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द्वारका से 1700 लोगों को बसों से घर तक छोड़ा गया, उज्जैन में भी प्रशासन की मदद से यात्री बाहर भेजे गए; अजमेर शरीफ में अब तक 3500 जायरीन फंसे हुए हैं

देश में कोरोनावायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या जैसे ही 100 के पार हुई थी, ठीक वैसे ही केन्द्र समेत अलग-अलग राज्य सरकारें एक्शन में आने लगीं थीं। स्कूल, कॉलेज, पर्यटन स्थलों, रेस्त्रां, बार को बंद किया जाने लगा था। 15 मार्च के बाद अलग-अलग राज्यों में मंदिर-मस्जिद में भी एंट्री बैन होने लगी। हालांकि कुछ जगहों पर लोग मंदिरों में पूजा और मस्जिदों में इबादत के लिए अच्छी संख्या में जुटते रहे। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का ऐलान हुआ और फिर एक के बाद एक सैकड़ों शहर लॉकडाउन होते गए। 2 दिन बाद यानी 25 मार्च को पूरे देश को ही लॉकडाउन कर दिया गया। ऐसे में धर्म स्थलों के दरवाजे तो बंद हो गए लेकिन यहां पहुंचे हजारों लोग अपने घर नहीं लौट पाए। कुछ जगहों पर प्रशासन की मदद से लोगों को उनके शहर तक छोड़ दिया गया लेकिन कई जगहों पर सैकड़ों की तादाद में लोग अब भी फंसे हुए हैं। दैनिक भास्कर के 10 रिपोर्टरों की इस ग्राउंड रिपोर्ट में आप काशी से लेकर अजमेर तक और वैष्णोदेवी से लेकर तिरूपति तक देश के बड़े धार्मिक स्थलों के ताजा हालातों के बारे में पढ़ेंगे...

अजमेर से विष्णु शर्मा...

ख्वाजा शरीफ की दरगाह पर चादर चढ़ाने आए साढ़े 3 हजार जायरीन अभी भी फंसे हुए हैं
केंद्र और राज्य सरकार के निर्देशों के बाद 20 मार्च को जुमे की नमाज के बाद ही दरगाह शरीफ परिसर को पूरी तरह से खाली कर दिया गया था। यहां रोजाना की रस्म अदायगी के लिए दरगाह कमेटी के लोगों को विशेष पास दिए गए है।दरगाह पर तो ज्यादालोग नजर नहीं आते लेकिन इसके आसपास की होटलों, गेस्ट हाउस, धर्मशालाओं में करीब 3500 लोग फंसे हुए हैं। जनता कर्फ्यू (22 मार्च) के बाद से ही ये लोग यहां से निकल नहीं पाए।

दरगाह शरीफ के 11 गेटों में से सिर्फ 2 गेट ही खुले हैं।रोजाना की रस्म अदायगी के लिए कुछ लोगों को पास दिए गए हैं।

दरगाह कमेटी के अध्यक्ष अमीन पठान ने केंद्र और राज्य सरकार को एक पत्र लिखकर इन लोगों के अजमेर में फंसने की जानकारी दी थी, साथ ही इनके ठहरने, खाने-पीने की व्यवस्था करने की भी गुजारिश की थी। दरगाह थाना प्रभारी हेमराज सिंह चौधरी के मुताबिक, सभी लोगों पर निगरानी है। फिलहाल किसी में भी कोरोना के लक्षण नहीं पाए गए हैं। हर दिन दरगाह प्रबंधन और मस्जिदों से अनाउंसमेंट कर लोगों से अपील की जा रही है कि अगर किसी में कोरोना के लक्षण नजर आए तो वे तत्काल प्रशासन को सूचना दें। कुछ के टेस्ट भी किए गए, लेकिन रिपोर्ट नेगेटिव आई है।


वाराणसी से अमित मुखर्जी...

काशी विश्वनाथ मंदिर 20 मार्च से बंद है, घाटों पर सिर्फ एक-एक व्यक्ति गंगा आरती करता है
बनारस के दशाश्वमेध घाट पर 30 सालों से हो रही गंगा आरती इन दिनों सिर्फ सांकेतिक रूप से हो रही है। जिस आरती में सात पंडित या अर्चक होते थे, वहां अब सिर्फ एक व्यक्ति होता है। बिना किसी भजन या संगीत के आरती होती है।यही हाल अस्सी घाट पर होने वाली सुबह की आरती का भी है।

18 मार्च से ही काशी केदशाश्वमेध घाट पर एक ही व्यक्ति गंगा आरती करते हुए नजर आता है।

इन घाटों और आरतीयों को देखने आए 435 यात्री यहां फंसे हुए हैं, इनमें 35 विदेशी और 400 भारतीय हैं। होटलों और आश्रमों में ठहरे इन लोगों की लगातार मॉनिटरिंग हो रही है। काशी विश्वनाथ मंदिर,संकट मोचन मन्दिर,सारनाथ,म्यूजियम में लोगों की एंट्री बैन है। 17 मार्च से ही विश्वनाथ मंदिर में स्पर्श दर्शन और गर्भ गृह में प्रवेश बन्द कर दिया गया था और फिर 20 मार्च से पूरे मंदिर को ही बंद कर दिया गया।

उज्जैन से राजीव तिवारी...

23 मार्च से सभी श्रद्धालुओं को जिले की सीमा से बाहर भेजना शुरू किया गया
बारह ज्योतिर्लिंगों में से एकमहाकाल के साथ-साथ उज्जैन में कई प्राचीन मंदिर हैं। आम दिनों मेंयहां की होटलों, गेस्ट हाउस और धर्मशालाओं में भी लोगों की अच्छी खासी भीड़होतीहैलेकिन लॉकडाउन के बाद ये सब खाली है। जनता कर्फ्यू (22 मार्च) केदो दिन पहले ही प्रशासन ने महाकाल, हरसिद्धि, कालभैरव, मंगलनाथ सहित शहर के सभी मंदिर सील कर दिए थे और फिर 22 मार्च की रात से ही जिले को लॉकडाउन कर दिया गया। 23 मार्च को सभी श्रद्धालुओं को जिले की सीमा से बाहर भेजना शुरू किया गया। 300 श्रद्धालु ऐसे थे, जिन्हें साधन नहीं मिले तो प्रशासन ने अपने वाहनों से व्यवस्था कर उनके शहर-गांव भेज दिया।

मंदिरों की नगरी उज्जैन में हर दिन 20 हजार लोग महाकाल समेत अन्य मंदिरों के दर्शन के लिए आते हैं। 20 मार्च से यहां के सभी मंदिर बंद हैं।

107 श्रद्धालु जो गरीब हैं और अपने घर नहीं जा सकते थे, उन्हें नगर निगम के रैन बसेरों में ठहराया गया है। इनके खाने-पीने का इंतजाम नगर निगम कर रहा है। इनकी स्क्रीनिंग हुई है, इनमें से दो में कोरोना के लक्षण मिले हैं, जिन्हें माधव नगर अस्पताल में भर्ती किया गया है।

अमृतसरसे बलराजमोर...

एक चीनी और आठ पाकिस्तानियों समेत 200 से ज्यादा यात्री मौजूद हैं
अमृतसर में 200 यात्री मौजूद हैं, इनमें आठपाकिस्तानी और एक चीनी नागरिक भी शामिल हैं। दरबार साहिब की सराय गुरु रामदास में 150 लोग ठहरे हैं। सभी के स्क्रीनिंग टेस्ट हो चुके हैं, कोई भी पॉजिटिव नहीं पाया गया। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने 28 मार्च को श्री दरबार साहिब में फंसे लोगों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए विशेष बसें चलाई और दिल्ली, शाहजहांपुर और बठिंडा के लिए चार बसों को रवाना किया। इसी तरह 30 मार्च को अमृतसर से 180 लोग मलेशिया के लिए रवाना हुए। इनमें से ज्यादातर भारतीय मूल के लोग हैं, जिन्हें मलेशिया की नागरिकता हासिल है। मलेशिया सरकार ने इन्हें वहां बुलाने के लिए विशेष विमान भेजा था। इंटरनेशनल फ्लाइट्स रद्द होने के कारण वे यहां फंसे थे।

एक मुस्लिम सूफी संत ने 1588 ईस्वी में अमृतसर में स्वर्ण मंदिर की नींव रखी थी। करीब 200 साल बाद राजा रणजीत सिंह ने इसके एक खास हिस्से पर सोने की परत चढ़वाई।


शिरडी से आशीष राय...

मंदिर के पुजारी तय समय पर आते हैं, मास्क लगाकर आरती करते हैं और चले जाते हैं
साईं बाबा के इस प्रसिद्ध मंदिर के कपाट आम लोगों के लिए 17 तारीख की शाम 3 बजे के बाद से बंद हैं। यहां कोई भी श्रद्धालु नहीं है। मंदिर के पास स्थित ट्रस्ट का हॉस्पिटल खुला हुआ है, जहां स्टाफ और कुछ मरीज हैं। मंदिर के प्रसादालय में सिर्फ मेडिकल और सिक्यूरिटी स्टाफ के लिए खाना बनता है। मंदिर के पुजारी तय समय पर आते हैं, आरती करते हैं और चले जाते हैं। इस दौरान वहां मौजूद स्टाफ मास्क लगाकर दूर-दूर खड़े रहते हैं।

शिरडी के साईं मंदिर में पिछले साल 1 करोड़ 63 लाख भक्त आए थे। यानी हर दिन करीब 45 हजार लोग यहां साईं बाबा के दर्शन के लिए आते हैं। पिछले 18 दिनों से यहां सन्नाटा पसरा हुआ है।

द्वारका से जिग्नेश कोटेजा...

22 बसों से 1700 लोगाें को उनके शहर भेजा गया
जहां हमेशा “जय द्वारकाधीश” के स्वर गूंजा करते थे, वहां अब केवल पक्षियों के कलरव ही सुनाई दे रहे हैं। यहां सभी मंदिर बंद है। सुबह-शाम पुजारी आते हैं ओर पूजा करके चले जाते हैं। बिहार के 100 और कोलकाता के 28 यात्री यहां के सनातन सेवा मंडल आश्रम में ठहरे हुए हैं। जबकि 1700 लोगों को लॉकडाउन के बाद द्वारका प्रशासन ने 22 बसों से उनके शहर पहुंचाया। यहां 100 से ज्यादा होटलें हैं, सभी को खाली करवाने के बाद स्वास्थ्य विभाग ने इन्हें सेनटाइज किया है।

द्वारकाधीश मंदिर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के 4 धामों में से एक है। श्री कृष्ण भगवान का यह मंदिर करीब 2500 साल पुराना माना जाता है।

पुरी से सरत कुमार पात्रा...

15 हजार टूरिस्ट को चेक पोस्ट पर रोका, प्रशासन ने ट्रेन-फ्लाइट टिकट बुक करने में मदद की
कोरोना का फैलाव रोकने के लिए पुरी प्रशासन ने 17 तारीख को एडवाइजरी जारी की थी। उसी दिन से होटल, लॉज खाली करवाने और अगले आदेश तक कोई भी नई बुकिंग नहीं लेने के निर्देश दिए गए थे। इससे पहले 15 से 17 मार्च के बीच करीब 15 हजार टूरिस्ट को शहर के बाहर ही चेकपोस्ट बनाकर लौटा दिया गया था। जिला प्रशासन ने ट्रेन और फ्लाइट के टिकट बुक करने में यात्रियों की मदद भी की थी। जब सभी टूरिस्ट को यहां से लौटा दिया गया तो एक होटल में तीन विदेशी टूरिस्ट छिपे थे। होटल ने उनके होने की बात छिपाई थी। जिसके बाद पुलिस ने होटल को सील कर उन टूरिस्ट को दिल्ली भेज दिया।

पुरी का जगन्नाथ मंदिर भी चार धामों में से एक है। यहां की रथयात्रा दुनियाभर में प्रसिद्ध है।

वैष्णोदेवी से मोहित कंधारी...

चैत्र नवरात्र में मातावैष्णो देवी के दर्शन के लिए 35 से 40 हजार यात्री आते हैं, लेकिन इस साल यह पूरे नौ दिन बंद रहा
माता वैष्णोदेवी की यात्रा रोकने के ठीक एक दिन पहले 17 मार्च को श्राइन बोर्ड में 14 हजार 816 यात्रियों ने रजिस्ट्रेशन करवाया था। दर्शन के बाद इनमें से ज्यादातर लोग कटरा रेलवे स्टेशन से अपने घरों के लिए लौट गए। कुछ जो आसपास के इलाकों में घूमने निकले थे, उन्हें अथॉरिटी ने घर लौटने को कहा। नवरात्र में आमतौर पर यहां 35 से 40 हजार यात्री आते हैं। जबकि इस साल यात्रा पूरे नौ दिन बंद रही।

कटरा से 12 किमी दूर मां वैष्णोदेवी का मंदिर है। यह समुद्रतल से 5200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

तिरुपति से बीएस रेड्‌डी...

बालाजी मंदिर मेंदर्शन बंद हैं लेकिन पूरे समय एक हजार सुरक्षाकर्मी तैनात रहते हैं
तिरुपति बालाजी मंदिर में लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही ट्रस्ट के 16 हजार से ज्यादा कर्मचारी जो मंदिर के आसपास या तिरुमाला पहाड़ पर रहते थे, उन सभी को परिवार सहित नीचे बनें आश्रमों में भेज दिया गया। करीब 1000 कर्मचारी बारी-बारी से 7-7 दिनों के लिए मंदिर की सुरक्षा और देखरेख के लिए ऊपर ही रहते हैं। इनमें सेना के रिटायर्ड अफसर और सुरक्षाकर्मी शामिल हैं। इन सभी लोगों को चेकअप के बाद ही ऊपर भेजा जाता है और जब यह 7 दिन के बाद वापस लौटते हैं तो दोबारा जांच की जाती है। इसके बाद फिर नए दल को तैयार कर 1000 लोगों को अगले 7 दिन के लिए भेजा जाता है।

तिरुपति देवस्थानम तिरुमाला (आंध्रप्रदेश) के श्री वेंकटेश्वर स्वामी का यह मंदिर उत्तर भारत में तिरुपति बालाजी नाम से ही प्रसिद्द है। यह भारत में सबसे ज्यादा देखे जाने वाला धार्मिक स्थल है।

मंदिर में बाहरी लोगों का दर्शन के लिए आना बंद है। हर दिन सिर्फ भगवान की पूजा के लिए अखंड दीप और भोग चढ़ाने के लिए पुजारी मंदिर में जाते हैं। लॉकडाउन खुलने पर मंदिर और पर्वत का पक्षालन किया जाएगा यानी वैदिक विधान से चारों ओर गंगाजल से सफाई की जाएगी। इसके बाद ही दर्शन के लिए इसे खोला जाएगा। ऐसा सूर्यग्रहण के बाद भी किया जाता है।

अयोध्या से भास्कर रिपोर्ट...

लॉकडाउन होने के दो दिन पहले ही रामनवमी मेले पर प्रतिबंध लगाने के आदेश आ गए थे
मंदिर से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले के बाद इस साल आयोध्या में रामनवमी की भव्य तैयारियां थी। लेकिन रामनवमी मेले पर प्रतिबंध का आदेश लॉकडाउन होने के दो दिन पहले ही जारी कर दिया गया था। यहां सख्ती से धारा 144 लागू है। लॉकडाउन से पहले दो दिनों के अंदर ही अन्य राज्यों सेअयोध्या पहुंचे पर्यटक वापस लौट गए। हालांकि इसके बावजूद अयोध्या में अब तक 4 हजार लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है, इनमें से 266 लोग विदेश से लौट कर अयोध्या पहुंचे हैं।

भगवान राम की इस नगरी में धुमधाम से रामनवमी मनाने की तैयारी थी, लेकिन कोरोना के चलते यहां की गलियां तक सूनसान हैं।

यहां के जैन मंदिर में एक महिला की मौत लॉकडाउन के दौरान हो गई थी। उसके अंतिम संस्कार में शामिल 27 लोंगों को जैन मंदिर में ही क्वारेंटाइन किया गया है।



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Coronavirus Shrine (Mandir) Ground Report Latest; Gujarat Dwarkadhish Temple, Ujjain Mahakal Mandir




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कोरोना के डर से गांववालों ने सीमाएं सील कीं, नक्सली यहां बड़ी-बड़ी बैठकों के जरिए लोगों से नजदीकियां बढ़ा रहे

दंतेवाड़ा में नक्सली कोरोनावायरस को एक मौके की तरह देख रहे हैं। ये लोग इलाके के गांवों में महामारी का डर जगाकर अपनी पैठ जमा रहे हैं। गांववालों को शहरी इलाकों में जाने और बाहर से किसी को आने देने पर पाबंदी लगाने को कहा जा रहा है। नक्सलियों के कहने पर ग्रामीणों ने ज्यादातर गांवों को सील कर दिया है। न किसी को गांव में आने की इजाजत है और न ही किसी को गांव से बाहर जाने की। पुलिस भी यहां नहीं पहुंच रही, लेकिन नक्सली इन गांवों में लगातार बैठकें कर रहे हैं। इसी के साथ सुरक्षाबलों पर हमले करने के लिए इनका टेक्निकल काउंटर ऑफेनसिव कैंपेन (टीसीओसी) भी इन दिनों तेज हो गया है।


सोशल डिस्टेंसिंग की जरूरत के समय गांववालों के साथ सोशल नजदीकियां बढ़ा रहे हैं नक्सली

बस्तर में पड़ोसी राज्यों के नक्सलियों की आवाजाही रहती है। देश में कोरोनावायरस के फैलाव से पहले ही नक्सलियों का हर साल खास दिनों में चलने वाला टीसीओसी शुरू हो चुका था। पुलिस के खुफिया विभाग के सूत्र बताते हैं कि कोरोना के पहले ही आंध प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र के नक्सली बस्तर में आ चुके थे। अभी बाहरी नक्सलियों की आवाजाही तो नहीं है, लेकिन पहले से मौजूद नक्सली सोशल डिस्टेंसिंग की बजाय गांवों में सोशल नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। नक्सली टीसीओसी के टास्क को पूरा करने के लिए गांव-गांव जाकर बैठकें ले रहे हैं। ये सड़के काट रहे हैं, पर्चे फेंक रहे हैं और साथ ही छुटपुट घटनाओं को भी अंजाम दे रहे हैं। ऐसी भी खबरें हैं कि लॉकडाउन का फायदा उठाकर नक्सली कई इलाकों में पुलिस जवानों पर हमले की योजना बना चुके हैं।


गांववालों को नक्सलियों और कोरोनावायरस से बचाने के लिए ऑपरेशन भी चल रहे हैं

बस्तर आईजी पी सुंदरराज का कहना है कि, "यहां बड़े कैडर के नक्सलियों ने खुद को जंगल में ही आइसोलेट कर रखा है, जबकि निचले कैडर के नक्सलियों को वे इस महामारी के बारे में ज्यादा नहीं बता रहे। उन्हें डर है कि संक्रमण से फैलने वाली इस बीमारी के बारे में जानकर ये लोग अपने घर भाग सकते हैं। नक्सलियों के पास मास्क, सेनेटाइजर और साबुन भी होते हैं लेकिन ये बस टॉप कैडर के पास ही रहते हैं।" सुंदरराज बताते हैं कि, "लॉकडाउन का फायदा उठाकर ये लोग रोड़ काटने, बैठकें लेने और गांववालों को बहकाने जैसे काम में लगे हुए हैं। हमें सबसे ज्यादा फिक्र इस बात की है कि नक्सली बाहर आते जाते रहते हैं, अगर वे कोरोना संक्रमित निकले तो जिन गांवों में ये बैठकें कर रहे हैं, उन सभी गांवों को खतरा हो सकता है। हम सावधानी बरतकर गांववालों को नक्सलियों और कोरोनावायरस से बचाने के लिए ऑपरेशन संचालित कर रहे हैं।"

दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर के सरहदी इलाके के नदी पार के गांवों में बड़ी संख्या में नक्सलियों के इकट्ठा होने की जानकारी मिली है।

दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर के सरहदी इलाको के गांवों में बड़ी संख्या में नक्सली मौजूद

इन दिनों नक्सलियों का टीसीओसी चल रहा है। इलाके में नक्सलियों की अच्छी खासी तादाद इकट्ठा है। बड़ी संख्या में नक्सली गांवों में मौजूद हैं। यहां वे रणनीतियां बना रहे हैं। हाल ही में दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर के सरहदी इलाके के नदी पार के गांवों में बड़ी संख्या में नक्सलियों की जानकारी मिली है। गांवों में ये छोटी-बड़ी सभाएं कर रहे हैं। इन बैठकों में सोशल डिस्टेंसिंग पर कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा, लोग झुंड बनाकर एक जगह बैठ रहे हैं। कुछ ही जगहों पर ऐसी सभाओं में सोशल डिस्टेंसिंग की बात सामने आई है। इस बीच लॉक डाउन के कारण नक्सलियों का राशन सप्लाई चेन काम नहीं कर रहा है। ये लोग राशन की कमी से जूझ रहे हैं। ये राशन के लिए गांववालों पर दबाव भी बना रहे हैं।



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कोरोनावायरस के असर के बीच दंतेवाड़ा के गांवों में नक्सलियों की संख्या बढ़ रही है। लॉकडाउन का फायदा उठाकर ये पुलिस की गांवों तक पहुंच को मुश्किल बनाने के लिए सड़के खोद रहे हैं।




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अब कोरोना संक्रमण रोकने के लिए हो अधिक जांच

प्रकृति और जीव पर नियंत्रण की मानव की क्षमता पर पहली बार प्रश्न चिह्न लगा है। विश्वास है हम इससे उबर जाएंगे, लेकिन यह डर हमेशा बना रहेगा कि एक छोटा सा अदृश्य वायरस पूरी मानव सभ्यता को चुनौती दे सकता है। बहरहाल, एक खुशखबरी यह है कि वायरस की मौजूदगी का पता लगाने वाले महंगे और घंटों चलने वाले परंपरागत आरटी-पीसीआर किट की जगह वैज्ञानिकों ने सस्ती और मिनटों में रिजल्ट देने वाली क्रिस्पर यानी सीआरआईएसपीआर किट ईजाद कर ली है।

संक्रामक बीमारी पर अंकुश का सबसे जरूरी चरण होता है रोगी में वायरस की पहचान। जिन देशों ने जितनी जल्द और जितनी ज्यादा यह प्रक्रिया अपनाई, वे उतने ही अधिक इसके प्रकोप से बच सके, जैसे दक्षिण कोरिया और जर्मनी। लेकिन, इटली और अमेरिका ने बाद में रफ़्तार पकड़ी, तब देर हो चुकी थी। भारत में अभी भी प्रति दस लाख आबादी पर केवल 36.88 टेस्ट हो सके हैं, जबकि जर्मनी ने इससे 300 गुना और दक्षिण कोरिया ने 250 गुना ज्यादा टेस्ट किए।

राजस्थान का भीलवाड़ा देश के 25 हॉटस्पॉट जिलों में होने के बावजूद इस रोग पर काबू पाने में भारत में सबसे सक्षम रहा। उसने राष्ट्रीय औसत से 200 गुना ज्यादा जांच की। भारत सरकार ने 50 लाख टेस्ट किट्स के ऑर्डर दिए हैं, लेकिन उन्हें आने में दो माह लग सकते हैं। पहली पांच लाख किट्स की खेप अमेरिका से एक माह में आने की उम्मीद है।

एक फार्मास्युटिकल कंपनी ने कहा है कि वह 50 लाख क्रिस्पर किट्स बनाने जा रही है। वायरोलॉजी के सिद्धांत के अनुसार वायरस बैक्टीरिया से भी लड़ते हैं, लिहाज़ा शरीर में बैक्टीरिया की स्थिति से वायरस की मौजूदगी और प्रकृति का पता चल सकता है।

क्रिस्पर को ईजाद करने वाली दो कंपनियों के दो वैज्ञानिकों ने सीधे आरएनए (रेबो न्यूक्लेइक एसिड) का पता लगाया न कि इसे डीएनए (डीऑक्सी रिबोन्यूक्लेइक एसिड) में बदलने में वक्त जाया किया, जो परंपरागत पीसीआर मशीन के द्वारा किया जाता था। क्रिस्पर छोटा और सामान्य स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा जगह-जगह इस्तेमाल कर मिनटों में वायरस का पता बताने वाली किट है। कई रोगियों में लक्षण न दिखने से खून की जांच भी कारगर उपाय है। बहरहाल, पूरे देश के लिए एक एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) विकसित करना जरूरी है।



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Now more investigation should be done to prevent corona infection




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लोग दीया जलाकर खुश हैं तो मोदी परवाह क्यों करें?

कोरोनावायरस की खबरों ने तमाम अन्य समाचारों को पीछे छोड़ दिया है और लगता नहीं कि इसमें जल्द ही कोई परिवर्तन आने जा रहा है। परंतु मैं इससे ऊब चुका हूं। लेकिन, मुश्किल यह है कि राजनीति भी काफी हद तक स्थगित नजर आ रही है। इसलिए हम कोरोनावायरस के साथ ही राजनीति की शरण लेते हैं। आइए देखें कि अपने सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती को लेकर नरेंद्र मोदी ने संदेश देने के मोर्चे पर कैसा काम किया है। हम उनके भीतर के संदेशवाहक के साथ इसे शुरू करते हैं। उनके पास यह ऐसा उपहार है, जो मनमोहन सिंह से लेकर राजीव गांधी तक उनके आठ पूर्ववर्तियों में किसी को भी हासिल नहीं था। आम लोगों, खासकर मतदाताओं के दिलोदिमाग को समझने में वह इंदिरा गांधी को टक्कर देते हैं। इसलिए अपनी सरकार की ओर से हर संदेश वह खुद देते हैं।
रविवार रात ‘नौ बजे नौ मिनट’ कार्यक्रम को लेकर शुक्रवार को दिए उनके भाषण के एक घंटे के भीतर ही उनकी पूरी कैबिनेट, पार्टी के शीर्ष पदाधिकारी, सोशल मीडिया के योद्धा, आरएसएस और भाजपा से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भाषण के हिस्से ट्वीट करने शुरू कर दिए। जब वह बोलते हैं तो ये सभी सिर्फ उनकी बात को प्रतिध्वनित करते हैं और कुछ बोलते नहीं। इससे संदेश की पवित्रता बनी रहती है। इसमें इस बात से सहयोग मिलता है कि वह चाहे जो कहें या करें, उनके मूल मतदाता उनकी हर बात पर यकीन करते हैं। कुछ गड़बड़ भी होता है, जैसा नोटबंदी के दौर मेंं हुआ, तो भी प्रशंसक उनको क्षमा कर देते हैं। कल्पना करो कि इसका क्या असर हुआ होगा, जब पिछले दिनों उन्होंने मन की बात में गरीबों से असुविधा के लिए माफी मांगी। दसियों करोड़ दिल तत्काल ही पसीज गए थे।
उनके सभी प्रमुख भाषणों को याद कीजिए, स्वच्छ भारत से लेकर एलपीजी सब्सिडी त्यागने तक, नोटबंदी से लेकर अब कोविड-19 तक उन्होंने जितनी पहल की हैं, हर बार उन्होंने आमजन से कुछ न कुछ करने को कहा। यह बात लोगों को जवाबदेह बनाती है। भला गंभीरता से लिया जाना किसे अच्छा नहीं लगता और वह भी इतने शक्तिशाली नेता द्वारा?
कोरोना से जुड़े भाषणों में भी उन्होंने ठीक यही किया। पहले भाषण में कहा कि वह लोगों से उनके जीवन के कुछ सप्ताह मांग रहे हैं, लेकिन इस बात को वहीं छोड़ दिया। शायद यह जनता को तैयार करने का नुस्खा था। उन्होंने एक दिन के जनता कर्फ्यू के लिए कहा और हममें से कई ने अंदाजा लगा लिया था कि यह लंबे लॉकडाउन का ड्राई-रन है। उन्होंने डॉक्टरों व अनिवार्य सेवाओं से जुड़े लोगों के लिए तालियां बजाने और उत्साह बढ़ाने की बात कही। घंटियां और थाली बजाने की बात कहकर लोगों को उत्साहित किया। मोदी की माफी में खास पैटर्न है। नोटबंदी के बाद रुंधे गले से कहा था मुझे सिर्फ 50 दिन दीजिए। मेरे कदमों में खामी हो तो मैं कोई भी दंड भुगतने को तैयार हूं। इतने विनम्र नेता को भला कौन दंडित करेगा। मन की बात में कोरोना को लेकर मांगी गई माफी में ज्यादा बारीकी थी। वह उस गड़बड़ी के लिए माफी नहीं मांग रहे थे, जो उन्होंने उत्पन्न की, बल्कि साहसी कदम से हो रही असुविधा की माफी मांग रहे थे। वह कदम जो देश को कोरोना से बचाने के लिए उठाया था। उन्होंने प्रवासी श्रमिकों के विस्थापन का उल्लेख तक नहीं किया।

इससे तीन सबक मिलते हैं : पहला, मोदी अपने संदेश में कोई वादा नहीं करते। दूसरा, वह हमेशा आप से अपने लिए और राष्ट्र के लिए कुछ करने को कहते हैं। तीसरा, वह अपने किसी भी काम के लिए कभी खेद नहीं जताते। चौथा, उन्हें पता है कि किसे संबोधित करना है, किसकी अनदेखी करनी है। वह जानते हैं कि उनके आलोचक, टिप्पणीकार उनकी बातों को बचकाना कहकर मखौल उड़ाएंगे। मोदी उनकी परवाह नहीं करते। दूसरा तबका, जिसे वह संबोधित नहीं कर रहे हैं, लेकिन अनदेखी भी नहीं कर सकते वह है गरीब। उन्हें बहुमत इन्हीं लोगों से मिलता है, लेकिन वे उनकी बहस को नियंत्रित नहीं करते। गरीब लोग चतुर होते हैं और सवाल करते हैं। उन्हें जोखिम में क्यों डालना? मध्यम वर्ग का मतदाता इनसे बाहर है और एजेंडा तय करता है। अगर वह सवाल करता तो वह थाली या मोमबत्ती लेकर बालकनी में क्यों आता? गरीबों तक मोदी नगदी, एलपीजी, शौचालय, आवास आदि के माध्यम से पहुंचते हैं। गरीबों को उनकी सीधी मदद पहले की तुलना में बहुत बेहतर रही है।
अगर कोई कहता है कि वह मोदी का मस्तिष्क पढ़ सकता है तो वह या तो झूठा है या फिर आइंस्टीन का अवतार। आप खुद को मोदी की जगह रखकर देखिए। अगर मैं खुद को रखूं तो मुझे ऐसा नजर आता है- ओह! ये लोग बच्चे हैं। लेकिन, आज्ञाकारी बच्चे। वे आज्ञा पालन के क्रम में अति कर सकते हैं, लेकिन मैं उन्हें सतर्क कर सकता हूं। इसे मोदी के नजरिये से देखें। वह जीत रहे हैं। उन्हें शिकायत क्यों होगी? या वह उन नियमित आलोचकों की परवाह क्यों करें। जनता तो आज्ञाकारी बच्चा बनकर खुश है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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People are happy to light a lamp, so why should Modi care?




