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निर्भया आरोपियों की फांसी से अभिभावक भी सीख लें

विख्यात न्यायविद फ्रैंकफर्टर ने कहा था, ‘अदालत का अस्तित्व उसी दिन समाप्त हो जाना चाहिए जिस दिन वह तत्कालीन जनमत के दबाव में फैसला दे’। निर्भया के सभी चार अभियुक्तों को अंततः फांसी मिली और वह भी फांसी के चार घंटे पूर्व तक यानी रात के दो बजे तक देश की सबसे बड़ी अदालत और हाईकोर्ट के एक बार फिर उनकी याचिका को सुनकर और खारिज करने के बाद। इसके पहले विभिन्न अदालतें फांसी टालने के लिए बचाव पक्ष की नई-नई याचिकाओं को सुनकर तीन बार फांसी का दिन टालती रहीं, जिस पर हर बार देश की जनता का गुस्सा न्यायपालिका के खिलाफ बढ़ जाता था। लेकिन, न्यायपालिका में बैठे लोगों का दिमाग जनभावना से प्रभावित न होना ही सही न्याय दे सकता है, यह देश की न्यायपालिका ने एक बार फिर दिखा दिया।

बहरहाल, जनता जघन्य अपराध के किरदारों की मौत की खुशी में इस फांसी का संदेश शायद भूल गई। संदेश यह नहीं है कि कानून के हाथ सख्त हैं या देर से ही, लेकिन अपराधी की गर्दन तक पहुंच जाते हैं। संदेश यह है कि बच्चों के मां-बाप या अभिभावक अपने बच्चे को बेहतर नैतिक शिक्षा देने में कोताही न करें। आज का दिन सभी अभिभावकों के लिए सोचने का दिन है कि कैसे एक किशोर बलात्कारी या पशुवत सोच वाला युवा बनता है और क्या कमी उसके लालन-पालन में रही है, जिससे वह नैतिक पतन की घिनौनी राह पर चला जाता है।

समाजशास्त्री मानते हैं कि नैतिक शिक्षा देकर आने वाली पीढ़ी को बेहतर समाज बनाने वाली दो संस्थाएं हैं मां की गोद और प्राइमरी का शिक्षक। बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति में इन दोनों ने अपना यह मूल कार्य छोड़ दिया। नई टेक्नोलॉजी में इंटरनेट की सहज उपलब्धता के कारण बालकों के अबोध मन में नैतिक तंतु विकसित होने से पहले ही पोर्नोग्राफी तक पहुंच उसके मष्तिष्क को दूषित कर देती है। शहरीकरण में विलुप्त होती सोशल पुलिसिंग और मां-बाप का बच्चों पर निगरानी में कम समय देना, उसे गलत राह पर ले जाने को उद्धत करता है। इसलिए प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ के एक एपिसोड में कहा था कि ‘बेटे की गतिविधि पर भी अभिभावक वही पैनी नजर रखें, जो बेटियों के लिए रखते हैं’।



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निर्भया के चारों दोषियों को शुक्रवार सुबह 5:30 बजे फांसी दी गई।




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आत्मविश्वास के लिए पेड़ों से जुड़ें

पेड़ बोलते हैं, इसलिए जंगल में जीवन होता है। यह बात सुनने में अजीब लगेगी, लेकिन यदि अपने भीतर कुछ ऐसी तैयारी कर लें तो आप पेड़ों से भी बात कर लेंगे, उनको भी सुन सकेंगे। आज आपाधापी के शहरी जीवन से यदि जंगल में निकल जाएं तो आपको वहां भी एक नए ढंग की जिंदगी महसूस होगी। हमारे यहां शास्त्रों में तो कई तरह की कथाएं वनवास की हैं। वनगमन उस समय एक तप माना जाता था। श्रीराम जो केवल अवध के राजकुमार थे, लोकनायक वनगमन के बाद ही बने।

पांडवों ने भी वनवास बिताते हुए एक विशेष पहचान बनाई थी। बुद्ध, महावीर ये सब वन से ही गुजरकर वहां पहुंचे हैं, जहां मनुष्य की श्रेष्ठता दिखती है। आज जब पूरी दुनिया वनदिवस मना रही है, वन से जरूर जुड़िए, पेड़ों से बात करिए। अकेले में किसी पेड़ के पास खड़े होकर उसकी आवाज सुनिए। लेकिन ऐसा तब ही हो सकेगा जब अपने भीतर इसकी तैयारी कर लेंगे। दरअसल, मनुष्य सारे काम शरीर से करता है, इसलिए शरीर को कभी किसी पेड़ की आवाज सुनाई नहीं देगी।

जीवन में जंगल का कोई मतलब समझ में नहीं आएगा, लेकिन जैसे-जैसे अपनी आत्मा पर जाएंगे, आपको पेड़ भी बोलता सुनाई देगा। लोगों ने जीवन ढूंढा है पेड़ में और जंगल में। आज देश में जिस तरह का वातावरण एक बीमारी के कारण बन गया है, उसमें यदि आत्मविश्वास जगाना हो, जीवनशैली में सजगता लाना हो तो अपने आपको पेड़ और वन से जोड़ने का भी संकल्प लीजिए।



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‘जनता कर्फ्यू’ के दौरान अपने जीवन में मूल्य जोड़ें

कोई भी शिक्षक अपने बेटे या बेटी को शिक्षा दिलाए तो इसमें कोई नई बात नहीं है। लेकिन शिक्षा पूरी करने के दौरान ही शिक्षक की मृत्यु हो जाए तो क्या होगा? आरजे लिनज़ा के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ, जब वह 2001 में बैचलर डिग्री की पढ़ाई कर रही थी। उसके पिता, संस्कृत के शिक्षक राजन केके का निधन हो गया। किसी भी दौर में संस्कृत शिक्षक की तनख्वाह कितनी होगी, इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। स्कूल ने उसे केरल के कासरगोड जिले में स्थित उसी स्कूल में अनुकंपा के आधार पर सफाईकर्मी की नौकरी का प्रस्ताव दिया। यह ‘लीव वैकेंसी’ का प्रस्ताव था, यानी उसे सिर्फ तभी काम पर बुलाया जाता, जब कोई कर्मचारी छुट्‌टी पर जाता। उसने इस प्रस्ताव को इसलिए मान लिया क्योंकि उसपर परिवार की और खासतौर पर भाई की जिम्मेदारी थी, जो तब 11वीं कक्षा में था। स्कूल में काम करने के दौरान बचे हुए समय में वह पढ़ाई करती, ताकि वह बीए और फिर एमए कर सके। चूंकि समय गुजरता जाता है और उम्र के साथ शादी भी जरूरी होती है। लिहाजा, लिनज़ा ने 2004 में सुधीरन सीवी से शादी कर ली, जो एक कॉलेज में क्लर्क था। लिनज़ा का पद और उसकी आय, जो वह पीहर में साझा करती थी, कभी भी उसके वैवाहिक जीवन में आड़े नहीं आई। कुछ सालों में वह दो बच्चों की मां बन गई।लेकिन लिनज़ा ने 12 साल तक स्कूल में सफाईकर्मी का काम करते हुए भी व्यवस्थित ढंग से अपनी पढ़ाई की योजना बनाई और केरल टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट और स्टेट एलिजिबिलटी टेस्ट पास किए, जो कि शिक्षक बनने के लिए जरूरी होते हैं। फिर 2018 में जब एक शिक्षक की जगह खाली हुई तो उसने आवेदन दिया और उसे नौकरी मिल गई। आज इस अंग्रेजी की शिक्षिका को अपने जीवन में मूल्य जोड़ने की इच्छा शक्ति के लिए सलाम किया जाता है। अब उसे पदोन्नति का भी इंतजार है।


एक और शख्सियत है, जो कॅरिअर के शिखर पर पहुंचने के बाद भी अपनी शिक्षा में मूल्य जोड़ना नहीं भूली। ये हैं सेबर इंडिया, हैदराबाद में सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की निदेशक प्रिया ढंडपानी। आज वह 93 प्रोफेशनल्स की एक वैश्विक टीम को लीड कर रही हैं, जिसमें टेक्निकल आर्किटेक्ट, डेवलपमेंट मैनेजर, क्वालिटी एनालिस्ट, प्रोडक्ट ओनर्स और डेटाबेस एडमिनिस्ट्रेटर शामिल हैं।

सेबर में 40 वर्षीय प्रिया पर नौ उत्पादों के पोर्टफोलियो की जिम्मेदारी है, जिनमें से अधिकांश उत्पाद ‘मिशन-क्रिटिकल’ हैं। प्रिया हिस्सेदारों और ग्राहक प्रतिनिधियों के साथ काम करती हैं। वह सॉफ्टवेयर विकास को तकनीकी दिशा देती हैं, उत्पादों से जुड़ी योजनाएं बनाती हैं, निष्पादन और क्लाउड पर माइग्रेशन को पूरा करती हैं। इस टेक्नो-फंक्शनल भूमिका को आमतौर पर पुरुषों का कार्यक्षेत्र माना जाता है, लेकिन प्रिया को यह काम पसंद है। दो बच्चों की इस मां ने चार संस्थानों के साथ काम किया है। सेबर के साथ उनका यह दूसरा कार्यकाल है, जो चार अरब अमेरिकी डॉलर की ट्रैवल टेक्नोलॉजी कंपनी है। उन्होंने बैचलर ऑफ साइंस (एप्लाइड साइंस एंड कंप्यूटर टेक्नोलॉजी) के बाद एमसीए किया। इसके बावजूद उन्होंने खुद को और सीखने से रोका नहीं। प्रिया ने हाल ही में एमआईटी स्लोन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बिजनेस स्ट्रैटजी में इसके इंप्लीकेशंस पर एक ऑनलाइन कोर्स किया है। उनका मानना है कि हर चीज में सुधार की गुंजाइश होती है।

अपने आप को अधिक मूल्यवान बनाना पूरी तरह स्वार्थ नहीं है। जब आप ज्ञान प्राप्त करते हैं, एक नया कौशल सीखते हैं या नया अनुभव प्राप्त करते हैं, तो आप न केवल खुद को बेहतर बनाते हैं, बल्कि दूसरों की मदद करने की आपकी क्षमता भी बढ़ती है। जब तक आप खुद को और अधिक मूल्यवान नहीं बनाते, आप दूसरों के जीवन में मूल्य नहीं जोड़ सकते। दूसरों को आगे बढ़ाने की क्षमता पाने के लिए, पहले खुद आगे बढ़ना होगा।

इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने सभी को जितना ज्यादा हो सके, घर पर रहने के लिए कहा है, जिसे ‘जनता कर्फ्यू’ कहा गया है (जो कि वर्तमान में कोरोनावायरस के हमले से लड़ने के लिए आवश्यक है)। हमें इसे खुद में मूल्य जोड़ने के तरीके खोजने के अवसर के रूप में देखना चाहिए। इस समय का उपयोग नया कौशल सीखने, अच्छी पुस्तकें पढ़ने या ऐसी तकनीक सीखने में कर सकते हैं, जो आपको दुनिया से अलग तरीके से जोड़ता है। मर्जी आपकी है।

फंडा यह है कि ‘जनता कर्फ्यू’ जैसी स्थिति का लाभ उठाएं और योजना बनाएं कि आप जीवन में मूल्य कैसे जोड़ सकते हैं क्योंकि आवश्यक कौशल नहीं होने पर आप दूसरों को कुछ नया नहीं दे सकते।



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Add value to your life during 'Janata Curfew'




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‘कहां-कहां से गुजर गया मैं’

अनिल कपूर अभिनीत पहली फिल्म एम.एस. सथ्यु की थी जिसका टाइटल था ‘कहां-कहां से गुजर गया मैं’। अपनी पहली फिल्म के नाम के अनुरूप ही अनिल कपूर आंकी-बांकी गलियों से गुजरे हैं। सफर में बहुत पापड़ बेले हैं। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही अनिल कपूर को सुनीता से प्रेम हो गया। सुनीता योग करती हैं और सेहत के लिए क्या, कब, कितनी मात्रा में लेना है, इस क्षेत्र की वह विशेषज्ञ हैं।उन्होंने लंबे समय तक व्यावसायिक रूप से इस जीवन शैली का प्रशिक्षण भी दिया है। उनके जुहू स्थित बंगले की तल मंजिल पर सुनीता की कार्यशाला है।

सुरेंद्र कपूर ‘मुगल-ए- आजम’ में सहायक निदेशक नियुक्त हुए थे। उन्होंने 1963 से ही फिल्म निर्माण प्रारंभ किया। दारा सिंह अभिनीत ‘टार्जन कम्स टू देहली’ में उन्हें अच्छा खासा मुनाफा हुआ। दोनों कपूर परिवार चेंबूर मुंबई में पड़ोसी रहे हैं। सुरेंद्र कपूर के जेष्ठ पुत्र अचल उर्फ बोनी कपूर ने युवा आयु में ही पिता की निर्माण संस्था में काम करना शुरू कर दिया था। सुरेंद्र कपूर की ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ के निर्देशक सुरेंद्र खन्ना की अकस्मात मृत्यु से फिल्म काफी समय तक अधूरी पड़ी रही। बाद में इस फिल्म को येन केन प्रकारेण पूरा किया गया। बोनी कपूर ने दक्षिण भारत के फिल्मकार के. बापू से उनकी अपनी फिल्म का हिंदी संस्करण बनाने का आग्रह किया। अनिल कपूर, पद्मिनी कोल्हापुरे और नसीरुद्दीन शाह के साथ ‘वो सात दिन’ फिल्म बनाई गई। पद्मिनी कोल्हापुरे को राज कपूर की ‘प्रेम रोग’ में बहुत सराहा गया था। इस सार्थक फिल्म ने खूब धन कमाया। अनिल कपूर के अभिनय को सराहा गया, परंतु वे भीड़ में उन्माद जगाने वाला सितारा नहीं बन पाए।

गौरतलब है कि ‘वो सात दिन’ तथा संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ में बहुत साम्य है। दोनों में पति अपनी पत्नियों को उनके भूतपूर्व प्रेमी से मिलाने का प्रयास करते हुए एक-दूसरे से प्रेम करने लगते हैं। बोनी कपूर ने महसूस किया कि अनिल को सितारा बनाने के लिए भव्य बजट की फिल्म बनाई जाए। उन्होंने शेखर कपूर को अनुबंधित किया ‘मिस्टर इंडिया’ बनाने के लिए। फिल्म के आय-व्यय का समीकरण ठीक करने के लिए उन्होंने बड़े प्रयास करके शिखर सितारा श्रीदेवी को फिल्म में शामिल किया। यह भी गौरतलब है कि फिल्म में कभी-कभी दिखाई न दिए जाने वाले पात्र को अभिनीत करके अनिल कपूर ने सितारा हैसियत प्राप्त की।

जब अनिल को ज्ञात हुआ कि राज कपूर तीन नायकों वाली ‘परमवीर चक्र’ बनाने का विचार कर रहे हैं और अनिल को एक भूमिका मिल सकती है तब उसने खड़कवासला जाकर फौजी कैडेट का प्रशिक्षण प्राप्त किया। यह बात अलग है कि राज कपूर ने ‘परमवीर चक्र’ नहीं बनाई, परंतु इस प्रकरण से हमें अनिल की महत्वाकांक्षा और जुझारू प्रवृत्ति का आभास होता है।

अनिल कपूर की घुमावदार कॅरिअर यात्रा में विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ एक यादगार फिल्म साबित हुई। बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म ने कोई चमत्कार नहीं किया, परंतु आर.डी.बर्मन के मधुरतम संगीत के कारण यह फिल्म यादगार बन गई। यश चोपड़ा की फिल्म ‘लम्हे’ में भी अनिल कपूर को बहुत सराहा गया, परंतु इसे भी बड़ी सफलता नहीं मिली। नायक-भूमिकाओं की पारी के बाद अनिल कपूर ने चरित्र भूमिकाओं में भी प्रभावोत्पादक अभिनय किया। अनिल कपूर को डैनी बॉयल की अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ में महत्वपूर्ण भूमिका मिली। उनकी भूमिका कौन बनेगा करोड़पतिनुमा कार्यक्रम में एंकर की है। इस फिल्म में एंकर जान-बूझकर गरीब प्रतियोगी को एक प्रश्न का उत्तर देने में गुमराह करता है।

साधन संपन्न व्यक्ति साधनहीन व्यक्ति को सफल होने का अवसर ही नहीं देना चाहते। इस दृश्य के द्वारा फिल्मकार बड़े लोगों के ओछेपन को उजागर करता है। एंकर की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है और न ही इसमें उसका अपना कोई आर्थिक जोखिम भी नहीं था, परंतु समाज में आर्थिक वर्गभेद हमेशा कायम रहे। इसके लाख जतन किए जाते हैं।



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अभिनेता अनिल कपूर- फाइल ।




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फरवरी में 3 मरीज थे; महीनेभर तक कोई मामला नहीं आया, 2 मार्च के बाद 320 मामले आए, पिछले 10 दिन में ही 454% की बढ़ोतरी

नई दिल्ली.देश में कोरोनावायरस का पहला मामला 30 जनवरी को केरल में सामने आया था। उसके बाद 1 और 2 फरवरी को भी केरल में 1-1 मरीज मिला। ये तीनों मरीज कुछ ही समय में ठीक हो गए। इसके बाद पूरे महीनेभर देशभर में एक भी कोरोनावायरस का नया मामला नहीं आया। लेकिन, 2 मार्च के बाद से मामलों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती गई। 2 मार्च को कोरोनावायरस के 5 मामले (इसमें 3 केरल के केस, जो अब ठीक हो चुके हैं) थे। इसके बाद 21 मार्च तक 320 नए मामले सामने आए। पिछले 10 दिन में ही 11 मार्च से 21 मार्च के बीच देश में कोरोना के मामलों में 454% की बढ़ोतरी हुई है। 11 मार्च को 71 मामले थे और 21 मार्च को रात 11 बजे तक कुल 323 केस हो गए। संक्रमण के चलतेदेश में 4 लोगों ने अपनी जान गंवाई है। अब तक सबसे ज्यादा 64मामले महाराष्ट्र में आए हैं। उसके बाद केरल (52 मामले) और दिल्ली (26 मामले) हैं। अभी तक जितने भी लोग कोरोना से संक्रमित मिले हैं, उनमें से ज्यादातर की ट्रैवल हिस्ट्री रही हैयानी ये लोग हाल में विदेश से लौटे थे।

मार्च के पहले हफ्ते में 36 नए मामले आए थे, तीसरे हफ्ते में 176 नए मामले मिले

देश में कोरोनावायरस के नए मामले 2 मार्च के बाद से ही बढ़ने शुरू हो गए। मार्च के पहले हफ्ते यानी 2 मार्च से 8 मार्च के बीच कोरोनावायरस के 36 नए मामले सामने आए थे।दूसरे हफ्ते यानी 9 मार्च से 15 मार्च के बीच 70 नए मामले सामने आए। लेकिन, तीसरे हफ्ते यानी 16 मार्च से 21 मार्च के बीच 181 नए मामले सामने आ चुके हैं। शनिवार को ही शाम 7:30बजे तक 57 नए मामले सामने आ गए।

ईरान में सबसे ज्यादा 255 भारतीय कोरोना संक्रमित

18 मार्च को लोकसभा में विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन के दिए जवाब के मुताबिक, 7 देशों में 276 भारतीय कोरोनावायरस से संक्रमित हैं। ईरान में सबसे ज्यादा 255 भारतीय कोरोनावायरस से संक्रमित हैं। उसके बाद यूएई है, जहां 12 भारतीय संक्रमित हैं।

देश

कोरोना से संक्रमित भारतीय

ईरान 255
यूएई 12
इटली 5
हॉन्ग कॉन्ग 1
कुवैत 1
रवांडा 1
श्रीलंका 1

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Coronavirus India Comparison; Delhi Cases Vs Mumbai Pune Maharashtra Corona Vs Kerala COVID-19 Death Toll Comparison Latest News Updates




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सरकारी सख्ती का भी इस संकट के वक्त स्वागत करें

कोरोना महामारी झेल रहे भारत के प्रधानमंत्री की ‘जनता कर्फ्यू’ की अपील का लोगों ने पूरा सम्मान किया। हालांकि, कहीं-कहीं पुलिस वाले डंडे फटकारते हुए नजर आए। शहरों में खासकर लोगों ने अपने को घर में कैद रखा। लेकिन, महत्वपूर्ण यह है कि इस अपील ने पूरे देश को आने वाली दिक्कतों के प्रति चैतन्य और मानसिक रूप से तैयार किया। दरअसल, इस रोग से लड़ने का मुख्य हथियार है ‘सामाजिक-व्यक्तिगत स्तर पर एकांत’। जाहिर है इस एकांत से हजारों किस्म की दिक्कतें आएंगी और करोड़ों लोग इसका विरोध करेंगे। ऐसे में सरकार की भूमिका अपरिहार्य हो जाती है।

ट्रेनों का परिचालन सहित हर किस्म के यातायात पर रोक लगाना, रोग के संदिग्ध लोगों को जबरन पृथक कर इलाज़ के लिए मजबूर करना, निजी अस्पतालों से इस रोग के लिए अलग बेड का बंदोबस्त कराना और बाजारों पर अंकुश लगाना आदि आज के संकट से निपटने के लिए सरकार की मजबूरी है। लोगों को इसे सकारात्मक भाव से लेना होगा। जरा सोचिये, एक पढ़ी-लिखी सिंगर भी अगर इसे नहीं समझती और सैकड़ों लोगों से सामूहिक अवसर पर मिलती है या एक सांसद-खिलाड़ी क्वारंेटाइन से निकल कर राष्ट्रपति के जलपान समारोह में शामिल हो जाती है, तो इसे क्या कहेंगें? करोड़ों की संख्या में मजदूर जानवरों की तरह ठुंसे हुए दो दिन की यात्राकर अपने गांव जा रहे हैं, बगैर यह जाने कि इस प्रक्रिया में न जाने कितने इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं और अपने मूल राज्य में जा कर वहां पूरे के पूरे गांव को संकट में डाल सकते हैं।

