच्छी पैदावार के बाद भी सारी फसल बर्बाद चली जाएगी। अब सरकार से अगर कोई मदद नहीं मिली तो हम इस कर्ज से पता नहीं कैसे उभर सकेंगे।’ लाखों का नुकसान झेल रहे छेद्दा सिंह को सरकारी मदद के नाम पर अब तक मात्र पांच सौ रुपए मिले हैं जो उनकी पत्नी राजेश्वरी देवी के जन-धन खाते में सरकार की ओर से आए हैं।गेंदा उगाने वाले कुछ किसान ऐसे भी हैं जिन्हें अब भी उम्मीद है कि शायद लॉकडाउन खत्म होने के बाद उनके फूल बिकने लगें और नुकसान की कुछ तो भरपाई हो सके। लेकिन ऐसा भी सिर्फ वे ही किसान कर पा रहे हैं जिनके फूल अभी पूरी तरह खिले नहीं हैं और इसमें अभी 15-20 दिन का समय बाकी है। वरना ज्यादातर किसान अब नियति से हार चुके हैं और फूलों की फसल की बर्बादी को स्वीकार करते हुए अन्य विकल्प तलाशने लगे हैं।20 साल के शनि सिंह कहते हैं, ‘मैंने तीन बीघे पर फूल उगाए थे जो इस वक्त खेत में खिलखिला रहे हैं। लेकिन अब इन्हें उखाड़ रहा हू और तोरई लगा रहा हूं। सब्जियों का तो ऐसा है कि भले ही कुछ कम दाम मिले लेकिन बिक तो जाती है। फूल तो पूरी तरह बर्बाद हुए हैं। एक पैसा भी नहीं मिला।’ इन तमाम किसानों द्वारा फेंके जा रहे ये फूल अब सिर्फ उन लोगों के काम आ रहे हैं जो अपने जानवरों के चारे में मिलाने के लिए इनमें से कुछ फूल उठा कर ले जाते हैं।देश भर में हुए लॉकडाउन के चलते सब्जी मंडियां तो खुल रही हैं लेकिन फूलों की बिक्री पूरी तरह बंद हो गई है। ये फूल ज्यादातर या तो मंदिरों और उनके पास लगने वाली दुकानों में जाते थे या फिर ब्याह-बारात जैसे आयोजनों में सजावट के काम आते थे। चूंकि इन दिनों मंदिर-मस्जिद भी बंद हैं और हर तरह के बड़े आयोजनों पर भी रोक है लिहाजा इन फूलों को खरीदने वाला कोई नहीं है। ऐसे में फूल उगाने वाले ये सैकड़ों किसान भारी आर्थिक बोझ तले दाब चुके हैं।सब्जी उगाने वाले किसानों की स्थिति फूल की खेती करने वालों से कुछ बेहतर है लेकिन नुकसान उन्हें भी कम नहीं हुआ है। ये किसान बताते हैं कि मंडियां सिर्फ दो घंटे के लिए खुलती हैं तो वहां माल-भाव की गुंजाइश ही नहीं बचती और बड़े ठेकेदार मनमाने दाम पर सब्जी लेते हैं।गोभी की खेती करने वाले कृष्ण पाल कहते हैं, ‘मुझे वो गोभी चार रुपए किलो बेचनी पड़ी जो कम-से-कम 22 से 25 रुपए किलो बिकनी थी। लेकिन मंडी में ठेकेदार कहता है कि बेचनी है तो बोला वरना वापस ले जाओ। इन दिनों न तो कहीं हाट लग रही है और न कोई और जगह है जहां हम सब्जी बेचने जा सकें। इसलिए उनकी मनमानी चल रही है। दो घंटे के बाद पुलिस लठ चलाने लगती है और वहां रुकने नहीं देती। मजबूरी में जो दाम मिले उसी पर बेच रहे हैं लेकिन इस दाम पर हमारी लागत तक नहीं निकल रही।’कृष्ण पाल की ही बात को आगे बढ़ाते हुए छेद्दा सिंह कहते हैं, ‘इसने जो गोभी लगाई थी उसका बीज ही 70 हजार रुपए प्रति किलो मिलता है। खेत की लागत और महीनों की मेहनत अलग से। इसके बाद भी ऐसे कौड़ियों के दाम सब्जी बिकेगी तो किसान कैसे जिंदा रहेगा। वही गोभी जब आम आदमी तक पहुंचेगी तो कम से कम 40-50 रुपए किलो बिकेगी और किसान को उसके सिर्फ छह रुपए मिल रहे हैं। इतनी हसीन गोभी होने के बाद भी किसान कर्ज में ही है।’गोभी की खासियत बताते हुए जब छेद्दा सिंह ‘हसीन’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो उस लगाव की साफ झलक दे जाते हैं जो एक किसान का अपनी उपज से होता है। वही लगाव जो एक रचनाकार अपनी उस रचना से रखता है जिसे रचने में उसने खुद को झोंक दिया होता है। और तब किसान का ये नुकसान सिर्फ आर्थिक पैमानों पर मापे जाने से कहीं बड़ा नजर आने लगता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today कुणाल की उम्र 9 साल है। उनके दादा छेद्दा सिंह फूलों की खेती करते हैं। Full Article
india news रोटी के संकट से मजदूरों में भर रही है निराशा By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:01:00 GMT आने वाली कई सदियों तक समाजशास्त्री इस बात पर शोध करेंगे कि लॉकडाउन के ऐलान के बाद करोड़ों प्रवासी मजदूरों का संकट कितने किस्म का था और तब उनकी मन:स्थिति क्या थी? शोध का विषय यह भी होगा कि उन्हें तथाकथित रूप से भोजन उपलब्ध कराने में लगे तत्कालीन राज्य के अभिकरण और स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रति उनका सामूहिक आक्रोश पहले आया या फिर निराशा ने उन्हें जीवन के प्रति उदासीन किया और इससे सामूहिक क्रोध पैदा हुआ।प्रति व्यक्ति आय में अग्रिम कतार वाले हरियाणा में एक मजदूर ने अपने चार बच्चों और पत्नी की भूख शांत करने के लिए मोबाइल बेचकर राशन खरीदा और जब पत्नी भोजन पकाने गई तो फांसी लगाकर मर गया। पत्नी ने बताया कि कंस्ट्रक्शन का काम बंद होने से रोजाना की आय भी जाती रही। भोजन कभी-कभी कोई देता था। अक्सर नंबर आते-आते भोजन खत्म हो जाता था। अधिकारी कह रहे हैं कि उसे मानसिक बीमारी थी, क्योंकि झोपड़ी में राशन था। उन्हें नहीं मालूम कि परिवार को न खिला पाने की ग्लानि कैसी होती है?क्वारैंटाइन में आक्रोश है जबरदस्ती रोके रखने का, लेकिन जो झोपड़ियों से नहीं निकले, वे बिलखते बच्चों का क्या करें? यह घर के मुखिया के नैराश्य का कारण बन रहा है। इन सब संकटों से बेखबर, बल्कि खुश एक और वर्ग है, जो शेयर के दाम गिरने को सुअवसर मानता हुआ इन्वेस्ट कर रहा है। बंगाल दुर्भिक्ष और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी कई भारतीय उद्योगपति मालामाल हो गए थे।बहरहाल विश्लेषण इस बात का भी होगा कि क्या चार घंटे मात्र का समय देकर 40 दिनी लॉकडाउन की घोषणा से पहले सरकार को प्रवासी मजदूरों के संकट का अहसास नहीं था? क्या यह उचित न होता कि पहले 48 घंटों में जो जहां है, उसे वहीं महीनेभर का राशन और अन्य खर्च के लिए कुछ नकदी उपलब्ध कराने के बाद यह घोषणा की जाती तो न तो कोई परिवार के साथ पैदल 1200 किलोमीटर जाने की बेचारगी में निकलता, न बीच रास्ते में क्वारंेटाइन होता, न ही परिवार को रोटी न खिला पाने की निराशा किसी को जीवन समाप्त करने को उद्धृत करती। प्रश्न सरकार की नीति का है नीयत का नहीं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Bread crisis is filling despair among workers Full Article
india news यह सच है कि अब तक भारत में कोरोना नियंत्रण से बाहर नहीं By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:04:00 GMT कोविड के इस दौर में हम फिल्मों की बात क्यों कर रहे हैं? खास तौर पर तब, जबकि इसका नाम न तो ‘आउटब्रेक’ है और न ही ‘कंटेजियन’। यह 1992 में बनी ‘अ फ्यू गुड मैन’ है। फिल्म का सबसे चर्चित संवाद टॉम क्रूज और जैक निकलसन के बीच है, जहां पर टॉम सच बताने के लिए कह रहे हैं, लेकिन इसके जवाब में जैक कहते हैं कि ‘आप सच का सामना नहीं कर पाओगे।’ हालांकि, इस सप्ताह हम इस तर्क को उलट रहे हैं। क्या हम यह प्रतिप्रश्न उठा सकते हैं कि कोरोना वायरस के दौर में देश में हालात उतने बुरे नहीं हुए, जितना कि शायद आपने सोचा होगा, इसलिए आप सच का सामना नहीं कर पा रहे हैं?भारत किसी भी रूप में अच्छी स्थिति में नहीं है। पूरे देश में लॉकडाउन है, बल्कि दुनिया के किसी भी देश से अधिक कड़ा और अर्थव्यवस्था में ठहराव, बेरोजगारी और कई हिस्सों में सामूहिक दिक्कतों और भूख जैसे दुष्परिणामों के साथ है। इसके बावजूद दुनियाभर के टिप्पणीकारों के अनुमानों के विपरीत सच यह है कि भारत में इस बीमारी से लाखों या कहें दसियों हजार लोगों की भी मौत नहीं हो रही है। देश में न तो शवों की भरमार है और न ही अस्पतालोंं में बिस्तरोंं की कमी। पर सच यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय और भारत में कई लोग इसे पचा नहीं पा रहे हैं।हम एन.आर. नारायण मूर्ति की इस बात का सहारा ले सकते हैं कि ‘हम ईश्वर में भरोसा करते हैं और बाकी सब आंकड़े लाने में।’ कोविड-19 संकट पर भारत सरकार की नियमित ब्रीफिंग की कई बार आलोचना की जाती है कि वह अस्पष्ट है, उसमें सूचनाओं की कमी है, परंतु इससे आपको आंकड़े तो मिलते हैं। इसके बावजूद हमें शक का अधिकार है।ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की शमिका रवि इन आंकड़ों पर रोज नजर रखती हैं। उनका प्रमुख चार्ट दिखाता है कि कैसे 23 मार्च तक देश में संक्रमण की दर गति पकड़ चुकी थी। आंकड़े पहले तीन से पांच दिनों में दोगुने हो रहे थे, लेकिन तब्लीगी मामले के बाद यह चार दिन में दोगुने हुए और अब आठ दिन में दोगुने हो रहे हैं। उनके अनुसार अगर लॉकडाउन नहीं होता तो देश में संक्रमण नौ गुना अधिक होता। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अब आंकड़े सात दिन में दोगुना हो रहे हैं।लॉकडाउन के दौर में मैं अपना अधिक समय कोरोना पर पढ़ने या देखने में लगाता हूं और मुझे अक्सर ऐसी टिप्पणियां मिलती हैं कि भारत आंकड़े छिपा रहा है और जल्द ही भारत इस वायरस के सबसे खतरनाक शिकार के रूप में सामने आएगा और लाखों लोग मारे जाएंगे। तीसरी बात यह कही जाती है कि भारतीय मीडिया के लोग या तो मोदी सरकार को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि सच नहीं बोल रहे या फिर वे भयभीत हैं। सच यह है कि हमारे तमाम संवाददाता भी इन आंकड़ों को संदेह से देख रहे हैं। लेकिन, हमें अस्पतालों से या गैर भाजपा शासित राज्यों से भी ऐसा कोई तथ्य नहीं मिल रहा है।यह विश्व इतिहास में सर्वाधिक ध्रुवीकृत करने वाली महामारी है। पहले तो इसलिए कि वायरस चीन से आया और डिप्टी सुपर पॉवर नहीं चाहता कि कोई इस बात का जिक्र भी करे। दूसरा इसलिए कि उदारवादी धड़े को नापसंद दो वैश्विक नेता डोनाल्ड ट्रम्प और बोरिस जॉनसन इससे निपटने में नाकाम रहे। तीसरा, नरेंद्र मोदी इसके नेतृत्व में आगे आए हैं। ऐसे में इस बीमारी का ऐसा राजनीतिकरण हुआ कि क्लोरोक्विन जैसी 86 वर्ष पुरानी दवा तक विवादों में आ गई, क्योंकि ट्रंप इसकी सलाह दे रहे थे और मोदी भिजवा रहे थे।भारत चाहे जितना गरीब हो, लेकिन 2014 के बाद ऐसा भी नहीं हुआ है कि भारतीय मीडिया, समाज और आम लोग मानसिक और आध्यात्मिक रूप से चीन या उत्तर कोरिया वाली स्थिति में पहुंच गए हों, जहां उन्हें अपने ही देश के नागरिकों के मरने की कोई परवाह न हो। अथवा वे अपनी सरकारों के इन दावों पर यकीन कर लें कि उनके यहां कोरोना का कोई मरीज नहीं है। भारत को फाउंडेशन पोषित जनस्वास्थ्य माफिया के दुष्प्रचार का शिकार होना पड़ा है, जो भारत में एचआईवी संक्रमितों की संख्या को 57 लाख बताते हुए इसके लगातार बढ़ने की बात कहते थे। लेकिन 2007 में लांसेट के एक शोधपत्र में इसे 25 लाख बताया गया, इसके बाद से भारत में इनकी संख्या कम हो रही है।2005 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के अध्यक्ष रहे एस.वाय. कुरैशी और उनसे पहले 2002 में स्वास्थ मंत्री रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने इस पर तब आपत्ति की थी, जब बिल गेट्स भारत में एड्स नियंत्रण के लिए 10 करोड़ डॉलर की मदद देने आए थे और उन्होंने तब भारत में 2010 तक एड्स पीड़ितों की संख्या के ढाई करोड़ होने की आशंका जाहिर की थी, लेकिन इनकी बात नहीं सुनी गई। अनेक हेल्थ एनजीओ और अफसरोंने इस अनुदान का लाभ उठाया, लेकिन इसने भारत का बहुत नुकसान किया। एड्स के हॉलीवुडीकरण ने असली मुद्दों से ध्यान व संसाधन छीन लिए। जैसे कि तपेदिक। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today True Corona not out of control in India till now Full Article
india news भारत में इमरजेंसी कानून लागू न होना सरकार पर भरोसे का सूचक By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:07:00 GMT हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने महसूस किया कि उनके देश की संसद कोविड-19 के खिलाफ उनकी लड़ाई को बाधित कर रही है तो उन्होंने संसद में अपनी आपातकालीन शक्तियों को सुरक्षित रखने के लिए प्राप्त बहुमत का उपयोग किया। वह अब बिना किसी न्यायिक निरीक्षण के अपने अध्यादेशों के माध्यम से हंगरी को शासित कर सकते हैं। उनके उपायों की किसी भी आलोचना के लिए पांच साल तक का कारावास हो सकता है। असाधारण समय में असाधारण उपायों की आवश्यकता होती है, जिसमें कुछ उपाय उचित भी होते हैं। लेकिन आलोचकों का तर्क है कि कुछ नेता इस जनस्वास्थ्य आपातकाल का उपयोग सभी शक्तियों को हड़पने के लिए कर रहे हैं और सत्तावादी शासक के रूप में उभर रहे हैं। हम रूस या चीन की बात नहीं कर रहे।पारंपरिक तौर पर लोकतांत्रिक ढांचे से शासित ब्रिटेन और इस्राइल जैसे देशों को भी कोरोना महामारी से जूझने के लिए आपातकालीन ताकतों का सहारा लेना पड़ा है। इस्राइल के प्रधानमंत्री, बेंजामिन नेतन्याहू ने देश में अदालतों को बंद करने का आदेश दिया है (कुछ का मानना है कि नेतन्याहू ने खुद पर चल रही न्यायिक कार्रवाई टालने के उद्देश्य से यह कदम उठाया है), इसके अलावा उन्होंने, नागरिकों पर व्यापक निगरानी करने के लिए अपनी आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों को अधिकृत किया और उल्लंघन करने वालों को छह महीने की कैद के साथ दंडित करने का प्रावधान किया है।यहां तक कि ब्रिटेन, जहां लोकतांत्रिक संस्थान एवं प्रथाएं वर्षों से सुस्थापित हैं, वहां भी सरकार को महामारी संबंधित एक कानून के माध्यम से अनेक मंत्रालयों को व्यापक अधिकार देने की नौबत आई है। इन अधिकारों का इस्तेमाल करके यह मंत्रालय कानून तोड़ने वाले नागरिकों को गिरफ्तार और अनिश्चितकाल तक हिरासत में रख सकता है। फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते और थाईलैंड के प्रधानमंत्री प्रथुथ चान-ओचा को उनके देश की सरकारों द्वारा देश में शासन चलाने के लिए सर्वोच्च शक्तियां प्रदान की गई हैं। इटली और स्पेन को हजारों लोगों को क्वारैंटाइन करने के लिए अपनी सेना की जरूरत पड़ी। कोरोना से संबंधित प्रतिबंधों को लागू करने के लिए हंगरी, लेबनान, मलेशिया, पेरू और कई अन्य देशों ने भी अपनी सेनाओं को सड़कों पर तैनात किया है।यहां तक कि जर्मनी और ब्रिटेन ने भी मदद के लिए अपने सैनिकों की ओर रुख किया है। ब्रिटेन ने लगभग 20,000 सैनिकों के साथ एक “कोविड रेस्पांस ग्रुप” का गठन किया है। वहीं, अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन ने अपने शुरुआती प्रयासों में लोगों को अदालती हस्तक्षेप के बिना अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखने और शरणार्थियों का कानूनी संरक्षण समाप्त करने के लिए व्यापक शक्तियों की मांग की थी। हालांकि, अमेरिकी कांग्रेस ने हस्तक्षेप कर देश के न्याय विभाग को प्रशासन की इस इच्छा पर रोक लगाने के लिए मजबूर किया। राष्ट्रपति ट्रम्प इस बात से विवश हैं कि अमेरिकी संविधान के तहत विभिन्न राज्यों के राज्यपालों को लॉकडाउन के मामलों में विशेष शक्तियां प्रदान की गई हैं।इन सब की तुलना भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न तो आपातकालीन शक्तियों की मांग की है और न ही प्रयोग किया है। उन्होंने प्रेस सेंसरशिप या बिना अदालती कार्यवाही के किसी को गिरफ्तार करने जैसे कठोर कदमों का सहारा भी नहीं लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया से मात्र फर्जी खबरों से सावधान रहने और कोरोना संबंधित आधिकारिक आंकड़ों और जानकारियों को महत्व देने की बात कही है। भारत में न तो सेना को सड़कों पर बुलाया गया और न ही नागरिकों को किसी भी मौलिक मानवाधिकार से वंचित रखा गया है। लॉकडाउन के दौरान जारी दिशा-निर्देश लोकहित में थे और मुख्यत: स्वैच्छिक थे। भारत में आधी राज्य सरकारें गैर भाजपा दलों द्वारा शासित हैं, लेकिन प्रधानमंत्री को किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। यह आमजन एवं राजनीतिक दलों में विश्वसनीयता का सूचक है।प्रख्यात अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक एवं लेखक, फ्रांसिस फुकुयामा ने कानून ‘के’ शासन और कानून ‘द्वारा’ शासन के बीच एक दिलचस्प अंतर बताया है। लोकतंत्र कानून के शासन के आधार पर चलाए जाते हैं, जहां संविधान द्वारा बनाए गए नियम सर्वोच्च हैं। तानाशाह कानून द्वारा शासन का सहारा लेने की कोशिश करते हैं, जो कि लोकतांत्रिक भावना से विपरीत होता है। इस आपदा काल में फिर एक बार, प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कानून ‘के’ शासन के लिए अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाया है।ऐसा नहीं है कि उकसावा देने वाली परिस्थितियां उत्पन्न नहीं हुई थीं। कुछ धार्मिक समूहों द्वारा लॉकडाउन प्रतिबंधों का जान-बूझकर उल्लंघन हुआ एवं बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों के पलायन जैसी विकट परिस्थिति देश में बनी। लेकिन, प्रधानमंत्री ने अपना मॉडल नहीं छोड़ा। जनता उनके साथ दृढ़ निश्चय के साथ खड़ी है। यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि किस तरह जनता ने प्रधानमंत्री के कहने पर ‘कोरोना सेनानियों’ की सराहना की और उनके सम्मान में दीए जलाए। इसलिए भारत महामारी के खिलाफ अपनी लड़ाई को एक अलग स्तर पर ले गया है। सरकार ने वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया, टेक्नोलॉजी का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया और अपनी लड़ाई में देश की 130 करोड़ जनता को अपना साथी बनाया है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today लेखक- राम माधव (महासचिव, भाजपा सदस्य, बोर्ड ऑफ गवर्नर, इंडिया फाउंडेशन) Full Article
india news लक्ष्मण की भूमिका होगी सच्ची देशसेवा By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:12:00 GMT कोरोना की आंधी में कुछ ढंकी हुई चीजें भी साफ दिखने लगीं। आवरण हटा और पीड़ादायक दृश्य सामने आ गए। न चाहते हुए भी देखना पड़ रहा है कि भारत तीन भागों में बंटा नजर आ रहा है। इंडिया, भारत और गरीब भारत। इंडिया वाले तो समर्थ, समृद्ध और आधुनिक लोग हैं। इनका मालिक दौड़ चुका है, ये निपट लेंगे हालात से।भारत वालों के उत्साह की ऊर्जा जिधर चाहो, उधर मोड़ दो। ताली, थाली, दीए, सप्तपदी ये इन सब को बखूबी निभाते हुए भुगत ही लेंगे। इन्हें अपने भाग्य और भगवान की लीला के बीच डोलने में बड़ा आनंद आता है। सबसे ज्यादा पीड़ा में पड़ेंगे गरीब भारत वाले। देश ने अचानक बड़ी संख्या में इनके सामूहिक दर्शन कर लिए। अभी इनका एक्स्ट्रा नाम हो गया ‘प्रवासी मजदूर’, इनमें गरीब, भूखा, बीमार, गंदा, भद्दा सब शामिल हो गए। अगर हम ऐसा तीन तरह का देश देख रहे हैं तो अपने भीतर हमारे ही दो तरह के व्यक्तित्व को भी देखकर देशसेवा कीजिए।हम सबके भीतर एक अच्छा और एक बुरा इंसान बैठा है। इनमें से जो हाजिर होता है, हम वैसा काम कर जाते हैं। हमारा बुरा रूप हम पर लगातार प्रहार करता है जैसे मेघनाद ने लक्ष्मण पर प्रहार किया था। ‘प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा।।’ मेघनाद ने लक्ष्मणजी पर प्रचंड त्रिशूल छोड़ा।लक्ष्मण ने बाण से उसके दो टुकड़े कर दिए। हमारे भीतर का मेघनाद हमारे देश को नुकसान पहुंचाएगा और यदि हमने लक्ष्मण की भूमिका निभा ली तो यही सच्ची देशसेवा हो जाएगी। सामाजिक दूरी, निजी सुरक्षा, स्वच्छता, अनुशासन, जाग्रति, परिश्रम ही लक्ष्मण के लक्षण होंगे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Laxman's role will be true country service Full Article
india news ‘चांद-तारों के तले रात ये गाती चले...’ By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:14:00 GMT सरकार द्वारा लगाया गया लॉकडाउन अपने अंतिम चरण में है। पंद्रह दिन बाद लॉकडाउन की मियाद बढ़ाई जा सकती है या कुछ रियायत और बंदिश के साथ इसे नया स्वरूप दिया जा सकता है। खबर है कि शिक्षा संस्थान और सिनेमाघर सबसे बाद में कार्य कर सकेंगे, क्योंकि दोनों ही स्थानों पर भीड़ होती है। सिनेमा भी पाठशाला है और पाठशाला में सिनेमा का उपयोग करके शिक्षा भी दी जा सकती है। ज्ञातव्य है कि लॉकडाउन से पहले भारत का ग्रोथ रेट मात्र चार था और नन्हे बांग्लादेश का आठ। लॉकडाउन के दरमियान ग्रोथ रेट शून्य के निकट पहुंच गया है। अत: उद्योगों पर से सशर्त बंदिशें हटाना दिवालियापन की कगार पर खड़ी अर्थव्यवस्था को बचाने का प्रयास होगा।चाणक्य को राजनीति का गुरु माना जाता है। उनकी किताब का नाम ‘अर्थशास्त्र’ है। तमाम सरकारें अर्थशास्त्र से शासित रही हैं और मानव मूल्य हमेशा हाशिए पर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि आजकल दूरदर्शन पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा बनाया और अभिनीत सीरियल ‘चाणक्य’ दिखाया जा रहा है। सीरियल में शब्दों की बमबारी है। डोनाल्ड ट्रम्प व्यापारी हैं और लाभ-हानि से बड़ा उनके लिए कुछ भी नहीं है। अत: उन्होंने लॉकडाउन नहीं किया। वायरस से अमेरिका में सबसे अधिक लोगों की मृत्यु हुई। जानकारों का कहना है कि डोनाल्ड ट्रम्प के लॉकडाउन नहीं करने के कारण वहां के औद्योगिक घराने उन्हें अगला चुनाव जिताने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। प्रचार तंत्र टॉप गियर में काम करेगा।उड़ती हुई खबर यह है कि फिल्म शूटिंग के समय साठ पार तकनीशियनों और कलाकारों को काम करने की इजाजत नहीं मिलेगी। क्या अमिताभ बच्चन और अनिल कपूर सक्रिय नहीं हो सकेंगे? ऐसा होने पर अयान मुखर्जी की अमिताभ बच्चन, आलिया भट्ट और रणबीर कपूर अभिनीत ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रदर्शन इस वर्ष संभव नहीं हो पाएगा। क्या किसी व्यक्ति को उम्रदराज होने पर कार्य करने का अधिकार नहीं है? बड़ का वृक्ष (वटवृक्ष) पुराना होता है तो उसकी डालियां झुककर जमीन में चली जाती हैं और उसकी जड़ों को मजबूत करती हैं। हुकूमत और अवाम दोनों ही अनिर्णय को दिल ही दिल पसंद करते हैं। शायद इसलिए हैमलेट और देवदास अजर अमर पात्र हैं।सिनेमा और स्कूल के साथ शॉपिंग मॉल पर भी बंदिश जारी रखी जा सकती है। जब पेरिस में पहला शॉपिंग सेंटर खोला गया था, तब दार्शनिक बेन्जामिन, फ्रेंकलिन ने कहा था कि ये मॉल, पूंजीवादी व्यवस्थाओं की विजय पताकाएं नजर आ रही हैं और ये ही कालांतर में पूंजीवाद के लिए खंजर साबित हो सकती हैं। जगमग करते हुए ये शॉपिंग मॉल अपने उदर में भयावह अंधकार छिपाए बैठे हैं। लॉकडाउन के बहुत पहले ही शॉपिंग मॉल की हालत इतनी खस्ता थी कि मालिकों ने दुकानदारों से किराया लेना बंद कर दिया था और उनसे प्रार्थना की थी कि वे दुकान खुली रखें। अनायास ही शैलेंद्र रचित फिल्म ‘चोरी-चोरी’ का गीत याद आ रहा है- ‘जो दिन के उजाले में न मिला दिल खोजे ऐसे सपने को, इस रात की जगमग में डूबी मैं ढूंढ रही हूं अपने को’।बहुमंजिला इमारतें महानगरों में बनाई गईं, परंतु अब छोटे शहरों में भी बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैं। स्वतंत्र मकान में रहने वालों और बहुमंजिला इमारतों के रहवासियों के सामाजिक व्यवहार में भी अंतर होता है। कुछ लोग खामोश रहना पसंद करते हैं तो कुछ वाचाल होते हैं। स्वतंत्र मकान और बहुमंजिला इमारतों में रहने वालों के शादी-ब्याह तथा उत्सव मनाने के तरीके अलग-अलग होते हैं। यह अंतर हारी बीमारी और शोक के अवसर पर भी देखा जा सकता है।बहुमंजिला इमारत परिसर के मुख्य द्वार पर एक नोटिस बोर्ड से ही किसी की मृत्यु होने का समाचार प्राप्त होता है। बहुमंजिला रहवासियों के सेवकों में मित्रता रहती है। अमिताभ बच्चन की पुत्री ने बहुमंजिलों में रहने वालों के सामाजिक व्यवहार पर एक किताब लिखी है। अमिताभ बच्चन एक ही क्षेत्र में चार बंगलों के मालिक हैं। बहुमंजिला इमारतों की छत पर सिनेमाघर बनाए जाने से लोगों का समय बचेगा और सड़कों पर आवागमन घटेगा, जिससे वायुु प्रदूषण में कमी आएगी।लॉकडाउन जैसे संकटकाल में बहुमंजिला इमारत में रहवासी एक-दूसरे की सहायता आसानी से कर सकते हैं। छत पर ओपन एयर सिनेमाघर भी कम लागत में बन सकता है। इस तरह के सिनेमाघर में फिल्म देखना एक अलग अनुभव हो सकता है। चांद-तारों के तले रात गाती हुई गुजर सकती है। वर्षाकाल में यह सिनेमा बंद रहेगा, परंतु मौसम परिवर्तन के कारण अब कुछ ही दिन वर्षा होती है। छत पर फिल्म देखने के लिए तैयार होने का समय भी बचेगा। बरमूड़ा और बनियान पहनकर भी फिल्म देखी जा सकती है, जूते पहनने के कष्ट से भी बचा जा सकता है। सिनेमा लाइसेंसिंग के बाबा आदम के जमाने के नियमों में परिवर्तन करना होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today 'This song goes on under the moon and stars ...' Full Article
india news एक बार प्रेरित करने वाला, हमेशा प्रेरित करता है By Published On :: Mon, 20 Apr 2020 20:20:00 GMT मुझे अच्छे से याद नहीं है कि मैं उनसे किस साल में मिला था। लेकिन यह करीबन 35 साल पुरानी बात होगी। मैं एक युवा रिपोर्टर था और अपने पासपोर्ट के लिए आवेदन देना चाहता था। इस दस्तावेज को प्राप्त करना कठिन नहीं था, लेकिन उस जमाने में आप भले ही प्लेन में कभी बैठे तक न हों, फिर भी आपके पास पासपोर्ट है, यह एक शान की बात मानी जाती थी। और इसे दूसरों की तुलना में ज्यादा जल्दी पा लेने में तो और भी बड़ी शान होती थी।इसलिए मैंने डी शिवनंदन से मिलने के लिए समय मांगा और उनके कार्यालयपहुंचा। वे तब मुंबई कमिश्नरेट के बगल में एक पुलिस शाखा ‘एसबी-टू’ के प्रमुख थे, जो मुंबईकरों को पासपोर्ट जारी करने का काम करती थी। उन्होंने मुझे एक मिनट के लिए भी इंतजार नहीं कराया। मुझे लगा कि पुलिसकर्मी पत्रकारों से डरते हैं। सामान्य बातचीत के बाद मैं उनके सामने बैठा तो उन्होंने मुझसे एक सीधा सवाल पूछा ‘आप पासपोर्ट जल्दी क्यों बनवाना चाहते हैं?’ मैंने कहा ‘मैं कभी भी विदेश जा सकता हूं।’ उन्होंने मेरी आंखों में देखा और कहा ‘इसका मतलब है कि आपके पास कोई निश्चित तारीख नहीं है। मेरी सलाह है कि आप आवेदन को सामान्य प्रक्रिया से होने दें और यदि आपको तत्काल कहीं जाना पड़ जाए, तो मुझे फोन करें, मैं एक दिन में पासपोर्ट सौंप दूंगा। आप चिंता न करें। ऐसा करने का एक कारण है। आपको नियम तभी तोड़ने चाहिए, जब कोई आपात स्थिति हो।’मैंने उसी दिन तय कर लिया था कि मैं कभी भी अपने पद का फायदा नहींउठाऊंगा, जब तक कि ऐसा करना जरूरी न हो। शिवनंदन से मेरी जान-पहचान तब तक बढ़ती रही, जब तक वे पुलिस बल में कई शक्तिशाली पदों पर रहते हुए, अंतत: महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के पद से रिटायर नहीं हो गए। लेकिन वे एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, जिन्होंने कभी नियम नहीं तोड़े, जब तक कि ऐसा करने की कोई सही वजह नहीं होती। यही उनका अनुशासन है। तीन महीने पहले ही मैं उनसे मुंबई एयरपोर्ट पर मिला था, जब वे अपने पूरे परिवार के साथ मध्य प्रदेश के उज्जैन में भगवान महाकालेश्वर के दर्शन के लिए जा रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा ‘क्या मैं आपके लिए करीब से और तुरंत होने वाले दर्शन की व्यवस्था करूं?’ तो उन्होंने तुरंत मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा ‘भगवान जब चाहेंगे तब मुझसे मिलेंगे,अगर जरूरत पड़ी तो मैं तुम्हें कॉल कर दूंगा, शुक्रिया।’ उन्होंने न केवल मुझे सीख दी, बल्कि इतने सालों तक खुद भी इसका पालन किया। अब, जब वे 69 वर्ष के हो गए हैं, तो लॉकडाउन के चलते उनके काम का भार दोगुना हो गया है। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ, वे दोगुना व्यस्त हैं, क्योंकि वे सुबह माहुल उपनगर में एक रसोई में भारी मात्रा में खाना पकाने की देखरेख करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि खाना अच्छे से पैक होकर पूरे मुंबई में हजारों वंचित लोगों तक पहुंचे। शिवनंदन ने जनवरी 2018 में मुंबई रोटी बैंक (एमआरबी) नाम का एक एनजीओस्थापित किया था। यह अब मुंबई पुलिस के साथ मिलकर सुनिश्चित कर रहा है कि शहर के रोजाना मजदूरी कमाने वाले और धारावी जैसे क्षेत्रों में रहने वाले गरीब बिना खाना खाए न रहें। आमतौर पर वे एक दिन में लगभग 3,000 से 4,000 खाने के पैकेट बांटते थे। लेकिन लॉकडाउन में वे प्रतिदिन लगभग 30,000 भोजन के पैकेट दे रहे हैं। माहुल के किचन में बनने वाले 9000 पैकेट्स के अलावा शिवनंदन के होटल चलाने वाले और कैटरर दोस्त भी उनकी मदद कर रहे हैं। दादर में ‘होटल मिडटाउन प्रीतम’ 9,000, बोरीवली में ‘90 फीट अबव’ 1,500, कैटरर हर्षद प्रभु 5,000 और डायग्नोस्टिक सेंटर थायरोकेयर 6,000 लोगों को भोजन दे रहे हैं। अभिनेता शाहरुख खान का मीर फाउंडेशन, भारत डायमंड बोर्स और एस्सार फाउंडेशन भी योगदान देते हैं। आज शिवनंदन आम लोगों को प्रभावित करके पुलिस बल की छवि चमका रहे हैं, जो वास्तव में उनके एनजीओ ‘एमआरबी’ के द्वारा बनाए गए भोजन को घर-घर जाकर बांट रहे हैं। पुलिसकर्मी भी अपने बारे में अच्छा महसूस कर रहे हैं, चूंकि इससे उनकी छवि भी बदल रही है।फंडा यह है कि यदि आप एक प्रेरक व्यक्ति (इन्फ्लुएंसर) हैं, तो अलग-अलग भूमिकाओं में ही सही, आप जीवनभर प्रेरित करते रहते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Once a motivator Full Article