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एक संकल्प है सोशल डिस्टेंसिंग

सोशल डिस्टेंसिंग एक स्थिति नहीं, संकल्प है। हमें संकल्प लेकर उन लोगों की मदद करनी चाहिए जो हमारे जीवन की रक्षा के लिए बाहर संघर्ष कर रहे हैं। हमें शायद कल्पना भी नहीं होगी कि जो लोग कोरोना से लड़ने में जूझ रहे हैं, उनके सामने क्या विपरीत परिस्थितियां होंगी।

एक लाख की आबादी पर 151 पुलिस वाले हों, एक लाख लोगों पर 10 डॉक्टर हों, ऐसे देश की व्यवस्था में जब इस तरह का संकट आ जाए तो ये लोग किस तरह से काम कर रहे होंगे, अकल्पनीय है। इसलिए हमें संकल्पित होना पड़ेगा। रामकथा में जब लक्ष्मण, मेघनाद को मारने निकले तो उन्होंने संकल्प लिया था- ‘जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौं रघुपति सेवक न कहावौं।।’ यदि आज मैं उसे बिना मारे आऊं तो रामजी का सेवक नहीं कहलाऊंगा। आज ये लोग बिल्कुल लक्ष्मण की तरह मोर्चे पर डटे हैं।

यदि हम भक्त हैं, धर्म को मानते हैं, मानवता में हमारा विश्वास है तो संकल्प लेना चाहिए कि हम घरों में रहकर खुद को सुरक्षित करेंगे। आज कई लोगों के मन में बहुत सवाल उठ रहे हैं, जिनका जवाब कोई दे नहीं सकता। यदि उन प्रश्नों का उत्तर जानना चाहें तो दो तरीके हैं- एक तो मीडिया से मिल रही जानकारियों के आधार पर जान लीजिए और दूसरा है अपने निजी अनुभव, जो आएगा ध्यान यानी मेडिटेशन से। ध्यान करेंगे तो कुछ बातों का जवाब खुद के भीतर से मिलेगा। वह जवाब सही भी होगा, आपको शांत भी करेगा और सबके लिए हितकारी होगा।



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A resolution is social distancing




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ट्रम्प ने कोरोना नहीं, चुनाव को ज्यादा अहम माना था

मोहम्मद अली (न्यूयॉर्क से वरिष्ठ पत्रकार भास्कर के लिए विशेष).अमेरिका में दुनिया के सबसे अधिक कोरोना वायरस संक्रमित मामले आ चुके हैं और वह मौतों की संख्या में इटली को भी पीछे छोड़ने की ओर बढ़ रहा है। आशंका जताई जा रही है कि अगर मौजूदा लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया गया तो भी मरने वालों की संख्या एक लाख से 2.40 लाख के बीच हो सकती है। चीन के 3329 की तुलना में रविवार तक अमेरिका में 9325 लोगों की मौत हो चुकी है और 3,27,871 लोग संक्रमित हैं। सबसे खराब स्थिति न्यूयाॅर्क की है। अस्पताल और मुर्दाघर क्षमता से अधिक भरे हैं। इमर्जेंसी के लीक हो रहे फोटो दिखाते हैं कि कोरोना के दबाव ने सबसे अच्छे मेडिकल सिस्टम को कैसे ध्वस्त कर दिया है। इस वायरस का साया तो 9/11 हमलों के समय फैली घबराहट व बरबादी से भी बदतर है। पार्कों, बड़े सभागारों, टेनिस स्टेडियमों व बड़े होटल के कमरों को अस्पतालों में बदला जा रहा है। लाशों के ढेर रखने के लिए नए मुर्दाघर बनाए जा रहे हैं।


जरूरी मेडिकल सामान की इतनी कमी हाे गई है कि प्रतिष्ठित एनवाय अस्पताल में नर्सों को सुरक्षा के लिए कचरे के बैग पहनने पड़ रहे हैं। पूरे देश में आवश्यक दवाओं की कमी है। कई बार तो चार-चार कोरोना मरीजों को सांस लेने के लिए एक ही वेंटिलेटर का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। नर्सों और डॉक्टर्स की भी इस महामारी से मौत होने लगी है। पूरे देश की हालत न्यूयॉर्क जैसी होने की आशंका है। खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 31 मार्च को 2,40,000 लोगों की मौत होने की आंशका व्यक्त कर चुके हैं। इससे लोग डर गए हैं, क्योंकि ट्रम्प लंबे समय तक इस वायरस को हल्के में लेते रहे हैं। इस पर लोगांे का गुस्सा भी जायज है, क्योंकि अमेरिका में जितनी अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, उससे कोरोना जैसे वायरस को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता था। लेकिन अमेरिका के सिस्टम के मुताबिक विदेश से आने वाली किसी भी महामारी पर कार्रवाई तब तक संभव नहीं है, जब तक कि राष्ट्रपति केंद्रीय फंडिंग को नहीं खोलते और यात्राओं पर रोक, बाहर से आने वाले यात्रियों की जांच जैसे उपायों की घोषणा नहीं करते। इस महामारी के फैलने के लिए ट्रम्प सरकार की सुस्ती को भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है। 20 जनवरी को कोरोना का पहला मामला आने के बाद 10 मार्च को इसके मरीज 1300 पर पहुंच जाने के बावजूद ट्रम्प यही कहते रहे कि यह अमेरिका के लिए बड़ा खतरा नहीं है।


ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव को देश की अच्छी आर्थिक स्थिति के मुद्दे पर लड़ रहे थे। संभव है कि उन्होंने इस वायरस पर इसलिए भी जल्द कदम नहीं उठाया, क्योंकि इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए खराब स्थिति बन सकती थी। चीन में अधिकांश मौतें जनवरी और फरवरी में हुई थीं। उस समय ट्रम्प के सलाहकार और मंत्री उन्हें इस वायरस के महामारी में बदलने के प्रति चेता रहे थे। लेकिन, ट्रम्प ने अपने स्वास्थ्य मंत्री से लेकर किसी की भी नहीं सुनी। ट्रम्प ने 2 फरवरी को चीन से आने वालों पर रोक लगा दी, लेकिन अमेरिकी नागरिकों, स्थायी निवास वाले लोगों और उनके करीबी रिश्तेदारों पर यह रोक नहीं थी। स्वास्थ्य मंत्री ने इनके जरिये वायरस के प्रवेश को लेकर भी चेताया था। एबीसी न्यूज की जांच में पता चला है कि जनवरी और फरवरी में 34 लाख लोग अमेरिका आए थे।


उस समय ट्रंप के जो सलाहकार और चिकित्सा विशेषज्ञ इस वायरस को महामारी के रूप में देख रहे थे, वे राष्ट्रपति द्वारा वायरस को कमतर आंकने से चिंतित थे। वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस बारे में विस्तार से लिखा कि किस तरह से ट्रम्प के सलाहकारों ने व्हाइट हाउस में अनेक मीटिंग कीं और ट्रम्प को वायरस से उत्पन्न हाेने वाले खतरे के प्रति गंभीरता को बताने की कोशिश की, लेकिन वह वायरस को नकारते रहे। फरवरी और मार्च मंे ट्रम्प ने कम से कम सात बार यह दावा किया कि संक्रमितों की संख्या घट रही है और वायरस पर काबू किया जा चुका है, जबकि स्थिति इसके उलट थी। 28 फरवरी काे कैरोलिना में एक रैली में उन्होंने कोरोना वायरस को विपक्षी डेमोक्रेटों की अफवाह तक करार दे दिया था। उनका यह वीडियो वायरल हो गया। अब हजारों की मौत के बाद ट्रम्प की टीम इसे डिलीट कराना चाहती है। अमेरिकी मीडिया अब उन रिपोर्टों से भरा हुआ है कि किस तरह से लोगों के मरने के बाद ट्रम्प ने रुख बदला और यह कहना शुरू किया कि वह हमेशा से ही सोच रहे थे कि कोरोना महामारी बनेगा। कोरोना वायरस के प्रति ट्रम्प की लापरवाही लाखाें अमेरिकियों को भारी पड़ सकती है। हाल के दशकों का कोरोना सबसे खतरनाक वायरस है। ट्रम्प की इसके प्रति लापरवाही एक सबक है। यह अत्यंत दुख की बात है कि लाखों अमेरिकियों को सिर्फ इसलिए जान गंवानी पड़ सकती है, क्योंकि उनके राष्ट्रपति ने अपने चुनाव को अधिक महत्व दिया।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Trump considered the election more important, not Corona




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तपस्वी से खड़े देवदार के वृक्ष

कुछ लोग अपने भवन सरकार को सौंप रहे हैं, ताकि वहां अस्पताल बनाए जा सकें। अस्पताल बनाने के लिए बहुत अधिक पूंजी का निवेश करना पड़ता है। स्थान और निवेश उपलब्ध होने पर भी भारत में डॉक्टर्स की कमी है। मेडिकल कॉलेज के नाम पर कुछ रचा जा रहा है, परंतु यह सब दिखावा है। गले में स्टेथोस्कोप डाले घूमने वाला हर व्यक्ति डॉक्टर नहीं होता। अधिकांश समस्याओं की जड़ पर प्रहार हम नहीं करते। जड़ों में विराजमान हैं संस्कृत ग्रंथों के गलत अनुवाद। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में आमूल परिवर्तन किया जाए। शरीर विज्ञान की प्राथमिक शिक्षा का समावेश भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। हमारा इलेक्ट्रिकल विज्ञान का छात्र बिजली का फ्यूज जोड़ना नहीं जानता।

महात्मा गांधी ने कहा था कि पाठ्यक्रम में जीवन की व्यावहारिक समस्याओं से जूझने की शिक्षा का समावेश किया जाना चाहिए। अन्यथा शिक्षण संस्थाएं मृत समान हो जाएंगी। विगत सदी के तीसरे दशक में बनी ‘वंदेमातरम स्कूल’ फिल्म के प्रारंभ में ही गांधीजी का पाठ्यक्रम संबंधित बयान शामिल किया गया था। राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में भी इन तथ्यों का समावेश किया गया था। वी. शांताराम की जितेंद्र अभिनीत फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ में नायक एक स्कूल में पढ़ाने के लिए नियुक्त किया जाता है। वह अपने छात्रों को नदी के किनारे बगीचे या पहाड़ों पर ले जाकर शिक्षा देता है। इस फिल्म का गीत है- नीला-नीला ये गगन, हरी-हरी वसुंधरा पर नीला-नीला ये गगन, जिस पर बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन, दिशाएं देखो रंगभरी, चमक रही उमंग भरी, ये किसने फूल-फूल पर किया शृंगार है, ये कौन चित्रकार है, तपस्वियों सी है अटल ये पर्वतों की चोटियां, ये सर्प सी घुमावदार, घेरदार घाटियां, ये वृक्ष देवदार के अपनी तो एक आंख है, उसकी हजार हैं...। यह गीत भरत व्यास ने लिखा, संगीत सतीश भाटिया का था।
एक दौर में जितेंद्र अपनी ‘जंपिंग जैक’ की छवि बदलना चाहते थे। गुलज़ार ने उनके लिए ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ से प्रेरित फिल्म ‘परिचय’ बनाई थी। कथासार यूं था कि एक धनवान पिता का पुत्र पिता की इच्छा का विरोध करते हुए संगीत सीखने जाता है। संगीत सीखते हुए उसे एक महिला से प्रेम हो जाता है। वह उससे विवाह करके अपने पिता के घर आता है तो पिता उसे घर से चले जाने को कहते हैं। संगीत साधना में रमे हुए व्यक्ति को तपेदिक हो जाता है और वह अपने पिता को पत्र लिखता है कि वे आकर अपने पांच पोते-पोतियों को आश्रय दें। बच्चे जानते हैं कि उनके पिता को दादा ने बहुत दु:ख दिए थे। अत: उनकी शिक्षा के लिए नियुक्त शिक्षक को वे तंग करते हैं। बारी-बारी से पांच शिक्षक भाग जाते हैं। नायक की नियुुक्ति होती है। वह समस्या को समझकर बच्चों को खेल-कूद के माध्यम से शिक्षा देता है और उनका विश्वास जीत लेता है। बच्चे सुुधर जाते हैं। शिक्षक बच्चों को सिखाता है कि कैसे उन्हें अपने दादा का सम्मान करना चाहिए। धीरे-धीरे सारे परिवारिक संबंध सुधर जाते हैं। फिल्म में ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ के गीतों की धुनों का भी भारतीयकरण किया गया है जैसे ‘डोरे मी’ को ‘सा रे गा मा’ में ढाला गया।

शिक्षा की पृष्ठभूमि पर करण जौहर की ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ में पुरुष पात्र नारी पात्रों से भी कम वस्त्र पहनते हैं और फिल्म में एक भी दृश्य क्लास रूम का नहीं है। इस फिल्म में प्रधान अध्यापक के पात्र को समलैंगिक बताया गया है। आई.एस.जौहर की लिखी ‘जागृति’ भी शिक्षा केंद्रित फिल्म थी, जिसमें महात्मा गांधी के अादर में एक गीत बनाया गया था।

राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ का पहला हिस्सा एक स्कूल परिसर का था। 26 वर्षीय सुंदर शिक्षिका से 16 वर्षीय छात्र प्रेम करने लगता है। राज कपूर ने तीन खंड वाली चार घंटे की फिल्म प्रदर्शित की थी। सिडनी पोएटर अभिनीत फिल्म में अश्वेत शिक्षक गोरों के स्कूल में पढ़ाता है। अश्वेत शिक्षक रात में गरीब छात्रों को अपने स्कूल की रसायन शाला में शिक्षा देता है। वह साधनहीन बच्चों के स्कूल में बिना वेतन लिए पढ़ाता है।
ऋतिक रोशन अभिनीत फिल्म ‘सुपर थर्टी’ में भी साधनहीन बच्चे पास हो जाते हैं। यह फिल्म बिहार के एक शिक्षक के जीवन की प्रेरणा से बनी थी। सारांश यह है कि साधनों के अभाव में भी इच्छा शक्ति के दम पर बहुत कुछ किया जा सकता है। अमेरिका में 1936 में फिल्म विधा पढ़ाने की पाठशालाएं खुल गई थीं। उसमें प्रवेश के समय ही पूछा जाता है कि छात्र फिल्म माध्यम का शिक्षक बनना चाहता है या फिल्मकार? दोनों के लिए अध्ययन की शैलियां जुदा थीं। इसी संस्था से पास हुए शिक्षकों को दुनिया के तमाम देशों में फिल्म विधा सिखाने का काम मिला। वर्तमान में यह अत्यंत दुखद है कि शिक्षक बनने की महत्वाकांक्षा नहीं है। अधिकांश विद्यार्थी अफसर या नेता बनना चाहते हैं। हमारे राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जन्मदिन 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज समर्पित शिक्षक डायनासोर की तरह विलुप्त प्रजाति हो चुके हैं।



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Cedar tree standing from ascetic




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इंसानों की असली दुनिया धीरे-धीरे उभर रही है!

जयशंकर प्रसाद की वर्ष 1936 की ‘कामायनी’ कविता एक हिंदी महाकाव्य है, जिसे हिंदी साहित्य में आधुनिक समय में लिखी गई सबसे महान साहित्यिक कृतियों में से एक है। इसमें मानवीय भावनाओं, विचारों और कार्यों को मिथकीय रूपकों के माध्यम से दर्शाया गया है और इसमें मनु, इडा और श्रद्धा जैसे किरदार हैं, जिनका उल्लेख वेदों में है। मेरे हिसाब से अगर एक वाक्य में कामायनी का अर्थ समझाया जाए तो ये मानव की जिंदगी के साथ लड़ाई और उस पर जीत की कहानी है। मुझे यह कविता तब याद आई, जब मैंने कोरोना वायरस के कठिन समय में हमारे आसपास अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में उभर रहे ‘असली इंसानी’ चेहरों के बारे में पढ़ा। जैसे-
खुद रोजगार चलाने वाला साधारण आदमी: आप एक ऐसे व्यक्ति से क्या उम्मीद कर सकते हैं, जो 58 साल का है, जिसने केवल पांचवीं तक पढ़ाई की है और जो पैसे कमाने के लिए मशीनों की मरम्मत करता रहा है? ऐसे में दो तरह के विचार आ सकते हैं। कोई सोच सकता है कि इस इंसान को बीमार न पड़ने दें वरना हमारी पहले से ही तनावपूर्ण व्यवस्थाओं पर और दबाव आ जाएगा। वहीं कुछ लोग सोच सकते हैं कि इस व्यक्ति ने अपनी कमाई का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा दान कर दिया होगा। लेकिन नहारू खान एक कदम आगे निकले। उन्होंने इस महामारी में अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल किया।

आप सोच रहे होंगे, कैसे? वायरस से तेजी से संक्रमण होते हुए देख नहारू ने केवल 48 घंटे के अंदर पांच फीट चौड़ी और सात फीट ऊंची सैनिटाइजर छिड़कने वाली मशीन बनाई, जो तीन सेकंड के अंदर प्रवेश करने वाले इंसान के पूरे शरीर को सैनिटाइज कर सकती है। उन्होंने इसे मध्य प्रदेश के मंदसौर में जिला अस्पताल में लगाने की अनुमति मांगी, क्योंकि वह वहीं के रहने वाले हैं। जिला स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. अधीर कुमार मिश्रा और उनकी टीम ने मशीन की जांच की और फिर इसे स्थापित करने की अनुमति दे दी। इस ऑटोमैटिक मशीन में छह स्प्रे नोजल्स हैं। एक व्यक्ति के प्रवेश करते ही मशीन सैनिटाइटर स्प्रे कर देती है और जैसे ही व्यक्ति बाहर निकल जाता है, तो अपने आप बंद हो जाती है। मशीन के साथ 100 लीटर का टैंक लगाया गया है। मशीन बनाने में नहारू खान के 1.5 लाख रुपए लग गए, लेकिन वे अस्पताल से बिल्कुल पैसे नहीं लेंगे। उन्हें हाल ही में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा लघु उद्योग इकाई श्रेणी के तहत पुरस्कार मिला है। साथ ही नहारू, हम में से अधिकांश लोगों की ही तरह, हर दिन लगभग 500 लोगों को भोजन के पैकेट बांट रहे हैं।
एक स्थायी नौकरी वाला व्यक्ति : एक महिला पुलिस सृष्टि श्रोतिया खुरई नामक एक छोटी सी जगह पर तैनात है, जो मध्य प्रदेश के सागर से 26 किलोमीटर दूर है। इस कठिन समय के दौरान सड़कों पर कई घंटे खुद काम करने के बाद, वे अपने घर में फेस मास्क बनाती हैं और मुफ्त में बांटती हैं। चूंकि वे ये जानती हैं कि फेस मास्क खरीदना गरीबों के लिए आर्थिक रूप से आसान नहीं है, इसलिए उन्होंने ऐसे लोगों के लिए खुद फेस मास्क बनाने और बांटने का फैसला लिया जो लोग इसे खरीद नहीं सकते।
एक उद्यमी: जब बच्चे घर पर होते हैं तो ब्रेड कभी-कभी सबसे आसान खाना होता है। तमिलनाडु के कोयम्बटूर में ‘नेल्लई मुथु विलास स्वीट्स एंड बेकरी’ ने अपनी दुकान के बाहर एक बोर्ड लगाया है, जिस पर लिखा है ‘जो भी ब्रेड खरीदना चाहता है, वह पास में रखे खुले बॉक्स में 30 रुपए रखकर ऐसा कर सकता है।’ आप बचे हुए पैसे खुद ले सकते हैं और ब्रेड ले सकते हैं। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि लोग इन फिजिकल डिस्टेंसिंग वाले दिनों में एक-दूसरे से दूर रहें।
एक छोटा बच्चा: पाकिस्तान के पंजाब-सिंध क्षेत्र के साहीवाल गांव में एक बच्चे को 20 रुपए में फेस मास्क बेचते देखा गया। देखा गया कि वह बच्चा उन लोगों को मुफ्त में मास्क दे रहा था जो इसे खरीद नहीं सकते। जब उससे पूछा गया कि वह ऐसा क्यों कर रहा है तो उसने कहा कि उसकी मां ने कहा था ‘चूंकि दुनिया बुरे वायरस से जूझ रही है, इसलिए हमें लोगों की मदद करने की जरूरत है।’
फंडा यह है कि असली ‘मानवीय’ दुनिया उभर रही है और कम से कम अब हम सभी जानते हैं कि हमारी भविष्य की दुनिया को बहुत सारे प्यार और देखभाल की जरूरत है।



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पाकिस्तान के पंजाब-सिंध क्षेत्र के साहीवाल गांव में एक बच्चे को 20 रुपए में फेस मास्क बेचते देखा गया। देखा गया कि वह बच्चा उन लोगों को मुफ्त में मास्क दे रहा था जो इसे खरीद नहीं सकते।




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मोहल्ले के लोग शक की निगाहों से देखने लगे, मकान मालिक ने कह दिया था- एयरपोर्ट जाना बंद कर दो या कमरा खाली करो

दीपक डिमरी इंडिगो एयरलाइंस में इंजीनियर हैं। सभी एयरलाइंस इन दिनों बंद पड़ी हैं, लेकिन उनके इंजीनियरिंग स्टाफ को इन दिनों भी काम पर जाना होता है। वह इसलिए कि दवाइयों जैसी महत्वपूर्ण चीजों की सप्लाई अब भी जारी है और इसके लिए कार्गो जहाज भी चल रहे हैं।काम के लिए एयरपोर्ट जाना दीपक जैसे तमाम लोगों के लिए कई मुश्किलें खड़ा कर रहा है। दीपक बताते हैं, ‘कोरोना के चलते जब तक लॉकडाउन की घोषणा नहीं हुई थी, तब से ही हमारे लिए मुश्किलें पैदा होने लगी थीं। मोहल्ले के लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगे थे और हमारे कई साथियों को तो उनके मकान-मालिकों ने कह दिया था कि या तो एयरपोर्ट जाना बंद कर दो या कमरा खाली कर दो। उन्हें डर था कि हम मोहल्ले में कोरोना संक्रमण फैला सकते हैं, क्योंकि हम लगातार एयरपोर्ट जा रहे हैं, वहां कई विदेशी लोगों के संपर्क में आतेहैं।’

दिल्ली के द्वारका इलाके में ऐसे कई लोग रहते हैं, जो अलग-अलग एयरलाइंस या एयरपोर्ट पर ग्राउंड स्टाफ की नौकरी करते हैं। इन दिनों ये सभी लोग इलाके के बाकी लोगों की आंखों में चुभने लगे हैं। दीपक बताते हैं, ‘मोहल्ले में राशन की जो दुकानें खुल रही हैं, उन्होंने भी हम लोगों को राशन देने से मना कर दिया है। वे हमें नजदीक भी नहीं आने दे रहे। एयर-होस्टेस और पायलट जैसे फ्लाइंग स्टाफ के लोगों के लिए तो और भी ज्यादा मुश्किलें हैं। उनके पहनावे के कारण ही आस-पड़ोस के सभी लोग जानते हैं कि ये एयरपोर्ट में काम करते हैं। लिहाजा उन लोगों पर तो मोहल्ला छोड़ देने का बहुत दबाव बनाया गया है।’

दिल्ली के कई इलाकों से यह खबरें भी लगातार आती रही हैं कि जो डॉक्टर कोरोना के मरीजों के इलाज में दिन-रात लगे हुए हैं, उन पर भी उनके मकान-मालिकों या सोसायटी वालों ने घर खाली करने का दबाव बनाया है। लेकिन जरूरी सेवाओं में तैनात तमाम लोगों को इन दिनों जिस तरह के दबाव झेलने पड़ रहे हैं, वह सिर्फ उनकी सोसाइटी तक ही सीमित नहीं हैं।

दीपक के रूममेट सुधीर विस्तारा एयरलाइंस में इंजीनियर हैं। बीतेएक मार्च की रात उनकी तबीयत खराब हुई तो दीपक अपने एक अन्य साथी के साथ उन्हें लेकर भगत चंद्र अस्पताल पहुंचे। यहां अस्पताल प्रशासन को जैसे ही मालूम हुआ कि ये लोग एयरपोर्ट में काम करते तो उन्होंने सुधीर को देखने से ही मना कर दिया। दीपक कहते हैं, ‘उन्होंने हमें कहीं और चले जाने को कहा। हमने एम्बुलेंस मांगी तो उन्होंने वो भी देने से इनकार कर दिया। किसी तरह फिर हम लोग सुधीर को लेकर दीन दयाल अस्पताल गए। यहां कोरोना की स्क्रीनिंग के लिए एक टीम मौजूद थी। उन्होंने सुधीर के लक्षण देखे और बता दिया कि उसे कोरोना वाले लक्षण नहीं हैं। हम दवाइयां लेकर रात को लौट आए।’

इसके अगले दिन भी जब सुधीर का बुखार कम नहीं हुआ तो उनके दोस्त उसे महाराजा अग्रसेन अस्पताल लेकर गए। यहां भी इन लोगों के साथ वही हुआ जो भगत चंद्र अस्पताल में हुआ था। एयरपोर्ट में नौकरी का पता लगते ही अस्पताल प्रशासन ने इन लोगों को देखने से ही मना कर दिया। काफी कहा-सुनी के बाद जब पुलिस आई, तब जाकर अस्पताल प्रशासन सुधीर को देखने को तैयार हुआ। जांच में मालूम हुआ कि सुधीर को टाइफाइड हुआ है। अब यहीं उनका इलाज चल रहा है और उनके दोस्त ही उनकी तीमारदारी कर रहे हैं। इसके लिए वे रात-रात भर सुधीर के साथ अस्पताल में रुकते हैं। लेकिन सुबह जब वे वापस अपने मोहल्ले लौटते हैं तो बालकनी से झांकती निगाहों में रत्ती भर भी वह सम्मान नहीं होता, जिसकाप्रदर्शन करने के लिए पिछले दिनों देशभर केलोगों ने ताली-थाली बजाई थी। बल्कि, अब ये निगाहें इन लोगोंको गुनाहगार समझकर घूर रही होती हैं।

दीपक कहते हैं, ‘मेरी बिल्डिंग में जो लोग ऊपर रहते हैं, उन्होंने सीढ़ियों पर ही रस्सियां बांध दी हैं। इस कारण हम लोग छत पर भी नहीं जा सकते। सोशल डिस्टेंसिंग की समझ हमें भी है। हम इसका सबसे ज्यादा ध्यान रख रहे हैं, क्योंकि हमें अब भी बाहर निकलना पड़ रहा है। लेकिन जो हमारे साथ हो रहा है, वो सोशल डिस्टेंसिंग नहीं, सोशल एलियनेशन है। दूरी हम खुद ही लोगों से बनाए हुए हैं, लेकिन लोग हमें समाज से ही काट देना चाहते हैं।’

दीपक और उनके साथियों के साथ हो रहा यह व्यवहार उन्हें मानसिक रूप से बेहद प्रताड़ना देने वाला साबित हो रहा है। ये लोग पहले ही इस संकट से जूझ रहे हैं कि कहीं इस लॉकडाउन के चलते उन्हें उनकी नौकरियों से हाथ न धोना पड़ जाए। एविएशन सेक्टर के लिए लॉकडाउन सबसे भारी साबित हो रहा है। केंद्र सरकार ने निर्देश तो दिए हैं कि लॉकडाउन के दौरान किसी की नौकरी न छीनी जाए, लेकिन इसके बावजूद भी एयरलाइंस में काम करने वाले लोग घबराए हुए हैं। उनके वेतन में कटौती की जा चुकी है और इन सभी लोगों को इस महीने अपने मासिक वेतन में 10 से लेकर 25 प्रतिशत तक का खामियाजा उठाना पड़ रहा है। दीपक कहते हैं, ‘अगर सरकार कोई पैकेज नहीं निकालती तो एयरलाइंस को मजबूरन कॉस्ट कटिंग करनी होगी और न जाने कितने लोगों की इसके चलते नौकरिया चली जाएंगी।’

(आपने खबर में जो भी नाम पढ़े हैं सभी बदले हुए हैं, ताकि एयरलाइन कंपनियां उनपर कार्रवाई न कर दें।)



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सरकार के आदेश के बाद भारतीय एयरलाइंस कंपनियों में किसी की नौकरी तो नहीं छीनीं गई है, लेकिन इनकी सैलरी में 10 से 25% तक की कटौती की जा रही है।




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क्या लॉकडाउन में क्रमिक लचीलापन कारगर होगा?

कोरोना के खिलाफ अभी तक दुनिया में कोई वैक्सीन नहीं है। कोई संक्रमित हो तो इलाज के लिए किसी मुकम्मल दवा पर एक राय नहीं है। कब तक यह वैश्विक महामारी रहेगी, इसका कोई अंदाज भी नहीं है। लॉकडाउन भी कोई समाधान नहीं, बल्कि रोग के प्रसार की रफ़्तार कम करने का जरिया है। जिसका प्रभाव उत्पादन, उसके वितरण और रोजगार पर पड़ता है।

सामुदायिक प्रसार के डर से देश के अधिकांश मुख्यमंत्री लॉकडाउन को आंशिक रूप से भी हटाने के खिलाफ हैं। लेकिन, केंद्र सरकार की समस्या यह है कि उत्पादन और सप्लाय चेन में ज्यादा समय तक ठहराव से कई मुश्किलें आ सकती हैं।

एक तरफ प्रधानमंत्री ने इस संकट में लंबी लड़ाई के लिए देशवासियों को तैयार रहने और दूसरी ओर उत्पादन और उसके निर्यात के जरिये इस संकट को सुअवसर में तब्दील करने की बात कही। उनकी बात में दम है। तमाम मुल्क इस समय पूरी तरह लॉकडाउन की हालत में हैं। इस रोग के प्रसार के आंकड़ों और औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों में हौसला अफजाई के दो तथ्य हैं।

पहला, जो राज्य औद्योगिक उत्पादन में अग्रणी हैं, उनके यहां इस रोग का संकट कम है और दूसरा, देश में 82 प्रतिशत उत्पादन कॉर्पोरेट या सरकारी क्षेत्र में है, जहां मजदूरों के बीच सोशल डिस्टेंसिंग लागू की जा सकती है। उदाहरण के लिए गुजरात कोरोना के मामलों में 11वें स्थान पर है, लेकिन औद्योगिक उत्पादन में पहले स्थान पर। ठीक उसके उलट दिल्ली, जो कोरोना मामलों में तीसरे स्थान पर है, वह औद्योगिक उत्पादन में 20वें पर है।

तेलंगाना और केरल कोरोना संख्या में चौथे और पांचवें स्थान पर हैं, लेकिन औद्योगिक उत्पादन में क्रमशः 13वें और 15वें स्थान पर हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र, जो सबसे ज्यादा इस बीमारी के मामले झेल रहा है (और उत्पादन में दूसरे स्थान पर है) वहां के औद्योगिक जिलों रायगढ़ और औरंगाबाद में कोरोना का संकट काफी कम है।

लिहाजा सरकार एक सम्यक और दूरदर्शी दृष्टि रखते हुए सभी सोशल डिस्टेंसिंग के नियम लागू करते हुए इन क्षेत्रों में क्रमिक रूप से उत्पादन शुरू करवा सकती है। जरूरत हो तो निर्यात से इन 21 दिनों की आर्थिक क्षति को भी पूरा करने की नीति बना सकती है। लॉकडाउन जारी रखने के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री की चेतावनी राज्य सरकारों की सीमित सोच प्रतिबिंबित करती है। कोरोना से ही नहीं, लोग आर्थिक विपन्नता में भूख से भी मर सकते हैं।



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Will gradual flexibility in lockdown work?




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टर्निंग पॉइंट की हनुमान जयंती

लॉकडाउन का काउंटडाउन शुरू हो गया। इंसान की जिंदगी में पहली बार ऐसी हनुमान जयंती आई होगी, जिसमें सब बदला-बदला नजर आएगा। हनुमान मंदिर भले ही सूने रहें, लेकिन हमारे मनमंदिर में उत्साह होना चाहिए। यह दौर अनेक लोगों के जीवन में टर्निंग पॉइंट बनकर जाएगा। इस कठिन समय में हनुमान जयंती आना संयोग नहीं सौभाग्य है। हनुमान के जीवन के चार टर्निंग पॉइंट अपने जीवन से जोड़ लीजिए। आंसू, अंगूठी, औषधि और आश्वासन।

पहली मुलाकात में श्रीराम ने हनुमानजी को हृदय से लगाकर अपने आंसुओं से भिगो दिया था। राम ने संदेश दिया, अब छोटे-बड़े का भेद मिटा देना चाहिए। राम ने सीताजी को देने के लिए अंगूठी दी थी। इस इक्कीस दिन की अवधि में हम जान गए कि अपनापन क्या होता है। सबसे बड़ी चुनौती थी औषधि कौन लाएगा? लक्ष्मण मूर्छा के प्रसंग में हनुमान लाए।

आज हनुमान जयंती पर संकल्प लें हम कोरोना की औषधि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और ‘स्वच्छता’ को अपनाएंगे। चौथा टर्निंग पॉइंट था आश्वासन, श्रीराम जब संसार से गए तो हनुमानजी से कह गए कि मैंने रूप रावण को मारा है, अरूप रावण जिंदा है, वो मेरे भक्तों को परेशान करेगा। मैं अपने भक्तों को तेरे भरोसे छोड़कर जा रहा हूं। और श्रीराम की ओर से हनुमान हमारे लिए एक आश्वासन बन गए कि चिंता मत करना, 14 अप्रैल के बाद जो भी होगा अच्छा होगा, मैं हूं ना।



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Hanuman Jayanti of Turning Point




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लोगों को शीघ्र ही काम पर वापस लाना हो प्राथमिकता

दिल्ली में मेरे घर के ठीक बाहर पिछले दिनों प्रवासी श्रमिक लगातार गुजरते रहे। वे लखनऊ, कानपुर के पास या उससे भी आगे स्थित अपने गांवों के लिए पैदल निकले हैं। वे नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा या वे कब अपने घर पहुंचेंगे। लगभग सभी कहते हैं कि वे समझते हैं कि सरकार ने एक बीमारी को रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन क्यों किया है? यदि सड़क पर उनकी भूख से मौत हो गई या वे बेरोजगार होकर घर पहुंचेंगे तो यह मायने नहीं रखता? इसका कतई यह मतलब नहीं कि भारत को पुनर्विचार नहीं करना चाहिए। भारत ने 130 करोड़ से अधिक लोगों को घर पर ही रखने के लिए दुनिया में सबसे कड़ा लॉकडाउन लागू किया। उनका तर्क यह था कि अगर यह महामारी नियंत्रण से बाहर हुई तो भारत का कमजोर स्वास्थ्य तंत्र इससे नहीं निपट सकेगा। इसके वास्तविक आर्थिक प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन इन हजारों की संख्या में पैदल जा रहे प्रवासी श्रमिकों को देखकर इस लॉकडाउन के गैरइरादतन दुष्परिणाम स्पष्ट हो गए हैं।

अनेक देश पहले से ही बहस कर रहे हैं कि लॉकडाउन में कब ढील देनी है। सबसे अधिक प्रभावित अमेरिका में भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके बिजनेस समर्थक सहयोगी जल्द से जल्द काम शुरू करने पर जोर दे रहे हैं। भारत में बिजनेस समर्थक उच्च वर्ग चाहता है कि जब तक बीमारी पर पूर्ण नियंत्रण नहीं हो जाता, कड़े प्रावधान जारी रहने चाहिए। जबकि, वामपंथी बुद्धिजीवी इसे ‘सामाजिक-आर्थिक शुद्धीकरण’ कह रहे हैं। उनके मुताबिक इससे सिर्फ वे ही बचेंगे, जो खुद को अलग-थलग रखने में सक्षम होंगे। बाकी लोगों के महामारी से नहीं तो भूख से मरने का खतरा है।

भारत को यह समझने की जरूरत है कि वह लंबे समय तक विकसित देशों की तरह इस स्थिति का सामना नहीं कर सकता, क्योंकि ये पूरी तरह कल्याणकारी देश हैं। अमेरिका और यूरोप में खाली हुए श्रमिक तत्काल ही बेरोजगारी लाभ के लिए आवेदन कर सकते हैं और कुछ यूरोपीय सरकारें अब कंपनियों को फंडिंग कर रही हैं, ताकि महामारी के दौरान वे कर्मचारियों को अपने पे-रोल पर रखें। भारत में मनरेगा से लेकर जनधन योजना तक अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम हैं। लेकिन, अनेक प्रवासी व गरीब शहरी श्रमिकों को इन्हें पाना आज भी कठिन है। वैश्विक महामारी में एक जैसा उपाय सब जगह काम करे ऐसा नहीं होता। कम आय वाले देशों में विकसित देशांे की तुलना में एक अधिक नाजुक सामाजिक और आर्थिक तानाबाना होता है।

चीन के तानाशाही वाले शासन, जिसने हुबेई में छह करोड़ लोगों को प्रभावी तरीके से सील कर दिया था, उसे भी देशभर में लॉकडाउन लागू करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी। अब वह तेजी से इन प्रतिबंधों को हटा रहा है और इन लौट रहे श्रमिकों से संक्रमण के दूसरे दौर के जोखिम का उसने आकलन कर लिया है। अमेरिका में, स्टैनफोर्ड, येल और अन्य विश्वविद्यालयों के मेडिकल विशेषज्ञ बुजुर्गों और अन्य असुरक्षित लोगों के लिए लक्षित उपायों के पक्ष में शहर व राज्यव्यापी लॉकडाउन को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। इन विशेषज्ञाें ने कहा है कि बेरोजगारी और गरीबी से भी मृत्युदर बढ़ सकती है। यहीं नहीं, लॉकडाउन से होने वाला आर्थिक अवसाद वायरस से भी घातक हो सकता है। यह बात भारत जैसे देशों के लिए दोहरे असर वाली है, जहां पर सरकार के पास युवा श्रमिकों की बड़ी संख्या को मदद देने के तरीकों की कमी है। भारत ने जिन आर्थिक उपायों की घोषणा की है वे विकसित देशों की तुलना में रत्तीभर हैं, लेकिन ब्राजील व इंडोनेशिया के बराबर हैं।

भारतीय नीति निर्धारकों ने कुछ अर्थशास्त्रियों और बिजनेस समुदाय के कुछ सदस्यों की शटडाउन में जरूरत के मुताबिक नोट छापकर अर्थव्यवस्था जारी रखने की सलाह का विरोध करके बुद्धिमत्ता दिखाई। यह लापरवाही वाली सलाह इस मूल गलतफहमी को दर्शाती है कि किस तरह से वैश्विक बाजार ने अपव्यय के लिए उभरते देशों को दंडित किया। इसे अर्जेंटीना और वेनेजुएला से पूछें। दुनियाभर के निवेशक सुरक्षा के लिए अमेरिकी डॉलर को खरीदने के लिए भाग रहे हैं, जबकि वे रुपए समेत दुनिया की उभरती करेंसियांे से भाग रहे हैं। अगर भारत ऐसी नीति अपनाता है जो उसके पहले से ही बड़े बजट घाटे व लंबी अवधि की ऊंची ब्याज दरों को और बढ़ाता है और अगर यह रुपए में विश्वास को और कम करता है तो इससे एक गंभीर मुद्रा व वित्तीय संकट खड़ा हो सकता है। संकट पूर्व घाटा लक्ष्यों को छोड़ना ठीक है, लेकिन मूल अर्थशास्त्र को नहीं।
उम्मीद है कि गर्मी बढ़ने पर वायरस का प्रकोप कुछ कम हो सकता है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो सरकार के लिए हालात बदलना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन अभी सरकार को 15 अप्रैल के बाद लॉकडाउन में ढील देने के बारे में सोचना चाहिए। इसकी शुरुआत कम प्रभावित क्षेत्रों और युवा, स्वस्थ व कम संवेदनशील लोगांे से हो सकती है। विकासशील देशों में बिना व्यापक सामाजिक सुरक्षा के अब फोकस लोगों को जल्द से जल्द काम पर वापस लाने पर होना चाहिए।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Getting people back to work soon is a priority




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कोविड-19 ने किया दुनिया की चीन पर निर्भरता का खुलासा

कोरोना वायरस ने न केवल आज का परिदृश्य बदल दिया है, बल्कि यह हमारे भविष्य की दिशा भी बदल देगा। हम जिस तरह से रहने के आदी थे, उसमें बहुत बड़ा परिवर्तन होने जा रहा है और शायद यह हमेशा के लिए हो। सोमवार तक इस वायरस से दुनियाभर में 73,604 लोगों मौत हो चुकी है और 13,23,000 लोग संक्रमित हैं। सामाजिक और आर्थिक रूप से कोविड-19 बड़ा ही समानतावादी है। यद्यपि, अमीर लोग खुद को विलासितापूर्ण आराम के साथ आइसोलेट कर सकते हैं, जबकि कम धन वालों को रोजाना ही आइसोलेशन व गरीबी से जूझना पड़ता है। भावनात्मक और मानसिक तौर पर इस वायरस ने दिखा दिया है कि कोई भी सुरक्षित नहीं है और इसमें हम सब साथ हैं। समाज में भी भारी बदलाव आया है और वह धन से अधिक जिंदगी को महत्व देने लगा है, वास्तव में वह देखभाल और संवेदनाओं को महत्व देने लगा है। फायनेंस, मार्केटिंग और विज्ञापन जैसे कम अनिवार्य व्यवसायों के प्रोफेशनल की जगह अब लोगों को डाॅक्टर, नर्स, डिलीवरी ड्राइवर व सुपर मार्केट के कर्मचारी असली हीरो नजर आने लगे हैं। दुनियाभर में लोगों की जान बचाने वाले हेल्थकेयर कर्मचारियों के सम्मान में तालियां बजाना व उनका उत्साह बढ़ाना दिखाता है कि धन के आधिपत्य को चुनौती और जीवन के मूल्य को हर चीज से अधिक महत्व मिल रहा है।

