india news

पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई

सई परांजपे ने अत्यंत मनोरंजक फिल्म ‘चश्मेबद्दूर’ बनाई थी। दीप्ति नवल ‘चमको’ नामक कपड़े धोने का साबुन घर-घर जाकर बेचती हैं। तीन युवा एक किराए के मकान में रहते हैं और उनमें दीप्ति नवल को प्रभावित करने की होड़ लगी है। सई परांजपे ने खरगोश और कछुए की दौड़ से प्रेरित ‘कथा’ नामक फिल्म बनाई थी। ज्ञातव्य है कि खरगोश और कछुए में तेजी से मंजिल पर पहुंचने की प्रतिस्पर्धा होती है। आधी दूरी तय करके अहंकार से भरा खरगोश झपकी ले लेता है और धीरे चलने वाला कछुआ मंजिल पर पहुंच जाता है। ‘कथा’ में नसीरुद्दीन शाह कछुआ और फारूख शेख खरगोश बने थे। उस दौर में फारूख शेख को गरीब निर्माता का राजेश खन्ना माना जाता था।

परांजपे की ‘स्पर्श’ नामक फिल्म में नसीरुद्दीन शाह जन्मांध हैं और ईश्वरीय कमतरी के शिकार लोगों की एक संस्था को संचालित करते हैं। शबाना आजमी अभिनीत पात्र एक युवा विधवा का है, जिसे नसीर संचालित संस्था में नौकरी मिल जाती है। दोनों एक-दूसरे को करीब से जानते हुए प्रेम करने लगते हैं। नसीर, शबाना के विगत की बात अन्य स्रोत से जानकर उससे नाराज हो जाता है। राज कपूर की प्रेम त्रिकोण फिल्म ‘संगम’ में भी ऐेसी ही परिस्थिति बनती है। शैलेंद्र रचित गीत है- ‘ओ मेरे समन ओ मेरे सनम, जो सच है सामने आया है, जो बीत गया वह सपना था, यह धरती है इंसानों की, कुछ और नहीं इंसान हैैं हम…। बहरहाल, समय का मरहम गलतफहमी से जन्मे जख्मों को भर देता है। इसी तरह ‘स्पर्श’ भी एक सुखांत फिल्म है।

खाकसार की लिखी आर.के. नैयर की फिल्म ‘कत्ल’ में ध्वनि पर निराशा साधने वाले पात्र की कथा प्रस्तुत की गई थी। ऋतिक रोशन और यामी गौतम अभिनीत ‘काबिल’ का अंधा नायक भी अपनी पत्नी के साथ दुष्कर्म करने वाले चार लोगों का कत्ल कर देता है। ‘काबिल’ दक्षिण कोरिया में बनी फिल्म की प्रेरणा से बनी थी। अंग्रेजी साहित्य के महान लेखक जॉन मिल्टन ने ‘पैराडाइज लॉस्ट’ नामक महाकाव्य लिखा। उन्होंने ‘सैमसन एगोनिस्टिक’ भी लिखा था। अपने दल के लिए हजारों प्रतिवेदन लिखते-लिखते उनकी आंखों की रोशनी चली गई। अंधा होने के बाद उन्होंने महाकाव्य ‘पैराडाइज रिगेंड’ लिखा। गौरतलब है कि देख सकने के समय ‘पैराडाइज लॉस्ट’ और दृष्टि जाने पर ‘पैराडाइज रिगेंड’ लिखा है।

हमारे ग्वालियर के मित्र पवन करण के दामाद का नाम भी जॉन मिल्टन है। कवियों के नाम अपने बच्चों को दिए जाएं, यह तो समझ में आता है, परंतु दक्षिण भारत में एक नेता पुत्र का नाम हिटलर है। मुंबई में ‘हिटलर’ नामक रेस्त्रां के मालिक को रेस्त्रां का नाम बदलने के लिए आंदोलन किया गया था। टाइटल में ‘गेजा’ का इस्तेमाल इसे बाइबिल प्रेरित ‘सैमसन एगोनिस्टिक’ से जोड़ देता है। उपन्यास में एक सीनेटर अपनी पत्नी और बेटी के साथ यात्रा कर रहा है। कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। सीनेटर मर जाता है, पुत्री की एक आंख चोटिल हो जाती है, पत्नी उसे एक अस्पताल में ले जाती है। बहरहाल, अस्पताल का एक डॉक्टर उसका पूर्व परिचित है।

सच्चाई यह है कि इसी डॉक्टर ने महिला के साथ विवाह करने से इनकार किया था। महिला डॉक्टर को पुरानी बातें सुनाकर उसे शल्यक्रिया करने में देरी कराती है। मेडिकल तथ्य है कि जख्मी आंख समय रहते निकाली जाए तो दूसरी आंख भी काम करना बंद कर देती है। जरा इस रोग के नाम पर गौर करें ‘सिम्पैथेटिक ऑप्थैल्मिया’। बहरहाल शल्य क्रिया में देरी के कारण कन्या की दूसरी आंख भी काम नहीं करती। वह महिला डॉक्टर पर लापरवाही का मुकदमा कायम करके एक बिलियन डॉलर का दावा ठोंकती है। अदालत में डॉक्टर अपना बचाव स्वयं करता है। लब्बोलुआब यह है कि डॉक्टर मुकदमा जीत जाता है। बाद में यह साफ होता है कि सीनेटर की पत्नी ही षड्यंत्र रचती है। एक कहावत है कि- प्रेम निवेदन में अस्वीकार होने वाली स्त्री घायल शेरनी के समान होती है। याद आता है कि फिल्म ‘मेरी आंखें, तेरी सूरत’ का गीत- ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक-एक पल जैसे एक जुग बीता, जुग बीते मोहें नींद न आई।’



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Don't ask how i spent the night




india news

यह मानवता पर फिर से विश्वास जगाने का समय है

यह बहुत अफसोस की बात होगी, अगर हम कोरोना वायरस से मुक्त हो चुकी दुनिया में जाएं और सब कुछ वैसा ही करने लगें, जैसा पहले करते थे। हम सभी के लिए इतने बुरे अनुभव के बाद कुछ बदलाव तो होने ही चाहिए। क्योंकि वायरस ने हमें ऐसे भयानक स्वास्थ्य और आर्थिक संकट में डाल दिया है, जैसा हम में से बहुत से लोगों ने अब तक के जीवन में नहीं देखा होगा। यही कारण है कि हम अब ऐसे व्यक्ति नहीं हो सकते, जो आत्म-केंद्रित हो, अपने लिए ही चीजें खरीदें और सब कुछ खुद के लिए ही करें। कम खर्चीले होकर खरीदना और खुलकर साझा करना जीवन के नए नियम हो सकते हैं। ये उन कई सीखों में से एक हो सकती है, जो हम लॉकडाउन के इस अनुभव से सीखना चाहते हैं। हमारे बीच कम से कम कुछ लोग तो ऐसे हैं जो इस विचार को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसा ही एक उदाहरण यहां दिया जा रहा है।

बीती 7 अप्रैल को सुबह 10.52 बजे नागपुर में मध्य रेलवे के व्यावसायिक विभाग के निरीक्षक खुशरू पोचा का फोन बजा। चूंकि वे लॉकडाउन के बाद से ही कई परिवारों को भोजन देने की ड्यूटी निभा रहे थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि यह फोन भी किसी की मदद के लिए आया होगा। लेकिन दूसरी तरफ से जो आवाज आई, उसने उन्हें चौंका दिया। नहीं, नहीं, आ‌वाज ने यह नहीं कहा कि ‘मोगेंबो खुश हुआ।’ लेकिन अमरीश पुरी जैसी ही अलग आवाज में कुछ इसी तरह की बात कही। आवाज ने कहा, ‘आप अच्छा काम कर रहे हैं। ऐसे ही करते रहिए। आपको सरकार की तरफ से किसी मदद की जरूरत हो तो राज्य सचिवालय से बेझिझक संपर्क कीजिएगा।’ और यह अचंभित करने वाला कॉल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का था।
क्या आप सोच रहे हैं कि दानी आत्मा वाले पारसी, खुशरू पोचा ने ऐसा क्या किया? उन्होंने अपने मित्रभाव, निजी और पेशेवर संपर्कों का इस्तेमाल सोशल मीडिया के माध्यम से दुनियाभर के लोगों से भोजन और दान इकट्‌ठा करने में किया। वे 1999 से ही गरीबों की मदद कर रहे हैं, जब उन्होंने indianblooddonors.com वेबसाइट की शुरुआत उन लोगों के लिए की थी, जिन्हें खून की जरूरत होती है। आज उन्होंने अकेले अपने दम पर ही 40 लाख रुपए से ज्यादा की भोजन और राहत सामग्री इकट्‌ठा की है, जिससे 6000 परिवारों की मदद हुई है। इसके अलावा उन्होंने गरीबों तक भोजन पहुंचाने के लिए दो टन चावल कुछ एनजीओ को दान किए हैं। वे देश के कई शहरों में 21 ‘सेवा किचन्स’ चला रहे हैं। इन सेवा किचन्स ने ऑनलाइन डोनेशन प्लेटफॉर्म donatekart.com से टायअप किया है, ताकि गरीबों को खाना मिल सके।

जो भी व्यक्ति दान करना चाहता है, वह donatekart.com पर जाकर 616 रुपए की किट गरीबों में बांटने के लिए खरीद सकता है। किट में 5 किग्रा चावल, 5 किग्रा आटा, 1 किग्रा तुअर दाल, आधा किग्रा शक्कर, 750 मिली तेल, एक छोटा पैकेट नमक, मसाले और अचार होते हैं। मौजूदा महामारी में राहत कार्य के लिए पोचा वाट्सएप ग्रुप्स, अपनी वेबसाइट्स, जैसे ब्लड डोनेशन की वेबसाइट और sevakitchen.org और अन्य एप्स के माध्यम से मदद के निवेदन भेज रहे हैं। इन्हें डोनेटकार्ट की मदद मिल रही है, जो उन्हें जरूरत का सामान उपलब्ध करा रही है। निवेदन इस वेबसाइट के माध्यम से जाते हैं और दानदाता अपना योगदान देते हैं। इसमें किसी भी स्तर पर पैसा शामिल नहीं है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुसीबत में गरीबों की मदद कर रहे पोचा की सेवाओं की सराहना करने के लिए ठाकरे ने उन्हें फोन किया।

पोचा के समूह की पहुंच बढ़ाने में सोशल मीडिया ने काफी मदद की। साल 2016 में पोचा ने गरीबों की मदद करने के लिए ऑनलाइन पहल ‘नेकी का पिटारा’ शुरू की। इसके तहत अस्पतालों में एक फ्रिज रखा जाता है और उसमें फल, दूध, लस्सी, ब्रेड और अंडे जैसी चीजें रखते हैं, जिनका मरीज इस्तेमाल कर सकते हैं। स्टॉक खत्म होने पर उस क्षेत्र से संबंधित ग्रुप पिटारा यानी फ्रिज दोबारा भर देता है। फिलहाल देश के कई शहरों में ऐसे 20 पिटारा हैं।
फंडा यह है कि नई दुनिया में खुशरू पोचा जैसे शांत योद्धा अधिक होने चाहिए क्योंकि हम स्वार्थी होकर इस दुनिया से मानवता को मिटने नहीं दे सकते।





Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
नागपुर में मध्य रेलवे के व्यावसायिक विभाग के निरीक्षक खुशरू पोचा लॉकडाउन के दौरान गरीबों को भोजन और राहत सामान पहुंचा रहे हैं।




india news

कहानी यमुना किनारे बने रैन बसेरों में रहनेवाले उन लोगों की जो निगमबोध घाट पर अंतिम क्रिया में इस्तेमाल चावल-गेहूं से अपना खाना बनाते हैं

दिल्ली में बहती यमुना के किनारे एक समंदर ठहरा रहता है। बेघर लोगों की भीड़ का ऐसा समंदर जिसका विस्तार आईटीओ के पुल से लेकर सलीमगढ़ के किले तक फैला हुआ है। निगमबोध घाट के पास ये समंदर कुछ ज्यादागहरा हो जाता है क्योंकि करीब सात से आठ हजार बेघर लोग सिर्फइसी छोटे-से इलाकेमें रहते हैं।

इन लोगों के लिए कई रैन बसेरे भी यहां बनाए गए हैं। लेकिन लोग इतने ज्यादाहैं और रैन बसेरे इतने कम कि बमुश्किल 5% लोगों को ही इनमें रात गुजारना नसीब हो पाता है। और अब तो इन पांच प्रतिशत लोगों से भी यह सुख छिन चुका है क्योंकि बीते शनिवार इन रैन बसेरों को गुस्साई भीड़ ने आग के हवाले कर दिया।

इस बसावट के जो सबसे ‘संपन्न’ लोग हैं उन्होंने अब यहां अपनी झुग्गियांबना कर एक अदद छत का इंतजाम कर लिया है। जो इनसे कुछ कम संपन्न हैं, उनके लिए यहां से गुजरती पानी की मोटी पाइप लाइन छत का काम करती है। और जिन्हें ये भी नसीब नहीं, उनके लिए खुला आसमान ही छत है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने यमुना में खड़े मेट्रो पुल के पिलरों को अपना आशियाना बना लिया है।

जलते हुए शवों की गंध और यमूना के गंदे पानी की सड़ांध के बीच रहते हैं बेघर

हवा जब यहां पश्चिम की तरफ बहती है तो बसावट की फिजाओं में निगमबोध घाट पर जलते हुए इंसानी शरीरों की गंध तैरने लगती है। इसके उलट अगर हवा पूर्व को बहती है तो इसमें यमुना के गंधाते पानी और नदी किनारे सड़ते हुए जानवरों के शवों की गंध शामिल होती है। मरे हुए इन जानवरों को नोचते चील-कौओं का शोर और पास में ही स्थित पॉवर स्टेशन के उठती एक सतत भिनभिनाहट इस बसावट को चौबीसों घण्टे गुंजायमान रखते हैं।

जब काम नहीं मिलता तो पेट भरने के लिए ये बेघर लोग शमशान घाट से गेहूं-चावल ले आते हैं

इस माहौल में रहने वाले ये हजारों लोग अलग-अलग प्रदेश, धर्म और जातियों के हैं। सिर्फगरीबी ही ऐसी एक मात्र समानता है जो इन सबको एक सूत्र में बांधती है। इनमें से ज्यादातर लोग कबाड़ इकट्ठा करने का काम करते हैं, कुछ दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं और कुछ ब्याह-बारातों को रोशन करने वाली लाइट उठाने या बड़ी-बड़ी पार्टियों में जूठे बर्तन धोने का काम करते हैं। जब इनमें से कोई भी काम नसीब नहीं होता तो ये लोग पेट भरने को निगमबोध घाट से वो गेहूं-चावल उठा लाते हैं जो अंतिम क्रिया में चढ़ाने के बाद लोग वहां छोड़ जाते हैं।

दिल्ली के निगमबोध घाट के पासभीड़ ने 11 अप्रैल कोरैन बसेरों में आग लगा दी। लॉकडाउन के बाद इन रैनबसेरों में आठ से नौ हजार बेघरों के लिए खाना बनता था। अब यहां बेघरों के लिए न छत है और न खाना।

ज्यादातर लोगों को नशे की लत है

इन लोगों से बात करने पर आप यह भी पाते हैं कि इनमें से अधिकतर को नशे की लत है। करीब दस साल पहले सीतापुर से यहां आए 26 साल के आकाश खुदही आपको बताते हैं कि ‘मैं नशे की लत के चलते घर से भागा था और तब से यहीं हूं। कबाड़ बीन कर जो कमाता हूंं उसमें से ज्यादातो शराब या सुल्फाखरीदने में चला जाता है। नशा रोजही करता हूं। आजकल शराब नहीं मिल रही तो पत्ती (भांग) रगड़ के काम चला रहा हूं।’ इतनी ही ईमानदारी से अपने नशे की लत को स्वीकारने वाले यहां दर्जनों अन्य लोग भी आपको मिल जाते हैं।

आप कुछ और लोगों से बात करते हैं तो समझते हैं कि इनमें से किसी की भी सरकार पर कोई निर्भरता नहीं है। सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर ये लोग सिर्फदो ही तरफ के लोगों को जानते हैं। एक पुलिस वाले और दूसरे रैन बसेरों का प्रशासन संभालने वाले। दोनों ही तरह के लोगों का इन्होंने सिर्फक्रूर चेहरा ही देखा है। इसमें से पुलिस का क्रूर चेहरा तो इन्हें स्वीकार्य भी है लेकिन रैन बसेरे के लोगों का सख्तीदिखाना इन्हें पसंद नहीं। यहीं से उस पृष्ठभूमि की शुरुआत होती है जिसके चलते बीते शनिवार रैन बसेरों में आगजनी हुई।

बेघरों की रैन बसेराचलाने वाले लोगों से लड़ाई होती रहती है

रैन बसेरों का प्रशासन संभालने वालों को ये लोग ‘सेंटर वाले’ के नाम से बुलाते हैं। इनकी शिकायत है कि सेंटर वाले इनके साथ मार-पीट करते हैं, गालियंदेते हैं और वहां बेघर लोगों के लिए उपलब्ध संसाधनों को इन तक नहीं पहुंचने देते। गजरौला से यहां आकर रहने वाले अजय कहते हैं, ‘सेंटर वालों में तीन-चार लोग बहुत बुरे हैं। वो हमें वहां से पानी भी नहीं पीने देते जबकि खुदउस पानी से हाथ-मुंह तक धोते हैं। वहां गर्मियों में जो कूलर रहता है अगर हम कभी उसके पास जाकर बैठें तो हमें मारते हैं। कई बार तो उन्होंने सोते हुए लोगों को डंडा मारा है। मेरे साथी के तो इतनी तेज डंडा मारा था कि उसकी हड्डी दिखने लगी थी।’

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जब अजय आपसे ये सवाल करते हैं कि ‘मारने का काम तो पुलिस का है न साहब। ये सेंटर वाले क्यों हमें मारते हैं?’ तो आप ये भी जवाब नहीं दे पाते कि ‘नहीं, मारने का काम पुलिस का भी नहीं है।’ क्योंकि आप जानते हैं कि अजय के अनुभव आपके इस जवाब पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे।

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड,‘सेफअप्रोच’ नाम के एक एनजीओ के साथ मिलकर रैन बसेरे चलाता है

ये लोग जिन्हें ‘सेंटर वाले’ कह रहे हैं वे असल में ‘सेफअप्रोच’ नाम के एक एनजीओ के कर्मचारी हैं। दिल्ली में रैन बसेरों की जिम्मेदारी असल में ड़ूसिब यानी ‘दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड’ की होती है। ड़ूसिब ये काम कुछ एनजीओ के माध्यम से करता है और ‘सेफअप्रोच’ ऐसा ही एक एनजीओ है।

यहां मौजूद लगभग सभी बेघर लोग आपको ये शिकायत करते मिलते हैं कि सेंटर वाले उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं। बीते छह साल से यहां रह रहे असलम कहते हैं, ‘सेंटर वाले सिर्फअपने जानने वाले लोगों को ही रैन बसेरों में रहने देते हैं। हमें वहां घुसने भी नहीं देते और जब बाहर से खाना आता है तो भी ठीक से नहीं बांटते।’

लॉकडाउन के बाद एक-एक रैन बसेरों में 8 से 9 हजार लोगों को खानाबन रहा

जब कोरोना के चलते देशव्यापी लॉकडाउन हुआ तो बेघर लोगों को खाना खिलाने की जिम्मेदारीरैन बसेरों को दी गई और तब इन लोगों के लिए खाना खाने रैन बसेरे पर आना मजबूरी हो गया। आठ-नौ हजार लोगों को प्रतिदिन दो वक्त खाना खिलाना रैन बसेरे वालों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं था। उनके पास सिर्फ15 लोगों का स्टाफथा जो नागरिक सुरक्षा के चुनिंदा जवानों और दिल्ली पुलिस के उनसे भी कम जवानों की मौजूदगी में यह काम कर रहे थे। ऐसे में सुरक्षा व्यवस्था के बिगड़ने की आशंका लगातार बनी हुई थी जो शनिवार को सच हो गई।

रैन बसेरे के प्रशासन और इन बेघर लोगों के बीच छोटी-मोटी झड़प इस दौरान कई बार हुई। लेकिन शुक्रवार के दिन यह झड़प मार-पीट में बदल गई। इस मारपीट की शुरुआत कैसे हुई, इसके बारे में आपको दो अलग-अलग कहानियांसुनने को मिलती हैं। एक कहानी वो जो बेघर लोग आपको सुनाते हैं और दूसरी वो रैन बसेरे का प्रशासन बताता है।

'एक लड़का रैन बसेरे वालों से डरकर यमूना में कूद गया और मर गया'

आकाश नाम का लड़का सामने आता है और बताता है, ‘शुक्रवार के दिन खाना बांटते हुए सेंटर वालों की कुछ लोगों से झड़प हुई। उसके बाद करीब चार बजे वो लोग इधर से लड़के को पकड़ कर रैन बसेरे के अंदर ले गए और उसे उन्होंने बहुत मारा। वो किसी तरह खुद को छुड़ाकर वहां से भागा तो ये लोग उसके पीछे भागे। इस डर से वो यमुना में कूद गया। उसे इतना मारा गया था कि वो तैर भी नहीं पाया और डूब कर मर गया।’

रैन बसेरे वालों का कहना है- ‘वो लड़का यमुना में डूबा नहीं था, तैर कर दूसरी तरफ चला गया था'

इसी घटना का दूसरा वर्णन आपको राम नाम के लड़के से सुनने को मिलता है। राम उन लोगों में से है जो इन दिनों रैन बसेरे में लोगों के लिए खाना बना रहे हैं। राम कहते हैं, ‘शुक्रवार को चार बजे के करीब हम केले बांट रहे थे। तभी एक लड़के ने मेरे हाथ में चाकू मार दिया। हमारे साथी उसे पकड़ने लगे तो वो यमुना की तरफ दौड़ गया।’ राम की बात को आगे बढ़ाते हुए ‘सेफअप्रोच’ के मैनेजर निशु त्रिपाठी कहते हैं, ‘वो लड़का यमुना में डूबा नहीं था, तैर कर दूसरी तरफ चला गया था। क्योंकि शुक्रवार शाम को ही पुलिस ने नदी के पूरे इलाकेको छान मारा था, वो कहीं नहीं मिला था। तभी कुछ लोगों ने पुलिस को बताया भी था कि उन्होंने उस लड़के को नदी से दूसरी तरफ जाते देखा था।’

लोगों में गुस्सा, इनका कहना है- पुलिसवाले मामले को दबा रहे हैं

शुक्रवार को हुई इस घटना के बाद यहां के लोगों में भारी आक्रोश था। उनका कहना था कि उनके बीच का एक आदमी नदी में डूब गया है और सेंटर वालों से लेकर पुलिस तक इस मामले को दबा रही है और सिर्फएक अफवाह बता रही है। यह आक्रोश अगले दिन तब कई गुना बढ़ गया जब यमुना से एक लाश बरामद हुई। ये लाश इन्हीं लोगों में से किसी ने नदी में देखी और इसे निकाला भी इन्हीं लोगों ने। इसके बाद गुस्साई भीड़ नहीं संभली। वो नदी से निकली लाश को लेकर रैन बसेरे की तरफ बढ़ी और उसने वहां पथराव करने के साथ ही रैन बसेरों में आग भी लगा डाली।

6 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ

इस मामले में अब एफआईआर दर्ज हो चुकी है। इसमें लड्डन, मुन्ना, भोपाल सिंह, निर्मल, सुभाष, अनिल और रोहित नाम के लोगों को आरोपी बनाया गया है और उन पर आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 186, 188, 269, 270, 352, 436 के साथ ही एपिडेमिक डिजीजऐक्ट के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया है। ये मुकदमा इन लोगों पर शनिवार को हुई हिंसा के लिए ही दर्ज किया गया है।

दूसरी तरफजिस लड़के के डूब जाने का जिक्र हो रहा है, उसके साथ हुई मारपीट की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। बल्कि प्रशासन ने अब तक ये भी नहीं माना है कि कोई मौत हुई है। दिल्ली पुलिस के अतिरिक्त जन सम्पर्क अधिकारी अनिल मित्तल के अनुसार, ‘चार-पांच लोग उस दिन यमुना में कूदे थे। इनमें से बाकीतो बाहर आ गए थे लेकिन एक आदमी वापस नहीं आया था। पुलिस ने गोताखोरों की मदद से उसे खोजा भी था लेकिन वो नहीं मिला।’

यमूना से एक शव मिला है, लेकिन वह उस लड़के का नहीं : पुलिस

अनिल मित्तल आगे कहते हैं, ‘एक अज्ञात शव यमुना से बरामद हुआ है लेकिन वो संभवतः किसी अन्य व्यक्ति का है क्योंकि वो उस जगह से कुछ दूर बरामद हुआ है।’ इस मामले में एक तरफ वे लोग हैं जो कहते हैं कि उनके एक साथी को मारा-पीटा गया जिसके चलते वो घबराकर भागा और यमुना में डूब गया। ये लोग यह भी कहते हैं कि बरामद हुई लाश उसकी मौत की पुष्टि करती है।दूसरी तरफदिल्ली पुलिस है जिसके अधिकारी इतना तो मानते हैं कि कोई एक व्यक्ति नदी में कूदा और वापस नहीं आया, लेकिन उसके मरने की पुष्टि नहीं करते। तीसरी तरफड़ूसिब के सदस्य हैं जो ये तक नहीं मानते कि कोई नदी में कूदा भी था।

यमुना में युवक केकूदने की बात अफवाह :दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड

ड़ूसिब के प्रवक्ता विपिन राय कहते हैं, ‘किसी के यमुना में कूदने की बात अफवाह थी जिसके चलते शुक्रवार को हंगामा हुआ। फिर शनिवार को कहीं और से एक लाश मिली तो एक और अफवाह फैल गई कि ये लाश उसी की है जो कल कूदा था। इन अफवाहों के चलते ही सारा हंगामा हुआ।’

इन परस्पर विरोधाभासी दावों के बीच किसी भी एक पक्ष के दावों पर पूरी तरह यकीन करना मुश्किल है। लेकिन कुछ तथ्य जो एकदम स्पष्ट हैं वह बताते है कि यमुना में डूबने के बाद से एक व्यक्ति अब भी लापता है, यदि बरामद हुआ शव उस व्यक्ति का नहीं है तो संभवतः दो लोगों की मौत हो चुकी है।रैन बसेरों के जलने के कारण कई लोग यहां से भी बेघर हो चुके हैं, शनिवार की शाम से करीब इन सात हजार लोगों को खाना नहीं दिया गया है और बेघर लोगों की ये जमात तब से आसमान की चादर ओढ़े भूखे पेट ही सो रही है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
दिल्ली में हजारों बेघर लोग यमुना किनारे रहते हैं। कुछ लोग कबाड़ इकट्ठा करने का काम करते हैं, कुछ दिहाड़ी-मजदूर हैं और कुछ बारातों में लाइट उठाने या पार्टियों में जूठे बर्तन धोने का काम करते हैं। फिलहाल इन लोगों के पास कोई काम नहीं है।




india news

लॉकडाउन में भी खुले रहने चाहिए किसानों के रास्ते

मंगलवार सुबह प्रधानमंत्री लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने के साथ ही कुछ क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने की घोषणा कर सकते है। किसानों की समस्या रबी की फसल काटने की उतनी नहीं है, जितनी उत्पाद बेचने की। लॉकडाउन के बाद जो मजदूर अपने गांवों में लौट आए हैं, वे खेती में काम कर रहे हैं। लेकिन, मंडियों के बंद रहने से किसान सब्जियों, खासकर प्याज व टमाटर या दूध को लेकर चिंतित है। दूध की बिक्री संगठित क्षेत्र में केवल 27 प्रतिशत है, जो को-ऑपरेटिव समितियों के जरिये किसानों से खरीदा जाता है, लेकिन बाकी दूध किसान आजकल औने-पौने दाम में बेच रहा है।

अनाज और सब्जियों की उनमुक्त बिकवाली में कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून आड़े आता है और केंद्र सरकार को तत्काल इसके प्रावधान खत्म करने होंगे। कुछ राज्यों ने अपने यहां किसानों के घर से ही अनाज की खरीद की घोषणा की है, लेकिन कुछ अन्य राज्य अभी भी कुल उत्पादन का मात्र एक-चौथाई ही खरीदने की बात कह रहे हैं। कुछ खास किस्म के उद्योगों को खोला जाना अपरिहार्य है, ताकि आर्थिक चक्र चलने लगे। वहीं देश का बड़ा भाग कृषि और उससे संबद्ध कार्यों से अपनी आजीविका हासिल करता है। सरकार इस बात से भी वाकिफ है कि एनएसएसओ के ताज़ा 75वें चक्र के सर्वे में बताया गया कि गांव और शहर के बीच आर्थिक खाई लगातार बढ़ती गई है।

सर्वे के मुताबिक 2011-12 में जो किसान 1410 रुपए प्रति माह खर्च करता था वह 2018-19 में केवल 1304 रुपए खर्च कर रहा है, जबकि शहरों में यह आंकड़ा इस काल में बढ़ा है। इसका कारण है कृषि में विकास दर का उस रफ़्तार से न बढ़ना, जिस गति से अर्थव्यवस्था अन्य क्षेत्रों में बढ़ी है। फिर कृषि पर आश्रित लोगों में आधे से ज्यादा वे हैं, जो भूमिहीन हैं। लिहाजा, उनके लिए अगर कृषि कार्यों में भी मजदूरी नहीं मिली तो भुखमरी आ सकती है।

सरकार को उनकी उपज समर्थन मूल्य पर सुनिश्चित करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और दूसरी ओर राज्यों को किसानों को तत्काल पैसा देना जरूरी होगा। अगर इसके लिए पैसे की जरूरत हो तो केंद्र को राज्यों को इसकी भरपाई का आश्वासन भी देना होगा। बहरहाल प्रधानमंत्री इन तथ्यों से पूरी तरह वाकिफ हैं। लॉकडाउन जहां जीवन बचाने का उपक्रम है, वहीं आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र में आर्थिक गतिविधि का पहिया चलाना भी जरूरी है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Farmers should remain open even in lockdown




india news

घर में सामूहिक ध्यान अवश्य करें

पहाड़ बनी समस्या को राई बनाने के लिए हमारा रुकना जरूरी है। इन दोनों जब लंबे समय से लोग घरों में हैं, तो देखा जा रहा है कुछ घरों में शोर होने लगा है। घर के कुछ सदस्यों ने गुस्से में चिल्लाचोट शुरू कर दी है। यह एक मनोवैज्ञानिक घटना है। कोशिश कीजिए इन दिनों अपने घरों में कम से कम गुस्से के कारण तो बिलकुल न चिल्लाएं। यह क्रोध इसलिए भी पनप रहा होगा कि आप जब घर से बाहर रहते हैं तो बहुत सारे कामों में ऊर्जा बह जाती थी, वह अब रुकी हुई है। ध्यान रखिए, उसका विस्फोट क्रोध के रूप में न हो। क्रोध हर तरह से इंसान को मार देता है।

राम-रावण युद्ध में जब मेघनाद का यज्ञ वानरों ने ध्वंस कर किया तब उसकी जो मनोदशा बनी, उस पर तुलसीदास ने लिखा था- ‘आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा।’ अर्थात अत्यंत क्रोध का मारा मेघनाद बार-बार चिल्लाने लगा, गरजने लगा। तो अपने आप को टटोलिए कि इन दिनों मेघनाद जैसी गलती आप तो नहीं कर रहे हैं? घर में रहते हुए अपनों पर ही क्रोध तो नहीं कर रहे, चिल्ला तो नहीं रहे? यदि ऐसी स्थिति बन रही हो तो मेडिटेशन का सहारा लीजिए। घर में सामूहिक ध्यान अवश्य कीजिए।

लॉकडाउन का यह दौर आपसे कुछ अतिरिक्त मांग करेगा। जब हम घरों से बाहर निकलते थे तो हमारे जीवन का संचालन कुछ दूसरे लोगों के हाथ भी होता था। पर अब अपनी सारी गतिविधियों के मालिक स्वयं हो जाएं। यहां ध्यान बहुत काम आएगा।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Do group meditation at home




india news

देश में पूर्ण लॉकडाउन की बजाय चुनिंदा क्षेत्रों में खीचें लक्ष्मण रेखा

ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो शायद ही जानते हों कि उन्होंने भारत से हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और पैरासिटामॉल की मांग करते हुए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा और रामायण में लक्ष्मण का जीवन बचाने के लिए हनुमान के संजीवनी बूटी लाने के प्रसंग का जिक्र किया तो वह ऐसा कितने उपयुक्त समय पर कर रहे थे। चाहे जो भी हो, आज जब हम तीन सप्ताह के लॉकडाउन को आगे बढ़ाने (उम्मीद है कि यह न हो), पूरी तरह समाप्त करने (हम ऐसा भी नहीं चाहते) या क्रमानुसार छूट देने की बात पर चर्चा कर रहे हैं, तो हमेंं भी ऐसी कई कहानियां याद आ रही हैं। हम इनमें से तीसरे विकल्प को ही प्राथमिकता देंगे। याद कीजिए, लक्ष्मण अचेत पड़े हैं, उन्हें रावण के पुत्र मेघनाद ने घायल किया है। सुषेण वैद्य कहते हैं कि हिमालय की जादुई औषधि संजीवनी बूटी ही उन्हें बचा सकती है। हनुमानजी बूटी लेने जाते हैं। बूटी न पहचानने पर हनुमानजी पूरा द्रोणागिरि पर्वत ही उठा लाए। सुषेण ने एक ही क्षण में बूटी को पहचान लिया।

अब देखिए कि यह कैसे हमारी आज की स्थिति पर लागू होती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) फरवरी के मध्य से ही भारत में कोरोना वायरस संक्रमण के बढ़ने पर नजर रखे हुए था। शुरू के दो सप्ताह में जो 826 नमूने लिए गए उनमें से एक भी कोविड-19 संक्रमित नहीं था। 19 मार्च को दो पॉजिटिव मामले सामने आए। उसी दिन देशभर के सभी अस्पतालों में सांस के गंभीर संक्रमण वाले मरीजों की जांच की घोषणा की गई। 5,911 मामलों की जांच में 104 लोग कोरोना पॉजिटिव निकले। यह एक बड़े आधार का मात्र 1.8 फीसदी था, लेकिन, नगण्य नहीं था। इन संकेतों से समझा जा सकता था कि 21 से 23 मार्च के बीच कैसे लॉकडाउन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। अब आधे-अधूरे हल तलाश करने का समय नहीं रह गया था। संक्षेप में कहें तो अब संजीवनी बूटी तलाशने का नहीं, बल्कि सीधे पहाड़ उठा लेने का वक्त था।