india news टीआई देवेंद्र की पत्नी और दो बेटियां बार-बार शव को देखतीं, फिर तस्वीर को छूकर रोने लगतीं By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 04:55:31 GMT कहानी है एक तस्वीर के बनने की। ऐसी तस्वीर जो बेहद भावुक है। इतना कि बयां न हो सके। दिन था रविवार, तारीख 19 अप्रैल और जगह इंदौर का एक श्मशान। देवेंद्र चंद्रवंशी का अंतिम संस्कार होने को था। देवेंद्र पुलिस अधिकारी थे। कोरोना कीजंग में शहीद हो गए। भास्कर के फोटो जर्नलिस्ट संदीप वहां थे जहां ये सब घट रहा था। हिम्मत का काम था ये तस्वीर लेना भी। वही बता रहे अपनी बात..."रविवार सुबह की बात है। मुझे ऑफिस से एक रिपोर्टर का फोन आया। उन्हें पता चला था कि टीआई देवेंद्र चंद्रवंशी का शव अरबिंदो अस्पताल से रामबाग मुक्तिधाम लेकर आ रहे हैं। मैं जब वहां पहुंचा तो शव मुक्तिधाम के भीतर ले जाया जा चुका था।देवेंद्र चंद्रवंशी की पत्नी, दोनों बेटियों और बाकी परिवार वालों को गेट पर पीपीई किट पहनाई गई और फिर उन्हें मुक्तिधाम में ले जाया गया। अंदर सलामी देने खड़े पुलिस वालों ने भी वही पीपीई किट पहन रखी थी।वहां बाहर कुछ मीडियावाले खड़े थे। मैंने जब पूछा कि अंदर नहीं गए? तो उनका जवाब था- तू ही जा। मैं ये सुनकर कुछ देर के लिए ठिठक सा गया। फिर सोचा मुझे हिम्मत नहीं हारना चाहिए। तभी याद आया एक पीपीई किट मेरी गाड़ी में रखी है। मैं किट पहन ही रहा था की अंदर से पुलिस के बिगुल की आवाज आई। मैं दौड़ते हुए अंदर गया। उस समय मेरे एक पैर में ही प्लास्टिक वाला मोजा था।टीआई देवेंद्र चंद्रवंशी में जनता कर्फ्यू के बाद कोरोना संक्रमण के लक्षण दिखाई दिए थे। उन्हें 31 मार्च को हॉस्पिटल में एडमिट किया गया था। वे 19 दिन से इस बीमारी से जूझ रहे थे।मैं जब वहां दौड़कर पहुंचा तो पता ही नहीं था कि मेरे ठीक पीछे बॉडी रखी हुई है। बस तीन फीट दूर था मैं। मैं तुरंत वहां से हटा। पीछे भोलेनाथ की तस्वीर थी और आगे देवेंद्र चंद्रवंशी की डेडबॉडी। तभी गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। सलामी देते हुए फायर किए गए, धुन बजी, अधिकारी चक्र लेकर आने लगे। सभी ने पीपीई किट पहन रखी थी।इंदौर में यह पहली बार ही था, जब पुलिस ने पीपीई किट में अपने किसी साथी को अंतिमसलामी दी।परिवार वाले वहीं बनी कुर्सियों पर बैठे थे। और देवेंद्र चंदवंशी की पत्नी वहीं खड़े-खड़े रो रही थीं। वहां उनकी दोनों बेटियां भी थीं। परिवार के दो लोग पत्नी को पकड़कर उस तस्वीर तक ले आए जो उनके शव से काफी दूर रखी गई थी। वे कुछ देर तक शव की ओर ताकती रहीं फिर तस्वीर को छूते हुए फूट-फूटकर रोने लगीं। शव के पास एक पुलिसवाला पहले से खड़ा था। शायद इस एहतियात के लिए की उनकी पत्नी, बेटी शव के पास आने लगे तो उन्हें रोक दें।मुक्तिधाम में आए टीआई चंद्रवंशी के परिजनों को शव के पास जाने की परमिशन नहीं थी। वे फोटो देखकर ही उन्हें अंतिम विदाई दे सकते थे।पत्नी के बाद तस्वीर के पास दोनों बेटियां आईं। एक बेटी पिता के शव को काफी देर तक देखती रही। फिर उसने सैल्यूट किया। एक बुजुर्ग श्रद्धांजलि देते हुए बेहोश होकर गिर गए। शायद वह उनके पिता होंगे। लेकिन पीपीई किट में किसी को भी पहचानना संभव नहीं था, न ही मुझमें पूछने की हिम्मत थी। मैं उन लोगों से 100 फीट दूर खड़ा था, वहां से बस रोने की आवाज आ रही थी।टीआई चंद्रवंशी की मौत के बाद इंदौर आईजी विवेक शर्मा ने कहा है कि अब किसी पुलिसकर्मी में कोरोना के लक्षण मिले तो 24 घंटे के भीतर उसकी अनिवार्य जांच की जाएगी।टू स्टार और थ्री स्टार ऑफिसर भी रो रहे थे। फिर वही पुलिसवाले उन्हें अंदर गैस वाले शवदाह गृह तक ले गए। वहां जाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया और शायद वे लोग मुझे जाने भी नहीं देते।टीआई चंद्रवंशी की 13 अप्रैल को पहली रिपोर्ट पॉजिटिव आई, लेकिन 16 और 17 अप्रैल को ली गई रिपोर्ट निगेटिव रही। रविवार को उन्हें डिस्चार्ज करने वाले थे, लेकिन शनिवार रात ही उनकी मौत हो गई।आखिर में उस तस्वीर को ही सैल्यूट कर मैं बाहर आ गया। मैं पसीने में तर था, किट को फाड़कर डस्टबिन में डाला। तभी देखा एक अधिकारी देवेंद्र चंद्रवंशी की तस्वीर लेकर बाहर आ रहे थे। परिवार और बाकी लोग भी आ गए। सभी ने किट फाड़ी और फिर उसमें आग लगा दी।"टीआई चंद्रवंशी के पुलिस साथियों और उनके परिवार वालों के पास अब उनकी यादें ही शेष हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today पीछे शंकर भगवान की तस्वीर के पास टीआई देवेंद्र चंद्रवंशी का शव रखा है और आगे उनकी पत्नी फोटो देखकर उन्हें अंतिम विदाई दे रही हैं। बेबसी इतनी है कि वे शव के पास नहीं जा सकतीं। ( दैनिक भास्कर के फोटो जर्नलिस्ट संदीप जैन ने रविवार को यह भावुक पल अपने कैमरे में कैद किया था) Full Article
india news संकट के दौर में टकराव नहीं सहयोग की जरूरत By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 20:55:00 GMT कोरोना महामारी पर सही सलाह न देने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को लेकर अमेरिका और कुछ देश नाराज हैं। दुनिया के तमाम देश चीन से भी इसलिए रुष्ट हैं, क्योंकि अगर उसने शुरुआती दौर में तथ्य न छिपाए होते तो महामारी का वैश्विक प्रसार न होता। जाहिर है चीन ने ऐसा अपने वैश्विक व्यापार को बचाने के लालच में किया होगा।भारत में केंद्र कुछ राज्यों से रोगियों के आंकड़े छिपाने और केंद्रीय गाइडलाइन का अनुपालन न करने से नाराज है, जबकि ये राज्य (खासकर गैर भाजपा शासित) केंद्र को अर्द्धसंघीय संविधान की याद दिला रहे हैं। वैसे संविधान निर्माताओं ने ऐसा संविधान राज्यों की अपनी संस्कृति व क्षेत्रीय विविधता को ध्यान में रखते हुए बनाया था न कि वैश्विक महामारी से लड़ने में मनमानी करने के लिए।बहरहाल, सबसे अलग केरल सरकार अपनी प्रशासनिक क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन करते हुए अन्य राज्यों के लिए नजीर बनी। साथ ही आत्मविश्वास का परिचय देते हुए उसने लॉकडाउन में केंद्र की गाइडलाइन से आगे बढ़कर ढिलाई दी, लेकिन जैसे ही केंद्र की नाराजगी देखी तो फौरन सुधार कर लिया। क्या अन्य राज्यों के लिए यह उचित समय है जब वे अपनी शक्ति के लिए केंद्र से टकराव लें? अब सामाजिक स्तर पर यह टकराव देखें। स्वास्थ्य सेवाओं में लगे डॉक्टरों व नर्सों पर हमले हो रहे हैं।क्वारैंटाइन से लोग भाग रहे हैं। जड़वत मानसिकता और अवैज्ञानिक सोच की जकड़ गहरी हो गई है। हमारी पशुवत सोच का एक अन्य आयाम है- सरकार द्वारा गरीबों और असहायों को दिए जा रहे अनाज और धन पर भ्रष्ट कर्मचारियों व कोटेदारों की गिद्ध-दृष्टि। ऐसा लगता है वे कोरोनाजनित अस्तित्व के संकट से इस अवैध धन के जरिये उबर जाएंगे।शंकराचार्य का ‘ब्रह्म सत्यम, जगनमिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापराह’ (ब्रह्म सत्य है, जगत भ्रम है और ब्रह्म और जीव एक ही हैं) इनके सामने प्रभावहीन हो जाता है। ये भ्रष्ट थे, रहे हैं और बदलेंगे भी नहीं। मानव सभ्यता के 4000 साल के लिखित इतिहास पर संकट बना है तो सोचना यह था कि कहीं हमारा विकास गलत दिशा में तो नहीं हो गया। एटम की नाभि को भेदकर ऊर्जा/बम बनाते हुए हम एक अदृश्य अतिसूक्ष्म अर्द्ध जीव को चार महीने से दुनिया की प्रयोगशालाओं में नहीं देख पा रहे हैं, जबकि वह हमें मारता जा रहा है। शायद अन्वेषण एटम का नहीं आत्मा का होना था। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Need for cooperation, not confrontation in times of crisis Full Article
india news कोरोना का दौर सांप-सीढ़ी की तरह हो गया By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 20:56:00 GMT देशवासी इन दिनों आंकड़ों में उलझ गए हैं। बहुत सारे लोग तो थोड़ी-थोड़ी देर में यही आंकड़े गिनते रहते हैं। किस नगर में कितने संक्रमित हुए, कितने मरे, कितने बचे और फिर इसमें अंतरराष्ट्रीय आंकड़ों का भी योगदान हो जाता है। अब दो आंकड़े और हम भारतीयों के जीवन से जुड़ गए, 3 मई और 20 अप्रैल।3 मई की मंजिल 20 अप्रैल की सुरंग में से होकर मिलेगी। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि कोरोना का ये सारा दौर सांप-सीढ़ी के खेल की तरह हो गया है। सीढ़ी पर चढ़कर कहां सांप का मुंह आ जाए, कौन सा क्षेत्र हॉटस्पॉट हो जाए कह नहीं सकते। इसे लूडो के खेल में बदलना होगा। कभी-कभी सांप-सीढ़ी और लूडो का खेल एक ही पैकेट में होता है।सांप-सीढ़ी अव्यवस्थित है। कब क्या होगा, मालूम नहीं। लूडो व्यवस्थित है। खानों में बंटा हुआ है, यही सोशल डिस्टेंसिंग है। जिन लोगों ने कोरोना से घर के बाहर रहकर सेवा देते हुए युद्ध लड़ा है, हमें उन लोगों का सच्चा आभार यही होगा कि वो जो कह रहे हैं, वो हम करें।वेदों में शब्द आया है- ‘न ऋते श्रान्तस्य सहयाय देवा:’। परिश्रम करके मनुष्य जब थक जाता है तो देव उसकी मदद करते हैं। हमारे योद्धाओं की पहली पंक्ति अब थोड़ी थक रही है। परमात्मा उनकी अवश्य मदद करेगा और हम जिस भी परमात्मा को मानते हैं, अगर सच्चे रूप में मानते हैं तो इस समय हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके कहे अनुसार अपनी जीवन शैली तय करें। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today The corona round turned into a snake-ladder Full Article
india news अमीर देशों का अनुकरण छोड़ राहत की ओर जाने का समय By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 20:57:00 GMT कोरोना रोकने के लिए कड़ा लॉकडाउन लागू करके अमीर देश थम से गए हैं, जबकि कई कम व मध्यम आय वाले देशों ने फैसला किया है कि वे एक संपूर्ण लड़ाई को वहन नहीं कर सकते। शटडाउन के खिलाफ ब्राजील के राष्ट्रपति का तो कहना है कि ‘एक दिन तो हम सबको मरना ही है,’ लेकिन, ऐसे वे अकेले नहीं हैं। स्विस बैंक ने हाल में एक अध्ययन में पाया है कि उभरते राष्ट्रों में से अधिकांश ने उदार व कुछ ने ही कड़े लॉकडाउन लागू किए हैं। विकासशील देशों में भारत अपवाद है। बैंक ने भारत में लागू प्रतिबंधों को सबसे कड़ा माना है।अब तक कोरोना के सबसे अधिक मामले उन देशों से आए हैं, जहां औसत तापमान 63 डिग्री फारेनहाइट (17.22 डिग्री सेल्सियस) के भीतर है। लेकिन, उभरती दुनिया के गर्म देशांे की अर्थव्यवस्था पर इसका सर्वाधिक प्रभाव होने जा रहा है। अमेरिका में स्टॉक मार्केट अपनी सर्वाधिक ऊंचाई से 35 फीसदी नीचे है। ब्राजील, तुर्की और मैक्सिको समेत छह प्रमुख उभरते बाजारों में अपने उच्चतम स्तर से 70 फीसदी से अधिक की गिरावट है और कई तो 2008 के स्तर से भी नीचे हैं।यह पिछली एक सदी में आठवीं मंदी है और यह उभरते बाजारों के लिए खास चुनौतियां पैदा कर रही है। अगर ये उभरते देश लॉकडाउन लागू करते हैं तो उनका कमजोर जनकल्याण सिस्टम बेरोजगारों को लंबे समय तक समर्थन नहीं दे सकेगा। अमेरिका पहले ही अपने वार्षिक आर्थिक आउटपुट का 10 फीसदी ग्रोथ को कायम रखने के लिए प्रोत्साहन उपायों पर खर्च करने की प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुका है। जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस की 15 फीसदी से अधिक खर्च की योजना है।अमीर देशों के समक्ष कर्ज लेने और उसे स्वतंत्रतापूर्वक खर्च करने की क्षमता है। लेकिन प्रमुख उभरते देशों के पास ऐसा नहीं है। वे अपने आउटपुट का सिर्फ एक से तीन फीसदी तक ही प्रोत्साहन उपायों पर खर्च करने की घोषणा कर रहे हैं और कुछ संकट से पहले ही अपने पास उपलब्ध धन इस पर लगा चुके हैं। अब ये फंस गए हैं, क्योंकि अगर वे खर्च के लिए और उधार लेते हैं तो उनके समक्ष निवेशकों का भरोसा खोने और करंसी के ध्वस्त होने का खतरा है।2008 से पहले इनमें से अनेक सरकारों के पास संतुलित बजट था। ये उभरती अर्थव्यवस्थाएं इतनी मजबूत थीं कि ऐसा कहा जाता था कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को ग्राहकों की कमी की वजह से अपना बेलआउट पैकेज बंद करना पड़ सकता है। लेकिन, अब यह संतुलित बजट भारी बजट घाटे में बदल गया है। जब महामारी शुरू हुई तो इनमें से दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और अर्जेंटीना बजट व चालू खाते दोनों में बड़े घाटे का सामना कर रहे थे। अब निवेशक सुरक्षित निवेश के लिए अमेरिकी डॉलर की तरफ भाग रहे हैं और इससे इन देशों की मुद्रा कमजोर हो रही है। जिससे कर्ज चुकाने की इनकी क्षमता भी कमजोर हो रही है। इसी का परिणाम है कि बेल आउट पैकेज के लिए देश आईएमएफ के पास आ रहे हैं। अब तक 80 देश इमर्जेंसी मदद मांग चुके हैं।2008 में भारत, ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देश घरेलू स्तर पर मांग में उछाल की वजह से आंशिक रूप से सुरक्षित रह गए थे। लेकिन, इस महामारी के समय अंतरराष्ट्रीय व्यापार और भी धीमा पड़ गया है और इसने घरेलू वाणिज्य को भी शटडाउन कर दिया है। अमेरिका में डेढ़ करोड़ से अधिक लोगों ने बेरोजगारी लाभों के लिए आवेदन किया है, लेकिन गरीब देशों के दो अरब लोग बिना लाभ के बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं।विकसित देशों में फॉर्मल नौकरी खाेने वाले हर 10 में से छह लोगों के पास बेरोजगारी बीमा है, जबकि विकासशील देशाें में यह संख्या 10 में एक है और बहुत बड़ी जनसंख्या के पास तो फॉर्मल नौकरी भी नहीं है। इसलिए अनेक देश कह रहे हैं कि वे विकसित देशों की नकल नहीं कर सकते। इमरान खान ने तो हाल ही में एक ट्वीट किया था कि दक्षिण एशिया के सामने दो विकल्प हैं कि वह वायरस नियंत्रित करने के लिए एक लॉकडाउन चुने या फिर सुनिश्चित करे कि लोग भूख से न मरें और अर्थव्यवस्था ध्वस्त न हो।अब कई देशों में कोरोना के नए मामले आने की दर कम हो रही है और उम्मीद की जा रही है कि गर्म मौसम व युवाओं की वजह से इसमें और कमी आएगी। यह वायरस युवाओं के लिए कम खतरनाक है। 60 साल से, अधिक लोगों के मरने की दर युवाओं से आठ गुना ज्यादा है और विकासशील देशों में केवल 10 फीसदी और विकसित देशों में 25 फीसदी आबादी ही 60 साल से अधिक है। अब उभरती अर्थव्यवस्थाओं को राहत की ओर जाना चाहिए। वे अमीर देशों की तरह बहुत बड़ी जनसंख्या को खाली बिठाकर नहीं रख रकते। शटडाउन का दर्द उनके लोगों को पीड़ा पहुंचाएगा, लेकिन वे महामारी काे नियंत्रित करने के लिए सीमित लड़ाई ही वहन कर सकते हैं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Time to leave the simulation of rich countries and go towards relief Full Article
india news देश के लंबे-चौड़े कानूनों के व्यापक ऑडिट का समय By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 21:03:00 GMT दूसरे दौर के लॉकडाउन को सफल बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता के लिए ‘सप्तपदी’ के सुझाव दिए थे और लॉकडाउन के बाद नवनिर्माण के लिए युवाओं से नई कार्य संस्कृति का आह्वान किया। संसद, सरकार, सुप्रीम कोर्ट और मीडिया के चार खंभों पर टिकी संवैधानिक व्यवस्था में नौकरशाही, डिजिटल तकनीक और जनता को शामिल कर दिया जाए तो नवनिर्माण की सप्तपदी पूर्ण हो सकती है। खाड़ी युद्ध के बाद 1991 में आए संकट से निपटने के लिए जटिल लाइसेंसराज से मुक्ति, आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण का नुस्खा अपनाया गया। अब कोरोना जैसे संकट से निपटने के लिए एक ढंग का कानून नहीं होने से दो सौ साल से चल रही कानूनी व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं? गांवों के मेलों में बिकने वाले सूरमे और चमत्कारी चूरन में हर मर्ज के इलाज का दावा होता है, इसी तरह से लॉकडाउन के इस आपातकाल में धारा 144 और 188 के दुरुपयोग और डंडाराज ने भारत की पूरी कानूनी व्यवस्था को रौंद दिया है। इससे यह साफ है कि देश में लंबे-चौड़े कानूनों की पूरी व्यवस्था के ऑडिट का समय आ गया है1991 के आर्थिक सुधारों का लाभ विदेशी कंपनियों और बड़े उद्योगपतियों को मिल गया। आम जनता के हिस्से में अंग्रेजी हुकूमत के जटिल और बेमानी कानूनों की विरासत अभी भी चली आ रही है। ज्यादा कायदे-कानून से अव्यवस्था, अराजकता और भ्रष्टाचार बढ़ने के साथ देश के विकास में गतिरोध बढ़ते हैं। कोरोना के आकलन के लिए आरोग्य सेतु एप का विस्तार हो रहा है। उसी तर्ज पर राज्यों, केंद्र और अदालतों के सभी आदेश, नियम, कानून और फैसलों को एक एप में डाल दिया जाए तो विरोधाभास खत्म होने के साथ पूरे सिस्टम का ऑडिट हो जाएगा। जनता को केंद्र में रखकर पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. कलाम ने समानता, स्वास्थ्य, शिक्षा और समृद्धि के मानदंडों पर भारत को 2020 में वैश्विक महाशक्ति बनाने का सपना देखा था। लॉकडाउन के एक समान नियम के बावजूद मुंबई और सूरत में मजदूर अटके हैं और महानगरीय बच्चों की घर वापसी की विशेष व्यवस्था हो गई। नौकरशाही के इस अभिजात्यीय स्वरूप की वजह से ही संविधान की प्रस्तावना में ‘वी द पीपुल’ यानी नागरिकों की रक्षा और कल्याण का स्वप्न पूरा नहीं हो पा रहा। नेहरू के दिनों से ही सरकार में व्यक्तिवाद हावी रहा, जिसमें मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पूरी कैबिनेट का पर्याय बन गए। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री ने मंगलवार से पहले अकेले के दम पर एक माह तक पूरी कैबिनेट का काम किया तो फिर मंत्रियों और विधायकों की फौज के रखरखाव पर भारी खर्च क्यों हो? कोरोना से निपटने के नाम पर विधायक और सांसदों में सरकारी पैसे के इस्तेमाल की होड़ लगी है। अब राज्य और केंद्र की सरकारों के सालाना लेखा-जोखा और जनमत के लिए भी एप बने तो संसदीय लोकतंत्र में विधायकों और सांसदों की सही भूमिका और जवाबदेही दोनों बढ़ेगी। अदालतों में मुकदमे की फाइलिंग, नोटिस, जवाब और जटिल प्रक्रिया से विलंब और घूसखोरी बढ़ती है। कोरोना की आपाधापी में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में विदेशी एप के माध्यम से मुकदमों की सुनवाई शुरू हो गई। इस नए दौर में अदालती बिल्डिंग, जज, वकील, मुंशी अदालती स्टाफ, नोटरी, कोर्ट फीस, बैंक, पोस्ट ऑफिस और क्लाइंट सब दूर हैं, फिर भी सुनवाई और तुरंत फैसले हो रहे हैं। नई व्यवस्था को संस्थागत रूप दिया जाए तो जनता को करोड़ों मुकदमों के बोझ से मुक्ति मिलने के साथ देश की जीडीपी भी बढ़ेगी।नोटबंदी से भारत में बचत की अर्थव्यवस्था कमजोर हुई तो जीएसटी से छोटे व्यापार और उद्योग धंधे हाशिए पर आ गए। विदेशी निवेशकों और एफडीआई की तर्ज पर अब छोटे व्यापारियों और उद्योग धंधों को भी उदारीकरण का पूरा लाभ मिलना चाहिए। गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय विदेशी कंपनियों के डिजिटल नेटवर्क के खिलाफ अनेक चेतावनी जारी कर चुके हैं। लॉकडाउन के दौर में उन्हीं कंपनियों के दम पर हमारा समाज, प्रशासन और अदालतें सभी चल रही हैं। जब किसान और मजदूर घरों में कैद हों तो ई-कॉमर्स कंपनियों को दी जा रही सौगातों पर पूर्ण रोक लगे, तभी स्वदेशी अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी। रियायतें देने के साथ डिजिटल कंपनियों से टैक्स की पूरी वसूली व भारत में उनकी कानूनी जवाबदेही तय की जाए। उबर, ओला, अमेज़न और नेटफ्लिक्स जैसी डिजिटल कंपनियों के भारत में दफ्तर हों और उनके ड्राइवर तथा कर्मचारियों को नियमित सुरक्षा मिले तो रोजगार में बढ़ोतरी के साथ अर्थव्यवस्था में जान आए।आजादी की लड़ाई में लेखक, वकील और पत्रकारों का बड़ा योगदान था। 3 मई को लॉकडाउन खत्म हो रहा है और उस दिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। आधुनिक लोकतंत्र के जनक ब्रिटेन के संस्कृति मंत्री ने लोगों से रोजाना एक अखबार खरीदने की अपील की है। उसी तर्ज़ पर भारत में भी मीडिया को मजबूत करने की जरूरत है, जिससे लोकतंत्र के चारों खंभों में संतुलन बना रहे। इस दौर में इस सप्तपदी के माध्यम से देश निर्माण का राष्ट्रीय अभियान चले तो कोरोना महामारी से मुक्ति के साथ जनता की खुशहाली का संवैधानिक स्वप्न भी साकार होगा।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Time for comprehensive audit of long-standing laws of the country Full Article
india news कोरोना कालखंड में हैंगओवर By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 21:05:00 GMT छोटे परदे पर राम कपूर और साक्षी तंवर की जोड़ी बड़े परदे पर प्रस्तुत राज कपूर-नरगिस की तरह मानी जाती है। आजकल चैनल पर राम कपूूर और साक्षी तंवर रिश्तों की भूलभुलैया प्रस्तुत कर रहे हैं। सीरियल का नाम है ‘कर ले मोहब्बत तू भी’। ज्ञातव्य है कि आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ में साक्षी तंवर ने आमिर अभिनीत पात्र की पत्नी की भूमिका अभिनीत की है। फिल्म में साक्षी तंवर के लिए अवसर कम थे, परंतु उसने अपनी मौजूदगी दर्ज की। मराठी रंगमंच और फिल्म के अभिनेता नीलू फुले ने अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘कुली’ के पात्र की मृत्यु के क्षण में संवाद अदा किया ‘मी जातो’ और सिनेमाघर में मौत सा सन्नाटा पसर गया। कुछ कलाकार सीमित भूमिका में ऐसा कुछ कर जाते हैं कि दर्शक भूल नहीं पाता। एच.एस. रवैल की महाश्वेता देवी के उपन्यास से प्रेरित ‘संघर्ष’ के एक दृश्य में संजीव कुमार, दिलीप कुमार की बांहों में दाम तोड़ने का दृश्य में ऐसी वेदना अभिनीत कर गए कि दिलीप कुमार को उनका लोहा मानना पड़ा। उन्होंने अपने मित्रों से कहा कि संजीव कुमार अभिनय क्षेत्र में अपना स्थान बनाएगा।इसी तरह राम कपूर भी विलक्षण अभिनेता हैं। वे टेलीविजन संसार का संजीव कुमार है। ज्ञातव्य है कि राम कपूर एक समृद्ध औद्योगिक घराने का सदस्य है। मुंबई के श्रेष्ठि वर्ग के वर्ली क्षेत्र में उसका भव्य बंगला है। अभिनय का शौक उसे मनोरंजन क्षेत्र में ले आया। सभी कपूरों की तरह उसका वजन बढ़ता रहा है। उसने सप्ताह में एक दिन सोलह घंटे कड़ा उपवास किया और उसका वजन घट गया। यह उपवास अनेक बार करने पर वजन घटता है। राम कपूर सुबह दस बजे प्रारंभ होने वाली स्टूडियो की शिफ्ट में कभी एक बजे के पहले नहीं पहुंचते, परंतु दिन का काम समाप्त होने तक रुकते हैं। निर्माता को अतिरिक्त धन खर्च करना होता है। हाथी पालना कभी सस्ता नहीं हो सकता। गुजरे दौर में एक द्वीप का राजा किसी आरोपी को दंड देने के लिए उसे सफेद हाथी भेंट में देता था। कभी-कभी साक्ष्य के अभाव में अदालत दंड नहीं दे पाती। ऐसे हालात में हाथी भेंट में देकर राजा उसे दिवालिया बना देता था। राजा के हाथी को खूब खिलाना पड़ता है। दंड और न्याय विधान में समय-समय पर विविध प्रयोग होते रहते हैं।जयंतीलाल गढ़ा द्वारा निर्मित, गुरुमल्ला के राम कपूर अभिनीत सीरियल का समापन जल्दी करना पड़ा, क्योंकि राम कपूर का देर से आना महंगा साबित हुआ। सीरियल के लिए बनाए गए प्रमुख सेट पर अधिकांश एपिसोड शूट किए जाते हैं और सेट की लागत की भरपूर वसूली हो पाती है। ज्ञातव्य है कि सीरियल निर्माण में समय पैसे से अधिक मूल्यवान होता है। निर्माता को प्रदर्शन का समय उस दिन दिया जाता है, जब उसके पास बारह एपिसोड शूट किए हों। सीरियल के बैंक में एपिसोड्स का फिक्स्ड डिपॉजिट तोड़ा नहीं जा सकता। राम कपूर ने ‘कसम से’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ और ‘बड़े अच्छे लगते हैं आप’ में अभिनय किया। उपरोक्त सीरियल में राम कपूर अभिनीत पात्र उद्योगपति है। उसका प्रेम एक गरीब लड़की से हो जाता है। पूरा परिवार नई बहू के प्रति आक्रामक रुख अपनाता है। नायक अपनी छोटी बहन से बहुत प्रेम करता है। यह पात्र सुमौना ने अभिनीत किया जो इन दिनों कपिल शर्मा के फूहड़ सीरियल में एक मात्र कलाकार है जो स्वाभाविक अभिनय कर रही हैं। साक्षी तंवर ने सीरियल ‘मेला’, ‘अलबेला’, ‘कहानी घर-घर की’ और ‘बड़े अच्छे लगते हैैं आप’ में अभिनय किया। साक्षी तंवर सांवली सलोनी चालीस पार वय की है। वे मधुबाला की तरह नहीं वरन् स्मिता पाटिल की तरह अत्यंत सेन्सुअस लगती हैं।‘कर ले मोहब्ब्त तू भी’ में राम कपूर सलमान खान की तरह पचास पार सबसे अधिक लोकप्रिय सितारे का पात्र अभिनीत कर रहे हैं। पात्र अनुशासनहीन और शराबी है। साक्षी तंवर को काम दिया जाता है कि वह उसे अनुशासन सिखाए और शराब से दूर रखे। इस प्रक्रिया में उन्हें प्रेम हो जाता है। इस कथा में एक प्रेम त्रिकोण भी जड़ दिया गया है। सभी सीरियलों की तरह कथा को रबर की तरह खींचा जा रहा है। नायक और नायिका दोनों ही तलाशुदा हैैं और दोनों को अपने-अपने विवाह से एक-एक पुत्री प्राप्त हुई है। यह संभव है कि इस सीरियल में ये दोनों पुत्रियां नीतू कपूर अभिनीत फिल्म ‘दो कलियां’ की तरह नायक और नायिका का मिलन करा दें।कोरोना कालखंड में पुराने सीरियल पुन: दिखाए जा रहे हैं। बुनियाद, रामायण, महाभारत, देख भाई देख, साराभाई इत्यादि का प्रदर्शन हो रहा है। आश्चर्य है कि इस दौर में कुंदन शाह और अजीज मिर्जा का ‘नुक्कड़’ जाने क्यों प्रदर्शित नहीं किया जा रहा है। सीरियल संसार में रमा व्यक्ति यथार्थ से दूर हो जाता है। वह वैकल्पिक संसार का प्राणी बन जाता है। कोरोना के दौर के समाप्त होने के बाद अवाम को यथार्थ से रूबरू होने में कठिनाई होगी। ऐसा नीबू-पानी कहां से लाएं जो इस हैंगओवर से मुक्ति दिलाए? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Hangover in the corona period Full Article
india news लॉकडाउन ने डर को खुशी में बदलने में मदद की है By Published On :: Tue, 21 Apr 2020 21:09:00 GMT जि सकी शुरुआत FOMO (फियर ऑफ मिसिंग आउट यानी अलग-थलग पड़ जाने का डर) से हुई थी, वह अब JOMO (जॉय ऑफ मिसिंग आउट) में बदल गया है। अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा के साथ तो ऐसा ही हुआ है। वे सोशल मीडिया और मोबाइल फोन पर निर्भरता को खत्म करना चाहती थीं। उन्होंने लॉकडाउन में पेंटिंग और किताबें पढ़ना शुरू किया और वे स्वीकारती हैं कि इससे बड़ा बदलाव आया है। वे खुलकर कहती हैं कि फोन से दूर होने पर उन्हें आनंद महसूस हो रहा है। वे ज्यादा शांत, संयमित और खुश महसूस करती हैं। इसलिए यह फोमो से जोमो में बदलने का सफर है।सोनाक्षी की ही तरह लॉकडाउन के दौरान देशभर में कई बच्चों ने पेंटिंग की शुरुआत की, जिनकी गर्मी की छुटि्टयां इस बार जल्दी शुरू हो गईं। माता-पिता बच्चों की लॉकडाउन के दौरान बनाई गई पेटिंग्स सोशल साइट्स पर दोस्तों और परिवार के साथ साझा करने लगे। अब हम लॉकडाउन के आखिरी दो हफ्तों में आ गए हैं, इन पेंटिंग्स ने एक वर्चुअल नीलामी घर का रास्ता खोल दिया है, जहां से हुई कमाई को जानवरों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा।जी हां, एक गृहिणी सी थंगामणी और उनके भाई, एक हाउसिंग फाइनेंस एजेंसी के मालिक बूथनाथन रमेश ने बच्चों द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स को नीलाम करने के लिए फेसबुक पेज बनाया है। ये भाई-बहन ब्लू क्रॉस और पूरे तमिलनाडु में पक्षियों को बचाने वाले कुछ समूहों के साथ काम कर रहे हैं। वे बिक्री से हुई आमदनी का कुछ हिस्सा जानवरों और पक्षियों के कल्याण के लिए देंगे। इससे न सिर्फ बच्चों को खुशी मिल रही है, बल्कि उनके दोस्त और साथी बच्चे भी खुश हो रहे हैं।हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो लॉकडाउन की अवधि का पूरा उपयोग करने के लिए दिमाग पर जोर देकर कुछ नया सोच रहे हैं? शायद ज्यादा नहीं। लेकिन बेंगलुरु में बीएससी फाइनल ईयर के छात्र रोहित डे ने भारत का सबसे हल्का एयरप्लेन बनाया है। इसका वजन केवल 1.3 ग्राम और बनाने की लागत केवल 5 रुपए है।रोहित अपने ड्रोन्स और रेडियो कंट्रोल्ड (आरसी) एयरक्राफ्ट खुली जगहों पर उड़ाता और उनका परीक्षण किया करता था। लॉकडाउन की वजह से वह घर से बाहर नहीं निकल पा रहा था, इसलिए इन्हें उन क्षेत्रों में नहीं उड़ा पा रहा था, जहां आमतौर पर उड़ाता था। तभी उसे घर के अंदर ही एयरो मॉडलिंग कंसेप्ट पर काम करने और एक एयरक्राफ्ट बनाने का विचार आया। एयरक्राफ्ट के अलग-अलग हिस्से, जैसे स्पैर (बीच की बॉडी), सेंट्रल विंग, हाथ से बना प्रोपेलर, टेल विंग और रबर बैंड आदि बाल्सा लकड़ी और माइलर शीट से बनाए गए। अब रोहित की भारत में सबसे हल्के एयरप्लेन बनाने के लिए लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज कराने की योजना है। इस श्रेणी में दुनिया में सबसे हल्का एक जापानी एयरक्राफ्ट है, जिसका वजन एक ग्राम से भी कम है।रोहित द्वारा बनाया गया एयरक्राफ्ट 4-5 मिनट उड़ सकता है। इस मामले में विश्व रिकॉर्ड 14 मिनट का है, जो एक दूसरे जापानी एयरक्राफ्ट का ही है। इन एयरक्राफ्ट को फ्री एनर्जी से शक्ति मिलती है, जब रबर बैंड कॉइल को घुमाकर छोड़ते हैं। इन्हें घर के अंदर ही चला सकते हैं। चूंकि ये नाजुक सामग्री से बनते हैं, इसलिए ये जोर से बोलने या छींकने तक से टूट सकते हैं। भारत में यह क्षेत्र अभी बहुत सीमित है और एयरो मॉडलिंग क्लब ऑफ इंडिया के बहुत कम सदस्य इस तरह के एयरक्राफ्ट बनाने का प्रयास कर रहे फंडा यह है कि चाहे पेंटिंग बनानी हो या प्लेन, लॉकडाउन ने इसके लिए जरूरी समय और धैर्य दिया है। इससे हमारे डर, खुशियों में बदल रहे हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Lockdown has helped turn fear into happiness Full Article