इस महामारी के चारों आेर एक फैक्टर और उभरा है और वह है दुनिया की चीन पर निर्भरता। कभी खत्म न होने वाले लाभ की चाहत ने दुनिया की अर्थव्यव्स्था को सस्ती कीमत पर सामान लेने के लिए चीन पर अाश्रित कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हम अपने संसाधनोंको किनारे करके पूरी तरह से उनकी फैक्टरियों, श्रमिकों और अर्थव्यवस्था पर निर्भर हो गए। वुहान में कोविड-19 के प्रकोप के बाद बाकी चीन में प्रोडक्शन लाइन रुक गई और दुनिया के बाजार संकट में आ गए। इसके 29 दिन से भी कम समय में डाउ जोंस की औसत 30 प्रमुख कंपनियों के शेयर पहले के स्तर से 20 फीसदी गिर गए, यह वॉल स्ट्रीट में 1929 के क्रैश से भी तेज गिरावट दिखाने लगा। पाउंड 35 साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। यह रोचक तो था, लेकिन चौंकाने वाला नहीं था कि फार्मास्यूटिकल, तेल, डिलीवरी कंपनियां और सुपर मार्केट में धीमी किंतु निरंतर बढ़ोतरी हो रही थी।

स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में लॉरेंस सायज ने 2011 में यह बात कही थी कि 20 साल के भीतर चीन एक सैन्य ताकत के रूप में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। हम 2020 में हैं और अब यह होना हकीकत लगता है। कोविड-19 ने ताकत के दुर्ग की दरारों को उभार दिया है। विशेषकर, अमेरिका एक विभाजित देश बन गया है और इसलिए कमजोर भी। अमेरिका में बेची जाने वाली 97 फीसदी एंटीबायोटिक चीन उपलब्ध कराता है। हेल्थ केयर ही ताकत है, यह चीन जानता है। चीन ने दुष्प्रचार मशीन के बेहतर इस्तेमाल का भी प्रदर्शन किया है। जब दुनिया ने उसे कोरोना वायरस के लिए जिम्मेदार ठहराया तो चीन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मदद और सहयोग से जवाब दिया। जब सैन्य शक्ति, हथियार और धन आपको नहीं बचा सकता तो एकता ही काम आती है। चीन ने बेल्जियम को तीन लाख मास्क मुफ्त भेजे और उस पर अंग्रेजी, फ्लेमिश और चीनी भाषा में लिखा कि ‘एकता से ताकत बनती है’। यह चीन ही था, जिसने पूरे यूरोप के नजर फेरने के बाद इटली को मदद भेजी थी। चीन अब खुद को दुनिया से जोड़ने की कोशिश कर रहा है और उसे फायदा भी हो रहा है।

मानव की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रकृति हमेशा जीतती ही है। कोरोना वायरस ने यह दिखा दिया है। चीन में कोविड-19 के प्रकोप के दौरान फैक्टरियां बंद होने से कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में 25 फीसदी की कमी आई थी। उत्तरी इटली में ट्रैफिक कम होने से कार्बन डाईआक्साइड का स्तर 5-10 फीसदी गिर गया। दुनियाभर में हवाई, सड़क, रेल व जल परिवहन के बंद होने से इसमें कमी आ रही है। वन्य जीवों ने शहरों, पानी व जंगलों पर अपना दावा करना शुरू कर दिया है। उड़ीसा में करीब साढ़े चार लाख समुद्री कछुओं(ओलिव रिड्ले) ने तट पर अंडे दे दिए हैं। वेनिस की नहरें साफ हो गई हैं और मछलियां दिखने लगी हैं। दुनियाभर में लोग शहरों व फार्मों में फल व सब्जियां लगा रहे हैं, यह कोविड-19 से बनी चेतना का ही परिणाम है। एक अमेरिकी कहावत है कि ‘जब आखिरी पेड़ कटा, आखिरी मछली पकड़ी और आखिरी नदी जहरीली हुई, केवल तब हमें अहसास हुआ कि हम धन को खा नहीं सकते’ और यह जितना सामयिक आज है, उतना पहले कभी नहीं था। इस वायरस का प्रकोप खत्म होने के बाद जब हम दोबारा दौड़ने लगेंगे, तो शायद हम सभी के पास कुछ मूल्यवान सबक जरूर होंगे। यह सबक होंगे कि हमें वास्तव में मूल्यवान होने और यह सीखने की जरूरत है कि अलग तरह से कैसे जीया जा सकता है।(यह लेखिक के अपने विचार हैं।)



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Kovid-19 revealed the world's dependence on China




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दूरदर्शन पर "बुनियाद'

आजकल दूरदर्शन अपने पुराने कार्यक्रमों का पुन: प्रसारण कर रहा है। मनोहर श्याम जोशी की लिखी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित ‘बुनियाद’ देश के विभाजन के समय एक परिवार की कथा प्रस्तुत करता है। आलोकनाथ एवं अनिता कंवर ने केंद्रीय भूमिकाएं अभिनीत की हैं। कार्यक्रम में प्रस्तुत कालखंड विभाजन पूर्व से प्रारंभ होकर स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद के पहले दशक तक जाता है। रमेश सिप्पी ने इसके 40 एपिसोड निर्देशित किए थे। उनके सहायकों ने शेष एपिसोड्स निर्देशित किए थे। व्यापारी परिवार के मुखिया हवेलीराम हैं। उनकी संपत्ति में निरंतर इजाफा हो रहा है। मुखिया के दो पुत्र और एक पुत्री है। पुत्री का नाम वीरांवाली है और पुत्र हवेलीराम, रलिया राम हैं। भाई आत्मानंद स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेता है। उसकी भांजी लाजवंती का विवाह उसके लालची चाचा उम्रदराज व्यक्ति से करा देते हैं। दूल्हा इतनी बड़ी ‌उम्र का है कि विवाह की रात ही लाजवंती विधवा हो जाती है।

विधवाओं के साथ हमारा व्यवहार कभी अच्छा नहीं रहा। दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में इसका मार्मिक चित्रण है। वीरांवाली लाजवंती की सहेली है, आत्मानंद के अनुयायी हवेलीराम लाजवंती को पढ़ाने जाते हैं। हवेलीराम के परिवार को इस पर सख्त ऐतराज है। उसकी मां उसे समझाती है कि लाजवंती के सम्मान के लिए उसे उससे दूर रहना चाहिए, अन्यथा अफवाहें फैलेंगी। ज्ञातव्य है कि दूरदर्शन पर मनोहर श्याम जोशी का लिखा ‘हमलोग’ दिखाया गया था। इस सीरियल में निम्न, मध्यम वर्ग के पात्रों की कठिनाइयों को प्रस्तुत किया गया था। बड़ी पुत्री को बड़की कहा जाता है और उसके विवाह के प्रसंग को प्रसारित किए जाने वाले दिन अवाम अपनी दुकानें बंद करके घर लौट आए थे। दूरदर्शन ने मनोहर श्याम जोशी को ‘सोप ओपेरा’ विधा के अध्ययन के लिए ब्राजील भेजा। घर की कामकाजी स्त्रियों के मनोरंजन के लिए यह दोपहर में प्रसारित किया जाता था। संभवत: साबुन बनाने वाली कंपनी प्रायोजक थी। सोप ओपेरा रेडियो पर प्रसारित किए जाते थे। ब्राजील में इसे ‘टेलीनावेला’ कहा गया। इस विधा का प्रारंभ 1931 में हुआ था।

मनोहर श्याम जोशी ने अपनी विदेश यात्रा में इस विधा का अध्ययन किया। उन्हें यह लगा कि विधा मुर्गी के दड़बे की तरह है और पात्र चूजों की तरह बाहर आते हैं। मुर्गी को आसानी से पकड़ा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि किशोर कुमार की फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ के एक दृश्य में नायिका मधुबाला किशोर कुमार को मुर्गी पकड़ने के लिए कहती है। यह अत्यंत मनोरंजक दृश्य रहा। रलिया राम और हवेलीराम के पिता का नाम लाहौरी राम है। सुधीर पांडे ने इस पात्र को अभिनीत किया था।
उन्होंने ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ में परंपरावादी और जिद्दी ब्राह्मण की भूमिका अभिनीत की थी। मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ अत्यंत लोकप्रिय हुआ। उनके आत्म कथात्मक उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में उन्होंने अपने तीन स्वरूप प्रस्तुत किए। मनोहर चंचल है, जोशीजी संस्कृत के विद्वान हैं और श्याम प्रेमालू व्यक्ति है। उपन्यास विधा में यह अभिनव प्रयास माना गया। दरअसल हर आदमी में दस आदमी मौजूद रहते हैं। इस उपन्यास की नायिका को ‘पहुंचेली’ कहकर संबोधित किया गया है। मनोहर श्याम जोशी को शास्त्रीय संगीत का ज्ञान था। खाकसार का उनके साथ परिचय था। ‘बुनियाद’ बनते समय उन्होंने रमेश सिप्पी से आग्रह किया कि खाकसार से संपर्क करा दें। रमेश सिप्पी ने रणधीर कपूर के माध्यम से मुझसे संपर्क किया। खाकसार मनोहर श्याम जोशी को राज कपूर के घर ले गया। मनोहर श्याम जोशी के संगीत ज्ञान से राज कपूर प्रभावित हुए और उनसे पटकथा लिखने का अनुरोध भी किया। ‘मैं कौन हूं’ नामक इस प्रस्तावित फिल्म का कथासार यह था कि मुंबई के ठाणे स्थित पागलखाने में एक महिला हमेशा यही बात कहती है कि ‘कत्ल उसने नहीं किया’।

मनोहर श्याम जोशी को बंगाल के बाउल गीतों की जानकारी थी। कुछ कारणों से पटकथा नहीं लिखी गई। ‘बुनियाद’ में सोनी राजदान ने अभिनय किया था। महेश भट्‌ट और सोनी की पुत्री आलिया आज लोकप्रिय सितारा है और रणबीर कपूर से उसका विवाह हो सकता है। व्यापारी लाहौरी राम की हवेली ‘कूचा ए राधाकिशन’ में स्थित है और आत्मानंद का घर ‘बिछौलीवाली गली’ में है। इस घर में एक तहखाना है। देश के विभाजन के समय हवेलीराम तलघर में छिप गए थे। दंगे-फसाद के समय घर में उनकी घड़ी और चश्मा मिलता है। उन्हें मृत मान लिया जाता है, परंतु कथा के अंत समय वे दिल्ली के शरणार्थी कैंप में मिलते हैं।

बहरहाल, पुन: प्रसारण के दौर में कुंदन शाह और अजीज मिर्जा का ‘नुक्कड़’, सतीश शाह एवं रत्ना पाठक अभिनीत ‘सारभाई वर्सेस साराभाई’ और शरद जोशी का लिखा ‘यह जो है जिंदगी’ भी प्रदर्शित किया जाना चाहिए।



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‘बुनियाद’ में अनिता कंवर और आलोकनाथ




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क्या आप ‘नए सामान्य’ में ‘असाधारण’ हैं?

आपको यह बताने के लिए कि लॉकडाउन के बाद हमारी जिंदगी पहले जैसी सामान्य नहीं रहेगी, इसके लिए बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े शोधकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है। ये ‘न्यू नॉर्मल’ यानी ‘नया सामान्य’ ही हमारा सामान्य जीवन होने वाला है। कुछ ऐसे ही संकेत सोमवार को प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने मंत्रियों को दिए और उन्हें ‘न्यू नॉर्मल’ की तैयारी करने की सलाह दी। लेकिन दुर्भाग्य से हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां तयमापदंडों से समझौता करना और ईमानदारी के बजाय आसान रास्ता निकालना जायज माना जाता है। जहां सभी वही करते हैं, जो दूसरे कर रहे हैं, वहीं जाते हैं जहां बाकी लोग जा रहे हैं और वैसा ही सोचते हैं, जैसा बाकी सभी सोच रहे हैं। ये बहुत आम है। शिकायत करने वाले और समझौता करने वाले चारों ओर बड़ी संख्या में हैं। लॉकडाउन के दौरान गंवाए हुए पैसे वापस कमाने के लिए लोग कई शॉर्टकट अपनाएंगे। इसके लिए वे या तो खराब माल की सप्लाई करेंगे या अपनी सेवाओं की कीमतें दोगुनी कर देंगे। भगवान ने हममें से कम से कम कुछ लोगों को सबके जैसा साधारण नहीं बनाया है।

भगवान वास्तव में ऐसे असाधारण लोगों की तलाश में हैं, जिनके पास असंभव लगने वाली चीजों को करने के लिए असाधारण आस्था और विश्वास है। जिन लोगों की असाधारण प्रतिबद्धता होती है, वे कठिन समय में भी सही काम करते हैं। जब लॉकडाउन के दौरान कई दिनों से कारोबार बंद हैं और मुनाफा नहीं हो रहा है, ऐसे में भगवान उन लोगों की तलाश में हैं, जिनके पास थोड़ा और धैर्य है।

ये ‘न्यू नॉर्मल’ उन असाधारण लोगों की अपनी असाधारण ईमानदारी के साथ उभरने और चमकने में मदद करेगा, जिन्होंने जल्दी पैसा कमाने के लालच के बजाय वह काम किया जो उनके मुताबिक दुनिया में सभी इंसानों के लिए बेहतर है। जैसे-
1. एक 24 वर्षीय दर्जी नंदिनी मास्क बना रही है। इसे मास्क सिलने और बांटने की कोई साधारण कहानी न समझें। यह उससे कहीं आगे है। वह तमिलनाडु केतिरुवल्लुवर जिले के एलापुरम गांव में रहती है, जहां हाल ही में रिहा किए गए बंधुआ मजदूरों के 500 परिवार रहते हैं। उनके पति अर्जुनन खुद भी बंधुआ मजदूर थे, जिन्हें बचाया गया था। इस दंपति ने पहल की कि वह सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये और कुछ राजनेताओं द्वारा दान की गई उन धोतियों और साड़ियों से गरीबों के लिए मास्क बनाएंगे, जिनका इस्तेमाल नहीं किया गया है। नंदिनी की तीन साल की बेटी है, जिसके लिए वह एक ड्रेस सिल सकती थी। लेकिन उसने इन नए कपड़ों का इस्तेमाल अपनी बेटी के लिए करने के बजाय दूसरों के लिए किया है। यह बात उसे असाधारण बनाती है।

2. कर्नाटक के कोलार में हरोहल्ली गार्डन्स में दो भाई, 42 वर्षीय ताज़ूमल पाशा और 39 वर्षीय मुजामुल पाशा रहते हैं। लॉकडाउन के दौरान उनके पड़ोसमें आए प्रवासी मजदूरों और दैनिक मजदूरों के परिवारों की दुर्दशा देखकर उन्होंने अपना 1200 वर्ग फीट का प्लॉट 20 लाख रुपए में बेच दिया और इस पैसे से संकट के समय में इन मजदूरों के लिए खाने के सामान का बंदोबस्त किया। इन भाइयों ने अपने जैसी सोच वाले 20 ऐसे लोगों का समूह बनाया, जिनकी समाज सेवा में रुचि थी। इस समूह से चर्चा करने के बाद इन भाइयों ने तय किया कि मदद करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन लोगों को किराने का सामान मुहैया कराया जाए, जिनके पास पैसे नहीं हैं।
3. उनकी दुकान एक बड़े सरकारी अस्पताल के ठीक सामने है, इसलिए उन्हें कोरोना वायरस संक्रमण का खतरा है। लेकिन इससे 50 वर्षीय अजय अग्रवाल डरे नहीं। वेदिन में 12 घंटे, आधे कर्मचारियों के साथ काम करते हैं। पहले उनके पास 13 कर्मचारी थे। अब अजय न केवल समय पर दवा का स्टॉक पाने के लिए सप्लायर से बात करते हैं, बल्कि कई बार वे खुद डिलीवरी बॉय का काम करते हैं, खासतौर पर उन नियमित ग्राहकों के लिए जिन्हें तय समय पर हाइपरटेंशन, मधुमेह, गुर्दे और दिल की बीमारियों की दवाओं की जरूरत होती है। वे उन रोगियों की आंखों में जो संतुष्टि देखते हैं, उससे उनकी यह सोच मजबूत होती है कि ‘कोई भी बुजुर्ग बिना दवा के न रह जाए’।
फंडा यह है कि जब आप समझौता न करने और जैसा सभी कर रहे हैं, वैसा न करने का फैसला लेते हैं, जब आप असाधारण बनने का फैसला लेते हैं, तो आपको असाधारण मदद, असाधारण शक्ति, असाधारण दोस्ती और अपनी उन्नति में असाधारण वृद्धि दिखेगी, क्योंकि भगवान केवल असाधारण को ही फल देते हैं।



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Are you 'extraordinary' in the 'new normal'?




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वक्त रहते पता चलता तो संक्रमण फैलने में 95% की कमी हो सकती थी; वुहान में लॉकडाउन देर से लगा, तब तक 50 लाख लोग वहां से निकल गए

कोरोनावायरस को लेकर दुनियाभर में एक नई बहस चल रही है। और वो बहस है, इस वायरस को फैलाने का जिम्मेदार कौन है? 100 में से 99 लोग इसके लिए चीन कोजिम्मेदार बता रहे हैं। उसका कारण भी है। लोगों का दावा है कि एक तरफ चीन में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्याघट रही है, तो दूसरी तरफचीन से बाहर इसका संक्रमण बढ़ता जा रहा है। चीन के वुहान शहर से ही कोरोनावायरस से संक्रमण का पहला केस आया था। लेकिन, अब वुहान शहर दोबारा पटरी पर लौट रहा है। वहां कारखाने खुल रहे हैं। लोग काम पर जा रहे हैं। जबकि, दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी अभी भी घर में कैद रहने को मजबूर है।

हाल ही में इजरायल की कंपनी लाइट ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था- कोरोना के कहर के बाद चीन और चीनियों के प्रति ट्विटर पर हेट स्पीट 900% तक बढ़ गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, ट्विटर पर चाइनीजवायरस, कम्युनिस्टवायरस और कुंगफ्लू जैसे हैशटैग का इस्तेमाल हो रहा है। भास्कर ने कई मीडिया रिपोर्ट्स, रिसर्च और एक्सपर्ट के आधार पर ऐसे कुछ कारण निकाले हैं, जो कोरोना संक्रमण के पीछे चीन का हाथ होने का इशारा करते हैं।

1) कोरोना के बारे में बताने में देरी की
चीन की न्यूज वेबसाइट साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने सरकारी दस्तावेजों के हवाले से खुलासा किया था कि हुबेई प्रांत में पिछले साल 17 नवंबर को ही कोरोना का पहला मरीज ट्रेस कर लिया गया था। दिसंबर 2019 तक ही चीन के अधिकारियों ने कोरोनावायरस के 266 मरीजों की पहचान कर ली थी। हालांकि, मेडिकल जर्नल द लैंसेट की रिपोर्ट के मुताबिक, वुहान के एक झिंयिंतान अस्पताल में कोरोनावायरस का पहला कन्फर्म केस 1 दिसंबर को रिपोर्ट किया गया था। इतना ही नहीं, कोरोनावायरस के बारे में सबसे पहले बताने वाले चीनी डॉक्टर ली वेनलियांग को भी चीन की सरकार ने नजरअंदाज किया और उनपर अफवाहें फैलाने का आरोप भी लगाया। बाद में ली की मौत भी कोरोना की वजह से हो गई। चीन ने जनवरी में कोरोनावायरस के बारे में दुनिया को बताया।

इसका नतीजा क्या हुआ : ब्रिटेन की साउथैम्पटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर चीन 3 हफ्ते पहले तक कोरोना के बारे में बता देता, तो इससे संक्रमण के फैलने में 95% तक की कमी आ सकती थी।

2) महीनेभर तक नहीं माना- कोरोना इंसान से इंसान में फैलता है
अमेरिकी वेबसाइट नेशनल रिव्यू के मुताबिक, वुहान के दो अस्पतालों के डॉक्टरों में वायरल निमोनिया के लक्षण मिले थे, जिसके बाद 25 दिसंबर 2019 को वहां के डॉक्टरों ने खुद को क्वारैंटाइन कर लिया। लेकिन चीन ने इस वायरस के इंसान से इंसान में फैलने की बात को नकार दिया। 15 जनवरी को जापान में कोरोना का पहला मरीज मिला। वहां के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि मरीज कभी वुहान के सीफूड मार्केट में नहीं गया, लेकिन हो सकता है कि वह किसी कोरोना संक्रमित मरीज के संपर्क में आया हो। इसके बाद भी चीन ने ह्यूमन-टू-ह्यूमन ट्रांसमिशन की बात नहीं मानी। आखिरकार 20 जनवरी को चीन ने माना कि कोरोनावायरस इंसान से इंसान में फैल रही है।

इसका नतीजा क्या हुआ : ह्यूमन-टू-ह्यूमन ट्रांसमिशन की बात को नकारने से दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय उड़ानें चालू रहीं। दुनियाभर में लोग एक देश से दूसरे देश आते-जाते रहे। इससे बाकी देशों में भी कोरोनावायरस फैल गया।

3) चीन ने 7 हफ्ते बाद वुहान को लॉकडाउन किया
दिसंबर 2019 में ही चीन में कोरोनावायरस फैलाने लगा था। न्यूयॉर्क टाइम्स में अमेरिकी पत्रकार निकोलस डी. क्रिस्टॉफ ने लिखा था- 'चीन ने वायरस को रोकने की बजाय उन लोगों के खिलाफ एक्शन लिया जो इस वायरस के बारे में चेता रहे थे।' उन्होंने लिखा कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार हमेशा ऐसा ही दिखाती रही कि इस वायरस से डरने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं, वायरस का पहला केस आने के करीब 7 हफ्ते बाद यानी 23 जनवरी को वुहान को लॉकडाउन किया गया।

इसका नतीजा क्या हुआ : लॉकडाउन होने के चार दिन बाद 27 जनवरी को वुहान के मेयर झोऊ शियानवेंग ने बताया था कि लॉकडाउन लगने से पहले ही करीब 50 लाख लोग वुहान छोड़कर चले गए। ये 50 लाख लोग कहां गए, अब तक नहीं पता।

4) कोरोना के बाद भी चीन ने कोई सख्त एक्शन नहीं लिया
अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेन्शन के डॉ. एंथनी फौसी ने नेशनल रिव्यू को बताया था कि कोरोना की वजह से इटली की इतनी बुरी हालत इस वजह से हुई, क्योंकि इटली में सबसे ज्यादा चीनी पर्यटक आते हैं। उनके अलावा यहां 3 लाख से ज्यादा चीनी लोग काम करते हैं। डॉ. फौसी कहते हैं कि इटली से चीनी लोग नया साल मनाने के लिए चीन आए और फिर वापस इटली लौट गए। चीन में नया साल 25 जनवरी को मनाया गया था। यानी कोरोनावायरस फैलने के बाद भी चीन ने अपने लोगों को वापस इटली जाने से नहीं रोका।

इसका नतीजा क्या हुआ: इटली में चीन से भी ज्यादा कोरोना के मामले आए। 5 अप्रैल तकइटली में कोरोना संक्रमितों की संख्या 1.28लाख के पार पहुंच गई। यहां साढ़े 15 हजार से ज्यादा मौतें भी हुई हैं, जो कोरोना से किसी भी देश में होने वाली सबसे ज्यादा मौतें हैं।



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Had it been known in time, there could have been a 95% reduction in infection; Lockdown delayed in Wuhan, by then 5 million people left




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देश के सबसे ज्यादा लॉकडाउन देखने वाले कश्मीर की आपबीती- बुलेटिन पूरा भी नहीं होता था कि अब्बा हाथ में झोला लेकर निकल जाते थे

मुझे अपना बचपन याद आता है जब दिसंबर में रेडियो पर खबर सुनकर हमारी सुबह होती थीं। अनाउंसर खराब मौसम की खबर सुना रहा होता था और यह चेतावनी भी कि भारी बर्फबारी हुई तो जम्मू-श्रीनगर हाईवे बंद हो जाएगा। यानी घाटी को बाकी दुनिया से जोड़ने वाला रास्ता बंद। इसका मतलब होता जरूरी सामान की किल्लत होने वाली है। बुलेटिन पूरा भी नहीं होता था कि मेरे अब्बा हाथ में कपड़े से बना झोला लिए निकल जाते थे और लौटते थे सब्जियां, लोकल ब्रेड और बड़ी वाली रेडियो की बैट्री लिए। मां जल्दी-जल्दी पुरानी लकड़ियां, गैस लालटेन और बर्फ में पहनने वाले रबर बूट्स से धूल साफ करने लगतीं।

अगली सुबह हम उठते तो हमारी पूरी दुनिया सफेद हो चुकी होती थी। नलों पर गर्म पानी डालकर हम बाथरूम इस्तेमाल कर पाते थे। अब्बू रबर बूट्स पहनकर बर्फ के बीच घर से बाहर निकलने का रास्ता बनाते थे। अगले दो-तीन दिन बस हमाम में बैठकर खाना-पीना और रेडियो पर बुलेटिन सुनने का ही काम होता था। कश्मीर के सबसे सर्द चिल्ले कलां के दिन हम यूं ही गुजारते थे। ये हमारा सर्दियों वाला लॉकडाउन हुआ करता था।

कश्मीर में सबसे ज्यादा सर्दी वाले 40 दिन चिल्ले कलां कहलाते हैं। दिसंबर जनवरी के ये वह दिन होते हैं, जब नलों में पानी जम जाता है और आसपास की वादियां बर्फ से ढंक जाती हैं।

मुझे नहीं पता था बर्फबारी के कुछ दिन वाली यह सर्वाइवल टेक्नीक हमें महीनों चलने वाले लॉकडाउन के लिए जीना सिखा देंगी। पैदा हुई हूं तब से लेकर अब तक के 25 सालों में कई बड़े लॉकडाउन और एक भयानक बाढ़ की गवाह बनी हूं। 2008 में अमरनाथ श्राइन बोर्ड के भूमि विवाद से लेकर 2010 के लंबे कर्फ्यू तक... अफजल गुरू को फांसी होने के बाद 2014 फरवरी में हड़तालों के उस दौर से लेकर सितंबर में उसी साल आए सैलाब तक...फिर 2016 में बुरहान वानी के एनकाउंटर से लेकर 2019 में धारा 370 हटने के बाद जम्मू कश्मीर के स्पेशल स्टेटस के खो जाने तक कई लॉकडाउन देखें हैं।

अब हम एक और अजाब झेलने को मजबूर हैं, यह पुराने सारे लॉकडाउन से अलग है। पहली बार किसी महामारी के चलते ऐसा लॉकडाउन देखा है। नई बात यह भी है कि कश्मीर के साथ-साथ इस बार पूरा देश लॉकडाउन है। हम कश्मीरियों से इन दिनों एक सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि आखिर हम इन पाबंदियां में कैसे रह पाते हैं? और इसका जवाब हम ठीक वैसे ही देते हैं जैसे मैंने ऊपर दिया है। ऐसे ही लॉकडाउन के बीच जीने के कुछ और तरीके नीचे भी लिखे हैं…

इस अजाब से पहले पिछले साल जुलाई में जब टूरिस्ट सीजन चल रहा था तो अचानक एक ऐसे लॉकडाउन की चर्चा सोशल मीडिया पर होने लगी, जिसने घाटी की चिंता अचानक बढ़ा दी। तूफान के तर्ज पर उस लॉकडाउन से निपटने की तैयारी होने लगी।

मेरी मां ने हमारे स्टोर रूम में ग्रॉसरी इकट्ठा कर ली। बीमार दादी की दवाइयों के कई पैकेट तुरंत मंगवाए गए। कार का टैंक फिर एक बार फुल हुआ और एटीएम से भरपूर कैश भी निकाल लिया गया। अभी अगस्त आने में थोड़ा वक्त बाकी था, लेकिन जब अगस्त आया तो सबकी बैचेनी और बढ़ चुकी थी।

5 अगस्त की सुबह आम दिनों के मुकाबले थोड़ी गर्म थी, जब हम सोकर उठे तो देखा कि इंटरनेट और फोन बंद है। मोबाइल की स्क्रीन पर सिग्नल की सीधी डंडियों की जगह क्रॉस का निशान नजर आ रहा था। अनुभवों के आधार पर मैंने अनुमान लगा लिया था कि ये हाल कम से कम 15 अगस्त तक चलेगा ही। हालांकि यह बड़ा लंबा चला।

श्रीनगर का ऐतिहासिक लालचौक वैसे तो शहर का बिजनस हब है लेकिन घाटी की किसी भी परिस्थिति का पहला असर इसी इलाके में नजर आता है। लॉकडाउन लगते ही सुरक्षाबल सबसे पहले इसे कंटेनजिना वायर से लपेट अपनी जद में ले लेते हैं। राजनीतिक लिहाज से ये कश्मीर में खास अहमियत भी रखता है।

उस दौर में हमारा ज्यादातर वक्त किताबों के साथ बीतता था। मैं सुबह घर के किचन गार्डन में बाबा की मदद करती फिर काहवा पीते हुए टीवी पर खबरें सुनती। सड़कें सूनी थीं और बाजार बेजान। शाम को कुछ वक्त सिक्योरिटी डिप्लॉयमेंट हटने के बाद पड़ोस के किराने वाले से जरूरी सामान खरीदने का मौका मिलता था।

बेपनाह बर्फ इस बार इस बेजारी से राहत लेकर आई। हालांकि इससे मेरे बगीचे के सभी फूल और पेड़ टूट गए थे और मुझे घर में हफ्ते भर की कैद भी मिली थी। और तो और बिजली भी लुकाछुपी खेल रही थी।

लॉकडाउन सबसे ज्यादा दिक्कतें मरीजों और उनके परिवार वालों को होती है। हमारे हमसाये के अब्बा कैंसर पेशेंट हैं। उन्हें जैसे ही पता चलता कि हालात खराब होने को हैं तो वे गली के कोने पर रहनेवाले एम्बुलेंस ड्राइवर को फोन करते और पूछ लेते कि वह घर पर ही है ना? यही नहीं वह सबसे पहले डीसी ऑफिस जाकर एक कर्फ्यू पास लेकर आते और लौटते वक्त डॉक्टर से मिलते हुए आते। ये वह पिछले दो सालों से हर लॉकडाउन के दौरान कर रहे हैं।

मैंने ये महसूस किया है कि मुश्किल आती हैं तो उनके हल भी निकलने लगते हैं। हम अपने तरीकों से रास्ता निकाल लेते हैं। जिंदगी की इस बेहद कठिन परीक्षा में भी हम पास होंगे। फिर चाहे ये लॉकडाउन कितना ही बड़ा हो। हमें अपने तरीकों से इससे पार पाना होगा।



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कश्मीर को देश से जोड़ता यह नेशनल हाईवे एनएच वन है। इसी पर बनी जवाहर टनल के उस पार जम्मू है और दूसरी ओर कश्मीर। बर्फबारी में कई बार यह बंद हो जाता है। पूरी सर्दियां इस पर वन वे ट्रैफिक रहता है। एक दिन जम्मू से श्रीनगर गाड़ियां जाती हैं तो दूसरे दिन श्रीनगर से जम्मू।




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कुछ जमातियाें की हरकतों से हो सकती है मुश्किल

तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के लम्पट रवैये से पूरा देश गुस्से में है। मुंबई महानगरपालिका का बयान आया है कि मुंबई में कोरोना संक्रमित पाए जाने वाले 90% लोग तब्लीगी जमात के संपर्क वाले निकल रहे हैं। दो दिन पहले सरकार के प्रवक्ता ने बताया कि राष्ट्रीय स्तर पर हर तीसरे कोरोना मरीज का परोक्ष या प्रत्यक्ष संबंध तब्लीगी जमात की उस तीन दिवसीय सभा से है जो दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित जमात मुख्यालय में हुई थी।

तब्लीगी प्रकरण से पहले 7.4 दिनों में केस दोगुने हो रहे थे, अब 4.2 दिनों में संख्या दोगुनी हो रही है। आम धारणा है कि विदेश और अनेक सूबों से आए हजारों जमातियों ने इस संक्रमण को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई। खबरें आने लगीं कि इच्छा के विरुद्ध जगह-जगह क्वारैंटाइन में भेजे गए ये तब्लीगी महिला नर्सों-डॉक्टर्स से दुर्व्यवहार कर रहे हैं।

नर्सों को भद्दे इशारे करना, डॉक्टर्स-नर्स के साथ अभद्रता करना किस संस्कृति का प्रतीक है? संभव है ये जमाती कुछ हद तक कर्मचारियों के तिरस्कार का शिकार हो रहे हों, लेकिन नर्सों के सामने निर्वस्त्र खड़े होकर भद्दे इशारे करना किसी तरह की कोई मजबूरी कतई नहीं हो सकती। पूरे मुस्लिम समाज को इस हरकत के खिलाफ आगे आना पड़ेगा, उनके धर्मगुरुओं को सख्त संदेश देना होगा और संभव हो तो क्वारंेटाइन से वापस आने पर ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार भी करना होगा, जब तक ये अपनी अमानवीय हरकत पर सामाजिक रूप से माफी न मांगें।

ये हरकतें भारतीय समाज की घृणा को इतना बढ़ा सकती हैं कि एक वर्ग को कुछ लोगों की गलतियों की वजह से अनायास ही बहिष्कार झेलना पड़ सकता है। शायद यह सबसे संकटपूर्ण स्थिति होगी और सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर पाएगी, क्योंकि यह तिरस्कार सामाजिक स्तर पर होगा और वह भी इसलिए कि कुछ जमातियों की गंदी हरकतें दूसरे वर्ग में अनायास ही यह डर पैदा करेंगी कि ये इस बीमारी को फैलाने के अनजाने में कारक नहीं बने हैं, बल्कि जान-बूझकर फैलाना चाहते हैं।



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The movements of some gangsters can be difficult




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पांच दिन के लिए पंचकर्म का पंचामृत

नई पीढ़ी के लिए कोरोना की घटनाएं लोककथा जैसी हो जाएंगी। ट्रेन की बोगी अस्पताल बन गई और घर रेल के डिब्बे की तरह हो गए। बस, भीतर ही भीतर चलते-बैठते रहो। कुछ लोगों को लग रहा होगा कि पांच दिन बचे हैं, उसके बाद अपना स्टेशन आ जाएगा उतरने के लिए। तो आने वाले इन पांच दिनों में हो सके तो ये पांच काम कर लीजिए। पहला, प्रकृति से जुड़िए, घर में जो पेड़-पौधे हों, उन्हें छूकर उनसे बात कीजिए।

दूसरा, जड़ वस्तुओं से जुड़िए। जैसे- पेन, कपड़े, जूते-चप्पल, उनसे ऐसा व्यवहार कीजिए जैसे ये जड़ नहीं, चेतन हैं। तीसरा, किसी से भी बात करें तो पूरी तरह दिल से उसे सुनें। इंसान की फितरत में है कि जब कोई बोल रहा होता है तो सुनने वाला भीतर से गायब होता है, ऐसा मत कीजिए। स्थिर मन से सामने वाले को सुनिए।

चौथा काम यह करें कि अपेक्षा रहित हो जाएं। इन दिनों किसी से भी अपेक्षा न करें। अपेक्षा रहित व्यक्ति बहुत जल्द शांत होता है। इंसान को बेचैन-परेशान दूसरे लोग नहीं करते, बल्कि वो उम्मीदें करती हैं जो वह दूसरों से लगाए बैठा होता है। इसलिए किसी से अपेक्षा मत रखिए। और पांचवां काम यह कि अकर्ता हो जाएं। कोई भी काम करते हुए ऐसा भाव पैदा कर लें कि कर तो हम रहे हैं, पर करा कोई और रहा है। बस इतना कीजिए, पंचकर्म का यह पंचामृत आने वाले दिनों में आपके बहुत काम आएग।