अशिक्षा के कारण व्यक्ति इस बीमारी के लक्षण को लेकर सामने आने की जगह उसे दबाने का अपराध भी करने लगा है। इस समय पूरे समाज को चाहिए कि परिवार और व्यक्ति के स्तर पर हरेक को इस बात के लिए शिक्षित किया जाए कि वह रोग के लक्षण को छिपाने की जगह स्वास्थ्य कर्मियों को बताये और स्वयं भी ‘क्वारंेटाइन’ के लिए तैयार रहे, ताकि उसका अपना जिगरी परिवार सुरक्षित रह सके। परिवार भी सतर्क रहे कि किसी सदस्य में रोग के लक्षण नजर आते हैं तो उसकी सूचना स्वास्थ्य विभाग को जरूर दे। देश को इस संकट से बचाने का रास्ता स्वयं को बचाने के प्रयास से शुरू होता है न कि शुतुरमुर्गी भाव का मुजाहरा करने से।



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Also welcome government strictness during this crisis




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बचाव के लिए योग-प्राणायाम करते रहें

जनता का कर्फ्यू और करोना कल आमने-सामने हो गए। मनुष्य की बीमारी और स्वास्थ्य के इतिहास में ये 14 घंटे मिसाल बन गए। करोना के लक्षण-परीक्षण पर खूब लिखा और बोला जा रहा है। भागवत में एक प्रसंग आता है कलियुग और राजा परीक्षित के बीच संवाद का। कलियुग प्रवेश करना चाह रहा था, परीक्षित उसे रोक रहे थे कि मेरे रहते हुए तुम प्रवेश नहीं कर सकते। तुम अधर्म के बंधु हो। तुम यदि प्रवेश करोगे तो मनुष्य के जीवन में दुर्गुण- दुराचार उतरेगा। आगे उन्होंने कहा- ‘अंत: बहि: वायु: इव एष: आत्मा’।

परमात्मा समस्त प्रणियों में वायु के रूप में बहता है, रहता है। अब हम सब इस बात पर ध्यान दें कि ईश्वर वायु के रूप में हमारे भीतर बहता है। करोना के लक्षण पकड़ने के लिए डाॅक्टर कहते हैं गहरी सांस लेकर अपने फेफड़ों में भर लीजिए और देखिए कितनी देर तक इसे रोक सकते हैं। जो ग्रसित व्यक्ति होगा, वह पांच-दस सेकंड भी नहीं रोक पाएगा। जो रोक सकते हैं, मानकर चलिए, करोना के लक्षण नहीं हैं। वायु भीतर रुक जाए इसका मतलब है परमात्मा भीतर रुकता है।

परमात्मा एक आत्मविश्वास है, मनोबल है। परमात्मा को भीतर उतारने और करोना जैसे रोग से बचे रहने का एक और सहज तरीका हो सकता है योग। लगातार योग-प्राणायाम करते रहिए..। यह सच है कि इसे उपचार नहीं कह सकते, लेकिन बचाव अवश्य होगा और इस समय अधिकांश लोगों के लिए तो बचाव ही उपचार है..।



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Keep doing yoga




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डर से प्रभावित होती है इम्युनिटी, संकट में सकारात्मक रखें सोच

जीवन में बहुत सारी ऐसी चीजें हैं, जिसे हम अच्छी तरह से समझते हैं। ये समाज अगर बेहतर है तो रास्ते आसान हो जाते हैं। जब चीजें अनजान होती है तो मुश्किलें हमारा सामना करती हैं। ऐसी ही मुश्किल घड़ियों में करना क्या है ये जानना बहुत जरूरी होता है। पिछले कुछ दिनों से जो कुछ भी हम अपने आस-पास देख रहे हैं वो कुछ ऐसी ही मुश्किलें हैं। जहां पर हम जानते नहीं हैं कि हमें करना क्या है। अक्सर बीमारी अकेली नहीं होती है। बीमारी के साथ मृत्यु और मृत्यु के साथ भय होता है। आज हमारे आसपास डर का माहौल हावी होता जा रहा है। ऐसे समय पर हमें क्या करना चाहिए इसे हम जानने की कोशिश करते हैं। पिछले कुछ दिनों से अचानक की बातें सामने आई है। जीवन में कुछ बातें ऐसी होती है, जो हमें पता होती है। जीवन में कुछ बातें ऐसी होती है जो हमें अच्छी नहीं लगती हैं, जैसे किसी की मौत, किसी का एक्सीडेंट होना, किसी की नौकरी छूटना या किसी का रिश्ता टूटना। तो भी हम फील करते हैं कि ये हमारे साथ नहीं होगा। फिर अचानक हमारे जीवन में कोई ऐसी बात आती है तो हम उसका सामना नहीं कर पाते। आप काम के लिए घर से निकलते हैं। आपको पता है, ट्रैफिक होता है। ट्रैफिक जाम होना एक वास्तविकता है। तो भी हम उसमें अटकते हैं। मतलब कि जो परिस्थिति हमें पता है और हमारे जीवन में रोज होती है तो भी हम उसमें परेशान होते हैं। अब एक ऐसी परिस्थिति आ गई है, जिसके बारे में हमें पता ही नहीं था। हमें ये नहीं पता कि उसे ठीक कैसे करना है। यह शायद पहली घटना है जिसने एक ही समय पर पूरे विश्व को प्रभावित किया है। पहले शायद ही कभी कोई ऐसी चीज हुई हो जो पूरे विश्व को एक ही समय पर प्रभावित कर रही है। हमारे मन पर इसका असर हुआ है।

आज हमें जीवन की हर बात के लिए संकल्प करना है। पहले ट्रैफिक जाम था, आज वायरस है। दोनों चीजें परिस्थिति हैं। ये परिस्थिति हमारे बाहर है और मन की स्थिति भीतरी है। जो समीकरण हम जीवन में बहुत सालों से लेकर चल रहे हैं, उसकी वजह से ये चिंता और डर बढ़ा हुआ है। वो समीकरण था कि जैसी परिस्थिति होगी, वैसी मन की स्थिति होगी। जब इतनी बड़ी समस्या है तो परेशान होना सामान्य है। तनाव होना भी सामान्य है। डर पैदा करना भी सामान्य है। तो हमने नकारात्मक भावनाओं को सामान्य कह दिया। ऐसे करते-करते हम शायद बचपन से जी रहे हैं और शायद विश्व के सारे लोग इसी विश्वास के साथ जी रहे हैं।
कोरोना वायरस की परिस्थति में शांत रहना, स्थिर रहना, निडर रहना, निर्भय रहना जरूरी है। आज उस समीकरण को फिर से चेक करने की आवश्यकता है। परिस्थिति बाहर है, मन की स्थिति मेरी है। परिस्थिति मन की स्थिति को नहीं बनाती। मन की स्थिति का प्रभाव परिस्थिति पर सौ प्रतिशत पड़ता है। जैसे इतने दिनों से हम सीख रहे हैं कि इस वायरस से अपने परिवार को, देश को और विश्व को बचाने के लिए हमें क्या-क्या करना है। सुनकर, समझकर हम सबने करना शुरू कर दिया। लेकिन, हमने यह नहीं सोचा कि इससे खुद को बचाने के लिए, सबको बचाने के लिए अपने मन के अंदर क्या करना है। हमने सोचा कि वायरस स्वास्थ्य पर असर होगा, बीमारी होगी और मौत भी हो सकती है। हम यह सोच रहे हैं अगर हम किसी से मिलें तो हमें पता होना चाहिए कि इनको तो संक्रमण नहीं है। अगर इनको है तो मैं इनके एक-दो फीट की दूरी में आ गई तो मुझे भी हो सकता है।

हम यह पता करें कि हम जिनसे भी मिल रहे हैं, उनको डर तो नहीं है। अगर उनको डर है और हम उनके एक-दो फीट की दूरी में बैठे हुए हैं तो वो डर हमारे अंदर भी आ जाएगा। वायरस का भय तो हमारे अंदर पहले से ही है, सामने वाले के अंदर भी है। घर में बैठे हुए चार लोगों के अंदर भी है। देश के 130 करोड़ लोगों के अंदर है। विश्व की जितनी आबादी है उसके अंदर है। क्या ये डर भी कुछ कर सकता है। डॉक्टर्स हमेंं ये बता रहे हैं कि डर हमारे इम्युनिटी सिस्टम पर प्रभाव डालता है। ये डर आज नहीं आया है। ये डर तो हमारे जीवन का वैसे भी हिस्सा था। लेकिन, पहले हम कभी-कभी डरते थे। अब तो आयु की भी कोई बात नहीं है। जब इस वायरस की बात आती है तो हम कहते हैं 10 से नीचे और 60 वर्ष से ऊपर के लोगों का ध्यान रखना चाहिए। ये बीमारी हो तो किसी को भी सकती है। लेकिन इम्युनिटी सिस्टम आज हम जांच लें। इम्युनिटी आयु पर निर्भर नहीं है। इम्युनिटी तो मन पर भी निर्भर है। हो सकता है कि वो 80 साल के हों, लेकिन मन से बहुत मजबूत हैं। उन्होंने कभी निगेटिव सोचा ही नहीं, अभी भी उनको कोई डर नहीं लग रहा है। अगर हम यह ध्यान रखें तो हम अपनी सोच को जांचना शुरू कर देंगे। (यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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Immunity is affected by fear, keep positive thinking in crisis




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एक अच्छा गुरु किसी को भी बादशाह बना सकता है

वो सिर्फ दसवीं पास था, जो कम से कम उन दिनों में सबसे उच्च शिक्षा मानी जाती थी। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि उसे भारतीय रेलवेज में बतौर पार्सल क्लर्क नौकरी मिल गई। उन दिनों जब ट्रेनें सीमित थीं और प्लेटफॉर्म पर कभी भीड़ नहीं होती थी, तब स्टेशन पर आने वाले हर मुसाफिर से पार्सल क्लर्क की बातचीत हो जाना साधारण बात थी। शहर के हर नामचीन शख्स के नाम से वह वाकिफ था, क्योंकि उन दिनों हर किसी को ट्रेन से ही सफर करना होता था और हवाई यात्रा सिर्फ अमीरों के बस की बात थी। और रायपुर जैसे छोटे शहर में तो हवाई अड्‌डा था भी नहीं।


इन हालात में पार्सल क्लर्क प्रभाकर शर्मा की दोस्ती हो गई यशवंत गोविंद जोगलेकर से, जो दुर्गा कॉलेज रायपुर में कॉमर्स पढ़ाते थे और अपनी कठोरता के लिए जाने जाते थे। प्रोफेसर जोगलेकर से लगातार हो रही मुलाकातों ने शर्मा के दिल में ख्वाब जगाया कि उनकी दीक्षा में कुछ और शिक्षा ग्रहण की जाए। हालांकि जोगलेकर ने इसे नजरअंदाज किया, यह मानकर कि एक बार आदमी सरकारी नौकरी में जम गया तो उच्च शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं होगा। लेकिन काफी मान-मनौव्वल के बाद जोगलेकर मान गए और शर्मा ने उनकी देखरेख में बीकॉम, एमकॉम किया और फिर पीएचडी भी। अब वह डॉ. प्रभाकर शर्मा बन गए थे, जो रेलवे की नौकरी छोड़, शिक्षण के पेशे में आ गए और काकीनाड़ा यूनिवर्सिटी आंध्रप्रदेश में कॉमर्स के प्रोफेसर बन गए ।


प्रोफेसर बनने के बाद उन्होंने अपने गुरु जोगलेकर को अपने बेटे की शादी में बुलाया। स्वास्थ्य कारणों से जोगलेकर सफर नहीं करते, झिझकते हुए राजी हुए। शादी की जगह, राजामुंदरी के पास एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें एक बोर्ड दिखाई दिया- ‘जोगलेकर शर्मा वेड्स...’, तब उन्हें एहसास हुआ कि शर्मा ने अपने बेटे का नाम उनके नाम पर रखा था। यह शर्मा की अपने गुरु को एक महान श्रद्धांजलि थी। इतना ही नहीं शर्मा ने सुनिश्चित किया कि उनका छोटा भाई उनके गुरु की हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए 24 घंटे सातों दिन उनके साथ रहे। यह छोटा भाई गुरु के कमरे के बाहर ही डटा रहा। यह छोटा भाई विशाखापटनम के एक बड़े अस्पताल का डीन और सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट था।


एक और किस्सा है शरीर से मजूबत, दिखने में खूबसूरत, लेकिन कुख्यात अश्विनी शुक्ला उर्फ बुट्‌टू का, जो ब्राह्मणपाड़ा का रहने वाला है। संयोग है कि रायपुर की यह जगह भी एक समय में कुख्यात रही है। पढ़ने-लिखने में मन लगा तो बुट्‌टू ने भी उच्च शिक्षा के लिए प्रो. जोगलेकर से संपर्क किया। जोगलेकर ने उसे भगा दिया- ऐसे गुंडे कभी पढ़ नहीं सकते। बुट्‌टू दिन-प्रतिदिन, बार-बार आता रहा, हर बार दुत्कारा जाता रहा। लेकिन कई दिनों तक बुट्‌टू की जिद देखकर, जोगलेकर का दिल पिघल गया और उन्होंने खुद को एक बार फिर कठिन परीक्षा के दौर से गुजारने के लिए तैयार किया। बुट्‌टू की पढ़ाई शुरू हुई, लेकिन उनके घर के दरवाजे के बाहर, जमीन पर बैठकर। वह अडिग छात्र वहीं बैठा और जोगलेकर जो कुछ अपने दूसरे छात्रों को सिखा रहे थे, उसे सुनकर सीखता रहा। बुट्‌टू ने बीकॉम, एमकॉम किया, फिर पीएचडी भी और आखिरकार रवि शंकर यूनिवर्सिटी का रजिस्ट्रार बन गया।


यह रोचक किस्से उनके पुत्र विवेक यशवंत जोगलेकर ने मुझसे साझा किए। तब वह बिलासपुर-रायपुर रीजनल रूरल बोर्ड बैंक के साथ काम कर रहे थे। विवेक ने बैंकर्स की पदोन्नति के लिए होने वाला सीएआईआईबी परीक्षा दी और उन्हें पूरा यकीन था कि परीक्षा तो वह पास कर ही लेंगे, क्योंकि एकाउंटेंसी तो उनके डीएनए में है। पिता ने विवेक से एकाउंटेसी से जुड़े कुछ साधारण सवाल किए और जब विवेक के जवाब सुने तो बोले- तुम कभी पास नहीं होगे। विवेक ने भी चुनौती दी- पहले ही प्रयास में पास करके दिखाऊंगा। लेकिन साल में दो बार होने वाली इस परीक्षा में वह चार बार फेल हुए। आखिरकार विवेक ने पिता के सामने समर्पण कर दिया और पांचवें में प्रयास में शानदार तरीके से परीक्षा पास की। इसके लिए पिता ने उन्हें सिर्फ तीन घंटे पढ़ाया था।

फंडा यह है कि एक खालिस शिक्षक ही जानता है कि किसे क्या पढ़ाना है और यह भी कि कैसे पढ़ाना है, क्योंकि वही असली किंगमेकर है।



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A good master can make anyone a king




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यशराज फिल्म्स की स्वर्ण जयंती

जब ग्राहक नहीं आते तब दुकानदार अपने तराजू को ही उलट-पलट करता है। यह उसकी आदत बन जाती है। कोरोना प्रकोप के कारण सभी उद्योग ठप पड़े हैं। फिल्म उद्योग कोई अपवाद नहीं है, इसलिए खाकसार अपनी स्मृति की तराजू के पल्ले उलट-पुलटकर कॉलम के लिए विचार खोजता है। ताजा खबर यह है कि आदित्य चोपड़ा यशराज फिल्म्स की स्वर्ण जयंती मनाने जा रहे हैं।
वे अक्षय कुमार अभिनीत ‘पृथ्वीराज’, रणवीर सिंह अभिनीत ‘जयेश भाई’, ‘बंटी और बबली-2’ का प्रदर्शन करेंगे। इसके साथ ही दो अल्प बजट की फिल्में भी प्रदर्शित की जा सकती हैं। इसके साथ ही ‘धूम’ और ‘टाइगर’ की अगली कड़ियों का निर्माण प्रारंभ होगा।


ज्ञातव्य है कि लाहौर में फिल्म पत्रकार रहे बलदेव राज चोपड़ा विभाजन के पूर्व ही मुंबई आ गए थे। यशराज अपने बड़े भाई के प्रमुख सहायक रहे और बाद में उन्होंने कुछ सफल फिल्म का निर्देशन भी किया। जैसे राजेश खन्ना और नंदा अभिनीत ‘इत्तफाक’ बहुसितारा ‘वक्त’, ‘आदमी और इंसान’ तथा ‘धर्मपुत्र’। बलदेव राज चोपड़ा के विशाल बंगले की बरसाती में यशराज रहते थे। प्रेम चोपड़ा के विवाह के बाद भी वे उस तंग बरसाती में रहे। संभव है कि बड़े भाई से अलग होकर अपनी स्वयं की निर्माण कंपनी के विचार का जन्म बरसाती में रहने के कारण हुआ हो। परिवार के रिश्ते में छोटी सी चूक भी बड़ा परिवर्तन लाती है। एक निगाह ही समीकरण बदल सकती है।


यशराज फिल्म्स की स्थापना 1970 में हुई, परंतु उनकी पहली स्वतंत्र फिल्म राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर और राखी अभिनीत ‘दाग’ 1973 में प्रदर्शित हुई। लेखक गुलशन नंदा ने थॉमस हार्डी के उपन्यास ‘मेयर ऑफ केस्टरब्रिज’ से प्रेरित होकर उसका चरबा ‘दाग’ के नाम से लिखा था। यशराज की स्थापना में पूंजी निवेशक गुलशन राय का भी सहयोग रहा। उन्होंने यशराज चोपड़ा से समझौता किया कि वे उनकी फिल्मों में पूंजी लगाएंगे, परंतु उन्हें गुलशन राय के लिए भी फिल्म निर्देशित करनी होगी। सलीम जावेद लिखित ‘दीवार’ और त्रिशूल’ इसी समझौते के तहत यशराज चोपड़ा ने निर्देशित की थी। ज्ञातव्य है कि यशराज के दो पुत्र हैं- आदित्य और उदय चोपड़ा। उन दोनों की आपसी समझदारी और प्रेम इतना गहरा है कि विभाजन की कोई संभावना ही नहीं है। उदय चोपड़ा कुछ फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं और वे अपनी सीमा को समझ चुके हैं।


यशराज चोपड़ा ने अपनी सभी फिल्मों की शूटिंग स्विट्जरलैंड में अवश्य की है। यशराज की कुशाग्र व्यवसाय बुद्धि ने यह भांप लिया कि यूरोप में दिन लंबे, रातें छोटी होती हैं। अतः यूरोप में एक दिन में जितनी शूटिंग होती है, उससे बहुत कम श्रीनगर या उटकमंड में की जा सकती है। वे यूरोप में एक बंगला किराए पर लेते हैं, जिसमें यूनिट के सभी सदस्य रहते थे और भारतीय रसोइया उनका भोजन बनाता था। स्विट्जरलैंड की सरकार ने यशराज के सम्मान में एक स्मारक भी बनाया है। यशराज चोपड़ा अपने बड़े भाई बलदेव राज की तरह कलाकारों को कम मेहनताना देने में यकीन करते थे। आदित्य चोपड़ा ने इस व्यवस्था को बदल दिया। उन्होंने सितारों को मुंहमांगा धन दिया। ‘एक था टाइगर’ की सफलता के बाद अनुबंध की राशि से अधिक धन सलमान खान को दिया गया। एक तरफ उन्होंने सितारों के साथ फिल्में बनाईं तो दूसरी तरफ नए कलाकारों को भी अवसर दिया। रणवीर सिंह और अनुष्का के साथ ‘बैंड बाजा बारात’ का निर्माण किया। उन्होंने ‘दम लगाकर हईशा’में भूमि पेडनेकर को प्रस्तुत किया। भूमि ने उस भूमिका के लिए अपना वजन बढ़ाया और शूटिंग के बाद वजन घटाने का कठिन काम भी किया। भूमि पेडनेकर ने ‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’ और तापसी पन्नू के साथ ‘सांड की आंख’ में दर्शकों का मन मोह लिया।


यश राज चोपड़ा ने कभी शराबनोशी नहीं कि, परंतु उन्हें भोजन का बहुत शौक रहा। आदित्य में इसी तरह का जुनून फिल्म बनाने का है। करण जौहर आदित्य के सहायक रहे। उनको स्वतंत्र फिल्मकार बनने की प्रेरणा भी आदित्य और काजोल ने दी थी। आदित्य चोपड़ा का घराना करण जौहर से अधिक ठोस है। बलदेव राज चोपड़ा की फिल्में उपदेशात्मक और डेडिकेटेड रहीं, परंतु यश चोपड़ा रोमांटिक कहानियां चुनते रहे। उन्हें उपदेश देने में कोई रुचि नहीं रही। इस मायने में यशराज चोपड़ा, राज कपूर के स्कूल के माने जा सकते हैं, परंतु आदित्य की सिनेमाई शैली किसी खांचे में नहीं रखी जा सकती है। उनके सिनेमा में लचीलापन है।