india news कई गांव सील, किसान गन्ना भी नहीं काट पा रहे; जहां कटाई को मंजूरी, वहां मजदूर नहीं; चीनी मिलों पर 420 करोड़ रु. बकाया By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 03:46:08 GMT (पारस जैन)बागपत जिले का औसिक्का गांव कोरोना संक्रमित जमातियों के मिलने के बाद से पूरी तरह सील है। खेतों में गन्ने, गेहूं और सरसों की फसल पककर तैयार है, लेकिन यह घर तक कैसे आएगी? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। गांव के हर रास्ते पर बैरियर है। किसान और मजदूर खेतों पर भी नहीं जा रहे हैं।किसान मेहरपाल कहते हैं, ‘‘खेतों में गेंहू और गन्ने की फसल पक चुकी है, लेकिन अनुमति न मिलने के कारण फसलों को काट नहीं पा रहे। हम अपना खर्चा तो जैसे-तैसे चला भी लेंगे लेकिन अगले कुछ दिनों में पशुओं के लिए चारा कहां से लाएंगे, ये समझ नहीं आ रहा।’’किसान जयवीर ने अपने खेतों में गन्ने के साथ सरसों भी लगाया है। वे बताते हैं कि अब बस रात-दिन प्रशासनिक अधिकारियों से फसल काटने की गुहार लगा रहे हैं।औसिक्का की तरह ही बागपत जिले के कई ऐसे गांव हैं, जहां कोरोना संक्रमित जमाती मिले थे। ये सभी गांव अब पूरी तरह सील हैं। यहां भी गांववालों की समस्या एक जैसी ही है।जिन गांवों में सीलबंदी नहीं है, वहां भी हालात ज्यादा अलग नहीं है।मजदूर नहीं मिल रहे तो घर के ही लोग गन्ने की कटाई कर रहेबागपत के टिकरी गांव के जसबीर राठी सुबह-सुबह पूरे परिवार के साथ खेत पर आते हैं और एक से डेढ़ घंटे काम करने के बाद घर लौट जाते हैं। वे बताते हैं कि लॉकडाउन के कारण फसलें काटने के लिए न तो मशीन मिल रही है और न ही मजदूर। ऐसे में हम परिवार के साथ मिलकर ही खेतो में गन्ने और गेहूं की फसल काट रहे हैं।टिकरी के ही रहने वाले नरेश कहते हैं कि हम लोग गन्ना काट तो रहे हैं, लेकिन यह मिलों तक पहुंच भी पाएगा या नहीं, ये हम नहीं जानते। गेहूं को तो घरों में रखा भी जा सकता है लेकिन गन्ना नहीं काटा तो खेतों में सड़ जाएगा और काट लिया तो भी इस बार शायद इसे खेतों में ही सड़ते हुए देखना पड़े।निरपुडा गांव के रहने वाले बाबूराम कहते हैं कि किसानों को तो अब तक गन्ने का पुराना बकाया ही नहीं मिला। आज के हालात में तो हमें चीनी मिलों से हमारा पुराना पैसा मिल जाए, वही बहुत है। कम से कम उस पैसे से खेत मे दवा-बीज तो डाल देंगे।गन्ने की फसल 10 से 11 महीने की होती है। एक बार गन्ना काटने के बाद उसकी दोबारा बुआई नही की जाती, बल्कि जड़ों को छोड़ दिया जाता है। खाद, पानी देने से फिर फसल हो जाती है।चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 15 हजार करोड़ से ज्यादा बकायाहर साल गन्ना किसानों को चीनी मिलों से पैसा मिलने में देरी होती रही है, लेकिन लॉकडाउन के चलते इस बार देरी तो बढ़ी ही है, साथ ही बकाया भी बढ़ गया है। 14 अप्रैल तक उत्तर प्रदेश की 100 से ज्यादा मिलों पर गन्ना किसानों का कुल 15 हजार 686 करोड़ रुपए बकाया था। पिछले साल इस समय तक यह आंकड़ा 10 हजार करोड़ के आसपास था। अकेले बागपत जिले के गन्ना किसानों के ही चीनी मिलों पर 420 करोड़ रुपए बकाया हैं।नगद पैसा देने वाले कोल्हू भी बंद पड़े हैंआमतौर पर यहां किसान ज्यादातर गन्ना तो मिलों में पहुंचा देते हैं, लेकिन कुछ हिस्सा लोकल कोल्हू मशीन के जरिए गुड़ और खांदसारी शकर बनाने वालों को बेच देते हैं। ये लोग राज्य सरकार द्वारा जारी समर्थन मूल्य से कम कीमत पर किसान से गन्ना खरीदते हैं, लेकिन पैसा तुरंत दे देते हैं। इससे जरूरतमंद किसानों का काम चल जाता है।लॉकडाउन के चलते इन दिनों कोल्हूमशीनें भी बंद हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today इस साल देश में करीब 35 करोड़ मीट्रिक टन गन्ना पैदा होने का अनुमान। इसमें से 45% (15.76 करोड़ मीट्रिक टन) पैदावर सिर्फ उत्तर प्रदेश से। - सोर्स: शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टिट्यूट, कोयंबटूर Full Article
india news मंदिरों के शहर में पहली बार गंगा इतनी साफ दिखाई दे रही, एनजीओ के डेटा में भी यहां पानी की क्वालिटी में सुधार दिखा By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 06:33:19 GMT लोकसभा चुनाव के लिए पहली बार वाराणसी से पर्चा भरते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “मुझे यहां किसी ने नहीं भेजा और न ही मैं स्वयं यहां आया हूं... मां गंगा ने मुझे यहां बुलाया है। मैं ऐसा ही महसूस कर रहा हूं, जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोद में आने पर महसूस करता है।” यह तारीख 24 अप्रैल 2014 थी। मोदी ने गंगा को फिर से साफ और स्वच्छ बनाने के वादे के साथ मई में सत्ता संभाली। प्रधानमंत्री बनने के ठीक 1 महीने बाद ही उन्होंने नमामि गंगे योजना भी शुरू कर दी। लेकिन साढ़े पांच साल में 8 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च के बाद भी गंगा साफ न हो पाई। मोदी के संसद क्षेत्र वाराणसी में भी गंगा पहले की तरह मैली ही रही। हालांकि अब लॉकडाउन के 28 दिन बाद यहां स्थिति बदल गई है। सोशल मीडिया पर यहां के घाटों से साफ बहती गंगा की तस्वीरें नजर आ रही हैं। सेंट्रल और स्टेट पॉल्यूशन बोर्ड और एनजीओ का डेटा भी कुछ यही कहानी बयां कर रहा है।संकट मोचन फाउंडेशन की स्वच्छ गंगा रिसर्च लेबोरेटरी में भी गंगा के पानी के स्तर में सुधार देखा गया है। इसके प्रेसिडेंट और बीएचयू प्रोफेसर विशंभर नाथ मिश्र बताते हैं कि काशी के 2 घाटों पर हमने 6 मार्च और 4 अप्रैल को सैम्पल लिए थे। ताजी रिपोर्ट में नतीजे अच्छे आए हैं। काशी के दो घाट और पैमाने 6 मार्च की रिपोर्ट 4 अप्रैल की रिपोर्ट तुलसी घाट पर बीओडी 6.2 7.8 तुलसी घाट पर डीओ 6.8 7.0 तुलसी घाट पर टीडीएस 295 273 नगवा घाट पर बीओडी 42 22 नगवा घाट पर डीओ 3.6 6.0 नगवा घाट पर टीडीएस 330 469 आंकड़े मिलीग्रामप्रति लीटर मेंऐसे साफ रहती है नदी डीओ यानी डिजाल्व आक्सीजन की मात्रा नदी के पानी में 5 मिलीग्राम प्रति लीटर से ज्यादा होनी चाहिए। बीओडी यानी बायोकेमिकल आक्सीजन डिजाल्व की मात्रा नदी के पानी में 3 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम होनी चाहिए। टीडीएस यानी टोटल डीसॉल्व सॉलिड्स की मात्रा नदी के पानी में 600 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम होनी चाहिए।मंदिर औरइंडस्ट्रियों पर ताले और शवों के जलने में आई कमी ने काशी की गंगा को फिर से निर्मल बनायागंगा नदी बेसिन प्राधिकरण विशेषज्ञ बीएचयू प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी काशी बताते हैं कि शहर में हमेशा करीब 1 लाख तक तीर्थयात्री रहते ही हैं, इन दिनों ये भीड़ यहां से गायब है। काशी में शवों के जलने में 40 प्रतिशत से ज्यादा कमी आई है। इसके अलावा काशी अब एक इंडस्ट्रियल हब भी बन चुका है। यहां सिल्क फैब्रिक, आइवरी वर्क्स, परफ्यूम बनाने समेत कई इंडस्ट्रियां हैं। अब ये भी सभी बंद पड़ी हुई हैं। इनसे निकलने वाला कैमिकल भी गंगा में नहीं मिल रहा है। इन कारणों के चलते पानी का स्तर सुधर रहा है।यह काशी का तुलसीघाट है। माना जाता है कि यहीं तुलसीदास ने रामचरितमानस को अवधि भाषा में लिखा था।प्रोफेसर त्रिपाठी कहते हैं कि काशी में जहां-जहां नाले गिरते हैं, उन्हें छोड़कर बाकी जगह पर गंगा 30 प्रतिशत से ज्यादा स्वच्छ हुई होगी। (35 से ऊपर नालों से हर दिन 350 मीलियन लीटर गंदा पानी नालों द्वारा जाता है ।) 4 मई को जब फिर से इन घाटों का सैम्पल लिया जाएगा तो गंगा का पानी और ज्यादा साफ मिलेगा।संगम के नजदीकदो अलग-अलग पैमानों के आधार परगंगा के पानी को पहले से बेहतर पाया गया हैयूपी पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने 9 अप्रैल को नदी के प्रवाह के साथ बहते पानी और उथले पानी का सैम्पल अलग-अलग जगह से इकट्ठा किया था। संगम में मिलने से ठीक पहले गंगा में बायो कैमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) 2.4 मिली ग्राम/ लीटर पाया गया। पहले यह 2.8 था। नदी के पानी का बीओडी जितना कम होता है, पानी उतना बेहतर होता है। ठीक इसी तरह नदी का फीकल कॉलीफार्म (पशू मल की मात्रा) भी घटा है। 13 मार्च को संगम के ठीक पहले गंगा का फीकल कॉलिफार्म 1300एमपीएन/100 एमएल था, वो 9 अप्रैल तक घटकर 820 एमपीएन पर आ गया।प्रयागराज के गंगाघाट पर नावों की यह कतार पिछले 28 दिनों से ऐसी ही दिखाई दे रही है। न यहां पर्यटक है और न श्रद्धालू।सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की 36 मॉनिटरिंग यूनिट्स में से 27 जगह पर पानी नहाने के लायक हुआ, पहले यह 3-4 यूनिट्स तक सीमित थाउत्तराखंड से निकलकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल होते हुए गंगा का पानी बंगाल की खाड़ी में गिरता है। इन पांचों राज्यों से सोशल मीडिया पर गंगा के साफ-स्वच्छ पानी की तस्वीरों की बाढ़ सी आ गई है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) के डेटा में भी यही बात सामने आई है। सीपीसीबी के रियल टाइम वाटर मॉनिटरिंग डेटा के मुताबिक, गंगा नदी में अलग-अलग जगह पर स्थित 36 मॉनिटरिंग यूनिट्स में से 27 जगह पर पानी नहाने और मछली और बाकी जलीय जीवों के लिए अनुकूल पाया गया है। पहले उत्तराखंड की 3-4 जगहों को छोड़ दें तो उत्तरप्रदेश में प्रवेश के बाद से बंगाल की खाड़ी में गिरने तक नदी का पानी नहाने योग्य नहीं था।पटना के गंगाघाटों पर चैत्र पूर्णिमा में कुछ पूजा और स्नान करते नजर आए।लॉकडाउन के 28 दिन vs नमामि गंगे योजना के साढ़े पांच सालभारत सरकार ने जून 2014 में नमामि गंगे योजना शुरू की थी। कोशिश यही थी कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ही गंगा को पूरी तरह साफ-स्वच्छ कर दिया जाए। 29 फरवरी 2019 तक पिछले साढ़े पांच सालों में गंगा की साफ-सफाई पर 8,342 करोड़ रुपए खर्च हुए। कुल 310 प्रोजेक्ट की नींव रखी गई,116 पूरे भी हो गए। 152 सीवरेज इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट भी थे, इनमें से भी 46 कम्पलीट हो चुके। लेकिन आज से एक महीने पहले तक गंगा के पानी में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं देखा गया था। हालांकि अब स्थिति बदल गई है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today 8 अप्रैल को हनुमान जयंती के दिन भी काशी में गंगा के घाट खाली थे। तस्वीर काशी के दशाश्वेमध घाट की है। Full Article
india news किसी ने कमरा किराए से लिया, तो किसी ने होटल को ही घर बनाया, सुबह 5 से रात 12 बजे तक काम पर लगी रहती हैं ये वीरांगनाएं By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 08:10:03 GMT वो घर भी संभाल रही हैं औरड्यूटी भी निभा रही हैं। उन्हें अपने बच्चों की दिन-रात फ्रिक भी हैऔरकर्तव्य का अहसास भी। उनकी जिंदगी सुबह 5 बजे से शुरू होतीहै, जो रात में 12 बजे तक चलतीहै। इस दौरान ड्यूटी के साथ ही घर के भी तमाम काम उन्हें करना होते हैं। घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारियों को पूरा कर रही इन वीरांगनाओं में सेकिसी ने खुद और परिवार को सुरक्षित रखने के लिएकिराए से कमरा लिया है तो किसी ने परिवार से दूरी ही बना ली। आज हम ऐसीही महिला पुलिसकर्मियों की कहानी सुना रहे हैं,जो खाकी वर्दी में न सिर्फ कोरोनावायरस को हराने में लगी हुई हैं, बल्कि इस मुश्किल दौर में अपने परिवार को भी संभाल रही हैं।भोपाल में महिला पुलिसकर्मियों के संघर्ष को बयां करती पांच कहानियां...ड्यूटी पर तैनात महिला पुलिसकर्मी।1. शीला दांगी, थाना कोतवालीआपका मौजूदा वक्त में घर में क्या रोल है?मेरा दिन सुबह 6.30 बजे से शुरू होता है। पहले बच्चे को नहलाती हूं। तैयार करती हूं। फिर खुद नहाती हूं। इसके बाद पीने का पानी भरना, पति और खुद का टिफिन तैयार करना, घर की साफ-सफाई करने जैसे तमाम छोटे-मोटे काम निपटाने होते हैं। हसबैंड 9 बजे ऑफिस के लिए निकल जाते हैं। उससे पहले उनका टिफिन तैयार करना होता है। मेरा बच्चा अभी 5 साल का है। उसे अकेला घर में नहीं छोड़ सकते। रोज ड्यूटी पर आते वक्त बच्चे को पति के ऑफिस में छोड़ते हुए आती हूं,क्योंकि उन्हें फील्ड में नहीं जाना होता। वे ऑफिस में ही रहते हैं। मैं फील्ड और ऑफिस दोनों जगह काम करती हूं। कई लोगों से मिलती-जुलती हूं। इसलिए बच्चे को अपने साथ नहीं ला सकती। शाम को 7 बजे ड्यूटी खत्म होने के बाद बच्चे को हसबैंड के ऑफिस से लेते हुए घर जाती हूं। क्योंकि हसबैंड 9 बजे तक घर आते हैं। घर पहुंचकर खुद सैनिटाइज होती हूं फिर बच्चे को सैनिटाइज करती हूं। यूनिफॉर्म वॉश करती हूं। बच्चे के कपड़े वॉश करती हूं। फिर लग जाती हूं रात का खाना तैयार करने में। हसबैंड के आने के बाद हम साथ खाना खाते हैं। सोते-सोते 12 बजे जाते हैं। 6 घंटे बाद दोबारा उठने की फ्रिक के साथ कुछ घंटे सुकून की नींद लेने की कोशिश करते हैं। अगले दिन फिर वही रूटीन।ड्यूटी पर क्या रोल होता है?मैं कोतवाली थाने में कॉन्स्टेबल हूं। कभी फील्ड में ड्यूटी करनी होती है, कभी थाने में काम करना होता है। फील्ड पर रहते हैं तो इधर-उधर जाने वालों को रोकते हैं। समझाते हैं। मास्क पहनने को बोलते हैं। कई बार लोग हम पर चिढ़ भी जाते हैं। हमें ही डांटने लगते हैं, फिर भी हम रिक्वेस्ट करते हैं कि हम ये सब आपकी भलाई के लिए कर रहे हैं। कई दफा गुस्सा भी आता है। तब हम भी लोगों पर भड़क जाते हैं। पर मकसद तो यही होता है कि कोई कोरोना का शिकार न हो। भीड़ न जमा हो बस।2. मीरा सिंह, 23 बटालियनघर में आपका रोल क्या होता है?मैं सुबह 5 बजे उठ जाती हूं। क्योंकि 7 बजे मुझे ड्यूटी पर पहुंचना होता है। सुबह के दो घंटे बेहद व्यस्त होते हैं। नहाना, सफाई और खाना तैयार करना। मेरे दो बच्चे हैं। आठ साल का बेटा और तेरह साल की बेटी। दोनों पिता के साथ घर में रहते हैं। मैं खुद का टिफिन लेकर निकलती हूं। हमें भोजन तो उपलब्ध करवाया जा रहा, पर संक्रमण के डर से बाहर का खाना नहीं खाती। ड्यूटी खत्म होने पर पहले घर नहीं जाती। किराये का कमरा ले रखा है। वहां जाकर नहाती हूं। यूनिफॉर्म वॉश करती हूं। खुद को सैनिटाइज करती हूं। तभी घर जाती हूं। हमें विभाग ने होटल में रहने की सुविधा दी है, पर होटल में रहने लगी तो बच्चे का घर पर ध्यान कौन रखेगा? उसे खाना-पीना कौन देगा? इसलिए जैसे कोरोनावायरस का मामला सामने आया हमने घर के पास ही किराये का एक कमरा ले लिया था। बच्चे और पति को सुरक्षित रखने के लिए ये जरूरी था।और काम के दौरान आपका रोल क्या होता है?हमारी ड्यूटी सुबह 7 से दोपहर 3 बजे तक चलती है। इस दौरान कई बार लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ता है। जांच के लिए रोके जाने पर तो कई लोग धमकी देते हुए जाते हैं, कि देख लेंगे तुम्हें। महिलाएं बिना मास्क लगाए बच्चों को गाड़ी पर ले जाती हुई दिखती हैं, उन्हें रोको तो वो भी झगड़ पड़ती हैं। फील्ड पर रहने के दौरान लोगों के ऐसे बिहेवियर से कई बार गुस्सा भी आता है। लेकिन फिर लगता है कि सब तो परेशान ही हैं। हम हर किसी को समझाने का काम कर रहे हैं। तपती धूप में 8 घंटे तक खड़े रहना भी चुनौती है। हालांकि बीच-बीच में बैठ भी जाते हैं। छांव में भी चले जाते हैं, लेकिन लोगों को संभालना आसान नहीं होता। हर गाड़ी को चेक करना, समझाना, कागज देखना, मास्क पहनने को कहना, ये सब हमारी ड्यटी है।3. सुमन सिंह, 23 बटालियनअभी आप घर में क्या रोल अदा करती हैं?मैं सरकारी क्वार्टर में रहती हूं। अभी घर पर अकेली ही हूं, क्योंकि मां और भाई लॉकडाउन के चलते गांव में फंस गए हैं। मैं लॉकडाउन के पहले आ गई थी। अकेले रहना ठीक भी है, लेकिन अकेले रहने की चुनौतियां भी हैं। ड्यूटी सुबह 7 बजे से शुरू होती है। इसलिए 5 बजे से उठकरखाना तैयार करती हूं। चाय और नाश्ता भी घर से ही बनाकर लाती हूं, क्योंकि बाहर तो कुछ मिल नहीं रहा। मां फोन करती रहती हैं। वो कई बार रोने लगती हैंकि कब खत्म होगा कोरोना। तुम ठीक हो कि नहीं। टेंशन में ही रहती हैं। मेरे पास आना चाहती हैं, लेकिन आ नहीं सकती। ड्यूटी से आने के बाद घर की सफाई करती हूं। खुद को सैनिटाइज करती हूं। हर रोज कपड़े वॉश करती हूं। यूनिफॉर्म में प्रेस भी करना होता है। फिर डिनर तैयार करती हूं। सोते-सोते रात के 11 बज जाते हैं। अगली सुबह फिर से वही काम।और बाहर क्या रोल रहता है?मेरी ड्यूटी भोपाल चौराहे पर लगी है। चेकिंग में ड्यूटी है। दिनभर लोगों को समझाने और जांच करने में निकल जाता है। कई लोग सहयोग करते हैं और नियमों का पालन करते हैं। लेकिन कुछ लोग नियमों को नहीं मानते और हम पर ही गुस्सा निकालते हैं। ऐसे लोगों से भी डील करना होता है। जब से कोरोनावायरस आया है, तब से मन में डर भी हमेशा बना हुआ रहता है। फील्ड पर पूरे समय कपड़ा बांधकर ही रहते हैं। धूप में कपड़ा बांधकर खड़े होने से पसीना-पसीना हो जाते हैं, लेकिन कपड़ा हटा भी नहीं सकते, क्योंकि ऐसे में खतरा ज्यादा है। अभी जिंदगी बहुत चुनौतीपूर्ण चल रही है।4. सोनम सूर्यवंशी, यातायात थानाअभी घर में क्या रोल होता है?मैं अकेले रहती हूं। सुबह 7 बजे से दोपहर 3 बजे तक ड्यूटी रहती है। विभाग भोजन उपलब्ध करवा रहा है, पर मैं तो अपना खाना खुद बनाकर लाती हूं। ताकि संक्रमण का शिकार होने की रिस्क न रहे। सुबह 5 बजे उठ जाती हूं। नहाने के बाद खाना बनाती हूं। 7 बजे तक ड्य्टी पर आ जाती हूं। दोपहर 3 बजे ड्यूटी के बाद घर जाती हूं। पहले खुद को सैनिटाइज करती हूं। नहाती हूं। यूनिफॉर्म वॉश करती हूं। फिर घर की साफ-सफाई करके रात का खाना बनाती हूं। सोना साढ़े दस, ग्यारह बजे तक ही हो पाता है। मैंने पिछले साल ही पुलिस विभाग जॉइन किया है। मैं बैतूल की रहने वाली हूं। चिंता में घरवाले दिनभर फोन करके पूछते रहते हैं। उन्हें टेंशन रहता है कि मैं बाहर जा रही हूं। ड्यूटी पर हूं, ऐसे में किसी तरह का खतरा न हो।और बाहर क्या रोल होता है?26 मार्च से फील्ड ड्यूटी लगा दी गई थी। सब अलग-अलग प्वॉइंट पर चेकिंग कर रहे हैं। हमें देखना होता है कि, कौन-कहां जा रहा है। कोई फालतू तो नहीं घूम रहा। मैं मैथ्स से एमएससी करके पुलिस की फील्ड में आई हूं। लोगों को प्यार से समझाते हुए मैनेज कर लेती हूं। उन्हें बाहर निकलने के नुकसान और घर में रहने के फायदे बताती हूं। अधिकतर लोग समझ जाते हैं। कुछ लोग मिसबिहेव भी करते हैं। अब हम चालानी कार्रवाई भी शुरू कर चुके हैं। कुछ लोग अलग-अलग बहाने करके निकलने की कोशिश करते हैं। कोई कहता है पेट्रोल लेने जाना है, तो कोई कहता है राशन लेना है। हम सबसे यही रिक्वेक्ट कर रहे हैं कि घर से बाहर न निकलिए। आठ घंटे सड़क पर तपती धूप में नौकरी करना किसी चुनौती से कम नहीं होता। जब मौका मिलता है, तब थोड़ी देर के लिए बैठकर आराम कर लेते हैं।5. पल्लवी शर्मा, एमपी नगर थानाघर में क्या रोल होता है?मैं सीहोर की रहने वाली हूं। भोपाल में घर-परिवार का कोई नहीं है। यहां विभाग ने होटल में रुकने की व्यवस्था की है। किसी को घर नहीं जाना है, सिर्फ लोकल में जिनके परिवार हैं, वहीं लोग घर जाते हैं। मैं होटल के कमरे में ही रहती हूं। खाना भी विभाग जो उपलब्ध करवाता है, वहीं खाती हूं। घरवाले बहुत टेंशन में हैं। वे बार-बार फोन करते हैं। चिंता करते हैं, लेकिन हमें इस कठिन समय में अपनी ड्यटी भी करना है। मां को बहुत टेंशन रहता है। वो दिन में कई बार कॉल करती हैं, लेकिन ड्यूटी मेरे लिए पहले है।और बाहर क्या रोल होता है?सुबह 10 से शाम 6 बजे तक ड्यूटी पर रहती हूं। सबसे बड़ी चुनौती धूप में खड़े रहना ही है। एमपी नगर थाने के सामने वाले चौराहे पर मेरी ड्यूटी होती है। यह चौराहा भी थोड़ा ढलान में है, जिस कारण यहां पैर एकदम समतल नहीं होते। इस कारण रात में सोते वक्त बहुत दर्द देते हैं। हालांकि मैं अपने काम को बहुत एन्जॉय कर रही हूं। हम खाली सड़कों के फोटो लेते हैं। चाय पीते हुए सेल्फी लेते हैं। लोगों को प्यार से समझाते हैं। कई लोग चिढ़ते भी हैं। एक डॉक्टर साहब चिढ़ गए थे कि मैं यहां से रोज निकलता हूं, आप मुझे रोज रोकती हैं। अब हम किस-किस को पहचानें। हम लोगों को रोककर उनसे पूछताछ तो करना ही है। यही हमारा काम है। 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india news मोदी ने 5 महीने में कोई विदेश यात्रा नहीं की, 6 साल में दूसरी बार ऐसा; 29 फरवरी से तो दिल्ली से बाहर भी नहीं गए By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 12:26:59 GMT कोरोनावायरस को फैलने से रोकने के लिए दुनियाभर की सरकारें लॉकडाउन का तरीका अपना रही हैं। भारत में भी40 दिन का लॉकडाउन है, जिसका आज 29वां दिन है। पिछले करीब एक महीने से देश की 135 करोड़ की आबादी घर में कैद है। लेकिन, लॉकडाउन की वजह से सिर्फ आम लोग ही नहीं, जो कहीं आ-जा नहीं पा रहे। बल्कि, प्रधानमंत्री मोदी भी कहीं आ-जा नहीं पा रहे हैं।प्रधानमंत्री मोदी को विदेश से लौटे आज 5 महीने, 6 दिन हो चुके हैं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 6 साल में ये दूसरी बार है, जब वे इतने लंबे समय तक देश में ही हैं।इससे पहले मोदी ने 2016-17 में 6 महीने तक कोई विदेश यात्रा नहीं की थी। उस समय मोदी 12 नवंबर 2016 को जापान से लौटे थे और उसके बाद 11 मई 2017 को श्रीलंका के दौरे पर गए थे। हालांकि, उस समय देश में चुनाव भी थे। मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में चुनाव हुए थे।हर साल 10 से ज्यादा विदेशी यात्राएं करते हैं मोदीमोदी को प्रधानमंत्री बने करीब 5 साल 11 महीने हो चुके हैं। मोदी ने 26 मई 2014 को पहली बार और 30 मई 2019 को दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, मोदी ने 2014 से लेकर अब तक 59 बार विदेश के लिए रवाना हुए हैं। इस दौरान उन्होंने 106 देश (इनमें 2 या उससे ज्यादा दौरे भी) की यात्रा की है। मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, तब से हर साल 10 से ज्यादा विदेशी यात्राएं करते हैं।दिसंबर 2018 में राज्यसभा में दिए जवाब में उस समय के विदेश राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री के विदेश दौरे पर होने वाले खर्च का ब्योरा दिया था। इसके मुताबिक, 2018-19 तक मोदी की विदेश यात्रा पर 2,021.54 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इसके बाद मोदी ने 14 यात्राएं और कीं, जिसमें 90.70 करोड़ रुपए और खर्च हुए थे। हालांकि, इस खर्चमें प्रधानमंत्री के विमान के रखरखाव और हॉटलाइन का खर्चशामिल नहीं था।2017 में 5 राज्यों में चुनाव थे, इस बीच 6 महीने तक मोदी विदेश नहीं गए थेनवंबर 2016 से मई 2017 के बीच प्रधानमंत्री मोदी किसी भी विदेश दौरे पर नहीं गए थे। इसका एक कारण ये भी था कि, उस समय उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव भी थे। इन 5 राज्यों में मोदी ने नवंबर 2016 से लेकर मार्च 2017 के बीच 38 दौरे किए थे। इसमें से सबसे ज्यादा 27 दौरे अकेले उत्तर प्रदेश में किए थे। चुनाव में भाजपा ने यहां की 403 सीटों में से 325 सीटें जीती थीं। भाजपा 5 में से 4 राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही थी। अकेले पंजाब में उसे सरकार गंवानी पड़ी थी।मोदी हर साल राज्यों के दौरे पर भी जाते हैं, लेकिन 29 फरवरी से दिल्ली में ही हैंप्रधानमंत्री मोदी आखिरी बार दिल्ली से बाहर 29 फरवरी को गए थे। इस दिन वे उत्तर प्रदेश के प्रयागराज और मध्य प्रदेश के चित्रकूट आए थे। प्रयागराज में वे सामाजिक आधिकारिता शिविर में शामिल हुए थे। जबकि, चित्रकूट में बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास करने और किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड बांटने गए थे।भास्कर नॉलेज : चौधरी चरण सिंह ऐसे प्रधानमंत्री, जो किसी विदेशी दौरे पर नहीं गए पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 68 देशों की यात्रा की थी। वे 1947 से 1962 तक प्रधानमंत्री रहे थे। उनकी पहली विदेश यात्रा 11 से 15 अक्टूबर 1949 को हुई थी। पहली विदेश यात्रा पर नेहरू अमेरिका गए थे। इंदिरा गांधी ने 15 साल के दौरान 116 देशों की यात्राएं की थीं। 5वें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक) ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने एक भी विदेशी दौरा नहीं किया था। अटल बिहारी वाजपेयी ने 48 देशों की यात्रा की थी। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने 10 साल के कार्यकाल में 93 देशों की यात्रा की थी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Narendra Modi Latest News; Coronavirus | Coronavirus (COVID-19) Spread Latest Impact On PM Narendra Modi Foreign Trips Full Article
india news देश का खाद्यान्न भंडार भविष्य में देगा बड़ी राहत By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:03:00 GMT ऐसा मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ कि पूरी दुनिया अप्रत्याशित और अपूर्व अवसाद में हो। समर्थ और बलहीन दोनों मानो एक ही नाव में हों जो डूब-उतरा रही हो। हर सुबह लगता है कि सब कुछ खत्म हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और उसके सॉलिडेरिटी (कई प्रमुख देशों के वैज्ञानिकों का इस मुद्दे पर शोध का समेकित प्रयास) से उम्मीद तो थी कि अचानक इलाज या वैक्सीन खोजने की घोषणा करेगा, लेकिन दो दिन पहले संगठन ने कहा कि संकट अभी और विकराल रूप लेगा।उधर, हांगकांग या चीन जैसे जिन देशों ने यह मानकर कि उनके यहां रोग का ग्राफ समतल हो गया है या नीचे आने लगा, उद्योग-व्यापार शुरू किया, वहां कोरोना का दूसरा हमला हो गया। विश्व मुद्राकोष यह कहकर डरा रहा है कि अर्थव्यवस्था पर कोरोना का जहर अगले कई सालों तक दुनिया में बेरोजगारी असाधारण रूप से बढ़ाएगा। कोरोना के डर और इन रिपोर्टों से पैदा हुए इस विश्वव्यापी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामूहिक अवसाद को लेकर समाजशास्त्री मानते हैं कि इससे मानव व्यवहार, सोच और जीवन के प्रति नजरिया बदलेगा। भारत में उद्योगों के खोले जाने की शर्त को देखकर औद्योगिक संगठनों ने कारखाने चलाने में असमर्थता दिखाई है।उनका कहना है कि केंद्र की गाइडलाइंस में किसी मजदूर में कोरोना पाए जाने पर मालिक पर आपराधिक मुकदमा करना और मजदूरों को फैक्ट्री के पास ही आवास और खाने की व्यवस्था का जिम्मा मालिकों पर डालना भी उद्यमियों का उत्साह कम करेगा। उधर, लोग केवल जीवन के लिए जरूरी सामान ही खरीद रहे हैं, जबकि सामान्य अवस्था में बाहर खाना, घूमने जाना, मनोरंजन पर खर्च, ब्रांडेड माल का उपभोग आदि अर्थव्यवस्था को गति देता है। संयुक्त राष्ट्र की खाद्य संस्था ने कहा कि आने वाले समय में खाद्यान्न का भयंकर संकट होगा और दुनिया की करीब 100 करोड़ आबादी भुखमरी का शिकार हो सकती है।भारत के पास अवसाद से बाहर आने और हौसला बढ़ाने के तीन कारण हैं। पहला, भारत में अमेरिका के मुकाबले रोग के टेस्ट/पुष्टि का अनुपात 183 गुना कम है, यानी कोरोना की घातक क्षमता भारत में कम है। दूसरा, लॉकडाउन का सकारात्मक असर अब मरीजों की संख्या में दिखने लगा है और तीसरा, देश मंे सालभर का अनाज है और नई बुवाई का रकबा भी बढ़ा है, जो आने वाले समय में बड़ी राहत देगा। अंधेरी सुरंग के उस पार एक दिया टिमटिमा रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today The country's food stock will give big relief in future Full Article
india news आने वाले समय में प्रतिभा ही काम आएगी By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:04:00 GMT आप किसी बड़े व्यक्ति की संतान हैं, स्वयं समर्थ हैं, धनवान हैं, यह आपके लिए प्राथमिकता हो सकती है, पर अब इससे सुरक्षा नहीं हो सकती। कोरोना ने एक बात तो अच्छे से समझा दी है कि बड़ा हो या छोटा, जो मुझे छिपाएगा वह ‘था’ हो जाएगा।आपके धनवान और श्रेष्ठी होने से प्राथमिकता मिल जाएगी, सुविधाओं का लाभ भी उठा लेंगे, लेकिन इस छोटे से विषाणु ने जिंदगी और मौत के मामले में सबकी औकात एक जैसी कर दी है। अब जो वक्त चल रहा है, उसमें आपसे निज सुरक्षा के लिए एकांत की मांग की जा रही है और यही आपकी श्रेष्ठता होगी। श्रेष्ठ व्यक्ति के पास अच्छी बुद्धि होती है। तो क्यों न इन दिनों घर में रहते हुए अपनी बुद्धि पर काम करें। बुद्धि में शुद्ध कल्पनाएं भी होती हैं और ऐसी दिव्य कल्पनाओं को मूर्त रूप दिलाने वाली शक्ति को प्रतिभा कहते हैं।अद्भुत और विलक्षण गुण जहां मिल जाएं तो मनुष्य में प्रतिभा का जन्म होता है। परमात्मा ने हर एक के भीतर प्रतिभा का अंश जन्म से दिया है। इन दिनों इसे ढूंढिए, उसे परिष्कृत कीजिए। जब किसी की प्रतिभा जागती है तो वह ऐसे-ऐसे नए और अच्छे काम करता है जो पहले कभी नहीं किए होते हैं। अब आगे आने वाले समय में ऐसे ही नए-नए काम करना पड़ेंगे, तब प्रतिभा ही काम आएगी। लेकिन ध्यान रखें, अपनी प्रतिभा को परमात्मा का छोटा सा छींटा जरूर दे दीजिएगा। जिस प्रतिभा का जुड़ाव परमात्मा से नहीं होता, वह एक दिन पागलपन में बदलते हुए भी देखी गई है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Only talent will come in the future Full Article