दुनियाभर से तमाम आकलन आए हैं, जिनमें भारत के लॉकडाउन को इस महामारी की सबसे तीक्ष्ण प्रतिक्रिया कहा गया है। सबसे उल्लेखनीय द इकोनॉमिस्ट द्वारा प्रयोग किया गया ग्राफिक है। इसमें भारत 100 प्रतिशत के साथ शीर्ष पर है, जबकि इटली 90 प्रतिशत पर। परंतु यही सूचकांक हमारी सीमाएं भी दिखाता है। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय प्रोत्साहन की बात करें तो भारत चार्ट में सबसे नीचे है। इसमें जितने भी देश शामिल हैं, उनमें भारत सबसे गरीब है। इसलिए भारत के सामने भीड़, कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्थ और गरीबी की तिहरी चुनौती है। इन हालात में ऐसे लॉकडाउन की जरूरत थी। परिणाम बताते हैं कि यह कारगर रहा है। जैसी उम्मीद थी, जांच का दायरा बढ़ने के साथ संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, परंतु ग्राफ में गुणात्मक वृद्धि नहीं है। कुछ तो कारगर रहा। बीसीजी से लेकर क्लोरोक्वीन तक या हमारी जीन संरचना तक क्या काम आया, इस पर चर्चा हो सकती है, लेकिन इसमें लॉकडाउन का योगदान सबसे ज्यादा रहा। ऐसे में स्वाभाविक मांग इसे आगे बढ़ाने की होगी।
हमें आंकना होगा कि क्या यह वहन करने योग्य है? स्वास्थ्य मंत्रालय के पिछले दिनों रोकथाम के लिए पेश योजना से कुछ बातें निकलती हैं। इसे ध्यान से देखने पर आप सोच सकते हैं कि राजस्थान का भीलवाड़ा मॉडल वही जादुई बूटी है, जिसे व्यापक भौगोलिक प्रसार और अलग-अलग जगहों की जरूरतों के मुताबिक इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में पूरे देश को लॉकडाउन करने के बजाय भीलवाड़ा जैसी जगहों को पहचान कर उनके चारों ओर लक्ष्मण रेखा खींच दी जाए। दिल्ली समेत कुछ राज्यों में चिह्नित इलाकों को हॉटस्पॉट और रोकथाम क्षेत्र घोषित भी किया गया है।

हमें इसी मॉडल पर जाना चाहिए। हालांकि, यह लॉकडाउन की घोषणा से कहीं मुश्किल है। परंतु पूर्ण लॉकडाउन को तीन सप्ताह से आगे ले जाना उत्पादकतारोधी साबित हो सकता है। अनेक लोग दिहाड़ी पर कमाने-खाने वाले हैं। रबी की फसल कटाई और भंडारण की राह देख रही है। खरीफ के लिए तैयारी करनी है। फैक्टरियों को अपना काम शुरू करना है, इनमें वैश्विक रूप से बहुप्रशंसित हमारी दवा फैक्टरियां भी शामिल हैं। जहां कहीं भी खतरा है, वहां रोकथाम का मॉडल ठीक रहेगा। कमी की वजह से वेंटिलेटर खरीदने पर काफी जोर है। लेकिन हमें यह क्रूर सच समझना चाहिए कि वेंटिलेटर पर जिंदगी का मतलब क्या है।

पिछले दिनों व्हाइट हाउस में सामान्य प्रेस ब्रीफिंग में डोनाल्ड ट्रम्प ने अधिक वेंटिलेटराें की जरूरत से जुड़े सवाल पर कहा था कि क्या आप मुझसे यह जानना चाहते हैं कि वेंटिलेटर पर जाने वालों में से कितने बचते हैं? आप नहीं जानना चाहेंगे। लेेकिन इसके एक दिन पहले ही न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्रयू कुओमो ने इसका जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि केवल 20 फीसदी। इसलिए बेहतर है कि मरीज को वेंटिलेटर पर जाने से पहले ही बचा लिया जाए। यहां हमने 1.38 अरब की आबादी और 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था को वेंटिलेटर पर रख दिया है। अब वक्त आ गया है कि मरीज को आंशिक रूप से ही सही खुद सांस लेने दी जाए।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Laxman Rekha in select areas instead of complete lockdown in the country




india news

काेरोना के मौजूदा दौर में भी जारी है चीन की पावर पॉलिटिक्स

जब पूरी दुनिया वुहान से निकली खतरनाक महामारी से लड़ रही है, चीन एक बार फिर से पॉवर पॉलिटिक्स पर आ गया है। वह सैन्य ढांचा स्थापित कर रहा है, उसकी नौसेना अभ्यास कर रही है और अन्य देशों की मछली मारने वाली नौकाओं को डुबा रही है। जब चीन के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की वजह से पूरी दुनिया घुटनों पर आ गई है, चीन इस वैश्विक अव्यवस्था से भी लाभ उठाने में लगा है। वह जहां एक ओर, अनेक जरूरतमंद देशों को मेडिकल किट व अन्य चीजों की आपूर्ति कर इस कोविड-19 महामारी का इस्तेमाल खुद को दुनिया के लीडर के तौर पेश करने के लिए और ट्रम्प प्रशासन को सिर्फ अपने में ही व्यस्त दिखाने के लिए कर रहा है, वहीं दूसरी ओर वह यूरोप में सूचना युद्ध छेड़ने में व्यस्त है, ताकि यूरोपियन यूनियन में भीतरी दरार आ जाए। जब दुनिया के अधिकांश उदार संस्थानों के विद्वानों के मुताबिक यह समय वैश्विक सहयोग की एक केस स्टडी के तौर पर होना चाहिए, ऐसे समय पर पॉवर पॉलिटिक्स का नाटक देखना निश्चित ही असामान्य है।

वैश्विक महामारियों को व्यापक तौर पर गैरपरंपरागत सुरक्षा खतरे के तौर पर देखा जाता है, जो बड़ी ताकतों के बीच अधिक सहयोग की ओर ले जाती है। यह माना जाता है कि इसमें हम सब साथ हैं। इसे प्रमुख शक्तियों के बीच सापेक्ष लाभ की प्रतियोगिता के क्षेत्र के तौर पर नहीं देखा जाता। अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से उम्मीद की जाती है कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इन सुरक्षा चुनौतियों से निकालेगी। आज दुनिया की जो हालत है, हमें उससे छुटकारा पाना चाहिए। पूर्व में चीन और अमेरिका ने वैश्विक संकटों के समय मिलकर काम करने की कोशिश की है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।

ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट नीति से न केवल करीबी सहयोगियों को भेजी जाने वाली मेडिकल सप्लाई को अधिक कीमत देकर ले लिया जा रहा है, बल्कि अमेरिकी कंपनियों को एन-95 मास्क के निर्यात से भी रोका जा रहा है। अमेरिका द्वारा इस मौके पर नेतृत्व का प्रदर्शन न करने से भी पश्चिम में कई देशों के लिए दोषपूर्ण मेडिकल सामग्री भेजने के बावजूद विकल्पहीनता की वजह से चीन अहम हो गया है। शुरू में सूचनाओं को छिपाने की वजह से दुनिया का बड़ा हिस्सा चीन से डरा रहा है, लेकिन वह अल्प अवधि में चीन की मदद लेने के लिए मजबूर है। इससे चीन को उन्हें अपने प्रभाव में लेने का मौका मिल गया है, जबकि हकीकत यह है कि अगर चीन ने प्रारंभिक स्तर पर ही गंभीरता दिखाई होती तो इस संकट को बहुत कम किया जा सकता था।

इसके परिणामस्वरूप दुनिया उस दौर में जाएगी, जहां पर चीन व अमेरिका के बीच कटुता बढ़ेगी और इससे सबसे अधिक नुकसान वैश्विक संगठनों को होगा, जो हालांकि इस संकट में राहत देने वाला होगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष इस वायरस ने सबसे बड़ी चुनौती पेश की है, लेकिन इस पर परिषद की बैठक इस महामारी के करीब चार माह बाद पिछले हफ्ते हुई है। पिछले महीने परिषद की अध्यक्षता मिलने के बाद ही संयुक्त राष्ट्र में चीन के राजदूत झांग जुन ने स्पष्ट कर दिया कि उनका देश इस महामारी पर परिषद में चर्चा करने का इच्छुक नहीं है और घबराने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि आने वाले कुछ महीनों में कोविड-19 को पराजित करने से दुनिया दूर नहीं है। अमेरिका और चीन एक संयुक्त प्रस्ताव जारी करने पर भी बंटे रहे, क्योंकि अमेरिका चाहता था कि इसमें इस वायरस के वुहान से फैलने की बात हो।
सबसे गंभीर बात इस संकट से निपटने के प्रति विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का रवैया है। इस संकट के समय दुनिया की प्रतिक्रियाओं में समन्वय कायम करने वाले नोडल संगठन की बजाय वह पूरी तरह से चीन की चापलूसी करने वाले के तौर पर दिखा है, जिससे अन्य भागीदारों की नजर में उसकी विश्वसनीयता घटी है। डब्लूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस अधानोम घेबरेयेसुस को जनवरी के अंत में इसे जनस्वास्थ इमर्जेंसी घोषित करने पर मजबूर होना पड़ा, जबकि चीनी दबाव में उन्होंने एक हफ्ते पहले इस घोषणा को टाल दिया था। वह लगातार चीन द्वारा इस वायरस से निपटने के तरीकों की प्रशंसा करते रहे और डब्ल्यूएचओ मध्य जनवरी तक ट्वीट करता रहा कि चीन द्वारा प्रारंभिक जांच में इस वायरस के मानव से मानव में फैलने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं।

टेड्रोस ने जनवरी के आखिर में कहा था कि डब्ल्यूएचओ व्यापार और आवागमन को सीमित करने की सिफारिश नहीं करता है। इससे नाराज अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने न केवल संगठन को अमेरिकी फंडिंग रोकने की धमकी दी, बल्कि उस पर चीन केंद्रित होने का भी आरोप लगाया। अमेरिकी कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य अब इस संकट से निपटने में डब्ल्यूएचओ की भूमिका की जांच चाहते हैं। जब दुनिया में एकजुटता दिखनी चाहिए थी, ऐसे समय पर जबरदस्त पॉवर पॉलिटिक्स जारी है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बिखर गई है। ऐसे में भारत जैसे देशों को चुनौतीपूर्ण स्थितियों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
China's power politics continues in the current era of Karona




india news

फिल्मकार अजय बहल की पटकथा

फिल्मकार अजय बहल ने सिने विधा का अध्ययन स्वयं किया। वे न तो किसी संस्था गए न ही किसी फिल्मकार के सहायक रहे। उन्होंने ‘रेलवे आंटी’ नामक प्रकाशित कथा की प्रेरणा से ‘बीए पास’ नामक फिल्म बनाई। फिल्म की महत्वपूर्ण भूमिका शिल्पा शुक्ला ने अभिनीत की। शिल्पा शुक्ला ने शाहरुख अभिनीत ‘चक दे इंडिया’ में भी अभिनय किया। अजय बहल और शिल्पा अच्छे मित्र रहे जैसे ‘कागज के फूल’ में गुरु दत्त और वहीदा रहमान प्रस्तुत किए गए। ‘कागज के फूल’ में सफल सितारा वहीदा रहमान एक गांव में बच्चों को पढ़ाती हैं। शिल्पा शुक्ला को भी बच्चों को पढ़ाना पसंद है। खाकसार ने शिल्पा शुक्ला से फोन पर बात की है। उसकी आवाज में उस तरह की शांति का एहसास हुआ, जिसमें सैकड़ों तूफान जज्ब हों।

अजय बहल की दूसरी फिल्म ‘सेक्शन 375’ भी सराही गई। ज्ञातव्य है कि ‘मी टू’ आंदोलन में कुछ बेकसूर लोग भी बदनाम हो गए। कुछ लोगों ने अदालत में अपनी बेगुनाही साबित की। अजय बहल हमेशा लोकप्रिय उजालों में छिपे श्याम पक्ष को देखते और फिल्म में प्रस्तुत करते हैैं। अमेरिका में नोए सिनेमा बनता रहा है। ये फिल्में भी उजाले में अंधकार और अंधकार में उजाले की खोज की तरह रहीं। फिल्म ‘द पोस्टमैन रिंग्स टुवाइस’ नोए सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। दरअसल नोए सिनेमा मानव अवचेतन के अंधकार पक्ष का सिनेमा है? यह मनुष्य मन के अवचेतन में कुंडली मारकर बैठे सर्प को प्रस्तुत करने वाला सिनेमा है। यह सामान्य उजाले और अंधकार से अलग बात है। बहरहाल, अजय बहल का सिनेमा भी नोए सिनेमा ही है। अजय बहल ने एक भूतपूर्व राजा को उसकी नर्स द्वारा ही धीमा जहर देने के विषय पर पटकथा लिखी, परंतुु फिल्म नहीं बनाई। सभी फिल्मकार कुछ कथाओं को कभी बना नहीं पाते।

आजकल अजय बहल एक फिल्म लिख रहे हैैं, जिसमें सारी महत्वपूर्ण घटनाएं एक सिनेमाघर में घटित होती हैं। रहस्य की कुंजी फिल्म की प्रोजेक्शन मशीन में छिपी है। प्राय: फिल्मकार अपने माध्यम पर ही फिल्म बनाना चाहते हैं। गुरु दत्त की ‘कागज के फूल’ और राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ ऐसी ही फिल्में थीं। दोनों ही फिल्में खूब सराही गईं, परंतु अपनी लागत भी नहीं निकाल पाईं।

उम्रदराज सितारे भुला दिए जाते हैं। अपने यौवनकाल में लाइम लाइट में रहे कलाकार अपने बुढ़ापे में नजरअंदाज किए जाने से दु:खी बने रहते हैं। ऐसे कलाकार पुराने अखबार की तरह घर के किसी कोने में पड़े रहते हैं या रद्दी में बेच दिए जाते हैं। ज्ञातव्य है कि गुरु दत्त की ‘कागज के फूल’ का नायक फिल्मकार उम्रदराज होने पर जूनियर कलाकार की भूमिका करके आधी रोटी कमा पाता है। बहरहाल, अजय बहल की पटकथा में एक पात्र ऐसे ही कलाकारों को आश्वासन देता है कि वह उन्हें गुमनामी के अंधकार से बाहर निकालेगा।

अजय बहल की पटकथा में एक पात्र शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर से साम्य रखता है। वह भी फिल्म जगत की धरोहर को खोजकर और सहेजकर रखता है। क्या कोई व्यक्ति उस कैमरे को खोज सकता है, जिसका इस्तेमाल दादा फाल्के ने भारत की पहली कथा फिल्म बनाने के लिए किया था? अजय बहल की इस रोचक पटकथा का नायक बचपन से ही फिल्मकार बनना चाहता था, परंतु अपने माता-पिता के दबाव के कारण वह आईपीएस अफसर बना और कत्ल शृंखला के गुनाहगार को पकड़ने का काम उसे सौंपा गया। यह अपराध ही उसे अपने बचपन में देखे सपने से जोड़ देता है। मनुष्य शरीर में पेट में स्थित अंतड़ियां बड़ी घुमावदार हैं और जीवन की आंकीबांकी राहें भी उसी के समान हैं।

अजय बहल की यह महत्वकांक्षी फिल्म है जिसे वे अपने प्रिय माध्यम सिनेमा की आदरांजलि की तरह रचना चाहेंगे। आजकल अजय बहल पटकथा में रन्दा मारकर उसे चमका रहे हैं। फिल्म का एक पात्र अनुभवी हवलदार का है। हवलदार को अनुभवहीन अफसरों से चिढ़ है। इस पात्र के माध्यम से फिल्म में कुछ मनोरंजक दृश्य रचे जा सकते हैं। बाद मुद्दत के अजय बहल ने अपने जन्मना आलस्य की केंचुल उतार फेंकी है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
फिल्मकार अजय बहल।




india news

जड़ों की ओर लौटें, हो सकता है कोई नया रास्ता मिल जाए

मेरा हमेशा से मानना रहा है हमें अपने जीवन के कुछ क्षेत्रों में कम से कम कुछ हद तक तो जड़ों की ओर लौटना चाहिए, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने जीवन की कई गतिविधियों के लिए कुछ स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) यानी मानक प्रक्रियाएं बनाई हैं। उदाहरण के लिए वे मंदिर जाकर पवित्र स्थान की 3, 5, 7 या 11 बार परिक्रमा करने में विश्वास रखते थे। इसका मूल विचार यह था कि आपके शरीर को जरूरी व्यायाम तो मिल ही जाता है, साथ ही आप विचारों को नियंत्रित कर अपने दिमाग को शांत कर सकते हैं, क्योंकि तब आप केवल एक परमशक्ति, ईश्वर को याद करते हैं। साथ ही मंदिर के वातावरण से सकारात्मक ऊर्जा लेते हैं, ताकि बाकी के दिन में बेहतर ढंग से काम कर सकें। हमने इसे मॉर्निंग वॉक का नाम दे दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में हम विचारों को भटकने देते हैं और आसपास हो रही बातों की नकारात्मकता हमारे विचारों में घुसती रहती है। हम वॉक करते समय भी शांत नहीं होते हैं।

मुझे अपनी जड़ों तक वापस जाने का ये आसान सा फंडा तब याद आया जब मैंने तमिलनाडु की कादर जनजाति से जुड़े 70 से अधिक परिवारों के बारे में पढ़ा। ये समुदाय खाना इकट्ठा करता है, शहद और जंगल के दूसरे उत्पाद बेचकर अपना जीवनयापन करता है। लॉकडाउन के चलते ये जनजातियां हाल ही में अनामलाई टाइगर रिजर्व की गहराई में बस गई हैं और जंगलों के बहुत अंदर पत्थर की गुफाओं में रह रही हैं। चूंकि लॉकडाउन ने परिवहन की कमी के कारण उन्हें अर्ध शहरी जीवन से दूर कर दिया था, इसलिए उन्होंने जंगल में ही रहने का तरीका अपनाया। इस तरह वे फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने में मदद मिली है।
इस जनजाति के परिवार का आम दिन नाश्ते के लिए ताजे पानी में मछली पकड़ने से शुरू होता है। कुछ समय बाद वे फल और सब्जियां ढूंढने गहरे जंगल में चले जाते हैं। शाम को वे अपने कैंप में लौट आते हैं। आज लगभग 900 आदिवासी परिवार अनामलाई टाइगर रिजर्व में रहते हैं।
कुछ उदारवादी मुझसे एक सवाल पूछ सकते हैं कि ये लोग शहरी क्षेत्रों में क्यों नहीं जा सकते और खुद को आधुनिक क्यों नहीं बना सकते हैं? मेरा जवाब होगा ‘बेशक वे जा सकते हैं’ लेकिन प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत का एक ‘प्रसंग’ पढ़ने के बाद। आपको द्रोणाचार्य याद हैं, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर शिक्षक, जिन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। वे अपने ही पुत्र अश्वत्थामा से कहते हैं कि वे उन्हें धनुर्विद्या नहीं सिखा सकते। द्रोणाचार्य उन्हें स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूंकि अश्वत्थामा एक शिक्षक के घर जन्मे हैं, इसलिए उनका काम और उनका धर्म शिक्षा देना ही है, बजाय इसके कि वे युद्ध में भाग लेने के लिए योद्धा बनें।

यह अलग बात है कि अश्वथामा ने पिता की बात नहीं मानी और युद्ध की आखिरी रात ऐसे कौशल के चलते बेवकूफी कर बैठे, जो उन्हें अच्छे से नहीं आता था। उन्होंने द्रौपदी के पांचों बच्चों को यह सोचकर मार दिया कि वे सो रहे पांडव हैं। पांडवों के कट्टर शत्रु दुर्योधन के भी इस जघन्य कार्य के बारे में जानकर प्राण चले जाते हैं, यह अफसोस जताते हुए कि यह इस युद्ध में हुआ सबसे बुरा काम था।

फंडा यह है कि यदि हर मामले में नहीं, तो कम से कम कुछ क्षेत्रों में तो हमें अपनी जड़ों की ओर वापस जाना चाहिए और कुछ चीजें पुराने तरीकों से करनी चाहिए। न केवल आदिवासी, बल्कि हमें भी, क्योंकि इससे हमें जीवन जीने का एक नया रास्ता दिख सकता है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Return to the roots, maybe a new path is found




india news

मुंबई में 6 महीने की बच्ची ने कोरोना को हराया, लखनऊ में ढाई साल का बच्चा बिना दवा के ही ठीक हुआ

कोरोनावायरस की वजह से पूरी दुनिया में एक तरह की निराशा सी छा गई है। हर दिन हजारों मौतें हो रही हैं। संक्रमितों की संख्या भी रोजाना बढ़ रही है। कोरोना की वजह से दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी घरों में कैद रहने को मजबूर है। लेकिन, इससब निगेटिविटी के बीच कुछ पॉजिटिव खबरें भी आईं। जैसे- मुंबई में एक 6 महीने की बच्ची कोरोना से ठीक हो गई। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में ढाई साल का बच्चा बिना दवा के ठीक हो गया। उत्तराखंड में 4 दिन से कोई नया मरीज नहीं आया।


महाराष्ट्र : 6 महीने की बच्ची कोरोना से ठीक हुई
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में कोरोना के सबसे ज्यादा मरीज मिले हैं। लेकिन, इसी मुंबई से शनिवार को एक अच्छी खबर भी आई। यहां 6 महीने की बच्ची कोरोना से ठीक हो गई। बच्ची पहले कोरोना पॉजिटिव मिली थी, लेकिन बाद में उसकी दो रिपोर्ट निगेटिव आई। जिसके बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई। बच्ची को लेकर जब उसकी मां अपने घर पहुंचीं, तो सोसाइटी में लोगों ने तालियां बजाकर बच्ची का स्वागत किया। हालांकि, बच्ची के पिता और दादा-दादी कोरोना पॉजिटिव आने से अस्पताल में भर्ती हैं।


उत्तर प्रदेश : बिना दवा के 5 दिन में ठीक हुआ ढाई साल का बच्चा
राजधानी लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में भर्ती ढाई साल के बच्चे ने भी कोरोना को हरा दिया। बच्चे की मां कनाडा में डॉक्टर हैं और हाल ही में घर लौटी थीं। महिला के संपर्क में आने से उसके सास-ससुर और ढाई साल का बच्चा भी संक्रमित हो गया था। बच्चे की रिपोर्ट पहले पॉजिटिव आई थी, लेकिन उसमें लक्षण नहीं थे। लिहाजा, डॉक्टरों ने फैसला लिया कि उसे दवाई नहीं दी जाएगी। 5 दिन तक भर्ती रखने के बाद डॉक्टरों ने बच्चे को शनिवार को छुट्टी दे दी।

केरल : रविवार को सिर्फ दो केस ही आए
केरल देश का ऐसा राज्य है, जहां कोरोना का सबसे पहला मरीज मिला था। शुरुआती तीन मामले केरल से ही आए थे। लेकिन, रविवार का दिन केरल के लिए ठीक रहा। इस दिन यहां कोरोना के सिर्फ दो नए मामले आए हैं। एक अच्छी खबर ये भी रही कि इसी दिन 36 लोग ठीक भी हुए हैं। केरल में अभी तक 179 लोग ठीक हुए हैं और दो लोगों की मौत हुई है।


उत्तराखंड : चार दिन से कोई नया मरीज नहीं आया
उत्तराखंड में रविवार चौथा दिन रहा, जब राज्य में कोरोना का कोई नया मरीज नहीं मिला। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में कोरोना के 35 मामले सामने आए हैं, जिसमें से 5 ठीक हो चुके हैं। अच्छी बात ये भी है कि राज्य में कोरोना से अभी तक एक भी मौत नहीं हुई है।


बिहार : यहां भी रविवार को नया मामला नहीं मिला
गुरुवार (8 अप्रैल) से शनिवार (11 अप्रैल) के बीच बिहार में 25 नए मरीज आए थे। लेकिन, रविवार को यहां से एक भी नया मामला नहीं आया। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में अब तक कोरोना के 64 मामले सामने आए हैं। इसमें से 19 मरीज ठीक होकर घर जा चुके हैं। जबकि, एक मरीज की मौत हुई है।


मध्य प्रदेश : इंदौर-भोपाल को छोड़कर कहीं और से नया मामला नहीं
कोरोना को लेकर मध्य प्रदेश से भी रविवार को अच्छी खबर आई। यहां के सिर्फ दो जिले- इंदौर और भोपाल को छोड़कर कहीं और से कोरोना का नया मामला नहीं आया। राज्य सरकार के हेल्थ बुलेटिन के मुताबिक, 24 घंटे में इंदौर में 30 और भोपाल में 3 नए मरीज आए। राज्य में अब तक कोरोना के 562 मामले आ चुके हैं। इनमें से 41 ठीक हो चुके हैं और इतने ही लोगों की मौत हुई है।


जम्मू-कश्मीर : राजधानी श्रीनगर में तीन दिन से कोई नया केस नहीं
जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में तीन दिन से कोरोनावायरस का कोई नया केस नहीं आया है। हालांकि, श्रीनगर के बाहर दूसरे शहरों में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। सोमवार को ही अब तक कश्मीर में 25 नए केस आए। अभी तक जम्मू-कश्मीर में 270 मामले आ चुके हैं, जिसमें से 6 मरीज ही ठीक हुए हैं। जबकि, 4 की मौत हुई है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
ये तस्वीर मुंबई के धारावी की है। यहां अब तक कोरोना के 47 मरीज मिल चुके हैं। जबकि, 5 की मौत हो गई है। रविवार को यहां डॉक्टरों ने घर-घर जाकर स्क्रीनिंग की।




india news

नेताओं की स्वीकार्यता अक्षुण्ण हो तो अपील में ज्यादा असर

जैसा कि अपेक्षित और औचित्यपूर्ण था, लॉकडाउन 3 मई तक बढ़ाया गया है। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में सामाजिक मनोविज्ञान का अद्भुत प्रयोग किया। उन्होंने पहले बताया कि कैसे इस वैश्विक संकट में भी लॉकडाउन का जल्दी फैसला लेते हुए अन्य देशों के मुकाबले देशवासियों को कोरोना महामारी के जबड़े से बचाया गया।

लॉकडाउन की अवधि 19 दिन और बढ़ाने से पहले ही इसके लाभ बताकर 138 करोड़ लोगों को मानसिक रूप से तैयार किया। लेकिन अगला संदेश सख्त और सामायिक भी था, जब उन्होंने अगले एक सप्ताह तक लॉकडाउन का जिलों, कस्बों और खासकर हॉटस्पॉट वाले इलाकों में बेहद सख्ती से पालन करने का संकेत दिया।

प्रधानमंत्री ने जनता के अलावा राज्य सरकारों को भी ताकीद की कि इस सख्ती का अनुपालन कितना हुआ, इसकी मॉनिटरिंग भी की जाएगी। जनता को चेतावनी दी कि अगर नए हॉटस्पॉट मिले या मौजूदा हॉटस्पॉट्स में मामले बढ़े तो सभी उपलब्ध रियायतें खत्म कर सख्ती और बढ़ा दी जाएगी।

दरअसल केंद्र का मानना है कि लॉकडाउन-2 को 19 दिन बढ़ाने से कुल 40 दिन यानी 20-20 दिन के दो साइकिल (चक्र) पूरे हो जाएंगे। इस रोग का इन्क्यूबेशन काल 14 से 20 दिन माना जाता है। आज केंद्र सरकार विस्तृत ‘क्या करना है और क्या नहीं’ की गाइडलाइंस जारी करेगी।

उम्मीद है कि किसानों और मजदूरों के लिए जल्द ही बड़ी राहत की घोषणा भी हो सकती है। प्रधानमंत्री ने जनता से भावनात्मक अपील भी की, जो वैयक्तिक ही नहीं, पारिवारिक और सामाजिक नैतिकता को जगाने के आशय से थी। सप्तपदी विजय मार्ग दिखाया।

राजनेता की अगर स्वीकार्यता अक्षुण्ण है तो ऐसे अपूर्व संकट के समय, उसकी ऐसी अपील का व्यापक असर होता है। भाषण का अंत यजुर्वेद की ऋचा ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’ से यानी आइए हम राष्ट्र को जगाकर इसकी रक्षा करें के आह्वान से किया।

किसानों और मजदूरों के लिए संबोधन में विशेष बल देना उपयुक्त था, क्योंकि लॉकडाउन का हर अगला दिन उनके कष्ट को और ज्यादा बढ़ा रहा है। घर-घर राशन पहुंचाना, हर गरीब के हाथ कुछ रकम देना भी आज की सरकारी ‘क्या करना है और क्या नहीं’ वाली गाइडलाइंस में हो सकता है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
More impact in appeal if the acceptance of the leaders is intact




india news

दूसरा लॉकडाउन महाभारत के नियम जैसा

अवधि बढ़ गई, बेचैनी न बढ़ाएं। परीक्षा की घड़ी को निराशा का दौर न बनाएं। पहला लॉकडाउन त्रेता युग यानी रामकाल समझ लें। राम को ये सुविधा थी कि शत्रु बाहर है, दूर है, दिख रहा है। उनमें एक रावण ही प्रमुुख था और राम के पास हनुमान थे।

लॉकडाउन का दूसरा दौर द्वापर युग जैसा होगा। कृष्ण का समय। कृष्ण की चुनौतियां अलग ढंग की थीं। उनके शत्रु अपने थे, घर में थे और एक से ज्यादा थे। कृष्ण के सामने भीष्म, द्रोण, दुर्योधन, कर्ण, अश्वत्थामा, शकुनि थे। महाभारत के युद्ध की सारी संरचना कृष्ण को सौंपी गई थी। क्या नियम होंगे, ये सब कृष्ण ने बनाए थे।

लॉकडाउन की सख्ती और व्यूह को हम कुरुक्षेत्र की युद्ध व्यवस्था से समझ सकते हैं और पालन कर सकते हैं। महाभारत के युद्ध में रात को सभी अपने-अपने शिविर में चले जाते थे। शत्रु पक्ष से चर्चा भी कर सकते थे, क्योंकि सभी आपस में रिश्तेदार भी थे। अपनों से अपनों का युद्ध था यह।

यह दूरी ही सोशल डिस्टेंसिंग जैसी थी। अपने-अपने शिविर में रहो। दिन में जब युद्ध आरंभ होता तो सेना की व्यूह रचना की जाती थी। पैदल, पैदल के साथ। रथी, रथ वाले के साथ ही बढ़ेगा। कृत्य चलता था एक निश्चित दूरी और नियम के साथ।

ऐसी ही व्यूह रचना अब देखी जा सकेगी। सख्ती और अनुशासन कृष्ण का था और व्यूह नियम तोड़ने का काम शकुनि करता था। हम तय करें अब दूसरे दौर में कृष्ण के साथ रहना है या शकुनि के साथ?



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Second lockdown like Mahabharata rule




india news

राष्ट्रनेता की तरह बोले मोदी किसी का नहीं किया विरोध

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना को लेकर राष्ट्र के नाम आज जो तीसरा संदेश दिया, उसकी भाषा, शैली और कथ्य- तीनों ही प्रासंगिक और प्रेरक थे। उनके इस दावे पर मतभेद हो सकता है कि कोरोना के खतरे का सामना उनकी सरकार ने ठीक समय पर शुरू कर दिया था, लेकिन इसमें शक नहीं है कि दुनिया के कई शक्तिशाली देशों के मुकाबले कोरोना की महामारी का फैलाव भारत में बहुत कम हुआ है। कई अत्यंत सुविधासंपन्न राष्ट्रों में कोरोना के शिकार लोगों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में भारत से सौ गुना ज्यादा है। अच्छा होता कि मोदी अपने संबोधन में एक-दो मिनट इस तथ्य पर भी बोलते कि यह महामारी भारत में उतनी ज्यादा क्यों नहीं फैली? हमारे डाक्टर्स और नर्सों की सेवा और आम जनता की सावधानियां तो उसका कारण हैं ही, लेकिन भारतीय संस्कृति की जीवन पद्धति भी इसका बड़ा कारण है।

करोड़ों भारतीय जब आपस में मिलते हैं तो एक-दूसरे से हाथ मिलाने की बजाय नमस्ते करते हैं, शारीरिक दूरी बनाए रखते हैं, फ्रिज में रखे बासी खाने की बजाय ताजा खाना पसंद करते हैं, मांसाहारी लोग भी शाकाहार ज्यादा करते हैं और अपने रोजमर्रा के खाने में ऐसे मसालों का प्रयोग करते हैं, जो रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाते हैं। इन्हीं मसालों के सतत् प्रयोग के कारण यूरोप और अमेरिका में बसे भारतीय लोग कोरोना के शिकार कम हो रहे हैं। यह अच्छा हुआ कि मोदी ने चलते-चलते आयुष मंत्रालय की आयुर्वेदिक सीख का भी जिक्र कर दिया। कुछ हिंदी अखबार और एकाध टीवी चैनल इन घरेलू नुस्खों पर जरूर जोर दे रहे हैं, लेकिन मैं आशा करता हूं कि मीडिया देश के करोड़ों लोगों को इस दिशा में प्रेरित करेगा।
प्रधानमंत्री ने जिन सात मुद्दों ‘सप्तपदी’ का जिक्र किया, वह भी बहुत उत्तम है। घर के बुजुर्गों का ध्यान, तालाबंदी में शारीरिक दूरी, मुखौटा पहने रखने, काढ़ा आदि पीते रहने, आरोग्य सेतु ऐप को डाउनलोड करने, डाक्टर्स, नर्सों और पुलिसकर्मियों आदि का सम्मान करने का अनुरोध बहुत ही प्रासंगिक है। किसी राजनेता के मुंह से ऐसी बातें सुनकर दिल को बहुत ठंडक मिलती है। जिन दो अन्य बातों पर मोदी ने जोर दिया है, वे भी मार्मिक हैं। एक तो देश में कोई भी भूखा न सोए। गरीबों को लोग भोजन पहुंचाएं। दूसरा, व्यवसायी और उद्योगपति अपने किसी कर्मचारी को नौकरी से न निकाले। प्रधानमंत्री का यह मानवीय अनुरोध ऐसा है, जो किसी भी राजनेता को अपने पद से भी ऊंचा उठा देता है।

यह गौर करने लायक बात है कि पिछले 20-25 दिनों में भाजपा सरकार ने इस कोरोना संकट का सांप्रदायीकरण करने की कोई कोशिश नहीं की। मोदी ने अपने भाषण में ऐसा कोई जिक्र तक नहीं किया। भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने निजामुद्दीन के जमाती जमावड़े को सांप्रदायिक रंग देने का स्पष्ट विरोध किया है। यह राजनीतिक परिपक्वता का जीता-जागता प्रमाण है।

सरकार, भाजपा और संघ के इस रचनात्मक रवैये को जमाते-तब्लीगी के वे कार्यकर्ता अभी तक समझ नहीं पाए हैं, जो अभी तक कोरोना को बगल में दबाए हुए अपने घरों में छिपे बैठे हैं या उन्हें खोजकर इलाज करने वाले डाॅक्टर और नर्सों पर पत्थर और डंडे बरसा रहे हैं। वे नहीं जानते कि उनकी लापरवाही के कारण सबसे ज्यादा नुकसान उन्होंने अपने रिश्तेदारों, मित्रों और करीबियों को ही पहुंचाया है। यदि मोदी इन गलतफहमी के शिकार भारत माता के इन बेटों को भी प्रेमपूर्वक समझाते तो कोरोना को काबू करने में कुछ और मदद मिल जाती।

अपने इस तीसरे कोरोना संदेश में मोदी का एक नया रूप भी देखने को मिला। राजनेता का नहीं, राष्ट्रनेता का। विरोधी दल आज भी कई मुद्दों पर सरकार की टांग खींचने से नहीं चूक रहे हैं, लेकिन मोदी ने एक शब्द भी ऐसा नहीं बोला, जो उनके विरुद्ध हो। विरोधियों का काम है, विरोध करना, लेकिन मोदी ने उनका विरोध करने की बजाय उनके सहयोग का आह्वान किया है। संकट की घड़ी में यही करना उचित है।

इस संदेश में मोदी चाहते तो देश के लोगों को अपना दिन खुशी-खुशी बिताने का नुस्खा भी बता सकते थे। उनकी बात का गहरा असर जरूर होता। लोगों की उदासीनता दूर होती। वे लोगों को यह बताना क्यों भूल गए कि आज सारी दुनिया कोरोना की दवाई के लिए भारत की तरफ देख रही है। भारत आज विश्व-त्राता के रूप में उभर रहा है। कोरोना के इस दौर में मोदी समेत हमारे सभी नेता और मीडिया भी कोरोना से जुड़े अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग कर रहे हैं। इन शब्दों को देश के 140 करोड़ लोगों में से कितने लोग समझ सकते हैं? नौकरशाहों की नकल करते रहना जरूरी नहीं है। हम लाॅकडाउन को तालाबंदी, वायरस को विषाणु, सोशल डिस्टेंसिंग को सामाजिक दूरी, मास्क को मुखौटा, क्वारेंटाइन को पृथकवास, वेंटिलेटर को सांसयंत्र और सेनिटाइजेशन को शुद्धिकरण कह सकते हैं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Modi did not oppose anyone like a national leader




india news

सरकार को निर्धारित मानदंडों व सीमाओं से पार जाने की जरूरत

सुनील कुमार सिन्हा (निदेशक व मुख्य इकोनॉमिस्टइंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च)

भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर वित्तीय वर्ष 2016 में आठ फीसदी और 2017 में8.2 फीसदी के स्तर पर थी, लेकिन इसके बाद जीडीपी में गिरावट का दौर शुरू हो गया है। एनएसओ ने 28 फरवरी को जारी विज्ञप्ति में 2020 में विकास दर पांच फीसदी रहने का अनुमान जताया था। लेकिन कोविड-19 के संक्रमण और देशव्यापी लाॅकडाउन की वजह से पूरा माहौल बदल गया है। स्थिति इतनी तेजी से और इतने बड़े पैमाने पर बदल रही है कि इसने पूरी दुनिया में आर्थिक और वाणिज्यिक गतिविधियों को पंगु बना दिया है। इन स्थितियों में अर्थव्यवस्था के लिए खतरे और उससे होने वाले प्रभाव का आकलन न केवल चुनौतीपूर्ण काम हो गया है, बल्कि कोई भी आकलन बहुत ही जल्द पुराना भी हो रहा है।

कोविड-19 की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले कुछ शुरुआती और दिख रहे प्रभाव हैं- (i) कई निर्माण क्षेत्रों में सप्लाई चेन के टूटने से उत्पादन बाधित होगा। (ii) पर्यटन, हॉस्पिटेलिटी व विमानन क्षेत्र लगभग ध्वस्त होने की कगार पर हैं। (iii) हेल्थकेयर क्षेत्र के लोगों पर काम के बोझ में अच्छी-खासी बढ़ोतरी। इसके अलावा हर सेक्टर के माइक्रो, छोटे व मध्यम उद्योगों में नगदी के प्रवाह का संकट दिखना शुरू हो गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य सेक्टर प्रभावित नहीं हुए हैं। हालांकि, बैंकिंग और वित्तीय, आईटी और आईटी समर्थ सेवाएं जैसे सेवा सेक्टर्स में कामकाज के लिए डिजिटल प्लेटफार्म के अधिक इस्तेमाल से फायदा मिला है। उन्होंने कर्मचारियों को घर से काम करने की अनुमति देकर जल्द ही खुद को पुनर्स्थापित कर लिया।

हालांकि, इस बिजनेस प्रक्रिया की निरंतरता ने जोखिम से डरने वाले निवेशकों को अपने निवेश पोर्टफोलियो से बाहर निकलकर सुरक्षित हैवन की तलाश का अवसर दे दिया। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फायनांस के अनुमान के मुताबिक इस साल मार्च में उभरते बाजाराें से अप्रत्याशित पूंजी (इक्विटी से 52.4 अरब डॉलर व डेट से 31.0 अरब डॉलर) निकाली गई। पूंजी की इस अप्रत्याशित निकासी का सीधा मतलब है कि भारत के पास उसके चालू खाते के घाटे को मदद के लिए पूंजी खाते का सहारा नहीं होगा। शुक्र है कि कच्चे तेल जैसी वैश्विक जिंस की कीमतों के धराशायी होने और घरेलू आर्थिक गतिविधियों में कम मांग होने कीवजह से पूंजीगत माल का आयात घटने से चालू खाते का घाटा नियंत्रण में रहेगा। हालांकि, पूंजीगत बाजार से धन का निकलना घरेलू उपभोग के लिए खराब खबर है।

अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहा एक अन्य खतरा कृषि सेक्टर से संबंधित है। रबी की फसल पक गई है और इसकी कटाई व समय पर खरीद प्रक्रिया में किसी भी तरह की बाधा किसानों की आय और ग्रामीण मांग के लिए दोहरा झटका होगा। पिछले छह में से तीन सालों में सूखा या सूखे जैसी स्थिति रहने, खाद्यान्न की कीमतों में कमी की वजह से पहले से ही ग्रामीण मांग में भारी कमी आई है। इसके अलावा ग्रामीण घरों की आय के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अत्यधिक निर्भरता का भी ग्रामीण खपत पर असर हुआ है।

कहावत है कि हर संकट नए अवसर भी लाता है। कोविड-19 ने भी ऐसा किया है। कई वैश्विक उत्पादन कंपनियां अपने जोखिम को कम करने के लिए खुद को चीन से बाहर स्थापित करना चाहेंगी। इसके अलावा ऑटोमोबाइल, फार्मास्युटिकल्स, इलेक्ट्रॉनिक और रसायन के क्षेत्र में सप्लाई चेन में आई बाधा से भारतीय उत्पादन सेक्टर के पास इस सप्लाई चेन का हिस्सा बनने का मौका है। हालांकि, इसके लिए व्यापक सरकारी और नीतिगत समर्थन की जरूरत होगी। इससे भारत को किस हद तक लाभ पहुंचेगा, यह अर्थव्यवस्था में सामान्य स्थिति की बहाली की गति और इसके साथ ही भारतीय व्यापार की इस अवसर का लाभ उठाने की क्षमता और उसकी चपलता पर निर्भर करेगा। इसका लाभ उठाना आसान नहीं है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था कम उपभोग व निवेश की कम ग्रोथ से जूझ रही है व साथ वित्तीय तंत्र में दरारें भी नजर आ रही हैं। अगर तेल की कम कीमतें बनी रहती हैं तो यह भारत की वैश्विक प्रतियोगितात्मकता और निर्यात में सुधार कर सकता है। लेकिन बढ़ते संरक्षणवाद और मामूली बाहरी मांग की वजह से इस चैनल से होने वाले लाभ से शटडाउन से हुए नुकसान की पूर्ति शायद ही हो सके।

कोविड-19 व लॉकडाउन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए सरकार व रिजर्व बैंक दोनों ने ही कई उपायों की घोषणा की है। सरकार ने अब तक बिजनेस संबंधित प्रक्रियाओं और अनुपालन को आसान बनाने के साथ ही समाज के सबसे प्रभावित वर्ग के लिए ही घोषणाएं की हैं। दूसरी तरफ रिजर्व बैंक ने तरलता को झोंककर वित्तीय सिस्टम में किसी तरह की तात्कालिक बाधा को टाला है व अनेक नियमों में छूट देकर इसके तनाव को भी कम किया है। ये सभी महत्वपूर्ण कदम हैं, लेकिन संकट की विशालता को देखते हुए बहुत अधिक करने की जरूरत है और अगर इसका अर्थ निर्धारित विवेकपूर्ण मानदंडों और सीमाओं से बाहर जाना है, तो यह है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Government needs to go beyond the prescribed norms and limits




india news

साहित्य रचने वाले प्रशिक्षित डॉक्टर्स

डॉक्टर ऑर्थर कानन डायल का काल्पनिक जासूस पात्र शेरलॉक होम्स 221 बी बेकर स्ट्रीट में रहता है। उपन्यासों की लोकप्रियता इतनी बढ़ी, उपरोक्त पते पर सैकड़ों पत्र आने लगे। लंबे समय तक जासूसी कथाएं लिखने के बाद लेखक ने एक कथा में शरलॉक होम्स की मृत्यु का विवरण लिख दिया। जासूस और अपराधी पहाड़ी पर लड़ते हुए खाई में गिर गए। पाठकों ने विरोध अभिव्यक्त किया, शेरलॉक होम्स कैसे मर सकते हैं? इतना दबाव बना कि लेखक ने नई कथा में लिखा, पहाड़ी से गिरे जासूस खजूर के वृक्ष की डालियों में जा गिरे थे। अस्पताल में उनकी चिकित्सा जारी है।

विरोध करने वाले सभी लोग जानते थे, पात्र काल्पनिक है, फिर भी वे उसे अजर-अमर रखना चाहते थे। पाठकों ने तर्क को स्थगित कर दिया और शेरलॉक होम्स की वापसी हुई। जब ऑर्थर कानन डायल छात्र थे, तब उनके प्रोफेसर नेति-नेति कहकर सत्य तक पहुंचते थे। यह भारतीय विचार था, यह सत्य नहीं और यह भी सत्य नहीं। इस तरह नेति-नेति विधि से सत्य को खोज लेते थे। अंग्रेजी भाषा में इस तरीके को डिडक्शन थ्योरी कहा गया। कॉनन डायल के उपन्यासों से प्रेरित फिल्में बनी हैं और कॉमिक्स भी रचे गए हैं। ऑर्थर कानन डायल ने अपने शिक्षक से डिडक्शन थ्योरी सीखी थी।

पूना में प्रैक्टिस करने वाले डॉ. जब्बार पटेल का फार्म हाउस राज कपूर के फार्म हाउस के निकट था। डॉ. जब्बार पटेल ने ‘जैत रे जैत’ फिल्म निर्देशित की थी, जिसका निर्माण लता मंगेशकर ने किया था। डॉ.जब्बार फिल्म विधा सिखाने की संस्था बनाने का प्रयास कर रहे थे। अंग्रेज उपन्यासकार और नाटककार समरसेट मॉम भी शरीर रोग विज्ञान के डॉक्टर थे। उनके आत्मकथात्मक उपन्यास ‘ऑफ यूमन बांडेज’ से प्रेरित फिल्म भी बनी है। एक दौर में लंदन के बीस नाटकघरों में उनके लिखे नाटक मंचित किए गए थे।

डॉ. समरसेट के सहपाठी रहे डॉक्टर ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। समरसेट मॉम को आश्चर्य हुआ कि उनके मित्र के पास इतना विशाल बंगला है। उनके पूछने पर मित्र डॉक्टर ने बताया, वे इतना बड़ा बंगला उन माताओं की कृपा से बना सके, जिन्हें हमेशा शिकायत रहती थी कि उनके बच्चे यथेष्ठ भोजन नहीं करते।

पं. शिव शर्मा भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू के व्यक्तिगत डॉक्टर रहे और राष्ट्रपति भवन में ही निवास करते थे। कुछ वर्ष बाद उन्होंने मुंबई में परामर्श कक्ष स्थापित किया। खाकसार ने अपने रोग के बारे में बताना चाहा तो उन्होंने रोक दिया। नाड़ी परीक्षण कर बताया, अंतड़ियों में अमीबा ने सिष्ट बना लिया है। तीन चौथाई मोटी सौंफ और एक चौथाई शकर को कूटकर दिन में तीन बार सेवन करने से अंतड़ियों में बने सिष्ट टूट जाएंगे। चार माह तक सेवन से खाकसार उस रोग से मुक्त हो गया।

बंगाल के लेखक ताराशंकर बंधोपाध्याय के उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ में केंद्रीय पात्र एक नाड़ी विशेषज्ञ वैद्य है। आयुर्वेद, रोग की जड़ पर प्रहार करता है। दुर्भाग्यवश हमने लोभ-लालच में वृक्ष काट दिए। वर्तमान में जड़ी-बूटियां उपलब्ध नहीं हैं। कुछ स्थानों पर जंगल रचे जा रहे हैं। भारत की विशाल आबादी के लिए मात्र चार हजार मनोचिकित्सक हैं। डॉक्टर ए.जे. क्रोनिन के उपन्यास ‘द सिटेडल’ से प्रेरित विजय आनंद की फिल्म ‘तेरे मेरे सपने’ के बारे में इसी कॉलम में कुछ दिन पूर्व लिखा जा चुका है।

बंगाल के गवर्नर रहे डॉ. बी.सी. रॉय ने सत्यजीत रॉय को ‘पाथेर पांचाली’ बनाते समय आर्थिक मदद उपलब्ध कराई थी। रोग, राग और रंग सभी के बीच अदृश्य रिश्ता है। एक दौर में वैद्य को कवि कहा जाता था। संभवत: आशय था वैद्य शरीर में स्थित अलंकार एवं छंद को समझता है। मात्राएं और मीटर काव्य शास्त्र के व्याकरण में पढ़ाए जाते हैं। वैद्य को कवि कहकर पुकारे जाने को समझिए ‘प्रेमरोग’ के गीत से- ‘मैं हूं प्रेम रोगी, किसी वैद्य को बुलाओ..।’ मधुमति के गीत पर गौर करें- ‘चढ़ गया पापी बिछुआ, बिछुआ….’ मनुष्य ही सृष्टि का केंद्र है। इसलिए राग-रंग-रोग इत्यादि सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Trained doctors creating literature




india news

लॉकडाउन 2.0 में ‘खलनायक’ से लड़ने को तैयार और ज्यादा ‘नायक’

वर्तमान के ‘खलनायक’ कोरोना वायरस ने इंसानों में त्याग, समर्पण, प्रतिबद्धता, एकजुटता, पहल करना, रचनात्मकता, जरूरत के मुताबिक अपनी भूमिका बदलना जैसे और कई गुण ला दिए हैं। मंगलवार की सुबह प्रधानमंत्री मोदी ने भी लॉकडाउन की अवधि को 3 मई, 2020 तक बढ़ाते समय ‘त्याग’ के बारे में बात की। यहां इससे जुड़े कुछ उदाहरण हैं-

1.राजस्थान में चुरू के कलेक्टर संदेश नायक की पहल ‘गिव अप समथिंग’ (कुछ त्याग दें) लोगों से लॉकडाउन के समय में संयम वाले जीवन को अपनाने का वचन लेने को कहती है। उन्होंने घोषणा की है कि जब तक स्थितियां सामान्य नहीं हो जातीं, वे दोपहर का भोजन छोड़ देंगे। इसके दो प्रभाव हैं। पहला, इससे हम सब की दैनिक जरूरत नियंत्रित होती है और दूसरा, इस पहल के जरिए बचाए गए पैसों को किसी बड़े और बेहतर काम के लिए दान किया जा सकता है।

2.राजस्थान में कोटा के ‘रोजगार उत्थान थेला फुटकर सेवा समिति’ के कम से कम 60 स्वयंसेवकों ने कोटा नगर निगम के 150 वार्डों में से लगभग 23 को सैनिटाइज कर दिया है। ये लोग तकरीबन 20 किलो वजन वाले झोले कंधों पर लेकर कीटाणुनाशक का छिड़काव करते हैं।
3. महाराष्ट्र के पुणे में आग बुझाने वाली सामग्री और उपकरणों को संभालने के लिए प्रशिक्षित किए गए फायरमैन अब गली-गली में जाकर सैनिटाइजर छिड़क रहे हैं।
4. उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले की पल्लवी सिंह अपनी मां, जो एक स्टाफ नर्स हैं, के साथ स्थानीय सरकारी अस्पताल जाती हैं। वहां जाकर, वे स्टाफ डॉक्टरों और नर्सों की मदद के लिए हर संभव काम करती हैं। जब शहर से प्रवासी मजदूर आने लगे तो अस्पताल में अचानक भीड़ बढ़ गई और मास्क की कमी हो गई। यह देख पल्लवी मजदूरों के लिए मास्क बनाकर मदद भी करने लगीं।
5. रिटायर्ड जनरल प्रैक्टिशनर, 69 वर्षीय डॉ. अब्दुल अज़ीज़ ओमान लौटने वाले थे, जहां वे रिटायरमेंट के बाद काम करते हैं। जब वे ओमान लौटने के लिए कोच्चि से निकलने वाले थे, तभी उन्हें इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से फोन आया और उनसे पूछा गया कि क्या वह टेलीमेडिसिन वॉलंटियर (फोन पर इलाज संबंधी सलाह देने वाले) के रूप में काम करना चाहते हैं। उन्होंनेे तुरंत हां कह दिया। हर तीन से पांच मिनट में वह चिंतित लोगों के कॉल का जवाब देकर लोगों को अस्पतालों में भीड़ बढ़ाने से रोक रहे हैं।
6.शिखा मल्होत्रा पेशे से अभिनेत्री हैं। फिल्म ‘फैन’ में सहायक कलाकार के रूप में काम कर चुकी हैं। वे 27 मार्च के बाद से, वे मुंबई में ‘बाला साहेब ठाकरे ट्रॉमा केयर अस्पताल’ में आइसोलेशन वार्ड में बतौर नर्स सेवा दे रही हैं।
7. ‘बिग बास्केट’ आपके लिए एक जाना माना नाम हो सकता है। लेकिन कुछ कम मशहूर एप्स भी हैं। जैसे ‘मायबास्केट’, जो चेन्नई स्थित एक स्टोर के मालिक महेश द्वारा बनाया गया एक एप है। शुरुआत में वे वॉट्सएप पर ऑर्डर ले रहे थे। मांग बढ़ने पर उन्होंने खुद की एप बनाने का निर्णय लिया। कोच्चि की ‘QBurst’ टेक्नोलॉजीज ने ‘PiQup’ एप बनाया है, जो लोगों को अपने इलाके में अपनी इच्छानुसार किसी भी दुकान में ऑर्डर देने और पिकअप के लिए टाइम चुनने की सुविधा देती है।
फंडा यह है कि अब 3 मई तक लॉकडाउन का समय बढ़ गया है। ऐसे में कोरोना वायरस ‘खलनायक’ से लड़ने के लिए और भी ज्यादा ‘नायकों’ के लिए जगह बन गई है। क्या आप तैयार हैं?



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
More 'heroes' ready to fight 'villains' in Lockdown 2.0




india news

देश की आधी आबादी इलाज के लिए यहीं आती है, लेकिन लॉकडाउन में या तो ये बंद हैं या घंटे-दो घंटे ही खुल रही हैं

देश में लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ा दिया गया है। वैसे तो इस लॉकडाउन से छूट मिलनेवाली जरूरी सर्विसेस में मेडिकल से जुड़े काम सबसे ऊपर आते हैं, फिर भी देश के कई हिस्सों में स्वास्थ्य के प्राइवेट इलाज पर खास असर पड़ा है।

कई हिस्सों में प्राइवेट अस्पताल बंद हैं और अगर खुल भी रहे हैं तो सिर्फ कुछ घंटों के लिए। इमरजेंसी से इतर जो भी ऑपरेशन थे उन्हें अनिश्चित समय के लिए टाल दिया गया है। प्राइवेट क्लीनिक के डॉक्टर मिलने की जगह वॉट्सएप या फोन पर दवा और इलाज देना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।

आधी आबादी प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर

देश में प्राइवेट अस्पताल का खुलना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि देश की आधी से ज्यादा आबादी बीमार होने पर इन्हीं अस्पतालों में इलाज करवाती है। 2015-16 केनेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, शहरी इलाकों की 56% और ग्रामीण इलाकों की 49% जनसंख्या तबियत बिगड़ने पर सबसे पहले प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक का ही रुख करती है।

जयपुर:लोग फोन पर ही दवा पूछ रहे

राजस्थान के जयपुर में एक हजार से ज्यादा प्राइवेट क्लीनिक हैं। लॉकडाउन के चलते इसमें से 90% क्लीनिक चालू तो हैं, लेकिन बमुश्किल कुछ घंटे ही काम कर रहेहैं।परकोटे के किशनपोल बाजार में 40 साल से क्लीनिक चला रहे डॉ. वासुदेव थावानी बताते हैं किकर्फ्यू की वजह से वे एक शिफ्ट में तीन घंटे ही क्लीनिक खोल रहे हैं। पहले उनकी क्लीनिक पर दो शिफ्ट में 100 से ज्यादा मरीज आते थे। लेकिन, अब 20 मरीज ही आ रहे हैं। डॉ. थावानी के मुताबिक, छोटी-मोटी चोट या बीमारी में मरीज आसपास के मेडिकल स्टोर से दवा ले रहे हैं या घरेलू उपचार ही कर रहे हैं। कुछ लोग फोन पर दवा पूछ लेते हैं।

कोरोना के डर से अब क्लीनिक में गिनती के मरीज ही आ रहे हैं। पहले रोजाना 100 से 150 मरीज आते थे।

पानीपत: मरीजों की संख्या न के बराबर

हरियाणा के पानीपत में 130 प्राइवेट अस्पताल हैं। इनमें से 80 अस्पतालों में ओपीडी चल रही है लेकिन, मरीजों की संख्या न के बराबर है। प्रवीण कुमार पत्नी को दवा दिलवाने लेकर गए थे। यहां गेट पर ही उनसे कह दिया कि खांसी-जुकाम या गले में दर्द है तो सिविल अस्पताल जाएं। हालांकि, प्रवीण को पत्नी के लिए पेट दर्द की दवा चाहिए थी।कमलेश हार्ट पेशेंट हैं। उन्हें चेकअप के लिए अस्पताल जाना था लेकिन नहीं गए। उन्होंने पूरे महीने की दवाई मंगा ली हैं।अस्पताल और अच्छे क्लीनिक बंद होने काउसका फायदाझोलाछाप डॉक्टर उठा रहे हैं। छोटी मोटी बीमारी के लिए मरीज इनके पास ही जा रहे हैं।

मुंबई: बीएमसी ने 20 क्लीनिक को नोटिस दिया
महाराष्ट्र में कर्फ्यू लगने के 2-3 दिन बाद क्लीनिक और प्राइवेट नर्सिंग होम बंद होने की शिकायत मिली थी। इसके बाद बीएमसी ने महानगर के 20 क्लीनिक को एपिडेमिक डिसीज एक्ट का उल्लंघन करने के आरोप में नोटिस भेजा था। इसके बाद मुंबई, पुणे, औरंगाबाद और नागपुर में सभी क्लीनिक खुल रहे हैं।आईएमए महाराष्ट्र के अध्यक्ष डॉ. अविनाश भोंडे का कहना है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वालों को पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) नहीं मिल रहे हैं। जिस वजह से डॉक्टर क्लीनिक खोलने में डर रहे हैं।

चंडीगढ़/मोहाली: 85% अस्पतालों की ओपीडी बंद
पंजाब के साढ़े सात हजार प्राइवेट अस्पतालों में से 85% अस्पतालों की ओपीडी बंद है। इस वजह से गायनिक, अस्थमा, ऑर्थो और किडनी जैसे मरीजों को काफी परेशानियां हो रही हैं। प्राइवेट क्लीनिक में डॉक्टर अपने पुराने मरीजों को ही देख रहे हैं। यहां इमरजेंसी सेवा तो चालू है, लेकिन उसकी फीस 500 रुपए से ज्यादा है। ऐसे में डॉक्टर इमरजेंसी फीस लेकर ओपीडी में ही चेकअप कर रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने निर्देश दिए हैं कि अगर अस्पतालों ने ओपीडी नहीं खोली, तो उनका लाइसेंस रद्द किया जाएगा।यहां केडॉ. नरेश बाठला का कहना है कि मौसम बदलने से सर्दी-खांसी, जुकाम हो रहा है। ऐसे में लोगों को लग रहा है कि कहीं कोरोना तो नहीं हो गया, लेकिन सही डॉक्टरी सलाह नहीं मिलने से मरीज परेशान हो रहे हैं।

लॉकडाउन के बाद से ही ज्यादातर क्लीनिक बंद हैं। डॉक्टरों ने दरवाजे पर ही क्लीनिक बंद है का पोस्टर लगा दिया है।

रायपुर: क्लीनिक बंद होने के नोटिस लगाए
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के ज्यादातर इलाकों में प्राइवेट क्लीनिकबंद हैं। डॉक्टरों ने गेट पर ही ‘क्लीनिक बंद है’ का नोटिस चस्पा कर दिया है। यहां बच्चों के डॉ. अशोक भट्ट की क्लीनिक खुली तो है, लेकिन उनकी जगह उनके असिस्टेंट ही मरीजों को देख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश: भीड़ टालने की कोशिश की जा रही
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में बच्चों को टीके लगाने के दौरान भीड़ न जमा हो इसके लिए माता-पिता को अलग-अलग दिन बुला रहे हैं। यही नहीं जिन डॉक्टरों की उम्र 50 साल से ज्यादा है, वे भी अस्पताल या क्लीनिक आना टाल रहे हैं।

पटना: लॉकडाउन के कारण नहीं आ रहे मरीज

बिहार में पटना के 90 फीट के पास डॉ. शैलेष कुमार के क्लीनिक पर वैशाली, समस्तीपुर, मुजफ्फरनगर जैसे जिलों से मरीज आते थे, लेकिन लॉकडाउन के कारण कोई नहीं आ रहा। डॉ. ने लॉकडाउन तक क्लीनिक ही बंद कर दिया है। वहीं डॉ. सीपी शुक्ला कहते हैं कि हम डॉक्टरों को मरीजों से कोरोना का डर भी सता रहा है। इसलिए क्लीनिक बंद रखा है।

भोपाल: वीडियो कॉल के जरिए दे रहे परामर्श
मध्य प्रदेश के भोपाल के डॉ. योगेश के मुताबिक, डॉक्टर्स वॉट्सऐप पर वीडियो कॉल के जरिए मरीजों से बात कर रहे हैं और उन्हें दवाएं दे रहे हैं। वहीं कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित इंदौर में हालात ये हैं कि प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों को दरवाजे से ही लौटा दिया जा रहा है।अस्पतालों को रेड, ग्रीन और येलो जोन में बांट दिया है। आईएमए इंदौर के अध्यक्ष डॉ. संजय लोंढे के मुताबिक, येलो कैटेगरी के अस्पतालों में डॉक्टर्स ही नहीं हैं। कई बार मरीजों को सर्दी-खांसी, जुकाम होने पर भी कोविड-19 अस्पताल भेज दिया जा रहा है।


इनपुट :जयपुर से विष्णु शर्मा, पानीपत से मनोज कौशिक, चंडीगढ़/मोहाली से लखवंत सिंह, रायपुर से सुमन पांडेय, वाराणसी से अमित मुखर्जी और लखनऊ से आदित्य तिवारी, रांची से गुप्तेश्वर कुमार, जालंधर से बलराज मोर,पटना से विवेक कुमार, भोपाल से नवीन मिश्रा और पुणे से आशीष राय।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Half of the country's population comes here for treatment, but they are either closed in lockdown or are opening hours only.




india news

कोरोना वायरस के बाद की दुनिया...

मानव के सामने यह बड़ा संकट है। तूफान गुज़र जाने के बाद हम कैसी दुनिया में रहेंगे। हममें से ज्यादातर जिंदा रहेंगे, लेकिन बदली हुई दुनिया में रह रहे होंगे। इमरजेंसी में उठाए गए बहुत सारे कदम जिंदगी का हिस्सा बन जाएंगे। यह इमरजेंसी की फितरत है। वह ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की गति को तेज कर देती है। ऐसे फैसले जिन पर वर्षों तक विचार-विमर्श चलता है, वे कुछ घंटों में हो जाते हैं। ऐसे समय सारे देशों के नागरिक विशाल सामाजिक प्रयोगों के लिए गिनीपिग का काम करते हैं।

मसलन, क्या होगा जब सब घर से काम करेंगे और सिर्फ दूर से संवाद करेंगे? क्या होगा जब सारे स्कूल और विश्वविद्यालय ऑनलाइन हो जाएंगे? सामान्य दिनों में सरकारें, बिजनेस और संस्थान ऐसे प्रयोगों के लिए तैयार नहीं होंगे, लेकिन यह सामान्य समय नहीं है। हमें दो चुनाव करने हैं। पहला तो हमें सर्वाधिकार संपन्न निगरानी व्यवस्था (सर्विलांस राज) और नागरिक सशक्तीकरण में से एक को चुनना है। दूसरा चुनाव हमें राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच करना है।

महामारी रोकने के लिए सबको तय नियमों का पूरी तरह पालन करना होता है। इसे पाने के दो मुख्य तरीके हैं। पहला, सरकार लोगों की निगरानी करे और जो लोग नियम तोड़ें उन्हें दंडित करे। आज मानवता के इतिहास में तकनीक ने इसे पहली बार संभव बना दिया है कि हर नागरिक की हर समय निगरानी की जा सके। अब इंसानी जासूस की ज़रूरत नहीं, हर जगह मौजूद सेंसरों, एल्गोरिद्म और कैमरों पर सरकारें निर्भर हो सकती हैं। सबसे खास मामला चीन का है। लोगों के स्मार्ट फोन की निगरानी करके, लाखों-लाख कैमरों से चेहरे पहचानने की तकनीक का इस्तेमाल करके, और लोगों के शरीर का तापमान व मेडिकल स्थिति की जानकारी लेकर चीन ने तेजी से संक्रमितों की पहचान की।

इजरायल ने संक्रमण रोकने के लिए उस निगरानी तकनीक के इस्तेमाल का आदेश दिया है, जो अब तक आतंकवाद से लड़ने में इस्तेमाल हो रही थी। हाल के वर्षों में सरकारें और बड़ी कंपनियां लोगों पर नजर रखने, निगरानी और प्रभावित करने के लिए अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती रही हैं। अब तक तो यह होता है कि जब आपकी अंगुली स्मार्टफोन से एक लिंक पर क्लिक करती है तो सरकार जानना चाहती है कि आप क्या देख-पढ़ रहे हैं। लेकिन, कोरोना वायरस के बाद अब इंटरनेट का फोकस बदल जाएगा। अब सरकार आपकी अंगुली का तापमान और चमड़ी के नीचे का ब्लड प्रेशर भी जानने लगेगी।

मान लीजिए कि कोई सरकार अपने नागरिकों से कहे कि सभी लोगों को एक बायोमीट्रिक ब्रेसलेट पहनना अनिवार्य होगा, जो शरीर का तापमान और दिल की धड़कन को मॉनिटर करता रहेगा। यह डेटा सरकारी एल्गोरिद्म में जाएगा और उसका विश्लेषण होगा। आपको पता लगने से पहले ही सरकार को मालूम होगा कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है, उन्हें यह भी पता होगा कि आप कहां-कहां गए और किस-किस से मिले। इससे संक्रमण की चेन को तोड़ा जा सकेगा। यह सिस्टम किसी महामारी को कुछ ही दिनों में रोक सकता है। सुनने में अच्छा लगता है, सही है न? अब खतरे को समझिए, यह एक डरावने निगरानी तंत्र को वैधता दे देगा। मिसाल के तौर पर, अगर किसी को यह पता हो कि मैंने फॉक्स न्यूज़ की जगह सीएनएन पर क्लिक किया है तो वह मेरे राजनीतिक विचारों और कुछ हद तक मेरे व्यक्तित्व को भी समझ जाएगा। आप एक वीडियो क्लिप देखने के दौरान मेरे तापमान, ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट की निगरानी कर रहे हैं तो आप जान सकते हैं कि मुझे किन बातों पर गुस्सा, हंसी या रोना आता है।

यह याद रखना चाहिए कि बुखार और खांसी की तरह गुस्सा, खुशी, बोरियत और प्रेम एक जैविक प्रक्रिया हैं। जो तकनीक खांसी का पता लगा सकती है, वही हंसी का भी। अगर सरकारों और बड़ी कंपनियों ने हमारा डेटा जुटाना शुरू कर दिया तो वे हमारे बारे में हमसे बेहतर जानने लगेंगे। वे न केवल हमारी भावनाओं का अंदाजा लगा पाएंगे, बल्कि प्रभावित कर हमें जो चाहें बेच पाएंगे, चाहे वह उत्पाद हो या कोई राजनेता। बायोमीट्रिक मॉनिटरिंग के बाद कैम्ब्रिज एनालिटिका की डेटा हैकिंग तो पाषाण युग की तकनीक लगेगी। कल्पना कीजिए, उत्तर कोरिया में 2030 तक अगर हर नागरिक को 24 घंटे बायोमीट्रिक ब्रेसलेट पहनना हो तो। महान नेता का भाषण सुनने के बाद जिनका ब्रेसलेट बताएगा कि उन्हें गुस्सा आ रहा था, उनका तो काम तमाम हो जाएगा।

आप कह सकते हैं कि बायोमीट्रिक सर्विलांस इमर्जेंसी से निपटने की अस्थायी व्यवस्था है। इसे हटा दिया जाएगा। लेकिन, अस्थायी व्यवस्थाओं की एक गंदी आदत होती है कि वे इमर्जेंसी के बाद भी बनी रहती हैं। इजरायल में 1948 में आजादी की लड़ाई के दौरान इमर्जेंसी की घोषणा हुई थी, जिसके तहत प्रेस सेंसरशिप से लेकर पुडिंग बनाने के लिए लोगों की जमीन जब्त करने तक बहुत सारी अस्थायी व्यवस्थाएं की गई थीं। जी, पुडिंग बनाने के लिए, मैं मजाक नहीं कर रहा। आज़ादी की लड़ाई कब की जीती जा चुकी है, लेकिन इजरायल ने कभी नहीं कहा कि इमर्जेंसी खत्म हो गई है। 1948 के अनेक अस्थायी कदम अब तक लागू हैं, उन्हें हटाया नहीं गया। शुक्र है कि 2011 में पुडिंग बनाने के लिए जमीन छीनने का कानून खत्म किया गया।

जब कोरोना का संक्रमण पूरी तरह खत्म हो जाएगा तो भी डेटा की भूखी कुछ सरकारें बायोमीट्रिक सर्विलांस इस आधार पर जारी रखने को कह सकती हैं कि उन्हें डर है कि कोरोना वायरस का दूसरा दौर आ सकता है या अफ्रीका में इबोला फैल रहा है, या कुछ और...आप समझ सकते हैं। हमारी निजता को लेकर एक बहुत जोरदार लड़ाई पिछले कुछ सालों से छिड़ी हुई है। कोरोना संक्रमण निर्णायक मोड़ हो सकता है, जब लोगों को निजता और स्वास्थ्य में से एक को चुनना पड़ा तो जाहिर है कि वे स्वास्थ्य को चुनेंगे। दरअसल, सेहत और निजता में से एक को चुनने के लिए कहना ही समस्या की जड़ है। क्योंकि, यह सही नहीं है। हम निजता और सेहत दोनों एक साथ पा सकते हैं। हम सर्वाअधिकार संपन्न निगरानी व्यवस्था को लागू करके नहीं, बल्कि नागरिकों के सशक्तीकरण से कोरोना वायरस का फैलना रोक सकते हैं।

कोरोना का फैलाव रोकने के मामले में दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर ने अच्छी मिसालें पेश की हैं। इन देशों ने व्यापक पैमाने पर टेस्ट कराए हैं, ईमानदारी से जानकारी दी है, सजग जनता का सहयोग लिया। जब लोगों को वैज्ञानिक तथ्य बताए जाते हैं, जब लोग यकीन करते हैं कि अधिकारी सच बोल रहे हैं तो वे अपने-आप सही कदम उठाते हैं। मिसाल के तौर पर साबुन से हाथ धोना। यह मानव के साफ-सफाई के इतिहास की एक बड़ी प्रगति है। 19वीं सदी के वैज्ञानिकों ने साबुन से हाथ धोने की अहमियत को ठीक से समझा। आज अरबों लोग रोज साबुन से हाथ धोते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें पुलिस का डर है, बल्कि वे तथ्यों को समझते हैं।

सर्विलांस राज की जगह, विज्ञान, सरकारी संस्थानों और मीडिया में जनता के विश्वास को बहाल करने के लिए काम होना चाहिए। हमें नई तकनीक का निश्चित ही इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन इनसे नागरिकों को ताकत मिलनी चाहिए। मैं अपने शरीर का ताप और ब्लड प्रेशर मापे जाने के पक्ष में हूं, लेकिन उस डेटा का इस्तेमाल सरकार को सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नहीं होना चाहिए।