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आदित्य चोपड़ा यशराज फिल्म्स की स्वर्ण जयंती मनाने जा रहे हैं।




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अमृत समान होते हैं अच्छे संस्कार

हमारा देश जब भी विकास की यात्रा पर निकलता है, तीन बाधाएं सामने आती हैं- भ्रष्टाचार, अपराध और निकम्मापन। जैसे-तैसे हम इनसे निपट भी रहे हैं, लेकिन एक चौथी बहुत खतरनाक स्थिति सामने खड़ी है- अश्लीलता। ढेरों पोर्न साइट्स ने जिस तरह का आक्रमण देश पर किया है, उसका बुरा असर सीधा हमारे परिवार पर पड़ रहा है। पोर्न की दस्तक अच्छे सभ्य-कुलीन परिवारों पर भी हो चुकी है।

यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया, अश्लीलता का यह जहर घरों में पसर गया तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। तो इस विषय को कैसे रोका जाए? शरीर से अश्लीलता को आमंत्रण होता है और मन तक आते-आते वह आक्रामक हो जाती है। हां, आत्मा पर उसके सही अर्थ समझ में आएंगे। इसके लिए हर घर में सामूहिक रूप से प्रयोग किए जाएं कि कैसे शरीर, मन और आत्मा तक की यात्रा कर अश्लीलता को विदा करें। आत्मा तक यात्रा का सीधा सा मतलब है अपने आपको जानना, अपने आप से परिचित होना। यहां काम आता है योग। जो लोग नियमित मेडिटेशन करते हैं, वे अपनी आत्मा को ज्यादा अच्छे से स्पर्श कर सकते हैं।

दूसरा, अश्लीलता रूपी विष को काटने में अमृत का काम करते हैं संस्कार। जिन घरों में बच्चे संस्कारित होंगे, पोर्न का जहर वहां नहीं टिक पाएगा। यहां भूमिका होती है माता-पिता की। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दीजिए, उन्हें पोर्न के जहर से बचाइए। आपके सामने उनका भविष्य ऐसी ही उम्मीद लिए खड़ा है।



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Amrit is like good values




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महामारी के दौर में लोगों की उम्मीद है कि हम हर अन्याय के खिलाफ उठाएंगे आवाज

अ गर आप गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की किताब से इस लेख का शीर्षक चुराना चाहते हैं तो आपको थोड़ा उतावला, ढीठ और थोड़ा दिलचस्प होना पड़ेगा। सच यह है कि हम पत्रकार सामान्य तौर पर ये तीनों ही होते हैं। अगर हमें इन कमियों के लिए माफ कर दिया जाए, तो भी यह इसलिए होता है, क्योंकि लोग जानते हैं कि हम कहां से आते हैं। पत्रकारिता के कई दशकों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे साथ किसी ने कोई अभद्रता की हो। कई बार तो अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे उग्र लोग, आपके साथ खाना साझा करते हैं और आपको सुरक्षा भी देते हैं। अपवाद अलग हैं। ऐसा क्यों होता है? इस विविधतापूर्ण देश के एक अरब से अधिक लोगों को किसने बताया कि पत्रकार उनके लिए महत्वपूर्ण हैं? यदि आप चुनाव प्रचार के दौरान सफर करें तो आप चौंक जाएंगे कि लोग पत्रकारों का भी कितना स्वागत करते हैं। ग्रामीण महिलाएं भी पत्रकारों से खुलकर बात करती हैं। यह जनता और पत्रकारों के बीच का विशेष सामाजिक अनुबंध है। इसकी बुनियाद उस मान्यता पर है कि हम अपना काम बहुत मेहनत और बहादुरी से करते हैं। इसलिए जब कई बार जब पुलिस या प्रशासन पीड़ितों की नहीं सुनता है तो वे सबसे पहले मीडिया को कॉल करते हैं। आज जब हम कोरोना वायरस के खतरे के रूप में अपने दौर की सबसे बड़ी खबर कर रहे हैं, तब भी उनकी हमसे यही अपेक्षा है। हम पत्रकारों की ऐसी परीक्षा कभी नहीं हुई। आने वाली पीढ़ियां हमें इस कसौटी पर कसेंगी। प्रथम विश्वयुद्ध की भर्ती के पोस्टर को याद करें, जिसमें कहा गया था: डैडी, आपने महायुद्ध में क्या किया? हमारे लिए यह उसी तरह का मौका है।

यह खतरनाक वैश्विक महामारी है। पिछले गुरुवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने एक अहम बात कही कि आज कोई देश दूसरे की मदद करने की स्थिति में नहीं है। भारत में हम पत्रकारों को एक और तोहफा हासिल है और वह है सम्मान और स्वतंत्रता। हमें यह याद रखना होगा कि हमने जिस सामाजिक अनुबंध की बात की, वह कहां से आता है। प्रेस की स्वतंत्रता किसी कानून या संविधान में शायद ही हो। संविधान का अनुच्छेद 19 देश के हर नागरिक पर समान रूप से लागू होता है और पत्रकारों को कोई विशेष अधिकार नहीं देता। इंदिरा गांधी के आपातकाल तक हम स्वतंत्रता को हल्के में लेते रहे। जब आपातकाल में स्वतंत्रता छिन गई तो कोई राह नहीं बची। उस वक्त लोगों को अहसास हुआ कि इंदिरा गांधी ने उनसे स्वतंत्र प्रेस भी छीन ली है। यह सामाजिक अनुबंध वहीं से पैदा हुआ। यह पत्रकारिता के प्रथम संशोधन के समान है। यदि वे हमारी आजादी काे इतना महत्व और संरक्षण देते हैं तो वे यह निर्णय भी करेंगे कि हम उनके लिए सही हैं या नहीं।

जब मेरे साथी पत्रकार चिंता व्यक्त करते हैं तो मैं उन्हें सुनता हूं। समझदार आदमी पूरी तरह भयमुक्त नहीं होता। कहावत है कि जान है तो जहान है। किसी को भी हड़बड़ाने की जरूरत नहीं है। कोई भी अपने साथी पत्रकारों को अवांछित जोखिम में डालना नहीं चाहेगा, लेकिन हम पत्रकार हैं। हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी खबर चल रही है, एक अरब से अधिक लोग बेहद डरे हुए और हमसे कम सुरक्षित हैं। वे हमें नजर रखते हुए, खबर, संपादन व रिकॉर्डिंग करते हुए और शासन की नाकामी की ओर ध्यान दिलाते देखते हुए, उम्मीद करते हैं कि हम आसपास हों। कोरोना वायरस जैसी आपदा के वक्त हम पत्रकारों का यह दायित्व है कि हम न्याय और इतिहास को लेकर सबसे पहले प्रतिक्रिया दें। यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हम शायद खुद को पत्रकार कहना ही बंद कर दें। हो सकता है कि हममें से कुछ लोग इसमें नाकाम रहें, लेकिन हर कोई असफल नहीं होगा। हममें से ही कुछ लोग चमकते हुए सामने आएंगे। मेरा हमेशा मानना रहा है कि हर चीज बाद में उतनी बुरी नहीं निकलती, जितनी कि वह शुरुआत में लगती है। मैं कहूंगा कि हम सभी इससे बच जाएंगे और हमारे पास ऐसी कहानियां होंगी, जिन्हें हम आगे लोगों को सुना सकेंगे। हम पत्रकार तिलचट्टों की तरह हर स्थिति में जिंदा रह लेते हैं।

न्यूज रूम में मुझसे एक प्रश्न किया गया। क्या होगा अगर हममें से कुछ लोग खबर करते हुए मर जाएं तो? उत्तर एकदम आसान है। अगर एकदम विपरीत परिस्थितियों में यह होता भी है तो भी कुछ पत्रकार खबर करने के लिए होंगे। पत्रकारिता अपना काम करेगी। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने दो बार मीडिया का जिक्र अनिवार्य सेवाओं के रूप में किया, चिकित्सकों, अस्पतालकर्मियों, पुलिस और सरकारी अधिकारियों की तर्ज पर। साफ कहें तो इसे अनिवार्य सेवाओं के रूप में उल्लेखित किया जाना सुखद बदलाव है। हमें यह यकीन होना चाहिए कि हम महत्वपूर्ण हैं और एक अनिवार्य सेवा देते हैं। सत्ता के साथ हमेशा हमारे मतभेद रहते हैं और रहेंगे, लेकिन ऐसा तो हर लोकतंत्र में होता है। परंतु मौजूदा संकट जैसे दौर में हमें उन चिंताओं को दूर कर देना चाहिए। इसलिए कमर की पेटी बांध लें। कोरोना के दौर में पत्रकारिता एक ऐसी कहानी है, जो पहले कभी नहीं थी। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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In the time of epidemic, people expect that we will raise our voice against every injustice




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क्या सेल्फ-क्वॉरन्टीन कोरोना वायरस की बेड़ियों को तोड़ सकता है?

अभिनेत्री जैकलीन फर्नांडीस सेल्फ-क्वॉरन्टीन (स्व-संगरोध) के समय का इस्तेमाल अपनी रीढ़ को मजबूत करने के लिए योग करके और अच्छा संगीत सुनकर कर रहीं हैं। क्रिकेटर एमएस धोनी, जो सेल्फ-आइसोलेशन के लिए अपने गृहनगर रांची गए हुए हैं, वह अपने पालतू कुत्ते ज़ोया के साथ समय बिता रहे हैं। अभिनेता टॉम हैंक्स और पत्नी रीटा विल्सन भी अब ऑस्ट्रेलिया में अपने घर में सेल्फ-क्वॉरन्टीन में हैं।

यदि आप सोच रहे हैं कि बेहद अमीर लोग ही महीनों तक बिना काम के रह सकते हैं और कोरोनोवायरस की बेड़ियों को तोड़ सकते हैं, तो जान लें कि आपके और मेरे जैसे लोग भी ऐसा सफलतापूर्वक कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, 8 मार्च को, बेंगलुरु के व्हाइटफील्ड में स्थित सिटीलाइट्स रस्टिक अपार्टमेंट के निवासियों को पता चला कि उनकी सोसाइटी में रहने वाले एक परिवार के तीन सदस्यों का कोरोनावायरस टेस्ट का रिजल्ट पॉजिटिव आया है। जिसमें यूएस से लौटे एक तकनीशियन, उनकी पत्नी और बेटी शामिल थे, जिन्हें आइसोलेशन वॉर्ड भेज दिया गया था। यह कोरोनावायरस के पॉजिटिव शुरुआती मामलों में से एक था, जिसने पूरे देश को हिला दिया था। इस खबर के शुरुआती खौफ और बदहवासी से अपार्टमेंट में रहने वाले एकजुट होकर निपटे, क्योंकि उनके पास इसके लिए पूरी योजना थी कि क्या करना है और कैसे करना है।

स्वास्थ्य विभाग ने उस तकनीशियन के घर को अच्छी तरह से कीटाणुरहित कर दिया था; अगले कुछ दिनों तक अपार्टमेंट के 160 फ्लैटों में सभी 600 निवासियों के स्वास्थ्य की स्थिति की जांच की जाती रही। सोसायटी पदाधिकारियों ने कॉमन जगहों को सैनेटाइज करने के बाद उन जगहों को सील कर दिया। सभी को सख्ती से कहा गया था कि वे बच्चों को बाहर खेलने न जाने दें। सौभाग्य से स्कूल भी बंद हो गए थे। सुरक्षा कर्मचारियों को मास्क, हैंड सैनिटाइटर से सुरक्षित बनाया गया। वहां रहने वाले प्रत्येक ‘आपातकालीन’ कर्मचारियों को कहीं भी जाने से पहले सोसायटी की अनुमति लेनी पड़ती और वापसी पर स्क्रीनिंग टेस्ट करवाना पड़ता था। प्रवेश और निकास द्वारों पर कड़ी नजर रखी जा रही थी। सभी डिलीवरी बॉयज के लिए हर मंजिल पर एक अलग जगह बना दी गई थी, जहां वो दूध, किराने और अन्य वस्तुओं को रखकर जा सकते थे। लिफ्ट को लगातार सैनेटाइज किया जा रहा था और लिफ्ट के बटन दबाने के लिए टूथपिक का उपयोग किया जा रहा था।

खुद की मर्जी से किया जाने वाला क्वॉरन्टीन जल्द अनिवार्य हो गया था। जिन लोगों ने इस अनिवार्य व्यवस्था पर आपत्ति जताई, उन्हें ह्यूमन हैंडलिंग कौशल वाले परिपक्व लोगों द्वारा काउंसिलिंग दी गई। अंतत: किसी को भी बाहर जाने या अंदर प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। इस शनिवार को, अपार्टमेंट ब्लॉक ने अपनी 14-दिवसीय संगरोध की अवधि पूरी की और सभी ने राहत की सांस ली क्योंकि कोरोनावायरस का कोई पॉजिटिव मामला नहीं मिला। यह अपार्टमेंट पूरे देश के लिए एक मिसाल बन गया, जिसने सफलतापूर्वक खुद को आइसोलेट करके अपने निवासियों के बीच वायरस फैलाने से रोका। इससे मुझे महाभारत युद्ध की एक कहानी की याद आई।

‘द्रोणाचार्य मर चुके थे। अश्वत्थामा हाहाकार कर उठा। दुर्योधन ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए उसे नारायणास्त्र चलाने को कहा जो सिर्फ अश्वत्थामा के ही पास था। क्रोध में उसने वह अस्त्र चला दिया। पांडवों की सेना त्राहि-त्राहि कर उठी। सब ओर आग ही आग थी। सब झुलस रहे थे। अर्जुन ने घबराकर कृष्ण की ओर देखा लेकिन कृष्ण भी भौंचक्के होकर उस अस्त्र को देख रहे थे, जैसे उनके पास भी उसका कोई तोड़ न हो। यकायक कृष्ण रथ से उतरे और नारायणास्त्र का रुख करते हुए भूमि पर माथा टेक दिया। अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। लेकिन कृष्ण से प्रश्न करने का साहस न कर पाए। वे भी रथ से उतर गए।

कृष्ण ने उच्च स्वर में घोषणा की, ‘सभी अपने-अपने शस्त्र त्याग कर भूमि पर नतमस्तक हो बैठ जाएं।’ सभी असमंजस में थे, लेकिन कृष्ण को कौन भला नकार सकता था। अब कहीं से कोई प्रतिकार नहीं हो रहा था। किसी प्रकार का कोई विरोध न देख नारायणास्त्र शांत हो गया। उसकी शक्ति क्षीण हो गई और वह समाप्त हो गया।

फंडा यह है कि आपको ये पसंद आए या न आए, हम एक युद्ध में हैं और सेल्फ-क्वॉरन्टीन और उच्च स्तर का आत्म अनुशासन ही इस युद्ध को जीतने में हमारी मदद कर सकते हैं क्योंकि फिलहाल विज्ञान के पास भी इसे मारने के हथियार (दवाइयां) नहीं हैं।



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Can Self-Quarantine Break the Fails of the Corona Virus?




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तेरे दिल को जो लुभा ले, वो अदा कहां से लाऊं

सू ने बाजार का दुकानदार तराजू उलट-पलट करता है। इसी तरह आज ईरान की एक फिल्म ‘शीरी’ (फरहाद) की बात कते हैं। फिल्मकार कियारोस्तामी ने अजीब प्रयोग यह किया कि सिनेमाघर में शीरी की कथा सुनाई दे रही है, परंतु सिनेमा के परदे पर श्रोताओं की प्रतिक्रिया के बिंब दिखाए जा रहे हैं। ध्वनि तथा बिंब को सिंक नहीं किया गया है। ध्वनि और बिंब का मिलन नहीं कराया गया है। क्या इसका यह अर्थ है कि सिनेमा का परदा एक आईना है, जिसमें दर्शक अपनी छवि देखता है? अमेरिका में एक प्रयोग किया गया, दर्शक की कुर्सी पर लाल और हरे रंग के बटन लगे हैं। अगर दर्शक सुखांत चाहते हैं तो हरे रंग का बटन दबाएं। दुखांत पसंद करने वाले लाल बटन दबाएं। दर्शक की पसंद के अनुरूप क्लाइमैक्स दिखाया जाता है। फिल्मकार ने सुखांत और दुखांत दोनों ही शूट करके रखे थे। मसलन हम बिमल रॉय की ‘देवदास’ देख रहे हैं और अधिकांश दर्शकों ने सुखांत देखना चाहा तो देवदास और पारो मिल जाते हैं।

बिमल रॉय की फिल्म में देवदास और पारो दोनों मर जाते हैं। फिल्म के आखिरी शॉट में हम दो परिंदों को आकाश में उड़ते हुए देखते हैं। गोयाकि फिल्मकार ने उनकी आत्माओं का मिलन कराकर सुखांत ही किया है। अगर इसी तरह राज कपूर की संगम में दर्शकों का मतदान गोपाल के पक्ष में होता तो सुंदर मर जाता और अगर औघड़ दर्शक राधा के पात्र को मरने देना चाहता है तो गोपाल और सुंदर मिलकर गाते ‘बिदा के वक्त पलक पर आंसुओं को तौलती वह तुम न थीं तो कौन था’। अगर यही बात हम ‘शोले’ पर लागू करें तो अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र बचाया जा सकता था, परंतु कदाचित फिल्मकार जया अभिनीत विधवा के साथ बच्चन अभिनीत पात्र की विवाह संभावना से घबरा गया। वह शोले बना रहा था, प्रेमरोग नहीं। फिल्मकार अधिकतम दर्शक की पसंद जानने का प्रयास करता है और यह कार्य लगभग वैसा ही है, जैसे पांच अंधे स्पर्श के अनुभव के आधार पर हाथी का विवरण प्रस्तुत कर रहे हों। खुद दर्शक ही नहीं जानता कि वह क्या चाहता है। कुछ दर्शक लतियड़ सिनेमा दर्शक हैं, उन्हें इसकी लत लग चुकी है।

आनंद एल. रॉय की फिल्म तनु वेड्स मनु के क्लाइमैक्स में दुल्हन के द्वार दो बारातें पहुंचती हैं। यह कुछ-कुछ स्वयंवर की तरह का मामला बन जाता है। जिमी शेरगिल अभिनीत पात्र का इश्क एक तरफा है और जब तनु ही ढाल बनकर वर के सामने खड़ी हो जाती है, तब जिमी शेरगिल अभिनीत शिवभक्त पात्र बंदूक फेंक देता है और इस आशय की बात करता है कि अगर बावरी तनु, मनु से इतना प्यार नहीं करती और आज सोमवार नहीं होता तो गोली मार देता।

दरअसल, कियारोस्तामी की फिल्म एक साउंडट्रेक है और बिंब के नाम पर दर्शक के चेहरे दिखाए गए हैं। अधिकांश महिलाएं फिल्म देख रही हैं। कुमार अंबुुज कहते हैं कि संवाद कविता के शिखर स्वरूप हैं, आवाजों की कशिश, विशेषकर ‘शीरी’ का दर्द दर्शक की आंख से बहते आंसू द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। प्रेम, दुख तकलीफ, राजनीति, दीवानगी, आकांक्षा, मृत्यु, नश्वरता और अनश्वर आशा के संयोजन ने इसे इंद्रधनुष से कहीं अधिक रंग संपन्न कर दिया है। यहां तो एक आंसू भी सात रंग बिखेरकर बहता है, हजार बार कही जा चुकी कहानी को इस तरह कहना अप्रतिम है।

फिल्म के स्थिर चित्रों के नीचे लिखी इबारत पर गौर करें तो यह फिल्म वर्तमान समय का आईना बन जाती है। याद आते हैं दुष्यंत कुमार, ‘वे कहते हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज के लिए, कहां तो तय था चिरागां हर घर के लिए, कहां मयस्सर नहीं सारे शहर के लिए...। भांति-भांति के वाद्यों की ध्वनि तो सुन सकते हैं, परंतु यथार्थ में कहीं कुछ नहीं बदला है। हालात बदतर हैं। ज्ञातव्य है कि ‘बुक्स इन‌ वायस’ नामक कंपनी किताबों को ऑडियो के स्वरूप में प्रस्तुत करती है। खाकसार की ‘ताज : बेकरारी का बयान’ बुक्स इन वायस ने जारी की है। जिस व्यक्ति की आवाज का इस्तेमाल किया है, वह साहित्य समझता है और उसने अपनी आवाज में भावों के अनुरूप परिवर्तन किए हैं। आवाज हंसाती, रुलाती और गुदगुदी करती है, मानो आवाज की अंगुलियां हों।

उमा आनंद की किताब चेतन आनंद : पोएटिक्स ऑफ सिनेमा में एक विवरण है कि चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ का प्रदर्शन मंत्रिमंडल के लिए गया गया था। चेतन आनंद को नेहरू के निकट बैठने का अवसर मिला। फिल्म देखते समय पंडित जवाहरलाल नेहरू के चेहरे पर भाव आते थे और चेतन आनंद के लिए नेहरू का चेहरा ही सिनेमा का परदा बन गया था। इस तरह वह अपनी फिल्म को अभिनव परदे पर देख रहा था। विचारणीय है कि ईरान और कोरिया छोटे देश हैं, परंतु उनकी फिल्मों का चरबा हम बना रहे हैं, जैसे रितिक रोशन अभिनीत ‘काबिल’ बनाई गई। किस्सा है कि ‘एक अघोरी’ ने अमेरिका में प्रदर्शन किया। ज्ञातव्य है कि अघोरी मानते हैं कि हर चीज खाई जा सकती है और बिना संकोच के ऐसा करना भी प्रार्थना ही है। बहरहाल उस अघोरी ने पांच प्लेट में रखी गंदगी खा ली, परंतु छठी प्लेट में मक्खी बैठ जाने के कारण उसने इनकार कर दिया। कोई नहीं जानता कि दर्शक को किस फिल्म में मक्खी नजर आ जाएगी।