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Panchakamrit for Panchakarma for five days




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कोरोना की व्यापकता से बढ़ी चिंता से मुक्त होने की जरूरत

किसी नई बीमारी ‘एक्स’ के बारे में कल्पना करें। यह बीमारी एयरबॉर्न यानी हवा से फैलने वाली और खतरनाक है। इससे हर साल सिर्फ भारत में ही 28 लाख लोग बीमार होते हैं और 4.35 लाख मर जाते हैं। यानी हर दिन औसतन 1200 लोगों की या हर घंटे 50 की मौत। अगर यह संख्या हर वक्त आपके टीवी के कोने पर आने लगे तो इससे आपको क्या होगा? यह आपको बेचैन करेगा? घबराहट होगी? बहुत डर जाएंगे?
ठीक है, अब एक्स कोई नई बीमारी नहीं है। यह टीबी (तपेदिक) है। यह जो आंकड़े हैं वे टीबी के ही हैं। टेलीविजन इससे होने वाली मौतों और नए मामलों को नहीं दिखाता है। इस पर आपको रोजाना दर्जनभर वाट्सएप मैसेज भी नहीं मिलते हैं। इसके लिए कभी कोई लॉकडाउन भी नहीं हुआ, लेकिन बीमारी वास्तविक है।

भारत में हर साल होने होने वाली कुल मौतों की दस टॉप वजहों में टीबी शामिल है। लेकिन, टीबी की वजह से वैसा डर पैदा नहीं होता, जैसा ‘एक्स बीमारी’ को लेकर था। किसी अनजान और अप्रत्याशित से हमें अधिक डर लगता है। ‘नोवेल’ कोविड-19 भी ऐसा ही है। इसकी नोवेल्टी (नवीनता) ही दुनियाभर में पैदा हुई चिंता की वजह है। आप कह सकते हैं कि टीबी का तो इलाज है। हालांकि, टीबी के कई मामलों में दवा का असर नहीं हाेता है और इससे हर साल लाखों जानें जाती हैं। यह भी एक तर्क हो सकता है कि इसकी वैक्सीन उपलब्ध है। यह सही है, लेकिन इसके बावजूद बीमारों व मरने वालों की संख्या तो बहुत अधिक है। अगर यह कम खतरनाक है तो फिर इससे हर दिन एक हजार से अधिक लोगों की मौत क्यों होती है? इसके बावजूद टीबी हमें कोरोना वायरस की तरह नहीं डराती है। टीबी से डर न लगने की एक वजह यह भी है कि हमें लगता है कि यह हम जैसे लोगों को यह नहीं हो सकती। टीबी एक ऐसी बीमारी है, जो गरीबों से जुड़ी है। इसलिए मध्यम वर्ग इससे नहीं डरता।

कोविड-19 अलग है। गोरे लोगों, दुनिया के नेताओं और अमीर अंतराष्ट्रीय यात्रियों को यह हो रहा है। यानी यह हर किसी को हो सकता है। आपको और मुझे भी हो सकता है। जबकि, टीबी केवल एक खास तरह के लोगों को होती है। इसकी व्यापकता या यह मुझे भी हो सकती है, इसी वजह से इसे मीडिया प्रमुखता दे रहा है। इसे समझने के लिए आरुषि हत्याकांड ही ले लें, जो महीनों तक मीडिया में छाया रहा। इस पर मूवी और डॉक्यूमेंट्री भी बनी। अब अगर माना कि किसी आदिवासी गांव की लड़की का अपहरण होता है तो क्या उसे भी इतना मीडिया कवरेज मिलेगा? नहीं। इसकी वजह भी व्यापकता ही है। क्योंकि अगर अारुषि जैसी उच्च वर्ग की लड़की सुरक्षित नहीं है तो फिर कोई भी भारतीय बच्चा सुरक्षित नहीं है। ऐसे ही अगर बोरिस जॉनसन या लाखों अमेरिकियों को कोविड-19 हो सकता है तो भारत में किसी को भी यह हो सकता है। यह वजह है कि कोविड-19 को इतना मीडिया कवरेज मिल रहा है और इससे चिंता और भी बढ़ रही है।
कोविड-19 ऐसे समय पर आया है, जब हरेक के पास तेज इंटरनेट कनेक्शन है। इससे दुनिया की तमाम सूचनाएं तेजी से पहुंचती हैं। सार्स के समय लोगों के पास स्मार्ट फोन नहीं था। उस समय मैं हांगकांग में था, जो सार्स का केंद्र था। लोग डरे हुए तो थे, लेकिन अधिकतम सुरक्षा मास्क और हाथ धोना ही था। कोई लॉकडाउन नहीं था। लेकिन आज कोविड-19 ने दुनिया के लोगों के दिमाग के बड़े हिस्से को काबू कर लिया है। हम लगातार तनाव की स्थिति में हैं। शटडाउन की वजह से एक और चिंता उभर रही है कि व्यापार, अर्थव्यवस्था या नौकरी का क्या होगा? सीएमआईई के मुताबिक पिछले दो हफ्तों में ही बेरोजगारी का स्तर सात फीसदी से बढ़कर 23 फीसदी हो गया है। यह चिंता मनुष्य के लिए ठीक नहीं है। इससे हमारा मनोबल टूटने से लेकर गंभीर मानसिक बीमारी तक हो सकती है।
इससे बचने के कुछ उपाय यह हो सकते हैं- पहला, कोरोना की खबरें लगातार न देखें। आप लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के माध्यम से पहले ही चरम कदम उठा चुके हैं। इससे अधिक अाप क्या कर सकते हैं? क्या अब आगे आप खुद को चेन में बांधना चाहते हैं? इसलिए, समाचारों से प्रभावित होने की कोई जरूरत नहीं है। इससे आपको सिर्फ नुकसान होगा। दूसरा, यह मानें कि यह वायरस भी खत्म हो जाएगा। कई देशों में इसका प्रकोप उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद अब कम होना शुरू हो गया है। तीसरा, इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि लॉकडाउन के दिनों में आप क्या उत्पादक कर सकते हैं। इसके अलावा, इस बात पर सोचें की हालात सामान्य होने के बाद आप क्या करेंगे? चौथा और आखिरी, अपनी क्षमता के मुताबिक सभी सावधानियां लेने के बाद, ईश्वर पर भरोसा रखें और उम्मीद करें कि सब ठीक हो जाएगा। जो होना है वो तो होगा ही। चिंतित होने से कुछ हासिल नहीं होगा। भगवद्गीता में कहा गया है कि अभयं ही ईश्रीय आत्मा का सबसे बड़ा गुण है। इसलिए आपको न केवल चिंतामुक्त लाॅकडाउन, बल्कि एक चिंतामुक्त जीवन की शुभकामनाएं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Corona's widespread need to be free from anxiety




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लॉकडाउन से विषय, विकार मिटाने, पाप हरने का मौका

सी.के. खेतान ( आईएएस अतिरिक्त मुख्य सचिव, छत्तीसगढ़).एक बहुत ही लोकप्रिय आरती की इस आधी पंक्ति ‘विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा…’ को मैंने पूरी वर्तमान स्थिति समझाने के लिए चुना है। इसमें तीन शब्द सबसे महत्वपूूर्ण है- विषय, विकार और पाप। विषय और विकार को मिटाने की बात हो रही है और पाप को हरने की। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि मिटाना मनुष्य के हाथ में है और हरना ईश्वर के हाथ में।
विषय का यहां तात्पर्य लिप्सा, चाह, इच्छा से है। वर्तमान वातावरण में अदृश्य, रहस्यमय वायरस ने इच्छाओं और चाहतों को कम करने का सबक सिखाया है। यह सबको महसूस हो रहा है कि जिस ऐश्वर्य के सहारे मनुष्य शक्तियां, महाशक्ति बनने का प्रयास कर रही थीं, वह ऐश्वर्य कितनी सतही अवधारणा पर टिका है। बड़े-बड़े महलों में रहने वाले कैद हैं और ठेले पर सब्जी बेचने वाले खुले घूम रहे हैं। इसलिए कि महल वालों के पास लिप्सा है और ठेले वालों के पास इच्छा। जान का भय दोनों को है, लेकिन एक को बहुत खोने का भय सता रहा है। दूसरे को इस बात की परवाह नहीं है कि वह बहुत कुछ खो देगा। विषय को मिटाने की बात इसलिए भी हो रही है, क्योंकि महत्वाकांक्षा की कोई सीमा नहीं होती।

एक मजदूर या किसान जब अपनी सीमित आमदनी से पहली मोटरसाइकिल खरीदता है और अपने बच्चों या गांव के दोस्तों को घुमाने ले जाता है तो उसे जो खुशी मिलती है, वह खुशी उस अमीर को नहीं मिल सकती, जिसे अपनी मनपसंद रंग वाली फेरारी नहीं मिल सकी। और इसके कारण मन में खुशी न होकर दु:ख पैदा हो गया हो। विषय की परिभाषा जटिल है, क्योंकि इसे वेद-शास्त्रों और धर्म से भी जोड़ा जाता है। सांसारिक इच्छाओं और चाहतों को सीधे तौर पर विषय से जोड़ा जाता है। हाल में बेमौसम बारिश, ओलों ने कुछ किसानों के गेहूं, फल-सब्जियों को नुकसान पहुंचाया, किंतु उसे उन्होंने ईश्वर की इच्छा मानकर संतोष कर लिया, लेकिन शेयर बाजार में करोड़ों की हानि बड़े-बड़े लोग झेल नहीं पा रहे हैं और ईश्वर से लेकर अपने इन्वेस्टर तक को कोस रहे हैं। किसानों का संतोष और अमीरों की बेचैनी में वही फर्क है, जो ऐश्वर्य की लिप्सा (विषय) और बुनियादी इच्छा में है। वर्तमान लॉकडाउन ने यह सिखाया है कि हमें लिप्सा को मिटाना होगा और वापस जीवन में एक संतुलन पैदा करना होगा।
दूसरा शब्द है विकार। आयुर्वेद शास्त्र में विकार तब पैदा होता है, जब भोजन में या पीने में ऐसी दो सामग्रियों या रसायनों का मिश्रण हो जाए जो अंतर्विरोधी हो। अध्यात्म में विकार तब पैदा होता है, जब मनुष्य शरीर को ही महत्व देने लगता है। नकारात्मक विचारों का हृदय में आना जैसे लालच, ईर्ष्या, निंदा, आध्यात्मिक जीवन में विकार पैदा करते हैं। सबसे बड़ा विकार तत्व ‘अहम’ होता है, जब व्यक्ति स्वयं को कर्ता समझने लगता है, इसलिए गीता में सत्कर्म करने की बात हुई है, क्योंकि दुष्कर्म से विकार ही पैदा होते हैं। अब प्रकृति में पैदा हुए विकार की बात करते हैं। अभी ये खबरें खूब चल रही हैं कि गंगा, कानपुर और बनारस में भी 30-40 प्रतिशत तक शुद्ध हो गई है। दिल्ली और मथुरा की यमुना का पानी भी पहले से बेहतर हो गया है। अंटार्कटिका क्षेत्र में ओजोन लेयर में हुए नुकसान की भरपाई हो रही है। प्रकृति में जो विकार पैदा हुए हैं, उनको मिटाने का अब समय आ गया है। यह विकार हमने पैदा किया है। प्रकृति के विकार को मिटाना सिर्फ ईश्वर के हाथ में नहीं है। प्रकृति ने तो हमें भरपूर शुद्ध पानी, हवा और मिट्‌टी दी है, उसमें विकार हम ही पैदा कर रहे हैं। इस लॉकडाउन ने इस विकार को भी कम करने का एक रास्ता दिखाया है।
अब तीसरे विषय पर आते हैं, जब पाप को हरने की प्रार्थना ईश्वर से की जाती है। विभिन्न धर्मों में पाप की अलग-अलग परिभाषा दी गई है। मैंने अपने श्री स्वामीजी महाराज से एक बार पूछा कि पाप की क्या परिभाषा है, तो बहुत ही सरल शब्दों में उन्होंने बताया कि कोई भी ऐसा कर्म जिसे करने के बाद मन में उस समय या बाद में अफसोस या पछतावा पैदा न हो तो वह पाप नहीं माना जाता। मैंने प्रतिप्रश्न किया कि क्या लोगों की हत्या करना भी पाप नहीं करने की श्रेणी में आता है? उन्होंने कहा अगर वह हत्या किसी अत्याचारी को अत्याचार से रोकने के लिए की गई हो तो वह पाप की श्रेणी में नहीं आती। ऐसे में मुुझे गीता का वह प्रसंग याद आता है जब अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में खड़े हुए और भ्रमित हो गए। वस्तुत: कुरुक्षेत्र की लड़ाई अच्छाई और बुराई के बीच थी, लालच और त्याग के बीच थी। आज उसी पाप को हरने की बात हो रही है। लॉकडाउन ने विषय की धधकती आग को कम किया है। विकार से उत्पन्न प्राकृतिक असंतुुलन को थोड़ा संतुलित किया है। पाप हरने का रास्ता दिखने लगा है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Topics from lockdown, erasing disorder, chance to defeat sin




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‘किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे’

कोरोना कालखंड में मरने वालों का शवदाह या इस्लाम अनुयायी लोगों को दफ्न करना कठिन होता जा रहा है। लेखक प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी के दो पात्र संवेदना विहीन हैं और चलते-फिरते मुर्दों की तरह हैं। कफन के श्वसुर और पति निठल्ले और जानवरों से बदतर मनुष्य हैं। एक स्त्री ही मेहनत-मजदूरी कर पति और श्वसुर को पाल रही है। प्रसव पीड़ा झेलने वाली स्त्री को सहायता के लिए दाई या वैद्य को न बुलाते हुए पिता-पुत्र बुझते अंगारों पर सेंके आलू खाने लगे हैं। स्त्री का निधन होने पर गांव वाले चंदा कर उसके कफ़न और दाहक्रिया के लिए धन एकत्रित करते हैं। पति-श्वसुर को धन दिया जाता है वे दाह संस्कार के लिए सामान खरीदकर लाएं। दोनों शराब और पूरियां खरीद लेते हैं। भोजन करते हुए याद करते हैं वह स्त्री कितनी महान थी, जिसने जीवनभर उनकी सेवा की और मृत्यु बाद भी उन्हें शराब और मिष्ठान उपलब्ध करा गई। कथा पर गुलज़ार ने दूरदर्शन के लिए फिल्म बनाई थी।
हॉलीवुड की अलपचीनो अभिनीत ‘स्कारफेस’ में आदर्शवादी शिक्षक मास्टर दीनानाथ का अध्यापन जारी रखना अपराध सरगना को पसंद नहीं है। वह जानता है अवाम का अशिक्षित बने रहना ही लाभप्रद है। उस समय किसी को यह कल्पना नहीं थी, भविष्य में पढ़े-लिखे ही भ्रष्ट, अंधविश्वासी हो जाएंगे। अपराध सरगना मास्टर दीनानाथ का कत्ल कर देता है और बस्ती में मुनादी करा देता है कि कोई भी व्यक्ति अंतिम क्रिया में सहायता नहीं करे। मास्टर दीनानाथ का किशोरवय पुत्र अकेले ही हाथगाड़ी पर शव लेकर जाता है, लकड़ियां एकत्र करता है और शवदाह करता है। उसी चिता की अग्नि में उसका चरित्र तपकर इस्पात में ढल जाता है।
नरगिस दत्त का देहावसान होने पर शवयात्रा की तैयारी चल रही थी। नरगिस के भाई अनवर के पुत्र, सुनील दत्त के फिल्म निर्माण कार्य से जुड़े थे। उन्होंने पक्ष रखा, नरगिस जद्दनबाई की पुत्री थीं, उसे सुपुर्देखाक किया जाए। जद्दनबाई की कब्र के निकट दफ़नाया जाए। उस समय यह किसी ने नहीं बताया, नरगिस के पिता मोहनबाबू थे। पिता-पति दोनों ही बहुसंख्यक वर्ग के थे। अंतरंग मित्र राज कपूर भी इसी वर्ग के थे। यहां तक कि जद्दनबाई भी बहुसंख्यक वर्ग की थीं।
एक हिंदू की घर लौटती बारात को डाकुओं ने लूट लिया। दुल्हन को उठाकर ले गए वह उनका भोजन पकाएगी और अड्‌डे की सफाई करेगी। एक दिन वह नदी के किनारे कपड़े धोते हुए गीत गा रही थी। वहां से गुजरते हुए खानाबदोशोंे ने उसकी व्यथा-कथा सुनकर उसे साथ ले लिया। कलकत्ता में वह कोठे पर गीत गाती थी। मोहनबाबू मुग्ध हो गए और उससे विवाह कर मुंबई आ गए। जद्दनबाई ने फिल्मों में संगीत दिया और फिल्मों का निर्माण भी किया।
सुनील दत्त ने समझौता किया, शव हिंदू सधवा की तरह घर से ले जाया जाएगा, परंतु अग्निदाह नहीं करते हुए उसे दफ्न किया जाएगा। परंपरा है एक कब्र के स्थान पर कुछ वर्ष बाद ही दूसरा शव दफ्न किया जाता है। कुंदन शाह की अमर फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ में ताबूत सारे शहर की यात्रा करता है और शव एक नाटक में एक पात्र के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। जयंतीभाई गढ़ा के पास ‘जाने भी दो यारों’ के नए संस्करण बनाने के अधिकार हैं, परंतु कुंदन शाह की मृत्यु हो चुकी है वैसा फिल्मकार अब कहां मिलेगा? क्रिश्चियन समाज में एक छोटा वर्ग है जो मृत परिजन का अग्निदाह करता है।
राज कपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ में लंपटों से बचते हुए नायिका श्मशान में शरण लेती है। वहां डोम उससे पूछता है क्या उसे श्मशान में डर लग रहा है? वह उत्तर देती है डर तो जीवित लोगों से लगता है। शेक्सपीयर के नाटक ‘हेमलेट’ में ग्रेव डिगर दृश्य को महत्वपूर्ण माना गया है। कब्र खोदना रोजी-रोटी कमाने का साधन है। कब्र खोदते हुए वे जीवन की अर्थहीनता पर टिप्पणी करते हैं। क्या जीवन रूपी वाक्य में मृत्यु पूर्ण विराम है? शैलेंद्र याद दिलाते हैं ‘मरकर भी याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे, जीना इसी का नाम है…।

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'You will smile in someone's tears'




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बोर हो रहे हैं? कुछ रचनात्मक करें!

आज सुबह मुझे कॉमेडियन भारती सिंह का वीडियो मिला, जो कपिल शर्मा शो में भूमिका निभाती हैं। वे कहती हैं, ‘क्या आप घर बैठे बोर हो रहे हैं? अस्पताल में हालत और बदतर हो जाएगी और फोटो फ्रेम में तो आप बिल्कुल हिल भी नहीं पाएंगे।’ जहां भारती ने अलग तरीके से बोरियत की समस्या पर बात कही, वहीं स्कॉटलैंड में ग्लासगो के दंपति ने अलग तरीका अपनाया। उन्होंने घर को बच्चों के लिए रेस्टोरेंट में तब्दील कर दिया, जिनके लिए समझना मुश्किल है, वे बाहर क्यों नहीं जा सकते।
हर तरह से समझाने के बाद भी कैलम और क्लेयर-मैरी मैकॉले के 7 व 6 साल के दो बेटों को समझ नहीं आ रहा था वे बाहर क्यों नहीं जा सकते। तो माता-पिता को विचार आया क्यों न वे बच्चों को घर पर ही ‘बाहर खाने’ का अनुभव दें। माता-पिता ने नई भूमिकाएं अपनाईं। मां ‘वेट्रेस’ बन गई और पिता ‘हेड शेफ’। उन्होंने मेन्यू प्रिंट किए और बच्चों के लिए मैक्सिकन दावत तैयार की। उन्होंने घर पर ‘मम्मी एंड डैडी रेस्टोरेंट’ का बोर्ड लगाया। इस वीडियो को लगभग 9,00,000 लोगों ने देखा। 22,000 से ज्यादा बार शेयर किए गए।

वीडियो में दोनों लड़के स्मार्ट शर्ट पहनकर, अच्छे से तैयार होकर, गार्डन से होते हुए क्लेयर-मैरी (मां और उस समय वेट्रेस) के सामने जाते हैं, जो उनका घर में बनाए रेस्टोरेंट में स्वागत करती हैं। वेट्रेस की भूमिका निभाते हुए, वे बच्चों को टेबल पर ले जाने से पहले उनकी ‘बुकिंग की जांच’ करती हैं और उन्हें मेन्यू देती हैं। बच्चों के सामने ‘हेड शेफ डैडी' को पेश करने से पहले मम्मी ने ‘मेहमानों’ को रेस्टोरेंट की जानकारी दी। फिर हेड शेफ डैडी ने बच्चों को रॉबिन्सन्स रिजर्व की ‘एप्पल व ब्लैककरंट’ वाइन परोसी। उन्होंने ड्रिंक को ताजा वाइन (वास्तव में फलों का रस) के रूप में पेश किया, जिसे बच्चों को रेस्टोरेंट का अनुभव देने के लिए पुरानी वाइन की बोतल में डाला गया था। बच्चे अपने गिलास आपस में खनकाते हैं और फलों का रस पीते हैं। छोटे बच्चे ने दूध मांगा तो वह भी उसे वाइन ग्लास में दिया गया। फिर बच्चों को स्टाटर्स के तौर पर नाचोस परोसे गए। उन्हें हेड शेफ डैडी द्वारा कैसडिला परोसा गया। वेट्रेस यानी मां ने मजाक किया, इसे ‘स्पेशल हाइंज साल्सा' से बनाया गया है, जिसे केचप भी कहा जाता है। फिर दोनों लड़कों के सामने मैक्सिकन व्यंजन परोसे गए। मीठा खाने की बारी आई तो उन्हें स्ट्रॉबेरी आइस लॉली, मिंट चॉको चिप और वेनिला आइसक्रीम परोसी गई। वेट्रेस बिल भी ले आई।

बच्चे बिल लाने पर वेट्रेस की ओर देखते हैं, तो मां बिल फाड़ देती हैं और कहती हैं, ‘रात का खाना मम्मा-डैडी की तरफ से था’ और वीडियो समाप्त हो जाता है। कैलम ने इसे फेसबुक पर साझा किया और कहा, ‘तो इस महामारी के दौरान, बेटे इवान और ल्यूकस रेस्टोरेंट जाना चाहते थे, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था, वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते, इसलिए उनके लिए यह रेस्टोरेंट बनाया।’ उन्होंने बच्चों को यह कह कर नहीं डराया, हमें भी ये खतरनाक बीमारी होने का खतरा है। फंडा यह है कि जब आप 21 दिन के लिए घर में बंद हैं तो बोर होना लाजिमी है, लेकिन क्या हमारे पास कोई और विकल्प है? नहीं। तो फिर हम अपने बच्चों को डराने के बजाय कुछ नया क्यों नहीं करते। आप भी अपने तरीके से कोशिश करें।



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कॉमेडियन भारती सिंह।




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दिल्ली के मोहल्लों में फल-सब्जी बेचने वालों के आधार कार्ड चेक हो रहे, मुस्लिम मिले तो उन्हें भगा दिया जाता है

बीते तीन दिनों से एक वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। यह वीडियो दिल्ली के शास्त्री नगर इलाके का है और इसमें 15-20 लोग एक गली में मीटिंग करते हुए देखे जा रहे हैं। वीडियो बनाने वाला व्यक्ति इसमें बोल रहा है, ‘शास्त्री नगर में एक मीटिंग होने जा रही है। ये जो मोमेडियन आते हैं गलियों में, बिलकुल नहीं घुसने देंगे मुसलमानों को हम गली में। हम एक मीटिंग कर रहे हैं और आप लोगों से भी निवेदन है कि आप लोग भी अपनी गली-मोहल्ले के अंदर किसी भी मुसलमान को न घुसने दें। उनका आधार कार्ड चेक करो, उनका नाम पूछो, कोई भी मुसलमान है तो आप उनको भगाइए। गंदपना कर रहे हैं ये लोग। तो मेरी आपसे रिक्वेस्ट है कोई भी घुसने न दे इनको, मोमेडियन को।’

वीडियो बनाने वाला व्यक्ति जब ये बोल ही रहा है तो इस गली में दो सब्जी बेचने वाले पहुंचते हैं। इस पर वहां मौजूद लोग सब्जी वालों से पहचान पत्र मांगते हैं और कहते हैं, ‘कल से आधार कार्ड लेकर आना वरना आना मत इस तरफ। डंडे पड़ेंगे बहुत।’ ये कहने के साथ ही इन सब्ज़ी वालों को वहांसे दुत्कार कर भगा दिया जाता है और वीडियो में आगे कहा जाता है, ‘ये देख रहे हो भाई साहब। अभी एक को पकड़ा था, उसने अपना नाम बताया मिश्रा और था वो मोहम्मद इमरान। उसको भी मार कर भगाया अभी हमने।’

सोशल मीडिया पर आने के बाद से वीडियो हजारों लोग शेयर कर चुके हैं। ट्विटर से लेकर फेसबुक और व्हाट्सएप पर कई लोग इस वीडियो का यह कहते हुए समर्थन कर रहे हैं कि सभी लोगों को अपने-अपने मोहल्ले में ऐसा ही करना चाहिए तो दूसरी तरफ कई लोग इस वीडियो के जरिए दिए जा रहे सांप्रदायिक संदेश की भर्त्सना भी कर रहे हैं। दैनिक भास्कर ने इस वीडियो की पड़ताल की है।

वीडियो की सच्चाई जानने के लिए जब हम उत्तरी दिल्ली के शास्त्री नगर इलाके पहुंचे तो शुरुआत में वहां के अधिकतर लोगों ने इस वीडियो को फर्जी बताया। हालांकि इस क्षेत्र के लगभग सभी लोग इस वीडियो को देख चुके थे। यहां प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करने वाले आरके शर्मा कहते हैं, ‘हम सभी लोगों ने ये वीडियो देखा है। लेकिन ये शास्त्री नगर का नहीं है। हमारे इलाके में हिंदू-मुस्लिम भेदभाव जैसी कोई घटना कभी नहीं हुई। ये इस इलाके को बदनाम करने के लिए किसी ने शरारत की है।’

इसी इलाके में बीते 12 साल से सब्जी बेचने वाले रणवीर सिंह को जब भास्कर ने यह वीडियो दिखाया तो उनकाकहना था, ‘हां ये वीडियो यहीं बी-ब्लॉक का है।’ वीडियो में दिख रही बिल्डिंग को पहचानते हुए रणवीर सिंह ने बताया कि यह वीडियो ललिता विहार स्कूल के पास स्थित मोहल्ले में बनाया गया है।

रणवीर सिंह के बताए अनुसार जब हम ललिता विहार के पास पहुंचे तो वह बिल्डिंग नजर आई जो वीडियो में भी देखी जा सकती है। इसके साथ ही वीडियो की एक झलक में दिखता है कि एक घर के बाहर ‘रोटी बैंक’ लिखा हुआ है। यह घर भी हमें इस इलाके में नजर आया जिससे यह स्थापित हो गया कि वायरल हो रहा वीडियो इसी मोहल्ले में बनाया गया है। इस मोहल्ले का नाम ‘गुड लिविंग सोसाइटी’ है।

वायरल वीडियो में एक घर नजर आता है, जहां 'रोटी बैंक' लिखा हुआ है। यह शास्त्री नगर के बी ब्लॉक में ही है। यहां मोहल्ले के लोग मिलकर आवारा पशुओं के लिए एक ‘रोटी बैंक’ चला रहे हैं। हर सुबह 11 बजे ये लोग इसी सम्बंध में एक मीटिंग भी करते हैं। रविवार को इसी मीटिंग के दौरान वायरल वीडियो को शूट किया गया था

इस वीडियो में नजर आ रहे कई लोगों में से एक संजय कुमार जैन भी हैं जो यहीं रहते हैं। संजय कहते हैं, ‘काफी समय से ऐसे वीडियो सामने आ रहे हैं जिनमें दिख रहा है कि मुस्लिम लोग सब्जियों या फलों में थूक लगा कर बेच रहे हैं। इसीलिए मोहल्ले के लोगों ने तय किया कि यहां जो भी सब्जी बेचने आए उसकी पहचान देखी जाए और सिर्फ पुराने सब्जी वालों को ही आने दिया जाए।’

इस वीडियो में नजर आ रहे हैं एक अन्य व्यक्ति नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘ये वीडियो किसने बनाया और इसमें आवाज किसकी है वो हम नहीं बता सकते। लेकिन हां हम सब लोग इस वीडियो में दिख ही रहे हैं। उस दिन हम लोग रोज के तरह ही मीटिंग कर रहे थे तभी ये बात उठी कि मुस्लिम सब्जी वाले थूक कर सब्जियां बेच रहे हैं। आपने भी देखा होगा ऐसे कई वीडियो सामने आ चुके हैं। इसलिए हमने तय किया कि यहां किसी मुसलमान को नहीं आने देंगे। हालांकि बाद में ये तय हुआ कि अब यहां सिर्फ दो-तीन वही सब्जी वाले आएंगे जो सालों से आते रहे हैं और जिन्हें हम पहचानते हैं।’

शास्त्री नगर का यह इलाका सराय रोहिल्ला पुलिस थाने के अंतर्गत आता है। भास्कर ने जब यहां के थानाध्यक्ष लोकेंद्र सिंह से इस मामले पर बात की तो उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से इंकार किया। लेकिन इस क्षेत्र के एसीपी आरके राठी ने भास्कर को बताया, ‘यह मामला हमारे संज्ञान में आया है और इस सम्बंध में हमने एफआईआर भी दर्ज कर ली है। हम लोग इस मामले की जांच कर रहे हैं।’

यह पूछने पर कि सब्जी या फल बेचने वालों के साथ उनकी धार्मिक पहचान के चलते जो भेदभाव हो रहा है, उसे रोकने के लिए क्या पुलिस ने कोई कदम उठाए हैं? एसीपी राठी कहते हैं, ‘हम लोग जगह-जगह यह घोषणा करवा रहे हैं कि अगर कोई भी व्यक्ति इस तरह से सांप्रदायिक संदेश फैलाते या ऐसा कोई भेदभाव करते हुए पाया जाता है तो उसके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया जाएगा। हम इसका ध्यान रख रहे हैं कि किसी के साथ भी ऐसा भेदभाव न हो।’

शास्त्री नगर इलाके में मुस्लिमों के अलावा बाकी लोग आपको फल-सब्जी बेचते हुए नजर आ जाएंगे।

एसीपी राठी यह आश्वासन तो देते हैं कि किसी भी फल-सब्जी वाले के साथ भेदभाव नहीं होने दिया जाएगा लेकिन फल सब्जी बेचने वालों के अनुभव इसके ठीक उलट हैं। शास्त्री नगर और उसके आस-पास के इलाकों में घूम-घूम कर फल बेचने वाले मोहम्मद अनस कहते हैं, ‘पिछले तीन-चार दिनों से हमें किसी भी गली-मोहल्ले में लोग आने नहीं दे रहे। लोग हमसे पहचान पत्र मांगते हैं और हमारा नाम देखते ही भगा देते हैं। लोग गाली देते हुए कहते हैं कि तुम लोग थूक लगाकर फल बेचते हो, आगे से इस मोहल्ले में दिखाई दिए तो तुम्हारा ठेला पलट देंगे।’

लगभग ऐसा ही अनुभव मोहम्मद सलमान का भी है जो इस इलाके में अंगूर बेचा करते हैं। वो कहते हैं, ‘लगभग सभी मोहल्लों में कोई न कोई आकर हमसे पहचान दिखाने को बोल ही देता है। हम लोग अब डर के कारण मोहल्लों में जा ही नहीं रहे बाहर मेन रोड पर ही ठेला लगा रहे हैं। लेकिन यहां भी जो लोग रुकते हैं उनमें से कुछ पहले नाम पूछते हैं और नाम सुनते ही आगे बढ़ जाते हैं। अभी दो दिन पहले तो मेरे ठेले पर चार-पांच ग्राहक खड़े थे तभी एक आदमी एक्टिवा पर आया और मेरा नाम पूछने लगा। मैंने अपना नाम बताया तो वो ग्राहकों से कहने लगा कि आप इससे फल क्यों खरीद रहे हो ये लोग थूक कर फल बेचते हैं।’

सलमान आगे कहते हैं, ‘सर, हमें नहीं पता जो वीडियो वायरल हुआ है उसमें वो मुस्लिम आदमी क्यों थूक लगाकर फल बेच रहा है। पता नहीं वो आदमी पागल है या क्या है। ये भी नहीं पता कि वो वीडियो सच्चा है या झूठा है। लेकिन उसकी क़ीमत हम लोग चुका रहे हैं। लोग हमें गालियां दे रहे हैं, मारने की धमकी दे रहे हैं। हमारी बिक्री आधे से कम रह गई है। हम लोग क्यों थूक लगाकर फल बेचेंगे सर? हमारी रोजी चलती है इन फलों से, ऐसा घटिया काम हम क्यों करेंगे और हमें क्या मिलेगा ऐसा करने से?’

सिर्फ सलमान और अनस ही नहीं, उत्तरी दिल्ली में फल-सब्ज़ी बेचने वाले तमाम लोग ये बताते हैं कि बीते कुछ दिनों से उन लोगों से उनके पहचान पत्र मांगे जाने लगे हैं। पहचान जांचने का काम पुलिस या कोई अधिकारी नहीं बल्कि गली-मोहल्ले के आम लोग कर रहे हैं। गाजीपुर के रहने वाले अशोक कुमार बीते एक दशक से भी ज्यादा से उत्तरी दिल्ली में सब्जी बेच रहे हैं। वो बताते हैं, ‘इतने सालों में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इन दिनों कोई भी आकर हमसे पहचान पत्र मांग लेता है इसलिए हम लोग आधार कार्ड साथ में ही रखने लगे हैं। हम लोगों का नाम देख कर तो लोग कुछ नहीं कहते लेकिन मुस्लिम सब्जी वालों को लोगों ने गली में आने से मना कर दिया है। लाल बाघ में मेरे आस-पास जो मुस्लिम लोग रहते हैं, उनके लिए इन दिनों काम करना बहुत मुश्किल हो गया है।’

28 साल के बृजेश कुमार कहते हैं, ‘पहचान पत्र तो सभी से मांगा जा रहा है। हिंदू-मुस्लिम सब इससे परेशान हो रहे हैं। लेकिन हमें पहचान देखने के बाद कोई कुछ नहीं कहता जबकि मुस्लिम लोगों को लोग भगा देते हैं। ये जमातियों का जो मामला हुआ है उसके बाद ऐसा ज्यादा होने लगा है। लोग मुसलमानों से सामान खरीदना नहीं चाह रहे।’


फल-सब्जी वालों से उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव का यह मामला सिर्फ शास्त्री नगर तक ही सीमित नहीं है। पिछले तीन-चार दिनों में गुलाबी बाग, त्रिनगर, अंधा मुगल और आदर्श नगर जैसे कई इलाकों में ऐसी घटनाएं हुई हैं जब वहां फल-सब्जी बेचने वालों की मुस्लिम पहचान देखने के बाद उनके साथ बदसलूकी की गई और उन्हें इन इलाकों में दोबारा न आने की धमकी दी गई। 32 वर्षीय शिव सिंह कहते हैं, ‘गुलाबी बागमें तो मेरे सामने मोहल्ले में लाउड स्पीकर से यह घोषणा हुई कि अब से किसी भी मुस्लिम को यहां सब्जी-फल बेचने के लिए नहीं आने दिया जाएगा।’

मुस्लिम फल-सब्जी विक्रेताओं के साथ हो रहे इस भेदभाव के पीछे का मुख्य कारण भी एक वीडियो ही है। इस वीडियो में दिख रहा है कि एक मुस्लिम व्यक्ति अपने अंगूठों पर बार-बार थूक लगाकर फल रख रहा है।दैनिक भास्कर ने जब इस वीडियो की पड़ताल की थी तोपता चला था कि यह वीडियो मध्य प्रदेश के रायसेन का है और इसमें दिखाई दे रहेशख्स का नाम शेरू मियां हैं। जगह और नाम सामने आने के बाद मध्य प्रदेश पुलिस ने 3 अप्रैल को शेरू मियां के खिलाफ धारा 269 और 270 के तहत एफआईआर दर्ज की। ये दोनों धाराएं किसी बीमारी को फैलाने के आरोप में लगाई जाती है। हालांकि भास्कर की पड़ताल में यह भी पता चला था कि यह वीडियो करीब 2 महीने से ज्यादा पुराना है, जैसा कि वीडियो में देखा भी जा सकता है कि शख्स ने ठंड के दिनों में जैकेट डाल रखा है।

भास्कर ने जब शेरू खान की बेटी से इस बारे में बात की थी तो उनका कहना थाकि उनके पिता की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। हालांकि इसके बावजूदयह कहते हुए इस वीडियो को वायरल किया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय के लोग कोरोना संक्रमण को फैलाने के लिए फल-सब्जियों में थूक कर बेच रहे हैं। नतीजा ये हुआ कि उस वायरल वीडियो और उससे जुड़ी अफवाहों का खामियाजा अब देश भर के न जाने कितने मुस्लिम फल-सब्जी विक्रेताओं को बेवजह भुगतना पड़ रहा है। दिल्ली के इन तमाम विक्रेताओं के अलावा गुरुग्राम, उत्तराखंड, झारखंड और देश के कुछ अन्य हिस्सों से भी ऐसी खबरें सामने आई हैं, जहां मुस्लिम समुदाय के फल-सब्जी विक्रेताओं के साथ बदसलूकी या मारपीट की गई है।



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सफेद तोलिये से मुंह बांधे खड़े मोहम्मद सलमान उत्तरी दिल्ली में फल बेचते हैं। सलमान कहते हैं- 'हमारी रोजी इन फलों से चलती है और लोग हमें गालियां देकर जा रहे हैं कि तुम फलों में थूक लगाकर फल बेच रहे हो। भला हम ऐसा घटिया काम क्यों करेंगे?'