अब दूसरा अहम चुनाव, हमें राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच करना है। यह महामारी और उसका अर्थव्यवस्थाओं पर असर एक वैश्विक संकट है। जिसे वैश्विक सहयोग से ही मिटाया जा सकेगा। सबसे पहले तो वायरस से निपटने के लिए दुनियाभर के देशों को सूचना का आदान-प्रदान करना होगा। अमेरिका का कोरोना वायरस और चीन का कोरोना वायरस एक दूसरे को यह नहीं बता सकते कि लोगों के शरीर में कैसे घुसा जाए। लेकिन चीन, अमेरिका को कुछ उपयोगी बातें बता सकता है। इटली में डॉक्टर सुबह खोज करता है, वह शाम तक तेहरान में लोगों की जान बचा सकती है।

अगर ब्रिटेन की सरकार असमंजस में है तो वह कोरिया से बात कर सकती है, जो ऐसे ही दौर से गुजरा है। लेकिन ऐसा होने के लिए वैश्विक सहयोग और विश्वास की भावना होनी चाहिए। विनम्रता से सलाह मांगनी होगी। अपने देश में ही उत्पादन करने और उपकरणों को जमा करने की कोशिश की जगह, समन्वय के साथ किया गया वैश्विक प्रयास अधिक कारगर होगा। जैसे कि लड़ाइयों के समय दुनिया के देश अपने उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर देते हैं, वैसे कोरोना से मानव की लड़ाई के दौरान जरूरी चीजों के उत्पादन को मानवीय बनाना चाहिए।

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी वैश्विक सहयोग की जरूरत है। अर्थव्यवस्था व सप्लाई चेन की वैश्विक प्रकृति को देखते हुए अगर हर देश अपने हिसाब से चलेगा तो संकट और गहराता जाएगा। लेकिन अफसोस दुनिया भर की सरकारें एक सामूहिक लकवे की सी हालत में हैं। सबसे अमीर सात देशों के नेताओं की आपात बैठक पिछले माह टेली-कॉन्फ्रेंसिंग से हुई है, जिसमें ऐसा कोई प्लान सामने नहीं रखा गया, जिससे दुनिया एकजुट होकर कोरोना से लड़ सके। 2008 के आर्थिक संकट में अमेरिका ने वैश्विक लीडर की भूमिका निभाई थी, लेकिन इस बार अमेरिकी नेतृत्व ने इसे टाल दिया है। ऐसा लग रहा है कि मानवता के भविष्य से अधिक उसे अमेरिका की महानता की चिंता है।

अमेरिकी प्रशासन ने अपने सबसे निकट साझीदारों को भी छोड़ दिया है। अगर अब भी अमेरिका का मौजूदा प्रशासन एक वैश्विक कार्ययोजना के साथ आगे आता है तो बेहतर होगा। लेकिन अगर अमेरिका द्वारा छोड़े गए खालीपन को कोई अन्य देश नहीं भरता है तो न केवल महामारी को रोकना अधिक कठिन होगा, बल्कि इसकी छाया आने वाले सालों तक अंतरराष्ट्रीय संबंधों को जहरीला करती रहेगी। हमें चुनना है कि हम अलगाव की तरफ जाएंगे या वैश्विक एकजुटता के मार्ग पर? अगर हम अलगाव को चुनेंगे, तो यह न केवल संकट को लंबा करेगा, बल्कि भविष्य में भी इससे भी खतरनाक संकट आएंगे। लेकिन हम वैश्विक एकजुटता को चुनते हैं तो यह न केवल कोरोना के खिलाफ हमारी बड़ी जीत होगी, बल्कि हम भविष्य के संकटों से निपटने के लिए मज़बूत होंगे, ऐसे संकट जो 21वीं सदी में मानव का अस्तित्व ही मिटा सकते हैं।-(फायनेंशियल टाइम्स से साभार )



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
लेखक- युवाल नोआ हरारी (बेस्टसेलर किताब ‘सेपियंस’ के लेखक, हिब्रू यूनिवर्सिटी, इजरायल में प्रोफेसर)




india news

सख्त उपायों के साथ आर्थिक पहिए को चलाने की कोशिश

लॉकडाउन-2 के लिए जारी गाइडलाइन की खास बात है कोरोना महामारी के खतरे पर अंकुश पाने के सख्त उपाय के साथ ही देश के आर्थिक पहिए को चलाने का महत्वपूर्ण कदम उठाना। इन कदमों में कृषि संबंधित सभी गतिविधियां शुरू करना, उपज खरीद के लिए मंडियां चालू करना, किसानों की सुविधा के लिए स्थानीय स्तर पर ही राज्य सरकारों द्वारा खरीद के बंदोबस्त करना, मछली, दूध और पॉल्ट्री उद्योग में उत्पादन और विक्रय सहज करना मुख्य हैं।

विनिर्माण और औद्योगिक गतिविधियों को भी कुछ शर्तों के साथ खोलने की अनुमति दी गई है। मुख्य शर्त है सामाजिक दूरी और संक्रमण रोकने के लिए स्वच्छता का पूरा अनुपालन। उद्योगों को स्थानीय तौर पर उपलब्ध मजदूरों को ही काम पर लेने का सीधा मतलब है कि वे लाखों मजदूर जो लॉकडाउन के दौरान अपने मूल निवास के लिए पलायन करने के प्रयास में आश्रय गृहों या क्वारंेटाइन में दिन काट रहे हैं, उनके लिए फिलहाल कोई राहत नहीं है।

इस विस्तृत गाइडलाइन में कहीं भी इन लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए किसी भी राहत का जिक्र न होना सरकार की मजबूरी भी है, क्योंकि इन्हें एक ही राहत चाहिए अपने मूल गांव पहुंचना। संक्रमण का प्रसार देखते हुए इन्हें गांव नहीं भेजा जा सकता, क्योंकि सरकार अपने 22 दिन के प्रयासों पर पानी नहीं फेरना चाहती। दूसरी ओर, क्वारंेटाइन सेंटर्स में असुविधा और भविष्य की चिंता में इन मजदूरों का क्रोध बढ़ता जा रहा है। बच्चों और महिलाओं की असुविधा को लेकर यह क्रोध रोजाना पुलिस-मजदूर झड़प के रूप में दिख रहा है।

बड़े शहरों में ये अधिकांश मजदूर सेवा क्षेत्र में लगे हैं और इन्हें फिलहाल वापस काम पर भेजना नामुमकिन है। लेकिन, वे मजदूर जो विनिर्माण या उद्योगों से जुड़े थे और मालिकों/ठेकेदारों ने भगा दिया, उनके लिए सरकार नए आदेश के तहत दी गई ढिलाई के साथ ही मालिकों को इन्हें रखने का आदेश दे सकती थी।

भोजन के पैकेट के लिए रोज तीन बार लाइन में पत्नी और बच्चों को लेकर खड़ा होना भी उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता है जो सामूहिक गुस्से में प्रकट होता है। 24 अप्रैल से रमजान शुरू हो रहे हैं और गाइडलाइन के अनुसार समूह में जमा होकर धार्मिक कार्य करने पर सख्त पाबंदी है। उधर, 50 मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अरब देशों का हवाला देते हुए मुस्लिमों को घर पर ही इबादत की सलाह दी है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Trying to drive the economic wheel with strict measures




india news

अभी घर में रहना भी राष्ट्र के प्रति समर्पण

देखना प्रसाद कहीं गर्म न हो जाए। हम भारतीयों को प्रसाद का अलग ही स्वाद है। लगातार नए-नए शब्द हमारे जीवन में उतर रहे हैं। शब्द तो पुराने हैं, लेकिन जिन हालात में इस वक्त जिंदगी से जुड़ रहे हैं, नए लगते हैं। लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंसिंग, क्वारेंटाइन को अभी हम समझ ही रहे थे कि प्रसाद के रूप में एक शब्द और आ जाता है, हॉटस्पॉट।

प्रधानमंत्री कह गए हैं इससे दूर रहना और इसको बनाने से बचना। चलिए फिर प्रसाद पर आ जाएं। अन्न जब पकता है तो भोजन बनता है। भोजन जब देव को चढ़े तो भोग हो जाता है। भोजन जब वितरित होता है तो प्रसाद बन जाता है। लेकिन यदि गर्म प्रसाद आपकी हथेली पर रख दिया जाए तो न खाते बनता है न फेंकते। हॉटस्पॉट ऐसा ही प्रसाद होगा। अन्न बाहर से लाना होता है, यानी सोशल डिस्टेंसिंग। भोजन बनाने की प्रक्रिया में स्वच्छता रखिए। और भोग यानी अपनी सेवा का समर्पण।

परिवार, समाज, राष्ट्र के प्रति सबसे कठिन सेवा, समर्पण यह होगा कि घर में रहें। जहां हों, वहीं रहें। उन योद्धाओं को अपना काम करने दें, जिनके प्राण अब बाजी पर लग गए हैं। ऐसे भोजन के बाद जो प्रसाद आएगा, वह बांटने और खाने योग्य होगा। प्रसाद को हमारे यहां वरदान भी कहा गया है। अगर प्रसाद हॉट रह गया तो यह वरदान नहीं शाप का स्पॉट हो जाएगा। इस नए शब्द को इस समय चुनौती मान लीजिए। अपने क्षेत्र और जीवन में इसे जगह मत दीजिए।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Dedication to the nation




india news

जंगल है तो सब मंगल है

कोरोना कालखंड का असर मवेशियों पर पड़ रहा है। उनकी देखभाल नहीं की जा रही है। घर के बाहर दो रोटी गाय के लिए छोड़े जाने की परंपरा है। गाय के साथ ही कुत्तों के लिए भी कुछ रखा जाता था। कल रात खाकसार के कम्पाउंड में एक कुत्ता घुस आया। उसे भगाने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो रहा था। जब उसे खाने के लिए कुछ भोजन दिया गया तब वह कम्पाउंड से बाहर गया। राज कपूर की ‘आवारा’ के एक दृश्य में बेरोजगार नायक स्ट्रीट लैम्प के नीचे बैठ जाता है। एक कुत्ता उसके पास आता है, जिसे वह अपनी गोद में बिठाकर कहता है- ‘दोस्त तुम्हें देने के लिए मेरे पास प्यार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सुविधाओं से वंचित मनुष्य को समाज का ‘अंडरडॉग’ कहा जाता है। इस तरह एक ही बिंब में फिल्मकार ने समानता विहीन समाज का दर्द प्रस्तुत कर दिया।

फिल्मकार विकास बहल ने ऋतिक रोशन अभिनीत ‘सुपर 30’ बनाई थी। इसके पूर्व वे ‘क्वीन’ बना चुके थे। उनकी फिल्म ‘चिल्लर पार्टी’ में एक रहवासी कम्पाउंड में एक अनाथ बालक अपने कुत्ते के साथ आता है। रहवासी साधन संपन्न परिवार के बच्चों और अनाथ बालक तथा उसके कुत्ते के बीच आपसी प्रेम और करुणा का रिश्ता बन जाता है। एक मंत्री फतवा जारी करता है कि आवारा पशुओं को पकड़ा जाए। मंत्र जी को स्वच्छता अभियान चलाए रखना है। दरअसल उनके हर कार्य के पीछे एक मात्र उद्देश्य अपनी लोकप्रियता को बढ़ाना मात्र है।

बहरहाल, मंत्री बनाम बच्चे संग्राम रहवासी कम्पाउंड से प्रारंभ होकर सड़क से होते हुए टीवी स्टूडियो तक जा पहुंचता है। मंत्री जी कुछ प्रश्न पूछते हैं और बच्चे उनका यथेष्ठ जवाब अपनी पाठ्यक्रम की पुस्तकों की मदद से देते हैं। बच्चे मंत्री जी को उन्हीं के अखाड़े में उन्हीं के दांव से चित कर देते हैं। अनाथ बालक कहता है कि उसे इस बात से कष्ट होता है कि वह स्कूल जाकर शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाया, परंतु पढ़े-लिखे लोगों की संकीर्णता देखकर उसे लगता है कि अच्छा ही हुआ कि वह पढ़-लिख नहीं पाया। याद आती है निदा फाजली की बात, जिसका आशय यह है कि ‘दो-चार किताबें बांचकर बच्चे हमारी-तुम्हारी तरह हो जाएंगे। वे भी संकीर्णता के चक्रव्यूह में फंस जाएंगे।’

अमेरिका में एक एनिमल स्टूडियो है। फिल्मकार अपनी पटकथा स्टूडियो भेजते हैं, जहां आवश्यकता के अनुसार जानवरों को प्रशिक्षित करके शूटिंग के लिए भेजा जाता है। दक्षिण भारत में चिनप्पा देवर देवर नामक व्यक्ति भी पशुओं को प्रशिक्षित करता था। उसे मवेशियों से प्रेम था। उसने ‘हाथी मेरे साथी’ बनाई, जिसकी पटकथा पर सलीम-जावेद ने रंदा मारकर चमकाया। चिनप्पा देवर देवर ने जया बच्चन अभिनीत फिल्म ‘गाय और गौरी’ का निर्माण किया।

‘इरमा-ला-डूज’ से प्रेरित फिल्म ‘मनोरंजन’ का नायक रोजगार पाने के लिए पुलिस के कुत्ते के प्रशिक्षण में भाग लेता है। शिकारी कुत्ते उसका पीछा करते हैं। बचाव के साधन के बावजूद उसके शरीर पर खरोंच आ जाती है। उसकी प्रेमिका इन खरोंचों के कारण उस पर संदेह करने लगती है। संजीव कुमार ने इसमें प्रभावोत्पादक अभिनय किया था। अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म ‘सोल्जर इन नेवर ऑन हॉलीडे’ में नायक घायल बर्खास्त कुत्ते को पालता है। एक प्रकरण में कुत्ते की सहायता से वह अपराधियों को दंडित करता है।
राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘जंगल’ हाथी दांत को विदेशों में बेचने वाले अपराधियों की कथा थी। हीरों के बाद सबसे अधिक मूल्यवान हाथी के दांत होते हैं। ‘जंगल’ हाथी दांत तस्कर वीरप्पन का अनधिकृत बायोपिक थी। ज्ञातव्य है कि इंदौर-रतलाम मार्ग पर केसूर ग्राम के निकट संजय सिसोदिया ने सीमित क्षेत्रफल में जंगल का विकास किया है। कालांतर में रतलाम की हवा में कार्बन डाइऑक्साइड घटेगी और पूरे शहर को लाभ मिलेगा। मनुष्य के लोभ-लालच ने जंगल नष्ट कर दिए, पर्वतों को श्रीहीन कर दिया। ‘द अर्थ व्ही प्लडर्ड’। यह संभव है कि निम्न पंक्तियां सरोज कुमार के सतना के मित्र कवि अनूप अशेष ने लिखी हों। मेरी स्मृति हाथी की तरह नहीं है। मुझसे छीनकर ले गई इक्कीसवीं सदी एक जंगल, एक पहाड़ और एक बहती हुई नदी।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
If there is a jungle everything is mars




india news

इस लॉकडाउन के दौरान बस आपका जज़्बा मायने रखता है

मंगलवार का दिन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन 2.0 पर बड़ी बहस के साथ खत्म हो रहा था, तभी एक और विषय पर बहस शुरू हो गई। यह विषय था मुंबई के बांद्रा स्टेशन के बाहर अनधिकृत रूप से जमा हुई हजारों प्रवासी मजदूरों की भीड़। एक न्यूज चैनल का तर्क था, ‘आप 10 बाय 10 के कमरे में इतने सारे लोगों से कई दिनों तक बंद रहने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?’ उस समय मुझे ये तर्क सही लगा, क्योंकि आप सभी की तरह मैं भी एक ठीक-ठाक बड़े फ्लैट में रहता हूं। लेकिन तभी मुझे कर्नाटक के दो व्यापारियों की कहानी याद आई, जो हममें से ज्यादातर लोगों से ज्यादा अमीर हैं।

वे दोनों लॉकडाउन 1.0 की घोषणा से ठीक पहले अपनी कार से काम के सिलसिले में राजकोट गए थे और तब से उसी कार में रह रहे हैं। वह कार जो उस कमरे से भी ज्यादा छोटी होगी, जिसके बारे में टीवी चैनल की बहस में बात हो रही थी। कर्नाटक के पुत्तुर तालुक के आशिक हुसैन और मोहम्मद थकीन अपने भविष्य के बिजनेस के लिए बाजार का जायजा लेने राजकोट गए थे। जैसे ही कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने लगा, उन्होंने लौटने का फैसला किया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। वापसी पर उनकी कार को देशभर में लॉकडाउन के कारण गुजरात-महाराष्ट्र सीमा पर भिलाड़ चेक पोस्ट में अम्बरगांव में रोक दिया गया। किसी लॉज में कोई कमरा खाली नहीं था, इसलिए वे इतने दिनों तक कार में ही सोए।


एक और शख्स, जिसके अंदर ऐसा ही जज़्बा था, वे हैं 60 वर्षीय एके अरुणाचलम, जो दृष्टिहीन हैं। करीबन 30 साल पहले अरुणाचलम ने ऑल इंडिया ब्लाइंड प्रोग्रेसिव एसोसिएशन नाम के एक एनजीओ की स्थापना की, जो तमिलनाडु में दृष्टिहीन और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों की बेहतरी के लिए काम करता है। आमतौर पर लोग दान करते थे और उनका संगठन वही कर रहा था जो उसे करना चाहिए। लेकिन लॉकडाउन ने उन्हें, उनकी पत्नी गीता और उनके मानसिक रूप से कमजोर बच्चे को उनके शहर चेन्नई में, उनके ही जैसे अन्य दृष्टिहीन लोगों की मदद करने के लिए अकेला छोड़ दिया। यह जानने के बावजूद कि उनकी उम्र की वजह से वे इस बीमारी से आसानी से प्रभावित हो सकते हैं, फिर भी वे और उनकी पत्नी आज भी बिना रुके काम कर रहे हैं।

अपनी खुद की बचत के साथ आसपास के शुभचिंतकों के दान का इस्तेमाल कर ये दंपति अब तक 150 से अधिक रोज कमाने वाले परिवारों की मदद करने और 100 अन्य परिवारों के लिए आवश्यक वस्तुएं इकट्ठा करने में कामयाब रहे हैं। लेकिन जोधपुर के 38 वर्षीय गोविंद सिंह राठौर जज्बे के मामले में सबसे आगे हैं। जोधपुर के ये शख्स एक गेस्टहाउस के मालिक हैं और महिला सशक्तीकरण के लिए एक एनजीओ चलाते हैं। उन्होंने अपने घर और गेस्टहाउस को खाली करके उसे क्वारेंटाइन सेंटर में तब्दील कर प्रशासन को सौंप दिया। फिर वे अपने पूर्वजों के गांव सेतरावा चले गए।


जब वे गांव पहुंचे तो गोविंद को अहसास हुआ कि वहां एक बड़ा काम उनका इंतजार कर रहा था। वे कई दैनिक मजदूरी कमाने वाले लोगों से मिले, जो एक वक्त के खाने का प्रबंधन भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि लॉकडाउन ने उन्हें बेरोजगार कर दिया था। गांव के सरपंच और स्थानीय लोगों की एक टीम की मदद से, उन्होंने आसपास के चार गांवों के 246 परिवारों की पहचान की, जिसमें विधवा, ऐसे बुजुर्ग जिनका ध्यान रखने वाला कोई नहीं है और दिव्यांगों पर ध्यान केंद्रित किया। फिर उन्होंने क्लाउड प्लेटफॉर्म पर चंदा इकट्ठा करना शुरूकिया।

गोविंद की एक टीम राशन खरीदने के लिए किराने की दुकान पर जाती है, इसे अलग-अलग करती है और एक दिन में 25-30 परिवारों में बांटने के लिए पैक करती है। दूसरी टीम लोगों के घर-घर जाकर उन्हें कोरोना वायरस के बारे में बताती है, उन्हें साबुन देती है और सर्वे कर पता लगाती है कि कौन से परिवारों को राशन की जरूरत है। उनकी पत्नी मुक्ता कुमारी और अन्य महिलाएं परिवार के सदस्यों और वॉलंटियर्स के लिए खाना बनाती हैं।

फंडा यह है कि इस लॉकडाउन के दौरान यह मायने नहीं रखता कि आपने कितना बड़ा काम किया है या कितनी मुश्किलें झेली हैं। बस आपका जज्बा मायने रखता है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Your passion only matters during this lockdown




india news

चढ़ाई की सालभर तैयारी करने वाले 3000 नेपाली शेरपा बेरोजगार, अब गांव में कर रहे खेती; नेपाल को 9 हजार करोड़ रु. का नुकसान

24 मार्च, यानी वह तारीख जब काठमांडू से एवरेस्ट बेस कैंप के लिए लुम्बा जाने वाली उड़ानें पूरी तरह बंद कर दी गईं। ये वह वक्त था जब एवरेस्ट पर चढ़ाई का सीजन बस शुरू होने को था। एक-दो दिन में ही सरकार परमिट देना शुरू करने वाली थी।


तीन हफ्ते के लिए नेपाल में लॉकडाउन की घोषणा हुई और सभी माउंटेन एक्सपीडिशन पर रोक लगा दी गई। इसमें एवरेस्ट भी शामिल था। नेपाल में ऐसा पहली बार हुआ। पहला ही मौका है जब देश में एक भी विदेशी टूरिस्ट नहीं है। वरना भूकंप के दौरान भी विदेशी मौजूद थे। कई सारे विदेशी लोग और एनजीओ यहां रीहेबिलिटेशन में मदद करने को आ गए थे।


एवरेस्ट बेस कैम्प पूरा खाली पड़ा है। इस साल सीजन शुरू ही नहीं हो पाया। पिछले साल मई के अंत में सीजन खत्म होने पर क्लाइंबर्स, शेरपा और ग्राउंड स्टाफ लौट चुके थे। जून में बसंत खत्म होते ही बर्फ पिघलने लगती है और फिसलन भरे रास्ते में चढ़ाई खतरनाक हो जाती है।


यहां सरकार क्लाइंबिग के लिए 75 दिन का परमिट देती है। नेपाल सरकार को अलग-अलग पर्वतों पर चढ़ाई के शौकीनों से हर साल अपनी जीडीपी का 4% रेवेन्यू मिलता है। इस साल, यानी 2020 में 2 मिलियन, यानी करीब 20 लाख पर्यटकों के आने का सरकारी टारगेट था।

पर्वतारोहियों से नेपाल को हर साल अपनी जीडीपी का 4% रेवेन्यू मिलता है।


आशंका जताई गई है कि कोरोना के चलते टूरिज्म को 150 बिलियन नेपाली रुपए, यानी 9000 करोड़ भारतीय रुपए का नुकसान होगा। जिसमें एयरलाइन, होटल, ट्रैवल, ट्रैकिंग, एक्सपीडिशन और खाना-पीना सब शामिल है। यही नहीं लॉकडाउन के चलते 11 लाख लोगों की नौकरी भी खतरे में है।


इनमें वे शेरपा भी शामिल हैं जो सालभर उन 75 दिनों का इतंजार करते हैं जब वह बतौर गाइड विदेशियों के साथ एवरेस्ट की चढ़ाई करते हैं और सालभर के लिए पैसा जुटा लाते हैं। इस बार भी अप्रैल में शुरू होने वाले सीजन की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं।


बेस कैंप के सबसे नजदीक जो शेरपा गांव है उसकी दूरी 20 किमी के करीब है। नाम है खारीखोला। लोअर एवरेस्ट इलाके के इस गांव से बेस कैंप पहुंचने में आमतौर पर 6-7 घंटे लगते हैं, लेकिन शेरपाओं के लिए ये बमुश्किल 3 से 4 घंटे का काम है। आंन्ग दावा शेरपा और उनकी पत्नी पसांग फूती शेरपा इसी गांव में अपने दो बच्चों के साथ रहते हैं। आन्ग दावा 9 बार एवरेस्ट की चढ़ाई कर चुके हैं। जबकि उनकी पत्नी पिछले साल पहली बार एवरेस्ट की चढ़ाई करने गई थीं।


इस साल भी दोनों एवरेस्ट जाने वाले थे, कई विदेशी पर्यटकों से बात भी हो रखी थी। लेकिन अब वह अपने गांव लौट आए हैं। सरकार ने कोरोना को लेकर जब सभी क्लाइंबिंग एक्टीविटीज पर रोक लगा दी तो दोनों ने तय किया कि इस साल खेती करेंगे। उन्होंने कीवी उगाई है। गांव के ज्यादातर शेरपा भी खेती किसानी में लग गए हैं।

एवरेस्ट पर चढ़ाई के साथ-साथ नेपाल के बाकी एक्सपीडिशन भी बंद हैं, इसलिए शेरपा अपने गांव लौट आए हैं और आलू, कीवी, मक्के की खेती कर रहे हैं


पसांग कहती हैं कि उन लोगों ने काफी तैयारियां कर ली थीं, लेकिन अचानक सबकुछ कैंसिल हो गया। इस साल 3000 से ज्यादा शेरपा ऐन वक्त पर बेरोजगार हो गए। यही हालात थामे, फोर्चे जैसे एवरेस्ट शेरपाओं के बाकी गांवों का भी है। 15 मार्च को ही सरकार ने घोषणा कर दी थी कि इस बार कहीं भी पर्वतारोहण नहीं होगा।


इससे पहले 2014 में खुम्बू आइसफॉल के पास आए बर्फीले तूफान के बाद एवरेस्ट पर पर्वतारोहण बंद कर दिया था। इस हादसे में 14 शेरपाओं की मौत हो गई थी। हालांकि, तब नेपाल के बाकी हिस्सों में एक्सपीडिशन बदस्तूर चल रहे थे।


एवरेस्ट से कमाई का गुणा गणित कुछ यूं है- हर साल 45 टीमें एक्सीपीडिशन पर जाती हैं, जिनका खर्च 11 हजार डॉलर प्रति व्यक्ति होता है। हर टीम में 15-20 लोग होते हैं, कुल 600 क्लाइंबर हर साल एवरेस्ट के लिए सफर करते हैं।


नेपाल की जनसंख्या 3 करोड़ है और यहां कोरोना के 9 पॉजिटिव केस मिले हैं। जबकि इस महामारी में कोई भी मौत नहीं हुई है। 9 में से एक व्यक्ति का इलाज हो चुका है और उसकी रिपोर्ट निगेटिव आई है। जो भी पॉजिटिव मरीज हैं, वह काठमांडू या पश्चिमी नेपाल में हैं। इनमें से ज्यादातर वह हैं जो फ्रांस, बेल्जियम या अरब देशों से लौटे हैं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
तस्वीर खाली पड़े एवरेस्ट बेस कैंप की है, जो आन्ग शेरपा ने 2019 में सीजन खत्म होने पर लौटते वक्त ली थी।




india news

जो डॉक्टर कोरोना के मरीजों का इलाज कर रहे थे, उन्हीं की मौत के बाद लोगों ने उनका दाह संस्कार नहीं होने दिया; दो दिन बाद शव दफनाया गया

लंबे विवाद के बाद आखिरकार गुरुवार को मेघालय में कोरोना से मरनेवाले पहले मरीज का अंतिम संस्कार पूरा हुआ। डॉक्टर जॉन एल सायलो शिलॉन्ग के बीथेनी हॉस्पिटल के डायरेक्टर थे और वह राज्य के पहले कोरोना पॉजिटिव मरीज भी थे।

सोमवार को डॉ.सायलो की रिपोर्टकोरोना पॉजिटिव आई और मंगलवार को देर रात 2 बजे के करीब उनकी मौत हो गई। बुधवार को जब उनका शव जलाया जाना था तो शमशान के आसपास रहनेवाले लोग घरों से बाहर निकल आए और विरोध करने लगे। उन्हें डर था कि अंतिम संस्कार से जो धुआं निकलेगा उससे आसपास रहनेवालों को संक्रमण हो सकता है।

डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन के मुताबिक, किसी भी संक्रमित व्यक्ति की मौत होने पर उसके शव को जलाया ही जाना चाहिए। डॉ सायलो के मामले में भी स्थानीय प्रशासन यही करनेवाला था और जलाने के बाद अस्थियां ताबूत में रखकर उसे क्रिश्चियन परंपरा के मुताबिक डॉ सायलो के फॉर्म हाउस में दफनाना था। लेकिन स्थानीय लोगों के विवाद के बाद ऐसा हो नहीं सका। सरकार और स्थानीय प्रशासन के मनाने के बाद गुरुवार को म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के कर्मचारियों ने उन्हें ईसाईयों के कब्रिस्तान में दफनाया।

सायलो 69 साल के थे और उन्हें अस्थमा और डायबिटीजथी। सायलो के अलावा उनके परिवार के 6 और लोग भी पॉजिटिव आए हैं। ये सभी शिलॉन्ग में हैं, जिनमें दो बच्चे भी शामिल हैं। हालांकि ये कौन है इसका खुलासा नहीं किया गया है।

डब्ल्यूएचओ के नियमों के मुताबिक, किसी भी कोरोना संक्रमित की मौत के बाद उसके शव को पहले जलाया जाना जरूरी है, बाद में उसकी अस्थियां ताबूत में रखकर परंपरा मुताबिक दफानायी जा सकती है।

सायलो शिलॉन्ग और गुवाहाटी-शिलॉन्ग के बीच नॉन्गपॉ में 2 अस्पताल चलाते थेऔर लगातार मरीजों का इलाज कर रहे थे। आशंका जताई गई है कि इन सभी को सायलो के दामाद के जरिए कोरोना संक्रमण हुआ है,जो एयर इंडिया में पायलट हैं। न्यूयॉर्क में फंसे भारतीयों को लाने के लिए जोफ्लाइटें चलाईं गईं थीं, उनमें बतौर पायलट वेभी शामिल थे।

वह 17 मार्च को दिल्ली से इम्फॉल आए थे और फिर 20 मार्च को फिर दिल्ली लौट गए थे। उन्हें इसी दिन इटली में फंसे भारतीयों को लेने विमान लेकर जाना था, लेकिन उनकी जगह कोई और चला गया। 24 मार्च को वह शिलॉन्ग आ गए। उन्होंने क्वारंटाइन पूरा करने का दावा किया और दो बार उनका कोरोना टेस्ट निगेटिव आया। फिलहाल उनका तीसरा टेस्ट होना है।

फिलहाल शिलॉन्ग प्रशासन ने संक्रमण का सोर्स पता करने 2000 लोगों की लिस्ट बनाई है और उनके टेस्ट किए जा रहे हैं। टेस्ट के लिए नमूने गुवाहाटी और बरपाटा मेडिकल कॉलेज में भेजे जा रहे हैं। टेस्ट उन मरीजों के भी हो रहे हैं, जिनका इलाज डॉ सायलो कर रहे थे।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
डॉ सायलो का शव म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के कर्मचारियों ने गुरुवार को शिलॉन्ग के ईसाई कब्रिस्तान में दफनाया।




india news

कोरोना से लड़ाई में बाधा बन रहे लोगों पर हो कड़ी कार्रवाई

चिकित्सा, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र के लगभग सभी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कोरोना से लड़ाई लंबी चलने वाली है। इसे न तो व्यापक समाज की समझ पर छोड़ा जा सकता है, न ही बाजार की ताकतों पर। इसकी नियंता एक ही संस्था हो सकती है- भारत सरकार और उसके मुखिया। तीन हफ्ते के अनुभव के बाद देखने में आया कि अब मुफ्त भोजन या पांच किलो अनाज के वितरण में फिर वही भ्रष्टाचार शुरू हो गया है।

उत्तर भारत के तमाम राज्यों में ग्राम-प्रधान/ मुखिया कम भोजन दे रहे हैं और क्वारेंटाइन में रहने वालों को दिन में घर जाने की इजाजत दे रहे हैं, ताकि उनके हिस्से का राशन बेच सकें। शहरों में भी अब यह खतरा बढ़ने लगा है, क्योंकि असहाय और बेचारगी में रह रहे लोगों की आवाज बाहर तक नहीं पहुंच पा रही है। एक गैर सरकारी जांच में पता चला कि एक सेंटर में सात बिस्तर हैं, लेकिन रहने वालों की लिस्ट में 32 लोगों के नाम हैं। जब उनमें से मात्र तीन ही सेंटर पर मिले तो ग्राम प्रधान का बेपरवाह जवाब था कि ‘अरे सब घर गए होंगे, खा-पीकर रात में सोने आ जाएंगे’।

यह रवैया सरकार के सारे प्रयास पर पानी फेर सकता है, क्योंकि डिलीवरी और भ्रष्टाचार का चोली-दामन का साथ है। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि यह लड़ाई लंबी चलेगी, लेकिन इसे सुअवसर में तब्दील किया जा सकता है। ये सुअवसर क्या हो सकते हैं? देश में करीब नौ करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं और इनमें से आधे ऐसे हैं जिनका कोई राशन कार्ड नहीं है, यानी कोई सरकारी मदद उन तक नहीं पहुंचती।

यह मौका है जब हर क्वारेंटाइन सेंटर्स में जाकर इन्हें पंजीकृत किया जाए और यह भी पूछा जाए कि क्यों और किस मालिक ने इन्हें काम से हटाया या वेतन दबा लिया। भारत का संविधान उदारवादी प्रजातंत्र का पोषक है। सामान्य दिनों में तो यह बेहद समुन्नत अवधारणा कही जाती है, लेकिन आज अस्तित्व का संकट है।

ऐसे में भ्रष्ट मुखिया पर सेंटर में रहने वालों की गैर वाजिब मांग पर या सड़क पर तफरीह के लिए बगैर मास्क लगाए घूमने वालों या मजदूर की पगार दबाने वाले उद्यमी या पुलिस पर हमला करने वालों पर राजदंड का खुला, लेकिन पूर्वाग्रह शून्य प्रयोग उसी सुअवसर का आगाज है, जो भारत को सक्षम बना सकता है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Strict action should be taken against the people who are obstructing the fight with Corona




india news

आपका सहयोग हस्तक्षेप में न बदल जाए

भोजन का संबंध केवल स्वाद से नहीं, परोसगारी की कला से भी है। खिलाने वाले का आग्रह, उसका प्रेमपूर्ण व्यवहार भोजन के स्वाद को बढ़ा देता है। इसी बात को इन दिनों घर में रहते हुए अपने व्यवहार से जोड़िएगा। इस समय घर में कई रिश्ते चल रहे होंगे। पति-पत्नी के, भाई-भाई के, माता-पिता और संतान के। इन रिश्तों में एक अज्ञात तनाव भी चल रहा होगा। हो सकता है कुछ लोग प्रतीक्षा ही कर रहे हों कि लॉकडाउ‌न खत्म हो और रिश्तों को एक नया जामा पहना दें।

कुछ घरों में इस बात का हिसाब चल रहा होगा कि तुम्हारे लिए इतना किया, तुमने हमारे लिए क्या किया? ये सारे बहीखाते भी फुरसत के इन दिनों में खुल गए होंगे। यदि आप घर में रिश्ते की डोर से बंधे हैं तो एक-दूसरे को सहयोग पहले भी दिया होगा और आगे भी देना है। इस समय तो चूंकि इतनी निकटता से रह रहे हैं तो सहयोग के मतलब ही बदल गए होंगे, पर ध्यान रखिए कि सहयोग हस्तक्षेप में न बदल जाए। घरों में रहते हुए एक-दूसरे को सलाह भी देनी पड़ेगी। पर यह भी याद रखें कि सलाह देते-देते उपदेशक न बन जाएं।

परिवार में सबके भीतर कोई न कोई अच्छाई है, लेकिन अपनी अच्छाई सामने वाले पर न थोपें। अच्छाई एक तरंग है। इसे सहजता से घर के सदस्यों में प्रवाहित होने दें। पर करंट न बनने दें। अपनी अच्छाई, सलाह, सहयोग एक अच्छे परोसगार की तरह प्रस्तुुत कीजिए, घर में सबके साथ रहने का स्वाद अलग ही हो जाएगा।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Your cooperation does not turn into interference




india news

सांसद अपना फंड खुद ही खर्च करते तो ज्यादा उपयोगी होता

सरकार द्वारा पिछले हफ्ते सांसदों सेे कोविड-19 से संघर्ष में त्याग के लिए कहने का फैसला पूरी तरह से उचित है। इस फैसले के पहले हिस्से, सांसदों के वेतन में 30 फीसदी कटौती का सभी सांसदों ने खुद ही स्वागत किया है। लेकिन, इसके दूसरे हिस्से, सभी सांसदों के 2020-21 और 2021-22 के स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीएलएडीएस) की राशि को समेकित फंड में आवंटित करना काफी दिक्कत वाला है। सरकार का तर्क है कि कोविड-19 के प्रभाव से निपटने के संसाधन जुटाने के लिए उसे हर उपलब्ध रुपए की जरूरत है।