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कोरोना वॉरियर का काम कर रहा आतंकियों का पता लगाने वाला सिस्टम, आइसोलेशन से भागने वाले आधे घंटे में हो रहे ट्रेस

श्रीनगर. इटली से आने वाला एक शख्स किसी दूसरी जगह से होते हुए पहले नई दिल्ली पहुंचता हैफिर वह दिल्ली से जम्मू आने के लिए ट्रेन पकड़ता है। इसके बादरेलवे स्टेशन से घर आने के लिए कैब का सहारा लेता है। वह यह सब अपनी ट्रैवल हिस्ट्री छिपाने के लिए करता है ताकि वह 14 दिन के क्वारैंटाइन पीरियड से बच सके। लेकिन, वह पकड़ा जाता है। एक और केस है। दो भाई हैं। दोनों बांग्लादेश के एक ही मेडिकल कॉलेज में पढ़ते हैं। एक फ्लाइट से आता है। वह चेकिंग स्टॉफ को अपनी ट्रैवल हिस्ट्री बताता है और क्वारैंटाइन कर दिया जाता है। दूसरा भाई सड़क का रास्ता पकड़कर सीधे घर पहुंच जाता है और घर की बनी मिठाईयों का स्वाद ले रहा होता है। कोई समझदार पड़ोसी कंट्रोल रूम में कॉल करता है। टीम पहुंचती है और उस शख्स में कोरोनावायरस के लक्षणों की पहचान होती है। आखिर में उसे आइसोलेट कर ही दिया जाता है।

श्रीनगर के डिप्टीकमिश्नर शाहिद चौधरीट्वीट के जरिए विदेश यात्रा कर वापस अपने घर लौटने वाले और ट्रैवल हिस्ट्री छिपाने वाले कश्मीरियों को चेतावनी दे रहे हैं। रविवार को एक के बाद एक कई ट्वीट के जरिए शहीद ये बताना चाह रहे थे कि लोग चाहे ट्रैवल हिस्ट्री छिपा लें, लेकिन प्रशासन की सतर्कता और लोगों की समझदारी से वे बच नहीं सकते। दरअसल, इन दिनों विदेशों में पढ़ाई या नौकरी कर रहे कश्मीरी कोरोनावायरस के बढ़ते प्रभाव के कारण घर लौट रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो यूं ही विदेश घूम कर आए हैं। ये लोग क्वारैंटाइन होने से बचने के लिए अपनी विदेश यात्रा की पूरी जानकारी साझा नहीं करते, क्योंकि सरकार विदेश यात्रा करने वाले हर शख्स की गहन जांच और इसके बाद थोड़े भी लक्षण मिलने वाले को क्वारैंटाइन कर रही है। ऐसे में ये कश्मीरी अपनी ट्रैवल हिस्ट्री छिपाकर चुपचाप अपने घर पहुंच रहे हैं।

शाहिद अपने लगातार ट्वीट में ऐसे कई लोगों का जिक्र करते हैं। वे एक ट्वीट में लिखते हैं, "चार शख्स मारिशस, दुबई और कजाकिस्तान की यात्रा कर लौटे हैं, लेकिन वे अपनी ट्रैवल हिस्ट्री बताना नहीं चाहते। हालांकि, हमारी आईटी टीम इसका पता लगा लेती है।" तंज के लिहाज से वे आगे लिखते हैं,"हे मेरे स्वास्थ्य संगठन के गाइडलाइन्स वाले दोस्त, क्या आप मुझे प्रवचन जैसा कुछ भेज सकते हैं ताकि मैं ऐसे लोगों को समझा पाऊं?"

ट्विटर पर शाहिद इस तरह के लोगों से यही निवेदन करते पाए गए कि इस महामारी की गंभीरता को समझें। इस वायरस को फैलने से रोकने के लिए प्रशासन को सही जानकारी दें। वे लिखते हैं, "यकीन कीजिए अगर मैं रोज इस तरह के लोगों की जानकारी साझा करूंगा तो कश्मीर में कोई सो भी नहीं पाएगा। अपने अहंकार को एकतरफ रखें, समस्या को बढ़ाने की बजाय मिलजुल कर काम करें और एकदूसरे की मदद करें। जो अभी चल रहा है वो तीसरे विश्वयुद्ध से कम नहीं है। यह खत्म हो जाए तो हम अपनी बाकी समस्याओं को आपस में निपटाते रहेंगे।"

पिछले हफ्ते हजारों की संख्या में लोग कश्मीर लौटे हैं। ज्यादातर को क्वारैंटाइन किया गया है। इनकी भी दो तरह की तस्वीरें सोशल मीडिया पर नजर आ रही हैं। कुछ लोग व्यवस्थाओं से संतुष्ट दिख रहे हैं तो कुछ क्वारैंटाइन रूम्स को जर्जर बता रहे हैं और यह भी लिख रहे हैं कि उन्हें कई लोगों के साथ रखा जा रहा है।

श्रीनगर प्रशासन ने इस तरह की आलोचनाओं को खारिज करते हुए 65 बेहद अच्छेहोटलों और सरकारी आवासों को अपने नियंत्रण में लिया है। इनमें बाहरी देशों से श्रीनगर में वापस आने वाले नागरिकों के लिए और कोरोना संक्रमित किसी मरीज के संपर्क में आने वाले लोगों को क्वारैंटाइन किया जा रहा है। सभी होटललगभग तीन सितारा हैं। सरकारी आवासों में भी सभी सुविधाएं बेहतर हैं।

अपने एक ट्वीट में शाहिद चौधरी होटल मालिकों को धन्यवाद भी देते हैं। वे शहंशाह होटल के मालिक सुहैल बुखारी और जोस्टल होटल के मालिक इनर्शाद को शुक्रिया कहते हुए लिखते हैं, "सुहैल बुखारी ने अपनी 48 कमरों वालेआलीशन होटल की चाबियां हमें सौंपी हैं।" "इनर्शाद जी के लिए तालियां बजाइये, उन्होंने मदद के लिए पूराहोटल हमें सौंप दिया है।"

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गुरुवार से शनिवार तक श्रीनगर लौटने वाले कुल 1166 लोगों को इस तरह ही 20 होटलों में क्वारैंटाइन किया गया है। कश्मीर में सुरक्षा बल हमेशा आतंकी खतरों से निपटने के लिए सतर्क रहते हैं। लोगों की आवाजाही का पता लगाने के लिए यहां इलेक्ट्रॉनिक ट्रैकिंग सिस्टम हैं। यह नेटवर्क उन लोगों से निपटने के लिए भी काम आ रहा है जो इन आइसोलेशन सेंटर से भाग रहे हैं। पिछले शनिवार को ही ऐसे 3 पीएचडी स्कॉलर्स जो बिना बताए क्वारैंटाइन सेंटर से गायब हो गए थे, उन्हें पकड़ लिया गया और एग्जामिनेशन के लिए हेल्थ सेंटर में डाल दिया गया। ये तीनों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र थे, जो 18 मार्च को ही यूएई से लौटे थे। इन्हें यूनिवर्सिटी में ही क्वारैंटाइन किया गया था, लेकिन ये भागकर कश्मीर आ गए।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से यह जानकारी जम्मू-कश्मीर प्रशासन को मिली और फिर प्रशासन ने फटाफट एक्शन लेते हुए इन तीनों को अनंतनाग और बारामुला जिले के इनके गांवों से पकड़ लिया। अनंतनाग एसएसपी संदीप चौधरी कहते हैं, "अलीगढ़ से कश्मीर में हुए इनके मूवमेंट पर पुलिस सतर्क थी। अनंतनाग के गांव में एक स्कॉलर 3 बजे पहुंचा और हमने एक घंटे के अंदर उसे पकड़ लिया। बाकी बारामुला जिले के 2 स्कॉलर भी तुरंत पकड़ लिए गए।" इसके बाद तीनों को मेडिकल एग्जामिनेशनके लिए हेल्थ सेंटर में भेज दिया गया।

रविवार को ही प्रशासन ने सर्विलांस टीम और लोगों की मदद से ऐसे 29 लोगों को ट्रेस किया था। शाहिद चौधरी ने एक ट्वीट में ऐसे लोगों की जानकारी देने वाले लोगों को धन्यवाद कहते हुए लिखा था, "कंट्रोल रूम में कॉल करने के लिए आप सभी का धन्यवाद। मेडिकल, आईटी और सर्विलांस टीम ने आज 29 लोगों को ट्रेस करने में कामयाबी हासिल की। ये लोग बैंकाक, यूके, दुबई, बांग्लादेश, कजाकिस्तान जैसे देशों से आए थे और ट्रैवल हिस्ट्री छिपाकर और रूट बदल कर मेडिकल टीम से बच निकले थे।"

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जम्मू-कश्मीर प्रशासन ट्रैवल हिस्ट्री छिपाने वाले यात्रियोंपर सख्त कार्रवाई की चेतावनी दे चुका है। हाल ही में श्रीनगर एयरपोर्ट पर बांग्लादेश से आए कुछ मेडिकल स्टूडेंट्स ने क्वारैंटाइन किए जाने का विरोध किया था और फर्जी आईडी दिखाकर इस प्रक्रिया से बचने की कोशिश की थी। कश्मीर के डिविजनल कमिश्नर पीके पोल ने इस पर कहा था कि प्रक्रिया का उल्लंघन करने वालों को प्रशासन बर्दाश्त नहीं करेगा। जो भी शख्स नियमों का पालन नहीं करेगा, उस पर सख्त से सख्त कार्रवाई की जाएगी।



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जम्मू-कश्मीर में अब तक कोरोनावायरस के 4 संक्रमित मिले, पूरे राज्य में 31 मार्च तक लॉकडाउन रहेगा।- फाइल




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जिनके आशियाने जल गए, उनके पास जमा-पूंजी के नाम पर अब जले हुए नोट ही बाकी रह गए

दिल्ली के उन्हीं इलाकों से रिपोर्ट जहां 53 जानें गई थीं. उत्तर पूर्वी दिल्ली का भजनपुरा चौक। आज से ठीक एक महीना पहले यह इलाका दिल्ली में हुए दंगों की भयानक आग में झुलस रहा था। ऐसी आग जो पचास से ज्यादा लोगों की जिंदगी लील गई और सैकड़ों परिवारों को बेघर कर गई। यह आग भले ही अब बुझ चुकी है, लेकिन एक महीना बीत जाने के बाद भी इसकी कालिख के गाढ़े निशान आसानी से देखे जा सकते हैं।

भजनपुरा चौक के बीचों-बीच स्थित चांद बाबा की मजार को दंगाइयों ने बीती 24 फरवरी को आग के हवाले कर दिया था। इस मजार में श्रद्धालुओं का आना तो शुरू हो गया है, पर टूटी दीवारें, जली हुई छत और उजाड़ इमारत पहली नजर में ही अपनी आपबीती बयां कर रही हैं। इस मजार की मरम्मत का काम शुरू तो कर दिया गया था, लेकिन फिर उसे बीच में ही रुकवा दिया गया।

वक्फ बोर्ड की ओर से इस मजार की मरम्मत का काम हाजी अफजाल करवा रहे थे। वे बताते हैं- ‘इस मजार पर हिंदू-मुस्लिम सभी माथा टेकते हैं। इसकी मरम्मत के लिए भी सभी धर्मों के लोग आगे आए थे और हमने कारीगर लगवा कर मरम्मत शुरू भी कर दी थी। पर करीब पांच-छह दिन पहले पुलिस ने यहां आकर नए बने पिलर तोड़ दिए और उनमें लगे सरिए भी काट दिए। उस दिन से घबराकर फिलहाल मरम्मत रोक दी गई।’ इस मजार से कुछ दूरी पर सड़क के दूसरी तरफ ‘दिल्ली डीजल’ नाम का वह पेट्रोल पंप है, जिसे दंगाइयों ने राख कर दिया था। महेंद्र कुमार अग्रवाल का यह पेट्रोल पंप आज भी उसी हालत में है। इसका सिर्फ प्रदूषण जांच केंद्र दोबारा बनाकर शुरू कर दिया गया है। बाकी पूरा पेट्रोल पंप अब भी दंगों की गवाही दे रहा है।

मजार की मरम्मत करते कारीगर।

17 लाख का नुकसान हुआ, मुआवजे में करीब ढाई लाख मिले
इस पेट्रोल पंप से सटी हुई यमुना विहार की कई इमारतें भी दंगों के दौरान आग की चपेट में आ गई थीं। मुआवजा न मिलने के चलते इनमें से अधिकतर अब तक वैसी ही पड़ी हैं, लेकिन कुछ लोगों ने अपने खर्च से इमारतें ठीक करवाना शुरू कर दिया है। ‘कैप्टन कटोरा’ नाम के चर्चित रेस्टोरेंट के मालिक कमल शर्मा बताते हैं, ‘यमुना विहार में हमारे दो रेस्टारेंट थे और दोनों ही दंगों में जल गए। इसमें हमारा करीब 16-17 लाख रुपए का नुकसान हुआ। सरकार ने मुआवजे में कुल दो लाख 57 हजार रुपए दिए हैं। लेकिन फिर भी हमने अपनी जेब से पैसा लगाकर रेस्टोरेंट दोबारा बनवाए, ताकि काम-धंधा दोबारा शुरू किया जा सके, लेकिन वो भी नहीं हो सका। दंगों की मार से हम उभर पाते उससे पहले ही कोरोना ने दोबारा मार दिया।’

कमल शर्मा आगे कहते हैं, ‘ये रेस्टोरेंट हमने करीब 6-7 महीने पहले ही शुरू किए थे और इतने कम समय में ही अच्छी पहचान बना ली थी। लेकिन एक झटके में ही सब खत्म हो गया। हमने 25 लाख का कर्ज लेकर रेस्टोरेंट का काम शुरू किया था, जिसकी किस्त चुका रहे हैं। रेस्टोरेंट का किराया भी कोई कम नहीं है। एक का सवा लाख रु. तो दूसरे का 85 हजार रु. महीना। रेस्टोरेंट चले न चले किराया तो चुकाना ही है। यही सोचकर हमने इधर-उधर से पैसा जुटाया और रेस्टोरेंट फिर से तैयार किया, ताकि खर्चे निकल सकें। लेकिन अब कोरोना के चलते न जाने कब तक काम बंद रहेगा। जिन लोगों ने पार्टी के लिए एडवांस बुकिंग की थी, उन्हें भी एडवांस वापस करना होगा। पता नहीं आगे क्या और कैसे होने वाला है?’

40 लाख की संपत्ति जलकर खत्म हुई

कमल शर्मा जैसी ही स्थिति लगभग सभी दंगा प्रभावित व्यापारियों की बन पड़ी है। सजीर अहमद का ‘जोहान ऑटोमोबाइल’ हो या राजू अग्रवाल का ‘फेयर डील कार्स’, दंगों की आग में जलकर बहुत कुछ खाक हो गया और ये लोग करोड़ों रुपए के नुकसान में आ गए हैं। इस नुकसान की भारी मार उन दर्जनों लोगों पर भी पड़ी है जो इन शोरूम्स में नौकरी किया करते थे। ऐसे अधिकतर लोगों नौकरियां दंगों की भेंट चढ़ गई हैं।जोहान ऑटोमोबाइल का काम संभालने वाले राकेश शर्मा बताते हैं- ‘मैं 22 साल से सजीर अहमद साहब के साथ काम कर रहा हूं। इन दंगों में उनकी करीब 40 लाख की संपत्ति इसी शोरूम में जलकर खत्म हो गई। मुआवजे के नाम पर अब तक कुछ नहीं मिला है, इसलिए ये भी नहीं कह सकते कि शोरूम दोबारा कब तक तैयार कर पाएंगे। 80 हजार रु. महीना तो शोरूम का सिर्फ किराया ही जाता है।’

जोहान ऑटोमोबाइल, जिसमें40 लाख की संपत्ति जलकर खत्म हो गई।

भजनपुरा चौक पर ही मोहम्मद आजाद का ‘आजाद चिकन कॉर्नर’ भी हुआ करता था जो 24 फरवरी के दिन आगजनी की भेंट चढ़ गया। इससे बिल्कुल सटी गणेश कुमार की फलों की दुकान भी जला दी गई। आजाद और गणेश दोनों ही जल चुके आजाद चिकन कॉर्नर के बाहर कुर्सी डाले एक साथ बैठे मिले। गणेश बताते हैं- ‘आज से करीब 40 साल पहले आजाद भाई और मैंने लगभग साथ-साथ ही यहां अपना-अपना काम शुरू किया था। लगभग पूरी उम्र हम लोगों ने साथ गुजारी है और एक दूसरे के हर सुख-दुःख में साथ खड़े रहे हैं। लेकिन ये भाईचारा दंगाई कभी नहीं समझ सकते, जिन्होंने सिर्फ मजहब देखकर लोगों को निशाना बनाया।’

मोहम्मद और गणेश का भाईचारा
मोहम्मद आजाद और गणेश कुमार के भाईचारे का अंदाज़ इस बात से भी लगता है कि जब ये लोग दंगों की आपबीती सुनाते हैं तो खुद से ज्यादा एक-दूसरे के नुकसान का जिक्र करते मिलते हैं। मोहम्मद आजाद कहते हैं- ‘लाखों रुपए का माल गणेश भाई की दुकान में पड़ा था जो पहले लूटा गया और फिर जला दिया गया। ये कई लाख के घाटे में आ गए हैं और सरकार से अब तक कोई मदद नहीं मिली है। गणेश भाई की मां का दिल का इलाज चल रहा है, जिसमें हर महीने हजारों रुपए खर्च होते हैं। इस साल बेटी की शादी करने की भी सोच रहे थे। अब ये सब कैसे कर सकेंगे?’

मोहम्मद आजाद की ही तरह गणेश कुमार भी खुद से ज्यादा अपने पड़ोसी को हुए नुकसान का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मुझे सिर्फ दुकान और व्यापार का नुकसान हुआ है, लेकिन आजाद भाई का तो पूरा घर भी जल गया है। उनका परिवार यहीं दुकान के ऊपर बने घर में रहा करता था। ये इमारत इस कदर जल चुकी है कि अब पूरी तोड़कर ही दोबारा बन सकेगी। आप ऊपर जाकर देखिए एक बार कैसे घर की छत बिल्कुल लटक चुकी है।’

गणेश कुमार। दंगों में इनकी दुकान जल गई।

जले हुए नोटों के बदले क्या बैंक नए नोट देगा?
अपना पूरी तरह से जल चुका घर दिखाते हुए मोहम्मद आजाद कहते हैं- ‘उस दिन जब दंगाई आए तो हमने छत से दूसरी तरफ कूद कर किसी तरह अपनी जान बचाई। घर खुला छोड़कर ही हम लोग जैसे-तैसे भाग गए थे। दंगाइयों ने नीचे दुकान का शटर तोड़कर पहले यहां लूट-पाट की और फिर आग लगाई। घर में जो भी जेवर और कैश था, सब लूट के ले गए। जो कैश उनके हाथ नहीं लगा वो आग की चपेट में आ गया।’ ये कहने के साथ आजाद डिब्बे में रखी जले हुए नोटों की गड्डियां दिखाते हैं और पूछते हैं, ‘इनमें कई नोट ऐसे हैं जिनके नम्बर जलने से बच गए हैं। क्या बैंक इस आधार पर हमें नए नोट दे देगा?’