india news कम कड़े उपाय, जिन्हें देश सह सके, ज्यादा प्रभावी हो सकते हैं By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:09:00 GMT अगर आप आसानी से बुरा मान जाते हैं या फिर आज के सबसे बड़े सवाल जिंदगी बनाम जीविका जैसी अप्रिय बातों पर चर्चा नहीं कर सकते तो मेरी सलाह है कि आपको यह लेख नहीं पढ़ना चाहिए। अब हम लॉकडाउन के पांचवें हफ्ते में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन आगे क्या होगा, इस बारे में हमें कुछ भी स्पष्ट नहीं है। इसके बावजूद हमने आज जो चुना है, उसके परिणामों पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है। आज हमने खुद को कोविड-19 के संक्रमण से बचाने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन को चुना है। अब तक भारत में इसके मामलों को देखते हुए यह कहना ठीक होगा कि लॉकडाउन काम कर रहा है और हम कुछ जिंदगियों को बचाने में कामयाब रहे हैं। और जिंदगी का कोई मूल्य नहीं होता, इसलिए इसका महत्व है।तर्क मजबूत है। आज का मंत्र है कि जिंदगी अनमोल है, इसलिए उन्हें हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए। हालांकि, हम भारतीयों ने कोविड-19 के अलावा अन्य किसी वजह से जिंदगी बचाने के लिए इस सिद्धांत को लागू नहीं किया। उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में भारत में आठ लाख शिशुओं की मौत हुई। इसकी प्रमुख वजह पोषण, सफाई व स्वास्थ्य की खराब हालत को ठीक करने के उपायों पर हमने अपेक्षित खर्च किया होता तो कम से कम दो लाख शिशुओं की निश्चित ही जान बच सकती थी। लेकिन हमने नहीं किया, क्या हमें करना चाहिए था? भारत में शिशु मृत्यु दर, यानी पांच साल का होने से पहले मौत की दर करीब तीन फीसदी है। यह दर कोरोना से होने वाली मौतों से अधिक है। इस वजह से कि कोई बच्चा भारत में पैदा हुआ है, उसके मरने की आंशका किसी व्यक्ति के काेरोना की चपेट में आकर मरने से अधिक है। विकसित देशों में शिशु मृत्यु दर सिर्फ 0.3 फीसदी है। अगर हम कोरोना की तरह शिशुओं की मौत के खिलाफ कदम उठाते तो जिंदगी बचाने में बेहतर परिणाम होते। क्या हम नहीं सोचते कि इसके लायक अतिरिक्त संसाधन हैं, क्या ऐसा नहीं है?गोरखपुर में एक आॅक्सीजन सप्लायर को 60 लाख का भुगतान नहीं होने से ऑक्सीजन की लाइन काट दी गई। 48 घंटों में ही 30 बच्चों की मौत हो गई है। यानी हर बच्चे की जान की कीमत 2 लाख। क्या हमें अस्पतालों के लिए एक बेहतर भुगतान व्यवस्था नहीं बनानी चाहिए? अनेक रिसर्च समूहों और उद्योग संस्थाओं ने कोरोना लॉकडाउन की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को 10 लाख करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया है। क्या यह इसके लायक है? जिंदगी का काेई परिमाण नहीं हो सकता। फिर भी, माना कि अगर हमने आज किए जा रहे किसी भी कदम को नहीं उठाया होता तो हम कह सकते हैं कि कोरोना से अधिकतम दस लाख लोगों की मौत हो जाती। अगर हम लॉकडाउन की उक्त कीमत को बचाई गई जिंदगियों से भाग करें तो यह एक करोड़ प्रति जिंदगी होता है।अब जरा भारत के 10 हजार से कुछ अधिक अस्पतालों पर नजर डालते हैं। माना कि कोरोना के लिए सरकार ने इनमें से हरेक को डॉक्टरों व अन्य सुविधाएं बढ़ाने के लिए 10 करोड़ भी दिए तो कुल राशि एक लाख करोड़ होती है। इन अतिरिक्त संसाधनों से अगर हर हस्पताल हर हफ्ते दो या हर साल 100 लोगों की जान बचाए तो ये सभी अस्पताल कुल दस लाख जीवन बचाएंगे। यानी हर अस्पताल का काेरोना से प्रति जिंदगी बिताने का खर्च 10 लाख हुआ। हकीकत में कई बार एक लाख रुपया भी किसी की जान बचा सकता है। हालांकि, जिंदगी की कीमत लगाकर चर्चा करना निर्मम लग सकता है। लेकिन, दुनिया की हर सरकार को रोज ऐसे चुनावों से गुजरना होता है।कीमत की तुलना सिर्फ स्वास्थ्य के क्षेत्र में ही नहीं होती। मुंबई में नए फुटओवर ब्रिज से कई जानें बच सकती थीं, लेकिन हमने इसे नहीं बनाया, क्योंकि हमने नहीं सोचा कि इन जिंदगियों को बचाने की कोई कीमत है। हम पानी व हवा की गुणवत्ता सुधारने पर खर्च नहीं करते, क्याेंकि इस पर हाेने वाले खर्च को हम और बचने वाली जिंदगी के लायक नहीं समझते। कोरोना लॉकडाउन की एक कीमत आर्थिक मंदी के रूप में भी है। बेरोजगारी और दिवालिया होने से डिप्रेशन, आत्महत्या, अपराध, घरेलू हिंसा व आतंकवाद के मामले बढ़ सकते हैं। लाॅकडाउन से अनेक अन्य बीमारियों पर भी ध्यान नहीं है और ये भी जिंदगी ले सकती हैं।कोरोना के चारों ओर बने मीडिया उन्माद, बीमारी काे लेकर हमारी घबराहट, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजरों में जिम्मेदार दिखने की भावना से हम अपनी पहले की सब चीजांे को भूल रहे हैं। भारतीयों को गंभीरता से कोरोना से बचाने की जरूरत है। लेकिन, हम देश की आर्थिक वास्तविकता व पहले से मौजूद समस्याओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हो सकता है कि कम कड़े उपाय अधिक प्रभावी हों, जिन्हें देश वहन कर सकता हो। लॉकडाउन के इस समय में हमें अगले कदम का फैसला करने से पहले समस्या को हर दृष्टिकोण से देखना होगा। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Less stringent measures, which the country can bear, can be more effective. Full Article
india news कहीं लॉकडाउन का सारा बोझ गरीब की ही पीठ पर तो नहीं? By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:10:00 GMT अभूतपूर्व राष्ट्रीय लॉकडाउन का एक माह पूरा होने को आया है। अब वह सवाल खुलकर सामने आ रहा है, जो कई दिनों से धीरे धीरे सर उठा रहा था कि कहीं यह दवा बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक तो नहीं है? कहीं कोरोना से ज्यादा नुकसान लॉकडाउन तो नहीं कर जाएगा? जब 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश की तालाबंदी की घोषणा की थी तो देश उनके साथ खड़ा था। निर्णय कठिन था, कड़ा था और परिणाम कड़वे हो सकते थे। लेकिन, देश को इस महामारी से बचाने के लिए प्रधानमंत्री ऐसा निर्णय ले पाए इसकी सराहना हुई। विपक्षी दल भी सरकार के साथ खड़े दिखाई दिए। जनता ने खुशी-खुशी सब तरह की परेशानियां झेली और प्रधानमंत्री के आग्रह पर राष्ट्रीय एकता के यज्ञ में भाग लिया।इस बीच कोरोना से ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ती गई। जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तब पॉजिटिव केस की संख्या लगभग 500 थी। एक महीने में यह संख्या 20,000 से पार हो गई है। लेकिन जनता ने धीरज बनाए रखा कि वायरस भले ही बढ़ रहा हो, लेकिन उसके बढ़ने की रफ्तार घट रही है। प्रधानमंत्री को इसका श्रेय दिया कि अमेरिका जैसे देशों की तुलना में हमारे यहां संक्रमण धीमा है, मौत का आंकड़ा कम है।सवाल पहले दिन से उठने शुरू हुए थे। लेकिन जनता ने उन पर कान नहीं दिया। सवाल उसी रात को उठा था जब प्रधानमंत्री के भाषण के तुरंत बाद शहरों में बाजारों में अफरा-तफरी मची थी। सवाल उठा था कि क्या यह घोषणा बेहतर तरीके से नहीं की जा सकती थी? यह सवाल गहरा हुआ जब लाखों की संख्या में गरीब मजदूर अपनी गठरी बांधकर अपने गांव के लिए पैदल चलने पर मजबूर हो गए। सवाल उठा था कि क्या सरकार ने इतना बड़ा निर्णय लेते समय दिहाड़ी मजदूरों के बारे में सोचा भी नहीं था? सवाल तब भी उठे जब सरकार द्वारा जारी लॉकडाउन के पहले दिशा निर्देश में फसल की कटाई और कृषि उत्पाद को मंडी ले जाने का जिक्र भी नहीं था। सवाल उठा क्या अन्नदाता कि तकलीफ सरकार के मानस पटल पर है भी या नहीं? सवाल तब भी उठा जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने देश की जीडीपी के 1 प्रतिशत से कम राहत पैकेज की घोषणा की। जहां गरीबों को पांच किलो अनाज और एक किलो दाल देने के फैसले का स्वागत हुआ, वहीं यह सवाल उठा कि जिन लोगों के पास राशन कार्ड ही नहीं है, उनके लिए क्या व्यवस्था की गई है? प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैलेकिन पहले दौर में जनता ने "जान है तो जहान है’ का जाप करते हुए राष्ट्रीय संकल्प को बनाए रखा।लेकिन, प्रधानमंत्री द्वारा पुनः 19 दिन के लिए लॉकडाउन की घोषणा के बाद से देश के अंतिम व्यक्ति के सब्र का बांध टूटता दिखाई दे रहा है। इसलिए नहीं की कोरोना को लेकर देश गंभीर नहीं है। सरकार इसे रोकने के लिए कुछ पाबंदियां लगाए कई व्यवस्थाएं करें, इस पर किसी को ऐतराज नहीं है। अब तक किए गए लॉकडाउन से बीमारी की रफ्तार को रोकने में कुछ सफलता मिली है इस पर किसी को संदेह नहीं है। लेकिन, अब डर के धुंधलके में भी देश को कुछ कड़वी हकीकत दिखाई देने लगी है। दिल्ली और मुंबई में फंसे लाखों गरीबों को पैदल चलने की छूट नहीं है, लेकिन उत्तराखंड से सैकड़ों सैलानियों को गुजरात तक तथा बनारस से सैकड़ों तीर्थयात्रियों को आंध्र तक लग्जरी बसों में पहुंचाया गया। गरीब की बच्ची ने तेलंगाना से छत्तीसगढ़ पैदल चलते हुए दम तोड़ दिया, लेकिन शहरी बच्चों को कोटा से उत्तर प्रदेश तक मुफ्त में बसों तक लाया गया। ऐसा लगने लगा कि गरीब और अमीर के लिए दो अलग देश हैं, दो अलग नियम है, दो अलग व्यवस्था हैं। सवाल उठने लगा है कि कहीं लॉकडाउन का सारा बोझ गरीब की पीठ पर तो नहीं?सवाल यह भी उठना शुरू हुआ है कि जब लॉकडाउन हटेगा तो यह संक्रमण दोबारा सिर तो नहीं उठाएगा? सवाल उठ रहा है कि कहीं क्या पूरे देश को बंद करने की बजाय संक्रमित इलाकों में बंदी करना ज्यादा कारगर नहीं होता? कहीं ऐसा तो नहीं कि संकट के पहले दौर में ही हमने सबसे ताकतवर दवा खर्च कर ली है?सबसे बड़े सवाल इस लॉक डाउन के आर्थिक नुकसान को लेकर खड़े हो रहे हैं। प्रारंभिक अनुमान के हिसाब से इस लॉक डाउन के चलते देश में एक ही झटके में 10 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हो गए हैं। देश की जीडीपी की वृद्धि शून्य या नकारात्मक होने की आशंका है। मतलब यह कि अगर 3 मई को लॉकडाउन पूरी तरह से हटा भी लिया जाए तब भी करोड़ों परिवार रातों-रात गरीबी की चपेट में आ चुके होंगे। यह मामला सिर्फ आर्थिक नहीं है। इसका मतलब होगा अचानक गरीब हो जाने वाले ये परिवार अन्य बीमारियों की चपेट में आएंगे। अब सवाल जान बनाम जहान का नहीं है। सवाल है कि लॉकडाउन से ज्यादा जानें बचेंगी या खत्म होगी? अगर सरकार आने वाले दिनों में राहत देने का और लॉकडाउन के स्वरूप को बदलने का कोई बड़ा फैसला नहीं करती, तो यह सवाल लोगों के मन से उतर कर सड़कों पर आने शुरू हो जाएंगे। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Is the burden of lockdown on the poor's back? Full Article
india news शेक्सपियर : साहित्य और सिनेमा की पाठशाला By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:29:00 GMT वि लियम शेक्सपियर का जन्म 23 अप्रैल 1564 को हुआ और मृत्यु 23 अप्रैल 1616 को हुई। 52 वर्ष की आयु में लगभग 30 नाटक और 154 कविताएं लिखने वाले विलियम के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात इंग्लैंड में प्लेग महामारी में अनेक लोग मर गए। शेक्सपियर के छोटे भाई-बहन की मृत्यु भी प्लेग महामारी से हुई। शेक्सपियर के पिता चमड़े के दस्ताने बनाने का काम करते थे और किंवदंती है कि एक दौर में शेक्सपियर ने कसाई का काम भी किया। शेक्सपियर ने नाटक ऐसे लिखे कि सभी वर्ग के दर्शक आनंद ले सकें। सादगी और सामाजिक सोद्देश्यता की आनंद देने वाली फिल्मों की परंपरा चार्ली चैप्लिन से प्रारंभ होकर राज कपूर तथा ऋषिकेश मुखर्जी को प्रभावित करते हुए अब राजकुमार हिरानी तक आ पहुंची हैं।शेक्सपियर के दौर में रंगमंच पर नारी पात्र भी पुरुष कलाकार ही अभिनीत करते थे। ज्ञातव्य है दादा साहब फालके की फिल्म में भी स्त्री पात्र पुरुषों ने अभिनीत किए और पहले ऐसे कलाकार का नाम अन्ना सालुंके था। शेक्सपियर की कविताओं में अनजान स्त्री में प्रेम और विरह के साथ ही कमसिन वय के किशोर की ओर भी संकेत है। जब शेक्सपियर मात्र 18 वर्ष के थे तब उन्होंने 26 वर्षीय एने हेथवे से विवाह किया। इस पर विवाद है कि क्या एने हेथवे वही स्त्री है, जिनसे शेक्सपियर को प्रेम था। शोध करने वालों का विचार है कि वह एक अन्य स्त्री थी। जिसका नाम एने था, परंतु सरनेम कुछ और था। स्वयं शेक्सपियर के हस्ताक्षर में उनके खुद के नाम की स्पेलिंग अलग-अलग पाई गई है। इसी कारण यह विवाद भी उठा कि शेक्सपियर के नाटक उनके किसी घोस्ट लेखक ने रचे हैं। बहरहाल, शेक्सपियर को लैटिन भाषा का ज्ञान था। उनके नाटकों के विषय लैटिन भाषा में रचे साहित्य से प्रेरित हैं, परंतु शेक्सपियर का अंदाज ए बयां ही और था। मौलिकता से अधिक महत्वपूर्ण है अंदाज ए बयां।एक बार वह थिएटर जल गया था जहां शेक्सपियर के नाटक प्रस्तुत किए जाते थे। उसका पुन: निर्माण किया गया था। हमारे फेमस स्टूडियो और आर.के.स्टूडियो जलने के बाद दोबारा नहीं बनाए गए। हम हमेशा अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति उदासीन रहे हैं। आज भी इंग्लैंड आए पर्यटक शेक्सपियर के जन्म स्थान पर जाते हैं, जिसे बड़े जतन से अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित रखा गया है।दुनिया के सभी फिल्म बनाने वाले देशों में शेक्सपियर के नाटकों से प्रेरित फिल्में बनी हैं। भारत में छत्तीसगढ़ में जन्मे किशोर साहू ने ‘हैमलेट’ बनाई थी, जिसके संवाद पद्य में रचे थे जैसे की मूल रचना में हैं। विशाल भारद्वाज ने ‘मैकबेथ’ से प्रेरित ‘मकबूल’ , हैमलेट से प्रेरित ‘हैदर’ बनाई और ‘ऑथेलो’ से प्रेरित ओमकारा बनाई। शेक्सपियर का ऑथेलो श्वेत योद्धा है जो गोरों के राज्य की रक्षा करता है परंतु जब एक गोरी कन्या अश्वेत योद्धा से प्रेम करने लगती है तब गोरे उसके खिलाफ षड्यंत्र रचने लगते हैं। विशाल भारद्वाज का ‘ओमकारा’ योद्धा नहीं है। वह तो डाके डालता है। हमारे मन में योद्धा के लिए आदर की भावना होती है। एक डाकू के लिए सहानुभूति नहीं होती। ‘ओमकारा’ में भी यही भारी त्रुटि है। संभवत: विशाल भारद्वाज राजे-रजवाड़े रचने में धन खर्च नहीं करना चाहते थे।‘मकबूल’ काबिले तारीफ फिल्म है। शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ से प्रेरित ‘दो दूनी चार’ और ‘अंगूर’ बनाई गई। फिल्म ‘आन’ ‘टेमिंग ऑफ द श्रु’ से प्रेरित। ज्ञातव्य है कि जावेद अख्तर ने भी इसी से प्रेरित फिल्म सनी देओल अभिनीत ‘बेताब’ लिखी। रांगेय राघव पहले भारतीय लेखक थे, जिन्होंने शेक्सपियर का अनुवाद किया। हरिवंशराय बच्चन ने भी अनुवाद किया है। शेक्सपियर के इतिहास प्रेरित नाटकों से प्रेरणा लेकर ही टी.एस.इलियट ने ‘मर्डर इन द कैथेड्रल’ लिखी। इसी कथा से प्रेरित ‘बैकेट’ महान फिल्म है। साहित्य में शेक्सपियर के दुखांत नाटकों को अधिक सराहा गया है, परंतु फिल्मकारों ने हास्य नाटकों से प्रेरित फिल्में अधिक संख्या में बनाई हैं। शेक्सपियर के नाटक ‘ग्लोब’ नामक थिएटर में मंचित किए जाते। इसी के डिजाइन से प्रेरणा लेकर जेनिफर शशि कपूर कैंडल ने मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की है। शेक्सपियर ने भाषा में भी नए मुहावरे गढ़े और नाटकों के संवाद आज भी दोहराए जाते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Shakespeare: School of Literature and Cinema Full Article
india news देश में किचन गार्डन का नया ट्रेंड By Published On :: Wed, 22 Apr 2020 21:30:00 GMT ज यपुर नगर निगम ने 2016 में छतों पर ग्रो बैग्स (मोटे कपड़े से बनी क्यारियां/गमले) में खेती करने को लेकर कुछ उपनियम बनाने का प्रस्ताव रखा था। हालांकि यह परियोजना शुरू नहीं हो पाई, क्योंकि घर-मालिकों के विरोध के अलावा पार्षद भी इससे सहमत नहीं हुए। अब इसे कोरोना वायरस का असर मानें या नहीं, लेकिन छत पर बगीचे (टेरेस गार्डन) का चलन न सिर्फ गुलाबी शहर में बल्कि पूरे देश में बढ़ा रहा है। इसमें मुंबई भी शामिल है, जहां फ्लैट्स के हर कमरे के बाहर छोटी क्यारियां हैं।मैंने अपनी मां से किचन गार्डन के बारे में सीखा था। चूंकि उन दिनों रेफ्रीजरेटर नहीं थे, इसलिए नागपुर की गर्मी में दूध-दही अक्सर खराब हो जाते थे। जबकि मां पानी से भरे बड़े बर्तन में उन्हें रखकर संभालने की कोशिश करती थीं। अगर दूध-दही खराब हो जाता था तो मां परेशान नहीं होती थीं। वे उनमें पानी मिलाकर टमाटर और कड़ीपत्ता के पौधों में डाल देती थीं। बहुत बाद में मुझे पता चला कि टमाटर के स्वस्थ फलों के लिए कैल्शियम जरूरी है और इसकी कमी से उनमें नीचे की तरफ कत्थई धब्बे पड़ जाते हैं।अब दो कारणों से टमाटर उगाना समझदारी का काम है। पहला, इनका कई तरह से इस्तेमाल होता है और दूसरा इन्हें उगाना आसान है। नया पौधा उगाने के लिए पके टमाटर के बीजों को सीधे मिट्टी में बो सकते हैं। हालांकि, टमाटर गर्मी झेल लेते हैं, फिर भी शुरुआत में पौधों को तेज धूप से बचाना चाहिए। गर्मी के दौरान बगीचे को बचाए रखने के लिए गमलों को पास-पास रखना चाहिए, इससे छोटे पौधे धूप में झुलसने से बचते हैं। बचपन में मैं बहुत अधीर था और पौधों की बढ़त देखने के लिए पीछे के आंगन में बार-बार जाता था। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मेरी रुचि खत्म न हो, मां ऐसी सब्जियां तलाशती थीं, जिनसे मेरे जैसे नन्हे बागबान को जल्दी संतोष मिले। वे राई, मेथी, अजवाइन, फली (जैसे मूंग), कद्दू, सूरजमुखी और यहां तक कि गेहूं (व्हीटग्रास के लिए) जैसे आसानी से उपलब्ध बीज चुनती थीं, क्योंकि इनके माइक्रोग्रीन्स (पौधे की शुरुआती कोंपलें) को जल्दी काटकर इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए बस एक कम गहरे बर्तन और मिट्टी के सामान्य मिश्रण की ही जरूरत होती है। मां काफी मात्रा में बीज छिड़कती थीं, ताकि जगह का पूरा इस्तेमाल हो सके। बीज के प्रकार के आधार पर ये आमतौर पर एक हफ्ते से 10 दिन में अंकुरित हो जाते हैं। माइक्रोग्रीन्स को तब काट सकते हैं, जब पौधे में दो-तीन पत्तियां आ जाएं।गर्मियों में मां पुदीना ज्यादा उगाती थीं, क्योंकि पुदीना के बिना गर्मी का मौसम अधूरा है। वे पुदीना के डंठलों को कभी फेंकती नहीं थीं, बल्कि रिसायकल करती थीं। वे डंठलों को पहले दो-तीन दिन के लिए पानी में डाल देती थीं। जब उनमें जड़ें निकल आती थीं तो 6-7 इंच गहरे और चौड़े बर्तन में रोप देती थीं। इसी तरह अगर आप पालक के डंठलों में जड़ें देखें तो उनकी पत्तियां काटकर जड़ें मिट्टी में लगा दें। इसमें नई पत्तियां आ जाएंगी। भिंडी, बैंगन और मिर्च जैसी सब्जियां भी टेरेस गार्डन में लगा सकते हैं।जैविक टेरेस गार्डनिंग के कई विशेषज्ञों के अनुसार बीन्स (फलियां) भी ऐसी फसल है, जिसे बिना किसी परेशानी के लगा सकते हैं। राजमा, मूंग और चावली जैसी फलियों के बीज रसोई में आसानी से मिल जाते हैं और उन्हें बेहतर अंकुरण के लिए रातभर या 24 घंटों के लिए पानी में भिगोने के बाद बोया जा सकता है। इसका फायदा यह है कि पत्तियां और फलियों की खोल, दोनों ही इस्तेमाल की जा सकती हैं। इसकी बहुत संभावनाएं हैं कि किचन या टेरेस गार्डन्स एक नीति के रूप में वापसी करें, क्योंकि ये ताजी सब्जियां देने के अलावा इनके नीचे बने कमरों को गर्मी से भी बचाते हैं।फंडा यह है कि कोरोना वायरस के बाद भी, किचन गार्डन को एक नया स्वरूप मिलेगा। इससे किचन गार्डन किट बेचने वाले भी तेजी से बढ़ेंगे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today New trend of kitchen garden in the country Full Article
india news बिना ग्लव्स, सैनिटाइजर के सफाई में जुटे वर्कर्स, जान को दांव पर लगाने की कीमत रोजाना 186 रु. By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 06:31:12 GMT लॉकडाउन के बाद से ही देश के अधिकांश लोग घरों में हैं, लेकिन 40 साल के राजेश अब भी आठ से दस घंटे घर के बाहर ही बिताते हैं। राजेश भोपाल नगर निगम के सफाईकर्मी हैं। हाथों पर बिना ग्लव्सके ये शहर की गंदगी साफ कर रहे हैं। न इनके पास हैंड सैनिटाइजर होता है और न ही साबुन। यूनिफॉर्म पहने हुए हैं, लेकिन उसकी हालत देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कई दिनों से शायद धुली भी नहीं होगी। इस काम के लिए राजेश को महीनेका 5600 रुपए यानि प्रतिदिन के करीब 186 रुपए मिलते हैं। कोरोनावायरस के फैलने के बाद से भी राजेश उसी तरह सफाई का काम कर रहे हैं, जैसे पहले करते थे। सिर्फ घरों का कचरा ही नहीं उठाते बल्कि हॉस्पिटल के बाहर पड़ा मेडिकल वेस्ट भी उठाते हैं। राजेश के साथ हमें कई ऐसे सफाईकर्मी भी मिले जिनके पास ग्लव्स और सैनिटाइजर तो छोड़िए मास्क तक नहीं था।निगम सफाईकर्मी राजेश।कई बार इन्हीं लोगों को कोरोना संक्रमित जगहों पर भी दवा के छिड़काव के लिए ले जाया जाता है। क्या दवा छिड़काव करते वक्त अतिरिक्त सावधानी बरतते हो? ये पूछने पर सफाईकर्मी सोनू बोले कि, ग्लव्स पहनते हैं और पैर में जूते भी होते हैं। जूते हमें नगर निगम से मिले हैं। जूते कभी-कभी पहनते हैं रोज नहीं पहनते। रोज क्यों नहीं पहनते? इस सवाल के जवाब में बोले, आदत नहीं है।रिपोर्ट्स के मुताबिक देश में 5 मिलियन (50 लाख) से भी ज्यादा सैनिटाइजेशन वर्कर्स हैं। यह ऐसे लोग हैं जो गंदगी के सीधे संपर्क में आते हैं। इनके पास बचाव के न ही कोई इक्विपमेंट होते हैं और न ही कोई प्रोटेक्शन। जहरीली गैसों से घिरे होते हैं। इसकारण इनमें से कई को श्वांस रोग की समस्या भी हो गई है।निगम सफाईकर्मी सोनू।साहब, हमें पहले कोरोनावायरस से डर लगता था, लेकिन अब नहीं लगता। हम तो नालों में भी कूद रहे हैं। नालियों को भी साफ कर रहे हैं। घूरे के ढेर भी उठा रहे हैं और कोरोनावायरस संक्रमित इलाकों में दवा का छिड़काव भी कर रहे हैं। ये कहते हुए राजेश हंस दिए। हालांकि राजेश के माथे पर चिंता की लकीरें भी साफ नजर आ रही थीं। कोरोनावायरस के बीच ड्यूटी भी करना है। खुद को संक्रमित होने से बचाना भी है और घरवालों को भी सुरक्षित रखना है। राजेश अन्य सफाईकर्मियों की तरह हर रोज सुबह 6 बजे से मैदान पर जुट जाते हैं। इन्हें नगर निगम ने नालों की सफाई की जिम्मेदारी दी है। नालों की सफाई करने में डर नहीं लगता? ये पूछने पर बोले, नहीं सर, मैं तो मास्क और जूते पहनकर सफाई करने के लिए नालों में उतरता हूं। अब किसी न किसी को तो ये काम करना ही पड़ेगा। हमारी ड्यूटी है इसलिए हम कर रहे हैं।पहले डर लगता था, अब नहीं लगतानिगम सफाईकर्मी अनिता।इतने में राजेश के नजदीक ही बैठीं अनिता बोलीं कि डर तो हम लोगों को भी लगता है, लेकिन जैसे पुलिस-डॉक्टर सेवा कर रहे हैं, वैसे हम भी कर रहे हैं। अनिता भी निगम की सफाई कर्मचारी हैं, जो जोन-2 में झाडृ लगाने का काम करती हैं। आपके घर में कौन-कौन है? ये पूछने पर बोलीं, मैं और मेरे पति दोनों सफाईकर्मी हैं। घर में बच्चे हैं। मैं सुबह अपने और बच्चों के लिए खाना बनाती हूं। हम हमारा खाना बांधकर ले आते हैं। बच्चे घर में ही खाते हैं। ड्यूटी से घर पहुंचने पर बच्चों से मिलने में डर लगता है? इस सवाल के जवाब में बोलीं, हां सर लगता है इसलिए घर के बाहर ही नहाते हैं। कपड़े धोते हैं। इसके बाद ही घर के अंदर जाते हैं।न साबुन, न हैंड सैनिटाइजरनिगम सफाईकर्मी कमला।सफाईकर्मी कमला कहती हैं कि, हम जिस तरह से कोरोनावायरस के पहले काम कर रहे थे, वैसे ही अब भी कर रहे हैं। पहले भी सुबह 7 से दोपहर 3 बजे तक ड्यूटी होती थी, अब भी वही टाइम है। आप दिन में कितनी बार हाथ धोती हो? ये पूछने पर कमला बोलीं कि, खाना खाने के पहले हाथ धोते हैं। बाकी टाइम तो झाडृ लगाने का काम ही चलतारहता है। क्या आपके पास हैंड सैनिटाइजर या साबुन होता है? तो बोलीं, नहीं। हम पानी से ही हाथ धो लेते हैं, फिर जब घर जाते हैं, तब साबुन से अच्छे से नहाते हैं। क्या कोरोना से डर नहीं लगता? इसके जवाब में बोलीं, शुरू-शुरू में डर तो बहुत लगा लेकिन बाद में हमें डर लगना बंद हो गया।किसी को कोरोना नहीं, इसलिए दूर नहीं रहतेसफाईकर्मी आशा।क्या आप लोग दूर-दूर नहीं रहते? इस सवाल के जवाब में सफाईकर्मी आशा बोलीं, हम में से किसी को कोरोना नहीं है। कई लोग मास्क भी लगाते हैं। मास्क किसने दिए? बोलीं, निगम से एक बार मिले थे, वही धोकर लगाते हैं कुछ लोग। आप नहीं लगातीं? बोलीं, कभी-कभी लगा लेते हैं। बोलीं, अब बीमारी को आना होगातो आ ही जाएगी क्योंकि हम लोग तो वैसे ही सफाई का काम करते हैं। झाडृ लगाते हैं तो धूल नाक-मुंह से अंदर जाती ही है।किसी से पानी भी नहीं मांग सकतेएमपी नगर जोन-1 में सड़क सेकचरा उठा रहे सफाईकर्मी अनिल शंकर और संतोष सुखचंद मिले। दोनों घूरे पर पड़ा कचरा उठा-उठाकर गाड़ी में डाल रहे थे। हमने हालचाल पूछे तो बोले, अभी तो भूखे-प्यासे ही काम करना पड़ रहा है, क्योंकि दुकानें सब बंद हैं। सुबह दो रोटी खाकर आते हैं, उससे ही शाम हो जाती है। कोरोनावायरस के कारण किसी से पानी भी नहीं मांग सकते। कई बार तो प्यास लगतीरहती है, लेकिन बहुत देर तक पानी ही नहीं पी पाते। बोले, पुलिसवालों को खाना मिलता है, लेकिन हम लोगों को नहीं मिलता।कभी-कभी मास्क बदल लेते हैं20 साल के अनिल से पूछा कि कोरोनावायरस से डर लगता है तो बोला, नहीं लगता। हम तो सफाई करते हैं। क्या मास्क बदलते हो? ये पूछने पर बोला, कभी-कभी बदल लेते हैं। एक ही मास्क है उसे धोकर पहन लेते हैं। सफाई गाड़ी के चालक सतीश यादव ने बताया कि, सफाईकर्मियों को 5600 रुपए वेतन मिलता है लेकिन बहुत लेट आता है। दस दिन हो गए अभी तक आया ही नहीं। ये सब दिहाड़ी वाले लोग हैं। एक दिन भी तनख्वाह लेट होती है तो इनका काम रुक जाता है। वेतन लेट क्यों हुआ? ये पूछने पर बोला, हमारे साहब आइसोलेशन में हैं, इसलिए शायद पैसा रुक गया। अब सब परेशान हो रहे हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Without mask, workers engaged in cleaning gloves, the cost of putting life at stake is Rs. 186 daily. 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india news सिर्फ राज्य में आवागमन से नहीं पूरी होगी मजदूरों की कमी By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:14:00 GMT केंद्रीय गृह मंत्रालय के ताजा आदेश में दो राज्यों के बीच आवागमन पर तो पाबंदी पूर्ववत जारी रहेगी, लेकिन राज्य के जिलों में मजदूरों को लाने-ले जाने के लिए परिवहन में छूट दी गई है। कोई गरीब युवा अपने घर को छोड़कर 1000 से 3000 किलोमीटर दूर अज्ञात जगह पर ठेकेदार की शोषणकारी व्यवस्था में काम करने क्यों आता है? अगर एक बच्चा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में पैदा हुआ है और दूसरा चंडीगढ़ में तो दोनों की प्रति व्यक्ति आय में पांच से सात गुना का अंतर होता है।लिहाजा, निम्न अर्थव्यवस्था वाले जन्म स्थान से वह उच्च अर्थव्यवस्था वाले राज्य में जीवन की जरूरतों के लिए भागता है। उद्योगों को जो मजदूर चाहिए, वे पंजाब या हरियाणा से नहीं बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान से ही मिलते हैं। केरल के भवन निर्माण कार्य में या पंजाब की कृषि में वहीं के लोग मजदूरी नहीं करते, लिहाजा इस आदेश का न तो कोई प्रभाव पड़ेगा और न ही उद्योगों का संकट दूर होगा। बल्कि नाराज मजदूर गांव जाने की जिद में क्वारैंटाइन से भागेगा या बेचारगी में अन्य कदम उठाएगा।आदेश अवैज्ञानिक इसलिए है कि चिकित्सा विज्ञान में यह नहीं पाया गया कि कोरोना का संक्रमण लंबे सफर में ही होता है। इस आदेश के हिसाब से नोएडा के मजदूर को तो 800 किलोमीटर दूर बलिया लाया जा सकता है, लेकिन 17 किलोमीटर दूर बिहार के छपरा के मजदूर को नहीं, क्योंकि राज्य बदल जाएगा। हरियाणा में फंसा उत्तर प्रदेश या बिहार का मजदूर 18 किलोमीटर दूर नोएडा नहीं आ सकता। उद्योगों द्वारा मजदूरों की जरूरत पूरा करने के लिए ही यह आदेश जारी हुआ है। शायद सरकार को न तो घोर संकट में फंसे इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों की वर्तमान मनोदशा का ज्ञान है और न ही उसे यह मालूम है कि इससे अन्य प्रवासी मजदूरों में जबरदस्त निराशा व्याप्त होगी। तमाम जगहों पर फंसे इन लाखों मजदूरों से अगर इस समय कोई पूछे तो इनकी एक ही इच्छा है, वापस घर जाना। प्रवासी मजदूरों से नैराश्य भाव दूर करना होगा और उसके लिए पहला काम है उन्हें सामान्य जीवन की जरूरतें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराना। ध्यान रहे कि वे भिखारी नहीं हैं। उन्हें काम चाहिए पर गरिमा के साथ। सरकार उन्हें भावनात्मक संबल भी दे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Labor shortage will not be fulfilled only by traffic in the state Full Article