एक सांसद के तौर पर हम अतिरिक्त संसाधन जुटाने के लिए सरकार के साथ हैं और मुझे इसमें योगदान करने पर खुशी ही होगी। फिर चाहे वह मेरी सैलरी में कटौती के जरिये हो या फिर नई दिल्ली के मध्य परिदृश्य के फिर से विकास या नए व विस्तारित संसद भवन के निर्माण जैसे गैर जरूरी खर्चों को स्थगित करने के माध्यम से। लेकिन, मेरे द्वारा कई हफ्ते पहले पेश इस विचार काे सरकार ने स्वीकार नहीं किया, वह अपने कार्यकाल में राजधानी में किसी स्मारकीय प्रतीक को बनाने पर प्रतिबद्ध है। एमपीलैड फंड को अगले दो सालों के लिए स्थगित करके सरकार को सिर्फ 7840 करोड़ रुपए मिलेंगे, जबकि केंद्रीय परिदृश्य योजना पर 25,000 करोड़ खर्च होंगे।
हर साल मिलने वाले पांच करोड़ के एमपीलैड फंड से सांसद अपने क्षेत्र में कई तरह के विकास के कार्य करा सकता था। यह कोई बहुत बड़ी राशि नहीं है। हर लोकसभा क्षेत्र में औसतन सात से आठ विधानसभा क्षेत्र हैं और इस राशि में से 25 फीसदी एससी और एसटी के लिए आरक्षित करने के बाद एक सांसद के पास हर विधानसभा क्षेत्र के लिए साल में औसतन 50 लाख रुपए ही बचते हैं। इसके उलट केरल में हर विधायक को उसके विधासभा क्षेत्र के लिए छह करोड़ रुपए मिलते हैं। एमपीलैड फंड कई बार सांसद के क्षेत्र में विकास के अत्यंत ही जरूरी काम कराने का औजार है। सरकार द्वारा इस साल के फंड को कोविड-19 से जुड़े उपायों पर खर्च करने में कोई आपत्ति नहीं है। बल्कि, अपने लोकसभा क्षेत्र तिरुवनंतपुरम में इस वायरस के संक्रमण के बाद से मैं ऐसा कर भी रहा हूं।

मैंने लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष प्रधानमंत्री से हुई अचानक मुलाकात में सरकार को एमपीलैड से संबंधित नियमों में बदलाव का सुझाव भी दिया था, ताकि इससे मेरे क्षेत्र में आज की सबसे बड़ी जरूरत पीपीई, रैपिड जांच किट, इन्फ्रारेड थर्मामीटर व स्कैनर और मास्क की खरीद की जा सके। सरकार द्वारा यह रास्ता बंद करने से पहले, न केवल हम सफलतापूर्वक अपने क्षेत्र में इन उपकरणों को ला पा रहे थे, बल्कि मौजूदा नियमों में शिथिलता से राष्ट्रीय स्तर पर सांसदों को अपना यह फंड काेविड-19 से लड़ने के लिए देने में मदद मिलती। दूसरे राज्यों के अनेक सांसदों ने मुझसे रैपिड टेस्टिंग पीसीआर किट के सप्लायर का पता भी पूछा था, क्योंकि मैं ये किट अपने क्षेत्र में भेज रहा था।

इससे सांसद केंद्र या राज्य सरकारों से फंड मिलने का इंतजार किए बिना अपने क्षेत्रों में कोविड-19 से लड़ने में स्थानीय स्तर पर हेल्थकेयर कर्मियों की मदद करके महामारी का विस्तार रोक सकते थे। लेकिन, सरकार ने अब सब असंभव बना दिया है। सबसे खराब तो यह है कि फंड के आवंटन को केंद्रीकृत बनाने से जहां इसकी सबसे अधिक जरूरत होगी, वहां के लिए इसे जारी करने में देरी होगी। अब यह धन सरकार जारी करेगी और इससे नई दिल्ली में बैठी सरकार की प्राथमिकता दिखेगी न कि 543 क्षेत्रों की स्थानीय जरूरत की।

यह खराब तो है ही, लेकिन आवंटन को लेकर सवाल भी खड़े करता है। जैसे सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में एक केरल को पिछले सप्ताह तक केंद्र से आपदा राहत फंड से सिर्फ 157 करोड़ रुपए ही मिल सके हैं, जबकि गुजरात को 662 करोड़ रुपए दिए गए। जबकि उस समय केरल में गुजरात की तुलना में कोविड-19 मरीजों की संख्या ढाई गुना थी। निश्चित ही दिल्ली की प्राथमिकता दूरस्थ दक्षिणी राज्य नहीं होंगे, जहां भाजपा की उपस्थिति सिर्फ नाम के लिए है। इसलिए कोविड-19 से लड़ने के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने का समर्थन करने के बावजूद सांसदों ने सामूहिक तौर पर एमपीलैड फंड निलंबित करने के फैसले का विरोध किया है। अब भी कैबिनेट के फैसले में संशोधन के लिए देर नहीं हुई है।

विकल्प के तौर पर सरकार दिशानिर्देश जारी कर सकती है कि एमपीलैड के पैसे का इस्तेमाल सिर्फ कोविड-19 से जुड़े उपायों पर ही हो सकेगा। इस महामारी से लड़ने की महत्ता को लेकर हमारे बीच कोई राजनीतिक मतभेद नहीं हैं। लेकिन साथ ही सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि शासन के ढांचे की सभी शाखाएं इस कठिन समय में लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपने-अपने स्तर पर दखल दे सकें। हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि करदाता के पैसे से मिलने वाले संसाधनाें का प्रभावी, पारदर्शी और जवाबदेहपूर्ण तरीके से जमीनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल हो। एक दूर बैठी केंद्रीय अफसरशाही के हाथ में और धन देने का कोई मतलब नहीं है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
It would have been more useful if MPs had spent their own funds




india news

युधिष्ठिर, फ्योदोर और ग्राहम ग्रीन

‘शोले’ की सफलता से चकाचौंध समीक्षकों ने लिखा कि भारतीय सिनेमा का इतिहास दो खंडों में बांटा जा सकता है,‘शोले’ के पहले और शोले के बाद। ‘शोले’ के संवाद का लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड उसके गीत-संगीत के एलपी से अधिक बिका। चीन के युआन और अमेरिकन डॉलर में अंतर है। हमारे रिजर्व बैंक के गवर्नर त्याग-पत्र दे चुके हैं। पिया अपने मनभावन व्यक्तियों की नियुक्ति करता है, जिनके हृदय में बेकेट बनाम हैनरी युद्ध प्रारंभ हो जाता है। जाने कैसे नमक हलाल या नमक हराम घोषित कर दिया जाता है।

उन्नीसवीं सदी के सबसे सशक्त सृजन स्तंभ फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की माने जाते हैं। उनके उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित फिल्में रूस, अमेरिका और भारत में बनी। इससे प्रेरित फिल्में बार-बार बनाई गई हैं। भारत में रमेश सहगल ने राज कपूर, रहमान और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ बनाई। आज के कोरोना कालखंड में भी इस फिल्म का गीत बार-बार गुनगुनाने का मन करता है- ‘आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, आजकल वह इस तरफ देखता है कम।’ फिल्म के सभी गीत सर्वकालिक लोकप्रिय हैं।

रूस के तानाशाह जार ने दोस्तोयेव्स्की और साथियों को कैद कर लिया था। जिस समय उन्हें गोली मारी जानी थी, उस समय जार का फरमान आया कि इन्हें मृत्युदंड न देकर आजीवन कारावास दिया जाता है। उन्हें साइबेरिया भेज दिया गया जहां पूरे वर्ष मारक मौसम रहता है। कुछ वर्ष पश्चात साइबेरिया से लौटे फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की से उनके मित्र लेखक की मुलाकात हुई। मित्र लेखक ने इस मुलाकात का विवरण दिया जिसे पढ़ने पर आज भी दिल दहल जाता है।
अब हम 20वीं सदी के दूसरे विश्व युद्ध के समय हिटलर द्वारा स्थापित नाजी कंसंट्रेशन कैंप की बात करें। ग्राहम ग्रीन की रचना ‘टेंथ मैन’ वर्षों बाद एक स्टूडियो के कबाड़खाने में मिली। रचना का सारांश यह है कि एक सनकी अधिकारी बेतरतीब कतार में खड़े दसवें आदमी को गोली मारने से पहले यह मजमा रचता है कि उस व्यक्ति के बदले मरने के लिए तैयार अन्य व्यक्ति उससे करारनामा कर सकता है। करारनामे पर दस्तखत होने के बाद गोली मारे जाते समय इंग्लैंड की हवाई सेना उस स्थान को अपने कब्जे में ले लेती है। ज्ञातव्य है कि ग्राहम ग्रीन के ‘थर्ड मैन’ पर बनी फिल्म कि प्रेरणा से संजय दत्त, कुमार गौरव व नूतन अभिनीत फिल्म ‘नाम’ बनी थी।
यह बात भी गौरतलब है कि ‘थर्ड मैन’ के फिल्मकार ने फ्रांस के कस्बे में एक रेस्त्रां में एक धुन सुनी। उन्होंने अपनी पटकथा को दोबारा इस दृष्टिकोण से लिखा कि पार्श्व संगीत में उस धुन का भरपूर प्रयोग किया जा सके। यही धुन थोड़े परिवर्तन से जेम्स बॉण्ड फिल्मों की सिगनेचर धुन बनी। बहरहाल विगत वर्ष 7 नवंबर को प्रकाशित मेरे लेख में युधिष्ठिर और यक्ष के बीच हुए संवाद का विवरण प्रकाशित किया गया था, क्योंकि उनके संवाद का विषय मृत्यु ही था और मृत्यु के नजदीक होने पर कैसा महसूस होता है।

जयपुर से एक व्यक्ति ने लेख पढ़कर मुझे ढेरों अपशब्द मोबाइल पर सुनाए। उसमें माता के विषय में एक गाली का शूल सात जन्मों तक मेरे अवचेतन में रहेगा। उस व्यक्ति के क्रोध का कारण कुछ भी हो सकता है, परंतु उसने निशाने पर मुझे रखा। इस तरह के विरोध से मेरा लिखना थमने वाला नहीं है।

दंड और सजा बड़ा उलझा हुआ मामला है? ज्ञातव्य है की फ्योदोर की रचना ‘व्हाइट नाइट’ से प्रेरित फिल्म ‘छलिया’ मनमोहन देसाई ने बनाई थी और इसी कथा से प्रेरित ‘सांवरिया’ भंसाली ने बनाई थी। फ्योदोर और कपूरों का रिश्ता बहुत गहरा है। चीन में भारी संख्या में बने वेंटिलेटर अमेरिका, भारत और अन्य देश खरीद रहे हैं। इतनी संख्या में वेंटिलेटर बनना गहरी साजिश की ओर संकेत है। कोरोना के पहले, दरमियान और बाद में मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होना संभव है, जिसका तर्कपूर्ण अध्ययन हमें समय, समाज और साहित्य को समझने का नया दृष्टिकोण देगा।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Yudhishthira, Fyodor and Graham Green




india news

ट्रम्प की ‘पसंदीदा दवा’ क्या वाकई गेम चेंजर सािबत होगी

राघव चंद्रा (आईएएस पूर्व सचिव, भारत सरकार)

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का कोविड-19 के इलाज के लिए मलेरियारोधी दवा को लेकर इस हद तक जुनून कि वह निर्यात से रोक न हटाने पर भारत को बदले का संकेत देते हैं और एक बार रोक हटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हैं, तर्क से परे लगता है। कोविड-19 के मरीजों पर मलेरियारोधी दवा के प्रभाव का कोई क्लिनिकल प्रमाण नहीं है। यहां तक कि उनके निकट सलाहकार और मेडिकल विशेषज्ञ डॉ. फॉसी भी उनके उल्लास का समर्थन नहीं करते हैं। तो फिर ट्रम्प मलेरियारोधी दवा को लेकर इतने अधिक आतुर क्यों हैं? कई दशकों से मलेरिया से लड़ रहे भारत से बेहतर मलेरियारोधी दवा को और कौन समझ सकता है? भारत में मलेरिया के लिए इस्तेमाल होने वाली सबसे लोकप्रिय दवा कुनैन है, जो दक्षिणी अमेरिका में मिलने वाने चिंचोना पेड़ के तने से प्राप्त की जाती है।

जिस क्लोरोक्वीन को अमेरिका मांग रहा है, वह इसका ही केमिकल प्रक्रिया द्वारा निकाला गया समकक्ष है, जिसे 1934 में जर्मनों ने तैयार किया था और इसे कई भारतीय कंपनियां बनाती हैं। 18वीं और 19वीं सदी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी जब मच्छरों वाले ट्रॉपिकल क्षेत्रों में भारतीय महाराजाओं से युद्ध करती थी तो वह अपने सैनिकों को जिन व कुनैन वाले टॉनिक वाटर को पीने की सलाह देती थी। यह ‘जिन और टॉनिक’ इतना लोकप्रिय हुआ कि भारत के सभी जिमखाना क्लबों और दुनियाभर का प्रमुख ड्रिंक बन गया। यहां तक कि आज भी बाजार में कुनैन मिला टॉनिक वाटर ही बिकता है। इसलिए यह जांच का विषय है कि क्या मलेरिया और कोविड-19 के बीच संबंध का पारिस्थितिजन्य साक्ष्य है या नहीं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक 2018 में दुनियाभर में 22.80 करोड़ मलेरिया के मामले आए, जो एक साल पहले 23.10 करोड़ थे। मलेरिया के सबसे अधिक मामले अफ्रीका में और उसके बाद दक्षिण-पूर्व एशिया में थे। खासकर उप-सहारा अफ्रीका और भारत जैसे देश ही मलेरिया का 85 फीसदी भार उठाते हैं। दुनिया में छह सर्वाधिक प्रभावित देश हैं- नाइजीरिया, कॉन्गो, युगांडा, आइवरी कोस्ट, मोजाम्बिक और नाइजर। भारत में दुनिया के करीब 2.5 फीसदी मामले होते हैं। अफ्रीकी देशों और भारत के अलावा वियतनाम, म्यांमार, थाईलैंड, अर्जेंटीना, ब्राजील, पाकिस्तान व बांग्लादेश भी मलेरिया प्रभावित देशों में शामिल हैं। इनमें से अधिकतर देशों में कुनैन ही इलाज के लिए इस्तेमाल की जाती है।

अब अगर हम कोविड-19 के संक्रमण को देखें ताे इसका प्रति दस लाख की जनसंख्या पर वैश्विक औसत 247 व्यक्ति है। लेकिन, मलेरिया मुक्त देशों में कोविड-19 प्रभाविताें की यह संख्या बहुत अधिक है। यह स्पेन में 3638, इटली में 2638, स्विट्जरलैंड में 2968, बेल्जियम में 2639, फ्रांस में 2095, ऑस्ट्रिया में 1559, जर्मनी में 1552, अमेरिका में 1773, नीदरलैंड में 1550 और ब्रिटेन में 1305 है। जबकि मलेरिया से प्रभावित देशों में यह बहुत कम है। यह मोजाम्बिक में 0.7, म्यांमार में 1.0, नाइजीरिया में 2.0, वियतनाम में 3.0, बांग्लादेश में 5.0, भारत में 8.0, कॉन्गो में 11, पाकिस्तान में 25, थाईलैंड में 35 व दक्षिण अफ्रीका में 38 है। यहां तक कि मलेरिया से लड़ने वाले दक्षिण अमेरिकी देशों में भी कोविड-19 के मामले तुलनात्मक रूप से काफी कम हैं।

ऐसा नहीं है कि मलेरिया प्रभावित देशों के मजबूत अंतरराष्ट्रीय व्यापार और आर्थिक संबंध नहीं हैं। अफ्रीका का चीन के साथ 200 अरब डॉलर व यूरोपीय यूनियन के साथ 300 अरब डॉलर का व्यापार है। वियतनाम 122 अरब डॉलर के साथ चीन के टॉप 10 व्यापारिक साझीदारों में शामिल है। भारत, थाईलैंड, म्यांमार और बांग्लादेश के भी चीन से मजबूत व्यापारिक संबंध हैं। स्पष्ट है कि ट्रम्प द्वारा मलेरिया के इलाज और कोविड-19 के इलाज में संबंध की पहचान एक अटकल से कहीं ऊपर है। संभवत: भारत का अन्य देशों को मलेरियारोधी दवा का निर्यात खोलना भी समझ में आता है। स्वास्थ्य के मामलों में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत को समझा जा सकता है। हो सकता है कि हम बड़ी संख्या में मरीजों पर इन दवाओं के इस्तेमाल के बाद इसके असर के बारे में और अधिक सीख सकें।

हालांकि, यहां पर एक गंभीर विचार उठता है। क्या भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) कुनैन से एक कम शक्ति का ऐसा रोगनिरोधक नहीं बना सकता, जिसकाे कम कीमत पर आम लोगों को उपलब्ध कराकर उनके शरीर में मलेरिया और कोविड-19 के प्रति प्रतिरोधकता को और बढ़ाया जा सके? भारत में कभी भी थोड़ा सा कुनैन मिले टॉनिक वाटर के उपयोग पर चिकित्सीय रूप से आपत्ति नहीं की गई। इसके साथ बस एक ही दिक्कत है कि यह महंगा है। निश्चित ही, अगर समय रहते इस दिशा में कदम उठाए जाते हैं तो यह न केवल ट्रम्प के अमेरिका के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है, बल्कि कोविड-19 से हमारी लड़ाई में भारत के लिए भी। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Will Trump's 'favorite drug' really be a game-changer?




india news

हमारे आसपास मौजूद ‘कुंतियों’ को सलाम

आ पको याद होगा कि कैसे दुर्योधन ने सबसे भयानक युद्ध शुरू होने के बहुत पहले कर्ण को मां कुंती से मिलवाया था। वे बड़ी जिज्ञासा से कर्ण के कान की बालियां देखती हैं और उनसे पूछती हैं ‘तुम्हें ये कहां से मिलीं’? और वे कहते हैं, ‘बचपन से मेरे पास हैं। लेकिन मुझे नहीं पता ये निकलती क्यों नहीं हैं, तब भी जब मैं इन्हें निकालना चाहता हूं।’ यह उत्तर सुनने के बाद उन्हें पता चल गया था कि कर्ण उनके पहले पुत्र हैं और फिर अचानक उन्हें चक्कर आते हैं और वे नीचे गिर जाती हैं। दुर्योधन और कर्ण, दोनों मिलकर उन्हें पकड़ते हैं। यह दृश्य यहीं खत्म होता है और हम आगे बढ़ते हैं। खुद के पांच पुत्र, पांडव होने के बावजूद कई बार कुंती के भीतर की मां चाहती थीं कि वे कर्ण को बताएं कि वही उनकी जैविक मां हैं। लेकिन उनका विवेक उन्हें ऐसा करने से रोक देता है क्योंकि उन्हें लगता है कि कर्ण दुर्योधन की दोस्ती में ही सुरक्षित रहेंगे।

वे इस बात को स्वीकार करती हैं कि उन्होंने जानबूझकर कर्ण के सामने अपने खून के रिश्ते का खुलासा नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता था कि पांडवों के खून के प्यासे दुर्योधन को अगर पता चल गया कि कर्ण पांडवों का बड़ा भाई है, तो वह उसे भी मार देगा। आपने यह दृश्य ‘धर्मक्षेत्र’ धारावाहिक में देखा होगा जहां वे चित्रगुप्त के दरबार में इस विचार को स्वीकारती हैं। मुझे महाभारत का यह हिस्सा तब याद आया, जब मुझे अजमेर निवासी 25 वर्षीय नर्स यशवंती गरवार के बारे में पता चला, जिसका 2 साल का बेटा है और वह अपने ही बेटे से नहीं मिल सकती थी। हालांकि 22 दिनों तक मोबाइल फोन पर बच्चे का रोना सुनकर उसका दिल कांपता रहता था।

यशवंती को तीन महीने पहले पाली के रास सरकारी अस्पताल में बतौर नर्स नौकरी मिली थी। वह अपने बेटे युवान के साथ पाली में रहने लगी थी, लेकिन कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों की वजह से उसने वापस अजमेर जाकर युवान को अपने माता-पिता के पास छोड़ दिया था। अपने बेटे के बारे में चिंतित और उसे देखने की बेकरारी की वजह से उसने खास अनुमति ली और 12 अप्रैल को उससे मिलने गई। उसने स्नान किया, अपने कपड़े बदले और फिर युवान को गोद में लिया। लेकिन यशवंती को 24 घंटे में फिर रवाना होना पड़ा क्योंकि कोरोना के खिलाफ ये युद्ध अभी तक खत्म नहीं हुआ है। अब
हर शख्स ये महसूस कर सकता है कि जो माता-पिता क्वारेंटाइन में हैं, उनके बच्चों पर क्या
गुजर रही होगी। बिल्कुल कुंती की तरह जो अपने ही बेटे को बता नहीं सकती थी कि वह उसकी मां है। यशवंती के पति हिमांशु रेलवे में काम करते हैं और उन्हें कभी भी ड्यूटी पर बुलाया जा सकता है। यशवंती की मां सुशीला देवी वीडियो कॉल पर युवान को उसकी मां को दिखाती रहेंगी।

माधवी अया एक और ऐसी कुंती हैं, जो समझती थीं कि अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए उनके साथ क्या हो रहा था। वे भारत में डॉक्टर थीं। फिर अमेरिका में बसने के बाद ट्रेनिंग लेकर वे वहां फिजिशियन असिस्टेंट बन गईं। उन्होंने 12 साल तक ब्रुकलिन के एक अस्पताल में काम किया था। वे वहां देख सकती थीं कि कैसी बेरहमी से कोरोना पूरे शहर को प्रभावित कर रहा है। कई रोगियों की देखभाल करने के कुछ दिन बाद, माधवी भी उनमें से एक बन गईं। माधवी 61 साल की थीं। वे जब अस्पताल में अकेली थीं तो वे लॉन्ग आईलैंड में रह रहे अपने पति और 18 साल की बेटी से केवल 3 किलोमीटर दूर थीं। जब उनकी बेटी ने उन्हें एक मैसेज भेजा, जिसमें लिखा था, ‘आई मिस यू मम्मी’, तो उन्होंने उसका जवाब दिया, ‘मम्मी जल्द वापस आएगी।’ लेकिन दुर्भाग्य से वे अपना वादा नहीं निभा पाईं। अकेले रहना सिर्फ मुश्किल नहीं है बल्कि एक चुनौती है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Salute to the 'kuntis' around us




india news

डब्ल्यूएचओ की कुल फंडिंग का 15% अकेले अमेरिका देता है; फंडिंग रुकने से कोरोना ही नहीं, बल्कि पोलियो खत्म करने में भी असर पड़ेगा

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने डब्ल्यूएचओ की फंडिंग रोक दी है। उन्होंने कहा कि डब्ल्यूएचओ ने कोरोनावायरस को गंभीरता से नहीं लिया, जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। अगर डब्ल्यूएचओ अपना काम सही से करता तो, महामारी दुनियाभर में नहीं फैलती। मरने वालों की संख्या भी काफी कम होती।


1948 में बने डब्ल्यूएचओ को अमेरिका हर साल सबसे ज्यादा मदद करता रहा है। डब्ल्यूएचओ की वेबसाइट के मुताबिक अमेरिका ने उसे दो साल में 893 मिलियन डॉलर यानी 6 हजार 876 करोड़ रुपए की मदद की है। ये डब्ल्यूएचओ की कुल फंडिंग का 15% है। इसका मतलब हुआ कि डब्ल्यूएचओ को दुनियाभर से जितनी मदद मिलती है, उसका 15% अकेले अमेरिका देता है। वहीं, चीन से अमेरिका से 10 गुना कम, यानी सिर्फ 86 मिलियन डॉलर (662 करोड़ रुपए) की मदद मिली।


अमेरिका के बाद डब्ल्यूएचओ को अमेरिका के ही अरबपति बिल गेट्स की बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन मदद करती है। फाउंडेशन ने 530.96 मिलियन डॉलर (4 हजार 81 करोड़ रुपए) की मदद की।


तो क्या ट्रम्प के फैसले से कोरोना के खिलाफ लड़ाई कमजोर होगी?
ट्रम्प ने ऐसे समय डब्ल्यूएचओ की फंडिंग रोकी है, जब कोरोनावायरस लगातार फैल रहा है। कोरोना के 20 लाख से ज्यादा मामले आ चुके हैं। 1.26 लाख से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। खुद अमेरिका कोरोना से बुरी तरह प्रभावित है। वहां 6 लाख से ज्यादा मरीज मिल चुके हैं और 26 हजार से अधिक मौतें हो चुकी हैं।


ट्रम्प के इस फैसले से कोरोना के खिलाफ लड़ाई भी कमजोर हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनिया गुटेरस का कहना है कि ‘ये समय डब्ल्यूएचओ या कोरोना के खिलाफ लड़ने वाले किसी भी संगठन के रिसोर्सेज में कमी करने का नहीं है। बल्कि कोरोना के खिलाफ एकजुट होने का है।'


क्या ट्रम्प के फैसले से बाकी चीजों पर भी असर होगा?
डब्ल्यूएचओ अपने फंड का इस्तेमाल दुनियाभर में फैली बीमारियों से लड़ने और स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर बनाने में करता है। डब्ल्यूएचओ को मिलने वाला फंड उसके हेडक्वार्टर (जेनेवा, स्विट्जरलैंड) और छह रीजन में जाता है। रीजन और हेडक्वार्टर से ये फंड खर्च होता है।


अमेरिका से डब्ल्यूएचओ को जो फंड मिलता है, उसका सबसे ज्यादा 27% पोलियो खत्म करने पर खर्च होता आया है। पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में अब भी पोलियोगंभीर बीमारी बनी हुई है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
WHO Funding US China | WHO Coronavirus COVID-19 News | World Health Organization USA China India Funding Update; Know Which Countries Provide Most Funding To WHO




india news

छोटे उद्योगों को गति देना सरकार की सही पहल

कोरोना संकट के बाद सभी बड़ी संस्थाओं ने भारत सहित दुनिया के सभी देशों की विकास दर को काफी नीचे रखा है। लेकिन, दो बातें साफ हैं- भारत की 1.9 प्रतिशत की विकास दर (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन) जी-20 देशों में सबसे ज्यादा है। इस संस्था के अनुसार पूरे एशिया की विकास दर शून्य रह सकती है, जबकि चीन की 1.2 प्रतिशत। अगर देश इस भयंकर संकट में कम से कम क्षति झेलते हुए बाहर निकला तो विश्व का नेतृत्व करने की स्थिति में होगा, क्योंकि इसके पास बहुत अनाज होगा, जो एशिया और अफ्रीका के अधिकांश देशों की अगले एक साल में सबसे बड़ी जरूरत होगी।

शायद इसी आशावादिता के तहत प्रधानमंत्री ने एक दिन पहले वित्त मंत्री से लंबी मंत्रणा की और बैंकों की लिक्विडिटी (नकदी संचरण) बढ़ाने के लिए आरबीआई के गवर्नर ने तमाम घोषणाएं की। इन प्रयासों से लॉकडाउन की मार झेल रहे माइक्रो, लघु व मध्यम (एमएसएमई) उद्योगों और विनिर्माण क्षेत्र पर कर्ज का दबाव कम करके उन्हें आर्थिक गति देना है।

एमएसएमई सेक्टर ही देश में कुल रोजगार का 30 फीसदी और कुल उत्पादन का 29 फीसदी देता है। इसमें काम करने वाले करोड़ों मजदूर ही आज लॉकडाउन का दंश झेलते हुए देश के लाखों क्वारंटाइन सेंटरों में अपने परिवार के साथ रहने को मजबूर हुए हैं। लिहाजा अगले चरण में इन्हें फिर से रोजगार में लगाने के लिए इस सेक्टर को जिंदा करना पहली शर्त होगी।

इसका तत्काल लाभ यह होगा कि प्रवासी मजदूर घर जाने की उग्र जिद छोड़कर फिर से रोजी-रोटी कमाने में लग जाएगा। शर्त एक ही होगी सामाजिक दूरी बनाए रखना। सरकार ने असाधारण आशावादिता दिखाते हुए वर्ष 2020-21 के लिए अनाज के उत्पादन का लक्ष्य दो फीसदी बढ़ाकर 2980 लाख टन रखा है।

2019-20 में रिकॉर्ड 2920 लाख टन का उत्पादन आज सरकार को उदारभाव से गरीबों के लिए अनाज देने को उद्धृत कर रहा है। उधर किसानों में हौसला इतना बढ़ गया है कि वर्तमान खरीफ सीजन में तेलंगाना सहित कई राज्यों में (जहां खरीफ की बुवाई पहले होती है) बुवाई का रकबा बढ़ गया है। इसी उत्साह को बनाए रखने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक दिन पहले बताया कि भारत में हर 24 जांच में कोरोना का एक व्यक्ति पाया गया, जबकि अन्य देशों में यह दर 6 से 11 जांच में एक है। यानी भारत में फैलाव कम है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Right initiative of the government to speed up small industries




india news

संकट में निडर और निर्भय होना है हमारी जिम्मेदारी

हमारी हर सोच से हमारी भावनाएं प्रभावित हो रही हैं, हमारा स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है, हमारी हर सोच अनेकों तक पहुंच रही है और चौथा हमारी सोच में प्रकंपन (वायब्रेशन) होता है। यह हमारे आसपास के वातावरण पर प्रभाव डाल रहा है।

हमारी सोच, हमारी हवा पर असर कर रही है। हमारी सोच हमारे पानी पर असर कर रही है। हमारी सोच हमारी प्रकृति पर असर कर रही है। फल, सब्जियां, पौधे, हवा और पानी सहित इस समय हर चीज में भय का प्रकंपन है। जैसे हम कहते हैं न कि आप किस शहर का पानी पीते हो। आप किस गांव का पानी पीते हो। आप जहां का पानी पीते होगें न वैसे आपके संस्कार बन जाते हैं, क्योंकि पानी का हमारे मन और शरीर पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

हम वायु प्रदूषण की बात करते हैं कि उसका हमारे फेफड़ों पर असर पड़ रहा है। लेकिन, हवा में जो प्रकंपन है, उसका हमारे मन पर असर पड़ रहा है। चार लोग एक घर में हैं। उस घर की एक हवा है, लेकिन चार लोग अगर भय का वातावरण बना रहे हों तो उस हवा में डर का प्रकंपन आ जाएगा। उस घर में जो पानी पड़ा होगा, उस पानी को पीने से लोगों के अंदर डर आ जाएगा।

इसलिए कहते हैं जहां गुस्सा होता है, वहां मटके भी टूट जाते हैं। इस समय डर है तो हमारे घर का पानी भी दूषित हो गया, क्योंकि उसमें भी डर का प्रकंपन समाया हुआ है। हम मंदिर जाते हैं, वहां हम अमृत लेते हैं, उस अमृत में क्या है? उस अमृत में किसी ने परमात्मा को याद करके बहुत अच्छे व सकारात्मक विचार भरे हैं।

हम उसको अपनी अंजुली में लेते हैं, फिर ऐसे भगवान को याद करके उसे अपने मुख में डालते हैं। इससे हमें परमात्मा का प्रकंपन मिल रहा है। बाकी तो वो भी पानी ही है। उसमें तुलसी है, लेकिन है तो पानी। हम पानी और तुलसी तो घर में भी ऐसे ले सकते हैं। लेकिन उसमें हम परमात्मा की याद के प्रकंपन तो नहीं डालते हैं। हम मंदिर जाते हैं वो अमृत लेने के लिए। अगर वो अमृत इतने से पानी पर इतना असर कर सकता है, यहां तो पूरा-पूरा ग्लास डर वाले पानी का पिएंगे तो उसका हमारे ऊपर कितना असर होने वाला है।

जब हम कहते हैं सब्जी की ताकत, फ्रूट की ताकत क्यों घटती जा रही है। हम कहते हैं, इसमें केमिकल्स बहुत है। यह सच है लेकिन, इसके साथ ही भावनात्मक अशांति भी बहुत है। इसका सारी प्रकृति पर असर पड़ रहा है। अब हमें याद रखना है कि हमारी सोच का क्या प्रभाव पड़ रहा है।

परिस्थिति है, संकट है, लेकिन इसको मैनेज करने के लिए और इस संकट को खत्म करने के लिए इस समय सिर्फ एक ही चीज नॉर्मल है कि हमें निडर बनना है। अपनी नॉर्मल की परिभाषा को बदलना पड़ेगा कि इस महामारी से बचने के लिए कहीं हम किसी शारीरिक, मानसिक, संबंधों या वातावरण से जुड़ी किसी अन्य महामारी की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं।

इसलिए हमें शांत रहना है, स्थिर रहना है और सबसे महत्वपूर्ण हमें भयरहित रहना है। जब मेरी सब परिस्थितियां अच्छी हैं तब अगर मैं थोड़ा बहुत डर अपने अंदर बिठा लूं तो ठीक है। लेकिन, जब संकट है तो उस समय डर नहीं होना चाहिए। संकट मेंताकतवर होना ही नॉर्मल है। रोज इसे दोहराएं। इस समय सिर्फ और सिर्फ सही सोचना ही नॉर्मल है। इस समय निर्भय, निडर होना ये मेरी जिम्मेवारी है। मैं स्वयं को इसके लिए तैयार करना शुरू कर दें।

हमारे जीवन का एक समीकरण जो हमें बचपन से पता था आज हमेंउसको अपने मन के अंदर पुन: लाना है। सिर्फ याद रखना है- संकल्प से सिद्धि। अभी हमने जीवन का क्या समीकरण बना लिया है- जो हो रहा है वो हम सोच रहे हैं। जबकि जीवन का समीकरण है कि- जो हम सोचेंगे वो होगा। पर जब हम वो सोचेंगे तो वो चीज और ज्यादा होगी। ये सब हमने देखा है अपने जीवन में। कोई चीज एक बार टूटती है आपके घर, कोई चीज दूसरी बार टूटती है, वो सच है। उसके बाद हम यह सोचना शुरू कर देते हैं कि कहीं ये टूट न जाए। ये गिर न जाए। फिर उसके टूटने और गिरने के चांसेज कई गुना ज्यादा बढ़ जाते हैं।

आप शाम को थके हुए घर आते हैं वो सच है। लेकिन, फिर हम यह सोचना शुरू कर देते हैं कि मैं थका हुआ हूं... मैं थका हुआ हूं... जैसे ही हम वो संकल्प करते हैं हमारी थकावट और ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि हमारे संकल्प से सिद्घि होती है, लेकिन जो सच है वो हमें नहीं सोचना है। क्योंकि जो सोच है वो कल का सच बनाती है। अगर थके हुए हैं और ये सोचें मैं परफेक्ट हूं। मैं फ्रेश हूं। मैं ऊर्जावान हूं तो इससे आपके प्रकंपन बदल जाएंगे। फिर आपके संकल्प बदलेंगे। और आप अच्छा फील करना शुरू कर देंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Being fearless and fearless in crisis is our responsibility




india news

क्या हर्ड प्रोटेक्शन कोरोना से लड़ने का सही विकल्प?