जले हुए नोटों के साथ मोहम्मद आजाद का परिवार।

मोहम्मद आजाद की दुकान और घर को जले आज एक महीना पूरा हो गया है। सरकार की ओर से अब तक कोई वित्तीय मदद उन तक नहीं पहुंची है। ऐसे में इस दौरान उनके जरूरी खर्च कैसे पूरे हो रहे हैं? इस सवाल पर आजाद बताते हैं, ‘सरकारी मुआवजा अब तक नहीं मिला है लेकिन इस बीच कई लोग थोड़ी-थोड़ी मदद करते रहे हैं। राशन से लेकर अन्य कई तरह की मदद लोग पहुंचा रहे हैं। दंगों के कुछ ही दिनों बाद तो एक आदमी ने आकर धीरे-से मेरे हाथ में दस हजार रुपए रख दिए थे। मैं नहीं जानता वो कौन थे। नहीं पता हिंदू थे या मुसलमान। मैंने उनसे पूछा तो बस इतना कहा कि ‘हमें किसी को दिखाने के लिए आपकी मदद नहीं करनी है। आपको इस वक्त जरूरत है इसलिए आप ये रख लीजिए।’ वो दस हजार रुपए हम तीनों भाइयों ने बराबर बाट लिए।

भजनपुरा चौक से करावल नगर की ओर जाती सड़क पर एक तरफ मोहम्मद आजाद की दुकान है तो सड़क के दूसरी तरफ बालाजी स्वीट्स है। यह दुकान भी दंगाइयों के उन्माद का शिकार हुई थी। हालांकि इसमें आग नहीं लगी, लेकिन दंगाइयों इसका भी शटर तोड़कर इसमें लूटपाट और तोड़फोड़ की थी। नरेश अग्रवाल की इस दुकान की मरम्मत अब स्वयंसेवी संस्था ‘खालसा एड’ के द्वारा करवाई जा रही है।

‘खालसा एड’ से जुड़े लोगों ने दिल्ली दंगों में राहत पहुंचाने का प्रशंसनीय काम किया है। इस संस्था के लोग 26 फरवरी को ही दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाकों में पहुंच चुके थे और उन्होंने लोगों को राशन से लेकर कपड़ों तक की मदद करना शुरू कर दिया था। दंगे शांत होने के बाद भी ये लोग लगातार यहां मौजूद रहे और कोरोना के चलते हुए जनता कर्फ्यू से एक दिन पहले तक खालसा एड यहां दर्जनों दुकानों की मरम्मत कर चुका था और फल-सब्जी बेचने वाले ऐसे 45 से ज्यादा ठेले वालों को नई रेहड़ी बनवा कर दे चुका था, जिनकी रेहड़ी दंगों में जल गई थी।

दंगा प्रभावित इलाकों में पहुंचे खालसा एड के लोग।

खालसा एड के मैनेजिंग डाइरेक्टर (एशिया) अमरप्रीत सिंह कहते हैं, ‘दंगों के वक्त मैं तो लंदन में था, लेकिन हमारी टीम यहां 26 तारीख को ही पहुंच चुकी थी। तब से टीम यहां लगातार बनी हुई है और हमारी कोशिश है कि हमसे जितना हो सके उतने लोगों तक हम मदद पहुंचा सकें। हमने दंगों में जल चुकी पूरी टायर मार्केट को भी बनवाने की पेशकश की थी, लेकिन वक्फ बोर्ड ने उसे बनवाने की जिम्मेदारी ले ली है। हम अब अलग-अलग इलाकों में लोगों की दुकानें बनवाने में मदद कर रहे हैं और उनकी मरम्मत, पुताई समेत बिजली की पूरी फिटिंग करवा के उन्हें दे रहे हैं।’

खालसा एड जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं से इतर अगर सरकारी मदद पर नजर डालें तो ज्यादातर दंगा प्रभावित यही बताते मिलते हैं कि सरकारी मुआवजा अब तक भी उन्हें नहीं मिल पा रहा है। हालांकि, दिल्ली सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 21 मार्च तक कुल 17 करोड़ 35 लाख 22 हजार रुपए बतौर मुआवज़ा बांट दिए गए हैं। इसमें आग की चपेट में आए करीब पांच सौ घरों, सात सौ दुकानों, 44 मृतकों और 238 घायलों को अब तक भुगतान किया जा चुका है।

दंगा प्रभावितों की मदद में लगे खालसा एड के मैनेजिंग डाइरेक्टर अमरप्रीत सिंह और उनके साथी।

इसके बावजूद भी सरकारी मुआवजे के आवंटन से प्रभावितों में रोष है तो उसके कुछ वाजिब कारण भी हैं। सरकारी आंकड़े में दावा है कि सरकार के पास अब तक झुग्गियों के जलने के सिर्फ आठ, ई-रिक्शा जलने के सिर्फ नौ और स्कूटी जलने के सिर्फ दो ही क्लैम आए हैं। जबकि इन दंगों में ई-रिक्शा और दोपहिया वाहन सैकड़ों की संख्या में जल कर राख हुए हैं।

कई इलाकों में अब तक मदद नहीं पहुंची
दंगों में जिन लोगों के घर जले हैं, उनमें से कई लोगों को 25 हजार का आंतरिक मुआवजा मिल चुका है। लेकिन कई इलाके ऐसे भी हैं जहां अब तक कोई भी मदद बिलकुल नहीं पहुंची है। शिव विहार फेज-3 ऐसा ही इलाका है। यहां स्थित गधा चौक के पास जिन लोगों के घरों को निशाना बनाकर लूटा और जलाया गया है, उनमें से किसी को भी अब तक सरकारी मुआवजे के नाम पर कुछ भी नहीं मिला है।

यहां रहने वाले इसरार अहमद बताते हैं, ‘इस इलाके में हमारे बहुत ही सीमित घर हैं। जब माहौल खराब हुआ तो हमारे पड़ोसियों ने ही हमें यहां से निकल जाने को कहा क्योंकि यहां जान का खतरा था। हम तो निकल गए, लेकिन हमारे घर दंगाइयों ने आकर पहले लूटे और फिर जला डाले।। सारी जिंदगी की कमाई लगाकर ये घर बनवाया था, अब दोबारा जाने कैसे इसे रहने लायक भी बना सकेंगे। फिलहाल तो हम लोग रिश्तेदारों के घर पर ही रह कर गुज़ारा कर रहे हैं।'

बरसों मेहनत करने और खून-पसीने से कमाई एक-एक पाई जोड़ने के बाद जिन लोगों ने अपने छोटे-मोटे आशियाने बनाए थे, वो एक ही रात में जलाकर दंगाइयों ने राख कर दिए। लिहाजा ये लोग अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह दर-दर भटकने को मजबूर कर दिए गए। बेघर हो चुके ये लोग किस स्थिति में हैं और वापस क्यों नहीं लौट पा रहे, इसकी विस्तृत जानकारी इस रिपोर्ट की दूसरी कड़ी में।



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Delhi Violence Ground Report Latest Updates On Jafrabad, Maujpur, Bhajanpura and Seelampur




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21 दिन नहीं संभले तो 21 साल पीछे चले जाएंगे

प्यारे देशवासियों,
मैं आज एक बार फिर काेराेना वैश्विक महामारी पर बात करने के लिए आपके बीच आया हूं। 22 मार्च काे जनता कर्फ्यू का जाे संकल्प हमने लिया था, एक राष्ट्र के नाते उसकी सिद्धि के लिए हर भारतवासी ने पूरी संवेदनशीलता के साथ, पूरी जिम्मेदारी के साथ अपना याेगदान दिया। बच्चे, बुजुर्ग, छाेटे-बड़े, गरीब, मध्यम, हर वर्ग के लाेग, हर काेई परीक्षा की इस घड़ी में साथ आए। जनता कर्फ्यू काे हर भारतवासी ने सफल बनाया। एक दिन के जनता कर्फ्यू से भारत ने दिखा दिया कि जब देश पर संकट आता है, जब मानवता पर संकट आता है ताे किस प्रकार से हम भारतीय मिलकर उसका मुकाबला करते हैं।

आप सभी जनता कर्फ्यू की सफलता के लिए प्रशंसा के पात्र हैं। आप काेराेना महामारी पर पूरी दुनिया की स्थिति सुन रहे हैं और देख रहे हैं। आप यह भी देख रहे हैं कि दुनिया के समर्थ से समर्थ देशाें काे भी कैसे इस महामारी ने बिल्कुल बेबस कर दिया है। ऐसा नहीं है कि यह देश प्रयास नहीं कर रहे हैं या उनके पास संसाधनाें की कमी है। लेकिन, काेराेना इतनी तेजी से फैल रहा है कि तमाम तैयारियाें और प्रयासाें के बावजूद इन देशाें में चुनाैती बढ़ती ही जा रही है। इन सभी देशाें के दाे महीनाें के अध्ययन से जाे निष्कर्ष निकल रहा है और एक्सपर्ट भी यही कह रहे हैं कि इस वैश्विक महामारी काेराेना से प्रभावी मुकाबले के लिए एकमात्र विकल्प है- साेशल डिस्टेंसिंग। साेशल डिस्टेंसिंग यानी एक दूसरे से दूर रहना। अपने घराें में ही बंद रहना। काेराेना से बचने का इसके अलावा काेई तरीका नहीं है। काेई रास्ता नहीं है। काेराेना काे फैलने से राेकना है ताे उसके संक्रमण की साइकल काे ताेड़ना ही हाेगा। कुछ लाेग इस गलतफहमी में हैं कि साेशल डिस्टेंसिंग सिर्फ मरीज के लिए जरूरी है। यह साेचना सही नहीं है। साेशल डिस्टेंसिंग हर नागरिक के लिए, हर परिवार के लिए है। परिवार के हर सदस्य के लिए है। प्रधानमंत्री के लिए भी है। कुछ लाेगाें की लापरवाही, कुछ लाेगाें की गलत साेच आपकाे, आपके बच्चों, माता-पिता को, परिवार काे, आपके दाेस्ताें काे और आगे चलकर पूरे देश काे बहुत बड़ी मुश्किल में झाेंक देगी।

अगर ऐसी लापरवाही जारी रही ताे भारत काे इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है और ये कीमत कितनी हाेगी, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।पिछले दाे दिनाें से देश के अनेक भागाें में लाॅकडाउन कर दिया गया है। राज्य सरकारों के इन प्रयासाें काे बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। हेल्थ एक्सपर्ट और अन्य देशाें के अनुभवाें काे ध्यान में रखते हुए देश आज एक अहम फैसला करने जा रहा है।

आज रात 12 बजे से पूरे देश में संपूर्ण लाॅकडाउन हाेने जा रहा है। हिंदुस्तान काे बचाने के लिए हिंदुस्तान के हर नागरिक काे बचाने के लिए आपकाे और आपके परिवार काे बचाने के लिए रात 12 बजे से घराें से बाहर निकलने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जा रही है। देश के हर राज्य काे, हर केंद्र शासित प्रदेश काे, हर जिले, हर गांव, कस्बे, गली, मोहल्ले काे लाॅकडाउन किया जा रहा है। यह एक तरह से कर्फ्यू है, जनता कर्फ्यू से कुछ कदम आगे की बात। उससे ज्यादा सख्त। काेराेना के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के लिए यह कदम बहुत आवश्यक है। निश्चित ताैर पर लाॅकडाउन की आर्थिक कीमत देश उठाएगा, लेकिन एक-एक भारतीय के जीवन काे बचाना, आपके जीवन काे बचाना, आपके परिवार काे बचाना इस समय भारत सरकार की, देश की हर राज्य सरकार की, हर स्थानीय निकाय की सबसे बड़ी प्राथमिकता है। इसलिए मेरी हाथ जाेड़कर प्रार्थना है कि आप इस समय देश में जहां भी हैं, वहीं रहें। अभी के हालात काे देखते हुए देश में लाॅकडाउन 21 दिन का हाेगा। तीन सप्ताह का हाेगा।

मैं आपसे कुछ सप्ताह मांगने आया हूं। आने वाले 21 दिन हर नागरिक के लिए हर परिवार के लिए बहुत महत्वपू्र्ण हैं। हेल्थ एक्सपर्ट्स के अनुसार काेराेना के संक्रमण साइकल को ताेड़ने के लिए 21 दिन का समय बहुत अहम है। अगर ये 21 दिन नहीं संभले ताे देश और आपका परिवार 21 साल पीछे चला जाएगा। अगर ये 21 दिन नहीं संभले ताे कई परिवार हमेशा-हमेशा के लिए तबाह हाे जाएंगे। मैं ये बात प्रधानमंत्री नहीं, आपके परिवार के सदस्य के नाते कह रहा हूं। इसलिए बाहर निकलना क्या हाेता है, यह 21 दिन के लिए भूल जाएं। घर में रहें, घर में रहें और एक ही काम करें कि अपने घर में ही रहें।

आज के फैसले ने, देशव्यापी लाॅकडाउन ने आपके घर के दरवाजे पर एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है। आपकाे ये याद रखना है कि घर से बाहर पड़ने वाला आपका सिर्फ एक कदम कोरोना जैसी गंभीर महामारी काे आपके घर में ला सकता है। आपकाे याद रखना है कि कई बार काेराेना से संक्रमित व्यक्ति शुरुआत में स्वस्थ लगता है। वह संक्रमित है, इसका पता ही नहीं चलता। इसलिए एहतियात बरतें, घराें में रहें। जाे लोग घर में हैं, वह साेशल मीडिया पर नए तरीकाें से, इस बात काे बता रहे हैं। एक बैनर जाे मुझे भी पसंद आया, मैं आपकाे भी दिखाता हूं। काेराेना यानी काेई राेड पर ना निकले।

एक्सपर्ट्स का कहना है कि आज अगर किसी भी व्यक्ति में काेराेना वायरस पहुंचता है ताे उसके शरीर में इसके लक्षण दिखने में कई कई दिन लग जाते हैं। इस दाैरान वह जाने अनजाने में हर उस व्यक्ति काे संक्रमित कर देता है जाे उसके संपर्क में आता है। डब्लूएचओ की रिपाेर्ट के अनुसार इस महामारी से संक्रमित एक व्यक्ति सिर्फ हफ्ते दस दिन में सैकड़ाें लाेगाें तक इसे पहुंचा सकता है। यानी ये आग की तरह तेजी से फैलता है। डब्लूएचओ का ही एक और आंकड़ा बहुत महत्वपूर्ण है। दुनिया में काेरोना से संक्रमिताें की संख्या काे पहले एक लाख तक पहुंचने में 67 दिन लग गए थे। उसके बाद सिर्फ 11 दिन में ही एक लाख नए लाेग संक्रमित हाे गए। ये और भी भयावह है कि दाे लाख संक्रमिताें से तीन लाख तक ये बीमारी पहुंचने में सिर्फ चार दिन लगे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि काेराेना कितनी तेजी से फैलता है और जब ये फैलना शुरू करता है, ताे इसे राेकना बहुत मुश्किल हाेता है।

यही वजह है कि चीन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इटली, ईरान जैसे अनेक देशाें में जब काेराेना ने फैलना शुरू किया ताे हालात बेकाबू हाे गए। और ये भी याद रखें कि इटली हाे या अमेरिका इन देशाें की स्वास्थ्य सेवा, अस्पताल, आधुनिक संसाधन दुनिया में बेहतरीन माने जाते हैं, फिर भी ये देश काेराेना का प्रभाव कम नहीं कर पाए। सवाल ये है कि उम्मीद की किरण कहां है? उपाय और विकल्प क्या हैं? इससे निपटने के लिए उम्मीद की किरण उन देशाें से मिले अनुभव हैं, जाे काेराेना काे कुछ हद तक नियंत्रित कर पाए। हफ्ताें तक उनके नागरिक घराें से नहीं निकले। उन्हाेंने 100 फीसदी सरकारी निर्देशाें का पालन किया और इसलिए ये कुछ देश अब इस महामारी से बाहर आने की ओर बढ़ रहे हैं। हमें भी ये मानकर चलना चाहिए कि हमारे सामने सिर्फ और सिर्फ यही एक मार्ग है। एष: पंथा:।

घर से बाहर नहीं निकलना है, चाहे जाे हाे जाए। घर में ही रहना है। साेशल डिस्टेंसिंग। प्रधानमंत्री से लेकर गांव के छाेटे से नागरिक तक सबके लिए। काेराेना से तभी बच सकते हैं, जब घर की लक्ष्मण रेखा न लांघी जाए। हमें इस महामारी के वायरस का संक्रमण राेकना है। इसके फैलने की चेन काे ताेड़ना है। ये धैर्य और अनुशासन की घड़ी है। जब तक देश में लाॅकडाउन है, हमें अपना संकल्प निभाना है। अपना वचन निभाना है। मेरी आपसे हाथ जाेड़कर प्रार्थना है कि घराें में रहते हुए आप उनके बारे में साेचिए, उनके लिए मंगल कामना करें, जाे कर्तव्य निभाने के लिए खुद काे खतरे में डालकर काम कर रहे हैं। डाॅक्टरों व उनके बारे में सोचें जो एक-एक जीवन काे बचाने के लिए दिन-रात अस्पताल में काम कर रहे हैं। अस्पताल के लाेग, एंबुलेंस ड्राइवर, वार्ड बॉय, सफाईकर्मी के बारे मेंसाेचें, जाे दूसराें की सेवा कर रहे हैं। आप उनके लिए प्रर्थना करें जाे आपके यहां सेनिटाइज करने में लगे हैं। आपकाे सही जानकारी देने के लिए 24 घंटे काम कर रहे मीडिया के लोगाें के बारे में भी साेचें, जाे संक्रमण का खतरा उठाकर सड़काें पर हैं। अपने आसपास के पुलिसकर्मियों के बारे में साेचें जाे परिवार की चिंता के बिना आपकाे बचाने के लिए दिन रात ड्यूटी पर हैं। कई बार कुछ लाेगों की गुस्ताखी का शिकार भी हाे रहे हैं। काेराेना वैश्विक महामारी के बीच केंद्र और देश की राज्य सरकारें तेजी से काम कर रही हैं। राेजमर्रा की जिंदगी में लाेगाें काे असुविधा न हाे इसके लिए काेशिश कर रहे हैं। जरूरी वस्तुओं की सप्लाई के लिए सभी उपाय किए गए हैं। आगे भी किए जाएंगे। निश्चित ताैर पर संकट की ये घड़ी गरीबाें के लिए भी मुश्किल वक्त लाई है। केंद्र और राज्याें के साथ समाज के संगठन गरीबाें की मुसीबत कम हाे इसके लिए जुटे हुए हैं। गरीबाें की मदद के लिए कई लाेग साथ आ रहे हैं। जीवन जीने के लिए जाे जरूरी है, उसके लिए सारे प्रयासाें के साथ ही जीवन बचाने के लिए जाे जरूरी है, उसे सर्वाेच्च प्राथमिकता देनी ही पड़ेगी। इससे मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं तैयार की जा रही हैं। डब्ल्यूएचओ, भारत के बड़े संस्थानाें की सलाह पर काम करते हुए सरकार ने निरंतर फैसले लिए हैं।

काेराेना के इलाज के लिए केंद्र ने आज 15 हजार करोड़ का प्रावधान किया है। इससे जांच सुविधा, आइसाेलेशन, आईसीयू बेड, वेंटिलेटर और अन्य जरूरी साधन बढ़ाए जाएंगे। राज्याें से अनुराेध किया गया है कि इस समय सभी राज्याें की प्राथमिकता सिर्फ और सिर्फ स्वास्थ्य सेवा ही हाे। मुझे संताेष है कि देश का प्राइवेट सेक्टर भी पूरी तरह से कंधे से कंधा मिलाकर संकट और संक्रमण की इस घड़ी में देश के साथ खड़ा है।

ध्यान रखें कि ऐसे समय में अनजाने कई बार अफवाहें भी जाेर पकड़ती हैं। किसी भी अफवाह और अंधविश्वास से बचें। आप केंद्र, राज्य और मेडिकल संस्थानों के निर्देश और सुझावाें का पालन करें। आपसे प्रार्थना है कि इस बीमारी के लक्षणाें के दौरान डाॅक्टर की सलाह के बिना काेई दवा न लें। किसी भी तरह का खिलवाड़ आपके जीवन काे खतरे में डाल सकता है। विश्वास है कि हर भारतीय सरकार के स्थानीय प्रशासन के निर्देशों का पालन करेगा। 21 दिन का लॉकडाउन लंबा समय है। लेकिन, आपके जीवन की रक्षा के लिए, आपके परिवार के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। यही एक रास्ता है। हर हिंदुस्तानी इसका न सिर्फ सफलता से मुकाबला करेगा, बल्कि विजयी हाेकर निकलेगा। आप अपना ध्यान रखें, अपनाें का ध्यान रखें और आत्मविश्वास के साथ कानून नियमाें का पालन करते हुए पूरी तरह संयम के साथ विजय का संकल्प लेकर हम सब इन बंधनाें काे स्वीकार करें।



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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित किया।




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संसाधन सीमित है इसलिए वैज्ञानिक सोच को अपनाएं

दुनिया के वे राष्ट्र जो स्वास्थ्य सेवाओं के पैमाने पर अग्रणी, आर्थिक रूप से अतिसंपन्न और वैज्ञानिक विकास के अगुआ माने जाते थे, कोरोना के सामने पस्त हो गए। ऐसे में भारत में यह संकट कैसा हो सकता है या उसकी विकरालता कितनी भयावह हो सकती है, यह कहना मुश्किल है। मानव विकास सूचकांक पर आज भी 129वें स्थान पर ठहरे देश के 139 करोड़ लोगों के भाग्य को मात्र इस विश्वास पर कि सरकार कुछ करेगी, नहीं छोड़ा जा सकता।

सरकार के प्रयास चल रहे हैं, लेकिन हमारा अशिक्षित, गरीब और अतार्किक समाज का एक हिस्सा जरूरी सावधानियों का अनुपालन करने की जगह उसे नकराने में लगा है। जनता कर्फ्यू के दिन घंटा-घड़ियाल बजाने को भी इतने अतार्किक तरीके में लिया कि झुंड के झुंड बूढ़े-बच्चे-युवा सड़कों और पार्कों में आ गए। यानी कोरोना के खिलाफ संघर्ष में एक और शिकस्त। यह सब तथाकथित पढ़े-लिखे और संपन्न वर्ग के लोग थे, लेकिन शायद उनमें वैज्ञानिक सोच का अभाव था।

उत्तर प्रदेश के एक जिले के डीएम और एसपी पचासों लोगों के हुजूम में सड़क पर घंटा बजाते हुए दिखे। यह भक्ति भाव प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को खुश करने का था न कि कोरोना से जीतने का। ऐसे में मुंबई, सूरत और दिल्ली से रोजी-रोटी छोड़कर अपने गांव के लिए करोड़ों की संख्या में पलायन कर रहे अशिक्षित गरीब मजदूरों को कौन समझाएगा कि इससे वे इस रोग को उस निम्न स्तर तक फैला देंगे जो सरकार के नियंत्रण के बाहर चला जाएगा।

दुनिया में अपनी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ख्यात अमेरिका, ब्रिटेन, इटली और स्पेन भी आज इस संकट से जूझने में अपने को कमतर पा रहे हैं। अमेरिका में अगर आज 40 फीसदी अस्पताल केवल कोरोना के मरीजों के इलाज के लिए चिह्नित कर दिए जाएं तो भी इस बीमारी के मरीजों के लिए बेड कम पड़ जाएंगे। भारत में न तो उतने डॉक्टर हैं न नर्सें और न ही अस्पताल या बेड। ऊपर से हमारी आबादी अमेरिका से चार गुना ज्यादा है और क्षेत्रफल लगभग एक तिहाई।