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काेरोना से लड़ने के लिए बने राष्ट्रीय टास्क फोर्स

भाजपा ने 2019 के चुनाव से पहले अपने अभियान में एक सवाल उठाया था कि ‘मोदी के सामने कौन’? इससे भाजपा इस चुनाव को एक तरह से राष्ट्रपति चुनाव जैसा बनाने में सफल रही थी और बंटे हुए विपक्ष के पास इसका कोई जवाब नहीं था। अब करीब एक साल बाद कोविड-19 ने भविष्य में नेतृत्व के विकल्पों की झलक दिखाई है।

काेरोना से लड़ाई में 28 राज्यों के मुख्यमंत्री और आठ केंद्र शासित प्रदेश अग्रिम मोर्चे पर हैं। आजादी के बाद कभी भी पूरे देश में ऐसी इमर्जेंसी जैसी स्थिति नहीं बनी, जिसने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और प्रशासन को इस तरह से खड़े होने के लिए मजबूर किया हो। पूर्व में बाढ़ से लेकर सूखे तक और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी कुछ ही राज्यों तक सीमित रही हैं। यह संकट बता रहा है कि वास्तविक सत्ता और जिम्मेदारी दिल्ली में नहीं राज्यों की राजधानियों में है। एक मोदी केंद्रित राजनीतिक दुनिया को आखिर विभिन्न नेताओं के वजूद को स्वीकारना ही पड़ा है।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का ही उदाहरण लें। अपने पिता की तरह आकर्षण व कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं होने की वजह से उन्हें एक एक्सीडेंटल मुख्यमंत्री समझा जा रहा था। छह महीने से भी कम समय में वह कोरोना से लड़ाई में महाराष्ट्र का चेहरा बन गए हैं। उन्होंने वायरस के प्रसार को सांप्रदायिक रंग देने की किसी भी कोशिश के प्रति कड़ी चेतावनी दी है। यह नहीं भूलें कि मुंबई पुलिस ने मार्च के शुरू में मुंबई के पास तब्लीगी जमात के सम्मेलन की अनुमति नहीं दी थी, जबकि दिल्ली पुलिस अपना कर्तव्य नहीं निभा सकी।

मुंबई में काेरोना पीड़ितों की संख्या अधिक होने की बड़ी वजह अधिक जांच और देश-विदेश से आने वाले लोगों की अधिक संख्या होना है। अब केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन को ही लें। इस संकट ने उन्हें प्रशासन पर मजबूत पकड़ वाले नेता की तरह उभारा है। फिर चाहे वह गरीबों के लिए आर्थिक पैकेज की बात हो या हॉटस्पॉट बने राज्यों में जांच सुविधाएं स्थापित करने का मसला या फिर लॉकडाउन लागू करना हो, वह इन सबमें नेशनल एजेंडे से आगे हैं।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रवासी श्रमिक फसल के मौसम में खेतों में ही रहें, विशेष प्रयास किए और आर्थिक मदद दी। उत्तर प्रदेश मंे योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने दैनिक वेतनभोगी मजदूरों और सीमांत किसानों के लिए आय की गारंटी का भरोसा दिया। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने पूरी तरह सुसज्जित व बड़ा कोविड अस्पताल बनाने की योजना को लागू किया।

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने अतिरिक्त राशन दिया और राजस्थान में अशोक गहलोत ने भीलवाड़ा में आपदा को नियंत्रित किया। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने बड़े पैमाने पर जांच शुरू की और अस्पतालों में सुविधाएं जुटाईं। असम में सोनोवाल सरकार ने तेजी से मेडिकल तैयारियां कीं और बंगाल में ममता बनर्जी ने सुफलबांग्ला योजना से सब्जियों की कीमतों पर नियंत्रण रखा।

कोरोना के दौर में मुख्यमंत्रियों की इन्हीं भूमिकाओं की वजह से केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से कायम करने की जरूरत महसूस की गई। दिल्ली बेहतर जानती है कि उसके रुख से अफसरशाही और राजनीतिक व्यवस्था में फैसले लेने की केंद्रीयकृत व्यवस्था बन रही है। लेकिन, कोरोना के युद्ध जैसे हालात में काम करने के तरीके में मूलभूत बदलाव व सभी साझेदारों से चर्चा की जरूरत होती है, जिसमें आपसी सहयोग की वजह से फोकस व्यक्ति विशेष से हटकर सामूहिक प्रयासों पर हो जाता है। इस समय एक ऐसी राष्ट्रीय टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और आईसीएमआर को राज्य सरकारों व स्थानीय संस्थानों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। इस समय सभी चीजों को तेज किए जाने की जरूरत है।

यहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दखल देकर रास्ता दिखाने की जरूरत है। मुख्यमंत्री रहते राज्य सरकाराें की स्वायत्ता से समझौते के आरोप लगाने वाले मोदी ने मुख्यमंत्रियों के साथ पहली बैठक 20 मार्च को की। जब प्रधानमंत्री ने नौ मिनट लाइट बंद करने की अपील की तो किसी भी मुख्यमंत्री या बिजली मंत्री को भरोसे में नहीं लिया गया। जब वित्तीय पैकेज की घोषणा हुई ताे भी राज्यों के साथ बात की कोशिश नहीं हुई। कुछ दिनोंसे ही प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं से कोरोना पर चर्चा शुरू की है, जबकि यह पहले होना चाहिए। यही समय है कि प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्रियों, विपक्षी नेताओंव विशेषज्ञों को मिलाकर काेरोना से लड़ने के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स बनानी चाहिए।

पुनश्च: गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने लाॅकडाउन को पूर्ण बंदी के रूप में लेते हुए सब कुछ बंद कर दिया, जिससे राज्य में जरूरी चीजों के लिए अराजकता सी पैदा हो गई। जब उन्होंने राशन की दुकानों को खोला तो भी इस चेतावनी के साथ कि अब वायरस फैलने का दोष मुझे मत देना। सभी भारतीयाें की तरह इस कोरोना संकट में गोवा के लोगों को भी एक बुद्धिमान व सहानुभूति रखने वाले नेतृत्व की जरूरत है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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National task force formed to fight Carona




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कोरोना से सर्वाधिक प्रभावित इस परित्यक्त वर्ग पर दें ध्यान

संकट के समय कुछ लोग इसलिए मदद से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि वे सामाजिक सीढ़ी के किसी भी पायदान पर नहीं दिखते। यही कारण है कि संकट तो उन्हें लील लेता है, लेकिन उनकी गुमनामी की वजह से शायद ही किसी को फर्क पड़ता हो। समाज के ऐसे परित्यक्त वर्ग में लगभग 40 लाख कूड़ा बीनने वाले हैं।

कोरोना के खतरे ने भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। ऐसे संकट में समर्थ और संभ्रांत वर्ग ने अपने को घरों में डिसइन्फेक्टेंट छिड़कते हुए कैद होकर टीवी से चिपका लिया है। लेकिन, अगर खिड़की खोलकर देखें तो पता चलेगा कि पांच साल से 50 साल तक के जो औरत, बच्चे और बूढ़े कूड़ा बीनकर रोटी कमाते थे, वे एक नए संकट में हैं।

घरों में होने के कारण लोगों ने प्लास्टिक की पानी की बोतलें सड़कों या वहां रखे कूड़ेदानों में फेंकना बंद कर दिया है। अन्य कूड़ा भी कम ही निकल रहा है। लिहाज़ा, शाम तक चंद सिक्कों की तलाश में अपने को कोरोना जैसे राक्षस के सामने प्रस्तुत करने के बावजूद ये भूखे पेट सो रहे हैं। चूंकि ये निर्माण मजदूर की श्रेणी में नहीं आते, लिहाज़ा सरकारी भोजन और मदद भी इनकी तरफ नहीं आती।

दिल्ली जैसे स्टेशनों पर जब ट्रेनें ‘यात्री शून्य’ हो जाती थीं तो ये समोसे, बिस्कुट के छोड़े गए पैकेट या पानी की खाली बोतलें बीनकर शाम की रोटी का बंदोबस्त कर लेते थे, पर आजकल यह भी बंद है। आज जरूरत है सरकार और चैरिटी वाली संस्थाएं इनकी ओर भी रुख करें, क्योंकि इनके पास तो जाने के लिए गांव तक नहीं है और न ही इन्हें कोई क्वारैंटाइन में रखकर खाना देने की सोच रहा है।

यहां दो किस्म के संकट हैं। एक तो सरकारी तौर पर कभी भी उनकी गणना या पहचान नहीं हुई और दूसरा वे बाहर निकलते रहे तो इस महामारी को और बढ़ावा मिलेगा। लेकिन, उन्हें घर पर रहने को मजबूर किया गया और वह भी बगैर किसी सरकारी या स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद के तो वे भूख के कारण मरने की हालत में पहुंच जाएंगे। यह भी हो सकता है कि इस संकट में जिंदा रहने के लिए घरों में चोरी या अनाज व खाना छीनने को मजबूर हो जाएं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए एक कलंक की तरह होगा।



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Pay attention to this abandoned class most affected by Corona




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यह दौर स्वयं का अध्ययन करने का भी है

जैसे बिजली की खपत के बाद उसका बिल चुकाना पड़ता है, लॉकडाउन के बाद भी कुछ बातों का बिल आएगा। कोरोना कोई सपना नहीं है कि नींद खुली और गायब हो जाए। अभी कहर बनकर टूटा है तो आगे धीरे-धीरे पीड़ा बनकर सरकेगा। सरकारी तंत्र क्या-क्या कर लेगा? उसमें जितनी ताकत थी, उसने झोंक दी। इस दौरान दो तरह के लोग नजर आए।

एक परपीड़क और दूसरे स्वपीड़क। परपीड़क वो जो दूसरों को तकलीफ देकर खुश हो जाते हैं या इतने मूूर्ख होते हैं कि जानते भी नहीं कि उनकी नादानी से दूसरों को कितनी पीड़ा पहुंचेगी। दूसरा वर्ग है स्वपीड़क का। इन्हें खुद को ही तकलीफ देने में आनंद आता है। इनमें अधिकांश लोग वो थे जो घरों में बंद थे। पता नहीं क्या-क्या किया होगा उन्होंने इस दौरान? मजबूरी, दबाव, चिड़चिड़ापन... ऐसा करके खुद को पीड़ा पहुंचाई।

लेकिन, तैयार रहिए। दोनों को इस स्थिति से बाहर आना है।

यह दौर स्वपीड़क होने का नहीं, स्वाध्यायी होने का है। स्वाध्यायी मतलब जो स्वयं का आध्ययन कर ले। इन दिनों जितना स्वयं का अध्ययन कर लेंगे, उतना ही समझ में आ जाएगा कि आगे आने वाली अशांति का कारण आप ही होंगे और भविष्य में मिलने वाली शांति का कारण भी आप ही रहेंगे। इस बात को आप जितने अच्छे से अपने मन में बिठा लेंगे, आत्मविश्वास उतना जागेगा। और अब आत्मविश्वास ही काम आएगा, क्योंकि आर्थिक, सामाजिक हर मोर्चे पर एक चुनौती बिल लेकर आने वाली है जो कि हमें चुकाना भी पड़ेगा।



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This is also the time to study yourself




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हमारी सोच से शरीर की हर कोशिका होती है प्रभावित

आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण बात है कोरोना वायरस को ब्रेकडाउन करना और यह हमें करना है। हम सबसे ज्यादा मैसेजेस ये कर रहे हैं कि हाथ धोना है, दूर रहना है, घर साफ रखना है। लेकिन, इन सब में सबसे ऊपर रखिए कि हमें सही सोचना है। हम घर को साफ कर लेंगे, लेकिन अगर उस घर में घबराहट, चिंता और डर होगा तो हम उसे साफ नहीं कह सकते हैं। उसमें जो भी प्रवेश करेगा, उस पर भी उसका असर पड़ेगा। इसलिए अपने करने की लिस्ट में, अपनी सावधानी की लिस्ट में ‘थिंक राइट’ को सबसे ऊपर रखें।

हाथ को बार-बार साफ करना महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही मन को भी लगातार साफ रखना, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। हाथ धोना तो आसान होता है। यह छोटे से बच्चे को भी सिखा देते हैं तो वो बच्चा आकर मम्मी-पापा को याद दिलाता है कि हाथ धोना है। मन को साफ रखना है ये हमें खुद को, घर वालों को और आसपास के सभी लोगों को बार-बार समझाना पड़ेगा। क्योंकि हमारे मन की स्थिति का असर किस-किस पर पड़ रहा है, हमारी हर सोच सबसे पहले हमारी भावनाओं पर असर करती है।

अगर हमने सोचा कि वायरस इतना फैल रहा है, आज 400 लोगों को हो गया। इस एक सूचना से हम अपने आसपास भय वाली परिस्थितियां बना रहे हैं। जैसी हमारी सोच होगी वैसा ही हमें महसूस होगा। हमें तो ये भी नहीं पता होता कि विचार हम ही पैदा कर रहे हैं। दूसरा हमारी हर सोच हमारे शरीर के एक-एक अंग पर जा रही है। मेडिकल साइंस भी कहता है कि हमारी हर सोच का प्रभाव हमारे शरीर की हर कोशिका पर पड़ता है।

अब हमने बैठे-बैठे हजार प्रकार से सोच लिया। हमने सोचा कि हम किसी चीज से बच रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा न हो कि हम कुछ और ही बीमारी खड़ी कर दें। अभी तो कोरोना को ठीक होने में थोड़ा समय लगेगा और यह 100% जाएगा। हमारे शरीर में हमें नहीं पता कि कौन सा अंग कमजोर है। किसी का हाथ कमजोर है, किसी का निचला हिस्सा थोड़ा सा कमजोर है, किसी की रीढ़ थोड़ी सी कमजोर है। जब लगातार भय और चिंता की बातें होंगी तो शरीर के कमजोर अंग पर उसका असर पड़ जाएगा, क्योंकि हममें से बहुत लोगों की बीमारियां बॉर्डर लाइन पर चल रही हैं।

एक महीना अगर कोई डर में भी रहे तो ज्यादा नुकसान नहीं होगा। लेकिन, कोई बॉर्डर लाइन पर चलता हुआ एक महीना डर में रहे तो हमारे शरीर में इसे सहन करने की ताकत नहीं है। तीसरा, हमारी हर सोच लोगों तक पहुंच रही है। वायरस से बचने के लिए हम लोगों से दूर हो सकते हैं। जो हम सबने कर लिया है। लेकिन घर में बंद होने से हम किसी की सोच और तरंगों से बच नहीं सकते हैं। अगर कोई पड़ोस में भी डर और चिंता का वातावरण बना रहा है तो उसका तरंग प्रभाव हमारे घर के अंदर आ जाता है।

हम क्यों अपने आपको 14 दिन क्वारेंटाइन कर रहे हैं? अगर हमें ये बीमारी है तो हमें लोगों से दूर हो जाना चाहिए। ताकि मेरी वजह से किसी और को न हो जाए। लेकिन, क्वारेंटाइन मन के अंदर भी होना चाहिए कि मेरे डर की वजह से किसी के अंदर डर उत्पन्न नहीं होना चाहिए। उसके लिए हमें अपने आपको मन के अंदर जांचना होगा। उसके लिए हम किसी से दूर नहीं जा सकते। लेकिन, सबके बीच बैठे हुए ही सोचना पड़ेगा।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

भारत की स्वतंत्रता के पहले मेहबूब खान की फिल्म ‘रोटी’ का कथासार कुछ यूं है कि एक धनवान की हवेली के निकट उसका हमशक्ल भिखारी बैठा होता है। उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी के कारण वह पहचाना नहीं जाता। धनवान व्यक्ति अपने व्यक्तिगत टू सीटर टाइगर मॉथ हवाईजहाज से असम जाता है। यह दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है।

हमशक्ल भिखारी अपना हुलिया दुरुस्त कर धनवान की जगह ले लेता है। किसी को शक भी नहीं होता। वह अपने बच जाने की मनगढ़ंत कहानी सुना देता है वह उस जहाज में गया ही नहीं। धनवान सेठ सचमुच ‘आसमान’ से गिरकर खजूर में जा अटके’ की तरह बच जाता है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे इसी तरह बच गए थे। अफसाने और हकीकत इसी तरह गलबहियां करते हैं। धनवान यात्रा करने की स्थिति में नहीं है। अत: वह खत लिखकर एक जनजाति के युवा को शहर भेजता है।

यह भूमिका शेख मुुख्तार ने अभिनीत की थी। रेलगाड़ी द्वारा यात्रा में वह ‘हिंदू चाय’ पीता है, दूसरा व्यक्ति ‘मुस्लिम चाय’ बेच रहा है। वह इसे भी पीता है और दोनों से कहता है कि एक ही चीज दो नाम से बेचकर ठगते हो? यह व्यवस्था अंग्रेजों ने ‘बांटो और शासन करो’ नीति के तहत की थी। अंग्रेज जा चुके हैं, परंतु हमारी व्यवस्था आज भी बांटकर शासन कर रही है।

मनमोहन देसाई ने भी राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म ‘रोटी’ बनाई थी, परंतुु कथा का मेहबूब खान की फिल्म से कोई संबंध नहीं था। मेहबूब खान की ‘रोटी’ के क्लाइमैक्स में पोल खुलने के बाद हमशक्ल व्यक्ति कार में सोने के बिस्कुट भरकर भाग रहा है। एक मोड़ पर उसकी कार पलट जाती है। उसका सारा शरीर सोने से ढंका है। वह उठ नहीं सकता। इस निर्जन स्थान पर वह रोटी मांगता है। भूख सभी को लगती है। रोटी सभी की आवश्यकता है।

ईरान की एक कथा इस तरह है किसी परिवार में मृत्यु होती है तो दस दिन उस परिवार में चूल्हा नहीं जलाया जाता। पड़ोसी भोजन भेजते हैं। पड़ोसियों की आय अधिक है, इसलिए वहां से स्वादिष्ट भोजन आता है। कालांतर में इसी परिवार का एक और सदस्य बीमार पड़ता है तो अबोध मां से पूछता है बीमार कब मरेगा। वह स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए इस तरह की बात करता है। बच्चे मृत्यु का अर्थ नहीं जानते।

राज कपूर की आवारा में नायक जेल जाता है। जेल में मिली रोटी को देखकर कहता है, कम्बख्त रोटी बाहर मिली होती तो वह जेल के अंदर क्यों आता? सारांश यह है जद्दोजहद रोटी के लिए की जाती है। कहते हैं पापी पेट जो न कराए, वह कम है। भूख कई तरह की होती है, जिसमें अपनी प्रशंसा पाने की भूख भयावह होती है। कुछ लोग तालियों की गिजा पर पलते हैं। एक दौर में जितेंद्र ने दक्षिण भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में अभिनय किया है। कुछ वर्षों बाद अपनी सफल पारी खेलकर वह मुुंबई लौटा। और अरसे बाद दाल-रोटी खाई तो उसे संतोष हुआ।

कोरोना कालखंड में संस्थाएं गरीबों को भोजन मुहैया करा रही हैं। किसी भी देश में भूख से मृत्यु पूरी मानवता के लिए शर्म की बात है। शैलेंद्र ने 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मुसाफिर’ के लिए गीत लिखा था। गीत का एक हिस्सा इस तरह है- एक दिन मुुन्ना मां से बोला क्यों फूंकती हो चूल्हा, क्यों न रोटियों का पेड़ लगा लें, रोटी तोड़ें, आप तोड़ें, रोटी आप खा लें’। शैलेंद्र रचित अन्य गीत है, ‘सूरज जरा पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम, ऐ आसमान, तू बड़ा मेहरबां, आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम, चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है, गरमागरम रोटियां कितना हसीन ख्वाब है, आलू टमाटर का साग, इमली की चटनी बने, रोटी करारी सिके, घी उस पे असली लगे।

संघर्ष के दिनों में धर्मेंद्र को बहुत भूख लगी। कमरे में रहने वाले साथी का ईसबगोल का पूरा डिब्बा वे पानी में घोलकर पी गए। अगले दिन उन्हें दस्त लगे। उनका मित्र उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। सारी बात जानकर डॉक्टर ने कहा इसे दवा की नहीं रोटी की जरूरत है। कोरोना कालखंड में सामाजिक संस्थाएं घर-घर अनाज पहुंचा रही हैं। इस बात का ख्याल रखा जा रहा है भूख से कोई न मरे। कुछ प्रयास मात्र कागजी हैं। याद आती है बाबा नागार्जुन की कविता जो इस तरह है- ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास, कई दिनों तक लगी भीत (दीवार) पर छिपकलियों की गश्तें, कई दिनों तक चूहों की भी सतत रही शिकस्त, दाने आए घर के अंदर कई दिनों बाद, धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों बाद, चमक उठी घरभर की आंखें कई दिनों बाद, कौवे ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।



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काम की प्रक्रिया में बड़े बदलाव आने वाले हैं

जयपुर में एक निजी अस्पताल के डॉक्टर कुछ दिनों के लिए उसी बिल्डिंग के फ्लैट में शिफ्ट हो गए हैं, जहां उनका घर है, ताकि उनकी पत्नी और बच्चे उनके संपर्क में आए बिना उनकी मौजूदगी महसूस कर सकें। वे दो हफ्तों से नहीं मिले हैं। उन्होंने खुद को अपने परिवार और पड़ोसियों से दूर कर लिया है। वे 24 मार्च से सहयोगियों के अलावा किसी से नहीं मिले हैं। जाहिर है, उन जैसे लोगों के लिए ये मानसिक रूप से थका देने वाला हो सकता है क्योंकि उन्हें अपनी ही बिल्डिंग में खुद का घर छोड़कर एक अलग मंजिल पर जाना पड़ रहा है।

जहां आप और मेरे जैसे पेशेवर लोग कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में डब्ल्यूएफएच (WFH) के न्यू नॉर्मल के लिए तैयार हो रहे हैं, वहीं कोरोना वायरस के खिलाफ इस लड़ाई की अगुआई कर रहे कई डॉक्टर्स और स्वास्थ्य कर्मचारियों को जबरदस्ती काम करने के नए तरीके को अपनाना पड़ रहा है- WAFH (वर्क अवे फ्रॉम होम) यानी घर से दूर रहकर काम करना। इन दो अलग-अलग छोरों के बीच कुछ ऐसे भी हैं, जो घर से भी और घर से दूर रहते हुए भी काम करते हैं (वर्क फ्रॉम एंड अवे फ्रॉम होम यानी WF&AFH)।
पुणे के बीजे मेडिकल कॉलेज में माइक्रोबायोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर सुवर्णा जोशी ऐसा ही कर रही हैं। 52 वर्षीय सुवर्णा ससून हॉस्पिटल से जुड़ी कॉलेज की नई लैब में रोज 14 घंटे कोरोना संबंधी सैंपल का परीक्षण करती हैं। वह घर पर केवल 8 घंटे बिताती हैं, फिर भी 94 वर्षीय सास की देखभाल करने के लिए अधिक से अधिक समय निकाल लेती हैं, जो 10 साल से बिस्तर पर हैं। सुवर्णा सुबह 4.30 बजे उठती हैं, सास को नहलाती हैं, क्योंकि लॉकडाउन के कारण केयरटेकर घर नहीं आ पाती है, फिर खुद तैयार होती हैं। नाश्ता बनाती हैं और 7.30 बजे तक लैब पहुंच जाती हैं।

19 मार्च से ससून अस्पताल की लैब को परीक्षण की मंजूरी मिली, जोशी और अन्य कर्मचारियों ने काम से एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है, क्योंकि काम का दबाव बढ़ता जा रहा है। लगभग 14 घंटे काम करने के बाद, वे 9.30 बजे लैब से निकलती हैं, कभी-कभी रात के 10 भी बज जाते हैं। चूंकि उनके लिए परिवार की सुरक्षा सबसे ऊपर है, क्योंकि वे सीधे वायरस से निपट रही हैं, इसलिए वे दरवाजे की घंटी भी नहीं बजातीं, सिक्योरिटी गार्ड घंटी बजाता है। घर में घुसने के तुरंत बाद वे स्नान करती हैं, अपने कपड़ों को कीटाणुनाशक से गर्म पानी में धोती हैं और फिर अगले दिन का खाना बनाने के लिए रसोई में जाती हैं। इस बीच, उनके पति दिनभर अपनी मां की देखभाल करते हैं। सुवर्णा ने 25 वर्षों तक संक्रामक रोगों पर काम किया है और 1995 के प्लेग प्रकोप, सार्स, एंथ्रेक्स, एचआईएनआई के दौरान भी इससे जुड़ी रही हैं। और अब कोरोना वायरस के लिए काम कर रही हैं।
उनका काम है वे चिकित्सा सहायता प्रदान करें और 1,000 ग्रामीणों के स्वास्थ्य की निगरानी करें, इसलिए ‘मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता’ (आशा कार्यकर्ता) 45 वर्षीय सुमन रामचंद्र ढेबे मार्च के तीसरे सप्ताह से पुणे के पास वेल्हे तालुका के दूरदराज और पहाड़ी इलाकों से होते हुए 10 किमी की दूरी तय करती हैं। उनकी प्राथमिकता है वे बुखार या खांसी जैसे लक्षणों वाले नए मामलों या रोगियों की पहचान करें और तुरंत अफसरों को इसकी जानकारी दें। ढेबे, जो पांच बच्चों की मां हैं, 2012 से आशा कार्यकर्ता हैं।

8 साल की सेवा में गांवों के लोग उन्हें ‘डॉक्टर बाई’ कहते हैं। ये किसान की पत्नी, सुबह 8 बजे निकल जाती हैं, रोजमर्रा का काम करती हैं, प्राथमिक चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने के साथ गांव वालों का मनोबल भी बढ़ाती हैं। फंडा यह है हम में से अधिकांश WFH कर रहे हैं, अधिकतर डॉक्टर WAFH कर रहे हैं और कुछ लोग घर पर रहकर भी घर से दूर काम (WF&AFH) कर रहे हैं। इसका मतलब है कि काम करने की प्रक्रियाओं में बड़े बदलाव आने वाले हैं।



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जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में कोरोना पॉजिटिव मरीजों का इलाज कर रही डॉक्टरों की टीम।




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भोपाल के कब्रिस्तानों में जनाजों की संख्या दोगुनी, काशी के मणिकर्णिका घाट पर शवों का दाह संस्कार सात गुना घटा

भोपाल में कोरोना से अब तक 1 शख्स की मौत हुई है,लेकिन अप्रैल के पहले 6 दिनों में यहां मुस्लिम समाज में मौत की दर अचानक बढ़गई है। शहर के दो बड़े कब्रिस्तानों में मार्च के महीने में 213 शवों को दफनाया गया था।यानी यहां हर दिन करीब 7 शव दफनाए गए लेकिन अप्रैल के शुरुआती 6 दिनों में ही यहां 93 शव पहुंच गए। यानी अबहर दिन 15 शव दफनाए जा रहे हैं। यह पिछले महीने की तुलना में दोगुना है।उधर, काशी के मणिकर्णिका घाट पर लॉकडाउन से पहले हर दिन करीब 100 शव दाह के लिए आते थे लेकिन अब इनकी संख्या 15-20 रह गई है।

कोरोनावायरस के चलते देशभर में अब तक 200 से ज्यादा मौतें हो गई हैं। इन्हें इलेक्ट्रिक या गैस वाले शवदाह गृह में ही जलाया जा रहा है। इस दौरान स्वास्थ्य विभाग की टीमें मौजूद रहती है। इस महामारी के अलावा जो लोग मर रहे हैं, उनके लिए भी शमशान और कब्रिस्तान में सतर्कता बरती जा रही है। कब्रिस्तानों में शव दफनाने के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग के लिए पर्चे लगाए गए हैं तोशमशान घाटों में दूर से ही शव के उपर लकड़ी सहित अन्य सामग्री रख दी जाती है।

भोपाल से सुमित पांडेय...
मध्यप्रदेश: भोपाल के कब्रिस्तानों में जनाजों की संख्या दोगुना से तीन गुना तक बढ़ गई
भोपाल के जहांगीराबाद कब्रिस्तान में 1 से 31 मार्च तक 39 शवों को दफनाया गया यानी हर दिन औसतन 1 शव दफनायागया, जबकि अप्रैल के शुरुआती 6 दिनों में ही यह 17 हो गए, यानी अब औसतन हर दिन 3 शव यहां पहुंच रहे हैं। ठीक इसी तरह सैफिया कॉलेज के पास वाले कब्रिस्तान में 1 से 31 मार्च तक 174 शव आए, यानी हर दिन औसतन 5 से 6 के बीच में शव आए जबकि अप्रैल के 6 दिनों में ही यहां 76 शवों को दफनाया गया यानी अब हर दिन 12 से ज्यादा शव यहां पहुंच रहे।

लखनऊसे आदित्य तिवारी और वाराणसी से अमित मुखर्जी...
उत्तरप्रदेश: बनारस में शवों की संख्या घटी, पहले हर दिन 100 आते थे, अब 15 शव आ रहे

वाराणसी में महा शमशान कहलाने वाले मणिकर्णिका घाट पर आम दिनों में पूर्वांचल, बिहार, झारखंड से रोज 80 से 100 शव दाह के लिए आते हैं। लॉकडाउन के बाद यह संख्या घटकर 15-20 रह गई है। यहां हरिश्चंद्र श्मशान घाट पर इलेक्ट्रिक दाह संस्कार भी किया जाता है और एक कोरोना पॉजिटिव की मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार यही किया गया था। कोरोना संक्रमित की मौत से पहले घाट को पूरी तरह खाली करवाया गया था और वहां सिर्फ स्वास्थ्य विभाग की टीम मौजूद थी।

काशी के मणिकर्णिका घाट पर आम दिनों में शव के दाह संस्कार के लिए घंटो इंतजार करना पड़ता है लेकिन लॉकडाउन के बाद से यहां 7 गुना तक शव कम आ रहे।

राजधानी लखनऊ में छोटे बड़े मिलाकर 22 कर्बला हैं। यहां फरवरी में 190 और मार्च में 167 शवों को दफनाया गया। इस महीने एक से आठ अप्रैल के बीच इन कब्रिस्तानों में 55 जनाजे पहुंचे हैं। सभी कर्बला के बाहर लोगों के जनाजे के साथ और कब्र पर नहीं आने की हिदायत देता पर्चा भी चिपकाया गया है।

जालंधरसे बलराज मोर...
पंजाब: घाट वाले कहते हैं- अस्थि ब्यास नदी में प्रवाहित कर दो, लेकिन लोग हरिद्वार ही जाना चाहते हैं
लॉकडाउन के चलते पंजाब के ज्यादातर इलाकों में अस्थियों का प्रवाह रुका हुआ है। इस कारण शहरों में शमशान घाट के अंदर सभी लॉकर अस्थियों से फुल हो गए हैं। कई जगहों पर श्मशान घाट में संस्कार के लिए लकड़ियों की कमी भी होने लगी है। श्मशान घाट कमेटी के सदस्य लोगों को ब्यास दरिया में अस्थियां प्रवाहित करने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अस्थियों को हरिद्वार ही ले जाना चाहते हैं।

पानीपत से मनोज कौशिक और चंडीगढ़ से आरती अग्निहोत्री...

हरियाणा: कोरोना पॉजिटिव का अंतिम संस्कार लकड़ियों से नहीं, अस्थियों के लॉकर फुल
चंडीगढ़ और मोहाली में इस महीने तीन कोरोना पॉजिटिव का संस्कार किया गया। शवदाह गृह के पंडित के मुताबिक, स्वास्थ्य विभाग की टीम ही एंबुलेंस में शव लाती है। वे सेफ्टी किट पहने होते हैं और वे ही लोग शव को बॉक्स में रखते हैं, हम तो सिर्फ स्विच ऑन करते हैं।

पंचकुला में एक लकड़ी वाला शमशान घाट है लेकिन कोरोना पॉजिटिव को इलेक्ट्रिक या गैस वाले गृह में ही जलाया जाता है। कर्फ्यू के कारण लोग अब मृत परिजनों की अस्थियां प्रवाहित करने नहीं जा पा रहे हैं। सेक्टर-25 में सभी 125 लॉकर्स फुल हैं, 60 नए भी बना दिए गए हैं। वहीं, मोहाली में 40 के करीब लॉकर्स हैं जो फुल हैं। इनके अलावा बोरियों में भरकर भी अस्थियां रखीं हुईं हैं।

जम्मू में पहली कोरोना संक्रमित पाई गई 61 साल की महिला की गुरुवार को मौत हो गई। दाह संस्कार के दौरान परिवार के कुछ लोगों के साथ स्वास्थ्य विभाग की टीम मौजूद थी।


रायपुर से सुमन पांडेय...