india news न्यूज चैनलों के पास विश्वसनीयता को स्थापित करने का अंतिम मौका By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:16:00 GMT ‘अरे, न्यूज टेलीविजन अंतत: हिंदू-मुस्लिम मानसिकता से बाहर निकल ही गया!’ पिछले महीने लॉकडाउन की घोषणा के ठीक बाद मैंने एक साथी से हर्षित होकर कहा। क्योंकि न्यूज चैनलों में डॉक्टर्स और बायो-मेडिकल शोधार्थियों से बात करने की ऐसे होड़ लग गई थी, मानो जनस्वास्थ्य और विषाणु विज्ञान की नई दुनिया की खोज हाे गई हो। कुछ दिनों बाद ही तब्लीगी जमात की खबर ब्रेक हुई और टीवी पर वही जाने-पहचाने चेहरे और कहानियां वापस आ गईं।कोरोना जिहाद, तब्लीबिस्तान, तब्लीग-पाक साजिश जैसी तीखी और सनसनी फैलाने वाली हेडलाइनें व हैशटैग भी लौट आए। कोरोना के इस दौर में भी इस्लामोफोबिया जिंदा है। पिछले सालों में कथित राष्ट्रवादी मीडिया भारतीय मुस्लिमों को हिंसक, विश्वास न करने लायक, राष्ट्रविरोधी दिखाने में लगा है। कश्मीर में आतंकवाद से लेकर कुछ स्वघोषित मौलानाओं के फतवों तक, हर असंगत कार्रवाई से पूरे समुदाय को ही कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। कुछ टीवी चैनलों पर तो हर शाम एक ऐसा मुद्दा तलाशा जाता है, जो धार्मिक आधार पर भावनाओं का ज्वार ला सके। इस कथानक में तब्लीगी कहानी पूरी तरह से फिट बैठती है। एक छिपा हुआ मौलाना, कुर्ता-पायजामा पहने दाढ़ी वाले युवा, विदेशी संपर्क के साथ देशव्यापी नेटवर्क और कोरोना पॉजिटिव की असंगत संख्या।एक धार्मिक समूह की गंभीर गैरजिम्मेदारी के काम को एक बार फिर से इस्लाम को कानून से ऊपर कट्टरपंथी धर्म के प्रमाण के तौर पर देखा गया। इसमें न ही इस बात पर जोर दिया गया कि किस तरह से असदुद्दीन ओवैसी जैसे सांसद ने समर्थकों को नमाज के लिए जमा न होने व लॉकडाउन का पालन करने को कहा और यह भी भुला दिया कि मक्का में पवित्र काबा को श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिया गया है। अब भारतीय मुसलमान पर कोरोना कैरियर का ठप्पा लगाया जा रहा है और कुछ लोगों की एक मूर्खता की कीमत देश के 20 करोड़ मुसलमान चुका रहे हैं।टीवी और सोशल मीडिया पर नजर रखने वाले प्रो. जॉयजीत पाल की रिसर्च से पता चलता है कि किस तरह तब्लीगी जमात मामला आने के बाद मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू हो गए। राजनीतिक वर्ग ने इसका खंडन करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय सरकारी अधिकारी, न्यूज चैनल और डिजिटल योद्धा यह बताते रहे कि तब्लीगी संपर्कों की वजह से कितने लोग कोरोना पॉजिटिव आए हैं।आखिरकार अप्रैल के तीसरे हफ्ते में लिंक्डइन पर अपनी चर्चा में प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि कोविड-19 हमले से पहले न नस्ल, न धर्म और न ही जाति को देखता है। यह दखल तब हुआ जब इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी ने कोविड-19 को फैलाने के लिए मुस्लिमों को बदनाम करने के लिए भारत में चल रहे इस्लामोफोबिक अभियान की आलोचना की। अब तक प्रधानमंत्री खुद तीन बार राष्ट्र को संबोधित कर चुकें हैं, लेकिन उन्होंने इस कुटिल अभियान पर कोई टिप्पणी नहीं की।क्या प्रधानमंत्री को अपनी विशाल राजनीतिक पहुंच और दक्ष संप्रेषण कला का इस्तेमाल कोरोना को लेकर अफवाहें फैलाने वालों और धार्मिक भेदभाव करने वालों के खिलाफ कड़ाई से बोलने के लिए और पहले नहीं करना चाहिए था? दुर्भाग्य से नुकसान हो गया था। यूपी में मुस्लिम सब्जी वालों का बहिष्कार, अहमदाबाद में मुस्लिमों के लिए अलग वार्ड बनाना (हालांकि गुजरात सरकार इसका खंडन कर चुकी है) वाली बातें बेचैन करने वाली हैं। उतनी ही जितनी कि इंदौर के मुस्लिम मोहल्लों में पुलिस और डॉक्टर्स को निशाना बनाने की तस्वीरें।असल में तो कोरोना ईश्वर द्वारा दिया वह मौका था जब हम फर्जी खबरों और गलत सूचनाआें के चक्र से खुद को निकाल सकते थे। वायरस का कोई धर्म नहीं होता। यह मौत और बीमारी का वह हथियार है, जो मालाबार हिल व धारावी और बसंत विहार और निजामुद्दीन के प्रति एक जैसी नीति रखता है। भारतीय टीवी मीडिया के लिए 2010-2019 का समय खोए हुए दशक के रूप में जाना जाएगा। इस दौर में समाचार की जगह शोर और सनसनी ने ले ली। अनेक चैनलों ने तो ग्राउंड से समाचार लाने के मेहनती काम के बजाय अपना पूरा बिजनेस मॉडल ही स्टूडियाे में शोर वाली बहसोें के चारों ओर बना लिया। इससे टीआरपी तो बढ़ सकती है पर विश्वसनीयता का निरंतर नुकसान हो रहा है। युवा जनसंख्या तो पहले ही ऑनलाइन साइट्स पर चली गई है। लॉकडाउन के दौर में टीवी समाचार देखने वालों की संख्या 250 फीसदी बढ़ी है, इसलिए यह हमारे पास ध्रुवीकृत एजेंडे की बजाय तथ्य और सुविचारित विश्लेषण पेश करने वाले समाचार कर्मी के तौर खुद को स्थापित करने का अंतिम मौका है।‘टीवीमौलानाओं’ का उभरना भी रहा। इनमें एक तो कई बार एक ही दिन में तीन से चार बार टीवी पर दिखते हैं। मैंने उससे पूछा कि ‘आप टीवी पर क्यों जाते हैं, जबकि आप जानते हैं कि आप पर हमला होगा और चिल्लाया जाएगा’? वह मुस्कुराया ‘अब किसी को तो ये सब करना है!’ उसने मुझे यह नहीं बताया कि इसके लिए उसे हर बार दो हजार रुपए मिलते हैं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today News channels have the last chance to establish credibility Full Article
india news घर में बंद रहने की यादों को सहेजकर रखिएगा By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:23:00 GMT उम्मीद है कि धीरे-धीरे वह सुबह आ रही है, जब हम परिंदोंकी तरह अपने परिवार रूपी पेड़ से उड़ जाएंगे। बहुत दिन रुके हुए थे इस वृक्ष पर जिसे वंश वृक्ष कहते हैं। चाणक्य ने एक पंक्ति कही है- ‘एकवृक्षसमारूढा नाना वर्णा: विहंगमा:! प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिदेवना।।’कौवा, कबूतर, चिड़िया, तोता ये सभी विभिन्न जाति और वर्ण के पक्षी होते हुए भी रात्रि समय एक ही वृक्ष पर आकर विश्राम करते हैं, लेकिन प्रात: होते ही अपने-अपने मार्ग की ओर उड़ जाते हैं। वर्षों से, तेजी से चल रही हमारी गति को कुछ देर के लिए विराम मिला था और हमारे अटूट परिश्रम को विश्राम मिला था। इन दिनों अपने घरों में किसने क्या महसूस किया, इन सभी यादों को कहीं न कहीं समेटकर जरूर रखिएगा, बचाकर रखिएगा। ये आगे बड़ी काम आएंगी।कुछ वक्त अभी और भी बचा है, घर के कोने-कोने में भगवान को महसूस कीजिए। हिंदुओं ने तो अपने घर-परिवार को लेकर बड़े गजब के प्रयोग किए हैं। यहां तो भगवान भी घर का खंभा फाड़कर बाहर निकल आता है। नरसिंह जी का अवतार उसी का उदाहरण है। तो आपके घर के हर हिस्से में कहीं न कहीं परमात्मा बसा हुआ है। इस रज-रज और कण-कण को आभार देने के साथ ही फिर निकलिएगा बाहर की दुनिया में। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Keep the memories of being locked at home Full Article
india news आंकड़ाें को देखने की बजाय स्वस्थ रहने के बारे में भी सोचें By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:25:00 GMT हम सभी के जीवन में कोई न कोई समस्या होती है। अगर हम हमेशा यही सोचते रहेंगे कि इतनी बड़ी समस्या है, यह कभी ठीक होगी भी कि नहीं। इसका कोई समाधान है भी या नहीं। हम जितना इस प्रकार से सोचते जाएंगे, समस्या उतनी ही बढ़ती जाएगी। मैं बीमार हूं, मेरा ब्लड प्रेशर ज्यादा है, मेरा शुगर लेवल ठीक नहीं है। ऐसा हम सोचते भी जाते हैं और बोलते भी जाते हैं कि वो ठीक तो होंगे नहीं, लेकिन हो सकता है यह समस्या थोड़ी-सी और बढ़ जाएगी। क्योंकि, संकल्प से सिद्धि होती है। अगर आपके किसी रिश्ते में थोड़ी सी समस्या है तो हम वैसा ही सोचना शुरू कर देते हैं। पता नहीं क्या समस्या है, पता नहीं इनको मुझसे क्या समस्या है। मैं कितना भी कोशिश करूं ये रिश्ता तो ठीक होता ही नहीं है। पता नहीं आगे ठीक होगा भी या नहीं। ये सब हमारे विचार हैं और हम कहते हैं समस्या है तो हम इसी के बारे में सोचेंगे ना। हम ऐसा सोच-सोचकर उस रिश्ते में और टकराव पैदा कर रहे हैं। जबकि, होना तो यह चाहिए कि जो दिख रहा है, हमें वो नहीं सोचना है। हमें वो सोचना है, जो हम देखना चाहते हैं।इसे आप जीवन के किसी भी दृश्य में इस्तेमाल कर देख सकते हैं। आप खुद को कैसे देखना चाहते हैं? आप अपने परिवार को कैसा देखना चाहते हैं? आप अपने देश को और पूरे विश्व को कैसा देखना चाहते हैं? वह सोचो। एक की भी सोच उसके नियति पर परिलक्षित होती है। सारा विश्व सोचेगा तो उसकी नियति बदल जाएगी। इस समय हमारे पास शक्ति है, हम अपनी नियति, अपने परिवार की नियति, फिर सबके साथ साझा करके अनेक की नियति पर प्रभाव डाल सकते हैं।इस समय हम स्वयं को स्वस्थ देखना चाहते हैं। लेकिन, हम सोच क्या रहे हैं? हम यही तो सोच रहे हैं कि कहीं मुझे ना हो जाए। हम सोच रहे हैं, मैं ये करूं तो मुझे ना हो जाए। मैं इस चीज को हाथ लगाऊं तो मुझे ना हो जाए। हाथ नहीं लगाना है, बचना है, लेकिन हाथ नहीं लगाते समय ये नहीं सोचना है कि मुझे न हो जाए। जो एक्शन हम कर रहे हैं और जो सोच हम पैदा कर रहे हैं, ये दोनों अलग-अलग चीजें है। हाथ आज हम कोई पहली बार नहीं धो रहे हैं। हम रोज बहुत बार हाथ धोते हैं। दो-तीन बार ज्यादा धो रहे होंगे, इस समय। अब हर रोज आप हाथ क्यों धोते है? इन्फेक्शन, डर और बीमारियों से बचने के लिए धोते हैं। लेकिन, पहले जब हम रोज हाथ धोते थे तो हम यह नहीं सोचते थे कि कहीं मैं बीमार न हो जाऊं, कहीं मुझे वायरस न हो जाए, कहीं मुझसे किसी और को न हो जाए। हमें यह सोचना है कि मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं, हेल्दी हूं और अपने हाथ को धो रहा हूं।आमतौर पर हाथ धोते समय हम यह भी नहीं सोचते हैं कि मैं हाथ धो रहा हूं। वास्तव में हम कुछ और ही सोचते-सोचते हाथ धो लेते हैं। लेकिन, इस समय हम वो रिपीटेट विचार पैदा कर रहे हैं। जो हम काम कर रहे हैं और जो हम विचार पैदा कर रहे हैं, दोनों के बारे में स्पष्टता है। अब हमें पता है कि हाथ कैसे धोना है, कैसे बैठना है, अंदर गए तो सैनेटाइज करना है। कमरे से बाहर आए तो सेनेटाइज करना है। ट्रेन में बैठे तो कैसे बैठना है।इस एक महीने में हमें वो सारी जानकारियां मिल गई जो हमें चाहिए थी। अब सोचना कैसे है, बाहर शायद हमें कोई नहीं बताएगा। वो हमें खुद अपने आपके लिए करना होगा कि मुझे सोचना कैसे है। सबसे पहली चीज हम अपनी शब्दावली की जांच करते हैं। कई बार हमें अपने विचारों को बदलना उतना आसान नहीं होता है। लेकिन, अपने शब्दों को बदलना सरल होता है। हम तुरंत ही अपने अंदर बदलाव नहीं कर पाएंगे, इसलिए हम पहले बाहर बदलाव करते हैं। क्योंकि शब्दों पर अपने को याद दिलाना, एक-दूसरे को याद दिलाना आसान होता है। जैसे हम एक-दूसरे से कुछ बात करते हैं तो सामने वाला कहता है बस, हमने आपको सुन लिया, अब फुलस्टॉप लगाओ और कुछ दूसरी बात करो। जैसे कोई किसी के बारे में आलोचना कर रहा है तो कहते हैं, उसको छोड़ो ना क्यों उसके बारे में बात कर रहे हैं। कुछ दूसरी बात करो। हमें यह बात बिल्कुल नहीं करनी है कि यह इतना फैल गया है और एक महीना और फैलेगा। तीन महीने तक तो और भी फैल जाएगा। इतने लोग बीमार हो गए हैं, अभी और इतने बीमार होंगे। कुछ लोग हैं जिनका काम है यह गणना करना। जो स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हैं, सरकार के अधिकारी हैं, उनका काम है। हमारी भूमिका है वो सोचना जिससे ये आंकड़े घटें। उसके लिए हमें इनको पहले अपने मन में और बोल में कम करना पड़ेगा। तब जाकर के वो वहां कम होगा। बहुत कम लोग हैं, जिसकी भूमिका गणना करना है। बाकी दुनिया की भूमिका है, इन आंकड़ों को खत्म करना है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Think about staying healthy instead of looking at the figures Full Article
india news खामोश, अदालत जारी है, चीन कठघरे में By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:30:00 GMT जर्मनी ने चीन पर अदालत में दावा ठोंक दिया है। इंग्लैंड, फ्रांस और इटली ने जर्मनी का साथ दिया है। अरबों डॉलर का हर्जाना मांगा गया है। हम हमेशा बड़े देश से भयभीत और छोटे देश को धमकाते रहे हैं। चीन अपने बचाव में इंग्लैंड से प्रकाशित मेडिकल मैग्जीन ‘लेन्सेट’ का हवाला देगा कि चीन ने 31 दिसंबर 2019 को ही कोरोना वायरस के फैलने की चेतावनी दी थी। इस तरह कोरोना वायरस ने अब अदालतों में खलबली मचा दी है। साहित्य में जल प्रलय पर महाकाव्य रचे गए हैं। जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ ऐसी ही रचना है।दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात अदालत में हिटलर के लिए काम करने वालों पर मुकदमा चलाया गया था। सभी आरोपियों का कथन यह था कि अगरवे हुक्मरान के आदेश का पालन नहीं करते तो उन्हें देशद्रोही घोषित करके मार दिया जाता। दक्षिण अफ्रीका में छिपे नाजियों की खोज की गई और उन्हें अदालत में प्रस्तुत किया गया। इसे न्यू रैम्बल ट्रायल कहते हैं।यथार्थ का विवरण देने वाला काल्पनिक उपन्यास ‘क्यू.बी.सेवन’ अर्थात ‘क्वीन्स कोर्ट नं. बी सेवन’ है। इंग्लैंड में एक पत्रकार ने दावा किया कि लंदन में प्रैक्टिस करने वाला डॉक्टर हिटलर के आदेश पर यहूदियों की किडनी निकालता और उन्हें नपुंसक भी बनाता था। डॉक्टर ने अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर किया। ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया। नाजी डॉक्टर ने अपना हुलिया इतना बदल लिया था कि उसके पुराने फोटोग्राफ से वह बिलकुल अलग दिखता था। डॉक्टर द्वारा नपुंसक बनाए गए व्यक्ति अदालत में गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुए। वे सरेआम कैसे अपनी बीमारी स्वीकार करते? जज महोदय यह जान गए थे कि पत्रकार सच कह रहा है, परंतु ठोस प्रमाण नहीं दे पाया। जज ने यह फैसला दिया कि डॉक्टर को उसकी मानहानि के एवज में एक पेंस दिया जाए। स्पष्ट है कि यही उस डॉक्टर की औकात है। डॉक्टर मुकदमा जीतकर भी हार गया और पत्रकार हारकर भी जीत गया।गांवों में अदालत का काम पंचायत करती है। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में यह प्रस्तुत किया गया है कि पंच व्यक्तिगत मित्रता और अदावत से ऊपर उठकर फैसला देते हैं। आजादी के बाद भारत में पंचायत नामक संस्था को सक्रिय रखा और सशक्त बनाने का प्रयास नेहरू ने किया। नियमानुसार एक पंच का महिला होना आवश्यक माना गया। महाजनी संस्कृति में पाले-पोसे समाज ने महिला को पंच स्वीकार किया, परंतु सारे निर्णय उसका पति ही लेता था। पति की आज्ञा लेकर पत्नी शासन करती है। अदालत का वामन अवतार परिवार की अदालत होती है, जिसमें सदस्य को दंडित नहीं करते हुए सुधारने का प्रयास किया जाता है। यह बात हमें शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ की याद दिलाती है।फिल्मों में अदालत के दृश्य होते हैं। स्टूडियो में अदालत का स्थायी सेट लगा दिया गया है। सुभाष कपूर की ‘जॉली एलएलबी’ में जज की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने भारतीय अदालतों की न्याय प्रक्रिया पर सटीक टिप्पणी की है। उनका एक संवाद है कि आज भी कोई विवाद होता है तो व्यक्ति अदालत जाने की बात करता है। तिकड़मबाज वकीलों की बेहूदगी के बावजूद आम आदमी का न्यायालय में भरोसा टूटा नहीं है। श्री लाल शुक्ला की ‘राग दरबारी’ का एक पात्र फैसले की कॉपी बिना रिश्वत दिए लाने का प्रयास ताउम्र करता है।ख्वाजा अहमद अब्बास और राज कपूर की ‘आवारा’ में अदालत के दृश्य जबरदस्त प्रभाव पैदा करते हैं। पटकथा गोलाकार है और अदालत से प्रारंभ होकर अदालत में ही समाप्त होती है। फिल्म के अंत में जज रघुनाथ ही दोषी पाए जाते हैं कि उनकी मिथ्या धारणा कि अच्छे का बेटा अच्छा और बुरे का बेटा बुरा होता है, के कारण ही सभी पात्र कष्ट झेलते हैं। इस ब्ल्यू ब्लड धारणा के धब्बे उड़ जाते हैं।अगाथा क्रिस्टी की रचना ‘विटनेस फॉर प्रोसीक्शन’ से प्रेरित नाटक लंदन में कई वर्ष तक मंचित किया गया, कलाकार बदलते रहे। अमिताभ बच्चन और शशि कपूर अभिनीत सलीम-जावेद की फिल्म ‘ईमान धर्म’ में दोनों पेशेवर झूठे गवाह हैं। ज्ञातव्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड से वकालत की डिग्री ली, परंतु अपने जीवन में वे केवल एक बार मुकदमा लड़े। अंग्रेज हुकूमत ने लाल किले में अदालत लगाई थी। नेहरूजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के लोगों के बचाव पक्ष के वकील थे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Silence, court continues, China in the dock Full Article
india news ‘बेहद जरूरतमंद’ की मदद पर होती है अलग अनुभूति By Published On :: Thu, 23 Apr 2020 20:44:39 GMT बिहार के दरभंगा जिले में रह रहे अपने परिवार को संभालने के लिए कॉन्ट्रेक्ट पर काम करने वाला 37 वर्षीय देवेंद्र चौपाल मुंबई आया था। दो दिन पहले उसकी मां को दवाएं और रसोई का जरूरी सामान खरीदने के लिए 1000 रुपए की सख्त जरूरत थी। उनके गांव का सबसे नजदीकी बैंक 20 किमी दूर था। किसी की सलाह पर देवेंद्र ने इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक (आईपीपीबी) इस्तेमाल किया और 24 घंटे के अंदर पैसे पहुंच गए। जरा झुर्रियों वाले उस चेहरे पर खुशी की कल्पना कीजिए, जब भारत के 1,55,015 पोस्ट ऑफिसों में कार्यरत 3 लाख डाकियों और ग्रामीण ग्राम सेवकों में से किसी एक ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी होगी और यह छोटी सी रकम उनके हाथों पर रखी होगी। यह चमक दिवाली के किसी भी पटाखे से ज्यादा रोशन है।आईपीपीबी प्रवासी मजदूरों को अकाउंट खोलने और तुंरत पैसा ट्रांसफर करने में मदद करता है। यहां तक कि बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के दूरदराज इलाकों में भी। ऐसे कई सामाजिक समूह, गैर-सरकारी संगठन और राजनीतिक पार्टियां हैं, जो कोरोना महामारी की वजह से संकट में फंसे लोगों को जरूरी सामान बांट रही हैं। जिले के दूरदराज के इलाकों में अब भी ऐसे लोग फंसे हुए हैं जो खाना और उम्मीद के बिना जी रहे हैं और उन तक मदद नहीं पहुंच रही है। यही कारण है कि आईपीपीबी की 1000 रुपए पहुंचाने की छोटी सी मदद ने मेरा ध्यान खींचा, क्योंकि यह ‘बेहद जरूरतमंद’ तक पहुंची।बेलगाम का चार साल का एक बच्चा भी बेहद जरूरतमंद था। उसे खाना खाने में परेशानी होती है। इसके लिए उसका परिवार उसके लिए पुणे के एक होम्योपैथिक डॉक्टर से विशेष दवाएं खरीदता था। पुणे में उनका एक रिश्तेदार दवाएं खरीद कुरियर से भेजता था। राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया। लड़के का परिवार मदद के लिए बेलगाम के रेलवे अधिकारियों के पास पहुंचा, जिन्होंने 11 अप्रैल को पुणे के अधिकारियों से बात की। मध्य रेलवे पुणे के ऑपरेशन मैनेजर मयंक राणा और असिस्टेंट कमर्शियल मैनेजर अजय कुमार परिवार की मदद के लिए तैयार हो गए। पुणे वाले रिश्तेदार ने दवाएं बेलगाम जा रही मालगाड़ी के गार्ड सुजीत आनंद को दे दीं।सुजीत ने सातारा में ये दवाएं अपने रिलीवर दयाशंकर पटेल को दीं। फिर दयाशंकर ने एक अन्य गार्ड दिनेश कुमार को दे दीं। दिनेश ने बेलगाम के स्टेशन अधिकारियों को पैकेट सौंप दिया। इस तरह पैकेट अगले दिन बेलगाम पहुंचने से पहले तीन गार्ड्स के हाथों से गुजरा। चूंकि परिवार बेलगाम स्टेशन नहीं जा सकता था, इसलिए रेलवे प्राधिकरण ने सुनिश्चित किया कि दवाएं उनके घर तक पहुंचें।एक और मामले में पुणे के 16 आंत्रप्रेन्योर्स के एक समूह ने भी अपने कैंपेन ‘फीड द रिअल नीडी’ के जरिये दूरदराज के गावों के ‘बेहद जरूरतमंदों’ तक पहुंचना शुरू किया है। समूह लॉकडाउन के दौरान उन लोगों तक किराना और अन्य जरूरी सामान पहुंचा रहा है। इस काम के दौरान उन्हें लवासा के पास, पुणे और राजगढ़ जिले की सीमा पर स्थित धामनोहोल गांव में 13 लोगों का परिवार मिला। ये लोग जिस ठेकेदार के लिए काम कर रहे थे, वह भाग गया और तब से ये भूखे थे। इन लोगों में तीन विधवाएं, एक दिव्यांग व्यक्ति के साथ 6 बच्चे थे। लोगों को यूं ही खाना देने के बजाय समूह ने तय किया कि वे ऐसे लोगों के पास पहुंचेंगे ‘जिन्हें मदद की बहुत जरूरत’ है। शहर की बाहरी सीमाओं तक पहुंचने के लिए अनुमति लेकर समूह ने बड़े पैमाने पर यात्रा की और सुनिश्चित किया कि उन लोगों तक मदद पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।फंडा यह है कि हर कोई जरूरतमंद के लिए अपना दिल और बटुआ खोलने को तैयार है। लेकिन जब यही मदद ‘बेहद जरूरतमंद’ तक पहुंचती है तो मदद देने वाले और लेेने वाले, दोनों को ही अलग अनुभूति मिलती है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Different feeling is on the help of 'extremely needy' Full Article
india news पसीने में भीग जाती थी बॉडी; घबराहट होने लगती थी, किसी चीज को छूने में भी डर लगता था By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 02:08:18 GMT कोरोनावायरस की लड़ाई में डॉक्टर और नर्स फ्रंटलाइन सोल्जर्स हैं। आज हम अहमदाबाद, इंदौर और उज्जैन की ऐसी चार कहानियां बता रहे हैं, जिन्हें पढ़कर आपको नर्सों के समर्पण का अहसास होगा। किसी नर्स ने अपने पिता की मौतके बाद भी कोरोना ड्यूटी से मुंह नहीं मोड़ा तो किसी ने कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी का सामना करने के बावजूद कोरोना से हारनहीं मानी बल्कि उसे हराने के लिए मैदान में जुटी रहीं। ये नर्सछहसे सात घंटे तक पीपीई किट में रहती हैं। पसीना-पसीना हो जाती हैं, लेकिन अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटतीं। इनकी तरह हजारों-लाखों नर्स कोरोना को हराने में जुटी हुई हैं।1. वार्ड में न कूलर, न पंखा, पसीने से भीग जाते थे: इंदौर की लेखिका सोलंकीअपनी टीम के साथ लेखिका।मैं दोपहर दो बजे से रात आठ बजे तक कोरोना वार्ड में होती थी। कोरोना वार्ड में न ही एसी होता है न पंखा और न ही कूलर। हम पीपीई किट पहनकर ही वार्ड में जाते थे। खुद को ज्यादा सुरक्षित करने के लिए मैं यूनिफॉर्म के ऊपर ही पीपीई किट पहना करती थी। सभी नर्स ऐसा करती थीं। इससे हमारी सुरक्षा तो हो जाती थी लेकिन अंदर गर्मी के कारण बहुत घबराहट होती थी। पसीना इतना आता था कि हम पूरे भीग जाते थे। करीब 6 घंटे हम किट पहने रहते थे। यह काम हमारे लिए जितना कठिन था उतना ही जरूरी भी था। यह कहते हुए 24 साल की लेखिका सोलंकी बोलीं की, एमआरटीबी हॉस्पिटल में 1 से 5 अप्रैल के बीच मेरी ड्यूटी लगी थी। मैं दोपहर में 1 बजे घर से गरम पानी पीकर निकलती थी। ठंडा पानी पीना बंद कर दिया था, क्योंकि इससे इम्युनिटी कमजोर होने का डर था।मां घबरा न जाएं, इसलिए लेखिका ने उन्हें कोरोना वार्ड में ड्यूटी के बारे में बताया नहीं था।घर में भी आकर कूलर नहीं चलाती थी। साधारण वातावरण में ही रहती थी। यह सब खुद को ठीक रखने के लिए किया ताकि अच्छे से अपनी ड्यूटी कर सकूं। लेखिका कहती हैं कि, 21 फरवरी को मेरे पिता का देहांत हुआ है। इसके बाद से ही मैं इंदौर से धार (अमझिरा) आना-जाना कर रही थी, लेकिन कोरोना में ड्यूटी लगने के बाद मैं इंदौर से बाहर नहीं जा सकती थी। जब मुझे ड्यूटी लगने की जानकारी मिली, तब पहले डर लगा। ड्यूटी लगने के कारण नहीं बल्कि इस कारण की कहीं मुझे कुछ हो गया तो घरवालों का क्या होगा। क्योंकि घर में अब मैं ही कमाने वाली हूं। मेरी दोनों दीदी की शादी हो चुकी है। मैंने दीदी से बात की और घर में ये बात नहीं बताने का निर्णय लिया। मैंने ड्यूटी पूरी होने के बाद ही मां को बताया कि, मैंने कोरोना वार्ड में ड्यूटी की। ड्यूटी के दौरान छोटी-मोटी दिक्कतें हुईं लेकिन जो संतुष्टि मिली, वो शायद किसी और काम में नहीं मिल पाती।2.डर लगता था, पर मरीजों का हौसला बढ़ाया: उज्जैन की सुषमा शर्मामाधवनगर हॉस्पिटल उज्जैन में 18 अप्रैल तक कोरोना वार्ड में ड्यूटी निभाने वाली सुषमा शर्मा खुद कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी का शिकार हो चुकी हैं। उन्होंने कैंसर को मात दी है। वे कहती हैं कि, 'कोरोना वार्ड में ड्यूटी करते हुए मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद की इम्युनिटी को अच्छा बनाए रखने की थी, क्योंकि कीमाथैरेपी के कारण मेरी इम्युनिटी पर फर्क पड़ा है। मुझे 2007 में ब्रेस्ट कैंसर डिटेक्ट हुआ था, जिस ऑपरेट करवा लिया था। मैंने इम्युनिटी अच्छी रखने के लिए डाइट बदल दी थी। मैं हेल्दी चीजें ही खा रही हूं। ड्यूटी के दौरान घर आना-जाना लगभग बंद कर दिया था। कभी-कभी घर जरूर जाती थी।मेरी चुनौतियां अलग तरह की थी क्योंकि मैं स्टोर में थी। मरीजों की जरूरत का सामान समय पर लाना, स्टाफ की जरूरत का सामान बुलवाना इसके साथ ही जब स्टाफ कम होता तब आइसोलेशन वार्ड में काम करना होता था। वे कहती हैं कि, मैं स्वाइन फ्लू में भी काम कर चुकी हूं लेकिन इस बार जो देखा वो पिछले 18 साल के करियर में भी नहीं देखा था। सुषमा के मुताबिक, 'वार्ड में सबसे बड़ी चुनौती मरीजों का उत्साह बढ़ाने की थी। कई पेशेंट बहुत नेगेटिव हो गए थे, ऐसे में हमने खुद को नेगेटिविटी से बचाते हुए उन्हें खुश करने की कोशिश की।' कई बार उन्हें यहां-वहां के किस्से भी सुनाया करते थे। कई बार हमारे खुद के मन में डर होता था लेकिन उन्हें हम न डरने की सलाह देते हुए हौसला-अफजाई किया करते थे। वे कहती हैं मेरे परिवार में दो बहनें और भाई हैं। मैं सबसे छोटी हूं। मुझे परिवार ने कभी अपना फर्ज निभाने से रोका नहीं। सभी ने कहा कि, तुम्हारा काम है, अपना फर्ज अच्छे से निभाओ।3. धूप में किट पहनकर घर-घर तक पहुंचते हैं: अहमदाबाद की हेतल नागरफील्ड में तैनात हेतल नागर।मैं कोरोना संदिग्ध मरीजों के सैम्पल कलेक्ट करने का काम करती हूं। उनकी जांच करती हूं। तपती धूप में हम पीपीई किट पहनकर मरीजों के घर-घर जाते हैं। हर एक का सैम्पल कलेक्ट करते हैं और रिपोर्ट बनाते हैं। जब यह काम करते हैं, तब पूरी तरह से पैक होते हैं। करीब 6 से 7 घंटे तक न पानी पीते हैं, न पेशाब जाते हैं। हवा के लिए भी तरस जाते हैं। किट उतारने पर संक्रमण का डर होता है। यह कहना है हेतल नागर का। हेतल अहमदाबाद के एएमसी डेंटल कॉलेज में नौकरी करती हैं। कोरोनावायरस आने के बाद से उनकी फील्ड ड्यूटी सैम्पल कलेक्ट करने के लिए लगाई गई है।अपनी तीन साल की बेटी मिष्ठी के साथ हेतल।वे कहती हैं कि मेरे लिए सबसे कठिन अपनी तीन साल की बच्ची से दूर रहना है। मैं, मेरे पति से दूर रहती हूं। दो साल से मैं और बच्ची साथ में रहते हैं। हम दोनों एक दूसरे से पहली बार इतने दिनों तक दूर हैं। मुझे उससे बात करते हुए रोना आ जाता है। बच्ची मेरी बड़ी बहन के साथ आणंद में है और मैं अहमदाबाद में हूं। कई बार सुबह उससे बात नहीं कर पाती। शाम को वीडियो कॉलिंग करती हूं। वो तो ये जानती भी नहीं कि उसकी मां क्या काम कर रही हैं, बस उसे ये पता है कि मम्मी हॉस्पिटल गई हैं। डर लगता है कि मुझे कुछ हो गया तो बच्ची को कौन संभालेगा लेकिन फर्ज हर चीज से बढ़कर है। कितनी भी भूख, प्यास लगे लेकिन मैं बाहर किट उतारती ही नहीं। किसी चीज को हाथ नहीं लगाती। रूम पर आने के बाद ही नहाती हूं। कपड़े वॉश करती हूं। फिर कुछ लेती हूं। सैम्पल कलेक्ट करने के चलते मरीजों के काफी करीब जाना पड़ता है। उनसे बात करना पड़ती है। इन सब चीजों के बावजूद अपनी ड्यूटी निभाकर मैं खुश हूं। कम से कम किसी की मदद कर पा रही हूं।4. किसी भी चीज को छूने से भी डर लगता है: उज्जैन की रंजीता जायसवालवॉर्ड में ड्यूटी के दौरान रंजीता जायसवाल।उज्जैन के माधवनगर हॉस्पिटल के आइसोलेशन वार्ड में ड्यूटी करने वालीं रंजीता जायसवाल पिछले करीब सवा महीने से अपने बच्चों और पति से मिली ही नहीं। इनके तीन साल के दो जुड़वा बच्चे हैं और सात साल की एक बेटी है। वे कहती हैं कि, मैं पीडब्ल्युडी के गेस्ट हाऊस में रह रही हूं। बच्चों को ड्यूटी लगने के पहले ही बैतूल में बड़ी बहन के पास छोड़ दिया था। पति इंदौर में हैं। वार्ड में क्या चुनौतियां आती हैं, इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं कि, वार्ड में कई घंटों तक रुकना ही एक चुनौती है। इस दौरान संक्रमण का बहुत डर होता है।किसी भी चीज को छूने से डर लगता है। हम किट पहनकर मरीजों के पास जाते हैं। कई मरीज घबराए हुए होते हैं। कुछ रो देते हैं। ऐसे में उन्हें समझाना भी होता है। पॉजिटिविटी लाने की कोशिश करते हैं। एक महिला के तौर पर भी कई चुनौतियां होती हैं। बहुत लंबे समय तक भूखे-प्यासे रहना भी एक चुनौती है, लेकिन ड्यूटी करते-करते यह सब एक तरह से आदत में गया है। रोजाना घर जाकर खुद को साफ करना। कपड़े साफ करना। अगले दिन फिर वही लड़ाई करना, अब रूटीन हो चुका है। हॉस्पिटल में हमारा मकसद ज्यादा से ज्यादा मरीजों को ठीक करना ही होता है। हालांकि अभी मैं 14 दिनों के क्वारेंटाइन में हूं। क्वारेंटाइन पीरियड पूरा होने के बाद फिर ड्यूटी ज्वॉइन करूंगी।पति के साथ रंजना। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today India Corona Warriors; This is How Indore, Ujjain and Ahmedabad Nurses Fight Against the Novel Coronavirus Full Article