रामानन लक्ष्मीनारायण (निदेशक, सेंटर फॉर डीसीज, डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पाॅलिसी, प्रिंसटन यूनीवर्सिटी)

यूरोप और अमेरिका से डरावनी तस्वीर सामने आने के बाद कोविड-19 के संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए लागू किए गए लॉकडाउन को तीन हफ्ते से अधिक समय हो गया है। इस उपाय से निश्चित ही अनेक लोगों की जान बची है, लेकिन लोगों को अपनी नौकरी और आय के रूप में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। जो प्रवासी श्रमिक अपने गांवों को लौट गए हैं, उनका शहरों को वापस लौटना मुश्किल है। हमें कोविड-19 से जीवन की क्षति और उसके आर्थिक प्रभावों को न्यूनतम करने के बीच संतुलन तलाशना होगा, जो पहले ही अनेक भारतीयों को गरीबी और भूख की ओर ले जा रहा है।

काेविड-19 को भारत से खत्म करने की कार्रवाई के तीन संभावित तरीके हो सकते हैं- लॉकडाउन जारी रखना, तब तक संक्रमण को नियंत्रण में रखना जब तक कि वैक्सीन नहीं आ जाती या फिर वायरस को तब तक पर्याप्त लोगों में फैलने देना जब तक हर्ड प्रोटेक्शन हासिल न हो जाए। बढ़ाए गए लॉकडाउन के साथ पहले दाेनों विकल्पों का अर्थव्यवस्था और अनेक भारतीयों की अपने परिवार की देखभाल और पर्याप्त कमाने की क्षमता पर खतरनाक असर पड़ रहा है। हर्ड प्रोटेक्शन हासिल करने का तीसरा विकल्प कोविड-19 के अर्थव्यवस्था और मानव पर प्रभाव को कम कर सकता है।

हर्ड प्रोटेक्शन पाने के लिए आबादी के 65 फीसदी को इस वायरस से संक्रमित होने की जरूरत होगी। एक बार यह संख्या हासिल होने के बाद, जनसंख्या का यह हिस्सा वायरस के प्रति इम्यून हो सकता है, इसके बाद फैलाव रोककर उन लोगों की रक्षा की जा सकती है, जिन्हें अभी तक संक्रमण नहीं हुआ होगा। निश्चित ही, जब तक हर्ड प्रोटेक्शन हासिल होगी, इससे बुजुर्ग जनसंख्या के संक्रमित होने का खतरा है। हालांकि, भारत की बड़ी जनसंख्या के युवा होने से मदद मिल सकती है। हमारी 65 फीसदी जनसंख्या 35 साल से कम की है।

इतनी बड़ी युवा आबादी और स्वस्थ आबादी पर संक्रमण का असर भी बहुत कम होगा, कई लोगोंमें तो कोई लक्षण भी नहीं उभरेंगे। स्वास्थ्य सिस्टम पर दबाव डाले बिना इस ग्रुप को धीरे-धीरे संक्रमित किया जा सकता है। छोटे और नियंत्रित संक्रमण से हर्ड प्रोटेक्शन हासिल हो सकती है। अपनी युवा आबादी के बावजूद भारत भारी वायु प्रदूषण और बड़े पैमाने पर अनियंत्रित हाइपरटेंशन और मधुमेह जैसे रिस्क फैक्टरों की वजह से अतिसंवेदनशील है।

संक्रमण को काबू की जा सकने वाली गति से बढ़ाने की रणनीति में जांच का विस्तार, एक-दूसरे से दूरी, मास्क पहनना, भीड़ पर रोक, बुजुर्गों और खतरे वाली जनसंख्या को सेल्फ क्वारेंटाइन में रखना और नियमित रूप से स्वास्थ्य तंत्र क्षमता को बढ़ाना शामिल होता है। लॉकडाउन और रोकथाम के लिए कड़े प्रावधान व जरूरी उपाय बने रहेंगे।

आरटी-पीसीआर व एंटीबॉडीज दोनाें के ही इस्तेमाल से जांच नियंत्रित संक्रमण को हासिल करने के लिए जरूरी होगी। यह हॉट स्पॉट की पहचान और रोकथाम के और अधिक कड़े उपाय लागू करने में इस्तेमाल होगा और इससे उनका पता लग सकेगा जिन्हें गंभीर केयर की जरूरत होगी। एंटीबॉडी टेस्ट से पता लगता है कि जिन लोगों में संक्रमण हो चुका है और अब उनके इम्यून होने संभावना है, लेकिन हमें यह नहीं पता होता कि यह इम्युनिटी कब तक बनी रहेगी।

लोगों का एंटीबॉडी स्टेटस आधार से लिंक कर यात्रा और काम करने के प्रतिबंध हटाए जा सकते हैं। जब तक हर्ड प्रोटेक्शन विकसित होती है, बुजुर्गों व अधिक खतरे वाले लोगों को सुरक्षित रखने की जरूरत होगी। इन लोगों को सेल्फ-क्वारेंटाइन मंे रखा जा सकता है। जहां पर संसाधन सीमित हों, वहां इन लोगों को जांच में प्राथमिकता दी जा सकती है, ताकि जरूरत पड़ने पर उनको तेजी से जीवन रक्षक इलाज दिया जा सके। हालांकि हर्ड इम्युनिटी विकसित करने के लिए लॉकडाउन के प्रतिबंधों में ढील के जोखिम भी हैं।

रेलवे के कोचों में गंभीर देखभाल यूनिट बनाने जैसे लीक से हटकर सोचे गए समाधान जरूरत पड़ने पर प्रभावी प्रतिक्रिया में अहम होंगे। देश को जोनों में बांटना ठीक नहीं होता है, क्योंकि जिन जोनों में संक्रमण कम होगा वे हर्ड प्रोटेक्शन विकसित होने पर सर्वाधिक संवेदनशील हो जाते हैं। सबसे ताजा मॉडलों से पता चलता है कि व्यवहार में प्रभावी परिवर्तन के बिना, लाॅकडाउन संक्रमण को उच्चतम स्तर तक पहुंचने से सिर्फ कुछ ही महीनों के लिए रोक सकता है।

कर्व को सीधा करने और उच्चतम स्तर को जुलाई तक ले जाने के लिए, ताकि हेल्थ सिस्टम को तैयार होने का मौका मिल सके, जोखिम वाले लोगों को आइसोलेट करना और सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनने और भीड़ पर राेक जैसे व्यावहाजनित उपायों का सख्ती से पालन करना होता है। इसके अलावा बड़े स्तर पर गठबंधन और हरेक के सहयोग की जरूरत पड़ती है। लॉकडाउन हमेशा नहीं रह सकता, लेकिन वायरस के बावजूद लोगों को अपने परिवारों को खिलाने की जरूरत होगी, लेकिन हर्ड प्रोटेक्शन से भारत के युवाआें को एक रक्षा कवच हासिल हो सकता है और यह इस बीमारी से उबरने में मदद कर सकता है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Is Herd Protection the Correct Choice to Fight Corona?




india news

नीति से कमाने, रीति से खर्च करने का समय

अर्थव्यवस्था के भी अलग-अलग रूप हैं। छोटे के लिए छोटी, बड़े के लिए बड़ी। हमारे परिवारों की भी एक अर्थव्यवस्था है। इस समय सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक बीमारी और उसके भय से प्रभावित हो चुकी है। हममें से अधिकांश लोगों ने कई बार ऐसे थपेड़े, ऐसे आक्रमण सहे हैं, जब परिवारों की अर्थव्यवस्था चरमराई हो। तो ऐसे में सुरक्षा की उम्मीद किससे करें? क्या राजनेता इसे समझेंगे? यह अर्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि हमारी जिम्मेदारी हमें ही उठानी है और उसके लिए दो बातों पर काम करना होगा।

पहला, आमदनी के साधन को एक नए होमवर्क के साथ जीवन में उतारना होगा और दूसरा, हो रहे खर्च को बहुत नियंत्रित करना होगा। मतलब यह ‘नीति से कमाएं और रीति से खर्च करें’ का समय है। अब दूसरों के भरोसे घरों की अर्थव्यवस्था नहीं चल पाएगी। ऊपर से इस एक बीमारी ने सारा माहौल ऐसा कर दिया कि अच्छे-अच्छे सहनशील भी चिंता में आ गए हैं।

इसलिए धार्मिक दृष्टि से देखें तो अपनी अर्थव्यवस्था को परमात्मा से जोड़िए। इसका यह मतलब नहीं कि भगवान आपको अतिरिक्त धन दे देगा। इसका सीधा सा अर्थ है यदि अपनी अर्थव्यवस्था को परमशक्ति से जोड़ते हैं तो इसमें परिश्रम, पवित्रता और बचत यानी नीति और रीति आसानी से उतर आएगी। भगवान पर भरोसा रखिए, हिम्मत मत हारिए। आज कम है, कल फिर ज्यादा होगा। भरोसा ही वह ताकत है जो हमारी डगमगाती अर्थव्यवस्था की रक्षा करेगा।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Time to earn policy




india news

नर्स फ्लोरेंस नाइटिंगेल से सिस्टर निवेदिता तक

एक अस्पताल में भर्ती किए गए रोगियों में कुछ वायरल पीड़ित पाए गए। सुरक्षा की खातिर सेवारत डॉक्टर्स को पांच सितारा होटल में क्वारेंटाइन किया गया, परंतु नर्सों को ऐसी जगह रखा जहां सामान्य सुविधाएं भी नहीं थीं। भेदभाव रहित और वर्ग भेद से मुक्त समाज हमारा आदर्श है, परंतु यथार्थ कुछ और है। युद्ध में विजय का श्रेय सेनापति को दिया जाता है। युद्ध में घायल व्यक्ति के जमकर संघर्ष करने को सराहा तक नहीं जाता। इतिहास विजेता के दृष्टिकोण से लिखा जाता है और सबलटर्न इतिहास अर्थात साधारण सिपाही की आंख से देखा युद्ध विवरण कभी इतिहास में दर्ज नहीं होता। अवाम केवल आर.के. लक्ष्मण के कार्टून में दिखता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वायरस से लड़ने वाले डॉक्टर वर्ग को हम प्रणाम करते हैं, परंतु नर्स की उपेक्षा खटकती है।

आयरलैंड में जन्मी मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल के पिता शिक्षक थे। अपने पिता से उसने सीखा कि मनुष्य की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना है। मार्गरेट की सगाई के कुछ समय पश्चात उनके होने वाले पति की मृत्यु हो गई। घटना ने मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल का जीवन ही बदल दिया।

ज्ञातव्य है कि स्वामी विवेकानंद के उदात्त विचारों का मार्गरेट पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्हें सिस्टर निवेदिता नाम भी स्वामी विवेकानंद ने दिया। सिस्टर निवेदिता ने कलकत्ता में लड़कियों की शिक्षा के लिए एक स्कूल की स्थापना की। इस संयोग को देखें कि मदर टेरेसा की तरह सिस्टर निवेदिता ने भी कलकत्ता को अपना कर्यक्षेत्र बनाया।

चरक संहिता में भी रोगी की सेवा करने वाले का गुणगान किया गया है। सन् 1853 से 1856 तक रूस के खिलाफ एक युद्ध लड़ा गया। घायलों की सेवा करने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गईं। इसी के साथ नर्स शब्द का उपयोग किया जाने लगा। कलकत्ता में ‘भगिनी निवेदिता’ नामक फिल्म भी बनी थी। मात्र 43 वर्ष की आयु में सिस्टर निवेदिता की मृत्यु हुई और उन्हें दार्जिलिंग में खाके सुपुर्द किया गया। कब्र पर यह इबारत लिखी हुई है- ‘हीयर लाइज सिस्टर निवेदिता हू गेव ऑल टू इंडिया’।

एक विदेशी फिल्म का कथासार यूं है कि युद्ध में घायल एक फौजी की तीमारदारी नर्स ने की। उसके जख्म भरने में लंबा समय लगा और इस दरमियान नर्स से उसे प्रेम हो गया। नर्स से आने का वादा करके गया वह व्यक्ति कभी लौटा ही नहीं। बाद में जानकारी मिली कि वह शादीशुदा था। इस तरह मनुष्य की सेवा करने वाली नर्स को एक स्वार्थी व्यक्ति कभी नहीं भरने वाला जख्म दे गया।

संभवत: महेश भट्‌ट ने भी इसी तरह की फिल्म बनाई थी जिसमें निदा के गीत और हैदराबाद के करीम का संगीत था। नन और नर्स में अंतर यह है कि नन क्राइस्ट की सेवा करती है और नर्स रोगी मनुष्यों की सेवा करती है। एक नर्स का जीवन कष्टों से भरा होता है। रोगी को समय पर दवा देना, मल-मूत्र एवं गंदगी के बीच अपना काम करना होता है। वे अपने हृदय में उठते आवेगों को संयमित रखती हैं। उनका ममतामयी स्पर्श भी इलाज का ही एक हिस्सा है।

संगीतकार हेमंत मुखर्जी ने वहीदा रहमान अभिनीत गुलजार की फिल्म ‘खामोशी’ में मधुर गीत दिए हैं। वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है- वो कल भी मेरे पास थी, वो आज भी करीब है’। ‘खामोशी’ का क्लाइमैक्स दिल दहलाता है जब सिस्टर स्वयं पागल हो जाती है।

भारत के महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु लंबे समय बीमार रहे। उन्होंने अपनी नर्स से विवाह किया। खाकसार के एक परिचित डायबिटीज रोगी थे। उन्हें इंसुलिन इंजेक्शन देने नर्स आती थी, जिसे प्रतिदिन पचास रुपए देने होते हैं। उस चतुर व्यापारी ने नर्स से विवाह करने को ही किफायत और लाभ का सौदा समझा। परंतु कालांतर में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्रों और नर्स विमाता के बीच अदालती कार्यवाही हुई। जीवन में शॉर्ट कट लंबे समय में कष्ट ही देता है। इस समय डॉक्टर, नर्स और नागरिक का तालमेल ही हमें बचा सकता है। नर्स के सफेद शफ़्फ़ाफ़ यूनिफॉर्म पर हमारी अवहेलना का कोई दाग नहीं लगना चाहिए।




Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Nurse Florence Nightingale to Sister Nivedita




india news

ऑनलाइन-ऑफलाइन कामों में बदलाव के लिए तैयार रहें

शुक्रवार सुबह लंदन के कुछ अखबारों ने इंग्लैंड के पूर्व कप्तान केविन पीटरसन की तस्वीर छापी, जिसमें वे खुद को और उनके बेटे को यूके के उपनगर सरे में अपने घर पर ‘टेनिस बॉल हेयरकट’ (बाल काटने का एक तरीका) दे रहे थे।

कुछ समय पहले हमने सुना कि अनुष्का शर्मा ने भी विराट कोहली के बाल काटे। मुझे नहीं पता कि हममें से कितने लोग उनके जैसे भाग्यशाली हैं, लेकिन लॉकडाउन के बाद हेयरड्रेसर्स की ऐसी दुकानों, जिनके साफ न होने की आशंका है, उनसे कोरोना वायरस फैलने का डर सोशल मीडिया पर काफी चल रहा है।

तमिलनाडु के छोटे से शहर कुंभकोणम में 60 और 70 के दशक के दौरान ऐसे हेयरड्रेसर थे। ये अपने साथ एल्युमिनियम का एक डिब्बा लेकर चलते थे, जिसमें अच्छे से बाल काटने और दाढ़ी बनाने के सभी औजार होते थे और वे सुबह के समय गलियों में आते-जाते रहते थे। शेविंग का दिन किसी भी ऐसे दिन नहीं होना चाहिए, जो ईश्वर के उत्सव का या पितृ कर्म का दिन हो, जैसे अमावस्या या पूर्णिमा। शेविंग और बाल कटवाना सख्ती से केवल कुछ खास तय दिनों पर ही होता था, फिर भले ही उन्हें किसी भी दिन शादी या कार्यक्रम में क्यों न जाना हो।

जिस दिन नाई आने वाला होता था, उस दिन दादाजी डेटॉल की बॉटल, फिटकरी का टुकड़ा, छोटा आईना आदि तैयार करके रख लेते थे। उनका नियम था कि नाई केवल अपना हुनर घर के अंदर ला सकता है, अपने औजार नहीं, साथ ही उसे केवल पीछे के दरवाजे से आने की अनुमति थी। जब नाई डेटॉल से अपने हाथ धोता था, तब दादाजी कुएं के पास दो तौलिए रख देते थे। इनमें से एक नाई के जाने के तुरंत बाद, बाल्टी में रखे पानी से नहाकर खुद को पोंछने के लिए होती थी।

खुद को सुखाने के बाद दादाजी एक बार फिर कुएं से पानी निकालकर नहाते थे। वे खुद पर इतना पानी डालते थे कि ऐसा लगता था मानो भगवान ने उन्हें पूरा कुआ खाली करने का काम दिया हो। इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि यह पानी चार दर्जन केलों और कई दर्जन अलग-अलग फलों के पेड़ों में जाता था, जो कुएं के पीछे बगीचे में थे। मुझे नहीं पता कि हममें से कितने लोग मेरे दादाजी की तरह ऐसा व्यवहार करने वाले हैं पर हम लंबे समय तक किसी के द्वारा छुए जाने से डरेंगे।

पंडित और पुजारी भी अब इस लॉकडाउन के चलते ऑनलाइन माध्यम से ही व्हाट्सएप वीडियो कॉल या स्काइप के जरिये सेवाएं दे रहे हैं। पूजा अब ऑनलाइन हो रही हैं और वे आपके कम्प्यूटर पर एक क्लिक से आपके भगवान से आपको जोड़ रहे हैं।

फंडा यह है कि हम यह नहीं जानते कि लॉकडाउन के बाद हमारा रवैया कैसा होगा, लेकिन कई गतिविधियों में बड़े बदलावों के लिए तैयार रहें, जिनमें ज्यादातर ऑफलाइन काम ऑनलाइन होने लगेंगे।




Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Be prepared for changes in online-offline tasks




india news

वैक्सीन नहीं आया तो सीजनल फ्लू बन सकता है कोविड-19, यानी हर साल लौटेगा; 2022 तक तो सोशल डिस्टेंसिंग रखनी ही होगी

महज दो महीने के भीतर ही चीन से निकलकर कोरोनावायरस पूरी दुनिया में फैल गया। 1.5 लाख लोगों की जान ले चुके कोरोनावायरस के डर से दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी घर पर रहने को मजबूर है। अमेरिका जैसे ताकतवर देश भी इसके आगे बेबस हैं। लेकिन, बड़ा सवाल अब भी है कि ये महामारी खत्म कैसे होगी?

कुछ दिन पहले अमेरिका के कोरोनावायरस टास्क फोर्स के डॉ. एंथनी फाउची ने कहा था कि इस बात की पूरी संभावना है कि कोरोना सीजनल फ्लू या मौसमी बीमारी बन जाए। अब ऐसी ही बात साइंस मैगजीनमें छपी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्च में भी सामने आई है। इस रिसर्च में कहा गया है, जब तक कोरोनावायरस का कोई असरदार इलाज या वैक्सीन नहीं मिल जाता, तब तक इस महामारी को खत्म करना नामुमकिन है। इसके मुताबिक, बिना वैक्सीन या असरदार इलाज के कोरोना सीजनल फ्लू बन सकता है और 2025 तक हर साल इसका संक्रमण फैलने की संभावना है।

17 अप्रैल तक दुनियाभर में कोरोनावायरस के 22 लाख से ज्यादा मामले आ चुके हैं। जबकि, 1.50 लाख लोगों की मौत हुई है।

कोरोना क्यों सीजनल फ्लू बन सकता है?
सबसे पहले तो ये कि इस बीमारी का नाम कोविड-19 है, जो सार्स कोव-2 नाम के कोरोनावायरस से फैलती है। कोरोनावायरस फैमिली में ही सार्स और मर्स जैसे वायरस भी होते हैं। सार्स 2002-03 और मर्स 2015 में फैल चुका है। इसी फैमिली में दो ह्यूमन वायरस भी होते हैं। पहला: HCoV-OC43 और दूसरा : HCoV-HKU1।

सार्स और मर्स जैसी महामारियों से जल्द ही छुटकारा मिल गया था। जबकि, HCoV वायरस हर साल सर्दियों के मौसम में इंसानों को संक्रमित करता है। इसी वायरस की वजह से सर्दी के मौसम में सर्दी-जुकाम होता है।

दरअसल, किसी भी बीमारी से लड़ने में इम्यून सिस्टम मददगार होता है। किसी इंसान का इम्यून सिस्टम जितना स्ट्रॉन्ग होगा, वह किसी बीमारी से उतनी ही मजबूती से लड़ सकेगा। इसलिए जब हम बीमार होते हैं, तो हमारा शरीर उस बीमारी से लड़ने की इम्युनिटी बना लेता है और हम ठीक हो जाते हैं।

अब दोबारा HCoV पर आते हैं। हर साल इंसानों को सर्दी के मौसम सर्दी-जुकाम होता है। इसका मतलब हुआ कि, इस वायरस से लड़ने के लिए इंसानों में इम्युनिटी शॉर्ट-टर्म के लिए ही डेवलप होती है। यही वजह है हर साल हमें सर्दी-जुकाम हो जाता है।

इसी तरह से अगर सार्स कोव-2 से लड़ने की इम्युनिटी भी शॉर्ट-टर्म के लिए रही तो ये वायरस हमारे जीवन का हिस्सा बन सकता है और हर साल लौट सकता है। यानी, कोरोनावायरस या कोविड-19 के सीजनल फ्लू बनने की संभावना भी है।

डब्ल्यूएचओ ने हाल ही में बताया है कि दुनियाभर में कोरोना की 70 वैक्सीन पर काम हो रहा है। जिसमें से 3 पर ह्यूमन ट्रायल भी शुरू हो चुका है।

2025 तक भी रह सकती ये बीमारी
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की स्टडी में पाया गया है कि अगर कोविड-19 को लेकर इम्युनिटी बन भी गई, तो भी इस बीमारी को पूरी तरह से खत्म होने में 2025 तक का समय लगेगा। हालांकि, इस बात की संभावना भी कम है क्योंकि, अकेले दक्षिण कोरिया में 111 लोग जो कोरोना से ठीक हो गए थे, वे दोबारा संक्रमित हुए हैं।

कोरोना से निपटने के लिए ज्यादातर देशों में लॉकडाउन है और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे तरीक अपना रहे हैं। लेकिन, वैज्ञानिकों का कहना है कि लॉकडाउन से भी कोरोना के संक्रमण को खत्म नहीं किया जा सकता है। उनके मुताबिक, लॉकडाउन लगाकर कोविड-19 के फैलने की रफ्तार को कुछ दिन के लिए कम कर सकते हैं या रोक सकते हैं, लेकिन जैसे ही लॉकडाउन खुलेगा, दोबारा इसका संक्रमण फैल सकता है। इसीलिए, जब तक कोविड-19 का कोई असरदार इलाज या वैक्सीन नहीं आ जाता, तब तक इससे बचने का एकमात्र तरीका है- सोशल डिस्टेंसिंग।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ इम्यूनोलॉजी एंड इन्फेक्शियस के रिसर्चर और इस स्टडी के लीड ऑथर स्टीफन किसलेर का मानना है कि कोविड-19 से बचने के लिए हमें कम से कम 2022 तक सोशल डिस्टेंसिंग बनानी होगी।

टोटल लॉकडाउन नहीं, लेकिन डेढ़ साल तक कुछ प्रतिबंध जारी रखने होंगे
अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता एरिन मोर्डेकाई कहती हैं कि, 1918 में जब स्पैनिश फ्लू फैला था, तब अमेरिका के कुछ शहरों ने 3 से 8 सप्ताह तक लगी पाबंदी को अचानक हटा दिया था। इसका नतीजा ये हुआ था कि ये फ्लू कम समय में ही ज्यादा जगहों में फैल गया। स्पैनिश फ्लू से 50 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हुए थे, जबकि 5 करोड़ लोगों की मौत हुई थी।

एरिन आगे कहती हैं किकोरोना के डर से हमें साल-डेढ़ साल के लिए पूरी तरह से लॉकडाउन रखने की जरूरत नहीं है,लेकिन12 से 18 महीनों तक हमें कुछ प्रतिबंध जारी रखने होंगे।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Coronavirus Vaccine | Harvard University Researchers Novel Coronavirus (COVID-19) Report Updates On How To Stop Global Spread OF Virus Over Coronavirus Vaccine




india news

कोरोना के सबसे ज्यादा असर वाले 20 देशों में से भारत ने सबसे कम मामले रहते हुए लॉकडाउन लगाया, 6 देशों में अब तक टोटल लॉकडाउन नहीं

भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को आया था। 4 मार्च को इसके मरीजों की संख्या 7 से बढ़कर 29 हो गई थी। इसी दिन के बाद से केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने एहतियात के तौर पर कदम उठाने शुरू कर दिए। दिल्ली ने सबसे पहले स्कूल कॉलेज बंद किए। 10 मार्च को जब मामले दोगुने (60) हुए तो अलग-अलग राज्य सरकारों ने भी स्कूल-कॉलेजों बंद करने के आदेश जारी करदिए।

15 मार्च आते-आते मरीजों की संख्या 100 पार हुई तो देश के धार्मिक स्थलों पर तालाबंदी होने लगी। 22 मार्च को पूरे देश में जनता कर्फ्यू लगाया गया और इसी दिन से देशभर के अलग-अलग शहरों में लॉकडाउन का ऐलान होने लगा। इसके बाद 25 मार्च से पूरे देश में ही लॉकडाउन कर दिया गया।

कोरोना के सबसे ज्यादा असर वाले 20 देशों में से भारत ही ऐसा देश है, जिसने महज 500 मामले सामने आने के बाद ही टोटल लॉकडाउन कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी का यह फैसला चौंकाने वाला था। न ही देश में और न ही बाहर किसी को उम्मीद थी कि 135 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में महज 536 मामले आने के बाद ही पूरे देश को लॉकडाउन कर दिया जाएगा।

भारत के अलावा ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड और पुर्तगाल में भी 1000 मामले होते ही फौरन टोटल लॉकडाउन लगा दिया गया था। हालांकि इन देशों की जनसंख्या भारत की10% भी नहीं थी। समय रहते लॉकडाउन के बाद इन चारों देशों में हालात ठीक हैं, जबकि जिन देशों में लॉकडाउन लगाने में देरी हुई या जिनमें अब तक लॉकडाउन नहीं लगाया गया, वहां हालात काबू से बाहर है।

20 सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में से अमेरिका समेत 6 देशों में अब तक नेशनल लेवल का लॉकडाउन नहीं है। अमेरिका में कुल संक्रमितों की संख्या 7 लाख के करीब पहुंच गई है, मौतों का आंकड़ा भी यहां 35 हजार हो गया है। उधर, यूरोप के सबसे ज्यादा प्रभावित 5 देशों में 5-5 हजार मामले सामने आने के बाद लॉकडाउन लगाया गया था, वहां अब संक्रमण के लाखों मामले हैं। इन 5 देशों में मौतों का आंकड़ा 10-10 हजार से ज्यादा है।

10 सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में से 3 में अब तक टोटल लॉकडाउन नहीं

1. अमेरिका
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन नहीं
पहला केस: 23 जनवरी
कुल कोरोना संक्रमित : 6.8 लाख+, कोरोना से कुल मौतें: 33 हजार+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 29 फरवरी को वॉशिंगटन के 2 स्कूलों को बंद किया गया। इसके बाद 5 मार्च को वॉशिंगटन के सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया। 12 मार्च को ओरिगन राज्य में 250 से ज्यादा लोगों की भीड़ पर प्रतिबंध लगा। 13 मार्च को न्यूयॉर्क में 500 से ज्यादा लोगों की भीड़ पर पाबंदी लगी। इसके बाद 19 मार्च से लेकर 3 अप्रैल तक 17 राज्यों ने स्टे एट होम पॉलिसी लागू की। यहां लॉकडाउन का फैसला राज्यों पर छोड़ा गया है। नेशनल लेवल पर अब तक लॉकडाउन की घोषणा नहीं हुई है।

अमेरिका में नेशनल लेवल पर लॉकडाउन नहीं है। अलग-अलग राज्यों और शहरों के एडमिनिस्ट्रेशन ने अपनी जरूरत के हिसाब से लॉकडाउन कर रखा है। तस्वीर अमेरिका के सिएटल शहर की है। यहां सड़कें इन दिनों खामोश हैं।

2. स्पेन
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 1 फरवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 1.8 लाख+ , कोरोना से कुल मौतें: 19 हजार+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 14 मार्च से टार्गेटेड लॉकडाउन शुरू हुआ। 16 मार्च से सभी स्कूल, कॉलेज और एजुकेशन सेंटरों को बंद करने का आदेश दिया गया। 31 मार्च तक सभी गैरजरूरी सेवाओं और दुकानों को बंद कर दिया गया।

तस्वीर स्पेन के मैड्रिड शहर की है। यहां लॉकडाउन के बीच रोजाना काम पर जाने वालों के लिए मेट्रो सर्विस चालू है।

3. इटली
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 31 जनवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 1.7 लाख+, कोरोना से कुल मौतें: 22 हजार+


लॉकडाउन से जुड़े कदम: 22 फरवरी को इटली के वेनेटो और लोम्बॉर्डी में कुछ शहरों को लॉकडाउन किया गया। इनके बाद उत्तरी हिस्से के कई शहरों में लॉकडाउन लगाया जाने लगा। 4 मार्च को सभी स्कूल और कॉलेज को बंद किया गया। इटैलियन फुटबॉल लीग सीरी-ए समेत सभी स्पोर्ट्स एक्टिविटी भी बंद कर दी गईं। 10 मार्च से टोटल लॉकडाउन लागू किया गया। फिलहाल यहां, 14 अप्रैल से स्टेशनरी और बुक स्टोर को खोला जाने लगा है।

लॉकडाउन के बीच इटली के ज्यादातर शहरों में वॉलेंटियर्स ही लोगों के घरों तक खाना पहुंचा रहे हैं।

4. फ्रांस
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 24 जनवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 1.5 लाख+, कोरोना से कुल मौतें: 18 हजार+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 29 फरवरी को 5 हजार से ज्यादा की भीड़ पर बैन लगाया। 16 मार्च से फ्रांस के सभी स्कूलों को बंद करने के आदेश दिए गए। इसके 2 दिन पहले ही बार, रेस्टोरेंट और सभी गैरजरूरी दुकानों और सेवाओं को बंद करने के आदेश आ चुके थे। 17 मार्च को फ्रांस ने अपनी सीमाएं भी सील कर लीं।

फ्रांस में हर दिन कैबिनेट मीटिंग के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस होती है। यहां 11 मई तक लॉकडाउन को बढ़ा दिया गया है।

5. जर्मनी
स्टेटस: टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 27 जनवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 1.4 लाख+ , कोरोना से कुल मौतें: 4 हजार+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 10 मार्च को जर्मनी के कई राज्यों ने 1000 से ज्यादा की भीड़ को बैन किया। 16 मार्च से स्कूलों को बंद करने के आदेश दिए गए। 20 मार्च को जर्मनी के सभी राज्यों ने सोशल इवेंट और हर छोटी-बड़ी भीड़ पर पाबंदी लगाई। 22 मार्च से देश में टोटल लॉकडाउन लागू हुआ।

म्यूनिख के बीयर गार्डन में इन दिनों टेबलें खाली हैं।

6. यूके
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 31 जनवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 1 लाख+ , कोरोना से कुल मौतें: 13 हजार+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 21 मार्च को कुछ वेन्यू और बिजनेस को बंद करने को कहा गया। 23 मार्च से सभी स्कूल, कॉलेज बंद करने का ऐलान हुआ। 24 मार्च से टोटल लॉकडाउन लागू हुआ।

मैनचेस्टर का एम-60 मोटरवे पर इन दिनों इक्का-दुक्का गाड़ियां नजर आती हैं।

7. चीन
स्टेटस: टोटल लॉकडाउन नहीं
पहला केस: 31 दिसंबर 2019
कुल कोरोना संक्रमित: 83 हजार+, कोरोना से कुल मौतें: 4,500+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 23 जनवरी को वुहान लॉकडाउन किया गया, इसके बाद हुबेई राज्य और फिर कई अन्य शहरों को भी लॉकडाउन किया गया। 9 फरवरी से कुछ और राज्यों में लॉकडाउन लागू किया गया। फिलहाल, 16 मार्च से यहां स्कूल खुलने लगे। हुबेई प्रांत को छोड़कर 90% लोग काम पर लौटे। 26 मार्च से वुहान शहर में भी कमर्शियल आउटलेट खुल रहे हैं।

चीन का वुहान शहर 76 दिन तक लॉकडाउन रहा। 8 अप्रैल को यहां से लॉकडाउन हटा लिया गया।

8. ईरान
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 19 फरवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 78 हजार+ , कोरोना से कुल मौतें: 4,800+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 22 फरवरी को किसी भी तरह के आर्ट और फिल्म से जुडे़ इवेंट कैंसिल किए गए। 24 फरवरी से स्पोर्टिंग इवेंट कैंसिल हुए और 1 मार्च से जुमे की नमाज बैन कर दी गई। 5 मार्च को सभी स्कूल, कॉलेज बंद कर दिए गए। 13 मार्च से लॉकडाउन लागू हुआ। ईरान रिवॉल्युशनरी गॉर्ड्स को सड़के और दुकानों को खाली कराने की जिम्मेदारी दी गई। फिलहाल यहां 11 अप्रैल से देश के बाहरी हिस्से में बिजनेस और कामकाज फिर से शुरू हुआ है।

ईरान में लॉकडाउन के बीच जरूरी काम के लिए बाहर जाने की छूट है। तस्वीर तेहरान के तजरीस बाजार की है।

9. तुर्की
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन नहीं
पहला केस: 12 मार्च
कुल कोरोना संक्रमित: 70 हजार+ , कोरोना से कुल मौतें: 1500+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 16 मार्च को स्कूलों को बंद किया गया। कैफे, स्पोर्ट्स, एंटरटेनमेंट वैन्यू भी बंद किए गए। हाल ही में 11-12 अप्रैल को यहां कुछ शहरों में दो दिन का कर्फ्यू भी लगाया गया। यहां अभी तक टोटल लॉकडाउन नहीं है।

तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में दो दिन के कर्फ्यू लगने के पहले की तस्वीर। यहां 70 हजार से ज्यादा कोरोना मरीज होने के बावजूद अब तक लॉकडाउन नहीं किया गया है।

10. बेल्जियम
स्टेटस:
टोटल लॉकडाउन
पहला केस: 4 फरवरी
कुल कोरोना संक्रमित: 35 हजार+ , कोरोना से कुल मौतें: 4800+

लॉकडाउन से जुड़े कदम: 14 मार्च को स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया गया। इसके साथ ही रेस्टोरेंट, जिम, सिनेमा और अन्य जगहें भी बंद किए गए। 18 मार्च से टोटल लॉकडाउन शुरू हो गया। भारत की तरह ही बेल्जियम ने भी कम मामले सामने आते ही टोटल लॉकडाउन लगाया।

तस्वीर बेल्जियम के लाईग शहर के नेशनल थियेटर की है। बेल्जियम में कोरोना संक्रमण के 1000 से ज्यादा मामले होते ही लॉकडाउन लागू कर दिया गया था।

(सोर्स: ऑक्सफोर्ड कोविड-19 गवर्मेंट रिस्पोंस ट्रैकर, जॉन हॉपकिंस कोरोनावायरस रिसोर्स सेंटर)



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Coronavirus India US Italy | Coronavirus India Latest Update Vs Italy Spain USA Canda COVID-19 Cases Death from COVID-19 Virus Pandemic




india news

रातभर का मेहमां है अंधेरा

भारतीय टेलीविजन पर एक खबर आई है। चीन के डॉक्टर का कहना है कि कोरोना पीड़ित व्यक्ति इलाज के बाद स्वस्थ हो जाता है, परंतु उसके मस्तिष्क में बीमारी की याद लंबे समय तक कायम रहती है। कालांतर में यह याद यथार्थ का वायरस बनकर मनुष्य को फिर बीमार कर सकती है। आज खबरों की विश्वसनीयता घट गई है। यह निर्णय करना कठिन है कि क्या सच है और क्या झूठ। केमिकल वारफेयर से अधिक भयावह है अफवाह का अंधड़। मनुष्य मस्तिष्क की रहस्यमय कंदरा में घटाटोप है और विचार के जुगनू की झिलमिल में कुछ नजर आता है। क्या नजरों के दिल से या दिल की नजर से देखें?