छत्तीसगढ़: ज्यादा लोगों को शव के साथ घाट में प्रवेश पर पाबंदी
रायपुर के बैनर बाजार क्रबिस्तान में भी दफनाने की दर अप्रैल में बढ़ गई है। यहां फरवरी में 4 और मार्च में 5 लोगों को दफनाया गया था लेकिन अप्रैल के शुरुआती 6 दिनों में ही यहां 5 शवों को दफनाया जा चुका है। कब्रिस्तान की देखरेख करने वाले जमील बताते हैं, “यहां आने वाली मैयत में ज्यादा लोगों को कब्रिस्तान में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। यहां आने वालो को दूर-दूर बैठने की हिदायत भी दी जाती है।”

रांची से ओमप्रताप...
झारखंड : सहमे हुए हैं शमशान घाट के कर्मचारी, शव आने पर पहले मौत का कारण पूछते हैं
रांची के सबसे बड़े हरमू, चुटिया मुक्तिधाम में दाह संस्कार कराने वाले पंडित और कर्मचारी कोरोना के चलते सहमे हुए हैं। मुक्तिधाम में दाह संस्कार कराने वाले राहुल राम कहते हैं, “शव आने पर सबसे पहले मौत का कारण पूछा जाता है। चिता सजाने के बाद जैसे ही पार्थिव शरीर को उस पर रखा जाता है, कर्मचारी दूर से ही लकड़ी सहित अन्य सामग्री रखते हैं, ताकि मृतक से किसी तरह का संक्रमण न फैले। 23 मार्च से 4 अप्रैल के बीच यहां 42 शव दाह संस्कार के लिए पहुंचे थे। 1 मार्च से 22 मार्च तक यह आंकड़ा 79 था।

पटना से आशुतोष रंजन...
बिहार : कोरोना पीड़ित की मौत पर 4 लाख मुआवजा, सामान्य मौत पर भी लोग जांच करवा रहे
बिहार सरकार कोरोनावायरस से मरने वालों के लिए चार लाख रुपए मुआवजे का ऐलान कर चुकी है। ऐसे में सामान्य मौत होने पर भी लोग अस्पताल प्रशासन पर कोरोना की जांच के लिए दबाव डाल रहे हैं। पटना के गांधी मैदान के पास वाले शमशान घाट पर जो लोग शव को जलाने के लिए आते हैं, उन्हें थोड़ी दूरी पर खड़ा रहने के लिए कहा जाता है। हर जगह सावधानी बरती जा रही है।



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फोटो इंदौर के महू नाका कब्रिस्तान का है। दैनिक भास्कर की ही एक रिपोर्ट में सामने आया था कि इंदौर में कोरोना प्रभावित इलाकों के 4 कब्रिस्तानों में मार्च में 130 जनाजे आए थे, लेकिन अप्रैल के 6 दिनों में ही यहां 127 शवों को दफनाया गया।




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कुछ छूटों के साथ जारी रह सकता है लॉकडाउन

जीवन बचाएं या आजीविका या फिर अगर संभव हो तो दोनों। इस कशमकश के बीच, प्रधानमंत्री कल मुख्यमंत्रियों से बात करेंगे। जिस तरह से रोगियों की संख्या व मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं, उसके आधार पर तो लॉकडाउन खोलना लगभग असंभव है। लेकिन, जीवन के साथ अर्थव्यवस्था का ठहरा पहिया भी अब चलाना चाहिए, ताकि आजीविका पर संकट न हो। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन की अभी तक खोज न होने के कारण फिलहाल केवल व्यक्ति-व्यक्ति के बीच दूरी और लॉकडाउन ही सामाजिक वैक्सीन का काम कर रही है।

सरकार का मानना था कि 3.8 व्यक्ति प्रति दस लाख आबादी की दर से इस संक्रमण का भारत में विस्तार अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। लेकिन उनकी खुशफहमी के उलट अगले 24 घंटों में यह आंकड़ा 5 का हो गया, क्योंकि टेस्टिंग बढ़ गई। बहरहाल केंद्र को यह भी देखना होगा कि कई वैश्विक संगठन और रिज़र्व बैंक ने भारत में भयंकर बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट की आशंका भी जाहिर की है। उधर एम्स के निदेशक का भी मानना है कि कोरोना से युद्ध अब अस्पतालों में नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर चेतना विकसित करके ही लड़ा जा सकता है।

दरअसल, कई राज्यों में इस महामारी के सामुदायिक संक्रमण की रिपोर्ट आने के बाद केंद्र ने इसके फैलाव को रोकने के लिए हॉटस्पॉट चिह्नित करने और उसे पूरी तरह बाकी समाज से काट देने की नीति बनाई है। दूसरी ओर, देश की 67 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। उसके लिए संकट है कि रबी की फसल अगर समय पर नहीं काटी गई या अनाज मंडियों या सरकारी क्रय केंद्रों में न खरीदा गया तो इस वर्ग की विपन्नता भयावह स्तर पर पहुंच जाएगी।

केंद्र सरकार पर इस बात का भी दबाव है कि कुछ समय के लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून को ख़त्म किया जाए, ताकि किसान अपना उत्पाद घर के नजदीक ही अस्थायी मंडियों में बेच सकें। अगर केंद्र सरकार ने कुछ क्षेत्रों में बड़ी औद्योगिक इकाइयों को चालू करने की इजाजत दी तो किसानों की मांग भी माननी होगी। सामाजिक दूरी के नियमों का अनुपालन कराते हुए किसानों को यह छूट दी जा सकती है कि राज्य सरकारें ब्लॉक स्तर पर नई मंडियां बनाकर किसानों की फसल खरीदना शुरू करें। कुल मिलकर उम्मीद है कि लॉकडाउन जारी रहेगा, लेकिन कुछ आर्थिक गतिविधियों के लिए छूट दी जा सकती है।



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Lockdown may continue with some exemptions




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राम की सेना समान हैं सेवा में लगे लोग

कोरोना के लॉकडाउन के दौरान तीन तरह के लोग पिछले दिनों घरों से बाहर नजर आए। एक वो जो नादानी कर रहे थे, यानी समाज के दुश्मन। दूसरे किसी न किसी मजबूरी में बाहर थे और तीसरा वर्ग वह जो मानवता की सेवा में लगा था। उनको तो खूब प्रणाम करना चाहिए। ये वे लोग हैं, जिनके कारण भारत कोरोना से जीत पाएगा। इनका परिचय हमें राम की भाषा में कराना चाहिए।

श्रीराम जब रावण को जीतकर अयोध्या लौटे और गुरु वशिष्ठ को वानरों का परिचय जिस भाषा में दिया, वह सम्मान इन लोगों को मिलना चाहिए। ‘एक सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ हेरे’।। श्री राम ने कहा था- गुरुदेव, ये सब मेरे सखा हैं और संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए जहाज बने हुए थे। आगे कहते हैं- ‘मम हित लागि जन्म इन्ह हारे’। मेरे लिए इन्होंने अपने प्राण तक दांव पर लगा दिए। सचमुच बड़ी संख्या में देश में ऐसे लोगों ने पुिलस, डॉक्टर, मीडिया, समाजसेवी और भी अलग-अलग रूपों में काम किया।

देखिए, चंद ही लोग होते हैं जिनका साहस, जिनकी विशेषता सफलता दिलाती है। किसी चमत्कार पर अब भी भरोसा मत रखना। यदि चमत्कार ही करना होता तो कृष्ण ने पांडव अपने साथ क्यों रखे होते। राम ने वानरों के साथ मिलकर सेतु क्यों बनाया होता? हमारे यहां जितने महापुरुष हुए उन्होंने कहा है- मैं तो भरोसे और कृपा के रूप में आपके साथ हूं। परिणाम आपका पुरुषार्थ, आपका पारिश्रम ही देगा। धीरे-धीरे हम उस दौर में प्रवेश करेंगे, जहां पुरुषार्थ ही सहारा होगा।



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People in service are the same as Ram's army




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बिजनेस और नौकरियां बचाने व टैक्स घटाने की जरूरत

जब नाटक की बात आती है तो प्रधानमंत्री आश्चर्यजनक हैं। उनमें एक चतुर इवेंट मैनेजर की प्रवृत्ति है और वह किसी संकट का इस्तेमाल भी अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए कर सकते हैं। लेकिन, क्या वह कोविड-19 के संकट को हल कर पाएंगे? वह एक अविश्वसनीय व्यक्ति हैं। दो रविवार पहले जब हजारों भूखे, बेरोजगार प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव के लिए पैदल जा रहे थे तो प्रधानमंत्री ने हमसे अपनी बालकनी पर खड़े होकर पूरे पांच मिनट तक थाली बजाने के लिए कहा। उद्देश्य था कोविड-19 से लड़ाई में शामिल स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति अभार व्यक्त करना। यह एक ‘ताली बजाओ, थाली बजाओ’ इवेंट था। मुझे उस दिन की स्पष्ट याद है। घर पर क्वारेंटाइन की शांति शाम पांच बजे उनके भक्तों के जुगाड़ी ऑर्केस्ट्रा के कोलाहल से भंग हो गई थी। इस शोर से आसपास रहने वाले गली के कुत्ते और बिल्लियां डर गए और भाग गए। कुछ आज भी वापस नहीं आए हैं। मैं जानता हूं। मैं उन्हें खाना खिलाता था।

इससे प्रभावित होकर प्रधानमंत्री ने अपने अगले बड़े कदम की घोषणा कर दी थी- पिछले रविवार को बत्ती बुझाओ, दीया जलाओ। इस बार लोगों से 5 अप्रैल (कुल जोड़ 9) को रात को 9 बजे 9 मिनट के लिए घर की लाइटें बंद करके उनकी जगह दीया या मोमबत्ती जलाने के लिए कहा गया। क्यों? बेवकूफ कोविड-19 को यह दिखाने के लिए कि उससे 4000 से अधिक भारतीय संक्रमित हैं, सौ से अधिक मर चुके हैं, क्योंकि टेस्टिंग किट आमतौर पर उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हम डरे नहीं हैं, हम 130 करोड़ लोग एक हैं और इससे लड़ने को तैयार हैं। और ज्योतिषीय आधार पर ताकतवर अंक 9 हमारी तरफ है, जैसे तेंदुलकर की जर्सी पर 10 नंबर था। बहुत सारे लोगों ने ध्यान नहीं दिया कि 5 अप्रैल को प्रधानमंत्री की पार्टी भाजपा की 40वीं वर्षगांठ भी थी। अगर ध्यान दिया भी हो तो वे चुप रहे।

भारत पिछले छह सालों से चुप है, जबकि उसने देश के कई पुराने संस्थानों को कमजोर होते और रूढ़िवाद को विज्ञान पर तरजीह मिलते देखा है। कोविड-19 ट्रम्प के कार्यक्रम पर होने वाले मामूली खर्च (डेढ़ करोड़ रुपए प्रति मिनट) को नहीं रोक सका, जहां पर अमेरिकी राष्ट्रपति से वादा किया गया था कि दस लाख लोग उनका स्वागत करेंगे या जैसा ट्रम्प ने दावा किया। इस दो दिन की यात्रा में क्या हुआ, कोई नहीं जानता, लेकिन अब सुना है कि ट्रम्प ने हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात के लिए हमारी बांह मरोड़ी है। इस दवा के निर्यात पर इसलिए रोक लगाई गई थी कि हमें इसकी जरूरत पड़ सकती है। कोविड-19 ने भाजपा को मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को गिराने से भी नहीं रोका।

मेरी नजर में असली समस्या यह है कि 21 दिन के लॉकडाउन के बाद क्या होता है। महामारी कोई रातोंरात खत्म नहीं होगी। न ही थाली पीटने या दीया जलाने से उसकी तीव्रता कम होगी। हमने देखा है कि वायरस प्रभावित शहर आसानी से शांत होने वाले नहीं हैं। और छोटे कस्बे व गांव अब भी बेरोजगार प्रवासियों से भरे हैं, जो खाली जेब घर लौटे हैं। वे आने वाले महीनों में कैसे गुजारा करेंगे? किसान बाजार में अपनी फसल कैसे बेचेंगे? ट्रक वाले कहां हैं? महंगा जरूरी सामान खरीदने के लिए पैसा कहां है? अधिकतर छोटे व्यापार बंद हैं। बड़े व्यापार भी ऑक्सीजन पर हैं। लाखों बेरोजगार हैं। इनमें कई और शामिल हो गए हैं। और अगर शहरों में नौकरियां शुरू भी हो जाती हैं, तो क्या ये लोग भीड़ वाले, वायरस संक्रमित शहरों में वापस जाएंगे, जिनमें कई अब आधिकारिक रूप से सील हैं? अगर वे ऐसा करते हैं तो क्या इससे वायरस के हमले का अगला दौर शुरू नहीं होगा?

इनका कोई तैयार जवाब नहीं है। कोई इसके बारे में देख भी नहीं रहा है। हम क्या देख रहे हैं कि एक सहानुभूति रखने वाली और प्रतिक्रिया देने वाली सरकार, जो भारी मानवीय आपदा का सामना करने के लिए तैयार है और लगातार समाधान मांग रही है, जिसमें कुछ असफल भी हो सकते हैं। शोमैनशिप दिखाने का समय खत्म हो गया है। यह समय ऐसे फैसले लेने का है, जिनसे इस आपदा से सर्वाधिक प्रभावित लोगों की मदद हो सके। राज्य अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अधिक समर्थन, अधिक धन और एक राष्ट्रीय हेल्थ केयर सिस्टम की जरूरत है। डॉक्टराें पर काम का अधिक बोझ है, देखभाल कर्मी तनाव में हैं। पर्याप्त निजी सुरक्षा उपकरण नहीं हैं। इनमें कई खुद बीमार हो रहे हैं।

इस समय मूल चीजोंपर ध्यान देने की जरूरत है। आज बिजनेस को बचाने और उनको खड़ा करने में मदद, नौकरियां बचाने, टैक्स घटाने, बैंकों से ऋण आसान बनाने, बुजुर्गों की बचत बचाने, पेंशन बढ़ाने, रुपए को संरक्षण की जरूरत है। जो हालात हैं, उनमें देश के घावों को भरने में बहुत समय लगेगा, लेकिन तैयारी शुरू होनी चाहिए। अन्यथा पहले से ही खराब अर्थव्यवस्था और बैठ जाएगी और फिर इसे ऊपर लाना दुष्कर हो जाएगा।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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Need to save business and jobs and reduce tax




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कोरोना के बाद हम सभी की जिंदगी में परिवर्तन होना तय

साधना शंकर (लेखिका). पिछले दो हफ्तों से अधिकांश दुनिया लॉकडाउन में है। कई बार अपनी खिड़की के सामने खड़े होकर मैं बाहर देखती हूं। कभी कोई बस या कार सूनी सड़कों से गुजरती है या साइकिल पर कोई अकेला आदमी या फिर कोई कुत्ता इन गलियों में यहां-वहां देखता हुआ घूम रहा होता है। यह शायद ही वह दुनिया है, जिसे मैं जानती थी। जब अपने फोन की ओर देखती हूं, जो आजकल बहुत होता है सिवाय वायरस के बारे में सलाह की झड़ी के इनमें यह सीख होती है कि आजकल बंदी में दिन कैसे बिताएं या फिर दुनियाभर से खाली शहरों, सड़कों या चौराहों के वीडियो। सोशल मीडिया पर प्रकृति का पुनरुत्थान भी बार-बार आने वाला विषय है। सड़कों पर चलते हाथी, बॉम्बे हाई में व्हेल (शायद फेक) और दिल्ली में बहती नीली यमुना इनमें हैं। कई बार यह जिदंगी छलावा जैसी लगती है। जब मैं सुबह उठती हूं तो पहला विचार आता है कि ‘क्या यह बुरा सपना है?’ जैसे-जैसे सुबह बीतती है, हर दिन की एकरूपता मुझे घूरती है। यह समय बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टकारी है।

मैं उत्साहित रहने की कोशिश करती हूं, रोज एक्सरसाइज भी करती हूं, घर से और घर पर वे काम भी कर रही हूं, जिनकी मुझसे उम्मीद की जाती है और तारों को भी देखती हूं जो प्रदूषण घटने से अब ज्यादा चमकते हैं। इसके बावजूद मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं जिंदगी के लिए तरस रही हूं, कम से कम उस जिंदगी के लिए जो इस वायरस के आने से पहले मुझे लगती थी कि मेरी है। मैं उत्कंठित हूं पार्क में घूमने, बाजार जाने, मूवी देखने, दोस्तों व रिश्तेदारों से मिलने और उन्हें गले लगाने के लिए। इन सालों में इन साधारण सी चीजों का मैंने कोई माेल नहीं समझा, असल में कभी इनके बारे में सोचा ही नहीं, अचानक यह वह संपति बन गई जिसके लिए मैं कामना करती हूं।

तैयार होकर काम पर जाना ऐसी चीज है, जिसे लेकर हर कोई कभी न कभी रोना-धोना या मजाक करता हो। अाजकल इसके लिए प्रतीक्षा रहती है। घर से काम चल रहा है, लेकिन कार्यस्थल की गूंज, एक-दूसरे से मिलना जैसी सांसारिक चीजाें का मूल्य अब स्पष्ट हो रहा है। स्क्रीन की अपनी उपयोगिता है, लेकिन अपने चारों ओर अन्य लोगों की मौजूदगी की ऊर्जा कुछ ऐसी चीज है जो वह कभी आत्मसात नहीं कर सकती। खाली स्टेडियम में खेल रहे खिलाड़ी कभी आकर्षक नहीं दिखते। कोविड-19 पर विजय तो होगी ही, चाहे वह दवा से, समय के साथ या प्रकृति से हो। तब यह दुनिया को कैसे बदलेगा? यही सवाल है जो आज हमें सबसे अधिक घेरे हुए है।


पहले की सभी महामारियों ने हमारे रहने का वह तरीका बदल दिया था, जिसमें हम सालों से रहते अाए थे। एक बड़ी जनसंख्या को मिटाने वाले 1337 के प्लेग ने इंग्लैंड में संपत्ति कानूनों की शुरुआत की, हमें क्वारेंटाइन शब्द दिया और मध्यम वर्ग को जन्म दिया। हैजे की महामारी ने कचरा निपटान का तंत्र बनाने व स्पेनिश फ्लू ने जनस्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में बड़े परिवर्तन की शुरुआत की। हमारे समय में सार्स महामारी ने ताइवान सहित अनेक देशों ने यह सुनिश्चित किया कि लोग नियमित रूप से मास्क पहनेंगे। युवाल हरारी जैसे लेखक देशों द्वारा अधिक निगरानी के प्रति चेताते हैं, क्योंकि तकनीक का इस्तेमाल मरीजों व उनके संपर्कों पर नजर रखने के लिए हो रहा है। शिक्षाविद् और पूर्व राजनयिक किशोर महुबानी एक अधिक चीन केंद्रित वैश्वीकरण की बात करते है, जबकि राजनयिक रिचर्ड एन. हास इस महामारी के बाद अधिक असफल देशों के उभरने के प्रति चेताते हैं।

लेकिन व्यक्तिगत परिवर्तन के बारे में क्या? अभी हम लोग वायरस की हमारी जिंदगी को बदलने की क्षमता को लेकर अभिभूत हैं। एक बहुत ही गहरी भावना है कि जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं होगी। इसलिए बहुत से विचार आ रहे हैं। जैसे जीवन को धीमा करने और जिन्हें आप प्रेम करते हैं उनके साथ समय बिताने का मूल्य, बहुत बड़ी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की निरर्थकता, हमारी जिंदगी में संवेदनाओं का महत्व, उपभाेग घटाने की शोभा और यह ज्ञान होना कि अंत में सिर्फ अनिवार्य चीजों की ही जरूरत होती है। हमारी जिंदगी के नए हीरो- स्वास्थ्य कर्मी, पुलिस अौर सफाईकर्मी हैं, जो दुनिया को चालू रखे हुए हैं। ऐसी उम्मीद है कि ये सभी विचार और मूल्य यह सब खत्म होने के बाद भी रहेंगे।


हालांकि, एक तुच्छ संदेह भी है। जब हम वायरस को हरा देंगे औैर अपनी जिंदगी जीने के लिए स्वतंत्र होंगे तो भी क्या ये सभी चीजें याद रखेंगे? या पलक झपकते ही जिंदगी और व्यापार पहले जैसा हो जाएगा। हम मास्क पहनना जारी रख सकते हैं, लेकिन इस समय में हमने जो सबक सीखे हैं, क्या वे हमारे साथ रहेंगे? उम्मीद है कि हम सभी में वृद्धिकारक परिवर्तन होंगे, जो धीरे-धीरे दुनिया में नजर आएंगे, आखिर यह जीवन बदलने वाली घटना है। इसे हममें से कोई नहीं नकार सकता।(यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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After Corona, the life of all of us is bound to change




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कोरोना कालखंड में देखिए हास्य फिल्में

कोरोना कालखंड में ठहाके लगाने से फेफड़ों की कसरत होती है और मानसिक तंदुरुस्ती भी बनी रहती है। बगीचों में सुबह की सैर करने वाले सामूहिक ठहाके लगाते हैैं। इसे लाभ होता है, परंतु बरबस ठहाका लगाया जाना ही अधिक लाभप्रद है। प्रयास करके हंसना या रोना अभिनय माना जा सकता है, परंतु मानसिक तंदुरुस्ती में इससे कोई इजाफा नहीं हो सकता। हंसते-हंसते रोना या रोते-रोते हंसना स्वाभाविक है। राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ में एक बिंब यह आभास देता है मानो आंसू के माध्यम से मुस्कान का बिंब बनाया गया हो।

हास्य-व्यंग्य की फिल्में हर दौर में बनती रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बनी फिल्मों में किशोर कुमार और मधुबाला अभिनीत ‘चलती का नाम गाड़ी’ सर्वश्रेष्ठ हास्य फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म में बड़े भाई अशोक कुमार और मंझले भाई अनूप कुमार ने भी अभिनय किया था। ‘चलती का नाम गाड़ी’ में सचिन देव बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी ने माधुर्य की रचना की थी। गीत ‘एक लड़की भीगी भागी सी...सोती रातों में जागी सी…’ आज भी लोकप्रिय है।

महमूद ने किशोर कुमार, सायरा बानो और सुनील दत्त अभिनीत फिल्म ‘पड़ोसन’ बनाई थी। इस फिल्म को राज कपूर के सहायक रहे ज्योति स्वरूप ने निर्देशित किया था। महमूद तो निर्देशक के निर्देशक रहे हैैं। बहरहाल, इस फिल्म का गीत ‘मेरे सामने वाली खिड़की में एक चांद का टुकड़ा रहता है..’ सर्वकालिक लोकप्रिय गीत है। इस फिल्म में मेहमूद अभिनीत पात्र चंचल और प्रेमल व्यक्ति है। एक दृश्य में वह प्रेम में अपने प्रतिद्वंद्वी को किराए के गुंडों से पिटवाता है, परंतु वह अपने इस कार्य पर शर्मिंदा भी है।

इस तरह यह पात्र प्रेमल हृदय का खलनायक माना जा सकता है। इस फिल्म में ओमप्रकाश ने एक चरित्र भूमिका निभाई।
कलकत्ता की फिल्म निर्माण संस्था न्यू थिएटर्स को छोड़कर बेहतर अवसर की तलाश में बिमल रॉय बंबई आए थे। उनका निकटतम मित्र हास्य कलाकार असित सेन भी उनके साथ आया था। असित सेन मोटे और थुलथुले से दिखने वाले व्यक्ति थे। बिमल रॉय ने उन्हें निर्देशन का अवसर दिया।

असित सेन ने शेक्सपीयर की ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ से प्रेरित फिल्म ‘दो दुनी चार’ बनाई। उस समय संभवत: गुलजार भी बिमल रॉय के सहायक थे। कालांतर में गुलजार ने उसी कथा को अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हुए संजीव कुमार, देवेन वर्मा और मौसमी चटर्जी अभिनीत ‘अंगूर’ बनाई थी। संजीव कुमार और देवेन वर्मा की दोहरी भूमिकाएं थीं। इस फिल्म की नामावली के दृश्य में एक बिंब में शेक्सपीयर की तस्वीर दीवार पर लगी है और उसमें शेक्सपीयर को आंख मारते हुए दिखाया गया है।

इस तरह गुलजार ने शेक्सपीयर को शुकराना अदा किया था। उत्पल दत्त, दीना पाठक और अमोल पालेकर अभिनीत ‘गोलमाल’ सफल हास्य फिल्म मानी गई। ‘गोलमाल’ टाइटल से रोहित शेट्टी और अजय देवगन ने एक सीरीज रची है, परंतु इन फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित पहली ‘गोलमाल’ की तरह स्वाभाविकता का अभाव है।

अमेरिका में लारेल एंड हार्डी शृंखला बनी है, जिसे स्लेपस्टिक कॉमेडी कहते हैं। शारीरिक क्रियाओं द्वारा हास्य की रचना की गई है। ज्ञातव्य है कि रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फिल्म ‘बर्फी’ एक महान फिल्म है। इसके प्रदर्शन के समय कुछ आलोचकों ने इसे चार्ली चैपलिन शैली की फिल्म माना, परंतुु इस पर बस्टर कीटन का प्रभाव था जो चार्ली चैपलिन के समकालीन थे, परंतु दोनों शैलियों में भारी अंतर है। दरअसल ‘बर्फी’ प्रियंका चोपड़ा का अभिनव प्रयास है।

आयुष्मान खुराना अभिनीत फिल्म ‘ड्रीमगर्ल’ भी मनोरंजक फिल्म है। ‘हाउसफुल’ और ‘धमाल’ सीरीज भी लोकप्रिय रही है। गुरु दत्त की ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’ एक हास्य फिल्म थी। इस फिल्म के एक दृश्य में कठोर हृदय वाली स्त्री नायक से कहती है कि क्या वह कम्युनिस्ट है तो नायक जवाब देता है वह कार्टूनिस्ट है। महिला कहती है कि एक ही बात है। इस दृष्टि से सर्वकालीन महान कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण भारत में पहले कम्युनिस्ट माने जा सकते हैैं। अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, शर्मिला टैगोर और ओमप्रकाश अभिनीत फिल्म ‘चुपके चुपके’ बहुत सफल रही। युद्ध जैसे विषय पर भी हास्य फिल्म बनी है ‘वॉर छोड़ यार’। हास्य हर रोग की दवा है, परंतु यह हृदय से स्वाभाविक रूप से निकलना चाहिए।

हंसने-हंसाने का माद्दा जीवन को ऊर्जा से भर देता है। अपने जीवन में नैराश्य से उभरने के लिए दिलीप कुमार ने हास्य फिल्म ‘राम और श्याम’ की थी। इस हास्य थैरेपी से उनका नैराश्य दूर हो गया था। एक सेंव फल और एक ठहाका बीमारियों को दूर भगा देते हैं।



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लॉकडाउन के बाद यात्रा मजे से ज्यादा एक मिशन होगी

यात्रियों को पूरी ट्रेन यात्रा के दौरान मास्क पहनाए जाने से लेकर आरोग्य सेतु एप इस्तेमाल करवाने, यात्रा से पहले स्वास्थ्य की जांच करने और ट्रेन में सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग को बढ़ावा देने तक, ये कुछ ऐसे सुझाव हैं, जो भारतीय रेलवे ने लॉकडाउन के खत्म होने के बाद के लिए तैयार किए हैं। हालांकि, अभी तक इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है कि कोरोना वायरस लॉकडाउन की वजह से रोकी गई यात्री सेवाओं को फिर से कब शुरू किया जाएगा, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि सरकार से रजामंदी मिलने के बाद चरणबद्ध तरीके से इस पर काम किया जाएगा।

लॉकडाउन के बाद हवाई जहाज से यात्रा में पहले की तुलना में और ज्यादा समय लगेगा। चेक-इन काउंटर बंद होने से कुछ मिनटों पहले दौड़ते हुए हवाई अड्डे पहुंचना अब काम नहीं आएगा। 45 मिनट पहले चेक-इन के बारे में तो भूल ही जाएं। जब फ्लाइट्स फिर से शुरू होंगी, तो यात्रियों को प्रस्थान के समय से, सख्ती से दो घंटे पहले पहुंचना पड़ेगा क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की वजह से चेक-इन, सिक्योरिटी चेक और बोर्डिंग की प्रक्रिया धीमी हो सकती है। जो लोग घर या अस्पताल में क्वारेंटाइन रह चुके हैं, उन्हें एक घोषणा-पत्र देना पड़ सकता है और उन लोगों की चेक-इन पॉइंट पर अलग बूथ में जांच हो सकती है। कुछ ऐसे सुझाव केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा नागरिक उड्‌डयन मंत्रालय को दिए गए हैं।

फ्लाइट्स फिर से शुरू होने के बाद इन विशेष बूथों का उपयोग कम से कम एक महीने के लिए किया जाएगा। एयरलाइंस को चेक पॉइंट्स पर अतिरिक्त कर्मचारियों को तैनात करना पड़ सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यात्री स्कैनर में बैग रखते समय और जांच करवाते वक्त सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें। यह भी सुझाव दिया गया है कि टर्मिनल्स में हाथ धोने की चलित सुविधाएं दी जाएं और यात्रियों की सभी प्रवेश द्वारों पर हाथ से चलाए जाने वाले थर्मल स्कैनर से जांच की जाए। फिलहाल, मंत्रालय ने कोरोना वायरस के डर को देखते हुए विभिन्न विभागों से सुझाव मांगे हैं कि कार्यप्रणाली में कौन से बदलाव किए जाएं। बहुत सारे सुझाव तो आ रहे हैं, लेकिन उनमें से कई को प्रत्येक हवाई अड्डे की जरूरतों के अनुसार ढालना होगा। उदाहरण के लिए हो सकता है कि महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में समान नियम हों, लेकिन गोवा में अलग नियम हो सकते हैं।

वहीं खुद के लिए आपको लैपटॉप के अलावा मेकअप किट के साथ पर्सनल हाइजीन किट भी ले जाने की जरूरत होगी, जिसमें फेस मास्क, हैंड सैनिटाइजर आदि भी होने चाहिए। हो सकता है कि रेलवे भी घर या संस्थानों में क्वारेंटाइन किए गए यात्रियों की जांच के लिए अलग से बूथ बनाए, हालांकि निर्णय अभी नहीं लिया गया है। सभी जोनल रेलवे कोशिश करेंगे कि चरणबद्ध तरीके से रूट्स खोलें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जो लोग अलग-अलग जगहों पर फंसे हुए हैं, वे अपने-अपने घर लौट सकें। कुल मिलाकर देखा जाए तो रेलवे यह सुनिश्चित करेगा कि ट्रेन या प्लेटफार्म पर किसी भी समय कोई भीड़भाड़ न हो। कपड़ों (लिनन) की स्वच्छता, सैनिटेशन और कचरे के निपटान पर अधिक ध्यान दिया जाएगा। जो कॉन्ट्रैक्टर नियमों का पालन नहीं करेंगे, उन्हें तत्काल हटाया जा सकता है।

फंडा यह है कि, लॉकडाउन के बाद किसी भी तरह की यात्रा कुछ शुरुआती महीनों के लिए मजे से भरपूर नहीं होगी। यह एक मिशन की तरह होगी, जिसमें यात्रियों को सुरक्षित एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने के लिए ज्यादा सुरक्षा नियमों का पालन करना होगा।



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Journey after lockdown will be more of a mission than fun




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2 हजार सालों में कोरोना 17वीं ऐसी बीमारी, जिसमें एक लाख से ज्यादा मौतें हुईं

दुनियाभर में तबाही मचा रहे कोरोनावायरस से मरने वालों की संख्या 1 लाख के पार पहुंच गई है। इंसान ने जब से तारीखों का हिसाब रखना शुरू किया है, यानी जीरो एडी(0 AD) से अब तक इन 2 हजार सालों में 20 बड़ी महामारियां फैल चुकी हैं। इनमें कोरोना 17वीं ऐसी महामारी है, जिसमें मौतों का आंकड़ा 1 लाख के ऊपर चला गया है। इतिहास में जाएं तो पहली बार साल 165 में महामारी फैली थी। उस समय एन्टोनाइन प्लेग नाम की महामारी एशिया, मिस्र, यूनान (ग्रीस) और इटली में फैली थी। इससे 50 लाख के आसपास लोगों की मौत हुई थी।

एन्टोनाइन प्लेग पर ये तस्वीर फ्रांसीसी चित्रकार जे. डेलुनॉय (1828-2891) ने बनाई थी। इस बीमारी से रोम में रोजाना 2 हजार लोगों की जान गई थी। फोटो क्रेडिट :fineartamerica.com


जस्टिनियन प्लेग
साल : 541-542
मौतें : 5 करोड़

उसके बाद जो महामारी फैली थी, उसका नाम था- जस्टिनियन प्लेग। ये महामारी साल 541-542 में एशिया, उत्तरी अफ्रीका, अरेबिया और यूरोप में फैली थी। लेकिन, इसका सबसे ज्यादा असर पूर्वी रोमन साम्राज्य बाइजेंटाइन पर हुआ था। 1500 साल पहले फैली इस महामारी से 5 करोड़ लोगों की जान चली गई थी। ये उस समय की दुनिया की कुल आबादी का आधा हिस्सा था। यानी एक साल के अंदर दुनिया की आधी आबादी खत्म हो गई थी। ये बीमारी इतनी खतरनाक थी कि इसने बाइजेंटाइन साम्राज्य को खत्म कर दिया था।

जस्टिनियन प्लेग पर ये तस्वीर इटली के चित्रकार फ्रा एंजेलिको (1395-1455) ने बनाई थी। इसमें सेंट कॉस्मॉस और सेंट डेमियन जस्टिनियन प्लेग से पीड़ित मरीज का इलाज करते दिख रहे हैं। फोटो क्रेडिट : www.medievalists.net


द ब्लैक डेथ
साल : 1347-1351
मौतें : 20 करोड़

जस्टिनियन प्लेग के बाद सन् 1347 से 1351 के बीच एक बार फिर प्लेग फैला। इसे 'द ब्लैक डेथ' नाम दिया गया। इसका सबसे ज्यादा असर यूरोप और एशिया में हुआ था। ये प्लेग चीन से फैला था। उस समय ज्यादातर कारोबार समुद्री रास्तों से ही होता था और समुद्री जहाजों पर चूहे भी रहते थे। इन्हीं चूहों से मक्खियों के जरिए ये बीमारी फैलती गई। ऐसा कहा जाता है कि इस बीमारी से अकेले यूरोप में इतनी मौतें हुई थीं कि उसे 1347 से पहले के पॉपुलेशन लेवल पर पहुंचने पर 200 साल लग गए थे।

14वीं सदी में फैली ब्लैक डेथ बीमारी पर ये तस्वीर डच आर्टिस्ट पीटर ब्रूजेल द एल्डर ने 1562 में बनाई थी। फोटो क्रेडिट : wikipedia


स्मॉलपॉक्स
साल : 1492 से अब तक
मौतें : 5.5 करोड़+

1492 में यूरोपियन्स अमेरिका पहुंचे। उनके आते ही अमेरिका में स्मॉलपॉक्स यानी चेचक नाम का संक्रमण फैल गया। ये बीमारी इतनी खतरनाक थी कि इससे संक्रमित लोगों में 30% की जान चली गई थी। उस समय इस संक्रमण ने करीब 2 करोड़ लोगों की जान ली थी, जो उस समय अमेरिका की कुल आबादी का 90% हिस्सा थी। इससे यूरोपियन्स को फायदा हुआ। उन्हें अमेरिका में खाली जगहें मिल गईं। उन्होंने यहां अपने कॉलोनियां बसाना शुरू किया। स्मॉलपॉक्स अभी भी फैल रही है और एक अनुमान के मुताबिक, इससे अब तक 5.5 करोड़ लोगों की जान जा चुकी है।

1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की थी। उसके साथ ही यूरोपीय अमेरिका आए और उनके साथ स्मॉलपॉक्स बीमारी आई। इस बीमारी से इतने अमेरिकी मरे थे, जिससे ग्लोबल कूलिंग की समस्या आ गई थी। फोटो क्रेडिट : newyorktimes


कॉलरा
साल : 1817 से अब तक
मौतें : 10 लाख+

19वीं सदी में एक ऐसी बीमारी भी थी, जो भारत से ही जन्मी थी। इस बीमारी का नाम था- कॉलरा यानी हैजा। ये बीमारी गंगा नदी के डेल्टा के जरिए एशिया, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका में भी फैल गई थी। गंदा पानी पीना, इस बीमारी का कारण था। इस बीमारी की वजह से उस समय 10 लाख से ज्यादा मौतें हुई थीं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, अभी भी हर साल 13 लाख से 40 लाख के बीच लोग इस बीमारी की चपेट में आते हैं। जबकि, हर साल 1.5 लाख तक मौतें हो इस बीमारी से हो रही है।

कोलरा से बचाव के लिए अमेरिकी सरकार ने 1832 में एक नोटिस जारी किया था। इस नोटिस को हर शहर की दीवार पर चिपकाया गया था। फोटो क्रेडिट : wikipedia


स्पैनिश फ्लू
साल : 1918-19
मौतें : 5 करोड़

1918-19 में फैली स्पैनिश फ्लू महामारी पिछले 500 साल के इतिहास की सबसे खतरनाक महामारी थी। ये बीमारी कहां से फैली? इस बारे में अभी तक पता नहीं चला है। अनुमान लगाया जाता है कि इस महामारी से दुनिया की एक तिहाई आबादी या 50 करोड़ लोग संक्रमित हुए थे। दुनियाभर में इससे 5 करोड़ मौतें हुई थीं। अकेले भारत में ही इससे 1.7 करोड़ से ज्यादा लोग मारे गए थे। इस महामारी में ठीक होने के चांस सिर्फ 10 या 20% ही थे। ये बीमारी इतनी अजीब थी कि इसकी वजह से सबसे ज्यादा मौतें स्वस्थ लोगों की हुई थी। स्पैनिश फ्लू से सबसे ज्यादा मौतें 20 से 40 साल की उम्र के लोगों की हुई थी।