लिहाजा सिर्फ एक ही उपाय है, समाज का अग्रणी तबका निकले और सभी को समझाए कि यह गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, जिसे सरकार पर छोड़कर चुनाव के दौरान खाली उसकी आलोचना की जाए। कोरोना से जंग तभी सफल होगी, जब एक-एक व्यक्ति सही सोच के साथ सरकार के आदेश माने और वैज्ञानिक सोच से चले।



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Resources are limited so adopt scientific thinking




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एक डर, जो वुहान से मेरे देश, दिल्ली और फिर सड़क के उस पार से होते हुए मुझ तक पहुंच गया

नोएडा.मुश्किल से एक महीने पहले की बात है। मैं एक इंटरनेशनल पब्लिकेशन में छपी एक औरत की डायरी पढ़ रही थी। चीन के वुहान शहर की एक ऊंची इमारत के किसी फ्लैट में रह रही एक सिंगल वुमन की डायरी। 'शहर में एक खतरनाक वायरस ने हमला कर दिया है और एक के बाद एक जिंदगियां निगले जा रहा है। पूरा शहर सील हो चुका है। लोगों को घरों में बंद कर दिया गया है। न कोई घर से बाहर जा सकता है, न कोई बाहर से घर में आ सकता है। सिर्फ खबरें आ रही हैं और लगातार आ रही हैं। आज 300 लोग मर गए, आज 500 मर गए, आज 700 लोग मर गए। हर सुबह के साथ संख्या बढ़ती जाती है। कोई नहीं जानता कि अगला नंबर किसका होगा।

वो अपने घर में अकेली है। जब चीन के वुहान में कोरोना पॉजिटिव का पहला केस मिला था, वो उसके पहले भी उस घर में अकेली ही रहती थी। लेकिन घर के बाहर एक भरी-पूरी दुनिया थी। घर से दफ्तर का रास्ता था। बस, ट्रेन, मेट्रो में लोगों की भीड़ थी। ऑफिस में लोग थे। आप मुस्कुराते थे, बात करते थे, साथ काम करते थे। लेकिन लॉकडाउन ने दुनिया के अकेले लोगों को अचानक और ज्यादा अकेला कर दिया। उस डायरी के साथ कुछ स्केचेज भी थे, जिसमें वो घर में अकेली एक्सरसाइज कर रही है, हाथ में कॉफी का मग लिए सीलबंद खिड़की पर अकेली बैठी बाहर देख रही है। बाहर कुछ नहीं है, सिवा दूर से नजर आती कुछ इमारतों और रोज थोड़ा और उदास हो रहे आसमान के।'

जिस दिन मैंने ये डायरी पढ़ी, उसी दिन 40 किलोमीटर गाड़ी चलाकर मैं अपने दोस्तों से मिलने गई थी। हमने बाहर खाना खाया, घूमे और ढेर सारी बातें की। हमें पता था कि कोई कोरोना वायरस फैला है दुनिया में, लेकिन सच पूछो तो वो जिस दुनिया में फैला था, वो हमारी दुनिया नहीं थी। दूर देश की कहानियां कितनी भी सच्ची हों, वो अपनी नहीं लगतीं। दूरी तो इतनी है बीच में। वुहान बहुत दूर था।

फिर वक्त गुजरा। पता चला वो खतरनाक वायरस उस देश तक आ पहुंचा है, जो मेरा देश है। केरल में मिला था पहला पॉजिटिव केस। केरल तो अपना ही था लेकिन वो अपना भी बहुत दूर था। दिल्ली से दो हजार आठ सौ किलोमीटर दूर। बहुत होती है ये दूरी ये महसूस करने के लिए कि ये कोई बहुत अपनी, बहुत सगी बात है।

कुछ ही दिन गुजरे कि देश के तमाम हिस्सों से खबरें आने लगीं। दिल्ली में भी किसी पर टूट पड़ा था वो वायरस। पता चला 9 लोग कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। एक की मौत भी हो गई। दिल्ली अब भी दूर थी। मेरे घर से बहुत दूर। ये सबकुछ मैं अब तक अफसानों की तरह पढ़ रही थी।

फिर, तीन दिन पहले बगल की सोसायटी के एक फ्लैट में रहने वाले पति-पत्नी कोरोना पॉजिटिव पाए गए। वुहान से चलकर वो वायरस अब बगल की सोसायटी तक आ पहुंचा था। हर दिन के साथ दूरी कम होती जा रही थी, लेकिन वो अब भी सड़क के उस पार था।

अब, कल सुबह ही ये हुआ। लॉकडाउन के बीच अचानक खबर आई कि मेरी सोसायटी की एक बिल्डिंग में रहने वाले दो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। अचानक हड़कंप सा मच गया। सारी दुकानें बंद हो गईं। सोसायटी को पूरी तरह लॉकडाउन कर दिया गया। पुलिस और एंबुलेंस का सायरन गूंजने लगा। पुलिस माइक लेकर पूरी सोसायटी और आसपास के इलाकों में घूम-घूमकर एनाउंसमेंट करने लगी कि इस सोसायटी को लॉकडाउन कर दिया गया है। यहां दो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं।

सिर्फ दस कदम की दूरी पर है वो बिल्डिंग, जिसके एक फ्लैट में रहने वाली दो महिलाएं आज जिंदगी और मौत से जूझ रही हैं। दूर देश की ये कहानी अब मेरे इतने करीब आ चुकी है कि उससे नजरें फिराना मुमकिन नहीं। हर अगली सुबह के साथ वो डरावना वायरस थोड़ा और करीब आता जा रहा है। मैं डरकर घर की हर चीज साफ करने लगती हूं। दरवाजे के हैंडल से लेकर फर्श, किताबें, आलमारी तक। बार-बार अपने हाथ धोती हूं। मुझे डर है कि वो खतरनाक वायरस यहीं कहीं न छिपा बैठा हो। कहीं उसका अगला शिकार मैं न होऊं।

मैं पिछले दस दिनों से घर से बाहर नहीं निकली हूं। खाने-पीने की हर वो चीज, जो जमा नहीं की जा सकती, खत्म हो गई है। सिर्फ राशन बचा है। मैं अगला एक महीना उसी पर बसर करने वाली हूं। सोसायटी की महिलाओं का वो व्हॉट्स एप ग्रुप, जो मैंने एक साल के लिए म्यूट कर रखा था, अब हर सेकेंड उसके नोटिफिकेशन आते हैं और मैं घबराकर देखने लगती हूं कि अब क्या हुआ। महामारी की, मौत की, दुख और आतंक की वो कहानी अब मेरी कहानी हो चुकी है। मैं उसकी एक पात्र हूं, रोज अपनी भूमिका को नए शब्दों में लिखती हुई। अपने-अपने घरों में बंद हम सब इस वक्त बहुत डरे हुए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ साथ मिलकर डरे हुए हैं और कुछ बिल्कुल अकेले ठीक वैसे ही जैसे वुहान की वह स्त्री जो अकेली थी।

4 साल पहले एक कोरियन फिल्म देखी थी- “ट्रेन टू बुसान।” उस फिल्म में भी ऐसा ही एक जॉम्बी वायरस एक शहर पर हमला कर देता है। एक ट्रेन है, जो सियोल से बुसान जा रही है। उस ट्रेन में एक छोटी बच्ची अपने पिता के साथ बैठी है। उसके माता-पिता का तलाक हो चुका है। बच्ची ने पिता से बर्थडे गिफ्ट में ये मांगा है कि उसे उसकी मां से मिला दिया जाए। शहर पर जिस वायरस का हमला हुआ है, वो वायरस किसी तरह उस ट्रेन में घुस जाता है। एक-एक कर ट्रेन में सफर कर रहा हर व्यक्ति वायरस की चपेट में आ जाता है। ट्रेन जिस भी शहर से होकर गुजरती है, हर वो शहर जल रहा है। वायरस ने किसी को नहीं बख्शा। ट्रेन में वहशत का माहौल है। खुद को बचाने के लिए लोग एक-दूसरे को मारने लगते हैं। अंत आते-आते ट्रेन में सवार सब लोग मर जाते हैं। अंत में सिर्फ वो छोटी बच्ची और एक प्रेग्नेंट औरत ही बचते हैं।

2016 में आई दक्षिण कोरिया की ये फिल्म एक काल्पनिक कहानी है, लेकिन हर कल्पना का कोई न कोई सिरा किसी यथार्थ से जरूर जुड़ा होता है। बात महज एक वायरस की नहीं है। बात उस समाज की, उस दुनिया की है, जो हम सबने मिलकर बनाई है। ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया को एक तार से जोड़ दिया तो इस तार से होकर सिर्फ सामान, समृद्धि, पैसा और सफलता ही पूरी दुनिया में नहीं फैलेगा। तकलीफें और बीमारियां भी फैलेंगी। वायरस भी फैलेंगे। वायरस भी महज इत्तेफाक नहीं है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जिस तरह का खिलवाड़ इंसानों ने किया है, उसके नतीजे हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां और खतरनाक रूप में देखेंगी। प्रकृति ने हमें जो अपार संपदा बख्शी थी, हमें उसका उपयोग करना था, उपभोग नहीं। और ये भी नहीं भूलना था कि उसका मालिक कोई नहीं है। कोई इंसान, कोई विज्ञान इतना बलशाली नहीं हो सकता कि वो प्रकृति पर आधिपत्य जमा ले। उसे अपने इशारों पर नचाने लगे क्योंकि अगर वो प्रतिशोध लेने, अपनी जगह खोई जगह वापस मांगने पर आई तो आपकी सत्ता, आपका बल, आपकी संपदा काम नहीं आएगी। प्रिंस चार्ल्स से लेकर बोरिस जॉनसन तक सब जद में होंगे। और आज यही हुआ है।

वुहान कभी इतना दूर नहीं था, जितना दूर से हमें लग रहा था।



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नोएडा की पारस टिएरा सोसाइटी। यहां शुक्रवार को 2 लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए। इस आर्टिकल की लेखिका मनीषा पांडेय यहीं रहती हैं।




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विदेश से आने वालों को होम क्वारैंटाइन के लिए 15 हजार रुपए मिल रहे, गांवों में 7 हजार आइसोलेशन वॉर्ड बने

भुवनेश्वर से अनु शर्मा. पिछले साल ओडिशा का सामना फैनी तूफान से हुआ था। इसके आने से पहले ओडिशा और पूरा देश दहशत में था। तूफान की रफ्तार 200 से 250 किमी प्रति घंटे थी। तूफान आया और गुजर गया। इससे संपत्ति का तो व्यापक नुकसान हुआ, लेकिन जनहानि ज्यादा नहीं हुई। ओडिशा सरकार के आपदा प्रबंधन को देखकर पूरी दुनिया चौंक गईथी। फैनी तूफान को गुजरे एक साल भी नहीं बीता औरओडिशा का सामना अब कोरोनावायरस से हो गया। अब ओडिशा सरकार कोरोनावायरस को भी हराने के लिए ताबड़तोड़ कदम उठा रही है। राज्य सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम-2005 के तहत कोरोनावारयस को भी आपदा घोषित किया है। ऐसे कई और शुरुआती कदम हैं, जो देश के बाकी राज्यों लिए सबक हैं।

शुरुआतीतैयारी: लॉकडाउन से पहले ही हेल्पलाइन नंबर जारी किया, 17 हजार 262 लोगों ने कोरोना के बारे में जानकारी ली

  • कोरोना वायरस को रोकने के लिए राज्य सरकार ने 3 मार्च 2020 को शुरुआतीकदम उठा लिए थे। सरकार ने विदेश से ओडिशा आने वाले सभी लोगों को वेब पोर्टल covid19.odisha.gov.in पर रजिस्ट्रेशन कराने को कहा।इसमें रजिस्ट्रेशन कराने वालोंको 14 दिनों तक नियमित रुप से क्वरैंटाइन में रहने पर 15 हजार रुपए देने का भी वादा किया। स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक 26 मार्च तक 4,000 से अधिक लोगों ने इस पोर्टल पर अपना नाम पंजीकृत करवाया है।
  • ओडिशा सरकार ने लॉकडाउन से बहुत पहले ही राज्य के लोगों के लिए 104 नंबर की हेल्पलाइन भी जारी कर दी थी। इस नंबर पर 13 से 22 मार्च तक 72,134 लोगों ने कॉल किया, जिनमें से 48,313 लोगों से सरकार की ओर से संपर्क किया गया। 17,262 लोगों ने कोरोना वायरस के फैलाव से जुड़ी जानकारी ली। अन्य लोगों ने सर्दी, खासी एवं स्वाइन फ्लू से जुड़े सवाल पूछे।

भुवनेश्वर में सड़कों पर लॉकडाउन काफी हद तक कामयाब है।

नेशनल लॉकडाउन से पहले: राज्य के 5 जिले और 8 शहरों को बंद कर दिया गया था, केवल जरूरी सेवाएं चल रही थीं

  • सरकार ने राज्य के 5 जिले और 8 प्रमुख शहरों को 22 मार्च से 29 मार्च तक लॉकडाउन कर दिया था। हालांकि बाद में केंद्र सरकार ने 24 मार्च से पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। इस दौरान केवल बैंक, एटीएम, दवाखाना, राशन दुकान एवं अन्य अहम एजेंसियों को खुला रखने का निर्देश दिया गया।
  • नवीन पटनायक सरकार ने कोरोना के खिलाफ परिवार की फिक्र छोड़ और अपनी जान की बाजी लगाकर सेवा में जुटे डाॅक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ और हेल्थकेयर कर्मचारियों को 4 महीने का एडवांस वेतन अप्रैल महीने में ही एक साथ देने की घोषण की है।

इलाज की व्यवस्था: अब तक राज्य में कोरोना के सिर्फ 3 पॉजिटिव केस आए हैं, कोरोना वार्ड तैयार हो रहे
ओडिशा में अब तक कोरोनावारयस के 3 पॉजिटिव केस सामने आए हैं। इन सभी का भुवनेश्वर के अस्पतालों में इलाज चल रहा है। राज्य में 26 मार्च तक 166 नमूनों की जांच की गई है।
वहीं, अब पटनायक सरकार ने देश में कोरोना मरीजों बढ़ती संख्या को देखकर भुवनेश्वर में एक हजार बेडवाला अस्पताल बनाने का फैसला किया है। मुख्यमंत्री कार्यालय के मुताबिक यह अस्पताल 15 दिन में बनकर तैयार हो जाएगा। इसे दो भागों में बांटा गया है। इसके तहत केआईआईएमएस मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन ब्लॉक में 450 बेड का अस्पताल बनेगा। इसके साथ 550 बेड की व्यवस्था एसयूएम हॉस्पिटल के कन्वेंशन सेंटर में की जाएगी। दोनों जगहों पर 24 घंटे इलाज किया जाएगा। इसका खर्च ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन(ओएमसी) और महानदी कोलफिल्ड लिमिटेड(एमसीएल) के सीएसआर फंड द्वारा की जाएगी।

केआईआईएमएस मेडिकल कॉलेज के इसी मेडिसिन ब्लॉक में कोरोना के इलाज के लिए 450 बेड बन रहे।

अपनों की मदद: अन्य राज्यों में फंसे ओडिशा के लोगों के रहने-खाने और उपचार का खर्च सरकार उठाएगी
ओडिशा सरकार ने 21 दिनों के लॉकडाउन को देखते हुए अन्य राज्यों में फंसे ओडिशा के लोगों के रहने-खाने और समय पर उपचार की व्यवस्था करने के लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा है। इस दौरान हुए खर्च को भी ओडिशा सरकार भुगतान करेगी। इसके अलावा सरकार ने 21 दिनों के लॉकडाउन में अन्य राज्यों में फंसे ओडिशा के लोगों की मदद के लिए उच्च अधिकारी के नेतृत्व में एक कंट्रोल रूम कोविड-19 बनाया है। कंट्रोल रूम के फोन नम्बर-0674 2392115 और 9438915986 पर कॉल कर लॉकडाउन में फंसा व्यक्ति ओडिशा सरकार से संपर्क कर सकता है।


जमीनी तैयारी: गांवों में क्वरैंटाइन लोगों के घरों के सामने पोस्टर चिपकाए गए, पड़ोसियों को सावधानी बरतने की हिदायत
देश के विभिन्न राज्यों में काम करने वाले 84 हजार से ज्यादा ओडिशा के लोग लॉकडाउन से प्रभावित होकर लौटे हैं। इन सभी को होम क्वरैंटाइन रहने का अनुरोध किया गया है। राज्य में पंचायत स्तर पर अब तक 7 हजार से अधिक आइसोलेशन वार्ड तैयार किए गए हैं। होम क्वरैंटाइन में रहने वालों लोगों के घरों के सामने एक पोस्टर चिपकाया जा रहा है और पड़ोसियों को क्वरैंटाइन परिवार से दूर रहने के लिए कहा जा रहा है।

होम क्वरैंटाइन में रहने वालों लोगों के घरों के सामने एक पोस्टर चिपकाया जा रहा है।

सोशल डिस्टेंसिंगका ख्याल: खरीददारी के वक्त 1 मीटर की दूरी जरूरी, नहीं तो कार्रवाई की जा रही, राशन की होम डिलीवरी भी
कोरोना की लड़ाई में सोशल डिस्टेंसिंग का भी खास ध्यान रखा जरा है। राज्य के सभी जिलों में मॉल एवं मार्ट के माध्यम से लोगों को राशन के साथ अन्य जरूरी सामान होम डिलीवरी की जरिए भिजवाई जा रही है। ताकि सोशल डिस्टेंशिंग मेनटेन हो सके। राज्य में सब्जी और राशन के दुकानों को सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक खुला रखने का निर्देश है। दुकानों पर सामान की खरीदारी के वक्त एक-मीटर की दूरी बनना अनिवार्य है। इस नियम का उल्घंन करने वाले पर कानूनी कार्रवाई दर्ज किया जाएगा।

भुवनेश्वर में सड़कों पर सब्जी मार्केट में सोशल डिस्टेंशिंग के लिए बनाए गए निशान।

स्वयंसेवी संस्थाएं भी जुटीं: रेड क्रास सोसाइटी के वॉलंटियर्स पुलिसकर्मियों को मास्क और पानी की बॉटल बांट रहे
रेड क्रोस सोसायटी के वॉलंटियर्स भी कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई में सरकार की मदद कर रहे हैं। वॉलंटियर्स चौराहों पर तैनात पुलिसकर्मियों को फेस मास्क, पानी की बोतल और फल देते हुए सैल्यूटकर रहे हैं। एक वॉलंटियर्स ने कहा कि हम अपने घरों में परिवार के साथ खुशी से हैं, लेकिन हमारी सुरक्षा के लिए तैनात पुलिसकर्मी अपने घर परिवार से दूर रहते हैं। हम इनके मनोबल को बढ़ाना चाहते हैं। इस काम 100 से अधिक वॉलंटियर्स जुटे हैं। वहीं, राजधानी के कई एनजीओ भी सड़कों पर घूम रहे जानवरों को खाना देने का काम कर रहे हैं।

नेतृत्व क्षमता: मुख्यमंत्री पटनायक को आपदा प्रबंधन का चाणक्य कहा जाता है, कई राज्य भी ले चुके हैं मदद
ओडिशा की कमान पिछले 20 साल से मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के हाथों में है। इस दौरान में पटनायक ने कई बार प्राकृतिक आपदाओं का मुकाबला किया। उन्हें आपदाओं से निटपने और तैयारी कराने में चाणक्य माना जाता है। पिछले सालों में केरल, तमिलनाडु समेत कई अन्य राज्यों ने भी आपदा के समय में ओडिशा सरकार की मदद ली है। नवीन पटनायक ने अपना तीन महीने का वेतन भी मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा किया है। मुख्यमंत्री ने अन्य लोगों से भी दान देने का अनुरोध किया है।

राज्य के सीएम नवीन पटनायक ने भी जनता कर्फ्यू के दिन शाम को थाली बजाई थी।

आपदाओं का सामना: 1999 में आए तूफान में करीब 15 हजार लोगों की जान गई थी, फिर सरकार ने आपदा प्रबंधन तंत्र बनाया

ओडिशा की समुद्री सीमा 450 किलोमीटर लंबी है। इसलिए ओडिशा को बार-बार प्राकृतिक आपदाओं की मार करने की आदत पड़ गई है। 1999 में आए एक चक्रवाती तूफान के चलते ओडिशा में करीब 15 हजार लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। तकरीबन 16 लाख लोगों को बेघर हो गए थे। इसके बाद ओडिशा ने आपदा प्रबंधन का तंत्र बनाया, जो अब मिसाल बन चुका है। इसके बाद ओडिशा में 2013 में थाईलीन, 2014 में हुदहुद, 2018 में तितली और 2019 में बुलबुल और फोनी जैसे चक्रवाती तूफान का सामना करना पड़ा। इन तूफानों से संपत्ति का तो काफी नुकसान हुए, लेकिन इंसानी मौतों की संख्या दो अंक से पार नहीं गई। ओडिशा सरकार ने आपदाओं से निपटने के लिए ओडिशा आपदा अनुक्रिया बल(ओडीआरफ) का गठन किया है।

तस्वीर पिछले साल में मई में ओडिशा में आए फैनी तूफान के बाद हुई तबाही की है।


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ओडिशा में रेडक्रॉस सोसाइटी के वॉलिंटियर्स पुलिसकर्मियों को मास्क और पानी बांट रहे।