सन् 1895 में लुमियर बंधुओं ने चलती-फिरती छवियों को फोटोग्राफ करने की विधा का आविष्कार किया। चार वर्ष पश्चात यूरोप के दार्शनिक बर्गसन ने कहा था कि सिने कैमरा और मानव मस्तिष्क की कार्यशैली समान है। मनुष्य की आंख लेंस की तरह स्थिर चित्रों का संकलन मस्तिष्क के स्मृति कक्ष में जमा करती है। एक विचार की ऊर्जा से ये चित्र चलायमान हो जाते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क और स्त्री की प्रजनन प्रक्रिया आज भी रहस्यमयी है। इन पर बहुत शोध हुआ है, परंतु गांठ पर गांठ जैसा यह धागा सुलझता ही नहीं वरन् सुलझाने के प्रयास में अधिक उलझता जाता है। बाहर सौ-सौ गांठें, भीतर भय का डेरा, यह घर तेरा ना मेरा, खाली रैनबसेरा।

लगभग 70 वर्ष पूर्व की एक घटना इस तरह है कि एक बुद्धिमान व्यक्ति अकारण उदास और अन्यमनस्क बना रहता था। उसे अनजानी चिंता सतत तंग करती थी। हर पल-क्षण उसका शरीर पसीने से तर हो जाता था। उसने डॉक्टर से परामर्श किया। सर्जन ने शल्य चिकित्सा द्वारा मस्तिष्क से चिंता के सेल हटा दिए। इस प्रक्रिया को प्रीफ्रंटल लोबोटॉमी कहते हैं। इसके बाद उस व्यक्ति ने चिंता करना या अकारण भयभीत होना बंद कर दिया, परंतु उसकी विचार शक्ति घट गई। वह जिस दफ्तर में अफसर था, उसी दफ्तर में चौकीदार बना दिया गया। उस व्यक्ति को केवल भूख लगती थी और वह शारीरिक श्रम कर सकता था।

इस तरह वह कमोवेश एक विचारहीन रोबो हो गया। उसके भाई ने सर्जन और अस्पताल पर दावा ठोका। लंबे मुकदमे के बाद किसी को दोषी नहीं पाया गया, परंतु प्रीफ्रंटल लोबोटॉमी को अवैध घोषित कर दिया गया। यह डॉक्टर पुर्तगाल में जन्मा था। इसका नाम एंटोनियो कैटानो डी अब्रेयू फ्रीयर एगास मोनिज़ था। इस डॉक्टर ने 11 वर्षों में लगभग 2000 ऑपरेशन किए।

अत्यंत दुखद बात यह है कि इसी डॉक्टर को नोबल प्राइज से भी नवाजा गया। इरविंग वैलेस ने अपने उपन्यास ‘द प्राइज’ में सारे मामले को सप्रमाण उजागर किया है। सुनील दत्त ने एकल पात्र अभिनीत ‘यादें’ फिल्म बनाई थी। सुभाष घई ने भी ‘यादें’ नामक फिल्म बनाई थी। कथा में जैकी श्रॉफ अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी तीन बेटियों को पालता है। उसके एक अमीर मित्र का बेटा ऋतिक रोशन अभिनीत पात्र का करीना अभिनीत कन्या से प्रेम हो जाता है। अमीर-गरीब का भेद प्रेम-कथा में रुकावट डालता है परंतु अंत भला सो सब भला की तरह सुखांत फिल्म रची गई। इसे भी अधिक दर्शक नहीं मिले।

मरीज प्राय: याद का क्लोरोफार्म लिए, दर्द की सेज, पर प्रेम के नगमे गुनगुनाता रहता है। अस्पताल के विशेष सेवा-कक्ष में अच्छे दिनों की यादें उसका सम्बल बनती हैं। लेखक जॉन इरविंग के आत्म-कथात्मक उपन्यास ‘द वर्ल्ड अकॉर्डिंग टू गार्प’ में अस्पताल की नर्स इच्छाओं से वशीभूत मरीज के साथ हमबिस्तर होती है, जिसे वह मात्र नर्सिंग का कार्य ही मानती है। नायक का जन्म इसी अंतरंगता से होता है। इस उपन्यास के माता-पुत्र पात्र भावना की तीव्रता के साथ मासूम पागलपन के शिकार हैं।

बहरहाल, मानव मस्तिष्क में कोरोना वायरस के जीवित बने रहने और पुन: आक्रमण पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। यह रोग जेनेटिक भी नहीं है। जयशंकर प्रसाद की कविता है- ‘जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई, दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसने आई।’ सभी पीड़ाएं बह जाती हैं। दवा की एक्सपायरी डेट की तरह रोग भी समाप्त होते हैं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Dark night is dark




india news

कलियुग अलग-अलग अवतारों में ‘दानवीर कर्ण’ को जन्म दे रहा है!

सोमवार की रात मेघला दर्द से तड़पते हुए मदद के लिए चिल्ला रही थी और अपने भगवान को बार-बार याद कर रही थी क्योंकि यह दर्द केवल महिलाएं ही महसूस कर सकती हैं। उसके बुजुर्ग माता-पिता आधी रात को 12 बजने से 15 मिनट पहले पुडुचेरी की सुनसान और अंधेरी सड़कों पर मदद के लिए भागे। उन्होंने वहां मौजूद अकेले कॉन्सटेबल आर. करुणाकरन से एक ऑटो की व्यवस्था करने की विनती की क्योंकि उनकी बेटी प्रसव पीड़ा में थी।

आपात स्थिति को समझते हुए कॉन्सटेबल मदद के लिए सड़क के किनारे खड़े कुछ ऑटो के पास पहुंचा। उसने उन घरों की घंटी बजाई, जहां ऑटो खड़े हुए थे। एक घर में एक बुजुर्ग ने कहा कि वह ऑटो किराए पर देते हैं, लेकिन उन्हें खुद ऑटो चलाना नहीं आता। लगभग 15 साल पहले, करुणाकरन दोस्तों के साथ मस्ती के लिए ऑटो चलाते थे। उस रात, करुणाकरण ने चाबी ली, ऑटो शुरू किया और मेघला और उसके माता-पिता को अस्पताल पहुंचाया। उसे लेबर रूम में ले जाया गया और पांच मिनट से भी कम समय में उसने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया।

हम सभी जानते हैं कि इस संकट की घड़ी में जो लोग बहुत गरीब हैं उन्हें मदद मिल रही है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित खुद का रोजगार करने वाले निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं, जो नहीं जानते कि अनजान लोगों से कैसे मदद मांगें, जो लाइन में लगकर जरूरी सामान लेने से इंकार कर देते हैं क्योंकि इसमें उन्हें शर्मिंदगी महसूस होती है। जयपुर शहर में चश्मे बेचने वाले दोस्तों का एक समूह अपने पड़ोस में ऐसा होते देख रहा था। उन्होंने एक सप्ताह पहले एक मिशन शुरू किया जिसका नाम है ‘कोई भी भूखा न सोए’।

इस नई पहल के तहत, उन्होंने कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक मोबाइल नंबर साझा किया और लोगों से कहा कि अगर उन्हें किसी भी किराने के सामान की जरूरत है तो इस नंबर पर कॉल करें। जो भी व्यक्ति मदद के लिए फोन करता है, उसे अपने पास की नियमित किराने की दुकान पर जाने के लिए कहा जाता है और उन्हें जरूरी सामान (जिसकी सूची पहले ही तय है) लेने के लिए कहा जाता है। सामान लेने के बाद उन्हें दुकानदार का पेटीएम नंबर भेजने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार जिस व्यक्ति ने सहायता दी और जिसने सहायता की वह एक दूसरे को नहीं जान पाते हैं और उनके लिए शर्म की समस्या हल हो गई। दान करने वाले को भी विश्वास रहता है कि उसका दान सही व्यक्ति तक पहुंच गया है। यही कारण है कि यह समूह खुद को ‘करने वाला श्याम और कराने वाला श्याम’ कहते हैं, ताकि इस अच्छे काम में किसी का भी नाम उजागर न हो।

उन सभी की दोस्ती दुर्योधन और कर्ण जैसी है। राजस्थान के अजमेर शहर के पास करीब 6,000 की आबादी वाला मायापुर गांव है, जिसमें ज्यादातर युवा हैं। लॉकडाउन के बाद हेयर सैलून जैसी सेवाएं बंद होने के कारण यहां के युवा काफी परेशान थे क्योंकि वे अपनी पसंदीदा हेयरस्टाइल नहीं बना पा रहे थे। पिछले 20 दिनों में अजीब-सी हेयरस्टाइल से चिंतित होकर आखिरकार इनमें से ज्यादातर युवाओं ने सिर मुंडवा लिए ताकि हेयरस्टाइल की कोई चिंता ही न हो। मिलकर सिर मुंडवाकर उन्होंने दोस्ती भी निभाई क्योंकि सभी गंजे हो गए हैं, इसलिए यह चिंता भी दूर हो गई है कि कोई उन्हें चिढ़ाएगा।

चार बच्चों के पिता के लिए 500 रुपए उसकी आठ दिन की मजदूरी है। वह एक ऐसे समुदाय से ताल्लुक रखता है, जो रोजगार की तलाश में इधर-उधर जाता रहता है, लेकिन दस्तावेजों की कमी के कारण उसे कभी सरकार से कोई मदद नहीं मिलती है। 32 वर्षीय पी रमेश कोरोना वायरस के बारे में कुछ नहीं जानता है। लेकिन उसने चारों ओर पीड़ाओं को देखा और दान करने का फैसला किया। पिछले शनिवार को वह 500 रुपए के दान की तमिलनाडु मुख्यमंत्री रिलीफ फंड की रसीद लेकर बहुत खुश था। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि सोशल मीडिया पर उसे इस दान के लिए बहुत सराहना मिल रही है क्योंकि वह इसके बारे में कुछ भी नहीं जानता है।

फंडा यह है कि भगवान दुनिया बेहतर करने का अवसर देते हैं। हो सकता है यह 7 अरब लोगों के बीच ढेर सारे ‘दानवीर कर्ण’ तैयार करने का अवसर हो।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Kali Yuga is giving birth to 'Danveer Karna' in different incarnations!




india news

कई घंटे न खाते-पीते हैं, पेशाब तक नहीं जाते; मरीजों को व्यस्त रखने के लिए गाना गाते हैं और घर का संदेशा भी पहुंचाते हैं

कहानी भोपाल के दो डॉक्टरों की है। ये भोपाल के दो अस्पतालों में कोरोना वार्ड के इंचार्ज हैं। पहले का नाम है डॉक्टर सौरभसहगल। ये एम्स में हैं। दूसरे हैं डॉक्टर कृष्ण गोपाल सिंह। ये चिरायु में हैं। चिरायु यहां का एक प्राइवेट हॉस्पिटल है। दोनों की कहानी एक सी है- मुश्किलों की, मंसूबों की और मिलकर जीत ही जाने की। एक का बच्चा पांच महीने का है, दूसरे का तीन माह का। बच्चे की हंसी-ठिठोली भी मोबाइल पर ही देख रहे हैं। परिवार कहीं और है, खुद अस्पताल में रह रहे हैं। लेकिन अपने कोरोना मरीजाें के लिए हंस रहे, गा रहे और नाच तक रहे हैं। बस इसलिए कि वे कहीं अस्पताल से भाग न जाएं, लड़ें न, बस इत्मिनान से रहें। दोनों की कहानी उन्हीं की जुबानी...

डॉ. सौरभ सहगल, एम्स के कोविड वार्ड इंचार्ज

दो अप्रैल को मेरे पास कोरोनावायरस का पहला केस आया था। पहले दिन से ही तीन चुनौतियां मेरे सामने थीं। पहली- मरीज की जान बचाना। दूसरी- अपनी टीम को बचाना और तीसरी- अपनी टीम को मोटिवेटेड रखना। अपनी टीम को सेफ रखने के लिए हमने सबसे पहले पर्सनल इक्विपमेंट्स को जरूरी किया। पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) किट पहनकर ही कोई भी इमरजेंसी वॉर्ड के अंदर जा सकता है। वॉर्डबॉय से लेकर डॉक्टर तक हर किसी के लिए पीपीई किट कंपलसरी हैं। कोरोना का केस आने के बाद पूरा स्टाफ बहुत डरा हुआ था। अमेरिका-इटली से मौत की खबरें आ रहीं थीं। इसलिए रेजिडेंट्स से लेकर नर्स तक, हर किसी के मन में डर था।

हमने उन्हें बताया कियदि आप पीपीई किट के साथ वार्ड में जाएंगे तो आपको कोरोनावायरस का संक्रमण होने की आशंका केवल 0.4% ही होगी। उन्हें यह भी बताया कि, हम लोग अच्छा खाते-पीते हैं इसलिए हमारी इम्युनिटी मजबूत है। हम संक्रमण के जल्दी शिकार नहीं होंगे। तीसरी और सबसे अहम बात थी हमारी उम्र। हमारा अधिकांश स्टाफ 40 साल से कम उम्र का है। यंग एज में इस वायरस का बहुत ज्यादा खतरा नहीं होता। यदि संक्रमण होता भी है तो बॉडी रिकवर जल्दी कर लेती है। ये सब बताकर टीम को इस बीमारी से लड़ने के लिए तैयार किया। हमने उन्हें बताया कि हम भी सैनिक ही हैं। जैसे देश के जवान बॉर्डर पर पाकिस्तान को मात देते हैं, वैसे ही हमें कोरोना को मात देना है।

डॉ. सौरभ सहगल।

वार्ड के बाहर क्या रोल होता है?

सुबह 8 बजे से हमारा काम शुरू हो जाता है। ब्रेकफास्ट करके टीम के साथ डिस्कस करते हैं। यह जानते हैं कि किस मरीज का हाल क्या है। रात में जो डॉक्टर ड्यूटी पर होता है उससे रिव्यू लेते हैं। इसके बाद प्लानिंग होती है कि आज क्या करना है। मीटिंग के बाद ओटी ड्रेस पहनते हैं, फिर उसके ऊपर पीपीई पहनकर इमरजेंसी वॉर्ड में जाते हैं। वॉर्ड से बाहर आने के बाद ड्रेस चेंज करते हैं। नहाते हैं और फिर लंच करते हैं। रात में दोबारा पीपीई किट पहनकर वॉर्ड में जाते हैं। यदि बीच में कभी इमरजेंसी आ जाती है तो तुरंत वॉर्ड में जाना होता है। किट पहनने के दौरान शुरू-शुरू में घबराहट भी होती थी क्योंकि हम पूरी तरह से पैक हो जाते हैं। अब तो इसकी आदत हो गई है। पहले 12 से 15 मिनट किट पहनने में लगते थे। अब 5 से 7 मिनट लगता है।

मरीजों के मनोरंजन के लिए अस्पताल में कैरम का इंतजाम भी किया गया है।

वार्ड के अंदर क्या रोल होता है?

सबसे बड़ी चुनौती वार्ड के अंदर ही होती है। यहां हम पूरी तरह से किट से कवर होते हैं। हमारे पास फोन या अन्य कोई दूसरा गैरजरूरी सामान नहीं होता। तीन से चार घंटे हमें वॉर्ड में रहना होता है। इस दौरान न टॉयलेट जाते हैं, न कुछ खा सकते हैं। पानी भी नहीं पी सकते। यहां मरीजों का इलाज करने के साथ ही उन्हें व्यस्त रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होती है,ताकि वे घबराएं न और भागने की कोशिश न करें। कोई मरीज परिजन से मिल नहीं सकता। किसी परिजन से बात नहीं कर सकता। एक ही जगह उन्हें कई दिनों तक ठहरना होता है। ऐसे में उनके लिए भी एक-एक मिनट बिताना मुश्किल हो जाता है।

अस्पताल में हम सिर्फ इलाज ही नहीं कर रहे, मरीजों के संदेश भी इधर से उधर पहुंचा रहे हैं। हर मरीज के घरवालों से हम दिन में कम से कम तीन बार बात करते हैं। उन्हें मरीज का हाल बताते हैं और उनके जो जरूरी संदेश होते हैं,वो मरीज तक पहुंचाते हैं। अधिकतर मरीजों के घरवाले पूछते हैं किसर हमारा पेशेंट ठीक तो हो जाएगा न? मरीज भी यही सवाल करते हैं, तो हम उनको बताते हैं कि अधिकतर लोग ठीक हो रहे हैं,आप भी हो जाएंगे। कई बार एग्जाम्पल देते हैं कि फलां व्यक्ति वेंटीलेटर पर था। बहुत क्रिटिकल कंडीशन में था, फिर भी रिकवरी कर ली। आप भी कर लेंगे।

आपके घर के क्या हाल है?

जिन डॉक्टर्स की ड्यूटी होती है, उनके ठहरने का इंतजाम हॉस्पिटल में ही है। मैं पत्नी और बच्चों को उनके नाना के घर भेज चुका हूं। मेरा एक बच्चा आठ साल का है और दूसरा तो अभी तीन महीने का ही है। वार्ड में रहने के दौरान किसी से बात नहीं हो पाती, लेकिन बाहर आकर जब फ्री होता हूं, तब घर बात कर लेता हूं। घरवाले टेंशन में रहते हैं।

उन्हें लगता है कि मुझे कुछ हो न जाए, लेकिन उन्हें समझाता हूं कि सब ठीक है और मुझे कुछ नहीं होगा। अभी हमारे खाने-पीने का भी शेड्यूल बदल गया है। मसलन अब दिन में पांच से छह बार गरम पानी में बीटाडीन डालकर गरारे करते हैं। जो लोग अंडे खाते हैं, वो ब्रेकफास्ट में अंडे ही खा रहे हैं। बाकी लोग हाई प्रोटीन वाली चीजें खा रहे हैं, क्योंकि इम्युनिटी मजबूत रखना जरूरी है। कुछ लोग विटामिन सी भी ले रहे हैं। बाकी डाइट नॉर्मल ही है।

डॉ.कृष्णा सिंह, चिरायु हॉस्पिटल के कोविड वार्ड इंचार्ज

डॉ. कृष्णा इस तरह पीपीई किट पहनकर वॉर्ड में जाते हैं।

सबसे पहले तो ये बता दूं कि अभी मैं अपने ही अस्पताल में क्वारैंटाइन हूं। 14 दिन के लिए। मैं 2 से 16 अप्रैल तक कोरोना मरीजों के बीच था। मेरे लिए सबसे पहली चुनौती अपनी टीम को मोटिवेट करने की थी,क्योंकि हर कोई डरा हुआ था। 2 अप्रैल को वॉर्डमें काम शुरू करने के पहले ही मैंने और मेरी टीम ने सोच लिया था कि हमे इसे मिशन की तरह लेना है। सब चीजें भूलकर सिर्फ एक ही बात पर फोकस रखना है कि कैसे भी हम ये लड़ाई जीतेंगे।

15 दिनों की ड्यूटी के दौरान मेरा तय शेड्यूल नहीं रहा। खाना-पीना, सोना-उठना सब बदल गया था, क्योंकि 15 दिनों के लिए कंसल्टेंट के तौर पर मेरा कोई रिप्लेसमेंट नहीं था। जब नया मरीज आ जाए या फिर मौजूदा मरीज को कोई प्रॉब्लम हो तो तुरंत देखना होता था। शायद इसी का नतीजा रहा कि हमारे यहां मोर्टेलिटी रेट शून्य रहा, जबकि दूसरी जगह यह 4 प्रतिशत से ज्यादा तक है।

वार्ड के बाहर क्या रोल रहा?

यदि कोई इमरजेंसी नहीं आई तो काम सुबह 8 बजे से शुरू होता है। सबसे पहले टीम के साथ कंसल्ट करते थे। नाइट ड्यूटी करने वाले साथी डॉक्टर से रीव्यू लेते थे फिर प्लानिंग करते थे कि किस मरीज का ट्रीटमेंट आज कैसे करना है। 9 बजे के करीब मैं कोरोना वार्ड में जाता था, फिर एक से डेढ़ बजे ही बाहर आ पाता था। इस बीच खाना, पीना, टॉयलेट कुछ नहीं। बाहर आने के बाद पीपीई किट उतारकर सबसे पहले नहाता था, क्योंकि संक्रमण का बहुत डर होता था। नहाने के बाद लंच करता था। कई दफा ऐसा हुआ कि लंच हो ही नहीं सका, क्योंकि इमरजेंसी आ गई। शाम को किट पहनकर फिर राउंड पर जाते थे। एक दिन में कम से कम 8 घंटे किट पहनकर ही निकल रहे थे। मैं बीते कई दिनों से हॉस्पिटल में ही दूसरे फ्लोर पर रह रहा हूं। तीसरे और चौथे फ्लोर पर हमारे मरीज हैं।

7 साल की कोरोना पेशेंट का बर्थडे कोरोना वार्ड में ही सेलिब्रेट किया गया था।

वार्ड के अंदर क्या रोल होता था?

वार्ड के अंदर सबसे बड़ी चुनौती मरीजों को ठीक करने के साथ ही उन्हें रोककर रखने की थी। उन्हें व्यस्त रखने की थी। जो मरीज ठीक हो गए हैं, उन्हें भी 14 दिनों तक रोककर रखना ही है। ऐसे में मरीज रुकना नहीं चाहते। कोई कहता था मेरे घर में कोई नहीं है। कोई कहता था मुझे यहां का खाना अच्छा नहीं लगता। एक मरीज ने एक दिन झगड़ा भी कर लिया। फिर हमने उसे प्यार से समझाया किहम तुम्हारे लिए ही यहां हैं। अगले दिन उसने सॉरी बोला।

हमने वार्ड के अंदर ही कैरम, ताश जैसे कुछ गेम भी शुरू करवाए,ताकि मरीज व्यस्त रहें। एक-दूसरे से उनका परिचय कराया, ताकि वे आपस में बात कर सकें। हम उन्हें उनके घर के हाल सुनाया करते थे। हंसी-मजाक होता था। कभी गाना गाने का कॉम्पीटिशन करवा देते थे, तो कभी डांस करने का। कुल मिलाकर किसी न किसी चीज में मरीजों को व्यस्त रखना था।

अपनी टीम के साथ डॉ.सिंह

आपके घर के क्या हाल हैं?

व्यस्तता के चलते बहुत बार तो घरवालों का फोन ही नहीं उठा पाता। ओटी में रहने के दौरान तो फोन पास भी नहीं होता। ऐसे में कई बार घर के लोग चिढ़ भी जाते हैं। चिंता भी जताते हैं। मेरा बच्चा अभी सिर्फ पांच महीने का है। मैं पिछले डेढ़ महीने से घर नहीं गया हूं। कोरोना का केस भोपाल में आने के पहले ही हमने संभावित मरीजों की जांच शुरू कर दी थी। तब से ही घर वालों से मैंने संपर्क खत्म कर दिया था। बच्चे की पहली मुस्कान, पहला कदम और पहली बार उसका पापा बोलना... इन चीजों को बीते डेढ़ महीने में मैंने मिस कर दिया।

हमारे हॉस्पिटल में एक भी मौत नहीं हुई, इसकी एक बड़ी वजह टीम का पॉजिटिव होना है। हमारा नर्सिंग स्टाफ, हाउस कीपिंग, अटेंडर हर कोई पॉजिटिव था। रात में किसी पेशेंट के आने पर वार्ड खुलवाना होता था तो अटेंडर को रात में ही जागना पड़ता था। वो चाहता तो बोल सकता था कि मेरी ड्यूटी खत्म हो गई,लेकिन कभी किसी अटेंडर ने ऐसा कहा नहीं। इसी का नतीजा है कि हम सब मिलकर काफी हद तक कोरोना को रोक पाए हैं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Coronavirus India Update; Bhopal AIIMS and Chirayu Hospital Doctor On Coronavirus COVID-19 Patients Behaviour




india news

खाड़ी देशों में फंसे भारतीयों की दुविधा- नौकरी नहीं, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटेशन की मुश्किलें

जिस वक्त दुनियाभर में कोरोनावायरस अपने पैर पसारने की तैयारी कर रहा था। उस वक्त सऊदी अरब की सबसे बड़ी तेल कंपनी अरामको में एक विदेशी मज़दूर को ‘हैंड सैनिटाइजर' बनाया गया था। दक्षिण एशिया के इस शख़्स को कंपनी ने मोबाइल हैंड सैनिटाइजर की तरह ड्रेस पहनाई और इसका काम था कंपनी में आने-जाने वाले लोगों के पास जाकर खड़ा हो जाना ताकि लोग अपने हाथ सैनिटाइज कर लें।

ये तस्वीर मार्च में दुनिया के सामने आई। तस्वीर के ट्विटर पर आते ही दुनियाभर में इस कदम को नस्लवादी बताया गया। बाद में कंपनी ने बकायदा आधिकारिक बयान जारी कर इस कदम की निंदा की।

इस तस्वीर ने खाड़ी देशों में विदेशों से आने वाले कामगारों की हालत पर फिर सवालिया निशान लगाए । बंक बिस्तरोंसे ठसाठस छोटे कमरों में रहते 10 से 12 मजदूर, एक ही वॉशरूम, साफ सफाई और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और शोषण करती कई कंपनियां।

मार्च में इस तस्वीर के वायरल होने के बाद दुनियाभर में सऊदी अरब की आलोचना हुई थी।


जीसीसी या गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल के 6 देशों बहरीन, कुवैत, कतर, ओमान, सऊदी अरब और यूएई में 80 लाख से ज्यादा भारतीय कामगार रहते हैं। इनमें से लगभग 50 फीसदी ब्लू कॉलर वर्कर हैं जो मज़दूरी करते हैं। 30% वो हैं जो सेमी स्किल्ड हैं। और सिर्फ 20 फीसदी प्रोफेशनल हैं जो अच्छे ओहदों पर हैं।

केरल के कन्नूर में रहने वाले असलम यूएई की राजधानी अबू धाबी में एक तीन कमरे के लॉज में रह रहे हैं। उनके साथ 13 विदेशी मजदूर भी इसी लॉज में हैं। इनमें से 5 मजदूरों की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद पूरी बिल्डिंग को क्वारैंटाइन कर दिया गया है। खाने के लिए भी असलम स्थानीय भारतीय संगठनों पर निर्भर हैं।

हाल ही में केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने प्रधानमंत्री मोदी से खाड़ी देशों से केरल के लोगों को वापस लाने की अपील की थी। उन्होंने ट्वीट में लिखा था कि वापस आने वाले लोगों की टेस्टिंग औरक्वारैंटाइन करने की जवाबदेही केरल सरकार उठाएगी।

भीड़भाड़ वाले लेबर कैम्प से लेकर घनी आबादी वाले कमर्शियल शहरों तक, कई विदेशी मजदूर किराया बचाने के लिए रूम शेयर करते हैं। यहां रहने वाले ज्यादातर भारतीय मजदूर कंस्ट्रक्शन और क्लीनिंग से जुड़ा काम करते हैं। यहां की गर्मी और प्रदूषण की वजह से पहले से ही कई भारतीयों को सांस की बीमारी है। ऐसे में इन्हें वायरस होने का ज्यादा खतरा है।

आंकड़ों के मुताबिक, 53 देशों में रहने वाले 3 हजार 336 अप्रवासी भारतीय कोरोना संक्रमित हैं। इनमें से भी 2 हजार 61 यानी करीब 70% गल्फ देशों में हैं। वहीं 308 मजदूर ईरान के कौम और तेहरान शहर में संक्रमित हैं।

रियाद स्थित भारतीय दूतावास द्वारा 17 अप्रैल को दी गई जानकारी के मुताबिक, सऊदी अरब में संक्रमण से पांच भारतीय नागरिकों की मौत हो चुकी है। इनमें शेबनाज पाला कांडियिल, सेफवान नडामल (दोनों केरल से), सुलेमान सैयद जुनैद (महाराष्ट्र से), बदरे आलम (उत्तर प्रदेश से) और अजमतुल्लाह खान (तेलंगाना से) शामिल हैं।

कुन्हम्मद पिछले 15 साल से यूएई में हैं और यहां एक ट्रेडिंग फर्म में पीआरओ होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। दुबई से बात करते हुए कुन्हम्मद बताते हैं, 'यहां की सरकार ने नए सेंटर और अस्पताल तो बनाए हैं, लेकिन लेबर कैम्प अभी भी चिंता का विषय है। नौकरियां फिलहाल नहीं हैं। कुछ जगहों को छोड़कर पूरे देश में सख्त लॉकडाउन है। संचार भी बड़ी समस्या है क्योंकि लोगों के पास अब मोबाइल रिचार्ज कराने के भी पैसे नहीं हैं।'

संतोष तीन महीने पहले ही भारत से दुबई गए हैं। उनके साथ उनके दो छोटे बेटे और पत्नी भी है। संतोष कहते हैं, 'मेरे बच्चों के लिए मैं भारत से दवाई लाया था, लेकिन अब वह खत्म हो गई हैं। हम बिल्डिंग से बाहर नहीं जा सकते। मेरा वीजा भी एक्सपायर होने वाला है। मेरा काम रुक गया है। मुझे उम्मीद है कि सरकार हमारे लिए कुछ करेगी।'

फिलहाल संतोष जैसे 33 लाख भारतीयों समेत यूएई में रह रहे विदेशियों के लिये लिए कुछ राहत की खबर है कि एमिराती सरकार ने वीजा और एंट्री परमिट (जिसमें विजिटर वीजा और टूरिस्ट वीजा भी शामिल है) बग़ैर किसी जुर्माने के इस साल के अंत तक बढ़ाने का फैसला किया है। हालाँकि रिपोर्ट्स के मुताबिक यूएई ने दूसरे मुल्कों से ये भी कहा है कि बेहतर होगा कि अगर उनके नागरिक संक्रमित नहीं हैं तो उन्हें वापस बुला लें।

अकेले यूएई में ही 33 लाख भारतीय मजदूर रहते हैं। ये यूएई की कुल आबादी का 30% है।- फाइल फोटो

पिछले साल गल्फ देशों में रहने वाले भारतीय मजदूरों ने करीब 50 अरब डॉलर अपने घर भेजे थे। ये भारत को सालाना विदेशों से भारत आने वाले कुल पैसों का 40% है। कंस्ट्रकशन, टूरिज़्म ,हॉस्पिटेलिटी, रिटेल, ट्रांसपोर्ट और सर्विस जैसे सभी सेक्टरों में काम कर रहे ये भारतीय मजदूर गल्फ देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी हैं। लेकिन, कोविड-19 की चपेट से सब काम ठप्प पड़ा है। इनके रोजगार पर अनिश्चित्ता के घने बादल मंडरा रहे हैं। ज्यादातर लोगों को बिना सैलरी के छुट्टी पर भेज दिया है। कइयों की नौकरी भी जा चुकी है।

भारत में 3 मई तक लॉकडाउन है। लिहाजा ये वतन भी वापस नहीं आ सकते। कुछ लोग मदद के लिए ट्वीट कर रहे हैं। हालांकि, मोदी सरकार का कहना है कि वह एंबेसी या कॉन्सुलेट के जरिए विदेशों में फंसे अपने लोगों की मदद करने और उन्हें सुविधा देने का काम कर रही है। लेकिन फ़िलहाल खाड़ी समेत दूसरे बाहरी देशों से भारतीयों को वापस सरकार नहीं लाने वाली है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक महीने तक उन याचिकाओं पर सुनवाई करने से मना कर दिया है, जिसमें गल्फ देशों में फंसे भारतीयों को देश वापस लाने की मांग की गई है।

सुनील पिछले 13 साल से कतर में रह रहे हैं। वे यहां संस्कृति मलयाली एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। सुनील कहते हैं कि उनके लिए अब घर का किराया देना भी मुश्किल हो गया है। हालांकि, वे कहते हैं कि कतर सरकार और कुछ भारतीय संस्थाएं यहां खाना और दवाइयां उपलब्ध करा रहे हैं। सुनील की पत्नी एक नर्स हैं और 8 मार्च को अपने बेटे के साथ भारत आई थीं। लेकिन, लॉकडाउन की वजह से वे वापस कतर लौट कर दोबारा अस्पताल ज्वाइन नहीं कर पा रही हैं।

वैसे ज्यादातर गल्फ देशों ने कोरोनावायरस को रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए हैं। यहां के देशों में फ्लाइट बंद हैं। भीड़भाड़ वाली जगहों को बंद कर दिया गया है। कर्फ्यू लगाया गया है। उमराह जैसे धार्मिक कार्यक्रमों को भी बंद कर दिया गया है।

खाड़ी देशों में इस तरह के लेबर कैम्प्स बने हैं। इनके एक कमरे में 12-13 मजदूर एकसाथ रहते हैं।- फाइल फोटो

बहरीन और यूएई में लेबर कैम्प में रहने वाले मजदूरों को स्कूलों या खाली बिल्डिंगों में शिफ्ट किए जा रहे हैं। लेकिन, उसके बाद भी जीसीसी मुल्कों में अब तक 17 हजार से ज्यादा पॉजिटिव केस हो चुके हैं जिनमें अकेले सऊदी में ही कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 4 हजार 500 है। सऊदी के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. तौफिक अल-रबीयाह ने माना है कि यहां कोरोना के ज्यादातर मामले मजदूरों और भीड़भाड़ वाली जगहों से ही मिले हैं।

कोरोना की मार झेल रहे मज़दूरों को एक नई परेशानी भी सता रही है। यूएई में रहने वाले एक हिंदू भारतीय ने कुछ समय पहले दिल्ली मरकज के तब्लीगी जमातियों को लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। इस पोस्ट में उन्होंने इन तब्लीगी जमातियों को 'कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवादी' बताया था और भारत में भी तबलीगियों को लेकर तल्ख टिप्पणियां और सियासत तेज़ है।

इस पोस्ट के बाद सऊदी अरब के शाही परिवार की सदस्य राजकुमारी हेंद अल कासिमी ने ट्वीट कर चेतावनी दी कि, जो भी यूएई में इस तरह का माहौल बिगाड़ने की कोशिश करेगा, उसपर या तो जुर्माना लगाया जाएगा या उसे देश छोड़ना पड़ेगा।

##

फिलहाल, यहां रहने वाले भारतीय दुआकर रहे हैं कि ये किसी राजनीतिक और सामाजिक तूफान में ना बदले। और वे कोरोना कर्फ्यू के बाद अपने काम पर लौट सके सा वतन वापसी कर नए भविष्य की तलाश कर पाएं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
खाड़ी देशों में रहने वाले ज्यादातर भारतीय मजदूर कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम करते हैं। लेकिन लॉकडाउन में यहां सब बंद है।- फाइल फोटो




india news

इस बार गर्मियों में भी खूबसूरत बर्फ से आबाद है गुलमर्ग, अब भी दो फीट बर्फ मौजूद, बस नहीं हैं तो सैलानी

कश्मीर सर्दियों में सबसे ज्यादा खूबसूरत होता है। और कश्मीर में सबसे हसीन हैं घाटी-ए-गुलमर्ग। इस बार गर्मियों में भी यहां दो फीट बर्फ मौजूद है। यही वजह है कि एशिया के इस सबसे मशहूर स्कीइंग डेस्टिनेशन की खूबसूरती तो आबाद है, लेकिन अफसोस सैलानी नहीं हैं।

आमतौर पर कश्मीर में नवंबर से मार्च बर्फ का मौसम होता है। इस बार मार्च के आखिर तक बर्फ पड़ी है।