स्पैनिश फ्लू वर्ल्ड वॉर-1 के बाद फैली थी। माना जाता है कि वर्ल्ड वॉर के समय सैनिक जिन बंकरों में रहते थे, वहां गंदगी थी। जिससे ये बीमारी सैनिकों में फैली। उसके बाद सैनिक जब अपने-अपने देश लौटे, तो उससे बीमारी सब जगह फैल गई। फोटो क्रेडिट : cdc.gov


स्पैनिश फ्लू के बाद कोरोना चौथा सबसे खतरनाक फ्लू

1) एशियन फ्लू या एच2एन2 वायरस
साल : 1957-58
मौतें : 11 लाख

ये बीमारी फरवरी 1957 में हॉन्गकॉन्ग से शुरू हुई थी। क्योंकि ये बीमारी पूर्वी एशिया से निकली थी, इसलिए इसे एशियन फ्लू भी कहा गया। कुछ ही महीनों में कई देशों में फैल गई।

ये तस्वीर 16 अगस्त 1957 की है। इसमें एक डॉक्टर नर्स को एशियन फ्लू का पहला वैक्सीन दे रहा है। फोटो क्रेडिट : news-decoder.com


2) हॉन्गकॉन्ग फ्लू या एच3एन2 वायरस
साल : 1968-70
मौतें : 10 लाख

पहली बार ये बीमारी सितंबर 1968 में अमेरिका में रिपोर्ट हुई थी। इस वायरस से मरने वाले ज्यादातर लोगों की उम्र 65 साल से ज्यादा थी। इसकी चपेट में ज्यादातर वही लोग आए थे, जिन्हें पहले से कोई गंभीर बीमारी थी।

ये तस्वीर जुलाई 1968 में ली गई थी। इस तस्वीर में हॉन्गकॉन्ग की एक क्लीनिक के बाहर मरीज अपनी बारी का इंतजार करते दिख रहे हैं। फोटो क्रेडिट : scmp.com


3) स्वाइन फ्लू या एच1एन1 वायरस
साल : 2009
मौतें : 5.5 लाख+

इस वायरस को भी सबसे पहले अमेरिका में ही रिपोर्ट किया गया था और कुछ ही समय में ये दुनियाभर में फैल गया था। इससे मरने वाले 80% लोग ऐसे थे, जिनकी उम्र 65 साल से ज्यादा थी।

तस्वीर 20 दिसंबर 2009 की है। इस तस्वीर में व्हाइट हाउस की नर्स उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को एच1एन1 की वैक्सीन दे रही है। फोटो क्रेडिट : whitehouse


4) कोरोनावायरस या कोविड-19
साल : 2019
मौतें : 1 लाख+

कोरोनावायरस या कोविड-19 चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ। पहली बार 8 दिसंबर 2019 को इससे संक्रमित पहला मरीज मिला था। 13 मार्च 2020 को डब्ल्यूएचओ ने इसे महामारी घोषित किया। कोरोना अब तक दुनिया के 200 देशों में फैल चुका है। इससे अब तक 1 लाख से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं।

ये तस्वीर वुहान के सीफूड मार्केट की है। अभी तक यही माना जा रहा है कि कोरोनावायरस इसी मार्केट से निकला। कोरोना से पीड़ित पहली मरीज यहीं पर दुकान लगाती थी। फोटो क्रेडिट : scmp.com

दो हजार साल में फैलीं 20 बड़ी महामारियां, इनमें 40 करोड़ से ज्यादा जानें गईं

बीमारी

टाइम पीरियड

मौतें

एन्टोनाइन प्लेग

165-180

50 लाख

जापानी स्मॉलपॉक्स

735-737

10 लाख

जस्टिनियन प्लेग

541-542

5 करोड़

ब्लैक डेथ

1347-1351

20 करोड़

स्मॉलपॉक्स

1492 से अभी तक

5.6 करोड़

इटैलियन प्लेग

1629-1631

10 लाख

ग्रेट प्लेग ऑफ लंदन

1665

1 लाख

यलो फीवर

1790 से अभी तक

1.50 लाख+

कोलरा

1817 से अभी तक

10 लाख+

थर्ड प्लेग

1885

1.20 करोड़

रशियन फ्लू

1889-1890

10 लाख

स्पैनिश फ्लू

1918-1919

5 करोड़

एशियन फ्लू

1957-1958

11 लाख

हॉन्गकॉन्ग फ्लू

1968-1970

10 लाख

एचआईवी एड्स

1981 से अभी तक

3.5 करोड़+

स्वाइन फ्लू

2009-10

5.5 लाख+

सार्स

2002-2003

770
इबोला

2014-16

11 हजार

मर्स

2015 से अभी तक

850

कोविड-19

2019 से अभी तक

1 लाख+

(ये स्टोरी नेशनल जियो ग्राफिक, अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेन्शन, visualcapitalist.comऔर मीडिया रिपोर्ट्स से मिली जानकारी के आधार पर तैयार की गई है)



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Coronavirus Death Count Worldwide | Novel Coronavirus Total Death Toll Count Worldwide From (COVID-19) Virus Pandemic: India Pakistan USA Spain Italy Germany China UK Russia




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खाली काबा और सेंट पीटर स्क्वेयर से मजदूरों की भीड़ तक, दुनिया की वे तस्वीरें जो सदियों याद रखी जाएंगी

दुनिया में कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा एक लाख पार कर गया है। दिसंबर से लेकर अभी तक दुनिया के अलग-अलग देशों में फैली इस महामारी की कुछ तस्वीरें हैं जो चौंकानेवाली भी हैं और दर्दनाक भी। ऐसी ही कुछ मार्मिक तस्वीरों से जानिएदुनिया में कोरोना की कहानी...


तारीख : 25 मार्च
जगह : पाकिस्तान का क्वेटा

पाकिस्तान में अब तक कोरोना के 4 हजार 688 मामले आ चुके हैं और 68 लोगों ने अपनी जान गंवाई है। तस्वीर क्वेटा शहर में सुरक्षाबलों की पैट्रोलिंग की है जो हथियारबंद होकर सरकार के आंशिक लॉकडाउन का पालन करवाने निकली है।

तारीख : 9अप्रैल
जगह : न्यूयॉर्क

न्यूयॉर्क में अब तक 1.5 लाख लोग कोरोना पॉजिटिव हुए हैं जो किसी भी देश से ज्यादा संख्या है। ड्रोन से ली यह तस्वीर न्यूयॉर्क के हर्ट आइलैंड की है जहां डिपार्टमेंट ऑफ करेक्शन बड़ी संख्या में शवों को दफनाने का काम कर रही है।


तारीख : 27 मार्च
जगह : वेटिकन सिटी

रोम के वेटिकन सिटी का यह स्क्वेयर पहले पोप सेंट पीटर के नाम पर है। इतने बड़े इलाके में इसे बनाया गया था ताकि ज्यादा लोग पोप को दुआएं देते देख सकें। कोरोना के चलते जब उस दिन पोप प्रेयर के लिए आए तो यह स्क्वेयर खाली था।


तारीख : 22 मार्च
जगह : इटली

संडे मास के लिए ग्युसियानो इटली के मेंबर्स ने अपनी तस्वीरें भेजी थीं। रिलीजियस सर्विस जब शुरू हुई तो उसका ऑनलाइन वीडियो लोगों के घरों तक स्ट्रीम किया गया। तस्वीर उसी संडे मास की है।

तारीख : 9 मार्च
जगह : वुहान, चीन

कोरोना वायसर की शुरूआत चीन के शहर वुहान से हुई वहां पीड़ितों के इलाज के लिए एक अस्थाई अस्पताल बनाया था। जब वहां के सभी कोरोना वायरस पेशेंट डिस्चार्ज होकर चले गए तो मेडिकल स्टाफ ने इस अंदाज में खुशियां मनाईं। तस्वीर उसी सेलिब्रेशन की हैं।

तारीख : 5 मार्च
जगह : सउदी अरब

म्युनिसिपल वर्कर्स ने मक्का की मस्जिद में काबा को खाली करवाया। इस इलाके के खाली होने का ये इतिहास का संभवत: पहला मौका था। सउदी अरब की ये इस्लाम की पवित्रतम जगह मानी जाती है। कोरोना वायरस के चलते इलाके को स्टरलाइजेशन के लिए खाली करवाया था। इसी के साथ सालभर यहां होने वाले उम्रह को भी रोक दिया गया है।

तारीख : 22 मार्च
जगह: दक्षिण कोरिया

ये वह मेडिकल फाइटर्स हैं जो कोरोना मरीजों का इलाज कर रहे हैं। इन्हें हर दिन आधा घंटा लगता है अपने चेहरे के उन जख्मों की मरहम पट्‌टी करने में जो इन्हें लंबे घंटों तक प्रोटेक्टिव मास्क पहनने की वजह से मिले हैं।

तारीख : 28 मार्च
जगह दिल्ली : गाजियाबाद

प्रवासी मजदूरों की यह बेतहाशा भीड़ बस अड्‌डे के बाहर इंतजार कर रही है उस गाड़ी जो उन्हें अपने गांव पहुंचाए। भारत में 21 दिन का लॉकडाउन लगने के बाद ये तस्वीर दिल्ली के नजदीक गाजियाबाद की है। इनमें ज्यादातर बिहार और उप्र के मजदूर हैं जो पैदल ही घर की ओर निकल पड़े थे।


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स्कूलों में नए सेशन की शुरुआत: बच्चों को मोबाइल ऐप, वेबसाइट और वॉट्सऐप के जरिए पढ़ा रहे टीचर्स

देश के लगभग सभी बड़े स्कूलों में नया सेशन शुरू हो गया है। लेकिन इस बार सेशन की शुरूआत ऑनलाइन हुई है। कोरोनावायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण 10 मार्च से ही अलग-अलग राज्यों में स्कूलों को बंद किया जाने लगा था।फिलहाल 14 अप्रैल तक देशभर के स्कूल बंद रहेंगे। संभावना जताई गई है कि इस बार स्कूल गर्मी की छुट्टियोंके बाद ही खुलेंगे। जिन क्लासेस काएग्जाम नहीं हो पायाथा,उन्हें टाल दिया गया है और ज्यादातर स्कूलों ने बच्चों को अगली क्लास में प्रमोट कर दिया है।

लॉकडाउन के बीच स्कूलों ने बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपने-अपने स्तर पर तैयारियां की हैं।स्कूल मोबाइल ऐप, वेबसाइट से लेकर वॉट्सऐप ग्रुप के जरिए बच्चों को पढ़ा रहे हैं। कई स्कूलों ने यू-ट्यूब पर अपने-अपने चैनल्स बना लिए हैं और इनमें अलग-अलग विषयों के टीचर्स चैप्टर वाइज लेक्चर के वीडियो अपलोड कर रहे हैं।लॉकडाउन के बीच बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए स्कूलों ने अपने स्तर पर क्या-क्या तैयारियां की हैं, इसे जानने के लिए दैनिक भास्कर ने 10शहरों के 10 स्कूलों के प्रिंसिपल, टीचर्स और बच्चों से बात की। पढ़िए ये रिपोर्ट..

जालंधर के पुलिस डीएवी पब्लिक स्कूल में सुबह 8 बजे से क्लासेस लगती हैं। हर विषय के लिए 30-30 मिनट की क्लास होती है, बीच-बीच में 15 मिनट का ब्रेक भी देते हैं। 90% बच्चे इन ऑनलाइन क्लासेस में शामिल होते हैं। यहां जूम ऐप के जरिए पढ़ाई हो रही है। ठीक 8 बजे बच्चे एप खोलते हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में टीचर सामने होते हैं। शिक्षक जो पढ़ाते हैं, बच्चे उसे नोट भी करते जाते हैं।

शहर के एक दूसरे स्कूल इनोसेंट हार्ट पब्लिक स्कूलमें हर दिन एक विषय की पढ़ाई होती है। सुबह 9 बजे बच्चों को वाट्एसप ग्रुप पर स्टडी मटेरियल भेज दिया जाता है। इसके बाद दोपहर 1 से 2 बजे के बीच बच्चे अपने डाउट्स क्लियर करते हैं। वहीं प्राइमरी के बच्चों को ड्राइंग कलरिंग जैसी एक्टिविटी बेस लर्निंग ऑनलाइन करवाई जा रही है।

नर्सरी के बच्चों के लिए टीचर्स वॉट्सऐप के जरिए पैरेंट्स को एक्टिविटी शीट भेजते हैं। इनमें कार्टून फिल्मों के जरिए लर्निंग स्किल बढ़ाने वाले वीडियो ज्यादा होते हैं।

अमृसर मेंशिक्षा विभाग ने सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को घर बैठे पढ़ाने के लिए व्हाट्सएप का सहारा लिया है। अमृतसर जिले के सभी बच्चों के अभिभावकों का भी एक व्हाट्सएप ग्रुप तैयार करने पर काम शुरू हो चुका है। इसके जरिए सिलेबस बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों तक भी पहुंचता रहेगा। जिन बच्चों और उनके अभिभावकों के पास स्मार्ट फोन नहीं हैं, वहां ऑनलाइन क्लासेस का यह सिस्टम काम नहीं कर पा रहा है।

लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल के 18 कैंपस में 56 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। यहां करीब साढ़े 4 हजार टीचर भी हैं। इन्होंने गूगल क्लास रूम से टाईअप किया गया है। हर एक छात्र और शिक्षक को ईमेल आईडी दी गई है, इसी से गूगल क्लासरूम पर लॉगिन होता है। प्रिंसिपल भी अपने टीचरों से हर दिन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग करके लेसन प्लान करते हैं और बच्चों की पढ़ाई का फीडबैक लिया जाता है। स्कूलों को बंद हुए लगभग 10 दिन हो गए हैं लेकिन करीब 35 हजार से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई नए सिस्टम के साथ बिना रुकावट जारी है। यही नहीं पीटी, योगा और अन्य सभी तरह की फिल्जिकल एक्टिविटी की क्लास वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये हो रही है।

स्कूलों में 80-90% बच्चे वर्चुअल क्लासेस अटेंड कर रहे हैं। टीचर्स वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए स्टूडेंट्स को टॉपिक समझाते हैं।

पुणे के वालनेट स्कूल में ऑनलाइन क्लासेस का सिस्टम बहुत पहले से चल रहा है।स्कूल का अपना लर्निंग ऐप 'वाल्मीकि' है, इसमें सिलेबस, स्टडी मटेरियल के साथ-साथ टेस्ट, रिवीजन का सेक्शन भी है। पढ़ाई को मजेदार बनाने के लिए डांस वीडियो भी एप में डाले जा रहे हैं।

चंडीगढ़ के कुछ बड़े स्कूलों ने अपनी बोर्ड क्लासेज के स्टूडेंट्स के लिए ऑनलाइन क्लासेस शुरू कर दी हैं। कुछ ही दिनों में ये बाकी क्लासेस के स्टूडेंट्स की भी ऑनलाइन क्लासेस शुरू हो जाएंगी। बोर्ड क्लासेस के स्टूडेंट्स को पावरपाॅइंट प्रजेंटेशन और क्योश्चन बैंक बनाकर भेजे जा रहे हैं। सेक्रेड हार्ट स्कूल में भी अभी बोर्ड क्लासेस के स्टूडेंट्स को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पढ़ाया जा रहा है।

टाइमटेबल के हिसाब से टीचर और स्टूडेंट अपने लैपटॉप या मोबाइल के जरिए वर्चुअल क्लास अटेंड कर रहे हैं। अलग-अलग स्कूलों में ये क्लासेस 30 मिनट से लेकर 1 घंटे तक की हो रही हैं।

इंदौर के दिल्ली पब्लिक स्कूल में स्कूल रूम एप के जरिए पढ़ाई हो रही है। स्कूल के टीचर बताते हैं कि बच्चे अब तक डिजिटल चीजाें का उपयोग सिर्फ वीडियो या गेमिंग में ही करते आए हैं। ऐसे में पहली बार इस सिस्टम पर पढ़ाई करना उनके लिए काफी यूनिक है। वे काफी उत्साहित हैं।

शहर के चोइथराम इंटरनेशनल स्कूल में ई-लर्निंग मैनेजमेंट सिस्टम के तहत ऑनलाइन मॉड्यूल असाइनमेंट्स और वीडियो लेक्चर के जरिए पढ़ाई हो रही है। स्कूल के एपल कंपनी के साथ मिलकर वर्चअल क्सालरूम पहले से तैयार थे। इस समय इनका सही उपयोग हो पा रहा है। स्कूल के छात्र अमृतास और हर्षना सिंह बताते हैं कि ये आमने-सामने बैठकर पढ़ने जैसा ही है। इन क्लासेस में सबसे अच्छी बात यह है कि हमें ड्रेस पहन कर तैयार नहीं होना पड़ता और आने-जाने के दो-तीन घंटे भी बच रहे हैं।

ज्यादातर स्कूलों में जूम एप के जरिए ही वर्चुअल क्लासेस हो रही है। एक क्लास में 10 से लेकर 50 तक बच्चे होते हैं।

जोधपुर के बाेधि इंटरनेशनल स्कूलमें 9वी से 12वीं तक की ऑनलाइन वर्चुअल क्लासेज 23 मार्च से ही शुरू हो गईं थीं। हाल ही में यहां नर्सरी से 5वीं तक की पढ़ाई भी ऑनलाइन शुरू हो गई है। इसमें छोटे बच्चों के लिए स्टोरी टेलिंग सेशन हैं और बड़े बच्चों को लाइब्रेरी से बुक्स दी गई हैं। और टारगेट भी हैं कि 7 दिन में कितना पढ़ना है।

जयपुर के एमपीएस इंटरनेशनल स्कूल में सब्जेक्ट टीचर हर दिन एक चैप्टर का वीडियो रिकार्ड कर इसे स्कूल के यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर देते हैं। इस यू-ट्यूब लिंक को क्लास वाइज स्टूडेंट्स के बनाए गए व्हाट्सएप ग्रुप पर पोस्ट कर दिया जाता है।

स्कूल वेबसाइट, एप और व्हाट्सएप के जरिए स्टूडेंट्स और टीचर्स आपस में जुड़ रहे हैं। हर सब्जेक्ट के टीचर्स पहले लेसन, असाइनमेंट तैयार करते हैं। टफ टॉपिक के लिए माेबाइल वीडियाे बनाकर वेबसाइट पर अपलाेड कर स्टूडेंट्स काे प्राेवाइड कराए जा रहे हैं।

पटना के पाटलिपुत्र सहोदय स्कूल कॉम्प्लेक्स के 260 स्कूलों को ई-कंटेंट तैयार करने के निर्देश मिले हैं। ई-कंटेंट के लिए सब्जेक्ट टीचर्स को 20 से 40 मिनट के वीडियो लेक्चर बनाने के लिए कहा गया है। ये स्कूल ई-पाठशाला, दीक्षा, स्वयंप्रभा जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए सिलेबस बच्चों तक पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही टाटा क्लासेज, टीच नेक्सट, एक्स्ट्रा मार्क्स जैसी संस्थाओं ने भी फ्री में एजुकेशन एप छात्रों को उपलब्ध कराए हैं।

(भोपाल से नवीन मिश्रा, चंडीगढ़ से आरती अग्निहोत्री, पटना से विवेक कुमार, रांची से गुप्तेश्वर कुमार, रायपुर से मोहनीश श्रीवास्तव, लखनऊ से आदित्य तिवारी, जालंधर से बलराज मोर, पानीपत से मनोज कौशिक, जोधपुर से सुनील चौधरी, इंदौर से राजीव तिवारी, जयपुर से विष्णु शर्मा औरपुणे से आशीष राय)



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वर्चुअल क्लासेस में भी टीचर बोर्ड पर टॉपिक समझाती हैं। इस दौरान स्टूडेंट्स के ऑडियो म्यूट होते हैं। जब उन्हें सवाल पूछना होता है तो वे इसे अनम्यूट कर अपनी क्वेरी को टीचर से शेयर करते हैं।




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हमारे पांच सबसे ज्यादा कोरोना से प्रभावित राज्य और उनके बराबर आबादी वाले देश, हमारी हालत अब भी सबसे बेहतर

भारत। एक ऐसा देश जहां 135 करोड़ से ज्यादा की आबादी रहती है। चीन के बाद दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला देश। जब कोरोनावायरस के मरीज आने लगे, तो कई विशेषज्ञों ने चिंता जताई कि भारत में ज्यादा आबादी होने की वजह से यहां कोरोना फैलना ज्यादा आसान है। हालांकि, अभी तक के आंकड़े थोड़े राहत देते हैं। भले ही देश में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन बाकी देशों की तुलना में अभी मामले बढ़ने की रफ्तार धीमी है। भास्कर ने 5 ऐसे राज्य लिए, जहां कोरोना के सबसे ज्यादा मरीज मिले हैं। उन राज्यों की आबादी के बराबर जिस देश की आबादी है, उस देश में कोरोना के आंकड़ों की तुलना की।


इसको ऐसे समझें कि महाराष्ट्र में कोरोना के सबसे ज्यादा मामले हैं। यहां 12.19 करोड़ से ज्यादा है। महाराष्ट्र की जितनी आबादी है, उससे कुछ ज्यादा ही जापान में है। जापान में 12.64 करोड़ की आबादी है। इन दोनों देशों के कोरोना पर क्या कहते हैं आंकड़े...

जापान में कोरोनावायरस का पहला केस 16 जनवरी को टोक्यो में मिला था। महाराष्ट्र में पहला केस 9 मार्च को पुणे में मिला। पहला केस मिलने से लेकर 10 अप्रैल तक 5 हजार 530 केस आ चुके हैं। यानी, औसतन 65 केस रोज आए। जबकि, महाराष्ट्र में पहला केस आने के बाद से अब तक 32 दिन हुए हैं। इस दौरान यहां 1 हजार 564 केस आ गए। यानी, औसतन 49 केस रोज। लेकिन, मौतों के मामले में महाराष्ट्र जापान से आगे हैं। जापान में औसतन रोजाना 1.14 मौतें हुईं, जबकि महाराष्ट्र में ये औसत 3 का है।

दिल्ली v/s कजाकिस्तान


महाराष्ट्र के बाद सबसे ज्यादा मामले राजधानी दिल्ली में आए। दिल्ली की आबादी 1.84 करोड़ है। इतनी ही कजाकिस्तान की आबादी भी है, जहां 1.87 करोड़ लोग रहते हैं। दिल्ली में पहला केस 2 मार्च को आया था। उसके बाद से अब तक 39 दिन में 898 केस आए। इस हिसाब से हर दिन 23 केस आए। कजाकिस्तान में भी पहला केस 13 मार्च को मिला था। उसके बाद से अब तक यहां पर 28 दिनों में 802 केस आए हैं। यानी, हर दिन औसतन 29 केस। इसी तरह से दिल्ली में अब तक 13 और कजाकिस्तान में 9 मौतें हुईं हैं। इस हिसाब से इन दोनों ही जगहों पर औसतन हर तीन दिन में एक मौत हुई।


तमिलनाडु v/s जर्मनी

सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमितों के मामले में तमिलनाडु तीसरे नंबर पर है। राज्य की आबादी 7.71 करोड़ से ज्यादा है। तमिलनाडु की आबादी के आसपास ही जर्मनी है, जहां 8.37 करोड़ की आबादी है। तमिलनाडु में पहला केस 7 मार्च को चेन्नई में आया था। उसके बाद से अब तक यहां पर 834 केस आए। यानी, औसतन हर दिन 25 केस। जबकि, जर्मनी में पहला केस 27 जनवरी को आ गया था। उसके बाद से अब तक 74 दिन में यहां 1.18 लाख से ज्यादा केस आए। यानी, हर दिन औसतन 1600 केस। इसी तरह से जर्मनी में रोजाना औसतन 35 मौतें हुईं। जबकि, तमिलनाडु में 4 दिन में एक मौत हुई। तमिलनाडु में 8 और जर्मनी में 2 हजार 607 मौतें हो चुकी हैं।


तेलंगाना v/s अफगानिस्तान


तेलंगाना और अफगानिस्तान दोनों की ही आबादी 3.89 करोड़ है। तेलंगाना में कोरोना का पहला मरीज 2 मार्च को मिला। जबकि, अफगानिस्तान में 24 फरवरी को। तब से अब तक तेलंगाना में 39 दिन में कोरोना के 473 मरीज आए। यानी, हर दिन औसतन 12 केस। जबकि, अफगानिस्तान में पहला केस आने के बाद से अब तक 46 दिन हो चुके हैं। इन 46 दिनों में यहां 521 केस आए हैं। यानी, हर दिन औसतन 11 केस। इसी तरह से तेलंगाना में अब तक 7 और अफगानिस्तान में 15 लोगों ने जान गंवाई है। इस हिसाब से तेलंगाना औसतन हर 6 दिन में एक मौत हुई, जबकि अफगानिस्तान में हर तीन दिन में एक मरीज की जान गई।


राजस्थान v/s ईरान


राजस्थान की आबादी 7.95 करोड़ है और उसके कुछ ही ज्यादा आबादी ईरान की है। ईरान की आबादी 8.39 करोड़ है। राजस्थान में कोरोना का पहला मरीज 2 मार्च को मिला था। तब से अब तक इन 39 दिनों में यहां 463 केस आ चुके हैं। यानी, हर दिन औसतन 12 केस। जबकि, ईरान में पहला केस 19 फरवरी को आया था। उसके बाद से अब तक 51 दिन में यहां 68 हजार 192 केस आ चुके हैं। यानी, हर दिन 1300 से ज्यादा मरीज। इतना ही नहीं, अब तक राजस्थान में 3 और ईरान में 4 हजार 232 मौतें हुई हैं। यानी, राजस्थान में 13 दिन बाद एक मौत हुई। जबकि, ईरान में हर दिन औसतन 83 मौतें हुईं।


(ये आंकड़े 10 अप्रैल तक के हैं। इनमें राज्यों की आबादी आधार जारी करने वाली संस्था यूआईडीएआई की रिपोर्ट से ली गई है। जबकि, देशों की आबादी worldometers.info से)



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इस बार जम्मू-कश्मीर में नहीं होगा ‘दरबार मूव’, हर साल सचिवालय, सरकार और हाईकोर्ट गर्मियों में कश्मीर और सर्दियों में जम्मू जाता है

150 सालों के इतिहास में पहली बार जम्मू-कश्मीर में दरबार मूव नहीं होगा। राजधानी और सचिवालय के हर साल श्रीनगर से जम्मू और जम्मू से श्रीनगर जाने की प्रक्रिया दरबार मूव कहलाती है। कोरोनावायरस के चलते पैदा हुई स्थितियों के बाद सरकार ने यह निर्णय लिया है। शुक्रवार को जम्मू कश्मीर सरकार ने आदेश जारी किए कि 4 मई को जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में सालाना दरबार खुलेगा, लेकिन कर्मचारी जहां हैंवहीं से काम करेंगे। यानी जो जम्मू में हैं वो वहीं रहेंगे और जो कश्मीर में वो वहीं से काम करेंगे।

आदेश के मुताबिक, इस साल जम्मू और श्रीनगर दोनों जगहों पर सचिवालय के दफ्तर काम करेंगे। सरकार का कहना है कि इस व्यवस्था पर 15 जून के बाद कोरोना के हालातों के मुताबिक आगे क्या करना है यह फैसला किया जाएगा।

आदेश में कहा गया है कि कश्मीर डिवीजन के कर्मचारी जो श्रीनगर जाएंगे, उन्हें 25-26 अप्रैल को सरकारी ट्रांसपोर्ट के जरिए कश्मीर पहुंचाया जाएगा।जबकि, एस्टेट डिपार्टमेंट उन सभी ऑफिसर कर्मचारियों को इसी हिसाब से घर देगा। इन सभी कर्मचारियों को सरकार की ओर से जम्मू और श्रीनगर में घर दिए जाते हैं। वहीं, सचिवालय के दफ्तर का समय दोनों ही जगह सुबह 9.30 से शाम 5.30 रहेगा।

पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला ने इस फैसले को बकवास और मूर्खतापूर्ण निर्णय कहा है। उमर के मुताबिक कोरोना के चलते दरबार मूव नहीं हो सकता यह समझ आता है लेकिन बिना फाइल और ऑफिसर के सचिवालय श्रीनगर में करेगा क्या?

देश में जम्मू-कश्मीर इकलौता राज्य है, जहां हर साल पूरी सरकार उठकर एक शहर से दूसरे शहर जाती है। अक्टूबर-नवंबर के आसपास सर्दियों में पूरी की पूरी सरकार, राजधानी और सचिवालय यहां तक की हाईकोर्ट भी उठकर जम्मू आता है और मई के महीने में गर्मियों में यह फिर से श्रीनगर चले जाते हैं। इसके लिए बकायदा फाइलें, कम्प्यूटर, फर्नीचर, 200 के लगभग ट्रकों में भरकर यहां से वहां जातेहैं। इनसे जुड़े सैंकड़ों सरकारी कर्मचारी भी श्रीनगर से जम्मू आते हैं और 6-6 महीनें अलग-अलग शहरों में काम करते हैं। जिस पर हर साल 100 करोड़ रुपए खर्च होते हैं।

जम्मू और श्रीनगर के बीच 300 किमी का फासला है। रिकॉर्ड्स और फाइलों का कॉन्वॉय और कर्मचारियों का दल अलग-अलग जाता है और दोनों को ही पुलिस सुरक्षा में ले जाया जाता है। इस लवाजमें के साथ खाली ट्रक, बसें और क्रैन भी जाती हैं।

दरबार मूव पर 15 जून के बाद नया फैसला आएगा। तब तकजम्मू और श्रीनगर दोनों जगहों पर सचिवालय के दफ्तर काम करेंगे।

डोगरा महाराज रणबीर सिंह ने 1872 में दरबार मूव की परंपरा शुरूकी थी। हालांकि 1987 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने कोशिश की थी कि ये परंपरा बंद कर दी जाए। जिसके लिए अब्दुल्ला ने पूरे साल सचिवालय श्रीनगर में रखने के आदेश जारी किए थे। जिस पर जम्मू में जमकर प्रदर्शन हुए और सीएम को आदेश वापस लेना पड़ा। यह परंपरा दोनों शहरों के मौसम को देखते हुए शुरूहुई थी। कश्मीर में कड़कड़ाती सर्दियों और जम्मू की भयानक गर्मी होती है।



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26 अक्टूबर 2009 को श्रीनगर में सर्दियों के पहले दरबार बंद हुआ था। लवाजमा उठकर जम्मू आया था। तस्वीर 4 नवंबर को जम्मू में दरबार खुलने की है।(फोटो- अंकूर सेठी)




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कोरोना वायरस की दुनिया में आगे बढ़ने के लिए कोई आइडिया है?

आपके अपार्टमेंट की लिफ्ट हो या फिर आपकी कार का दरवाजा या कार्यालय और हाउसिंग सोसाइटी का मुख्य द्वार, हर कोई अपनी छोटी अंगुली का इस्तेमाल कर दरवाजे के उस हिस्से को खोज रहा है, जिसे अब तक किसी ने नहीं छुआ हो। हम कुछ पलों के लिए अपनी कल्पना का इस्तेमाल कर यह सोचते हैं कि दरवाजे के किस हिस्से को किसी ने नहीं छुआ होगा। मेरी कॉलोनी के बहुत से लोग अब कॉलोनी में आने और बाहर निकलने, यहां तक कि अपनी कार के दरवाजे खोलने के लिए भी एक प्रकार की फ्रिज मैगनेट (चुंबक) इस्तेमाल कर रहे हैं।

अमेरिका की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) आधारित कंपनी स्कायला ‘गन डिटेक्शन सिस्टम’ बनाती है, जो बिल्डिंग में घुसने वाले हर व्यक्ति की बिना उसकी जानकारी के जांच करता है। यह कंपनी भी अब कोरोना वायरस पर काम कर रही है। इसने अपने एनालिटिक्स सॉफ्टवेयर में बदलाव कर किसी भी व्यक्ति के माथे के तापमान को नापने और बुखार का पता लगने पर अलर्ट भेजने के काम पर लगाया है।

कुछ ऐसे तरीके और उत्पाद हैं जो वर्तमान संकट के बाद भी काम आने वाले हैं। रोहिणी कटोच सेपत का ही उदाहरण ले लीजिए, जो बेंगलुरु के साउथ जोन की डिप्टी पुलिस कमिश्नर हैं। इनकी पहल पूरे देश के सभी पुलिस स्टेशनों के लिए एक आदर्श बन सकती है। उन्होंने एक ‘क्यूआर कोड’ बनाया है, जिसे मोबाइल से ऑनलाइन स्कैन किया जा सकता है और जिससे मोबाइल में आपके क्षेत्र की सभी आवश्यक सेवाओं की सूची आ जाती है। जैसे ठेले वाले सब्जी विक्रेता और उनके टेलीफोन नंबर। जोन के प्रत्येक पुलिस स्टेशन को एक अलग नक्शा दिया गया है, जिसके कारण लोगों का सड़कों पर आना काफी कम हो गया है। वहीं विक्रेताओं को भी होम डिलीवरी करने का आदेश दिया गया है।


इस मंगलवार को गाजियाबाद के एक सरकारी में कोरोना वायरस टेस्टिंग बूथ खोला गया है, जो ग्लास और एल्युमिनियम से बना है। इस बॉक्स के अंदर ही संक्रमित लोगों के संपर्क में आए बिना सैंपल लिए जाते हैं। पुराने जमाने के टेलीफोन बूथ याद हैं, वे फिर से दिखाई देंगे और कोरोना वायरस के खत्म होने के बाद भी हेल्थ चेकअप बूथ कहलाएंगे।


शोधकर्ताओं ने, जिनमें एक भारतीय मूल का भी है, एक ऐसा सिस्टम तैयार किया है, जो रोबोट्स को विशेष परिस्थितियों में डिनर टेबल जमाने जैसे जटिल काम करता है। यानी ऐसे काम जो आमतौर पर बहुत सारे नियमों के चलते रोबोट्स को भ्रमित कर सकते हैं। यह नया सिसटम, जिसे प्लानिंग विद अनसर्टेन स्पेसिफिकेशन (PUnS) कहा जाता है, रोबोट को मानव जैसी योजना बनाने की क्षमता देता है ताकि वे एक साथ कई अस्पष्ट और विरोधाभासी जरूरतें पूरा कर सकें। जरा कल्पना कीजिए, ये रोबोट घर से आपके साथ यात्रा करेंगे, आपके रास्ते में आने वाले सभी दरवाजे खोलेंगे, आपके केबिन के बाहर आपका इंतजार करेंगे और एक अस्सिटेंट की तरह आपके साथ कार में सुरक्षित वापस लौट आएंगे।


इससे मुझे पिछले महीने मुंबई में दिया गया टाटा संस के चेयरमैन एन चंद्रशेखरन का एक संबोधन याद आया, जिसमें उन्होंने कहा था ‘एआई सबके लिए है। हमें एआई के बारे में इस प्रभाव और गलत धारणा को दूर करना होगा कि यह केवल उच्चवर्ग या पढ़े-लिखे लोगों के लिए है। यह सभी के लिए है…’

फंडा यह है कि आइडिया छोटा हो या बड़ा, कोरोना वायरस की नई दुनिया में आगे बढ़ने के लिए एआई का इस्तेमाल करके या बिना इसके भी कुछ व्यावहारिक आइडिया सामने लाना चाहिए। अब 2020 में आगे बढ़ने का यही एकमात्र रास्ता है।



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Any ideas on how to get ahead in the corona virus world?