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मार्च के 27 दिनों में चीन में कोरोना के 1.7% केस आए, 383 मौतें हुईं; दुनिया में 573% मामले बढ़े और 27 हजार की जान गई

नई दिल्ली.दुनिया के लिए मार्च का महीना बेहद खराब रहा। वो इसलिए, क्योंकि मार्च के 27 दिनों में दुनियाभर में कोरोनावायरस के मामले 573% बढ़ गए। लेकिन इसी दौरान जिस चीन से ये वायरस निकला, वहां सिर्फ 1.7% ही नए मामले आए। 1 मार्च तकदुनियाभर में 88 हजार 585 और चीन में 80 हजार 26 मामले थे। इस तरह से उस समय दुनिया के कुल मामलों में चीन की हिस्सेदारी 90% तक थी। लेकिन 27 तारीख तक दुनिया में कोरोना के 5.96 लाख और चीन में 81 हजार 394 मामले हो गए। अब कुल मामलों में चीन की हिस्सेदारी घटकर 15% से भी कम हो गई।

मौतें : दुनिया में 27 दिन में मौतों का आंकड़ा 798% बढ़ा, चीन में 13% ही
मार्च के इन 27 दिनों में मौतों का आंकड़ा भी लगातार बढ़ता रहा। 1 मार्च तक दुनियाभर में 3 हजार 50 मौतें हुई थीं, उनमें से 95% से ज्यादा यानी 2 हजार 912 मौतें अकेले चीन में हुई थी। इसके बाद 27 मार्च तक चीन में मौत का आंकड़ा बढ़कर 3 हजार 295 पर पहुंच गया, लेकिन दुनियाभर में ये आंकड़ा 798% बढ़कर 27 हजार 371 पर आ गया।

रिकवरी : चीन में अब तक 92% मरीज ठीक हुए, दुनिया में यही आंकड़ा 22% का
चीन में कोरोनावायरस का पहला केस 27 दिसंबर को सामना आया था। उसके बाद से 27 मार्च तक चीन में 81 हजार 394 मामले आ चुके हैं। इनमें से 92% यानी 74 हजार 971 मरीज ठीक भी हो गए। जबकि, 3 हजार 295 मरीजों की मौत हो गई। जबकि, दुनियाभर में अब तक 5.96 लाख मामले मिले हैं, जिनमें से 22% यानी 1.33 लाख से ज्यादा मरीज ही रिकवर हुए हैं।

और भारत में : 885 नए मरीज आए, 22 मौतें हुईं

मार्च का महीना हमारे देश के लिए भी बहुत खराब रहा। देश में कोरोनावायरस का पहला केस 30 जनवरी को केरल में आया था। उसके बाद 1 और 2 फरवरी को भी केरल से ही 1-1 केस और आए। लेकिन कुछ ही समय में ये तीनों मरीज ठीक भी हो गए। लेकिन मार्च के महीने में देश में 2 मार्च के बाद से रोजाना मामले बढ़ते गए। इस महीने 27 मार्च तक देश में 886 मामले आए। इस दौरान 22 मौतें भी हुईं।

इस महीने सबसे ज्यादा मामले अमेरिका में बढ़े, लेकिन सबसे ज्यादा मौतें इटली में हुईं

देश मामले बढ़े मौतें हुईं
अमेरिका 1.04 लाख+ 1,695
इटली 85,370 9,105
स्पेन 65,661 5,138
जर्मनी 50,792 351
फ्रांस 32,864 1,993


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In 27 days of March, 1.7% of Corona cases occurred in China, 383 deaths occurred, but 573% cases increased in the world and 27 thousand deaths occurred.




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मौत के डर से खतरों की राह पर निकले लोगों की आपबीती, जब बस्तियों तक खाना नहीं पहुंचा तो पैदल ही सफर शुरू कर दिया

नई दिल्ली. राष्ट्रीय राजमार्गों पर इन दिनों गाड़ियों की दनदनाहट से तेज मजदूरों के पैरों की थाप गूंज रही है। कोरोनावायरस के संक्रमण से बचने के लिए जब देश भर में लॉकडाउन है। तमाम यातायात ठप पड़ा है। गली-मोहल्ले-बाजार सुनसान हैं। तब हजारों मजदूर देश के अलग-अलग हिस्सों से पैदल चलते हुए अपने-अपने गांव लौट रहे हैं। पूर्व सांसद बलबीर पुंज का कहना है कि ये लोग भूख के डर से नहीं भाग रहे, बल्कि परिवार के साथ छुट्टी मनाने गांव जा रहे हैं। लेकिन ये ‘छुट्टियां’ इन मजदूरों के लिए कितनी क्रूर आपदा बन कर आई हैं, इसकी झलक दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर बीते रविवार आसानी से देखी गई। पढ़ें उस दिन की कहानी, जब दिल्ली का लॉकडाउन फेल हुआ और रोजी से ज्यादा रोटी की चिंता में हजारों लोग आनंद विहार बस टर्मिनल पर जमा हुए।

सुबह के करीब नौ बजे हैं। हरियाणा के गुरुग्राम से पैदल चलते हुए यहां पहुंचे चंदन कुमार के परिवार की हिम्मत अब जवाब दे चुकी है। करीब 45 किलोमीटर पैदल चलने के बाद उनकी पत्नी इस स्थिति में नहीं हैं कि अब एक कदम भी और आगे बढ़ा सकें। सड़क किनारे बने फुटपाथ पर बैठते ही उन्हें उल्टी हो चुकी है। वे लगातार दर्द से कराह रही हैं। इन लोगों को वाराणसी जाना है। चंदन दुविधा में हैं कि पत्नी को ऐसे कराहता हुआ छोड़ वे वाराणसी की गाड़ी खोजने कैसे जाएं।

इन लोगों से कुछ ही दूरी पर सीआरपीएफ के दो जवान तैनात हैं। इनमें से एक के कंधे पर पंप ऐक्शन गन लटक रही है और दूसरे के पास आंसू गैस के गोलों से भरा एक बक्सा है। हालांकि, यहां आंसू गैस का गोला दागने की कोई नौबत नहीं आई है, लेकिन यहां मौजूद अधिकतर लोगों की आंखें आंसुओं से पहले ही डबडबाई हुई हैं। कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचे ज्यादातर लोग थकान से बहाल हो चुके हैं और ये सोचकर भी परेशान हैं कि उन्हें अपने गांव की गाड़ी मिलेगी भी या नहीं। सीआरपीएफ के जवान इन लोगों को सड़क के दूसरी तरफ भेज रहे हैं, जहां सैकड़ों बसें पंक्तिबद्ध खड़ी हैं।

डीटीसी की बस चलाने वाले मनीष बताते हैं, ‘यहां करीब 15 हजार लोग जमा हो गए थे। हमने रातभर कई-कई चक्कर लगाकर लोगों को लाल कुआं छोड़ा, जहां से उन्हें उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों के लिए गाड़ियां मिली होंगी। डीटीसी की करीब 570 बसें यहां लगी हुई थीं।’ शनिवार रात तक यहां पहुंचे सभी लोगों को सिर्फ लाल कुआं तक ही छोड़ा जा रहा था जो दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर बसा है। लेकिन रविवार सुबह से करीब तीन सौ बसें सीधे दिल्ली से उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों के लिए भी चलाई गईं। ‘दिल्ली कॉन्ट्रैक्ट बस एसोसिएशन’ से जुड़े डीएस चौहान बताते हैं, ‘दिल्ली सरकार ने शनिवार सुबह हमसे बसें मांगी थी। हमारी बसें तैयार भी थीं, लेकिन फिर उन्होंने मना कर दिया। फिर शनिवार रात उनका दोबारा फोन आया तो हमने सुबह से करीब तीन सौ बसें लगा दीं, जो लोगों को अलग-अलग शहरों में छोड़ने रवाना हुईं। इसके लिए लोगों से टिकट नहीं लिया गया।’

लाल कुआं इलाका, दिल्ली और उत्तरप्रदेश की बॉर्डर पर आता है। आनंद विहार टर्मिनल से लोगों को लाकर यहीं छोड़ा जा रहा था। यहां से उन्हें उत्तर प्रदेश के अपने शहर जाने के लिए बसें मिल रही थी।

दिल्ली सरकार बसें चलवाने का फैसला लेते हुए असमंजस में थी
डीएस चौहान की बातों से समझा सकता है कि दिल्ली सरकार बसें चलवाने का फैसला लेते हुए कितनी असमंजस में रही। फिर शनिवार रात जब हालात बेहद खराब हो गए और हजारों लोग आनंद विहार में जमा होने लगे, तब दिल्ली सरकार ने बसें चलवाना शुरू किया। लेकिन जैसे ही बसें चलने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों का घरों से निकलकर बस अड्डे पहुंचना भी तेज हो गया।

आनंद विहार पहुंचे लोगों से ये सवाल करने पर कि वे यहीं अपने-अपने ठिकानों पर क्यों नहीं रुके रहे, लगभग एक ही जवाब मिला कि जब से लॉक डाउन हुआ है दिहाड़ी बंद हो गई है। आसपास की दुकानों में राशन बेहद महंगा बिकने लगा है और कोई सरकारी मदद नहीं पहुंची है। ऐसे में कितने दिन भूखे रहें। इसलिए अपने गांव लौट रहे हैं। सुबह के 10 बजे तक जो लोग आनंद विहार पहुंच चुके थे, उन्हें उनके गांव पहुंचाया जा रहा है। लेकिन जो लोग अब भी दिल्ली की तरफ से आनंद विहार की ओर आए हैं, उन्हें पुलिस ने रोकना शुरू कर दिया है। ऐसे में सैकड़ों लोग दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में खड़े दिखाई देने लगे। सैकड़ों अन्य ऐसे भी हैं, जो अब लाल कुआं की तरफ पैदल जाने लगे हैं। इस उम्मीद में कि शायद वहां पहुंचकर उन्हें आगे के लिए कोई गाड़ी मिल जाए।

आनंद विहार से लाल कुआं की तरफ जाती सड़क पर दोनों ओर ऐसे लोगों की लंबी कतारें हैं, जो सिर पर कपड़े की गठरी या बैग उठाए पैदल चले जा रहे हैं। कई लोगों के कंधों पर उनके छोटे-छोटे बच्चे बैठे हुए हैं तो कई ऐसे भी हैं, जिनके बच्चे पैदल ही उनके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं। पैदल चलते इन लोगों में सिर्फ वही लोग नहीं हैं जो दिल्ली से निकलकर अपने-अपने गांव जा रहे हैं। इन लोगों में बड़ी संख्या उनकी भी है, जो अलग-अलग प्रदेशों से आए हैं। मोहम्मद जीशान और उनके साथी इलाहाबाद से चलें हैं और उन्हें मुजफ्फरनगर जाना है। ये लोग कभी किसी ट्रक तो कभी किसी टैम्पो में बैठ-बैठ कर दो दिन बाद इलाहाबाद से यहां तक पहुंचे हैं।

दिल्ली से अलग-अलग शहरों के लिए चलाई गई बसों को विशेष लाइसेंस जारी किए गए थे।

काम बंद हुआ तो ठेकेदारों ने मदद नहीं की
जीशान और उनके साथी पीओपी का काम किया करते थे। जिस दिन से काम बंद हुआ उनके ठेकेदार ने कह दिया कि अब काम शुरू होने के बाद ही वापस आना। वे कहते हैं, ‘ठेकेदार के पास ही हम लोग रहते थे। उसने दो दिन तो हमें खाना दिया लेकिन फिर कहा कि तुम घर लौट जाओ क्योंकि यहां पता नहीं कब तक काम बंद रहने वाला है। अगर हमें सिर्फ रहने की जगह और राशन भी मिल जाता तो हम इस मुसीबत में कभी भी इतनी दूर के सफर पर नहीं निकलते।’ ऐसी ही स्थिति कानपुर के पास पनकी पॉवर हाउस में काम करने वाले करीब 10 सिख नौजवानों की भी हैं। ये बताते हैं कि काम बंद होने पर इन्हें वापस अपने घर लौट जाने को कह दिया गया। इन लोगों को अमृतसर जाना है लेकिन वहां तक कैसे पहुंचेंगे, इस बारे में इनके पास भी कोई जवाब नहीं है। ये लोग पैदल आनंद विहार की तरफ जा रहे थे, लेकिन पुलिस ने इन्हें वहां जाने से रोक दिया। अब सड़क किनारे खड़े हुए ये लोग अमृतसर या पंजाब की तरफ जाने वाली ऐसी गाड़ियों का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसके आने की उम्मीद इन्हें भी न के बराबर है।

दिल्ली से लाल कुआं की तरफ जाने वाले इस राजमार्ग पर दर्जनों लोग ऐसे भी हैं, जो पैदल चल रहे इन लोगों को फलों से लेकर पानी की बोतल, छांछ, बिस्कुट के पैकेट और रोटी सब्जी बांट रहे हैं। दिल्ली के रहने वाले विपिन जोशी, नौशेर अली, मनिंदर सिंह जैसे तमाम लोग अपनी-अपनी गाड़ियों में खाने-पीने का सामान लेकर यहां पहुंचे हैं और लोगों को रोक-रोककर उन्हें ये सामग्री बांट रहे हैं।

कुछ लोग पैदल चल रहे लोगों को खाना बांटते भी नजर आए।

जब प्रधानमंत्री सोशल डिस्टैंसिंग की बात कर रहे थे, तब लोग एकसाथ ट्रकों में चढ़ रहे थे
उत्तर प्रदेश पुलिस के भी अफसर और जवान भी इस राजमार्ग पर जगह-जगह मौजूद हैं और स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास कर रहे हैं। सब इन्स्पेक्टर विशाल सिंह यहां से लाल कुआं की तरफ जाने वाली हर खाली गाड़ी को रोक रहे हैं और पैदल चल रहे लोगों को उनमें बैठा रहे हैं। सब्जियों के एक खाली ट्रक को जब वे रोकते हैं तो लोग एक-दूसरे पर लगभग चढ़ते हुए उस ट्रक में भरना शुरू हो जाते हैं। दिलचस्प है कि ये नजारा ठीक उसी वक्त का है, जब रेडियो पर ‘मन की बात’ चल रहा है जिसमें प्रधानमंत्री ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ के बारे में बात कर रहे हैं।

रिक्शा, टेम्पो और ट्रकों में लोग खचाखच भरे हुए थे।

ऐसा भी नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान भी घरों से निकल चुके इन लोगों को ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ की बिलकुल जानकारी न हो। बिहार के रहने वाले राम बालक पंडित और इनके साथी इसे बखूबी समझते हैं और जानते हैं कि कोरोनावायरस के संक्रमण वाले इस माहौल में इसे बनाए रखना कितना जरूरी है। ये 8 लोग हैं जो साइकिलों पर सवार होकर उत्तर प्रदेश के साहिबाबाद से पटना जाने के लिए निकल पड़े हैं। साइकिल से जाने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘बसों में जिस तरह से भीड़ भर रही है, उसमें संक्रमण का बहुत ज्यादा खतरा है। इसीलिए हम लोग साइकिल से जा रहे हैं ताकि लोगों से दूरी बनाए रखें।’

राम बालक पंडित और उनके साथी जब स्थिति से बखूबी वाकिफ हैं तो फिर वे लॉकडाउन में बाहर निकले ही क्यों हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए पिंटू कुमार पंडित कहते हैं, ‘मैं पीतल का काम करता हूँ और महीने का छह हजार कमाता हूँ। इस महीने काम बंद होने से पहले चार तो छुट्टियां ही पड़ गई थी तो कुल दो हजार रुपए मिले। इसमें से आठ सौ कमरे का किराया दे दिया। बचे हुए पैसों से कैसे इतने दिन चलाते? राशन लगभग दोगुने दामों में मिलने लगा है।’

बस्तियों मेंकोई राशन-खाना बांटने नहीं आया
यह पूछने पर कि जब योगी सरकार ने सभी लोगों को राशन पहुंचाने की बात कही है तो फिर वे लोग उसका इंतजार क्यों नहीं करते? राम बालक पंडित कहते हैं, ‘कितना इंतजार करें। तीन दिन हम रुके रहे लेकिन कोई राशन नहीं आया, कोई मदद नहीं आई। योगी जी अभी हमें राशन दे दें तो हम यहीं से लौट जाएं। लेकिन भूखे-प्यासे कब तक इंतजार करें। इन दिनों बहुत सारे लोग खुद भी खाना बांट रहे हैं, लेकिन ये लोग यहीं बांट रहे हैं, जहां लोग पैदल चल रहे हैं। हमारी बस्ती में कोई राशन या खाना बांटने भी नहीं आया। बाहर निकलें तो पुलिस अलग मारती है। हम लोग तब घर से निकले हैं जब ये जान गए थे कि अब जब मरना ही है तो गांव में अपने लोगों के बीच जाकर मरेंगे।’

अपने-अपने गांवों को लौट रहे इन तमाम लोगों में शायद ही ऐसा कोई हो, जिसे महीनेभर की पगार मिलती हो। ये सभी वे लोग हैं जो दिहाड़ी पर काम किया करते हैं। कोई मजदूरी करता है, कोई मिस्त्री है, कोई पंचर लगाता है, कोई रिक्शा चलाता है तो कोई ऐसी ही अन्य छोटी-मोटी अस्थायी नौकरी करता है। ऐसे में इन लोगों के लिए 21 दिनों के लॉक डाउन सीधा मतलब है कि इतने दिनों तक आय के सभी साधनों का बिलकुल बंद हो जाना जबकि खर्चों का बना रहना। कमरे के किराए से लेकर राशन तक के खर्चे तभी पूरे होते हैं जब ये लोग रोज़ मज़दूरी करने निकलते हैं। लिहाज़ा काम न मिलने की मौजूदा स्थिति में इनके पास अपने खर्चे कम करने का एकमात्र तरीक़ा यही बचता है कि शहर से ही पलायन कर लिया जाए।

बुरे वक्त में भी प्राइवेट बस वालों ने मुनाफा कमाया
लाल कुआं पहुंचने पर ये भी देखने को मिलता है कि भूखे-प्यासे शहर छोड़कर जाते इन लोगों से भी मुनाफा कमाने वालों की कमी नहीं है। यहां कई प्राइवेट बसें खड़ी हैं जो लखनऊ तक का किराया एक हजार रुपए प्रति सवारी वसूल रही हैं। ऐसी कुछ बसों में छत पर भी लोग बैठे हुए हैं। छत पर बैठने वालों को दो सौ रुपए की छूट दी गई है। उन्हें लखनऊ तक आठ सौ रुपए प्रति सवारी चुकाने हैं। इतने ज्यादा किराए से बचने का एक विकल्प इन बसों के पास ही खड़ा एक ट्रक है। ये ट्रक लोगों को पीछे लादकर पांच सौ रुपए प्रति सवारी की दर से लखनऊ पहुंचाने को तैयार खड़ा है। जिन्हें सरकार की बसें नहीं मिलीं और जिनके पास प्राइवेट बसों का किराया चुकाने के पैसे भी नहीं हैं, उनके पास फिर यही विकल्प है कि वे पैदल ही चलते रहें। या कुछ लोग 34 साल के संतोष कुमार जैसे भी हैं जो अपनी पत्नी और आठ साल की बेटी को पीछे बैठाकर साइकिल रिक्शे से ही मध्य प्रदेश के सागर के लिए निकल पड़े हैं। रिक्शा चलाने वाले संतोष ने कुछ जरूरी सामान और हवा भरने के लिए एक पंप पीछे बांध लिया है।

संतोष कुमार, मध्यप्रदेश के सागर जिले के रहने वाले हैं। वे पत्नी और बेटी को साइकल रिक्शा पर बैठाकर घर के लिए चल दिए।

कई घंटे रिक्शा चलाने के बाद जब वे दिल्ली की सीमाओं से बाहर निकलने ही वाले थे तो पुलिस ने उन्हें आगे जाने से रोक दिया है। अब वे कई किलोमीटर घूमकर दूसरी तरफ से जा रहे हैं, लेकिन इसका उन्हें ज्यादा अफसोस नहीं है। उनका गंतव्य इतनी दूर है कि ये उसके आगे कुछ किलोमीटर अतिरिक्त रिक्शा खींचने की मेहनत उन्हें ज्यादा भारी नहीं लग रही।

जब हजारों लोग दिल्ली छोड़ गए, तब पोस्टर लगे

शाम के 7 बजने को हैं और दिल्ली की सड़कों पर लोगों के पैदल चलने का सिलसिला अब भी जारी है। हालांकि, दिल्ली सरकार अब तक शहर भर में बड़े-बड़े पोस्टर भी लगवा चुकी हैं जिन पर लिखा है ‘दिल्ली सरकार ने आप सभी के लिए रहने और खाने का पूरा इंतजाम कर लिया है। आपको दिल्ली छोड़कर जाने ज़रूरत नहीं है।’ लेकिन ये पोस्टर तब लगे हैं, जब दिल्ली से हजारों लोग छोड़कर जा चुके हैं।

जो लोग अब भी सड़कों पर पैदल चलते दिख रहे हैं उनमें ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने दो-तीन दिन पहले कहीं और से चलना शुरू किया था और अब जाकर दिल्ली पहुंचे हैं। इन लोगों के लड़खड़ाते कदमों और लंगड़ाई चाल से ही अंदाजा हो जाता है कि ये सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल चुके हैं। हरियाणा के एक दूरदराज के गांव से तीन दिन पहले निकले सलमान भी इन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने पूरा रास्ता पैदल ही तय किया है। इन लोगों को अभी इटावा जाना है। वहां तक कैसे पहुंचेंगे? इस सवाल का न तो इनके पास कोई जवाब है और ही अब ये कह पाने की ताकत बाकी बची है कि पैदल ही पहुंच जाएंगे।