india news देश में सबसे ज्यादा और सबसे लंबे लॉकडाउन झेलने वाले कश्मीर के लोग आखिर कैसे जुटाते हैं जिंदगी की जरूरतें? By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 05:37:11 GMT आतंकवाद झेल रहे कश्मीर में पिछले 30 सालों में तीन पुश्तों के लिए लॉकडाउन कोई नया शब्द नहीं। घरों के स्टोर रूम में भरे कई क्विंटल चावल, राशन और घर के बुजुर्गों की दवाइयों के कई महीनों का स्टॉक उनके जीने के तरीके में शामिल है। फिर चाहे वह बर्फ से बंद हुए नेशनल हाईवे के चलते सामान के सप्लाय का मसला हो या फिर किसी आतंकी के एनकाउंटर के बाद पत्थरबाजी और कर्फ्यू लगा दिए जाने से पनपे हालात का। देशभर में लॉकडाउन का एक महीना 25 अप्रैल को पूरा हो रहा है। इस मौके पर पढ़ें उस कश्मीर से रिपोर्ट जिसने देश में सबसे ज्यादा और सबसे लंबा लॉकडाउन देखा है...सबसे ज्यादा लॉकडाउन देखने वाले कश्मीर आवाम ने इस बार खुद इन पाबंदियों को अपनाया है। प्रशासन ने रेडजोन इलाकों को पूरी तरह बंद कर दिया है। (फोटो क्रेडिट - आबिद बट)पूरे देश में लॉकडाउन है। लोग इससे हैरान और परेशान हैं लेकिन खुद ही अपने घरों तक सीमित हो लिए हैं। आखिर सवाल जिंदगी का है। वहीं देश का एक हिस्सा है कश्मीर जिसने सबसे ज्यादा और लंबे लॉकडाउन देखे हैं। हमेशा यहां ये पाबंदियां सुरक्षा हालात को लेकर होती थी, इस बार लोगों ने खुद इन्हें अपनाया है।सुरक्षाबलों के लिए चुनौती होता था डाउन टाउन के इलाकों में लोगों को घरों में रखना ,उस पर पत्थरबाजी की घटनाएं आम थी, इस बार ऐसा कुछ नहीं है। (फोटो क्रेडिट - आबिद बट)5 अगस्त को धारा 370 हटने के बाद कश्मीर में पाबंदियां लगा दी गई थीं। चार महीने सबकुछ बंद था। लॉकडाउन रहा नवंबर तक, जो अब तक का सबसे लंबा था। भयानक सर्दियों में थोड़ी दुकाने खुलने लगी। बर्फ और ठंड के चलते पाबंदियों में छूट भी मिली।दुकानें यहां हमेशा खुलती हैं, भले कितना सख्त कर्फ्यू रहे या बर्फ पड़े। इस बार दुकाने बंद हैं लेकिन सामान मिल रहा है और लोग बकायदा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर खरीददारी कर रहे हैं। (फोटो क्रेडिट - आबिद बट)दिसंबर से जिंदगी पटरी पर आई ही थी कि अचानक से फिर मार्च में कोरोना के चलते उसे ठहरना पड़ा। इस बार लोगों ने खुद लॉकडाउन को स्वीकार किया।मशहूर मुगल गार्डन भी लॉकडाउन के चलते बंद है। इस साल कश्मीर में टूरिज्म इंडस्ट्री को बहुत नुकसान हुआ है। अगस्त के बाद से टूरिस्ट यहां नहीं आए हैं। (फोटो क्रेडिट- आबिद बट)लेकिन स्कूल अभी भी नहीं खुले थे, क्योंकि सर्दियों की छुटि्टयां थीं। स्कूल बंद हुए 9 महीने हो गए हैं। एग्जाम भी नहीं हुई हैं।पहले सुरक्षा हालात के चलते कर्फ्यू के दौरान लोग सुबह और शाम फोर्स हटने पर दुकानें खोलते थे। इस बार कोरोना के लॉकडाउन में भी वह ऐसा करने लगे, लेकिन जब हालात बिगड़े तो दुकानें बंद रहने लगीं।कश्मीरी ताउम्र अपने बच्चों की शादी के लिए सेविंग करते हैं। कहते हैं कश्मीर घरों और शादियों पर ही खर्च करते हैं। लेकिन लॉकडाउन का असर निकाह पर भी हुआ है। (फोटो क्रेडिट- आबिद बट)कश्मीर और बाकी देश के लॉकडाउन में जो सबसे बड़ा फर्क है वह ये कि घाटी में लॉकडाउन लगते ही सबसे पहले फोन और इंटरनेट बंद हो जाता है। बाकी देश की यह बदनसीबी नहीं।(रिपोर्ट: जफर इकबाल और फोटो: आबिद बट) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today खूबसूरत डल लेक जो आतंकवादी घटनाओं के बावजूद पर्यटकों से आबाद रहता था, इस बार वह भी गुमसुम है। हाउस बोट खाली पड़े हैं और शिकारे भी बमुश्किल नजर आते हैं। (फोटो क्रेडिट- आबिद बट) Full Article
india news 2.5 लाख हेक्टेयर में आम के बाग, 40 करोड़ के आम विदेश जाते हैं, इस बार आसपास की मंडियों में भी नहीं पहुंच पा रहे By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 07:43:45 GMT मलीहाबादी... मलीहाबादी...। ये शब्द पढ़कर एक खास स्वाद आपको जरूर याद आया होगा। वह स्वाद, जिसके लिए गर्मजोशी से गर्मियों का इंतजार होता है। हर साल इन दिनों में चौक-चौराहे पर ये शब्द गूंजते रहते थे। लेकिन इसबार न ये शब्द सुनाई दे रहे हैं और न ही लोग इस आम की खास किस्म का स्वाद ले पा रहे हैं।उत्तरप्रदेश में करीब 2.5 लाख हेक्टेयर में आम के बाग हैं। लॉकडाउन के कारण इस बार ये सूने पड़े हैं। यहां मजदूर और कोरोबारीनजर नहीं आ रहे।हम मलीहाबाद में मैंगोमैन के नाम से मशहूर पद्मश्री कलीम उल्लाह खां के बाग में पहुंचे।कलीम प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ कई हस्तियों के नामों पर आम की किस्में ईजाद कर चुके हैं। वे बताते हैं किइस साल ज्यादा ठंड और फिर बारिश के कारण वैसे ही आम की पैदावार कम हुई है और जो हुई है वह भी मंडियों तक नहीं पहुंच पा रही है।मलीहाबाद के कलीम उल्लाह खां पद्मश्रीसे सम्मानित हैं। वे एक ही पेड़ पर आम की 350 किस्में उगा चुके हैं।कलीम कहते हैं कि लॉकडाउन के कारण मजदूर घर से निकल नहीं पा रहे हैं। बागों की चौकीदारी तक के लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं। पके आमजानवर खा रहे हैं। कहीं मजदूर मिल भी रहे हैं तोआम को मंडी तक ले जाने के साधन नहीं हैं। मंडी में भी खरीदार हो तो ले जाने का मतलब है। बाहर ही मांग नहीं है तो मंडी में व्यापारी आम खरीद कर क्या करेगा?ऑल इंडिया मैंगो ग्रोवर एसोसिएशन के अध्यक्ष इसराम अली कहते हैं कि यूपी से दशहरीआम समेत कईकिस्मों के आमकी सप्लाई मुंबई, पुणे जैसे बड़े शहरों की मंडियों में होती है, लेकिन इस बार ऐसा होना मुश्किल लग रहा है। अगर ऐसा ही रहा तो आम की सप्लाई 70 से 80 प्रतिशत तक कम होगी, यानी इतने प्रतिशत नुकसान होगा।यूपी के दशहरी, चौसा, लंगड़ा, फजली, मल्लिका, गुलाब खस और आम्रपाली आम की किस्में देशभर में मशहूरहैं।एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (एपीडा) के सदस्य शबीहुल खान बताते हैं कि पहले आम की फसल के लिए जनवरी से लेकर मार्च तक बुकिंग हो जाती थी, लेकिन इस बार अब तक एक भी बुकिंग नहीं है। खाड़ी देशों में लगभग 60 टन आम हर साल भेजा जाता है। हर साल बाहरी देशों में लगभग 40 करोड़ रुपए का आम निर्यात होता है, लेकिन इस बार किसानों को यह नुकसान झेलना पड़ सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Coronavirus uttar pradesh covid 19 lockdown mango business impact updates from lucknow, malihabad Full Article
india news सिक्किम में रोज 20 से 100 ट्रक चीन-तिब्बत से सामान लेकर आते थे, इसके बावजूद राज्य में एक भी कोरोना पॉजिटिव नहीं By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 10:12:06 GMT चीन के जिस वुहान शहर से कोरोनावायरस निकला, वहां से करीब ढाई हजार किमी दूर है सिक्किम की राजधानी गंगटोक। जबकि, वुहान से 12 हजार किमी से भी ज्यादा दूर है अमेरिका का न्यूयॉर्क। एक तरफ वुहान से इतनी दूर स्थित न्यूयॉर्क में कोरोना के 1.5 लाख मरीज हैं। दूसरी तरफ, इतने पास होकर भी सिक्किम में कोरोना का एक भी मरीज नहीं है। देशभर में लॉकडाउन का एक महीना 25 अप्रैल को पूरा हो रहा है। इस मौके पर पढ़ें उस सिक्किम से रिपोर्ट जिससे तीन देशों की सीमा सटी है और इसके बावजूद वहां कोरोना का एक भी मरीज नहीं है...सिक्किम भारत का ऐसा राज्य है, जहां 23 अप्रैल तक कोरोना का एक भी केस नहीं मिला है। यहां, अब तक कोरोना के 81 संदिग्ध मिले तो थे, लेकिन सभी की रिपोर्ट निगेटिव आई। 7 लाख से ज्यादा की आबादी वाले सिक्किम नेकोरोना के खिलाफ लड़ाई जनवरी में उसी समय शुरू कर दी थी, जब कोरोना ने चीन समेत बाकी देशों में पैर पसारने शुरू ही किए थे। 28 जनवरी से ही यहां की सरकार ने राज्य के दो एंट्री पॉइंट- रंगपो और मेल्ली पर स्क्रीनिंग जरूरी कर दी थी।राज्य के मुख्यमंत्री पीएस गोले कहते हैं, ‘‘सख्त निगरानी की वजह से हम कोविड-19को रोकने में सफल रहे हैं। हम देश के एकमात्र राज्य हैं, जहां अब तक कोई मामला नहीं आया। ये सब हमारे वॉरियर्स और नागरिकों के प्रयासों से हुआ है।’’हालांकि, उन्होंने ये भी कहा कि अभी भी हमें सतर्क रहने की जरूरत है।नाथुला दर्रा। यहीं से कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए जाते हैं और यहीं से चीन-तिब्बत से ट्रेड भी होता है।तीन तरफ से दूसरे देशों से घिरा हुआ है सिक्किमतीन तरफ से हिमालय से घिरे हुए सिक्किम की उत्तरी सीमा तिब्बत, पश्चिमी सीमा नेपाल और पूर्वी सीमा भूटान से लगती है। जबकि, दक्षिणी सीमा पश्चिम बंगाल से लगती है। सिक्किम नाथुला के जरिए तिब्बत-चीन से एक ट्रेडिंग पोस्ट भी साझा करता है,जहां से रोजाना 20 से 100 ट्रक सीमा पार से आते हैं। इन ट्रकों से चावल, आटा, मसाले, चाय, डेयरी प्रोडक्ट और बर्तन आते हैं।पहाड़ी इलाका होने की वजह से यहां कोई रेलवे लाइन और स्टेशन भी नहीं है। यहां का पहला पाक्योंग एयरपोर्ट सितंबर 2018 में शुरू हुआ।सख्ती के बिना भी यहां लोगों ने लॉकडाउन का अच्छे से पालन किया। राज्य में सिर्फ जरूरी सेवा देने वाले ही घरों से निकल रहे थे।कोरोना से लड़ने के लिए सिक्किम ने क्या किया?1.पर्यटकों की एंट्री रोकी : सिक्किम को अपनी जीडीपी का करीब 8% टूरिज्म से मिलता है। सिक्किम टूरिज्म डिपार्टमेंट की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, टूरिज्म सेराज्य को 2016-17 में 1.44 लाख से ज्यादा का रेवेन्यू मिला था।राज्य में सालाना 12 से 14 लाख विदेशी और घरेलू पर्टक आते हैं। इनमें से भी सबसे ज्यादा मार्च-अप्रैल में आते हैं। फिर भी यहां की सरकार ने 5 मार्च से विदेशी और 17 मार्च से घरेलू पर्यटकों की एंट्री पर रोक लगा दी थी। एक तरह से 17 मार्च से ही सिक्किम सेल्फ-क्वारैंटाइन में चला गया था। यहां घरेलू पर्यटकों के आने पर अक्टूबर तक रोक है। वहीं, विदेशी पर्यटकों की एंट्री पर भी इस साल के अंत तक रोक रहेगी। इसके साथ ही सिक्किम के नाथुल दर्रे के जरिए कैलाश मानसरोवर जाने का रास्ता भी बंद रहेगा।2.दूसरे राज्यों से लौटने वाले नागरिकों को क्वारैंटाइन किया : सिक्किम ने दूसरे राज्यों की तुलना में काफी पहले से ही संदिग्ध लोगों की निगरानी और स्क्रीनिंग शुरू कर दी थी। दूसरे राज्यों से सिक्किम लौट रहे राज्य के नागरिकों को सरकार के बनाए गए क्वारैंटाइन सेंटर में 14 दिन रखा गया। इनके अलावा, दूसरे राज्यों से लौटने वाले छात्रों को भी इन्हीं सेंटरों में 14 दिनों के लिए क्वारैंटाइन किया गया।दूसरे राज्यों में काम करने वाले और छात्र, जो सिक्किम लौटे थे, उन्हें 14 दिन क्वारैंटाइन किया गया था।3.लॉकडाउन का अच्छे से पालन किया : सिक्किम के लोगों ने सख्ती के बिना भी लॉकडाउन का अच्छे से पालन किया। यहां सिर्फ जरूरी सेवाएं ही चालू हैं। अगर लोग किराना या सब्जी खरीदने के लिए बाहर निकलते भी हैं, तो भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हैं। राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों और रोजाना कमाने वाले कामगारों के साथ-साथ जरूरतमंदों की पहचान कर उन्हें चावल, आलू, तेल और जरूरी सामान भी बांटे हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today देश में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को आया था। लेकिन, सिक्किम में 28 जनवरी से ही एंट्री पॉइंट पर स्क्रीनिंग जरूरी हो गई थी। Full Article
india news नई की बजाय मौजूदा दवाओं को ही प्राथमिकता देना बेहतर By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 18:45:00 GMT आज ऐसा महसूस होता है, जैसे कि हम एक अंतहीन अशांत महासागर में फेंके गए लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े हों। क्या विज्ञान और नवाचार एक लाइटहाउस की तरह समस्या पर रोशनी डालेंगे और कोई समाधान निकालेंगे? हम कब एक सुलभ समाधान ढूंढ पाएंगे और कब चीजें फिर से सामान्य होंगी- एक आसान दुनिया, जहां हम एकत्र होकर आनंद ले सकें, यात्रा कर सकें, धर्मस्थलों, कॉन्फ्रेंस व अपने प्रियजनों के पास जा सकें? इस सुरंग के अंत में रोशनी है। और यह शायद आ गई है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जांच कैसे करनी है, फार्मास्यूटिकल उद्योग जानता है कि कैसे मानकीकरण और निर्माण करना है।डॉक्टर जानते हैं कि कैसे सलाह देनी है, जिसे कई बार जनता हल्के में ले लेती है। पुरानी दवाओं को कोविड के इलाज व राेकथाम के लिए फिर से प्रस्तुत करने से नई वैक्सीन विकसित करने की तुलना में सस्ता व जल्द समाधान उपलब्ध हो सकता है। सार्स-सीओवी यानी नोवेल कोरोना वायरस के लिए अभी कोई प्रभावी दवा नहीं है। इसलिए मौजूदा दवाओं से ही एक प्रभावी इलाज खोजने से नई दवा के लिए लगने वाले समय और होने वाले खर्च दोनों को कम किया जा सकता है।कम्प्यूटर की मदद से किए अध्ययन किसी अन्य बीमारी के लिए मौजूदा स्वीकृत दवाओं की पहचान में सहायता कर रहे हैं, ये कोविड-19 में भी काम कर सकते हैं। कुछ उदाहरण ये हैं- एस्ट्रोजन रिसेप्टर के ओवर एक्सप्रेशन की वायरल के दोहराव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका देखी गई है। इर्बेसार्टन जैसे एंजियोटेंसिन रिसेप्टर ब्लॉकर को एफडीए ने हायपरटेंशन और डायबिटिक नेफ्रोपैथी के इलाज के लिए स्वीकृत किया है। 1950 से कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली मर्केप्टोप्यूरीन का इस्तेमाल गठिया में भी होता है। एजीथ्रोमायसिन और सिपरोफ्लेक्सिन जैसी कुछ एंटीबायोटिक कोविड-19 के इलाज के लिए पहचानी गई हैं। भारत में कई जड़ी-बूटियों के एंटीवायरल प्रभाव के भी पूरे प्रमाण हैं।दुनियाभर में फार्मास्यूटिकल कंपनियां रिप्रपोज्ड (पुन:प्रस्तावित) दवाओं का ट्रायल करने की नियामक से अनुमति के लिए आवेदन कर रही हैं। एक कंपनी ने एचआईवी में इस्तेमाल होने वाली रिटोनावीर और एएससी09 के परीक्षण की चीनी अधिकारियों से अनुमति मांगी है। एक अन्य गिलीड सांइसेज की वायरलरोधी दवा रेमडेसीवीर की कोरोना वायरस के संक्रमण के लिए जांच कर रही है। रेमडेसीवीर को मूलत: इबोला वायरस के इलाज के लिए विकसित किया गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन की जनवरी के आखिर में जारी आरएंडडी ब्लूप्रिंट रिपोर्ट में इबोला वायरस के लिए हुए ट्रायल और अन्य वजहों से कोविड-19 के इलाज के लिए रेमडेसीवीर को सबसे प्रभावी उम्मीदवार के तौर पर बताया गया है।कोविड-19 बहुत हद तक सार्स और मर्स जैसा है। यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की वायरल इकोलॉजी के प्रमुख विंसेंट मुंस्तर कहते हैं कि ‘सार्स, मर्स और कोविड-19 का जनरल जिनोमिक लेआउट, जनरल रेप्लिकेशन काइनेटिक्स और बायोलॉजी काफी एक जैसे हैं, इसलिए इस कोरोना वायरस के जेनेटिक हिस्से पर असर करने वाली दवा की जांच एक तर्कसंगत कदम होगा’। मलेरिया की दवा क्लोरोक्विन और हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन के कोविड-19 को रोकने को लेकर कम से कम 10 क्लिनिकल ट्रायल हो रहे हैं। अधिकतर दवाएं क्लिनिकल ट्रायल में कोरोना वायरस संक्रमण के जीवनचक्र के प्रमुख अंशों को बाधित करती हैं। इसमें होस्ट सेल में विषाणु के प्रवेश और उसका बढ़ना भी शामिल है।दुनियाभर में वैज्ञानिक और अभिकलन विशेषज्ञ वह हफ्तों में पूरा करने में लगे हैं, जिसे करने में सालों लगते थे। वे समझते हैं कि मौजूदा दवा का इस्तेमाल नई दवा के विकास से तेज हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी सॉलिडरिटी नाम से अपने खुद के ट्रायल शुरू कर रहा है और यह पता करने की कोशिश कर रहा है कि कौन सी पुरानी दवा इस नई बीमारी का इलाज कर सकती है। इनमें आज एचआईवी, मलेरिया, इबोला और सूजन में इस्तेमाल होने वाली दवाएं शामिल हैं। जैसा कि हार्वर्ड पब्लिक हेल्थ स्कूल के पूर्व डीन डॉ. हार्वे फाइनबर्ग कहते हैं कि ‘यह असामान्य समय है, जब दुनियाभर के वैज्ञानिक एक समस्या के समाधान के लिए काम कर रहे हैं और वे तब तक रुक नहीं सकते, जब तक कि वायरस को दुनिया से खत्म नहीं कर दिया जाता।’एक नई दवा को बाजार में आने में औसतन 10 साल का वक्त लगता है। मनुष्योंपर जिन दवाओं का परीक्षण हो चुका है, उनके बारे में यह पहले से ही पता है कि वे विषाक्त नहीं है, बस सवाल यही है कि क्या वे कोविड-19 पर काम करेंगी। अगर यह सफल रहता है तो उन्हें बड़े पैमाने पर बनाया और वितरित किया जा सकता है। भारत की ताकत उसका दवा उद्योग है, जो बहुत तेजी से निर्माण कर सकता है। एंटीवायरल प्रभाव वाले हर्बल उत्पादों का भी तेजी से मानकीकरण और ट्रायल होना चाहिए। रीप्रपोज्ड दवाओं के ट्रायल और नियामक प्रक्रिया को तेज करके सफल दवाओं का डेटाबेस बनाने की जरूरत है, ताकि इस्तेमाल के लिए उन्हें तेजी से बनाया जा सके। यह ऐसा विचार है जो एक लंबी और अंधेरी सुरंग के अंत में रोशनी हो सकता है और भविष्य के लिए उम्मीद जगाता है।(यह लेखिका के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today swati piramal column on covid 19 It is better to give priority to existing medicines instead of new ones Full Article
india news जया बच्चन अभिनीत ‘गुड्डी’ में स्टैच्यू By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 19:31:00 GMT ऋषिकेश मुखर्जी की गुलजार द्वारा लिखी हुई फिल्म ‘गुड्डी’ द्वारा जया बच्चन ने अभिनय क्षेत्र में प्रवेश किया। फिल्म की शूटिंग अमिताभ बच्चन के साथ प्रारंभ हुई थी, परंतुु उनके लोकप्रिय हो जाने के कारण बंगाल के समित भंजा को ले लिया गया, क्योंकि कथा में कमसिन पात्र के सिर से सितारों के लिए उत्पन्न जुनूून को हटाकर उसे यथार्थ से परिचित कराना था। ज्ञातव्य है कि राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत आनंद प्रदर्शित हो चुकी थी। अत: नायिका के प्रेमी की भूमिका के लिए नए व्यक्ति को लेना जरूरी था। फिल्म के महत्वपूर्ण पात्र को उत्पल दत्त ने अभिनीत किया था।फिल्म विश्वास दिलाने की कला है और दर्शक स्वयं अपनी तर्क क्षमता को स्थगित करके तमाशे में रम जाता है। रंगमंच संसार भी इसी के इर्दगिर्द घूमता है। फिल्म में प्रस्तुत किया गया है कि पात्र कभी-कभी स्टैच्यू का खेल खेलते हैं। जब जया बच्चन समझ लेती हैं कि वह समित भंजा से प्रेम करती हैं, तब उससे मिलने जाती हैं और उसे स्टैच्यू बन जाने को कहती हैं। वह उससे अपने बारे में उसकी राय जानना चाहती हैं। अत: कहती हैं कि स्टैच्यू बने हुए ही पलके झपकाकर उत्तर दे सकता है। इस तरह इस प्रेम कथा का सुखांत होता है। एक देश में धनाढ्य परिवार की महिला अपने प्रेमी को स्टैच्यू कहकर अपने कामकाज में व्यस्त हो जाती है। खड़ा-खड़ा वह व्यक्ति मिट्टी का बन जाता है। कुछ समय बाद महिला लौटकर उसे सामान्य होने को कहती है। माटी का पुतला बन गया व्यक्ति भरभराकर उसके चरणों में गिर पड़ता है।मिथ का वैज्ञानिक अध्ययन सन् 1825 में फ्रेडरिक मैक्समुलर नामक विद्वान ने प्रारंभ किया। दार्शनिक यंग ने भी इस क्षेत्र में कार्य किया। यह गौरतलब है कि वर्तमान समय में मिथ मेकर हुक्मरान हो गए हैं। इसी तथ्य पर अपना आश्चर्य शैलेंद्र यूं अभिव्यक्त करते हैं कि ‘फिर क्यों नाचे सपेरा..’। सामान्य बात यह है कि बीन बजाने पर सांप डोलता है। दरअसल सांप के कान नहीं होते, वह केवल बीन बजाने वाले की मुद्रा पर डोलता है। एक मिथ में ऐसे सर्प का बखान है जिसे नापा नहीं जा सकता। राजा राव ने ‘सर्पेंट एंड द रोप’ नामक उपन्यास लिखा था। ज्ञातव्य है कि राजा राव अधिकांश समय पेरिस में रहे और उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी रचनाओं का अनुवाद अनेक भाषाओं में किया गया।फिल्म गुड्डी के विषय में एक जानकारी यह है कि फिल्मकार एच.एस. रवैल की पत्नी विदूषी अंजना रवैल ने एक यथार्थ घटना गुलजार को सुनाई थी। गुलजार ने अपनी सृजन शक्ति से पटकथा लिखी। फिल्म की सफलता के बाद वे अंजना रवैल के घर मिठाई लेकर गए। अंजना रवैल इस बात से खफा थीं कि उन्हें कथा के मूल विचार का श्रेय नहीं दिया गया। दरअसल कहानियां छितरी पड़ी हैं, आप अपने दमखम से मनचाहा माल उठा लें। प्राय: कलाकार अपनी कृति पर हस्ताक्षर करते हैं। पहले स्टैच्यू और छुपाछई जैसे मासूम खेल बच्चे खेलते थे। वर्तमान में वे कॉमिक्स और हॉरर कथाओं में रुचि लेते हैं। वीडियो खेल में रमते हुए यथार्थ से उनका संपर्क ही कट जाता है। छुपाछई खेल में चतुर बालक आंख पर पट्टी ऐसे बांधता है कि आंख के किनारे से वह कुछ देख सके।हर नियम से बचने के रास्ते हैैं। कुछ लोग नियम तोड़ते हैं, क्योंकि नियम तोड़ने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। यह धन बचाने के लिए नहीं किया जाता। बहरहाल, कोरोना कालखंड में अजूबे घट रहे हैं। कुछ लोग मीलों का फासला तय करके अपने घर के निकट या अस्पताल के निकट जाकर मर जाते हैं। आश्चर्य है कि मीडिया यह नहीं बता रहा है कि विधायकों और सांसदों ने अपनी जेब से कोरोना कालखंड में कितना धन दिया। वे गुप्त मतदान के अभ्यस्त होते हुए दान देकर भी अपना नाम उजागर नहीं करते। अब बताइए क्या अजंता में किसी कृति के नीचे कलाकार ने हस्ताक्षर किए हैैं? पूरा देश लंबे समय से उद्योग और अर्थव्यवस्था के मामले में स्टैच्यू बना खड़ा है और 2022 की वैश्विक मंदी में माटी के पुतले की तरह भरभराकर गिर सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today parde ke piche by jai prakash chouksey Statue in 'Goody' starring Jaya Bachchan Full Article
india news अभाव का आनंद एक अभियान है By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 20:47:00 GMT शास्त्रों में परम शक्ति के लिए शब्द आया है ‘सच्चिदानंद’। इसमें तीन बातें हैं- सत्, चित्त और आनंद। सत् का अर्थ होता है अस्तित्व और सत्य दोनों। चित्त यानी भीतर का प्रकाश और आनंद का अर्थ है न दुख न सुख। हम मनुष्यों का एक स्वभाव है कि पूरी तरह सुख के पीछे दौड़ना और दुख कभी जीवन में न आए, इसके लिए सारी ऊर्जा लगा देना। लेकिन, दुनिया में ऐसा कोेई सुख बना ही नहीं जो बिना दुख के आए। कोरोना आने से पहले हम मनुष्यों की सारी घोषणाएं सुख के लिए थीं, लेकिन अब दुख क्या होता है, हर एक को समझ में आ गया। इस समय बहुत सारे अभियान चल रहे हैं कोरोना से महायुद्ध के। आप भी एक अभियान का हिस्सा बनें जो है अभाव का आनंद। अभी जो स्थितियां सामने आ रही हैं, उन्हें देखते हुए तो लंबे समय तक हमें संघर्ष करना है। न तो कोरोना अभी जाएगा, न यह संघर्ष खत्म होगा। तो क्यों न इसके साथ जीने की आदत बना लें? बार-बार डरावने संवाद सुनाई देते हैं कोरोना दोबारा आएगा, लेकिन जिन्हें अपने अलावा ऊपर वाली परम शक्ति पर भरोसा है, वे कहते हैं- वो न आए या फिर से आए, हम अपने ढंग से जीएंगे। जो सुरक्षित रहने का तरीका है और वो ही ढंग है अभाव का आनंद। इसी अभाव में लोगों ने नवरात्रि, रामनवमी, हनुमान जयंती और ईस्टर जैसे त्योहार मना हिए। अब रमजान भी यही मांग कर रहा है कि इस बार इबादत अकेले ही, क्योंकि अभाव का अपना आनंद है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Lack of joy is a mission Full Article
india news मुश्किल समय को आसानी से जीना ही जिंदगी है By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 20:50:00 GMT बच्चे क्लास रूम में हमेशा उत्साह के साथ चंचलता करते रहे हैं। आखिरकार सभी को यह शेखी बघारने का मौका नहीं मिलता कि वे एक्वारियस बेस रीफ जा चुके हैं, जो समुद्र के नीचे बनी विज्ञान और शिक्षा को समर्पित दुनिया की तीन लैबोरेटरीज में से एक है। जी नहीं, ये किसी प्राइवेट स्कूल के पिकनिक पर गए छात्र नहीं हैं, बल्कि ये बच्चे हमारे गांव में सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और उनमें से ज्यादातर कभी गांव से बाहर नहीं निकले। लेकिन वे स्कूल या गांव से बाहर निकले बिना भी दुनिया घूमने वाले वर्चुअल घुमक्कड़ हैं। इसका श्रेय उनके उत्साही शिक्षकों को जाता है, जिन्होंने तकनीक की थोड़ी मदद ली। इनमें से एक हैं तमिलनाडु के शिव कुमार और दूसरे हैं महाराष्ट्र के सोलापुर से रंजीत सिंह दिसाले।शिव कुमार दक्षिण भारत के तपते हुए खेती वाले इलाकों में पढ़ाते हैं, लेकिन जब वे चाहते हैं कि उनके छात्र दूसरी संस्कृतियों के बारे में जानें, तो वे उन्हें सीधे धरती के बेहद सर्द आखिरी छोर की शानदार जगहों तक ले जाते हैं। इसी तरह रंजीत अपने गांव के छात्रों को न सिर्फ स्थानीय टेक्सटाइल फैक्ट्री ले जाते हैं, बल्कि डायनासोर्स के बारे में सिखाने के लिए 6000 किमी दूर साइंस सेंटर की प्रदर्शनी में भी ले जाते हैं। ये शिक्षक कक्षाओं से परे जाकर बच्चों की रचनात्मकता और जिज्ञासा जगाने के लिए नए तरीके तलाशते हैं। वे वर्चुअल फील्ड ट्रिप्स (वीएफटी) के माध्यम से दुनिया को कक्षाओं तक लाते हैं, स्कायप पर अतिथि वक्ताओं से बात करते हैं, एक कक्षा को दूसरी से जोड़ते हैं और प्रोजेक्ट्स पर लाइव सहयोग करते हैं। ये दो शिक्षक पिछले चार सालों से तकनीक का बेहतरीन इस्तेमाल कर रहे हैं। मुझे ये दोनों तब याद आए, जब इस शुक्रवार मैंने राजस्थान के चुरू के युवाओं को दिए ऑनलाइन संबोधन में ऐसा होते हुए देखा। शिव छात्रों को केन्या के शरणार्थी कैंप के वर्चुअल टूर पर लेकर गए। वहां आठ-दस साल के बच्चे एकत्र हुए थे। ये छात्र यह देखकर हैरान रह गए कि वहां एक किताब से दस छात्रों को पढ़ना पड़ता है। उन्हें अहसास हुआ कि दुनिया में कई गरीब लोग हैं और इससे उन्हें चीजें आपस में साझा करने की प्रेरणा मिली।साल 2009 में रंजीत सोलापुर के पास परितेवाड़ी गांव के सरकारी स्कूल से जुड़े। ज्यादातर भारतीय स्कूलों की तरह यहां भी छात्रों की उपस्थिति कम थी, क्योंकि माता-पिता ने परिवार संभालने के लिए बच्चों को काम पर लगाने को प्राथमिकता दी। रंजीत नहीं चाहते थे कि ऐसी स्थिति बनी रहे, इसलिए उन्होंने बच्चों को घर से स्कूल लाना शुरू किया। रंजीत जानते थे कि बच्चे पूरे शैक्षणिक सत्र आते रहें, इसके लिए कक्षाएं ऐसी जगह में बदलनी होंगी, जहां बच्चे खुद रोजाना आना चाहें। उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट के एजुकेशन प्रोग्राम से संपर्क किया और दुनियाभर के शीर्ष शिक्षाविदों को अपनी चिंता बताई। फिर उन्होंने वीएफटी अपनाने का फैसला लिया जो बच्चों को बहुत पसंद आया।आज उनकी ऑनलाइन लेबोरेटरी अलग-अलग समूहों के लिए सुबह 9.30 से शाम 4 बजे तक और रात 8 से 9 बजे तक खुलती है। इनमें प्रयोगों के लिए रोजमर्रा के सामान्य उपयोगों वाली चीजें इस्तेमाल होती हैं, इसलिए छात्र खास उपकरणों के बिना ये प्रयोग घर पर भी कर सकते हैं। गरीब देशों के स्कूलों के अलावा महाराष्ट्र के जिला परिषद स्कूल रंजीत की मदद लेते हैं, जिन्हें वे छात्रों की उम्र के आधार पर कंटेंट देते हैं। उनके लिए शायद पढ़ाना सर्वश्रेष्ठ और सबसे आसान काम है। वे टूर्स आयोजित करने और रोजमर्रा के सामानों से हवा, ध्वनि, गति, रोशनी, दबाव आदि के बारे में वैज्ञानिक प्रयोग सिखाने में बहुत सहज हैं। इससे मुझे एक पुरानी पंजाबी कहावत याद आई- ‘औखे वेले नू सौखे जीना जिंदगी है’ यानी मुश्किल समय को आसानी से जीना ही जिंदगी है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Life is hard life easily Full Article