आमतौर पर कश्मीर में नवंबर से मार्च तक का महीना बर्फ का मौसम होता है। इस बार मार्च के आखिर तक बर्फ पड़ी है। गुलमर्ग के स्लोप्स दुनिया के बेस्ट स्की स्लोप्स कहे जाते हैं। 13 हजार फीट की ऊंचाई पर अफरवट से स्कीइंग और स्नोबोर्ड का रोमांच महसूस करने हर साल हजारों देसी और विदेशी सैलानी यहां पहुंचते हैं।

कश्मीर में 2019 में जितने भी पर्यटक पहुंचे उनमें से 80 प्रतिशत जुलाई तक आए थे, अगस्त में 370 हटने के बाद से यहां पर्यटकों ने रुख नहीं किया।

जो स्कीइंग न करना चाहें, उनके लिए पाइन के दरख्तों के बीच एशिया की सबसे बड़ी और ऊंची केबल कार की सैर रोमांच के मामले में स्कीइंग से जरा भी कम नहीं। ये वह केबल कार है जो दो स्टेज में हर घंटे 600 लोगों को कोन्गडुंगरी परबत के मुहाने से ऊपर 13 हजार फीट ऊंची अफरवट चोटी तक ले जाती और ले आती है।

गुलमर्ग के स्लोप्स दुनिया के बेस्ट स्की स्लोप्स माने जाते हैं। स्कीइंग और स्नोबोर्ड का रोमांच महसूस करने हर साल हजारों देसी और विदेशी यहां पहुंचते हैं।

बर्फ की मोटी चादर के बीच कश्मीर घाटी की सबसे खूबसूरत अफरवट चोटी से स्कीइंग का लुत्फ उठाने का लालच भला कोई स्कीइंग का दीवाना कैसे छोड़ता। लेकिन अफसोस यहां खामोशी है। वजह इस बार सुरक्षा हालात नहीं बल्कि कोरोना है।

गुलमर्ग में कुल 40 होटल्स हैं। जबकि घर एक भी नहीं, कुछ इलाकों में गुज्जरों के ढोक हैं।

पिछले 9 महीनों में कश्मीर टूरिज्म को खासा नुकसान हो चुका है। 5 अगस्त को धारा-370 हटाने के ठीक पहले यहां मौजूद 20 से 25 हजार सैलानियों को अचानक सुरक्षा का हवाला देते हुए कश्मीर छोड़ने का फरमान जारी हुआ। फिर अक्टूबर में ट्रेवल एडवाइजरी वापस ले लेने और कश्मीर को एक बार फिर सुरक्षित घोषित कर देने के बावजूद इक्का-दुक्का टूरिस्ट ही कश्मीर का रुख कर पाए।

एशिया की सबसे बड़ी और ऊंची केबल कार कोन्गडुंगरी से आफरवट तक ले जाती है।

एक दर्जन से भी कम होटल्स ने दिसंबर जनवरी में अपने ताले खोले थे। लेकिन टूरिस्ट इतने कम की मुनाफा तो दूर मेंटेनेंस भी पूरा नहीं वसूल पाए। फिर पिछले महीने मार्च में खेलो इंडिया के जरिए देश के पहले विंटर गेम्स में 800-900 खिलाड़ी गुलमर्गपहुंचे ही थे, कि इवेंट खत्म होते ही कोरोना की एडवाइजरी जारी हो गई। और ताबड़तोड़ होटल-रिसॉर्ट खाली करवा लिए गए।

पिछले 9 महीनों में कश्मीर टूरिज्म को खास नुकसान हुआ है। 2019 में 5 लाख टूरिस्ट कश्मीर आए थे जबकि 2018 में 8.5 लाख के करीब।

गुलमर्ग में कुल 40 होटल्स हैं। जबकि घर एक भी नहीं। यहां घरौंदे बनाने की मनाही है। हां कुछ इलाकों में गुज्जरों के ढोक हैं। गर्मियों में ये घुमक्कड़ यहां अपने जानवरों के साथ रहने आते हैं।

यह गुलमर्ग का मशहूर शिव मंदिर है जिसे डोगरा महाराज ने बनवाया था। इसकी लोकेशन ऐसी है कि गुलमर्ग की हर जगह से ये नजर आता है।

यही नहीं टूरिस्ट से गुलजार रहनेवाले इस डेस्टिनेशनल को जीरो क्राइम कैटेगरी में जगह मिली हुई हैै। यहां सालभर में बमुश्किल 20 एफआईआर होती हैं। वो भी छोटी-मोटी चोरी, छेड़खानी या फिर गैरकानूनी कंस्ट्रक्शन से जुड़ी।

गुलमर्ग में 8 हजार फीट की ऊंचाई पर दुनिया का सबसे ऊंचा गोल्फ कोर्स भी है। 18 होल्स वाला यह गोल्फ कोर्स अंग्रेजो ने ही बनवाया था।

अफरवट के काफी नजदीक है भारत और पाकिस्तानी की लाइन ऑफ कंट्रोल। और सेना का मशहूर हाई एल्टीट्यूड वॉरफेयर स्कूल भी। सियाचिन पोस्टिंग से पहले सेना अपने ऑफिसर्स को यहीं बर्फ और हाईएल्टीट्यूड में सर्वाइवल की ट्रेनिंग देती है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Gulmarg Kashmir Snowfall Update; Tough times for tourism, Everything You Need To Know In Gulmarg Latest Report




india news

लॉकडाउन से गंगा में मानव मल की मात्रा लक्ष्मण झूले के पास 47 और हरिद्वार में 25 प्रतिशत कम हुई

इन दिनों गंगा-यमुना के कई वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं। सुखद आश्चर्य के साथ लोग इन वीडियो में बता रहे हैं कि कैसे देश भर में हुए लॉकडाउन के बाद इन नदियों का पानी स्वतः ही बेहद साफ नजर आने लगा है। दिल्ली तक आते-आते जो यमुना पूरी तरह से गंदा नाला दिखने लगती है, इन दिनों फिर से नदी लगने लगी है। ऐसे ही गंगा भी इन दिनों इतनी साफ लगने लगी है कि ऋषिकेश-हरिद्वार तक तो उसके पानी को पीने योग्य बताया जाने लगा है।


उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की हालिया रिपोर्ट बताती है कि ऋषिकेश के लक्ष्मण झूला क्षेत्र में इन दिनों गंगा के पानी में फ़ीकल कॉलिफोर्म (मानव मल) की मात्रा में 47 प्रतिशत की कमी आई है। वहीं ऋषिकेश में बैराज से आगे यह कमी 46 प्रतिशत, हरिद्वार में बिंदुघाट के पास 25 प्रतिशत और हर की पौड़ी पर 34 प्रतिशत दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है लॉकडाउन के दौरान हर की पौड़ी पा गंगा का पानी ‘क्लास-ए’ स्तर का हो चुका है। यानी इसे ट्रीट किए बिना ही सिर्फ़ क्लॉरिनेशन करके भी पिया जा सकता है।


ऐसे में यह सवाल बेहद प्रासंगिक लगता है कि गंगा-यमुना सफ़ाई के नाम पर खर्च हो चुके हज़ारों करोड़ रुपए और तमाम सरकारी प्रयास जो नहीं कर सके, क्या लॉकडाउन ने नदियों को साफ करने का वो काम कर दिया है? इस सवाल के जवाब में ‘इंडिया वॉटर पोर्टल’ के संपादक केसर सिराज कहते हैं, ‘काफ़ी हद तक किया है। लेकिन इसके कई पहलू हैं। नदी के प्रदूषित होने के कई कारण हैं। ये कारण शहरों में अलग हैं और पहाड़ों में अलग। इनमें सबसे बड़े कारण कारख़ानों से निकलने वाले रसायनों का नदी में मिलना है और दूसरा बिना ट्रीट हुए मानव मल का इनमें मिलना। इन दिनों चूंकि पूरे देश में कारख़ाने हैं लिहाज़ा पानी का स्तर कुछ बेहतर हुआ है।’

सेंट्रल पॉल्यूशन बोर्ड के डेटा के मुताबिक गंगा नदी के 36 मॉनिटरिंग यूनिट हैं जिनमें से 27 पर पानी नहाने और वाइल्ड लाइफ और फिशरीज के लिहाज से सुरक्षित है। (फोटो : 15 जनवरी 2020, गंगासागर मेला)


हरिद्वार में स्थित ‘मातृ सदन’ गंगा को बचाने के लिए बीते कई दशकों से अभियान चला रहा है। इस अभियान में सदन से जुड़े स्वामी निगमानंद और प्रोफ़ेसर जीडी अग्रवाल समेत कई लोगों ने तो अपने प्राण तक त्याग दिए हैं। इस सदन के प्रमुख स्वामी शिवानंद कहते हैं, ‘लॉकडाउन के बाद गंगा का पानी कुछ हद तक साफ हुआ है। इससे एक बात तो यही स्पष्ट होती है कि सरकार जो दावा करती है कि हरिद्वार से ऊपर सिर्फ़ ट्रीट किया हुआ सीवेज ही गंगा में मिलता है, वह दावा झूठा है। इन दिनों क्योंकि यात्रा बंद है, पहाड़ पर पर्यटकों की भरमार नहीं है इसलिए अंट्रीटेड सीवेज गंगा में नहीं जा रहा और तभी ये पानी साफ नजर आ रहा है। लेकिन इसके बावजूद भी हरिद्वार में गंगा का पानी पीने लायक़ नहीं हुआ है। हम गंगा किनारे रहते हैं, इसलिए ये बात दावे से कह सकते हैं। जो वैज्ञानिक ये दावा कर रहे हैं मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि अगर गंगा का पानी पीने लायक़ हो गया है तो वे यहां आकर ये पानी पीकर दिखाएं।’


स्वामी शिवानंद कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं का भी ज़िक्र करते हैं। वे कहते हैं, ‘गंगा या यमुना को एक पैसे की ज़रूरत नहीं है। वो ख़ुद को साफ करने में सक्षम है और यह बात इस लॉकडाउन ने काफ़ी हद तक साबित भी की है। हमें सिर्फ़ इतना करना है कि गंगा की अविरलता को बने रहने दिया जाए। लेकिन आप देखिए कि हरिद्वार पहुँचने से पहले ही गंगा को सैकड़ों जगह बांध दिया गया है। अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी जैसी गंगा की सभी धाराओं पर डैम बना दिए गए हैं तो उसकी अविरलता तो वहीं बाधित हो चुकी है। ऐसे में गंगा ख़ुद को साफ कैसे करेगी जब उसका प्रवाह ही रोक दिया जाएगा।’


गंगा के मुक़ाबले यमुना इस लिहाज़ से ख़ुशक़िस्मत है कि उस पर जल विद्युत परियोजनाओं का ऐसा बोझ नहीं है। लेकिन यमुना जैसे ही पहाड़ों से मैदान में पहुँचती है, इसकी हत्या शुरू हो जाती है। डाक पत्थर नाम की जगह से ही यमुना पर बैराजों और नहरों का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह स्थिति इतनी ख़राब हो चुकी है कि यमुना के नाम पर बसे यमुनानगर तक पहुँचने से पहले ही यमुना पूरी तरह मर चुकी होती है। इसकी मुख्यधारा का लगभग पूरा पानी नहरों में मोड़ दिया जाता है और तब सिर्फ़ कुछ नालों, बरसाती नदियों और छोटी-बड़ी धाराओं के साथ फैक्ट्रियों की गंदगी लिए जो कथित नदी आगे बढ़ती है, वह सिर्फ़ नाम की ही यमुना होती है।

उफनते नाले सी दिखने वाली यमुना नदी शायद पहली बार नीले साफ पानी से लबालब नजर आई है, पहली बार यहां प्रवासी पक्षी और मछलियां दिखाई दी हैं। (फोटो : 5 अप्रैल 2020, आईटीओ ब्रिज, नई दिल्ली)


साल 2000 में आई सीएजी की एक रिपोर्ट बताती है कि 1985 में शुरू हुआ ‘गंगा ऐक्शन प्लान’ 15 सालों में क़रीब 902 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी अपना ये उद्देश्य पूरा नहीं कर पाया कि गंगा के पानी को नहाने लायक़ भी साफ किया जा सके। लगभग यही स्थित ‘यमुना ऐक्शन प्लान’ की भी है जिसके तीन चरणों में अब तक 1656 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं और नतीजा दिल्ली में बदबू मारती यमुना के रूप में सबके सामने है।


यमुना जिए अभियान से जुड़े मनोज मिश्रा एक लेख में बताते हैं कि इतने सालों तक गंगा और यमुना सफ़ाई के नाम पर कारख़ानों से निकलने वाले रसायनों को अनदेखा किया गया जबकि ज़्यादा ध्यान सीवेज ट्रीटमेंट पर दिया गया। इन दिनों भी सीवेज तो हमेशा की तरह नदी में जा ही रहा है लेकिन कारख़ाने पूरी तरह बंद हैं और नदियों में पानी काफ़ी साफ दिख रहा है। इससे समझा जा सकता है कि नदियों को दूषित करने का बड़ा कारण क्या रहा है।


मनोज मिश्रा इस तथ्य पर भी ध्यान दिलाते हैं कि इस साल अच्छी वर्षा होने के कारण नदियों में पानी ज़्यादा छोड़ा गया है। यह भी एक बड़ी वजह है कि लॉकडाउन के दौरान नदियाँ साफ दिख रही हैं क्योंकि उनमें प्रवाह ज़्यादा है।


स्वामी शिवानंद कहते हैं, ‘गंगा हो यमुना हो या कोई भी नदी हो, उसमें ख़ुद को साफ रखने की क्षमता होती है। इन नदियों ने ही सभ्यताएँ बसाई हैं, सभ्यताओं ने नदियाँ नहीं। नदी को साफ़ करने की बात कहना सिर्फ़ ढोंग है और इस देश में तो भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा खेल है। नदियों को बस उनके प्राकृतिक बहाव के साथ अविरल बहने दिया जाए, बड़े बांध बनाकर उनका प्रवाह न रोका जाए, कारख़ानों और मानव मल के सीवेज उनमें न छोड़े जाएँ, वो ख़ुद ही साफ रह लेंगी रहेंगी और हम सबको जीवन भी देती रहेंगी। जिन्हें ये बात पहले नहीं समझ आती थी, इस लॉकडाउन में मिली झलक से समझ सकते हैं। नदियों को सफ़ाई के लिए पैसों की नहीं, नीयत की ज़रूरत है।’



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
सेंट्रल पॉल्यूशन बोर्ड के डेटा के मुताबिक गंगा नदी के 36 मॉनिटरिंग यूनिट हैं जिनमें से 27 पर पानी नहाने और वाइल्ड लाइफ और फिशरीज के लिहाज से सुरक्षित है। (फोटो : 11 अप्रैल 2020, प्रयागराज)




india news

बंदिशों के साथ ढील से क्या आर्थिक चक्र घूूमेगा

कोरोना से युद्ध में एक मात्र उपलब्ध हथियार सामाजिक दूरी का प्रयोग करते हुए उत्पादन, वितरण और उपभोग के आर्थिक पहिए को भी फिर शुरू करने की कवायद कल से होगी। इन विरोधाभासी क्रियाओं में दिक्कत यह है कि अगर यह ढील हर क्षेत्र में दी गई तो कोरोना जकड़ लेगा और अगर आर्थिक पहिए को जरूरत के अनुरूप ढील न दी गई तो पहिए का रेंगना तक मुश्किल होगा। नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी ने ‘कोविड-19 : कार्य-संस्कृति का भविष्य’ पर उद्योग से जुड़े लोगों से एक वीडियो सत्र में कहा- ‘हम एक झंझावात से गुजर रहे हैं, जिसमें सप्लाई चेन बुरी तरह क्षतिग्रस्त रहेगी’।

महाराष्ट्र के उद्यमियों ने भी राज्य सरकार के सामने समस्या रखते हुए कहा था कि मात्र एक-तिहाई श्रमिकों से उत्पादन कराना संभव नहीं है। साथ ही केंद्र सरकार की गाइडलाइन के अनुसार उनके रहने-खाने या घर से लाने-ले जाने का प्रबंध करना उद्यमियों के लिए महंगा पड़ेगा, क्योंकि उत्पादों की मांग अभी भी काफी कम है।

गूगल का अपना आकलन है कि जनवरी के मुकाबले लॉकडाउन काल के दौरान उत्पादों व उपभोग की सामग्री की मांग में भारी कमी आई है। संकट के लंबे वक्त तक रहने के अंदेशे से लोगों ने खर्च कम किए, लिहाज़ा मांग पर असर हुआ। केवल ग्रामीण क्षेत्र ही ऐसा है, जहां पैसा देने से आर्थिक पहिया चल सकेगा। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों के लिए मांग बढ़ सकेगी।

यही कारण है कि जिन गतिविधियों को लॉकडाउन की बंदिशों से हटाया गया है, उनमें कृषि प्रमुख है। अनाज बेचकर किसान अपनी अन्य उपभोक्ता डिमांड को बढ़ाएगा, जैसे- तेल, साबुन, कपड़े, ट्रैक्टर, खाद और बीज आदि। ट्रैक्टर की खरीद में हाल की बढ़ोतरी इसका एक संकेत देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून की धारा 6(2) और 62 के तहत राज्यों के लिए केंद्र की गाइडलाइन मानना बाध्यता है, लेकिन राज्य अगर चाहें तो धारा 64 के तहत इन दिशा-निर्देशों की आत्मा को बनाए रखते हुए और बेहतरी के लिए संशोधन कर सकते हैं।

पंजाब ने कृषि और कंस्ट्रक्शन में कुछ आगे बढ़कर ढिलाई दी है और केरल ने तो जिले की परिधि में सभी किस्म के निजी और सार्वजनिक यातायात को पूरी तरह खोल दिया है, जबकि केंद्र की गाइडलाइन ने यह ढिलाई केवल आवश्यक सेवाओं तक ही सीमित है। केंद्र जानता है कि केरल ने कोरोना पर जबरदस्त नियंत्रण किया है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
What economic cycle will revolve due to relaxation with restrictions




india news

हैंडवॉश के साथ ब्रेनवॉश भी जरूरी

एक ही छत के नीचे तीन पीढ़ी रहे लंबं समय, ऐसा पहली बार हुआ होगा। यही सुकून और यही बेचैनी का कारण भी बना। नई पीढ़ी पुराने की तरह अपने को अभिव्यक्त नहीं करती। वह ज्यादा खुली हुई है, खासतौर पर वाणी और चरित्र में इसलिए उसे इस दौर में ज्यादा घुटन लगी इस घर में।

लॉकडाउन में पुलिस जिन्हें सड़कों पर कसरत करा रही है, या जो डंडों का स्वाद चख रहे हैं, उनमें ज्यादातर ऐसे ही बेचैन लोग हैं। इन्हें घर में रहने का अभ्यास करना होगा। घर के बाहर रहना मॉडर्न आर्ट जैसा है। मॉडर्न आर्ट में सिर्फ चित्रकारी का मजा लेना होता है। समझ में तो शायद उसे भी नहीं आता जिसने उसे बनाया होगा। और घर में रहना पारंपरिक चित्रकारी जैसा है।

रंग, आकृति, प्रकृति तीनों स्पष्ट होती है। कोरोना संघर्ष में जीवन में अब स्पष्टता लानी होगी। ज्यादातर थक गए हैं। अब ताकत कहां से मिलेगी। तीन काम करते रहिए- प्रतीक्षा, पुरुषार्थ और प्रार्थना। प्रतीक्षा यानी धैर्य, आने वाले समय, स्थिति के प्रति। कोई नहीं जानता कल क्या होगा? अच्छे-अच्छों के दावे को कोरोना दबा गया।

पुरुषार्थ मतलब अब नए ढंग से जमकर मेहनत करनी होगी। समुद्री तूफान उतरने के बाद कचरा बीनने में निगाहें तेज और हाथ मजबूत रखना होते हैं। और प्रार्थना यानी परम शक्ति पर भरोसा। एक बात सिखाई जा रही है बार-बार हैंड वॉश करें। एक बात और सीथ लीजिए, ब्रेन वॉश भी कर कीजिए।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Brainwash is also necessary along with handwash




india news

‘उठती है हर निगाह खरीदार की तरह’

महामारियों का इतिहास पुराना है और हर दौर में मनुष्य ने उपचार भी खोजे हैं। मनुष्य कभी पराजय स्वीकारता नहीं। वह अपराजेय योद्धा है। क्षय रोग पोलियो, मलेरिया इत्यादि से बचे रहने के लिए बचपन में टीके लगाए जाते हैं। मीजल्स और स्माल पॉक्स के टीके भी बांह पर लगाए जाते हैं और उनके निशान ताउम्र कायम रहते हैं।

छद्म आधुनिकता से ग्रस्त माता-पिता बांह की जगह शरीर के अन्य स्थान पर टीके लगाने का आग्रह करते हैं, क्योंकि उन्हें इस तरह की निरर्थक चिंता है कि बड़ी होने पर उनकी पुत्री स्लीवलैस ब्लाउड धारण करेगी तो टीके का निशान दिखना नहीं चाहिए। महिला के ब्लाउज की बांह घटती-बढ़ती रहती है। फैशन चक्र का क्षेत्रफल महिला की बांह तक ही सिमटा है। विचारों की संकीर्णता का हाल भी कुछ इसी तरह है। स्मॉल पॉक्स को अवाम सीतला माता कहता रहा है, चेचक को गोदना माता कहते हैं, मीजल्स को खसरा कहा जाता है। मनुष्य जिन बातों को समझ नहीं पाता, उनके नाम देवी-देवता पर रख देता है।

पंजाब के सिख परिवार में जन्मी हरिकीर्तन कौर को फिल्मकार केदार शर्मा ने ‘बावरे नैन’ नामक फिल्म में अवसर दिया और वह रातोंरात सितारा हो गई। केदार शर्मा ने ही उसका फिल्मी नाम गीताबाली रखा। भगवान दादा सीमित बजट की फिल्मों में अभिनय करते थे। जब उन्होंने ‘अलबेला’ बनाने का विचार किया तो कोई शिखर महिला सितारा उस फिल्म में काम करना नहीं चाहती थी। गीताबाली सहर्ष तैयार हो गई और फिल्म को भारी सफलता मिली। गीताबाली इतनी उदारमना थी कि उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया। वे सभी तरह की संकीर्णता से मुक्त थीं।

गीताबाली और शम्मी कपूर को प्रेम हुआ और इन मस्तमौला लोगों ने अलसभोर में एक मंदिर में विवाह कर लिया। शम्मी कपूर गीताबाली से दो वर्ष छोटे थे। केदार शर्मा ‘रंगीन रातें’ नामक फिल्म बना रहे थे और उस फिल्म की नायिका का चयन वे कर चुके थे। गीताबाली के लिए कोई भूमिका नहीं थी। फिल्म के नायक शम्मी कपूर थे और गीताबाली उनके साथ अधिक समय गुजारना चाहती थी। अत: गीताबाली ने जिद करके फिल्म में एक पुरुष भूमिका अभिनीत की। फिल्म असफल रही, क्योंकि दर्शक को लगा कि गीताबाली अपना असली स्वरूप जाहिर करेगी।

बहरहाल, फिल्मकार धीर ने गीताबाली को राजिंदर सिंह बेदी की रचना ‘एक चादर मैली सी’ से प्रेरित पटकथा सुनाई। गीताबाली को पटकथा इतनी अच्छी लगी कि फिल्म निर्माण में पूंजी भी लगाई। ‘रानो’ नामक इस फिल्म में धर्मेंद्र नायक रहे। कुछ समय पश्चात गीताबाली बीमार पड़ी। उन्हें स्मॉल पॉक्स हुआ और बचपन में टीका नहीं लगने के कारण रोग जंगली घास की तरह उनके शरीर में फैल गया। उनकी मृत्यु हो गई। जिस मंदिर में विवाह हुआ था, उसके निकट स्थित श्मशान में उनका दाह संस्कार किया गया।

शम्मी कपूर को यह भरम रहा कि फिल्म की आउटडोर शूटिंग में रोगाणु ने गीताबाली को रोगी बनाया। उन्होंने रेमनॉर्ड लेबोरेटरी जाकर फिल्म के निगेटिव व पॉजिटिव तथा ध्वविपट्ट को ही नष्ट कर दिया। इस तरह विश्व सिनेमा की धरोहर बन सकने वाली फिल्म नष्ट कर दी गई। ज्ञातव्य है की कुलदीप कौर नामक कलाकार की मृत्यु टिटेनस से हुई थी।

कुछ दशक बाद दाढ़ी बनाने के ब्लेड बनाने वाली कंपनी के द्वारा पूंजी निवेश से ‘एक चादर मैली सी’ बनी, जिसमें हेमा मालिनी और ऋषि कपूर ने देवर-भाभी की भूमिकाएं अभिनीत की। फिल्म में देवर-भाभी की उम्र में 10 वर्ष का अंतर है। हालात ऐसे हो जाते हैं कि आर्थिक मजबूरियों के कारण देवर को विधवा भाभी से विवाह करना पड़ता है और उन्हें तन-मन से रिश्ता स्वीकार करना होता है। इस घटना के कई वर्ष पश्चात राजिंदर सिंह बेटी ने संजीव कुमार और रेहाना सुल्तान अभिनीत फिल्म ‘दस्तक’ बनाई। ‘दस्तक’ में मदनमोहन और मजरूह ने माधुर्य रचा था। गीत- ‘माई री मैं कासे कहूं..’ और ‘हम हैं माताए कूचे ओ…’ काफी लोकप्रिय हुए।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
'Every gaze arises like a buyer'




india news

बदलाव का दबाव बनने से पहले खुद ही बदल जाएं

केवल विकेट कीपर को छोड़कर बाकी सभी खिलाड़ी, जो क्रिकेट बॉल के संपर्क में आते हैं, वे मैच के दौरान दूसरे फील्डर या बॉलर को बॉल देने से पहले उसपर कभी न कभी थूक जरूर लगाते हैं। यह आदत कोरोनावायरस के दिनों के बाद भी जारी रहेगी या नहीं, यह तो क्रिकेट विशेषज्ञ ही बता सकते हैं।
लेकिन याद रखें, अपने दफ्तर में फाइलों के पन्ने पलटते समय आप ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। आप पर नजर रखी जाएगी और ऐसा व्यक्ति माना जाएगा जिसे बुरी आदत है। यह ऐसी हरकत मानी जाएगी जो कोरोना न सही, पर किसी न किसी वायरस के फैलने का खतरा बढ़ा सकती है।
मेरी जान-पहचान वाले एक व्यक्ति हैं जो सार्वजनिक संपर्क वाली एक बड़ी जगह पर काम करते हैं, जहां उन्हें ढेर सारे दस्तावेज संभालने पड़ते हैं। उनकी बुरी आदत है कि वे हर पेपर पर काम करते हुए अपनी उंगली होठों पर लगाते हैं। वे इस आदत से छुटकारा पाने में असफल रहने की अपनी चिंता मुझसे साझा कर रहे थे। तभी हमारे वाट्सएप ग्रुप में एक क्रिकेट के दीवाने ने शानदार आइडिया साझा किया।
उसने कहा, ‘हम हेयरड्रेसर के पास नहीं जा पा रहे और बाल लंबे हो गए हैं। लॉकडाउन खुलने के बाद भी कुछ समय तक ज्यादातर लोग हेयरड्रेसर के पास नहीं जा पाएंगे। इसके पीछे दो कारण हैं: पहला, सभी लोग पहले यह देखने के लिए इंतजार करेंगे कि किस हेयड्रेसर को हाइजीन या सफाई के मामले में अच्छे रिव्यू मिल रहे हैं।

दूसरा, उससे एपॉइंटमेंट लेना भी मुश्किल हो सकता है। इसलिए पहले 40 दिन का लॉकडाउन और फिर अगले 40 दिन तक सही नाई की तलाश में बाल लंबे ही होते जाएंगे। जाहिर है, बालों को संभालना पड़ेगा। तो मेरा सुझाव है कि इसके लिए आप अपने दोस्त से कहें कि वे माथे पर पट्‌टी बांधें। वे बार-बार उंगली जीभ पर लगाने की जगह, इस पट्‌टी को दिनभर थोड़ा गीला रखें। फिर पन्ने पलटने के लिए या नोट गिनने के लिए इस पट्‌टी से उंगली गीली कर सकते हैं।’

इस आइडिया के साथ उसने वॉट्सएप पर इंग्लैंड के गेंदबाज जॉन लीवर के बारे में एक कहानी भी भेजी। अपने लंबे बाल (एमएस धोनी जितने लंबे रखते थे, उससे भी ज्यादा) संभालने के लिए जॉन सिर पर पट्‌टी बांधते थे। लेकिन भारत के विरुद्ध 1976-77 में मद्रास में हुए टेस्ट मैच के दौरान जॉन पर माथे पर बंधी पट्‌टी में वैसलीन लगाने का आरोप लगा। भारत वह सीरीज हार गया। तत्कालीन कप्तान बिशन सिंह बेदी ने इसका पुरजोर विरोध किया। फोरेंसिक जांच में भी यह साबित हुआ कि गेंज की सतह पर कोई पदार्थ था। लेकिन इंग्लैंड ने यह कहकर जॉन का बचाव किया कि पट्‌टी पर वैसलीन का इस्तेमाल पसीने को गेंदबाज की आंखों में जाने से रोकने के लिए किया गया था।

हालांकि मैं नहीं जानता कि शिकायत का नतीजा क्या हुआ, लेकिन बेदी ने अपना नॉर्थएम्प्टनशायर कंट्री कॉन्ट्रेक्ट खो दिया क्योंकि उन्होंने वैसलीन मामले में जोरदार विरोध किया था।
अब हो सकता है कल को अंपायर्स बोर्ड की सहमति से कोई लिक्विड की बोतल रखने लगें, जिसे वे हर ओवर में गेंदबाज को दे सकेंगे, ताकि वह बॉल स्विंग करा पाए! लेकिन मजाक से इतर, जहां तक सरकारी या प्राइवेट ऑफिस के माहौल की बात है, पसीने या थूक जैसा कोई भी तरल पदार्थ लगाने की अनुमति नहीं होगी, जो मानव शरीर से निकलता हो। इसलिए हमें ऐसे आइडिया सोचने की जरूरत है, जो इंसानी आदतों को बदल सके।
चूंकि कोरोना वायरस से पहले इंसानों की निजी साफ-सफाई की जिन आदतों को ज्यादातर सामान्य माना जाता था, वे पूरी तरह से बदलने वाली हैं। हर किसी पर नजर रखी जाएगी। न सिर्फ सीसीटीवी कैमरा से बल्कि आसपास मौजूद इंसान भी नजर रखेंगे।
फंडा यह है कि इससे पहले कि हमपर बदलने के लिए दबाव बनाया जाए, यह जीवन के हर क्षेत्र में खुद को तेजी से बदलने का समय है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Change yourself before the pressure of change




india news

लॉकडाउन से पहले नए केस की एवरेज ग्रोथ रेट 35% थी, बाद में घटकर 15% पहुंची; इस दौरान रोज औसतन 58 मरीज भी ठीक हुए

चीन के वुहान शहर से निकला कोरोनावायरस दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुका है। फिलहाल, कोरोना का कोई असरदार इलाज या वैक्सीन नहीं है। इसलिए, दुनियाभर की सरकारें इसे रोकने के लिए एक ही तरीका अपना रही हैं और वो तरीका है- लॉकडाउन।


भारत में भी कोरोना को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन लगाया गया है। पहले लॉकडाउन 21 दिन के लिए लगाया गया था, लेकिन बाद में इसे 19 दिन और बढ़ा दिया गया। लॉकडाउन का पहला फेज 25 मार्च से 14 अप्रैल के बीच लागू रहा और दूसरा फेज 15 अप्रैल से 3 मई तक रहेगा।


लॉकडाउन बढ़ाने के पीछे यही तर्क था कि देश में कोरोना के मामले कम होने के बजाय बढ़ते ही रहे। हालांकि, स्वास्थ्य मंत्रालय ने 12 अप्रैल को प्रेस कॉन्फ्रेंस को बताया था, दुनिया में कोरोना 41% की ग्रोथ रेट से फैल रहा था। अगर सरकार की तरफ से शुरुआत में कोई एक्शन नहीं लिया जाता, तो इसी ग्रोथ रेट के हिसाब से 15 अप्रैल तक 8.2 लाख लोगों के संक्रमित होने की आशंका थी।


लॉकडाउन से पहले क्या थी हमारी हालत?
देश में लॉकडाउन उस समय लगाया गया, जब कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या अचानक बढ़ने लगी थी। देश में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को आया था। उसके बाद 2 फरवरी तक 3 मामले थे। लेकिन, फिर पूरे महीनेभर कोई नया मामला नहीं आया। ये तीनों मरीज भी ठीक हो चुके थे। उसके बाद 2 मार्च से देश में कोरोना के मामले अचानक बढ़ने लगे।


22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगाया गया। और 25 मार्च से देशभर में लॉकडाउन लागू हो गया। लॉकडाउन से एक दिन पहले तक यानी 24 मार्च तक देश में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 571 थी। तब तक 10 मौतें भी हो चुकी थीं। लॉकडाउन से पहले तक देश में कोरोना के मामले दिखने में भले ही कम लग रहे हों, लेकिन इनकी एवरेज ग्रोथ रेट 35% के आसपास थी। यानी, हर दिन कोरोना के 35% नए मरीज मिल रहे थे।

लॉकडाउन के पहले फेज में क्या सुधार हुआ?
लॉकडाउन लगने के बाद भी 25 मार्च से 14 अप्रैल के बीच देशभर में कोरोना के 10 हजार 919 नए मामले बढ़े। यानी, 14 अप्रैल तक देश में कोरोना के जितने मामले आए, उसमें से 95% मामले लॉकडाउन में आए।


लेकिन, राहत की एक बात ये भी रही कि लॉकडाउन के दौरान कोरोना के नए मामलों की एवरेज ग्रोथ रेट में कमी आई। लॉकडाउन से पहले कोरोना की एवरेज ग्रोथ रेट 35% थी, जो लॉकडाउन में घटकर 15% रह गई।


इसको ऐसे समझिए : लॉकडाउन से पहले कोरोना की ग्रोथ रेट 35% थी। यानी, सोमवार को अगर कोरोना के 100 मरीज हैं, तो मंगलवार को मरीजों की संख्या 135 हो जा रही थी। लेकिन, लॉकडाउन में ग्रोथ रेट 15% हो गई। इसका मतलब हुआ कि, पहले मंगलवार को कोरोना संक्रमितों की संख्या 100 से 135 हो रही थी तो अब ये 100 से 115 ही बढ़ सकी।


राहत की एक बात ये भी, लॉकडाउन में हर दिन औसतन 58 मरीज ठीक हुए
लॉकडाउन के पहले फेज में राहत की एक और बात रही और वो ये कि इस दौरान कोरोना के संक्रमण से ठीक होने वाले मरीजों की संख्या बढ़ी। 24 मार्च तक देश में 40 मरीज ही ठीक हुए थे। लेकिन 25 मार्च से 14 अप्रैल के बीच 1 हजार 325 मरीज ठीक हुए। अगर इसका औसत निकालें तो हर दिन 58 मरीज कोरोना से ठीक हुए।

लेकिन, लॉकडाउन के 21 दिन में 384 मौतें हुईं, हर दिन औसतन 18 मौतें
24 मार्च तक देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या 10 ही थी। लेकिन, 25 मार्च से 14 अप्रैल के बीच इन 21 दिनों में 384 लोगों की जान कोरोना से गई। यानी, हर दिन औसतन 18 मौतें। जबकि, लॉकडाउन से पहले तक औसतन हर 5.5 दिन में एक मौत हो रही थी।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
coronavirus india lockdown covid 19 latest analysis and updates