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‘यह यात्रा कहां शुरू कहां खतम’

आशुतोष मुखर्जी के उपन्यास से प्रेरित फिल्मकार असित सेन की फिल्म ‘सफर’ में राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर, फिरोज खान, नादिरा और आई.एस, जौहर ने अभिनय किया था। ‘सफर’ का कथासार-गरीब परिवार में जन्मा नायक अपनी प्रतिभा और परिश्रम से समाज में सम्मान जनक स्थान प्राप्त करता है। मेडिकल में पढ़ते हुए उसकी मित्रता सहपाठी से हो जाती है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर ने ये भूमिकाएं अभिनीत की थीं। दोनों को प्रेम हो जाता है परन्तु विवाह के पहले ही राजेश खन्ना अभिनीत पात्र को लाइलाज कैंसर हो जाता है। शर्मिला टैगोर अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए एक छात्र को पढ़ाने जाती हैं। छात्र का बड़ा भाई उससे प्रेम करने लगता है। कालांतर में दो घटनाएं होती हैं।

फिरोज खान को व्यवसाय में बड़ा घाटा होता है और उसे यह ज्ञात होता है कि उसकी पत्नी का राजेश खन्ना से प्रेम रहा है। वह आत्महत्या कर लेता है। पुलिस शक के आधार पर उसकी पत्नी को गिरफ्तार कर लेती है। अदालत में फिरोज खान अभिनीत पात्र की मां बयान देती है कि उसकी बहू पर लगाया आरोप निराधार है। मां की भूमिका नादिरा ने अभिनीत की थी। ज्ञातव्य है कि महबूब खान ने नादिरा को अपनी फिल्म ‘आन’ में दिलीप कुमार के साथ प्रस्तुत किया था। यह फिल्म शेक्सपीयर के नाटक ‘द टेमिंग ऑफ द श्रु’ से प्रेरित थी। नादिरा ने किशोर साहू निर्देशित ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में नकारात्मक भूमिका अभिनीत की थी। इस फिल्म का गीत ‘ये मंजिलें हैं कौन सी, कहां शुरू कहां खतम’ आज भी लोकप्रिय है। इस फिल्म में डॉक्टर और नर्स की प्रेमकथा प्रस्तुत की गई।

दक्षिण के फिल्मकार श्रीधर ने राजेंद्र कुमार राजकुमार और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म ‘दिल एक मंदिर’ मात्र 30 दिन की शूटिंग में पूरी कर ली थी। इसका क्लाइमेक्स अजीबो गरीब था कि कैंसर का रोगी तो स्वस्थ हो जाता है परंतु डॉक्टर की मृत्यु हो जाती है। ज्ञातव्य है कि कैंसर, कोरोना की तरह नजदीकियों के कारण नहीं फैलता। ट्विटर संसार में टिप्पणी की गई कि राज कपूर की ‘बॉबी’ के गीत की तरह ‘हम तुम कमरे में बंद हो और चाबी खो जाए’। आज सभी अपने घरों में बंद हैं। इच्छा मृत्यु विषय पर पहली फिल्म खाकसार कि ‘शायद’ थी।

गुलजार की विनोद खन्ना अभिनीत फिल्म ‘अचानक’ में मृत्युदंड दिए गए मरीज को निरोग करने का काम एक डॉक्टर को दिया जाता है जिसका फांसी पर चढ़ाया जाना अदालत तय कर चुकी है। डॉक्टर ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’ से बंधे हुए हैं। ज्ञातव्य है कि ईशा पूर्व तीसरी सदी में ग्रीक मेडिकल विज्ञान के छात्रों को यह शपथ दिलाई जाती थी कि वह मरीज में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। कोरोना डॉक्टरों का इम्तिहान ले रहा है। सरकार लगातार विज्ञापन दे रही है कि मनुष्य की जीवन भर की बचत इलाज में खर्च हो जाती है, इसलिए मेडिकल बीमा कराना आवश्यक है।

विजय आनंद की फिल्म ‘तेरे मेरे सपने’ में तो डॉक्टर कस्बे के उम्रदराज डॉक्टर के छोटे से अस्पताल में काम करते हैं। कस्बे की एक युवती से देवानंद अभिनीत डॉक्टर को प्रेम हो जाता है। साधनों की कमी और सीनियर डॉक्टर व पत्नी के बुरे व्यवहार के कारण देवानंद नौकरी छोड़कर महानगर चला जाता है। फिल्म में हेमा मालिनी एक सफल फिल्म सितारा बनी हैं। वह डॉक्टर पर मोहित हो जाती है। फिल्म में विजय आनंद ने यह भी रेखांकित किया कि गांव और कस्बों में अस्पताल नहीं हैं। कुछ जगह अस्पताल है परंतु यथेष्ट साधन नहीं हैं। टिमटिमाते दीये की रोशनी में शल्य क्रिया कैसे करें। फिल्म एजे क्रोनिन के उपन्यास ‘द सिटाडेल’ से प्रेरित थी। चिंताजनक बात यह है कि कोरोना कालखंड में महानगरों से लोग गांव लौट रहे हैं। जहां सुविधा नहीं है। अगर ग्रामीण क्षेत्र कोरोना से नहीं बचे तो भारत की बहुत हानि होगी।



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'Where did this journey begin?




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30 हेक्टेयर में फैले एशिया के सबसे बड़े ट्यूलिप गार्डन में 13 लाख फूल खिल चुके हैं, लेकिन इस बार इन्हें देखने कोई नहीं आएगा

एशिया के सबसे बड़े श्रीनगर के इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्यूलिप गार्डन में फूलों का मौसम आ गया है। जबरवान पहाड़ियों के मुहाने पर 30 एकड़ में बने इस खूबसूरत गार्डन में इस बार 55 वैरायटी के 13 लाख ट्यूलिप खिले हैं। कोरोना संकट के चलते इस बार गार्डन में फूल देखने कोई नहीं आएगा। लिहाजा पार्क सूना पड़ा है।

साल में बमुश्किल तीन से चार हफ्तों के लिए आबाद रहने वाला यह गुलशन इस बार वीरान है।

गार्डनफूल तो शबाब पर हैं, लेकिन इन्हें देखने इस बार कोई नहीं आएगा। कोरोना वायरस के चलते कश्मीर में लॉकडाउन कब तक रहेगा फिलहाल कहना मुश्किल है। सिर्फ कश्मीर में अभी तक 168 कोरोना पॉजिटिव मिल चुके हैं, जबकि 3 की मौत हो चुकी है।

मार्च-अप्रैल में ट्यूलिप गार्डन खुलने के साथ ही कश्मीर में टूरिस्ट सीजन की शुरुआत होती है।

बर्फबारी के बाद ट्यूलिप गार्डन और बादामवारी में फूल खिलना कश्मीर में बसंत के आने की निशानी होती है। इससे पहले के सालों में भी लाखों लोग इसे देखने आते रहे हैं।गार्डन का टिकट करीब 50 रुपएहोता है।

पिछले साल करीब ढाई लाख लोग यहां आए थे, जिसमें से एक लाख बाहरी पर्यटक थे। इनमें विदेशी भी शामिल हैं।

कश्मीर में कुल 308 बाग-बगीचे हैं। जिनकी देखरेख फ्लोरीकल्चर डिपार्टमेंट करता है। ट्यूलिप गार्डन भी उन्हीं के जिम्मे आता है। डिपार्टमेंट के 100 माली इसकी देखरेख करते हैं।पहले हार्वेस्टिंग फिर दो-तीन बार सनबर्न और नवंबर में रीप्लांट का काम होता है।

इस बगीचे की तैयारी पूरे साल चलती है। ट्यूलिप का मौसम बीत जाने के तुरंत बाद अगले साल की तैयारी शुरू हो जाती है।

ट्यूलिप गार्डन के एक ओर है डल झील, दूसरी ओर मुगलों का बनाया निशात बाग और तीसरी ओर वह ऐतिहासिक चश्म-ए-शाही,जहां के लिए कहा जाता है कि पंडित नेहरू सिर्फ वहां के चश्मे से निकला पानी ही पीते थे।

यहां हर साल नीदरलैंड्स से 60-70 लाख रुपए के फूल लाए जाते हैं। सरकार ने इसे पिछले साल 80 लाख रु.में आउटसोर्स किया था।

हर साल ट्यूलिप गार्डन में 10 दिन का ट्यूलिप फेस्टिवल होता है, जिसका नाम बहार-ए-कश्मीर है। इस फेस्टिव में घाटी के पारंपरिक संगीत और कला से जुड़े लोग शामिल होते हैं। इस साल इसके होने की भी कोई उम्मीद नहीं है। गार्डन की जमीन सिराजुद्दीन मलिक की थी, जो 1947 के बंटवारे में पाकिस्तान चले गए। तब सरकार ने इसे अपने कब्जे में ले लिया।

पहले कश्मीर का यह ट्यूलिप गार्डन सिराजबाग कहलाता था।

हॉलैंड के ट्यूलिप दुनियाभर में मशहूर हैं। यहां का कोएकेनहोफ ट्यूलिप गार्डन दुनिया का सबसे बड़ा फूलों का बाग है, जिसे फूलों से प्यार करनेवालों का मक्का कहा जाता है। यहां हर साल सात मिलियन, यानी 70 लाख फूल रोपे जाते हैं, जिनमें ट्यूलिप, डेफोडिल्स, गुलाब और लिली शामिल हैं।

दुनिया के पांच मशहूर ट्यूलिप गार्डन और फेस्टिव में शामिल है श्रीनगर।

दुनिया में ट्यूलिक गार्डन्स मेंपहले नंबर पर हॉलैंड का कोएकेनहोफ आता है, दूसरे नंबर पर अमेरिका के माउंट वरनोन का स्कगित ट्यूलिप फेस्टिवल है। कनाडा के ओटावा का ट्यूलिप गार्डन तीसरा सबसे मशहूर बाग है।कश्मीर का ट्यूलिप गार्डन दुनिया में पांचवा सबसे मशहूर बाग माना जाता है। ऑस्ट्रेलिया के सिलवन टाउन में टेसेलार ट्यूलिप फेस्टिवल दुनिया का चौथा सबसे शानदार आयोजन कहलाता है।

कश्मीर का ट्यूलिप गार्डन दुनिया में पांचवें नंबर पर है।


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कश्मीर के ट्यूलिप गार्डन को दुनिया का पांचवा सबसे मशहूर बाग माना जाता है। तीन से चार हफ्तों के लिए आबाद रहने वाला यह गुलशन इस बार वीरान है।




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कहानी जरूरी इलाज और दवाइयों के लिए भटकते लोगों की, जिनके लिए उनके मौजूदा रोग कोरोना से ज्यादा जानलेवा

कोरोना से प्रभावित दुनिया के तमाम देशों की तुलना में भारत में अब तक इस महामारी के प्रभाव काफी हद तक नियंत्रित है। एक तरफ जहां वे विकसित देश भी इस महामारी से हांफते नजर आ रहे हैं जिनकी स्वास्थ्य सेवाएं पूरी दुनिया में अव्वल हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत ने अपनी सीमित संसाधनों वाली स्वास्थ्य व्यवस्था के बावजूद भी महामारी को विकराल होने से रोके रखा है। हमारे डॉक्टर ‘कोरोना वॉरियर्स’ बनकर पूरी ताकत झोंके हुए हैं। लेकिन हमारी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना से निपटने में इस कदर खप रही है कि अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ने लगी हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जिनके लिए उनके मौजूदा रोग ही कोरोना से ज्यादा जानलेवा हैं। इससे होने वाला नुकसान कोरोना से होने वाले संभावित नुकसान से भी बड़ा हो सकता है। आपबीती ऐसे ही कुछ लोगों की -

मृत्युंजय तिवारी की उम्र 71 साल है। वे पूर्व सैनिक हैं और बिहार के भभुआ में रहते हैं। सेना में रहते हुए वे 1971 का भारत-पाक युद्ध भी लड़ चुके हैं और सालों तक कश्मीर घाटी में आतंकियों से लोहा भी लेते रहे हैं। लेकिन उनके जीवन पर ऐसा संकट कभी सेना में रहते हुए भी नहीं आया था जैसा इन दिनों स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमराने से आ खड़ा हुआ है।

बीती आठ तारीख को मृत्युंजय अपने घर के बाहर टहल रहे थे, तभी एक बाइक सवार ने उन्हें टक्कर मारकर गंभीर रूप से घायल कर दिया। परिजन तुरंत ही उन्हें जिला अस्पताल लेकर पहुंचे। अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टरों और संसाधनों की कमी का हवाला देते हुए उन्हें बनारस के ट्रॉमा सेंटर जाने को कहा। बीएचयू का यह ट्रॉमा सेंटर बिहार-उत्तर प्रदेश बॉर्डर के इस इलाके के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक है।

मृत्युंजय के बेटे प्रमोद तिवारी बताते हैं, ‘ट्रॉमा सेंटर वालों ने पिता जी का प्राथमिक उपचार और एक्स-रे जैसी कुछ जांच तो की लेकिन फिर भर्ती करने और इलाज करने में असमर्थता जता दी। उन्होंने कहा कि कोरोना के चलते इस वक्त यहां इनका इलाज होना मुमकिन नहीं है।’

फिर मृत्युंजय के परिजन उन्हें लेकर हैरिटेज हॉस्पिटल पहुंचे। ये बनारस का एक बड़ा प्राइवेट हॉस्पिटल है। प्रमोद कहते हैं, ‘पिता जी के साथ मेरी माताजी और चाचा हॉस्पिटल गए थे। वहां उनसे पूछा गया कि क्या उनमें से कोई हाल-फिलहाल में विदेश से तो नहीं लौटा है? चाचा पिछले महीने विदेश से लौटे थे।’

दिल्ली में एक डॉक्टर के घर के बाहर हमें यह पोस्टर मिला। डॉक्टर ने मरीजों की मदद करने की बजाय खुद को 14 अप्रैल तक क्वारैंटाइन करना ज्यादा बेहतर समझा।

प्रमोद आगे कहते हैं, ‘चाचा ने अस्पताल प्रशासन को बताया कि वे विदेश से लौटे हैं, लेकिन इसकी जानकारी स्थानीय प्रशासन को भी है और वे 20 दिनों तक क्वारैंटाइन भी रह चुके हैं। उन्होंने यह भी बताया कि इस पूरे दौरान उन्हें कोरोना के कोई लक्षण नहीं रहे हैं। लेकिन विदेश की बात सुनते ही अस्पताल प्रशासन ने पिता जी को एडमिट करने से साफ इनकार कर दिया। वे लोग चाचा से उनका पासपोर्ट मांगने लगे।

वहां पिताजी स्ट्रेचर पर थे, पैर की हड्डी कई जगह से टूट चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रशासन उन्हें ऐसा ही छोड़कर चाचा के पासपोर्ट पर बहस कर रहा था। चाचा ने कहा भी कि वे पासपोर्ट ले आएंगे लेकिन 90 किलोमीटर दूर से पासपोर्ट लाने या मंगाने में समय लगेगा लेकिन अस्पताल नहीं माना।’

आखिरकार एक अन्य प्राइवेट हॉस्पिटल मृत्युंजय तिवारी को भर्ती करने को तैयार हुआ, जहां वे अब भी आईसीयू में संघर्ष कर रहे हैं। इस हॉस्पिटल में दाखिल करने के कुछ घंटों के भीतर ही करीब 25 हजार रुपए की दवाएं और सात हजार रुपए आईसीयू चार्ज वो चुका चुके हैं।

इसके अलावा आम दिनों में डॉक्टर विजिट की जो फीस एक हजार रुपए तक होती है, वो इन दिनों पांच से दस हजार रुपए ली जा रही है और इसके बाद भी पक्का नहीं है कि डॉक्टर आए ही। प्रमोद बताते हैं, 'पिताजी का स्वास्थ्य बीमा है लेकिन वो भी अब किसी काम का नहीं क्योंकि ये अस्पताल बीमा कंपनी के पैनल में नहीं है। हैरिटेज हॉस्पिटल पैनल में था तो उसने पिताजी को भर्ती ही नहीं किया।'

बीएचयू ट्रॉमा सेंटर में ही आम दिनों में करीब सात-आठ हजार मरीज रोज आते हैं। ये सभी वो लोग होते हैं, जो अलग-अलग जिलों से हताश होकर यहां सही ईलाज मिल पाने की उम्मीद में पहुंचते हैं। यानी लगभग सभी गम्भीर मामले आते हैं।

मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘कोरोना से लड़ने के लिए पूरे देश में स्वास्थ्य विभाग युद्ध स्तर पर काम कर रहा है। लेकिन बावजूद इसके महामारी के चलते वे लोग परेशानी में आ गए हैं जो अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। प्राइवेट क्लिनिक बंद पड़े हैं, दवाओं की आपूर्ति नहीं हो रही है और हृदय रोग से लेकर कैन्सर जैसी गम्भीर बीमारियों तक पर इस वक्त ध्यान देने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।'

21 दिनों का लॉकडाउन डॉक्टरों के लिए नहीं है, लेकिन देशभर से प्राइवेट हॉस्पिटल के बंद होने की खबरें सामने आईं। ऐसी ही एक तस्वीर दिल्ली के सीआर पार्क में दिखी।

इलाहाबाद में रहने वाले सुनीत मिश्र के पिता को ब्लड कैंसर है और पिछले तीन साल से उनका इलाज चल रहा है। सुनीत बताते हैं, ‘डॉक्टर ने पिता जी को जो दवा नियमित खाने को कहा है वो आम दिनों में भी बाजार में नहीं मिलती। अस्पताल ने ही हमें एक एजेंट का नम्बर दिया था, जिससे वो दवा हमें मिलती है। करीब आठ हजार रुपए में सिर्फ 21 दिनों की दवा आती है।'

सुनीत आगे कहते हैं, ‘इस बार एजेंट ने हमें कहा कि दवा इलाहबाद में नहीं है लखनऊ से लेनी होगी। मेरा भाई बाइक से लखनऊ गया, लेकिन वहां जाकर पता चला कि दवा वहां भी खत्म हो चुकी है। ये भी नहीं पता कि दवा कब आएगी।'

दिल्ली के लाजपत नगर में रहने वाले लोकेश बहल का 6 साल का बेटा आरव बीती 1 तारीख को घर पर खेलते हुए गिर पड़ा जिसके चलते उसके सिर में चोट आई। आस-पास के तमाम क्लिनिक और डिस्पेंसरी बंद थे। एक क्लिनिक खुली थी, वहां मौजूद डॉक्टर ने लोकेश से सात सौ रुपए फीस के लिए और दवा लिखने के साथ उन्हें किसी अन्य हॉस्पिटल जाकर बच्चे को टांके लगवाने को कह दिया। फिर लोकेश अपने बेटे को लेकर मूलचंद हॉस्पिटल गए। यहां सिर्फ दो टांके लगवाने के लिए उन्हें 4,150 रुपए चुकाने पड़े।



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ये दिल्ली का एक मोहल्ला क्लिनिक है। आमतौर पर सुबह 8 से दोपहर 2 बजे तक खुला रहता है, लेकिन लॉकडाउन के बीच हम जब शनिवार को दोपहर 12.30 बजे पहुंचे तो ये बंद मिला।




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वक़्त के पांवों में कांटा नहीं चुभता, वह नहीं रुकता

खुश रहना हर हाल में

ये ताकीद बचाती आई है,

अपने जैसे कितनों को

उम्मीद बचाती आई है।

मैं अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहा हूं बाहर खाली सड़क है। खाली सड़क कोरे कागज़ की तरह होती है जिस पर कभी भी कुछ भी लिखा जा सकता है। या फिर शायद खाली सड़क किसी खाली कैनवस की तरह होती है, जिस पर कुछ भी बन सकता है। जैसे अभी बन गया सड़क पर एक साइकिल, जिसे सत्रह-अठारह साल का लड़का चला रहा है। आधा घंटा पहले लोकल बस गुजरी थी, जिसे कोई अधेड़ चला रहा था। उससे पहले एक कार जिसे लड़की चला रही थी। लो अभी देखो जिन्दगी गुजर रही है सड़क पर से। आप पूछेंगे जिन्दगी दिखने में कैसी है-मैं कहूंगा जैसी आप कल्पना कर लें। आप पूछेंगे जिन्दगी कौन चला रहा है-मैं कहूंगा अपनी जिन्दगी के चालक आप हैं।

हम इस समय घर में बैठे बोर भी हो सकते हैं, बार-बार ये बोल भी सकते हैं कि ये कैदखाना खुल ही नहीं रहा। हम इसी समय अपने ही घरवालों के साथ वो तार भी जोड़ सकते हैं जो शायद हमें भी नहीं पता कि टूट रहा है। वो कनेक्शन भी फिर से ठीक कर सकते हैं जो मोबाइल ने लूज कर दिया था। वो पुल बना सकते हैं जो दो दिलों के बीच होता है। एक रिश्ते से दूसरे रिश्ते तक जाता हुआ।

एक दिन दफ्तर में काम के बोझ तले दबा मैं चाय का कप हाथ में लेकर उसके बारे में सोचने लगा। मैंने कभी उसे कहा नहीं कि उसका कॉफी कलर का बनाना क्लिप मुझे बहुत अच्छा लगता है, नहीं कहा कि मेरी इच्छा है कि हम दोनों किसी शाम दूर पहाड़ी ढलान पर बने घरों की बत्तियों को देखते हुए तब तक बातें करते रहें, जब तक कि दुनिया की सारी बातें खत्म ना हो जाए, कभी नहीं सराहा बहन के कारण घर में रहने वाली रौनक को, कितने साल हो गए अपने बेटे के साथ बचपन का कोई खेल खेले हुए...कितना टालता रहा हूं मैं वो छोटी-छोटी चीजें जो बहुत जरूरी थीं। मैंने कभी अपनी आंखों के नीचे पड़ने वाले काले गड्‌ढों को नहीं देखा। कई महीने हो गए लड़कपन के उस दोस्त का हाल पूछे भी जिसके घर के बाहर से मेरी साइकिल चोरी हो गई थी। तब मेरी उम्र उतनी ही थी, जितनी उस लड़के की, जो सलेटी सड़क की कैनवस पर काले रंग की साइकिल चला रहा था।

चला रहा था।
उम्र गुजरी भी नहीं
और कुछ गुजर भी गई
वक्त ठहरा भी नहीं
और कुछ ठहर भी गया।

हालांकि वक्त के पांवों में कभी कांटा नहीं चुभता, वो कभी नहीं रुकता, गुजर ही जाता है। अब मैं घर में हूं और मेरे पास वक्त भी है तो अब मैं बताऊंगा उसे उसके रेशमी बालों में लगे क्लिप के बारे, उसे बताऊंगा कि जिन्दगी को खूबसूरत बनाने में उसका भी उतना ही योगदान है, जितना मेरा। अब बहन से या किसी भाई से बचपन जैसी मासूम सी चालाकी करूंगा। अब फिर बेटे को अंगुली पकड़कर चलना सिखलाऊंगा। लेकिन चलने के ये रास्ते अलग होंगे, इस बार उसे ये भी बताऊंगा कि चलते हुए कई बार रास्ते की चीज़ों को ठहरकर देखना भी जरूरी होता है।

जैसे अभी हम सब ठहर गए, रुक गए। ये घर में बीत रहा समय उनके लिए बेहद यादगारी समय है, जिन्होंने अपने दिल और दिमाग बाजारवाद के पास गिरवी नहीं रख दिएहैं, जो रिश्तों के पौधों को पानी दे रहे हैं, अच्छा पढ़-लिख रहे हैं, अच्छा गीत-संगीत सुन रहे हैं, अच्छा सोच-विचार कर रहे हैं। वो सब खूबसूरत सोच वाले लोग घर से काम करते हुए वो सब कर लेंगे, जो उन्हें दफ्तर में बैठकर याद आता था। पुराने दोस्त को फोन करना, महबूबा के सिर के इकलौते सफेद बाल की तारीफ करना-बच्चे की पसंद न पसंद समझना, बीवी की मेहनत की कदर करना-अपनी सोच के बारे में सोचना, अपनी सेहत का ख्याल रखना या फिर ऐसा और भी बहुत कुछ जो दफ्तर में याद तो आता था लेकिन समय की कमी करने नहीं देती थी।

सीधे शब्दों में ये समय हमें जिन्दगी की फिर से परिभाषा समझाने आया है, फासलों का नया फॉर्मूला बताने आया है। रिश्तों के रेखाचित्र से स्वार्थों की धूल झाड़ने आया है। हमारे अहम् को, हमारी मैं को जमीन पर उतारने आया है। हमारी हमारे ही घर से जान-पहचान करवाने आया है। कुछ देर रुककर, सही और गलत दिशा के बारे में सोच कर फिर जल्दी ही निकल पड़ना है हमें वैसी ही किसी सड़क पर जिस पर सत्रह-अठारह साल का लड़का साइकल चला रहा था। शायद असगर गोंडवी का ये शेर याद करता हुआ:
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस* से
अगर आसानियां हों ज़िंदगी दुश्वार** हो जाए।
*हादसों की लहर, **मुश्किल



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इरशाद कामिल कवि और गीतकार ।




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जापान के स्वैच्छिक व सॉफ्ट लॉकडाउन पर तेज हुई बहस

(टोक्यो से भास्कर के लिए जूलियन रयाल) कोरोना वायरस के विस्तार को रोकने के लिए जापान ने नए कानून बनाए हैं, जो पिछले मंगलवार की मध्यरात्रि से प्रभावी हो गए हैं। सरकार ने इस माह के अंत तक सभी डिपार्टमेंटल स्टोर्स, स्कूल, जिम, गेम सेंटर्स, खेल परिसरों, स्वीमिंग पूल और अन्य सार्वजनिक स्थानों को बंद रखने के आदेश दिए हैं। साथ ही लोगों से कहा है कि बार और रेस्टोरेंट जाने की बजाय अधिक से अधिक घर पर ही रहें। कंपनियों से कहा गया है कि वे अपने कर्मचारियों के लिए दूर रहकर काम करने की व्यवस्था करें। हालांकि, बुधवार को हजारों लोग टोक्यो में काम पर जाने के लिए निकल आए थे। ट्रेन और सबवे कंपनियों के मुताबिक नए नियम लागू होने के बाद से टोक्यो आने वाले यात्रियों की संख्या में 60 फीसदी की कमी हुई है।

यह निश्चित ही सकारात्मक है, लेकिन यह दुनिया के अन्य शहरों पेरिस, लंदन और न्यूयॉर्क के मुकाबले बहुत कम है। इसका मतलब साफ है कि जापान सरकार का ‘सॉफ्ट लॉकडाउन’ उतना प्रभावी न रहे जितना इसे होना चाहिए। टोक्यो के शिंजुकु स्टेशन से एक सामान्य काम वाले दिन 36.4 लाख लोग सफर करते हैं। अगर इसमें 60 फीसदी की कमी भी होती है तो भी लाखों लोग भरी हुई ट्रेनों से एक साथ उतरेंगे और एक-दूसरे के पीछे चलते हुए दुनिया में एक लाख से अधिक मौतों की वजह बने इस वायरस को फैलाएंगे। काम के बाद वे इसे लेकर अपने परिवारों के पास जाएंगे। इसलिए इस वायरस को लेकर जापान की प्रतिक्रिया भ्रम में डालने वाली है।

जापान का पहला केस 16 जनवरी को सामने आया था। चीन के वुहान से दक्षिण टोक्यो के कानागावा लौटा जापानी नागरिक जांच में पॉजिटिव पाया गया था। इससे अगले दो मामले जापान में छुटि्टयां बिता रहे चीनी नागरिकों के थे और यह साफ दिखा रहा था कि जापान इस वायरस से बचने वाला नहीं है। सरकार की नीतियों में उच्च स्तर पर भ्रम का एक संकेत डायमंड प्रिंसेज क्रूज शिप पर वायरस के पुष्ट मामले सामने आने पर भी मिला था। इस जहाज को योकोहामा में रुकने पर मजबूर किया गया था और उसके यात्रियों तथा क्रू को जहाज पर ही क्वारेंटाइन किया गया था। जबकि, अनेक विशेषज्ञों का कहना था कि क्रूज को खाली कराकर 3711 यात्रियाें व क्रू सदस्यों को अस्पताल में भर्ती कराना चाहिए, लेकिन सरकार ने बिल्कुल उल्टा किया। इसका परिणाम यह रहा कि 712 लोग संक्रमित हुए और शिप से उतरने से पहले ही 12 लोगों की मौत हो गई। सवाल उस समय भी उठे थे, जब सरकार ने यहां से जापानी यात्रियाें को सार्वजनिक परिवहन से घर जाने की अनुमति दे दी थी।

इसके बाद भी सरकार बीमारी को फैलने से रोकने के लिए कड़े प्रावधान करने का विरोध कर रही थी। इसके बारे में आलोचकों का कहना था कि सरकार जुलाई में प्रस्तावित टोक्यो ओलिंपिक खेलों को खोना नहीं चाहती थी, इसलिए वह ऐसा कर रही थी। सरकार ने संक्रमितों की संख्या कृत्रिम रूप से कम दिखाने के लिए जांच कराने के कड़े नियम भी बनाए थे। इसके अलावा जांचों की संख्या भी बहुत ही कम थी। हालांकि, दुनियाभर में वायरस का प्रकोप बढ़ने के बाद गत 24 मार्च को ओलिंपिक खेलों को 2021 की गर्मियों तक स्थगित कर दिया गया है। इसके कुछ दिनों के भीतर ही टेस्ट की संख्या और संक्रमितों की संख्या में भी तेजी दिखने लगी। 10 अप्रैल तक सरकार 64,387 टेस्ट कर चुकी थी, जो देश की 12.7 करोड़ की जनसंख्या की तुलना में बहुत ही कम हैं।

ओलिंपिक की तिथि आगे बढ़ने के बाद सरकार के पास इस बात की बड़ी गुंजाइश है कि वह वायरस को फैलने से रोकने के लिए प्रतिबंधों को लागू करे। हालांकि, जापान के कानूनों के तहत सरकार अन्य देशों की तरह पूर्ण लॉकडाउन लागू नहीं कर सकती। इस वजह से अधिकारी लोगों से प्रतिबंधों को मानने की गुजारिश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा न करने वालों के लिए काेई दंड नहीं है। जापानी कंपनियां आज भी स्टाफ को बुला रही हैं और उन्हें अपने साथियों के साथ करीब बैठना पड़ता है। अनेक विदेशी नागरिक, जिनके देशों में लॉकडाउन लागू है, वे सरकार से ऐसा ही जापान में भी लागू करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन अब भी प्रतिबंध स्वैच्छिक हैं। इस हफ्ते मौसम के अच्छा रहने का पूर्वानुमान है और लोग पार्कों में घूमने व शॉपिंग के लिए निकलेंगे। इनमें से कोई भी अनजाने में वायरस का कैरियर हो सकता है।

महामारी के खत्म होने के बाद ही जापानियाें के पास मौका होगा कि वे इस बात पर विचार करें कि सरकार ने प्रतिबंधों को अन्य देशों की तुलना में एक महीने बाद लागू करके ठीक किया या गलत। हो सकता है संक्रमितों की संख्या कम रहे। लेकिन, आज इस बात की पूरी आशंका है कि वायरस देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से में घुसपैठ कर चुका है। इसलिए हमारे लिए जरूरी है कि हम घर पर ही रहें और अपने लिए हम यहीं सबसे अच्छा कर सकते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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Japan's debate over voluntary and soft lockdown intensified




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सामाजिक अशांति के संकेतों पर नजर रखें

दिल्ली के यमुना-पुश्ता के तीन शेल्टरहोम्स के बेघरों, भिखारियों और मजदूरों ने पुलिस पर पथराव किया और होम्स को आग लगा दी। पटियाला में पुलिस पर हमला भी संगीन है। देखने में इन घटनाओं को कुछ अराजक लोगों का उपद्रवी स्वभाव कहा जा सकता है, लेकिन कई मुख्यमंत्रियों ने लॉकडाउन बढ़ाने के औचित्य को सही ठहराते हुए भी ऐसी शंका जाहिर की थी। लॉकडाउन-2 में उन मजदूरों की निराशा बढ़ेगी जो रोजी-रोटी खोकर भीख मांगने वालों के साथ लाइन में हाथ पसारे खड़े हैं। अपना मूल घर, बेचारगीजनित नैराश्य भाव में और ज्यादा अपनी ओर खींचता है।

उधर, कुछ मुख्यमंत्री इन मजदूरों को इनके मूल राज्य में भेजने की वकालत कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें तीन टाइम भोजन और निवास का प्रबंध करना पड़ रहा है, जबकि ये मजदूर किसी और राज्य में काम करते थे और किसी अन्य राज्य के निवासी हैं। जैसे बिहारी मजदूर दिल्ली में काम करते थे, लेकिन जब लाखों की संख्या में इनका दिल्ली से पलायन हुआ तो रास्ते में उत्तर प्रदेश में इन्हें रोककर क्वारंटाइन केंद्रों में डाला गया। महाराष्ट्र, केरल और बिना व्यथा कहे दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारें भी चाहती हैं कि प्रवासी मजदूर अपने मूल गांवों में भेजे जाएं, वहां की सरकारें उनके भोजन, आजीविका और स्वास्थ्य की देखभाल करें।

यहां पर दो नैतिक प्रश्न उठते हैं। लॉकडाउन के बाद जैसे ही दिल्ली से बिहार की ओर पलायन शुरू हुआ, बिहार सरकार ने अपना बॉर्डर ही सील नहीं किया, दिल्ली और बीच में आने वाले उत्तर प्रदेश की सरकारों से इन्हें जहां तक पहुंचे हैं, वहीं रोकने का आग्रह किया। बिहार की जीडीपी में बाहर काम कर रहे मजदूरों द्वारा भेजे गए पैसे का योगदान 37.3 प्रतिशत है, फिर सरकार अपनी जिम्मेदारी से क्यों भाग रही है? लेकिन दूसरा नैतिक पक्ष इससे भी मजबूत है।

जिन राज्यों में ये मजदूर काम कर रहे हैं, वहां भी ये कृषि (पंजाब), उद्योग (मुंबई) और सेवा क्षेत्र (दिल्ली और केरल) की रीढ़ की तरह हैं। काम वाली बाई की वजह से ही मैडम नौकरी कर पाती हैं और अपनी आमदनी दूनी करने के बाद शाम को परिवार में जो पिज्जा आता है, वह भी यही मजदूर (डिलीवरी बॉय) देता है। लिहाजा इस संकट के समय प्रवासी मजदूरों का, मूल राज्य की सरकार और जहां ये कार्यरत हैं, वहां की सरकार इन्हें दुत्कारने की जगह आपस में मिलकर इन्हें मदद करें।



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Watch for signs of social unrest




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हर हाल में नैतिकता का पालन करें

यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि हमारे जीवन में आने वाला हर व्यक्ति हमारा हितकारी हो। कोरोना के इस दौर में एक वर्ग पर संदेह उठ रहा है कि क्या इन्होंने जान-बूझकर बीमारी फैलाने का खेल खेला? देखिए, कोई हमारा हित करे, हमारा भला सोचे तब तो जीवन आसान है, लेकिन परीक्षा तब होती है जब कोई हमें नुकसान पहुंचाने का प्रयास करे। तब क्या करें?

शास्त्रों में कहा गया है कि ऐसेे समय नैतिक बन जाइए। तो यहां भी एक सवाल उठ सकता है कि क्या नैतिक हो जाने से लोग हमारा अहित नहीं करेंगे? दरअसल, जैसे ही हम नैतिक बनते हैं, हमारे लिए मित्रता और शत्रुता के अर्थ बदल जाते हैं। जब हमारे साथ कुछ बुरा, कुछ अप्रिय होगा तो हम अपने आपको समझाएंगे कि रुक जाओ, देखो, सुरक्षा कर लो।

जरूरत पड़े तो ही आक्रमण करो, अन्यथा कोई तो है जो हमारी मदद करेगा। कुछ आप करें, कुछ होने दें, यह नैतिकता का स्वर है। जब भीतर ये छह बातें जागेंगी तो आप नैतिक होते हैं- क्षमाशील हो जाएं- क्रोध गिरेगा, दयालु हो जाएं- वैराग्य जागेगा। शालीन बन जाएं- चरित्र प्रबल होगा, भाषा मधुर हो- व्यक्तित्व में विनम्रता उतरेगी।

संयमी रहें- दृढ़ता के साथ नैतिकता का पालन कर पाएंगे और धैर्य रखें- परिणाम में शांति मिलेगी। कोई ऐसी शक्ति जरूर है जो नैतिकता के पालन में मदद करेगी। तो फुरसत के इन दिनों में परिवार के साथ रहते हुए उस शक्ति को खोजिए जो आपको नैतिक बना सके।



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