india news कोरोना संकट में भी दबंगई से बाज नहीं आ रहा है चीन By Published On :: Fri, 24 Apr 2020 20:58:04 GMT दुनिया के अधिकतर देश कोविड-19 से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए जूझ रहे हैं, लेकिन विवादित दक्षिण चीन सागर (एससीएस) में चीन की सैन्य गतिविधियां निर्बाध रूप से जारी हैं। हाल के दिनों में चीन ने समुद्री क्षेत्र में बड़ी संख्या में तैनाती करने के अलावा सैन्य अभ्यास भी किए हैं और साथ ही इस इलाके में ऊर्जा संसाधनों की खोज का आधिकारिक समारोह भी मनाया है। वियतनाम के विदेश मंत्रालय ने पिछले हफ्ते आरोप लगाया कि चीनी कोस्ट गार्ड के जहाज ने एससीएस के पारासेल द्वीप पर आठ वियतनामी मछुआरों को ला रही उसकी नौका को टक्कर मारकर डुबो दिया। उसने कहा है कि ऐसा करके चीन ने इस द्वीप पर उसकी संप्रभुता को चुनौती देने के साथ ही उसकी संपत्ति का नुकसान किया और लोगोंकी जिंदगी को खतरे में डाला। वियतनाम सरकार ने हनोई में चीनी दूतावास से इस पर विरोध भी जताया। नातुना सागर में भी चीन का मछली पकड़ने वाला जहाज और इंडोनेशिया का मछलीमार जहाज आमने-सामने आ गए थे।नातुना के निकट चीन की अवैध मछली पकड़ने की गतिविधि और यहां के जलमार्ग पर दावे के गंभीर वैश्विक परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि इसी क्षेत्र से दुनिया का एक तिहाई समुद्री व्यापार होता है। इसके अलावा सैटेलाइट चित्रों से पता चलता है कि गत 28 मार्च को पश्चिमी फिलीपींस सागर के फायरी क्रॉस रीफ पर चीन का एक सैन्य विमान भी उतरा था। इसके अलावा चीन ने इस सागर में एक रिसर्च स्टेशन भी स्थापित किया है। ऐसा लगता है कि जब चीन में कोरोना का संकट चरम पर था, उस समय भी उसने अपनी विस्तारवादी क्षेत्रीय रणनीति को धीमा नहीं होने दिया। उस समय भी एससीएस क्षेत्र में चीन के ट्रांसपोर्ट विमानों की आवाजाही संकेत देती है कि देश के स्वास्थ्य संकट से चीनी सेना शायद ही प्रभावित हुई हो।इस इलाके पर दावा जताने वाले फिलीपींस ने चीनी कोस्ट गार्ड की हरकत की आलोचना की है और विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा है कि इस तरह की घटनाएं चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के संबंधों को कमजोर करेंगी। इस बीच, अमेरिका के विदेश विभाग ने भी एक बयान जारी किया है, ‘हम चीन से आह्वान करते हैं कि वैश्विक महामारी से लड़ने में वह अंतरराष्ट्रीय प्रयासों को मदद देने पर फोकस करे और अन्य देशों की संवेदनशीलता का इस्तेमाल एससीएस पर अपने अवैध दावे के लिए न करे।’ इन हरकतों से दुनिया में चीन की छवि ही खराब नहीं हो रही है, बल्कि यह सवाल भी उठ रहे हैं कि जब एससीएस के अन्य दावेदार देश कोविड-19 से जूझ रहे हैं, ऐसे में चीन इस क्षेत्र में अपनी हठधर्मिता पर क्यों अड़ा है?कोविड-19 से निपटने के तरीके को लेकर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की विश्वसनीयता को लगी ठेस के बाद यह विस्तारवादी सैन्य नीति उसे सहारा देने के एक तरीके रूप में देखी जा रही है। वहीं सीसीपी में कई लाेग इसे अमेरिका के कोरोना से जूझने में फंसे रहने की वजह से एक अवसर के तौर पर देखते हैं। हाल के दिनों में अमेरिका और वियतनाम के संबंधों में बढ़ोतरी हुई है। वियतनाम दक्षिण चीन सागर में अमेरिका की मुक्त नौपरिवहन नीति का हिमायती है। चीन हमेशा ही इसके खिलाफ रहा है और अमेरिका ने भी इसके लिए अपनी ताकत दिखाने से परहेज नहीं किया है। देश में कोविड-19 के फैलने से पहले अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर के इस जलमार्ग में अपने गाइडेड मिसाइल की तैनाती वाले विनाशक यूएसएस मैककम्पबेल को तैनात किया था, उसके ठीक बाद चीन ने भी इस क्षेत्र में पनडुब्बी रोधी अभ्यास किया था।वियतनाम अभी आसियान का अध्यक्ष है और वह लंबे समय से आचार संहिता बनाने पर जारी वार्ता की भी अध्यक्षता कर रहा है। वियतनाम हमेशा से इस पक्ष में रहा है कि इस क्षेत्र के गैर-दावेदार और बाहरी देश चीन को विवादित सागर में अपनी हठधर्मिता छोड़ने के लिए कहने में सक्रिय भूमिका निभाएं। सभी दावेदार देशों में वियतनाम अकेला ऐसा देश है, जिसने चीन की गतिविधियों के खिलाफ हमेशा कड़ा रुख अपनाया है। फिलीपींस चीनी गतिविधियों पर कई बार रुख बदलता रहा है और इंडोनेशिया ने नातुना सागर में चीन की चुनौती को बहुत देर से पहचाना। कोविड-19 पर वियतनाम आसियान के कुछ पहले देशों में था, जिसने फरवरी के शुरू में ही चीन से आने वाली उड़ानों पर रोक लगा दी थी। चीन एससीएस विवाद में वियतनाम की रणनीति पर करीब से नजर रखता है।कोविड-19 के शुरुआती दौर में सूचनाओं को दबाने की वजह से चीन की वैश्विक छवि काे नुकसान हुआ है। अगर वह अपनी वैश्विक विश्वसनीयता को बहाल करना चाहता तो एससीएस में तनाव पैदा करना उसकी प्राथमिकता नहीं होती। इतनी बड़ी महामारी के समय चीन का उदार होना, उसके दुनिया में आरोहण के हित में होता। लेकिन ऐसी उम्मीदों को चीन ने पहले भी झुठला चुका है और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आने विस्तारवादी क्षेत्रीय एजेंडे को शायद ही छोड़े।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today China is not deterring due to bullying in Corona crisis Full Article
india news पांच महीने पहले देश को गोल्ड दिलाने वालीं खो-खो टीम की कप्तान नसरीन को बमुश्किल मिलती है दो वक्त की रोटी, उन पर नौ भाई बहनों की जिम्मेदारी By Published On :: Sat, 25 Apr 2020 04:19:34 GMT महज पांच माह पहले जिस बेटी ने देश गोल्ड मेडल जिताया था, उसकी हालत अब इतनी खराब है कि वो अपनी तय डाइट भी नहीं ले पा रही। हम बात कर रहे हैं साउथ एशियन गेम्स में भारतीय महिला खो-खो टीम का नेतृत्व करने वाली नसरीन शेख की। नसरीन की अगुवाई में ही भारत ने नेपाल को 17 -5 से मात देकर गोल्ड मेडल जीता था। पिछले करीब एक माह से चल रहे लॉकडाउन ने नसरीन के घर की हालत बेहद खराब कर दी है। उन्होंने दैनिक भास्कर से बातचीत करते हुए अपना दर्द बयां किया। उनकी कहानी, उन्हींकी जुबानी।साउथ एशियन गेम्स में नसरीन की कप्तानी में टीम ने गोल्ड मेडल जीता था।मुश्किल से हो पा रहा खाने का इंतजाम...मेरे घर में पांच बहनें और चार भाई हैं। दो बहनों की शादी हो चुकी है। हम दिल्ली के शकरपुर में रहते हैं। आम दिनों में मेरे पिता मोहम्मद गफूर बर्तन बेचने का काम किया करते थे। वो जगह-जगह जाकर बर्तन बेचते थे, जिससे हमारा घर ठीक-ठाकचल जाता था लेकिन जब से लॉकडाउन लगा है, तब से पिताजी का कामकाज पूरी तरह से बंद है। घर में उनके और मेरे अलावा कोई कमाने वाला नहीं है। हम सभी बहन-भाई अभी पढ़ रहे हैं। मैं फाइनल ईयर में हूं।मैं एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया की तरफ से खेलती हूं। उनकी खो-खो टीम की कैप्टन हूं। मेरा एएआई के साथ एक साल का अनुबंध है। यह काम मैंने अपने दम पर ही लिया है। मुझे 26 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता है, लेकिन यह वेतन हर माह नहीं मिलता बल्कि तीन-तीन माह में मिलता है। तीन माह में करीब 70 हजार रुपए मिलते हैं। हम नौ बच्चों का भरण-भोषण, पढ़ाई-लिखाई इतने कम पैसों में नहीं हो पाती।अपनी बहन के साथ नसरीन।लॉकडाउन के बाद से हालात ऐसे हैं कि, मैं अपनी डाइट तक नहीं ले पा रही क्योंकि जो पैसे मुझे मिल रहे हैं वो परिवार में ही खर्च हो जाते हैं। एक खिलाड़ी के तौर पर मुझे डाइट में दूध, अंडे, फल-फ्रूट रोजाना लेना जरूरी हैं, लेकिन अभी तक हम लोग दो वक्त के खाने का इंतजाम ही मुश्किल से कर पाते हैं। हालांकि स्थितियां ज्यादा खराब होने पर खो-खो फेडरेशन ऑफ इंडिया की तरफ से मुझे मदद मिलीहै। पिछले महीने मेरी बहन को टाइफायड हुआ था तो फेडरेशन ने ही इलाज का खर्चा उठाया था। यदि मुझे डाइट नहीं मिली तो मैं कमजोर हो जाऊंगी और भविष्य में फिर शायद टीम के लिए खेल भी न सकूं।नसरीन के माता-पिता।मैंने मुख्यमंत्री अरविंज केजरीवाल सहित तमाम बड़े लोगों को लिखा है। सीएम को ट्वीट भी किया, लेकिन मुझे कोई मदद नहीं मिली। मैं सरकारी नौकरी चाहती हूं, ताकि अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकूं। आज देश में क्रिकेटर इस महामारी में लोगों की मदद कर रहे हैं, लेकिन खो-खो प्लेयर के हाल ऐसे हैं कि हमें अपनी डाइट के लिए तक सरकार से लड़ना पड़ रहा है। ये हाल तब हैं जब मैं 40 नेशनल, 3 इंटरनेशनल खेल चुकी हैं। गोल्ड मेडल जीत चुकी हूं।रूढ़िवादी प्रथाओं को तोड़कर आगे बढ़ी हैं नसरीन नसरीन रूढ़िवादी प्रथाओं को तोड़कर आगे बढ़ी हैं। उनके रिश्तेदारों का कहना था कि लड़कियों को खो-खो नहीं खेलना चाहिए, क्योंकि इसमें छोटे कपड़े पहनना होते हैं।नसरीन ने ऐसी रूढ़िवादी प्रथाओं को नहीं माना और उनके पिता ने इसमें उनका पूरा साथ दिया। 2016 में नसरीन का चयन इंदौर में हुई चैंपियनशिप प्रतियोगिता के लिए हुआ। 2018 में लंदन में हुए खो-खो कॉम्पीटिशन के लिए चुनी गईं। 219 में देश के लिए गोल्ड मेडल जीता। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Nasreen Sheikh: Indian Women Kho Kho Team Captain Exclusive Speaks to Dainik Bhaskar; Says Her Family Is Very Huge Financial Crisis Full Article
india news भारत में लोग दो हफ्ते से लेकर एक महीने तक का राशन जमा कर रहे, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में भी लॉकडाउन के डर से ग्रॉसरी स्टोर्स खाली हो गए थे By Published On :: Sat, 25 Apr 2020 05:22:30 GMT 22 मार्च को देश में जनता कर्फ्यू था और इसी दिन के बाद से एक के बाद एक कई शहर लॉकडाउन होने लगे थे। 25 मार्च से पूरे देश को ही लॉकडाउन कर दिया गया। 22 से 25 मार्च के बीच जब यह सब हो रहा था, तब देशभर में जो एक तस्वीर हर जगह से सामने आ रही थी, वो थी रिटेल स्टोर्स पर भीड़। बिग बाजार जैसी बड़ी ग्रॉसरी शॉप हो या छोटी-छोटी किराना दुकानें हों, हर जगह लोग थैला भर-भर कर सामान ले जा रहे थे। सब्जी मंडियों में भी कुछ इसी तरह का नजारा था।लॉकडाउन को अब एक महीना पूरा हो चुका है। इसके आगे बढ़ने के भी आसार हैं और इसीलिए लोग अपनी तैयारी बेहतर कर रहे हैं। आईएएनएस-सीवोटर कोविड-19 ट्रैकर सर्वे में सामने आया है कि 43.3% लोगों ने 3 हफ्ते से ज्यादा का राशन जमा किया हुआ है। इनमें 15.8% लोगों के पास तो एक महीने से ज्यादा का राशन जमा है। यह आंकड़ें जनता कर्फ्यू लगने के ठीक एक महीने बाद (21 अप्रैल) के हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि 16 मार्च को जब राशन के स्टॉक का सर्वे हुआ था तो किसी भी शख्स ने 1 महीने से ज्यादा का राशन स्टॉक का दावा नहीं किया था।जनता कर्फ्यू के बाद देशभर में शहर लॉकडाउन होने लगे थे, लोगों ने भी लॉकडाउन होने की संभावना देखकर ग्रॉसरी स्टोर करना शुरू कर दिया था।16 मार्च के बाद ही भारत सरकार कोरोनावायरस को लेकर फूल एक्शन में आई थी। लोगों ने इसी समय से ही राशन इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। एक रिपोर्ट में सामने आया था कि मार्च के दूसरे से तीसरे हफ्ते में बिग बॉस्केट (ग्रॉसरी स्टोर) का रेवेन्यू दोगुना हो चुका था। इसी दौरान एक अन्य ऑनलाइन ग्रॉसरी स्टोर ग्रोफर्स पर आम दिनों के मुकाबले 45% ज्यादा ऑर्डर आने लगे थे। औसत ऑर्डर की कीमत में भी 18% का इजाफा हो रहा था।जनता कर्फ्यू के बाद तो लोगों ने ऑनलाइन ऑर्डर के लिए भी इंतजार नहीं किया। लोग अपने नजदीकी किराना दुकानों से खान-पान की जरूरी चीजें स्टॉक करने के लिए निकल पड़े थे। जब हर जगह यही नजारा था तो फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के चेयरमैन डीवी प्रसाद ने 25 मार्च को एक बयान में कहा कि भारत के लोगों को पैनिक बाइंग (किसी आशंका के डर से ज्यादा खरीददारी करने) की जरूरत नहीं है। देश में खाद्य सामग्रियों का पर्याप्त स्टॉक है। उन्होंने बताया था कि अप्रैल के आखिरी तक देशभर के गोदामों में 10 करोड़ टन अनाज होगा, जिससे 18 महीने तक लोगों की जरूरत पूरी की जा सकती है।लॉकडाउन के पहले फेज की सख्ती के बाद अब कई जगह राशन को घर-घर पहुंचाने की भी सर्विस चालू है। सरकार के पर्याप्त खाद्य सामग्री के आश्वासन और घर-घर राशन की डिलीवरी होने की कोशिशों का इस पर कोई असर नहीं है। जिन लोगों का राशन स्टॉक कम हो रहा है, वे मौका मिलते ही फिर से अगले 1 या 2 महीने के लिए राशन जमा कर रहेहैं।24 मार्च की रात को जब प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन का एलान किया, तो अगले ही दिन मंडियों में सब्जी लेने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। तस्वीर दिल्ली की है।आईएएनएस-सीवोटर कोविड-19 ट्रैकर के सर्वे के मुताबिक, 20.4% लोगों के पास दो हफ्ते, 5.6% लोगों के पास तीन हफ्ते, 21.9% लोगों के पास एक महीने और 15.8% के पास 1 महीने से ज्यादा का राशन जमा है। हालांकि 24.5% लोगों का कहना है कि उनके पास एक हफ्ते तक का ही राशन जमा हैं।16 मार्च को हुए इसी तरह के सर्वे में 77.1% लोगों का कहना था कि उनके पास एक हफ्ते से कम का राशन है। एक महीने बाद ऐसे लोगों में का प्रतिशत 12.3 ही रह गया है। यानी वे लोग जो घरों में 4-5 दिनों तक का ही खान-पान की चीजों का स्टॉक रखते थे, वे भी अब 2-3 हफ्तों या 1 महीने तक का राशन जमा किए हुए हैं।ब्रिटेन में पिछले साल के मुकाबले मार्च के दूसरे हफ्ते में 467 मिलियन पाउंड की ज्यादा बिक्री हुईपिछले दिनों में पैनिक बाइंग की यह स्थिति भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में हर जगह देखने को मिली है। निल्सन डेटा फर्म के मुताबिक, ब्रिटेन में 2019 के मुकाबले इस साल मार्च के दूसरे हफ्ते में ग्रॉसरी सेल्स में 22% का इजाफा हुआ है। सबसे ज्यादा इजाफा (65%) पालतू जानवरों की देखभाल करने वाली चीजों की बिक्री में हुआ। हेल्थ, ब्यूटी, बेबी केयर, टॉयलेट पेपर जैसी चीजों की बिक्री में 46% बढ़त देखी गई। फ्रोजन फूड 33% और बियर, वाइन भी 11% ज्यादा बिकी। कुल मिलाकर पिछले साल के मुकाबले इस साल मार्च के दूसरे हफ्ते में लोगों ने 467 मिलियन पाउंड ज्यादा खर्च किए।साउथ-वेस्ट लंदन के वेट्रोस सुपरमार्केट में टॉयलेट पेपर के शेल्फ पूरी तरह खाली हो गए थे। तस्वीर 11 मार्च की है।ब्रिटेन में हालत यह थी कि यहां के रिटेलर्स को ग्राहकों के नाम एक जॉइंट लेटर लिखना पड़ा। इसमें उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा था, “अगर हम सब मिलकर काम करेंगे तो आप सभी के लिए यहां पर्याप्त चीजें हैं। हम आपकी घबराहट समझ सकते हैं लेकिन जरूरत से ज्यादा चीजें स्टॉक करने का मतलब है कि कुछ लोगों को जरूरत के हिसाब से भी चीजें नहीं मिल पाएंगी।”अमेरिका में हर हफ्ते ग्राहकों का शॉपिंग पैटर्न बदलता गयामार्च के पहले हफ्ते से अमेरिका में भी लोग ग्रॉसरी स्टॉक करने लगे थे, लेकिन यहां ग्राहकों के शॉपिंग पैटर्न में हर हफ्ते दिलचस्प बदलाव दिख रहा था। मार्च के शुरुआत में लोगों ने यहां सैनिटाइटर और टॉयलेट पेपर के लिए सुपरमार्केट के शेल्फों को खगाल मारा था, महीने के आखिरी में आते-आते यहां लोगों में हेयर डाई और हेयर क्लिप जैसी चीजों की मांग बढ़ गई। खाने या जरूरत के सामान को छोड़कर लोग पजल्स, गेम्स और इंटरटेनमेंट की चीजों को ज्यादा खरीद रहे थे।लास एंजिलिस हिस्पेनिक स्पेशियलिटी सुपरमार्केट 19 मार्च को कुछ घंटों के लिए खोला गया था। थोड़ी ही देर में यहां सुपरमार्केट खाली हो गया।मार्च के पहले हफ्ते में सुपरमार्केट के शेल्फ से सेनिटाइजर, साबुन जैसी चीजें गायब हुईं। निल्सन डेटा के मुताबिक, पिछले साल के मुकाबलेइस साल सेनिटाइजर्स की बिक्री में470% का इजाफा हुआ था। दूसरे हफ्ते में टॉयलेट पेपर की डिमांड बढ़ गई। मार्च के तीसरे और चौथे हफ्ते में बेकिंग प्रोडक्ट की बिक्री ज्यादा रही। इसमें बेकिंग यीस्ट (खमीर) की बिक्री में तीसरे हफ्ते में 647% और चौथे हफ्ते में 457% की बढ़त देखी गई। पांचवे हफ्ते में हेयर क्लिप जैसी चीजों की बिक्री में 166% की बढ़ोतरी हुई।अमेरिका में 23 जनवरी को कोरोना का पहला मामला आया था और 8 मार्च को इसके मरीज 500 से ज्यादा हो गए थे। निल्सन के 19 जनवरी से 8 मार्च तक के डेटा के मुताबिक, पिछले साल की तुलना में चावल, ड्राइड बींस,ओट मिल्क, पीनट बटर और पास्ता में 20 से लेकर 50% बिक्री बढ़ गई थी।इटली में अप्रैल के पहले हफ्ते में लोगों ने घर पर शराब बनाने के लिए जरुरी चीजों को खरीदना शुरू कर दियाआईआरआई पॉइंट ऑफ सेल्स डेटा कंपनी ने अलग-अलग देशों में पैनिक बाइंग पर रिपोर्ट तैयार की। इसके मुताबिक, इटली में 30 मार्च से 5 अप्रैल तकपिछले साल के मुकाबले घर पर शराब बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला ब्रुअर्स यिस्ट की बिक्री 282% बढ़ गई। खान-पान की चीजों जैसे आटा, पेस्ट्री में 218% का इजाफा हुआ।तस्वीर मिलान के एक रिटेल स्टोर की है। मार्च के पहले हफ्ते में इस तरह की तस्वीरे पूरे इटली में दिखाई दे रहीं थीं।इटली के सुपरमार्केट, मेडिकल स्टोर और छोटी-बड़ी दुकानों में बिक्री 24 फरवरी से 1 मार्च के बीच 2019 के मुकाबले बढ़ी हुई नजर आई। नॉर्थ-वेस्ट में 9.94%, नॉर्थ-ईस्ट में 12.81%, सेंटर में 12.83%, साउथ में 15.75% सामानों की बिक्री बढ़ गई थी। (सोर्स- स्टेटिस्टा)एमरसिस एंड गुडडेटा की एक रिपोर्ट में 5 जनवरी से 29 मार्च तक के डेटा एनालिसिस में सामने आया था कि पिछले साल के मुकाबले इन दिनों में लगातार डिजिटल सेल्स में बढ़ोतरी हुई है। 22 मार्च को यह 70% ज्यादा रही थी।सबसे पहले चीन के वुहान में देखी गई थी पेनिक बाइंग, सुपरमार्केटों के शेल्फ पूरे खाली हो गए थेचीन के वुहान शहर से ही कोरोनावायरस की शुरुआत हुई थी। यहां जनवरी के आखिरी हफ्तों में सुपरमार्केट के शेल्फ पूरी तरह खाली हो गए थे। यहां 23 जनवरी से लॉकडाउन लगाया गया, इससे पहले ही ग्रॉसरी स्टोर्स में लोगों की लंबी-लंबी कतारें देखीं गईं थीं। शुरुआत में यहां हैंड सेनिटाइजर, मास्क और ग्लव्स के लिए लोगों ने ग्रॉसरी स्टोर्स को छान मारा था, बाद में खाने-पीने की जो भी चीजें इन स्टोर्स पर थीं, लोग उठाकर घर ले जाने लगे।वुहान में कोरोनावायरस फैलने के बाद हुए लॉकडाउन के कारण चीन के बाकी हिस्सों में भी लोगों ने जरूरत की चीजें इकट्ठा करना शुरू कर दी थीं। तस्वीर हांगकांग की है।कोरोना प्रभावित हर देश में ग्रॉसरी स्टॉक की होड़ मचीएशिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक जहां किसी भी देश में कोरोना के चलते लॉकडाउन की संभावना बढ़ी, वहां लोगों ने ग्रॉसरी स्टोर करना शुरू कर दिया। अप्रैल के पहले हफ्ते में फ्रांस में लोगों ने बेकिंग प्रोडक्ट, आटा, डिब्बाबंद टमाटर और मिठाईयों को स्टोर किया तो जर्मनी में सबसे ज्यादा बिक्री होम क्लिनर्स, क्लिनिंग वाइप्स और ग्लव्स जैसी चीजों की बिक्री पिछले साल के मुकाबले दो से तीन गुना बढ़ गई। ऑस्ट्रेलिया के सुपरमार्केट भी खाली हो गए।जर्मनी के एक सुपरमार्केट के शेल्फ में 9 मार्च को सिर्फ एक जर्म ऑइल की बोतल दिखाई दी। इससे तीन दिन पहले तक यह मॉल ग्रॉसरी से भरा हुआ था। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today India 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india news शरबती की पैदावार तो खूब हुई, पर लॉकडाउन के कारण यह बाकी राज्यों में नहीं जा पा रहा; किसानों को कीमत भी कम मिल रही By Published On :: Sat, 25 Apr 2020 05:43:39 GMT अपने खास स्वाद, सोने जैसी चमक और एक समान दाने के कारण पूरे देश में पहचान बनाने वाले शरबती गेहूं की इस बार सीहोर में बंपर पैदावार हुई है। पूरे मध्य प्रदेश का 50-60%शरबती गेहूं सीहोर में ही होता है। किसान खुश हैं कि इस बार गेहूं की अच्छी पैदावार हुई, लेकिन इस बात से मायूस भी हैं कि कहीं लॉकडाउन के चलते शरबती का भाव कमजोर न रह जाए। यह मायूसी इसलिए क्योंकि हर साल सीहोरी शरबती गेहूं तमिलनाडु, गुजरात, चेन्नई, मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश भेजा जाता है, लेकिन इस बार लॉकडाउन की वजह से इन राज्यों में गेहूं भेज पाना मुश्किल लग रहा है।फिलहाल यहां की मंडियों मेंगेहूं की इस खास किस्म की कीमत 3300 से 3500 रुपए प्रति क्विंटल चल रही है। आमतौर पर इसका भाव 4000 से 4500 तक होता है।सीहोर में शरबती के साथ-साथ बाकी किस्म का गेहूं भी अच्छा हुआ है। कृषि विभाग के अनुमान के मुताबिक, यहां इस बार गेहूं का कुल उत्पादन 13 लाख मीट्रिक टन पहुंच सकता है। पिछले साल जिले में 9 लाख मीट्रिक टन गेहूं की पैदावार हुई थी। इस साल यहां करीब 2 लाख 90 हजार हेक्टेयर में गेहूं बोया गया। इसमें करीब 15-20%जमीन यानी 60 हजार हेक्टेयर पर शरबती गेहूं की बुआई हुई और इसका उत्पादन1.5 लाख मीट्रिक टन रहा।सबसे महंगा बिकता है शरबतीशरबती गेहूं की खासियत यह है कि इसकी चमक के साथ ही इसके दाने एक जैसे होते हैं। गेहूं की सभी किस्मों में यह सबसे महंगा बिकता है। लोकमन, मालवा शक्ति और अन्य किस्म के गेहूं जहां 2000से 2500 रुपए प्रति क्विंटल बिकते हैं, वहीं शरबती का न्यूनतम भाव ही 2800 रुपए होता है। यह आमतौर पर 3500 से 4500 रुपए तक बिकता है। 2018 में सीहोर जिले की आष्टा कृषि उपज मंडी में शरबती गेहूं 4701 रुपए क्विंटल बिका था।क्यों खास है शरबती गेहूं?देश में गेहूं की सबसे प्रीमियम किस्म शरबती ही है। इसे 'द गोल्डन ग्रेन' भी कहा जाता है, क्योकि इसका रंग सुनहरा होता है। यह हथेली पर भारी लगता है और इसका स्वाद मीठा होता है। इसलिए इसका नाम शरबती है। गेहूं की अन्य किस्मों की तुलना में इसमें ग्लूकोज और सुक्रोज जैसे सरल शर्करा की मात्रा अधिक होती है। सीहोर में इसकी सबसे ज्यादा पैदावार होती है। सीहोर क्षेत्र में काली और जलोढ़ उपजाऊ मिट्टी है, जो शरबती गेहूं के लिए सबसे बेहतर होती है।प्रदेश में शरबती गेहूं सीहोर के साथ ही नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा, अशोकनगर, भोपाल और मालवा क्षेत्र के जिलों में बोया जाता है। प्रदेश सरकार शरबती गेहूं को ब्रांडनेम यानी भौगोलिक संकेतक (जीआई) दिलाने का प्रयास कर रही है। ब्रांडनेम मिलते ही प्रदेश के शरबती गेहूं के नाम से कोई कंपनी या संस्था अपना नाम नहीं दे पाएगी।बारिश अच्छी हुई तो लोगों ने 60 हजार हेक्टेयर में शरबती गेहूं की बुआईकीकृषि उपसंचालक एसएस राजपूत के मुताबिक, जिले में रबी सीजन में करीब 3 लाख 50 हजार हेक्टेयर में खेती होती थी, लेकिन अच्छी बारिश के कारण इस बार 3 लाख 90 हजार हेक्टेयर में बोवनी की गई। इसमें गेहूं की खेती 3 लाख हेक्टेयर के आसपास रही, इसमें शरबती का हिस्सा 60 हजार हेक्टेयर रहा। पानी भरपूर मिलने से शरबती की चमक भी बढ़ी है। शरबती की पैदावार गेहूं की अन्य किस्मों के मुकाबले कम होती है, इसलिए लोग कम जमीन पर शरबती की बोवनी करते हैं, लेकिन अच्छी बारिश और सिंचाई की सुविधा के कारण जहां चने की बोवनी की जाती थी, वहां भी शरबती बोया गया था।शरबती की बेस्टकिस्म हैसी- 306शरबती गेहूं में सी-306 किस्म बेस्ट मानी जाती है। इसकी क्रॉस वैरायटी भी बाजार में उपलब्ध है। इसका एक-एक दाना एक समान और सोने जैसा चमकता है। इस बार कठिया गेहूं की एकदम नई वैरायटी 'दूरम' को लेकर भी यहां किसान काफी उत्साहित हैं। इस गेहूं का उत्पादन 60 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दर्ज किया गया है।सीहोर का शरबती गेहूंसात राज्यों में जाता हैतमिलनाडु, गुजरात, चेन्नई, मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश से कई कंपनियां सीजन के समय सीहोर में आकर खुद शरबती गेहूं की खरीदी करती हैं, इस साल लॉकडाउन के कारण यह व्यापारियों के जरिए शरबती की खरीदी कर रही हैं। आईटीसी ने सोया चौपाल सेंटर पर शरबती गेहूं खरीदने के लिए काउंटर बनाया है। कई किसान मंडी से अधिक कीमत पर यहां अपना गेहूं बेच रहे हैं। इस बार गेहूं खरीदी के लिए प्रशासन ने 164 केंद्र बनाए हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today मध्य प्रदेश सरकार शरबती गेहूं पर अपना जीआई टैग हासिल करने की कोशिश कर रही है। यह मिलते ही शरबती गेहूं पर तमाम कानूनी अधिकार राज्य सरकार के पास आ जाएंगे। Full Article
india news कोरोना के बाद संवाद का ‘रंग और स्वाद’ बदल जाएगा By Published On :: Sat, 25 Apr 2020 22:20:00 GMT अब ग्राहकों को बुलाना न सिर्फ शहरी बिजनेस समुदाय के लिए मुश्किल होगा, बल्कि उन ग्रामीणों के लिए भी, जो कुछ बेचना चाहते हैं। इसलिए अब शहरी और ग्रामीण, दोनों ही ज्यादा जानकारियों के साथ आपसे जरूरत से ज्यादा संवाद करने वाले हैं। क्या आप सोच रहे हैं कि वे ऐसा कैसे करेंगे? यहां कुछ संभावित तरीके दिए जा रहे हैं।शहरी संवाद: कल्पना कीजिए कि आप शहर की सबसे व्यस्त रोड से गुजर रहे हैं, जहां कई रेस्त्रां हैं। जब आप ट्रैफिक पर ध्यान दे रहे हैं, कार में मौजूद बाकी सदस्य होटलों के नियोन लाइट वाले बोर्ड नहीं देख रहे हैं बल्कि कर्मचारियों के तापमान का चार्ट उन बोर्ड्स पर नजर आ रहा है। उनपर लिखा है: शेफ के शरीर का तापमान 97.3 डिग्री फैरनहाइट, टेबल नंबर 1 से 3 तक के वेटर का तापमान 97.5 डिग्री आदि। फिर आप फैसला लेते हैं कि आपके लिए कौन-सा रेस्त्रां सही है। इसे कोरी कल्पना समझकर नकार मत दीजिएगा। ‘एशिया किचन’ और ‘ओह! कैलकटा’ जैसे रेस्त्रां की कंपनी स्पेशियालिटी रेस्टोरेंट्स लिमिटेड ऐसी जानकारियां होम डिलीवरी वाले फूड पैकेट्स पर देने लगी है। इनपर डिलीवरी बॉय का तापमान तक शामिल है।कॉन्टेक्टलेस मैन्यू, ऑर्डरिंग और बिलिंग अब बने रहेंगे। कई मालिकों को लगता है कि रेस्त्रां अब कोरोना से पहले और कोरोना के बाद के समय के आधार पर नए प्रारूप तैयार करेंगे। फिजिकल मैन्यू नहीं दिए जाएंगे क्योंकि खाना घर से एप पर ऑर्डर किया जाएगा। रेस्त्रां पहुंचने पर गाड़ी खुद पार्क करनी होगी। वैले सर्विस नहीं मिलेगी क्योंकि चाबियों के आदान-प्रदान पर रोक होगी। बिल की कॉपी नहीं मिलेगी बल्कि बिल सीधे मोबाइल पर आएगा और सीधे उसी से पेमेंट हो जाएगा। टेबल पर बैठने से पहले संभावना है कि आपका खाना तैयार हो और आप खुद ही परोसें ताकि रेस्त्रां के स्टाफ से संपर्क की जरूरत न हो।ग्रामीण संवाद: कई शहरी लोगों और फ्लाइट से सफर करने वालों ने शहर के व्यस्त इलाकों या एयरपोर्ट पर ‘वांगो’ नाम का एक दक्षिण भारतीय रेस्त्रां देखा होगा। वांगो का मतलब है ‘स्वागत है’। शायद इसी नाम से प्रेरित होकर पांच किसान यूट्यूब पर अपने नए कुकिंग चैनल पर तमिल में एक स्वर में कहते हैं ‘एलोरुम वांगो’, जिसका मतलब है ‘सबका स्वागत है।’लॉकडाउन और कोविड-19 के हमले से पहले ही धान की खेती करने वाले ये पांच किसान और बेहतरीन कुक तमिलनाडु के पुडूक्कोटई जिले के चिन्ना वीरामंगलम गांव को अंतरराष्ट्रीय दर्शकों का प्यार दिला चुके थे। उन्होंने ऐसा पारंपरिक बर्तनों में आधुनिक रसोई उपकरणों के बिना, पारंपरिक तरीकों से व्यंजन बनाकर किया।अंग्रेजी सब्टाइटल्स के साथ उपलब्ध इस तमिल यूट्यूब चैनल का नाम ‘विलेज कुकिंग चैनल’ (वीसीसी) है। इसमें हर व्यंजन के लिए 10 मिनट का शो होता है। अपने दादाजी और पूर्व कैटरर एम पेरियाथंबी के मार्गदर्शन में चचेरे भाई वी सुब्रमण्यम, वी मुरुगेसन, वी अय्यनार, जी तमिलसेलवन और टी मुथुमनिकम फिलहाल वीडियो न बनाकर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं। लेकिन जब लॉकडाउन खुल जाएगा तो पांचों शादियों के लिए खाना बनाना शुरू करेंगे! उनके तीस लाख सब्सक्राइबर हैं और उनके द्वारा बनाए गए कुछ व्यंजनों के वीडियोज पर 2.1 करोड़ व्यूज तक हैं।लॉकडाउन से पहले वीसीसी हर हफ्ते तीन-चार वीडियो पोस्ट करता था, जिनमें ज्यादातर मांसाहारी व्यंजन होते थे। टीम हर महीने यूट्यूब से विज्ञापन रेवेन्यू के जरिए 7 लाख रुपए कमाती है। इसमें से वे 2-3 लाख रुपए शो पर खर्च करते हैं। बाकी पैैसा टीम के सदस्यों में बंटता है। चूंकि वे अपने खेतों से भी कमाते हैं, इसलिए कोई स्पॉन्सरशिप या दान नहीं लेते। लेकिन अभी आप उन्हें अपने परिवार में शादी समारोह के लिए बुलाने का सोचिएगा भी मत। कम से कम अभी तो उन्होंने कोई भी ऑफ-कैमरा कुकिंग असाइंनमेंट लेने से इनकार कर दिया है।फंडा यह है कि लॉकडाउन के बाद संवाद की नई दुनिया के लिए तैयार हो जाइए। तब तक अगर आप फूड बिजनेस में हैं तो ऐसी जानकारियों की सूची बना लीजिए जो साझा करने के लिए तैयार हैं क्योंकि संवाद का ‘रंग और स्वाद’ अब बदलने वाला है।मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000071 पर मिस्ड कॉल करें। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today The 'color and taste' of the dialogue will change after Corona Full Article
india news लॉकडाउन के चलते लीची खरीदने नहीं आ रहे व्यापारी, 500 करोड़ रुपए के नुकसान की आशंका By Published On :: Sun, 26 Apr 2020 10:35:04 GMT लॉकडाउन ने बिहार के लीची किसानों की चिंता बढ़ा दी है। यहां पेड़ों पर लीची तो खूब लगी है, लेकिन इनके खरीदार गायब हैं। बिहार में व्यापारी हर साल मार्च के आखिरी हफ्ते या अप्रैल के शुरुआत में लीची खरीदने के लिए इनके बागों में घूमना शुरू कर देते हैं। वे लीची के पेड़ों पर लगे मंजर को देखकर दाम तय करते हैं। लेकिन लॉकडाउन की वजह से व्यापारी इस बार लीची नहीं खरीद रहे हैं।लीची की खेती ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, केरल, बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक और उत्तराखंड में होती है। देश में कुल 56 हजार हेक्टेयर जमीन पर इसकी खेती होती है। इसमें बिहार का हिस्सा 36 हजार हेक्टेयर है। यहां सबसे ज्यादा लीची मुजफ्फरपुर में ही होती है।जिन किसानों का व्यापारियों से करार खत्म, उन्हें सबसे ज्यादा परेशानीलीची किसान राहुल कुमार बताते हैं कि जिले के किसान व्यापारियों से पांच साल या दस साल का अनुबंध कर लेते हैं। वे पांच साल का पूरा पैसा ले लेते हैं। उन्हें तो लॉकडाउन से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन, कई ऐसे किसान हैं जो एक या दो साल के लिए ही अनुबंध करते हैं। कई ऐसे भी किसान हैं, जिनका पांच साल या दस साल का अनुबंध पूरा हो गया है। इन किसानों को इस बार बड़ा नुकसान हो रहा है।बिहार में लीची का कारोबार एक हजार करोड़ का, इसमें मुजफ्फरपुर का हिस्सा 700 करोड़ हैलीची का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार करने वाले केएन ठाकुर बताते हैं कि हर साल लीची से करीब 700 करोड़ का कारोबार सिर्फ मुजफ्फरपुर में होता है। बिहार के दूसरे जिले को भी मिला दिया जाए तो आंकड़ा एक हजार करोड़ पार कर जाता है। मुजफ्फरपुर की शाही लीची इतनी फेमस है कि बेगूसराय, समस्तीपुर, मोतिहारी और वैशाली के किसान भी मुजफ्फरपुर के लीची के नाम से अपना माल बेचते हैं और उन्हें इससे अच्छी आमदनी भी हो जाती है।मुजफ्फरपुर में हर साल 8 हजार एकड़ में लीची की खेती होती है। इस बार भी बागान लीची से भरे हुए हैं, लेकिन इन्हें खरीदने वाला कोई नहीं है।शुगर फैक्ट्रियां बंद हुईं तो किसानों ने लीची की खेती पर ध्यान देना शुरू कियामुजफ्फरपुर के सबसे बड़े लीची किसान भोलेनाथ झा बताते हैं कि 70 और 80 के दशक में शुगर फैक्ट्रियां बंद हो रही थी। जब गन्ना कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ तब किसानों ने लीची की खेती पर ध्यान दिया। 90 के दशक से ही मुजफ्फरपुर का शाही लीची पूरी दुनिया में जाने लगा। मुजफ्फरपुर से सैकड़ों टन लीची यूरोप और अरब देशों में भेजी जाती है।किसानों की तरह ही लीची व्यापारियों को भी बड़ा नुकसाननेट ग्रीन प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के एमडी अनुज कुमार बताते हैं कि हम लोग हर साल मार्च के महीने में ही किसानों से रेट तय करके एडवांस दे देते हैं। अप्रैल के पहले या दूसरे सप्ताह तक हमारे पास देशभर से लीची की डिमांड का डेटा आ जाता है लेकिन, अभी तक हमारे पास कहीं से ऑर्डर नहीं आया है। हालांकि, हमारी टीम लीची के पैकेजिंग के लिए कार्टून बॉक्स तैयार कर रही है।बिग बाजार, रिलायंस जैसी कंपनी के साथ हमारा टाईअप है। हम मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद, पंजाब, चंडीगढ़ और चेन्नई में लीची भेजते हैं। अनुज ने बताया कि लीची का कारोबार करीब एक महीने तक चलता है। हमारी कंपनी हर दिन 25-30 लाख रुपए की बिक्री करती है। हम विदेशों में भी माल भेजते हैं लेकिन इस बार यह भी मुश्किल लग रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Traders not buying litchi due to lockdown, possibility of loss of 500 crores Full Article
india news 2004 की एक गलती ने 2013 में दस हजार लोगों की जान ली, पर सजा आज तक किसी को नहीं मिली By Published On :: Sun, 26 Apr 2020 11:10:29 GMT 16 साल पहले इन्होंने केदारनाथ से पहली रिपोर्ट की थीअगले हफ्ते केदारनाथ के कपाट खुलेंगे। कहते हैं करीब हजार साल पुराना है यह मंदिर। आदि शंकराचार्य ने बनवाया था। यह मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के इस शहर कीऐसी पहचान है कि उसी के नाम से जाना भी जाता है।सात साल पहले यानी 2013 में इस शहर ने सबसे बड़ी त्रासदी झेली थी। तब दस हजार लोगों की मौत हो गई थी। और कितने अब भी गायब बताए जाते हैं। दैनिक भास्कर के एडिटर लक्ष्मी पंत ने उस त्रासदी को कवर किया था। पर ऐसा होने वाला है, इसकी आशंका उन्होंने 2004 में अपनी एक रिपोर्ट में जता दी थी। 16 साल पुरानी उस पहली खबर से लेकर त्रासदी तक की कहानी उन्होंने ही बांची हैं...तो पढ़ें इसे...वह 15-16 जुलाई 2004 का खूबसूरत दिन था। सूरज घर के बरामदे में अच्छा लगने लगा था। काले और नमी से भरे बादल लंबी और सूखी गर्मी के खत्म होने का इशारा कर रहे थे। आप कह सकते हैं कि मानसून हिमालय में पहुंच गया था और अब पहाड़ की खूबसूरत तस्वीर एक स्वप्न की मानिंद हमारे सामने आने ही वाली थी। देहरादून घाटी में पहाड़ की कठिनाई और ऊंचाई तो नहीं है लेकिन उसकी आब-ओ-हवा बदस्तूर महसूस कर सकते हैं। दूसरे लफ्जों में शहर का शहर और पहाड़ का पहाड़।किसी से सुना है कि जिंदगी लकीरों और तकदीरों का खेल है। मेरे कलम की लकीरें, पहाड़ की पथरीली पगडंडियों से यूं ही नहीं जुड़ जातीं। पहाड़ और इससे मेरा कभी न खत्म होने वाला आकर्षण कोई इत्तेफाक नहीं है। बस यूं कहिए कि एक-एक वाकया और बात चुन-चुनकर लिखी और रखी गई है।पत्रकार के तौर पर चाहे वो देहरादून में रहते हुए एन्वायरमेंट और वैदर रिपोर्टिंगकरना हो या इसी जिम्मेदारी के रहते कपां देने वाली केदारनाथ त्रासदी की वैज्ञानिक भविष्यवाणी इसके घटने से दस साल पहले कर देना हो। आपको याद दिलाना जरूरी है कि केदारनाथ त्रासदी जून 2013 में हुई। इस हादसा में दस हजार से ज्यादा लोग मारे गए। कितने लापता हैं यह आज तक राज ही है।लेकिन एक दूसरा सच यह है कि तमाम रिसर्च और सूबतों के आधार पर मैंने 2004 में अपनी एक रिपोर्ट में इसकी भविष्यवाणी 2004 में ही कर दी थी। पत्रकार के तौर पर यह एक सनसनीखेज खुलासा था। लेकिन सरकारी व्यवस्था केदारनाथ मंदिर और अपने कामकाजी सम्मोहन में इस कदर लिप्त थी उसे मेरे सारे दस्तावेजी सच पूरी तरह झूठे ही लगे।और पूरी जिम्मेदारी से यह भी कह रहा हूं कि आप जिस वक्त या जिस भी कालखंड में केदारनाथ त्रासदी की इस कहानी से गुजरेंगे इसे पढ़ते वक्त त्रासदी की कराहऔर कराहकर रोते लाखों श्रद्धालुओं की चीखें आपको जरूर सुनाई देंगी।यह कहानी कुछ पुरानी जरूर है लेकिन आज भी बिलकुल ताजा। इसके एक-एक पात्र किसी दुराग्रह से नहीं गढ़े गए हैं। सभी सच के साक्षी हैं। कहानी का अनदेखा-अनजाना यह घटनाक्रम कुछ तरह है। हुआ यूं कि मैं उन दिनों दैनिक जागरण के देहरादून संस्करण में विशेष संवाददाता हुआ करता था। हिमालय और उसके ग्लेशियर मेरी जिंदगी का हिस्सा तो थे ही, अब रिपोर्टिंग का हिस्सा भी थे।वह तबाही मंदाकिनी के किनारे केदानाथ से लेकर 18 किमी दूर सोनप्रयाग तक सबकुछ बहाकर ले गई थी।इसी कारण जब भी मेरे सर्किल में किसी को पहाड़ से जुड़ी किसी हलचल की जानकारी मिलती, खबर मुझतक पहुंच जाती। मेरा काम होता उसकी जड़ तक पहुंचना और सच सामने लाना। इसी रौ में जब मुझे पता चला कि केदारनाथ के ठीक ऊपर स्थित चैराबाड़ी ग्लेशियर पर ग्लेशियोलॉजिस्ट की एक टीम रिपोर्ट तैयार कर रही है तो मेरी भी बेचैनी बढ़ गई। मैं देहरादून से ऊखीमठ और फिर गौरीकुंड होते हुए केदारनाथ जा पहुंचा।केदारनाथ से चैराबाड़ी ग्लेशियर की दूरी 6 किलोमीटर है। 8 जुलाई 2004 को जब मैं उस ग्लेशियर लेक के पास पहुंचा तो वहां मेरी मुलाकात वाडिया इंस्टीट्यूट के ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. डीपी डोभाल से (अब वे यहां एचओडी हैं) हुई। डोभाल उस वक्त वहां उस झील की निगरानी के लिए अपने यंत्र इन्स्टॉल कर रहे थे। झील का जलस्तर 4 मीटर के आसपास रहा होगा।मैंने पूछा- जलस्तर नापने और ग्लेशियर के अध्ययन के मायने क्या हैं? डोभाल कुछ हिचकते हुए बोले- मंदिर के ठीक ऊपर होने के कारण चैराबाड़ी झील के स्तर से केदारनाथ सीधे जुड़ा है। यदि जलस्तर खतरे से ऊपर जाता है तो कभी भी केदारनाथ मंदिर और आसपास के इलाके में तबाही आ सकती है।लक्ष्मी प्रसाद पंत की यह रिपोर्ट 2 अगस्त 2004 को प्रकाशित हुई थी।मेरी जिज्ञासा डोभाल के जवाब से और बढ़ गई। मैंने पूछा कि क्या इतना पुराना मंदिर भी इस झील के सैलाब में बह सकता है? उनका जवाब था, हां। यह संभव है, लेकिन अभी तक झील का स्तर खतरनाक होने के प्रमाण नहीं मिले हैं। यदि यह 11 से 12 मीटर तक पहुंचता है तो जरूर खतरा होगा। उन्होंने बात संभालते हुए कहा- एवलांच तो इस इलाके के लिए आम हैं। ये कितने खतरनाक हो सकते हैं, किसी से छुपा नहीं है।यदि झील का स्तर बढ़ा तो एवलांच के साथ मिलकर यह किसी बम से भी ज्यादा खतरनाक असर वाला होगा। यूं समझिए कि बम के साथ बारूद का ढेर रखा है। बम फटा तो बारूद उसका असर कई गुणा बढ़ा देगा। मेरे माथे पर शिकन पड़ गई। खबर का कुछ मसौदा मिलता दिखाई दिया।अब मेरा सवाल था, इतना खतरा? फिर तो काफी दिन से निगरानी चल रही होगी? मेरे सीधे सवालों से लगातार परेशान हो रहे डोभाल ने झल्लाते हुए कहा- हां, 2003 से। इसके बाद उन्होंने मेरे बाकी सवाल अनसुने कर दिए। हकीकत यही है कि मेरा उनसे संपर्क इससे आगे नहीं बढ़ पाया।अब केदारनाथ के ठीक ऊपर पल रहे एक खतरे ने मुझे चौकन्ना कर दिया। फिर एक खबरनवीस के तौर पर खबर ब्रेक करने की बेचैनी कैसी रही होगी, आप समझ सकते हैं। जानकारी बेहद अहम थी। सवाल सिर्फ हिन्दू आस्था के एक बड़े तीर्थ केदारनाथ से ही नहीं, कई लोगों की जिंदगी से भी सीधे जुड़ा था। चैराबाड़ी ग्लेशियर झील की कुछ तस्वीरें लेकर मैं देहरादून पटेल नगर स्थित अपने दफ्तर लौट आया।केदारनाथ के खतरे और चैराबाड़ी ग्लेशियर की नाजुक स्थिति पर खबर लिखकर मैंने पहला ड्राफ्ट अपने संपादक अशोक पांडे को सौंपा। इसे पढ़कर वे भी चौंक गए। बोले, ग्लेशियर, झील और एवलांच कैसे केदारनाथ जैसे ऐतिहासिक मंदिर के लिए खतरा हो सकते हैं? मैंने इतना ही कहा, विशेषज्ञ ग्लेशियर झीलों पर जाकर 2003 से ग्राउंड स्टडी कर रहे हैं। डाटा इकठ्ठा किया जा रहा है। टीम बनी है। इतना सब कुछ किसी आधार पर ही कर रहे होंगे। मैं खुद उन्हें ये सब करते हुए देखकर आया हूं।जवाब मिला- लेकिन कोई कुछ बता क्यों नहीं रहा? प्रशासन को तो कोई जानकारी होगी? क्या सीएम या किसी मंत्री से कुछ पूछा? सबके वर्जन हैं या नहीं? मैं चुप था। मैंने समझाने की कोशिश की- सर। अगर बात इतनी आगे पहुंच गई तो खबर सबको मिल जाएगी। फिर मेरे वहां रातों रात जाने का क्या फायदा? अब मैंने अपनी पत्रकारीय जिम्मेदारी का हवाला देते हुए खबर छापने पर जोर दिया। केदारनाथ में कितना बडा खतरा पल रहा है इसके दस्तावेजी सबूत उनकी टेबल पर रखें।फिर भी लंबे तर्क-वितर्क हुए। खबर में कुछ काट-छांट भी। इसके बाद खबर छपने के लिए तैयार हुई। मामला चूंकि बड़ा था इसलिए पांडे जी ने कानपुर स्थित हैड ऑफिस में फोन कर जानकारी दे दी। अंत में, एक अगस्त के दिन फैसला हुआ कि खबर वाकई बड़ी है और फ्रंट पेज की लीड बनाई जाए।केदारनाथ से सिर्फ 2 किमी दूर चौराबाड़ी झील जो 400 मीटर लंबी, 200 मीटर चौड़ी और 20 मीटर गहरी थी, फटने से 10 मिनट में खाली हो गई।खबर छपने के बाद चैराबाड़ी झील तो खैर नहीं फटी, लेकिन मेरे ऑफिस में पूछताछ का एवलांच सा आ गया। वाडिया इंस्टीट्यूट के कार्यवाहक डायरेक्टर और भू-वैज्ञानिक ए के नंदा (डायरेक्टर प्रो. बीआर अरोड़ा उस वक्त छुट्टी पर थे) ने गुस्से में मुझे फोन किया। बौखलाहट में बोले- यह क्या छाप दिया है। आपको कुछ गलतफहमी है। हमारा कोई वैज्ञानिक चैराबाड़ी लेक पर गया ही नहीं है और न ही हम कोई ऐसी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं।एकबारगी तो मैं भी हैरान रह गया। मैंने कहा यह खबर दफ्तर में बैठकर नहीं लिखी है। झील पर होकर आया हूं। वही लिखा है जो मुझे आपके ही एक वैज्ञानिक डीपी डोभाल ने बताया है। न तो उन्होंने मेरी दलील सुनी और न यकीन किया। और तो और उन्होंने खबर के गलत और बेबुनियाद होने का एक लंबा-चैड़ा नोटिस भी इंस्टीट्यूट की ओर से भेज दिया। मुझ पर खंडन छापने के लिए दबाव डाला गया। इंस्टीट्यूट में आने के लिए भी मुझ पर पाबंदी लगा दी गई।पत्रकार जानते हैं कि जब किसी रिपोर्टर की खबर फ्रंट पेज की लीड खबर बनी हो और उसे गलत करार दे दिया जाए तो उस पर कितना दबाव रहता है। साथी पत्रकार भी टेढे-मेढे कयास लगाने लगते हैं। मेरे पास पर्याप्त सबूत और रिकॉर्डिंग्स होने के कारण खंडन तो नहीं छपा लेकिन मेरी इस खबर ने मुझ पर संदेह का एवलांच जरूर छोड़ दिया। जाहिर है, इंस्टीट्यूट ने सवाल-जवाब डोभाल से भी किए। मैंने भी बाद में उनसे मिलकर अपनी खबर पर बात करनी चाही कि आखिर इसमें गलत क्या था? जवाब तो नहीं मिला, लेकिन उन्होंने मुझसे दूरी जरूर बना ली। खबर से मची हलचल भी धीरे-धीरे थम गई। लेक की निगरानी कर रही टीम देहरादून लौट आई। प्रोजेक्ट रोक दिया गया।अक्टूबर 2004 में मैंने दैनिक जागरण देहरादून छोड़ दिया। खबर भी भुला दी गई। खुद पर उठे सवालों का जवाब देने की बेचैनी मन में ही बनी रही। मैं उत्तराखंड से राजस्थान, फिर कश्मीर और फिर राजस्थान आ गया। बेहतर से और बेहतर होने की यह यात्रा चलती रही। जिंदगी सिखाती रही, मैं सीखता रहा।समय के साथ बहुत कुछ बदला। बेहिसाब चुनौतियां भी आईं लेकिन कुछ चीजों की पहचान कभी खत्म नहीं हुई। देहरादून छोड़ने के नौ साल बाद 15-16 जून 2013 की अल-सुबह चैराबाड़ी का सच केदारनाथ की तबाही के तौर पर पहाड़ से नीचे उतरा। मेरी खबर के सच का खुलासा इस तरह होगा, मैंने कभी नहीं सोचा था।कुछ ऐसे कि इसने मुझे हिला दिया और दुनिया को भी। मैं दुखी था। दिल भी रो पड़ा। चांद की तरह गोल चैराबाड़ी झील पहाड़ों को भी खा गई। सब बहा ले गई। पीड़ा और उत्तेजना दोनों मुझ पर हावी होने लगे। आज मैं उस दिन को कोस रहा था जब इस खबर के सही होने की जिद पकड़े था। तब मैं चाहता था कि यह खबर सही हो, आज मुझे अपनी चाहत पर अफसोस और क्षोभ था। पत्रकार की जीत थी, मगर जीवन प्रकृति से हार गया था।2013 की घटना के बाद सेना के दस हजार जवान, 11 हेलिकॉप्टर, नौसेना के 45 गोताखोर और वायुसेना के 43 विमान यहां फंसे यात्रियों को बचाने में जुटे हुए थे।20 हजार लोगों को वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था।दुनिया छोटी है और गोल भी। 2004 में छोड़ी अपनी बीट पर जून 2013 में मैं फिर तैनात था। देहरादून जाकर डोभाल से मिला। मेरे जाने के बाद उनके साथ इस खबर के बारे में क्या-क्या हुआ मैं नहीं जानता। लेकिन तबाही के बाद एके नंदा ने डोभाल को फिर फोन किया और कहा- डोभाल तुम भी उस वक्त सही थे और पंत की वह खबर भी सही थी। ये स्वीकारोक्ति महज औपचारिक थी। खबर पर तो प्रकृति की निर्मम मुहर पहले ही लग चुकी थी।देहरादून सचिवालय में मेरी मुलाकात मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा (अब बीजेपी में शामिल) से भी हुई। मेरा सवाल था-दस हजार मौतों का जिम्मेदार कौन? क्या आपदा रोकी जा सकती थी? इस सवाल पर उनका जवाब था...यह इंसानी नहीं दैवीय आपदा है। डरपोक और कायर सरकारें अपनी नाकामी ऐसी ही छिपाती हैं।मैं चैराबाड़ी ग्लेशियरभी गया। जिस नीली झील को नौ साल पहले मैंने लबालब देखा था आज जैसे यहां किसी ने ट्रैक्टर चलाकर उसे सपाट कर दिया हो। झील नहीं यहां उसके अवशेषही शेष थे। केदारनाथ तबाही का ये एपिसेंटर उजाड़ और वीरान पड़ा था। तबाही ने मौत और जिंदगी सबके मायने बदल दिए थे। और क्या लिखा जाए। नंदा कुछ साल पहले रिटायर हो चुके हैं। डोभाल अब वाडिया में विभाध्यक्ष हैं और किसी और ग्लेश्यिर पर काम कर रहे हैं। लेकिन मुझे आज भी केदारनाथ त्रासदी का दर्द परेशान करता है। क्योंकि धूर्त और अंहकारी व्यवस्था के कारण चैराबाड़ी झील को पालने-पोसने की भारी कीमत केदारनाथ हादसे के रूप में पूरे देश ने चुकाई है।और हां, मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि आपदा के तीन अक्षर, आशाके दो अक्षरों पर भारी रहे हैं। और यह कहानी भरोसे के बनने की नहीं, भरोसे के टूटने की कहानी भी है।-लक्ष्मी प्रसाद पंत दैनिक भास्करराजस्थान के स्टेट एडिटर हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today साल के कुछ महीनों के लिए खुलनेवाले इस केदारनाथ मंदिर में 2013 में आई त्रासदी के वक्त पहली बार पूजा रोकी गई थी। Full Article
india news काेरोना के बारे में हमें कुछ भी तो पता नहीं, फिर इतनी चिंता क्यों? By Published On :: Sun, 26 Apr 2020 21:26:00 GMT जब दोरिस डे ने 1956 में अल्फ्रेड हिचकॉक की एक फिल्म के लिए ‘के सेरा सेरा…’ गीत गाया होगा तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि एक अलग देश में महामारी के बीच हम उनके शब्दों से खुद को ढांढस बंधाएंगे। जब हम मुंबई में कोविड-19 के मरीजों की बढ़ती संख्या के बारे में सुनते हैं और घर पर चिंता करते हैं, न केवल अपने लिए, बल्कि अपने चारोें ओर के लोगों के लिए। आपने शायद नोटिस किया होगा कि हममें से कितनों के लिए जिंदगी कैसे बदल गई है। जो शहर धन और सफलता के लिए जुनूनी था, जहां लोग घमंडी, खुदगर्ज और अपने में ही आसक्त रहने वाले थे, वह बदल रहा है। लोग दूसरों की मदद के लिए आ रहे हैं।आप सब की तरह मैं भी इस बीमारी के लक्षण जानता हूं। इसलिए हर सुबह उठने के बाद हम सब चेक करते हैं कि कहीं हमें छींक तो नहीं आ रही या हमारी सूंघने की शक्ति ठीक है? अब हमें बताया जा रहा है कि कोविड-19 के 80 प्रतिशत मामलों में लक्षण नहीं उभर रहे हैं, इसका मतलब है कि जिन लक्षणों के बारे में आप जानते हैं, वे कभी उभरें ही नहीं और फिर भी आप वायरस से ग्रस्त हो जाएं।अब नई रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि वायरस के तीन तरह के प्रकार हैं और इनमें एक सबसे उग्र है। इससे साफ होता है कि कुछ इलाकों में अधिक और कहीं पर कम लोग क्यों मर रहे हैं। एक समय केरल संक्रमितों की सूची में सबसे ऊपर था, लेकिन वहां पर तीन ही लोगों की मौत हुई थी। मणिपुर में कोई नहीं है। यह जानने के लिए कि कैसे इलाज हो, आपको जानना होगा कि आप में वायरस का कौन सा प्रकार है।लेकिन, जब लक्षण ही नहीं उभर रहे हों तो कैसे पता लगेगा? मैंने हर प्रमुख महामारी विशेषज्ञ को सुना है और वे चेता रहे हैं कि चीजंे डरावनी हैं, और अधिक खराब होंगी। संक्षेप में, हमें घर पर ही रहना चाहिए और अगर बाहर जाना हो तो मास्क लगाना चाहिए। मेरी बिल्डिंग की पारसी महिला सेक्रेटरी ऐसा कहती है। ऐसा ही दुनिया के सबसे प्रसिद्ध जोखिम विश्लेषक निकोलस नसीम तालेब की भी यही राय है। यही बात प्रसिद्ध इतिहासकार युवाल नोह हरारी कहते हैं, जो मानवता के बारे में मानवता से भी अधिक जानते हैं।फिर नया क्या है? प्रधानमंत्री कहते हैं कि लॉकडाउन 3 मई को खत्म होगा। मेरे मुख्यमंत्री चेताते हैं यह जारी रह सकता है। रिपोर्ट कहती हैं कि अगर लॉकडाउन खत्म होता है तो भी बसें, ट्रेन और टैक्सियां शुरू होने में समय लगेगा। तो क्या हम दौड़कर काम पर जाएंगे?विदेशों से आ रही खबरों में इस बात पर जोर है कि यह 2022 या 2024 तक जारी रह सकता है। कुछ कहते हैं कि वैक्सीन छह महीने में आ जाएगी। भारतीय-अमेरिकी चिकित्सक सिद्धार्थ मुखर्जी 18 महीने कहते हैं। जबकि ट्रम्प का कहना है कि आपको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है। हमारी पुरानी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन ही अच्छा करेगी। लेकिन, एक मिनट रुकें। इस बात की रिपोर्ट है कि ट्रम्प की प्रिय दवा उन लोगों में हृदय संबंधी दिक्कतें पैदा कर रही है, जिन्हें यह दवा दी गई।रिपोर्ट के मुताबिक टीबी व कुष्ठ रोग के लिए बचपन में दी जाने वाली बीसीजी की वैक्सीन अधिक असरकारक है। इसने हमें भीतर से प्रतिरोधकता दी है। फिर धारावी और वर्ली कोलीवाड़ा में हालात खराब क्यों हैं? अभी सुना गया है कि समय के साथ बीसीजी कमजोर पड़ जाती है, इसलिए बूढ़े लोग मर रहे हैं। यहां पर एक वायरस है, जिसके बारे में हम बहुत कम जानते हैं। जो चमगादड़, पंगोलिन या फिर किसी ऐसे अन्य जंगली जानवर से आया है। इस वायरस के लक्षण दिखते नहीं है, फिर भी यह हजारों की जान ले रहा है। इसका कोई इलाज नहीं है और संभावित वैक्सीन में महीनों या सालों लग सकते हैं। एक रिपोर्ट में तो कहा गया है कि कोई भी वैक्सीन इसका इलाज हमेशा के लिए नहीं कर सकती। यह सिर्फ खुद ही खत्म हो सकता है।तो घर पर बैठकर मैं एक ऐसे वायरस के बारे में लिखने की कोशिश कर रहा हूं, जिसके बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं और न ही ऐसा दिखता है कि कोई और इसके बारे में जानता है। अमेरिका दावा करता है कि यह चीनी है। चीन कहता है कि अमेरिकी मरीन इसे एशिया में लाए। इस वायरस से सांख्यिकीय तौर पर मेरे मरने की संभावना मेरी उम्र पूरी होने पर मरने के ही समान है, लेकिन मुंबई की किसी सड़क पर मरने की संभावना से बेहतर है। क्या मुझेे चिंता करनी चाहिए? मेरा परिवार सोचता है, करनी चाहिए। क्या मैं चिंतित हूं? इसका जवाब डोरिस डे के पास है : के सेरा सेरा, (जो भी होगा, होगा) गीत जिसे युवावस्था में मैं बहुत पसंद करता था।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today We don't know anything about Carona, then why worry so much? Full Article
india news हर गरीब को छह माह तक अनाज व तीन माह तक नगद मदद मिले By Published On :: Sun, 26 Apr 2020 21:41:00 GMT लॉकडाउन का एक महीना पूरा होने के बाद अब सार्वभाैमिक भोजन और नगदी वितरण की तत्काल जरूरत है। पूरे देश से इस बात की रिपोर्ट है कि मजदूरों, किसानों, पशुपालकों, मछुआरों, कूड़ा बीनने वालों और निराश्रितों के समक्ष बड़ी दिक्कत है। इनमें अनेक तो भुखमरी तक का सामना कर रहे हैं, क्योंकि लॉकडाउन से उनकी आजीविका छिन गई है। इससे एक और अभूतपूर्व मानवीय संकट पैदा हो गया है, क्योंकि कम बचत वाले लाखों परिवारों के पास आने वाले हफ्तों में भोजन और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाने का कोई रास्ता नहीं होगा।इन हालात में सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जरूरतमंदाें को उनकी आजीविका के लिए मूलभूत उपाय उपलब्ध कराए। भोजन की उपलब्धता सबसे जरूरी है, लेकिन अार्थिक गतिविधियां ठप होने से राेजगार के अवसर बहुत कम हैं, इसलिए नगदी का वितरण भी उतना ही अहम हो गया है। भोजन का वितरण कम से कम छह महीने और नगदी का तीन महीने तक होना चाहिए। संकट की गंभीरता और भूख व गरीबी के फैलने की गंभीर आशंका को देखते हुए सरकार को यह वितरण हर उस व्यक्ति को करना चाहिए, जिसे इसकी जरूरत हो। इसमें मौजूदा सूची या बायोमेट्रिक पहचान को बाधा नहीं बनने देना चाहिए।इसकी कीमत क्या होगी? सरकार के पास अभी 2.4 करोड़ टन के बफर स्टॉक की तुलना में 7.7 करोड़ टन अनाज का भंडार है और सरकार अभी रबी के चार करोड़ टन खाद्यान्न की भी खरीद करने जा रही है। ऐसे में अगर देश की 130 करोड़ की जनसंख्या में से 80 फीसदी को छह माह तक 10 किलो प्रतिमाह मुफ्त खाद्यान्न देना पड़े तो भी 6.24 करोड़ अनाज की जरूरत होगी।यही नहीं इस 62.4 करोड़ खाद्यान्न को बांटने से एफसीआई को भंडारण पर होने वाले 17,472 करोड़ के खर्च की भी बचत होगी। अनाज के साथ ही सरकार को कुछ दालें, तेल व नमक भी उपलब्ध कराना चाहिए। लेकिन इस पर कुछ खर्च होगा, किंतु दाल का खर्च वित्तमंत्री पहले ही अपने पैकेज में शामिल कर चुकी हैं। इसके अलावा अगर सरकार कुल जनसंख्या के 80 फीसदी लोगों को हर घर को 7000 रुपए के हिसाब से तीन महीने तक नगदी देती है तो प्रति परिवार पांच लोगों के हिसाब से इसका खर्च 4,36,800 करोड़ रुपए होगा।इस तरह खाद्यान्न व नगदी पर कुल 5,53, 800 करोड़ या अनुमानित जीडीपी का सिर्फ 2.9 प्रतिशत ही व्यय होगा। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस जिम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा केंद्र के पास उपलब्ध संसाधनों से आएगा। सप्लीमेंटरी बजट में जिन करों को प्रस्तावित किया गया था, वे अपरिहार्य हो गए हैं, इसलिए इस खर्च की भरपाई बजट घाटे से की जानी चाहिए। इन हालात में जरूरी हो गया है कि सरकार अतिरिक्त खर्च या तो बजट घाटे से पूरा करे या फिर सीधे रिजर्व बैंक से उधार ले। यह न केवल महामारी से निपटने के लिए जरूरी है, बल्कि लॉकडाउन के प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है।सवाल यह है कि इस खाद्यान्न का वितरण कैसे हो? यह स्पष्ट है कि मौजूदा सूची इसके लिए अपर्याप्त है, क्योंकि इसमें बहुत सारे जरूरतमंदों के नाम नहीं हैं। अनुमान है कि 2011 की जनगणना के आधार पर बने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून से कम से कम 10 करोड़ लोग बाहर हैं।इसलिए इसे बांटने का सबसे अच्छा तरीका यह हो सकता है कि इसे घर के दरवाजे पर जाकर दिया जाए या फिर चुनाव की तरह स्याही लगाकर बांटा जाए। नगदी वितरण अधिक जटिल है। ग्रामीण भारत में अधिकतर घरोंके मनरेगा या पेंशन कार्ड हैं। शहरी गरीबों में अधिकतर प्रवासी मजदूर, ठेके या दिहाड़ी पर काम करने वाले लोग, घरेलू नौकर, रेहड़ी-खोमचे वाले व कूड़ा बीनने वाले बेघर लोग हैं। इनका कोई व्यापक रिकॉर्ड भी नहीं है। मानवीय इमर्जेंसी की मांग है कि अधिकृत अधिकारी के सामने विकेंद्रीकृत कार्यालयों में पेश होने वाले हर वयस्क को नगद मदद दी जानी चाहिए। जिनके खाते हैं, उन्हें सीधे धन उनमें दिया जा सकता है। बाकी के लिए उड़ीसा की तर्ज पर नगद पैसा हाथ में देना बेहतर होगा।इसमें चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही को रसीद के तौर प्रयोग किया जा सकता है। आय ट्रांसफर से एक विस्तृत ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और एक शहरी रोजगार कार्यक्रम को तेजी से रास्ता मिलेगा। जिसमें शहरी गरीबों के आश्रय, पेयजल की आपूर्ति व स्वच्छता भी शामिल होना चाहिए। कम से कम इस महामारी के जारी रहने तक निजी अस्पतालों के भी राष्ट्रीयकरण की जरूरत है।इन सभी उपायों के लिए स्थानीय प्रशासन पर निर्भर होना पड़ेगा और इनका ईमानदार तथा जिम्मेदार होना बहुत जरूरी है। इसके साथ ही सामुदायिक भागीदारी भी अहम होगी। लेकिन इसके बिना इस महामारी के प्रभावों से नहीं निपटा जा सकता। यह स्वास्थ्य इमर्जेंसी भारत के कामकाजी लोगों द्वारा पैदा नहीं की गई है। उन पर इसके भार को उठाने का दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारों को शहरों व गांवों में खाद्यान्न व नगदी के साथ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Every poor gets food grains for six months and cash help for three months Full Article
india news बीसी में मददगार तकनीक एसी में हथियार होगी By Published On :: Sun, 26 Apr 2020 21:50:40 GMT आप सोच रहे होंगे कि यह ‘बीसी’ और ‘एसी’ क्या है? दिमाग पर ज्यादा जोर न दें। इनका मतलब है ‘बिफोर कोरोना’ यानी कोरोना से पहले और ‘आफ्टर कोरोना’ यानी कोरोना के बाद!शनिवार को मैं कई कंपनियों के कुछ मिडिल मैनेजमेंट कैडर की मैनेजमेंट क्लास ले रहा था। इनमें कैचेट फार्मास्युटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड के पेशेवर भी थे। मेरे सेशन के बाद ज्यादातर सवाल-जवाब इस बात पर थे कि मेडिकल रीप्रेजेंटेटिव, डॉक्टर से मिले बिना उत्पादों का प्रचार कैसे कर सकते हैं? बड़ी संख्या में फार्मा क्षेत्र से जुड़े लोगों का तर्क था कि आमने-सामने मिले बिना उनकी दवाओं का प्रचार करना मुश्किल होगा।मेरा बस एक ही जवाब था। ‘सोचिए कि डॉक्टर के नजदीक जाने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कैसे करें।’ उनकी प्रतिक्रिया से मैं समझ सकता था कि वे बहुत सहमत नहीं हैं, लेकिन यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जहां टेक्नोलॉजी समाज के कम शिक्षित लोगों तक भी पहुंचने में सफल रही है।लंबे लॉकडाउन का सामना करने के लिए पूरे महाराष्ट्र के जिला परिषदों के स्कूलों ने अपने छात्रों के लिए वर्चुअल क्लास रूम शुरू किए हैं। यह देखने के लिए कि क्लास रूम सही ढंग से चलें, पुणे जिला प्रशासन ने न सिर्फ इनकी निगरानी शुरू की है, बल्कि रोजाना फीडबैक लेने का तंत्र भी बनाया है। इस प्रक्रिया में छात्रों तक पहुंचने के लिए वॉट्सएप का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस पर उन्हें वीडियोज भेजते हैं, इससे पाठ्य सामग्री मोबाइल पर उपलब्ध हो रही है। इस पहल के असर को जानने के लिए पुणे जिला परिषद ने जांच की तो पाया कि उनके अधिकार क्षेत्र के 70 फीसदी छात्र वर्चुअल लर्निंग अपना रहे हैं। सर्वे इस बात पर केंद्रित था कि छात्र शिक्षा के बदले हुए तरीके का सामना कैसे कर रहे हैं और उनके माता-पिता किस तरह भाग ले रहे हैं। सर्वे से उन्हें कमियों और जरूरी सुधारों के बारे में भी पता चल रहा है।दूसरी तरफ, ऑनलाइन क्लास रूम के ‘न्यू नॉर्मल’ को कारगर बनाने के लिए चेन्नई के स्कूल शिक्षक नियम और शिष्टाचार लेकर आ रहे हैं। इसमें नियमितता, साफ-सुथरे दिखना और घर के क्लास रूम में भी शांत और अनुशासित रहना शामिल है। ऑनलाइन लर्निंग अभी नई और स्कूलों के लिए चुनौतीपूर्ण है। हालांकि, इसमें सामान्य स्कूलों जितना आपसी संवाद और बारीकियों पर ध्यान देना संभव नहीं है, लेकिन ये शिक्षक स्कूल जैसा माहौल देने के लिए रणनीति बना रहे हैं, ताकि बच्चे इन क्लासेस को गंभीरता से लें।एक और उदाहरण एक फूड कंपनी का है। जब भारत में पहला लॉकडाउन शुरू हुआ तो कंपनी ने केवल 72 घंटे में एक कैंपेन ‘21 डेज़, 21 ब्रेकफास्ट रेसीपीज़’ तैयार कर शुरू कर दिया। उन्होंने ऑनलाइन रेसीपीज सर्च करने में बढ़ोतरी देखी, क्योंकि कई परिवार और गृहिणियां स्वादिष्ट, पौष्टिक और आसान फूड ऑप्शन तलाश रहे थे। कंपनी की टीम ने गृहिणियों की इस समस्या को हल करने की जिम्मेदारी ली। जब आप वास्तविक ग्राहक की समस्या सुलझाते हैं, तो अगली बार जब ग्राहक अपनी पसंद का फिर से मूल्यांकन करता है, तो उसके दिमाग में सबसे पहले आपका और आपके ब्रांड का नाम लाने में मदद मिलती है।इस साल मार्च के लगभग अंत में ‘नागराज: कोरोनामैन का हमला’ नाम की कॉमिक सोशल मीडिया पर हिंदी और अंग्रेजी में रिलीज की गई। वे लोग जो नागराज को नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि वह बच्चों की कॉमिक्स का सुपर हीरो है, जो 1986 में आया था।इस नए ऑनलाइन वर्जन में एक रोचक चेप्टर है, जिसमें कोरोनामैन (विलेन) एक सेल्फ-क्वारेंटाइन घर में घुसने की कोशिश करता है, लेकिन वह वायरस फैलाने में नाकाम रहता है, क्योंकि परिवार जिम्मेदारी निभाते हुए सुरक्षित रहने के लिए जारी की गई सभी गाइडलाइन का पालन करता है। तब नागराज (हीरो) को अहसास होता है कि उसकी सुपर पॉवर नहीं, बल्कि लोगों का घर में रहने का समझदारी भरा फैसला शहर को बचा सकता है। इसका उद्देश्य बच्चों को फिजिकल डिस्टेंसिंग का महत्व समझाना था।फंडा यह है कि मौजूदा युद्ध को जीतने के लिए टेक्नोलॉजी में अपनी रचनात्मकता को जोड़ें। जो ‘बीसी’ में आपकी मदद कर रही थी, वह ‘एसी’ में आपका हथियार बनेगी।मैनेजमेंट फंडा एन. रघुरामन की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए9190000071 पर मिस्ड कॉल करें Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Supportive technology in B.C. will be weapons in A.C. Full Article