शहर भर में पोस्टर तब लगाए गए जब हजारों लोग दिल्ली छोड़ कर जा चुके थे।

‘हम लोग भाग भी तो मौत से रहे हैं’
देशभर में जितने लोग अब तक कोरोना वायरस के चलते मरे हैं, लगभग उतने ही लोग अब तक पैदल चलते हुए भी मर चुके हैं। ये तमाम लोग जानते भी हैं कि जिस यात्रा पर ये निकल रहे हैं, वह कितनी घातक साबित हो सकती है। लेकिन यह सब जानने के बावजूद ये लोग इतना खतरा क्यों मोल ले रहे हैं? यह सवाल करने पर बिहार जा रहे पिंटू पंडित दो टूक जवाब देते हैं, ‘हम लोग भाग भी तो मौत से ही रहे हैं।’



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गुरुग्राम से 45 किलोमीटर पैदल चलने के बाद चंदन कुमार की पत्नी इस स्थिति में नहीं थीं कि आगे एक कदम भी चल सकें। इन्हें वाराणसी तक का सफर ऐसे ही तय करना था।




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लाखों लोगों के सड़कों पर उतरने से फेल हो चुका है लॉकडाउन, अब गरीबों के लिए फैसले लेने की जरूरत

अगर कोरोना वायरस संक्रमण भारत में वाकई एक भयावह महामारी का रूप लेता है तो इसका असर सिर्फ मध्यम वर्ग के लोगों तक सीमित नहीं रहेगा। गरीब-मजदूर वर्ग के करोड़ों लोग इसका सबसे अधिक शिकार होंगे। सरकार ने 24 मार्च की मध्यरात्रि से 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान किया है। इस पर विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है। करोड़ों गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों के लिए यह फैसला भयावह हो सकता है।

गरीबों को भूख और संक्रमण के जाल में धकेलने वाले लॉकडाउन के फैसले को हम कैसे न्यायोचित ठहरा सकते हैं? लॉकडाउन की घोषणा से पहले क्या सरकार ने असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों का ध्यान रखा? क्या सरकार ने सोचा था कि काम ठप होने के बाद प्रवासी मजदूरों का गुजारा कैसे होगा? दिहाड़ी मजदूरों को हर रोज काम की तलाश होती है। इसी तरह रिक्शा चलाने वाले, कूड़ा बीनने वाले और रेहड़ी-पटरी वाले लोगों का रोजगार भी अचानक से छिन गया है। आज ये सभी लोग किसी से दान में मिलने वाली रोटी के सहारे जीने को मजबूर हो रहे हैं। सरकार की तरफ से दी जाने वाली मदद नाकाफी है और इससे लाखों लोग भुखमरी का शिकार होंगे। सरकार ने शहरों में रह रहे उन हजारों बेघर महिलाओं-बच्चों का भी कोई ध्यान नहीं रखा, जो फ्लाईओवर के नीचे अपना गुजर-बसर करते हैं। वे लोग कोरोना वायरस से बचने के लिए कहां जाएंगे?
हमारे मोबाइल पर लगातार मैसेज आ रहे हैं कि अपने हाथों को हमेशा साबुन-पानी से धोएं। लेकिन, क्या हमें ध्यान है कि हमारे देश में झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लाखों लोगों के पास पानी की सप्लाई नहीं है। उनके लिए बार-बार हाथ धोना असंभव है। हमें ‘सामाजिक अलगाव’ और ‘खुद को अलग-थलग रखने’ की सलाह मिल रही है, लेकिन, क्या हमने सोचा है कि झुग्गियों में एक कमरे के भीतर अपने पूरे परिवार को रखने वाले लोग कैसे अलग-अलग रहेंगे? हमारे देश की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा गया है, उन सबको कैसे अलग-थलग रखा जा सकेगा?


कोरोना वायरस से निपटने के लिए हमें अपने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में भी बात करनी चाहिए। भारत की गिनती जनस्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में होती है। हमारे अधिकांश शहरों के पास जनस्वास्थ्य सेवा नाम की चीज नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक 20 लाख आबादी वाले जिले के एक अस्पताल के पास कोरोना संक्रमण से जुड़े 20,000 मरीज पहुंचेंगे, लेकिन इन अस्पतालों के पास न बेड हैं और न ही अन्य संसाधन। विडंबना तो यह है कि भारत में इस वायरस को वैसे लोग लेकर आए जो हवाई सफर करते हैं, लेकिन इसका हर्जाना भुगत रहा है गरीब और वंचित समुदाय। इसे लाने वाले लोग निजी अस्पतालों में अपना इलाज करा लेंगे, लेकिन गरीबों के पास मरने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं होगा।


केंद्र सरकार ने लॉक डाउन के मद्देनजर कुछ राहत पैकेज की घोषणाएं की हैं। हर परिवार को 5 किलो अतिरिक्त अनाज, महिलाओं के जनधन खाते में तीन महीने के लिए 500 रुपए, तीन करोड़ महिलाओं को 3 महीने की एडवांस विधवा पेंशन, वरिष्ठ नागरिकों और किसानों को 2,000 रुपए देने की बात सरकार ने कही है। क्या ये घोषणाएं पर्याप्त हैं? अगर आपसे कहा जाए कि मात्र 2 दिन के वेतन और 5 किलो अनाज में महीनेभर गुजारा कीजिए तो आप कर पाएंगे? अपना जीवन संकट में देखते हुए अब लाखों लोगों के सड़कों पर उतरने से लॉकडाउन फेल हो चुका है।


सरकार ने इस महामारी से बचाव का भार अपने पास न रखते हुए नागरिकों के ऊपर छोड़ दिया है। अब सरकार को कुछ फैसले तत्काल लेने चाहिए। ग्रामीण और शहरी इलाकों में असंगठित क्षेत्र से जुड़े परिवारों को लॉकडाउन और उसके बाद दो महीने की अवधि पूरी होने तक प्रति महीने 25 दिनों की न्यूनतम मजदूरी दी जाए। सभी प्रकार की पेंशन दोगुनी हों और इसे नगदी के रूप में लाभार्थियों के घर तक पहुंचाएं। झुग्गी बस्तियों में पानी के मुफ्त टैंकर पहुंचाए जाएं। जेलों में कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव के लिए उन सभी विचाराधीन कैदियों को रिहा किया जाना चाहिए, जिन्हें गंभीर अपराधों में सजा नहीं मिली है।

इसी प्रकार छोटे-छोटे अपराध से जुड़े लोगों और डिटेंशन सेंटर्स में बंद लोगों को भी रिहा किया जाना चाहिए। भारत को अपनी जीडीपी का 3 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने की योजना तुरंत लागू करनी होगी। मौजूदा दौर में हमें स्पेन और न्यूजीलैंड का अनुकरण करते हुए अपनी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए। इसके लिए विशेष रूप से एक अध्यादेश जारी कर यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी निजी अस्पताल कोरोना वायरस से जुड़े किसी भी मरीज की जांच या इलाज के लिए कोई शुल्क नहीं लेंगे। भारत लंबे समय से असमानता के चक्र में फंसा हुआ है। क्या कोरोना की इस महामारी के बीच हम अपनी पुरानी गलतियों को सुधारते हुए अपने देश में बराबरी का एक समाज बनाने की कोशिश करेंगे?
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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हर्ष मंदर, पूर्व आईएएस और मानवाधिकार कार्यकर्ता।




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यह मन पर नियंत्रण रखने का वक्त भी है

बहुत से लोग अभी ऐसे होंगे, जिनका मन घर में नहीं लग रहा होगा। तन को रोका जा सकता है, क्योंकि उसको रोकने वाले दूसरे लोग भी हैं। किसी की इच्छा हो भी रही होगी कि बाहर निकलें तो घर के अनुशासित लोग उसे रोक रहे होंगे। लेकिन, मन का क्या करें? यदि तन रुक गया और मन नहीं रुका तो दौड़-दौड़कर थक जाएगा, हमें थका देगा। इस समय इस बात की पूरी संभावना है कि जो लोग घरों में हैं, वे कहीं उदासी से न घिर जाएं। इसलिए यह नई-नई दृष्टि से सोचने का वक्त है।

शायर सूफियान काजी ने बड़ी अच्छी पंक्तियां लिखी हैं- जहां पे लगता है दरवाजे बंद हैं सारे, वहीं से कोई नया रास्ता निकलता है। इन अल्फाज को ठीक से समझें। आज घर तो बंद है, लेकिन जीवन की सुरक्षा का नया रास्ता खुला है। मन इस बंद दरवाजे पर बार-बार दस्तक देगा। इसलिए आज नवरात्रि के आठवें दिन जब अष्टमी मना रहे हों, अपने मन पर काम कीजिए।

मन को अपनी वृत्ति के अनुसार प्रतीक मान लीजिए। दार्शनिकों ने मन के कई रूप बताए हैं। उनके अनुसार किसी का मन दर्पण है, किसी का लायब्रेरी है, किसी का बैंक है। ऐसे ही मन का एक रूप श्वान भी है। जैसे कुत्ते को सिखा सकते हैं तो वह नियंत्रण में आ जाएगा, अन्यथा आवारा होकर सड़क पर घूमेगा। ऐसे ही हाल मन के हैं। खैर, इस समय हमारा विषय यह है कि तन के साथ-साथ मन को भी घर के भीतर रोकिए। इसके लिए सबसे अच्छा तरीका है, ध्यान यानी मेडिटेशन।



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It is also a time to control the mind




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चिड़िया गूंगी हो गई, अंधी हो गई छांव

लेटिन अमेरिकी जंगल में एक व्यक्ति पेड़-पौधों को देखते हुए बहुत दूर चला गया। उसे तीव्र बुखार आ गया। उसे वापसी का मार्ग नहीं मिल रहा था। भटकते हुए वह एक तलैया के पास पहुंचा। अगर यह तलैया बंगाल में होती तो इसे पोखर कहते। तीव्र ज्वर में तपते हुए व्यक्ति ने तलैया का जल पिया। उसे महसूस हुआ कि उसका ज्वर कम हुआ है। जैसे-जैसे वह पानी पीता गया, वैसे-वैसे उसका ज्वर कम होता गया। उस व्यक्ति ने देखा कि तलैया के आसपास बहुत से वृक्ष हैं, जिनके पत्ते तलैया में गिर रहे हैं। इसी के साथ वृक्ष की सूखी छाल भी पानी में गिर रही है। कालांतर में वृक्षों की छाल से ही कुनैन नामक दवा का निर्माण हुआ और अनगिनत लोगों के प्राण कुनैन खाने से बचे। क्लोरो कुनैन भी बनाई गई। मलेरिया के इलाज में क्लोरो कुनैन बहुत फायदेमंद साबित हुई। आज कुछ लोग कोरोना से पीड़ित व्यक्ति को क्लोरो कुनैन खाने की सलाह दे रहे हैं, परंतु यह कोरोना का इलाज नहीं है।

वृक्ष की छाल से बनी कुनैन बहुत कड़वी होती है। अत: उसे शक्कर में लपेटकर दिया जाता है। शुगर कोटेड कुनैन की तरह कुछ कड़े कदम उठाए जाते हैं। मसलन कर्फ्यू में दो घंटे की छूट दी जाती है। घरों में ही बने रहना कोरोना को फैलने से रोक सकता है। इस बंदिश को भी ‘शुगर कोटिंग’ कहा जा सकता है। यहां तक कि भाषा में ‘शुगर कोटेड’ मुहावरा बन गया।

इसी तरह क्षय रोग ने भी अनगिनत लोगों के प्राण लिए हैं। सन् 1943 में स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज हुई। क्षय रोग का इलाज इस दवा से किया गया। खाकसार की मां को 1939 में क्षय रोग हुआ था। उन्हें पौष्टिक खाना दिया गया। सुबह-शाम अंडे खिलाए गए। मांसाहार भी दिया गया। इस तरह बिना किसी दवाई के क्षयरोग पर विजय प्राप्त की गई। खाने-पीने की चीजों में मिलावट करने वालों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए। कुछ लोग सजा ए मौत भी तजवीज करते हैं। एक दौर में 94 लाख लोगों को क्षयरोग रहा है। ज्ञातव्य है कि पंडित नेहरू की पत्नी कमलादेवी का निधन भी क्षय रोग के कारण हुआ था। सन् 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलिन की खोज की थी और स्ट्रेप्टोमाइसिन सन् 1943 में खोजी गई। विदेशों में सभी रोगों पर फिल्में बनती रही हैं। राज कपूर की फिल्म ‘आह’ का नायक एक इंजीनियर है। वह एक बांध के निर्माण में लगा है। लंबे समय तक वह शहर से दूर रहता है। उसके माता-पिता उसका विवाहकरना चाहते हैं। जिस कन्या से उसका विवाह होना है, उसे पत्र लिखने की इजाजत दी जातीहै। लेकिन उस युवती की कोई रुचि पत्र लिखने में नहीं है। वह अपनी छोटी बहन को पत्रलिखने के लिए कहती है। इस तरह एक प्रेमकथा पत्राचार द्वारा विकसित होती है। ज्ञातव्य है कि ‘आह’ को राज कपूर के सहायक राजा नवाथे ने डायरेक्ट किया था।

संजीव कुमार अभिनीत फिल्म ‘जिंदगी’ में एक गरीब व्यक्ति अपने परिश्रम और बुद्धि से एक बड़ा उद्योग समूह खड़ा कर देता है। अपने औद्योगिक साम्राज्य पर निगाह रखने के लिए उसे बहुत परिश्रम करना पड़ता है। इस तरह वह अपने गढ़े हुए साम्राज्य का गुलाम बन जाता है। उसे कई रोग हो जाते हैं। सुबह, दोपहर और शाम उसे भांति-भांति की दवाएं लेनी होती हैं। गोयाकि भोजन से अधिक मात्रा में वह दवाओं का सेवन करता है। दवा खाने से अजीज आ चुका है। फिल्म के कुछ दृश्यों में बताया गया है कि वह एकांत में श्री कृष्ण भगवान से बात करता है। एक दृश्य में वह कैप्सूल फेंक देता है। श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं- यह क्लोरोमाइसिन और ढमका माइसिन, दरअसल तेरे अपने द्वारा किए गए ‘सिन’ (अपराध) हैं जो तूने धनाढ्य बनने के लिए किए हैं।

पेड़-पौधे, वृक्ष, ताल, तलैया सभी में कुछ जीवन रक्षक बातें हैं। अंधे विकास ने जंगल नष्ट कर दिए हैं। युद्ध स्तर पर नागरिकों द्वारा पौधारोपण की एक रास्ता है। हर आंगन में तुलसी लगाना आवश्यक है। निदा फाजली की कविता है-

धूप तो धूप है,
उसे शिकायत कैसी
अबकी बरसात में कुछ पेड़ लगाना साहब
नदिया ऊपर पुल बनाना
जुड़ा नगर से गांव
चिड़िया गूंगी हो गई
अंधी हो गई छांव...।



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The bird has become dumb, the shade has become blind




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इस समय बस यही सोचें कि देश के लिए क्या कर सकते हैं

भारत को इस समय ऐसे इनोवेशंस (नवाचारों या आविष्कारों) की जरूरत है, जो भले ही अभूतपूर्व न हों, लेकिन ऐसे हों जो पहले से मौजूद, काम में लाए जा सकने वाले इनोवेशंस की जरूरतों को पूरा कर सकें। साथ ही जहां भी, जैसी भी खामी रही हो, उसे दूर करने में सरकार की मदद कर सकें। खोजकर्ताओं का जोर इस बात पर होना चाहिए कि वे अपने उत्पादों को जल्द से जल्द बाजार में लाकर सरकार की मदद को बढ़ा सकें। यह समय एक हफ्ते से लेकर एक महीने भी हो सकता है। ये इनोवेशन जांच, निदान, इलाज, वैक्सीन, वायरस पर नियंत्रण, जनस्वास्थ्य और अन्य श्रेणियों के हो सकते हैं। इसमें जांच और घर में देखभाल के लिए मोबाइल हेल्थ तकनीक, टेस्ट के लिए किट्स और देखभाल करने वालों के लिए सुरक्षा सामग्री, स्टरलाइजेशन से जुड़ी खोज, गंभीर रोगियों की पहचान करने के लिए डिजिटल टूल और जोखिम पहचानने वाले यंत्र, कम कीमत के वेंटिलेटर तथा ऑक्सीजन थैरेपी इकाइयां, गंभीर स्थितियों के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित सिस्टम, प्लग एंड प्ले आइसोलेशन यूनिट्स जिनका आकार बदला जा सके और इलाज के लिए टेंट के अलावा बहुत कुछ शामिल हो सकता है। इसलिए कई सरकारी संगठनों ने छात्रों को उनके नए विचारों के साथ आगे आने को कहा है, क्योंकि सैकड़ों में से एक विचार भी पूरी तस्वीर बदलने वाला हो सकता है।

गुजरात सरकार स्टूडेंट स्टार्ट-अप इनोवेशन पॉलिसी लेकर आई है, जिसका नाम ‘इनोवेट व्हाइल यू आइसोलेट’ है। चार दिन में ही सरकार के पास प्रोडक्ट के 88 नए आइडिया आए, जो उन लोगों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की मदद कर सकते हैं, जो इस तेजी से फैल रही बीमारी से लड़ रहे हैं। डॉ. प्राची पांडे, ईशा शाह, रुतविक पटेल, शिखा कडकिया आदि एक ऐसा मास्क लेकर आए हैं, जो कोरोना वायरस के संपर्क में आने पर रंग बदलता है। रंग, वायरस के होने का संकेत देता है। यदि किसी की सांस में वायरस वाली ड्रॉपलेट्स जाती हैं, तो मास्क पर एक पट्टी पर रंग दिखाई देगा। इससे संक्रमण को रोका जा सकता है।

भूषण जाधव, रामकु पाटगिर, कृपालसिंह डाभी और नीरज वेणुगोपालन, वडोदरा के इन सभी इंजीनियरिंग छात्रों ने तीन लेयर वाले दस्ताने डिजाइन किए हैं। पहली और आखिरी परत लैटेक्स से बनी है और बीच वाली परत में केमिकल या सैनिटाइजर है। यह दस्ताना हर उस चीज को सैनिटाइज कर देगा, जिसे ये छुएगा। दस्ताने का प्रोटोटाइप तैयार है और टीम एक-दो दिन में इसका परीक्षण करने वाली है। एक बार पैकेट से निकालने के बाद, इस दस्ताने का इस्तेमाल तीन दिनों के लिए किया जा सकता है। धवल त्रिवेदी ने वडोदरा की एक चिकित्सा उपकरण कंपनी के साथ मिलकर एक 3डी प्रिंटेड टूथब्रश डिजाइन किया है, क्योंकि यह साबित हुआ है कि आईसीयू के वे रोगी जो अच्छे से मुंह की साफ-सफाई करते हैं, उनके बचे रहने की ज्यादा संभावना है।

बेंगलुरु स्थित द सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर प्लेटफॉर्म ने कोविड-19 के प्रभाव को रोकने के लिए इनोवेटर्स, स्टार्ट-अप और आंत्रप्रेन्योर्स से नए आइडियाज मांगे थे। इनमें से वेंटिलेटर और डायग्नोस्टिक सेंटर क्षेत्र के 150 में से चार सबमिशन को शॉर्टलिस्ट कर चुके हैं। इस बीच, बेंगलुरु नागरिक निकाय ने चार ड्रोन ऑपरेटर्स को काम पर लगाया है, जो अभी 20 वर्ष के हैं। नील सागर जी. एयरोस्पेस इंजीनियर है, निशांत मुरली सिविल इंजीनियर है, विनय कुमार ऐरोनॉटिकल इंजीनियर है और नागा प्रवीण इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर है। इन्हें बाजार, बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन जैसी जगहों को डिसइंफेक्ट (कीटाणुरहित) करने को कहा गया है। ड्रोन स्टार्ट-अप, अल्फा ड्रोन टेक्नोलॉजी के संस्थापक नील सागर को उसके छह हेक्साकॉप्टर ड्रोन के साथ काम करने के लिए चुना गया है। छह प्रोपेलर वाले ये हेक्साकॉप्टर 15 लीटर कीटाणुनाशक रख सकते हैं और 20 से 25 फीट तक उड़ते हैं और दिन में सात घंटे तक काम करते हैं। रोज सुबह टीम को सिविक अधिकारियों द्वारा एक शेड्यूल दिया जाता है, जिसमें बताया जाता है कि उन्हें कौन से क्षेत्रों को कवर करना है। उनका काम सुबह लगभग 9.30 बजे शुरू होता है और शाम 5.30 बजे से पहले वे पूरे शहर की यात्रा कर अपना काम खत्म कर देते हैं।

फंडा यह है कि कोरोना से लड़ने के लिए स्टार्टअप्स तैयार करने होंगे, क्योंकि यह इस खतरनाक बीमारी से लड़ने में सरकार की मदद करने और यह बात करने का समय है कि हम देश के लिए क्या कर सकते हैं, बजाय इसके कि देश ने हमारे लिए क्या किया है।



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हाल ही में मीनल दखावे भोंसले और इनकी टीम ने 6 हफ्ते के भीतर ही कोरोनावायरस की टेस्टिंग किट तैयार की।




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पूरे देश को संकट में डालने का किसी को भी अधिकार नहीं

अभाव और सिस्टम पर अविश्वास के कारण लाखों की संख्या में गांव का रुख करना, अशिक्षा के कारण सफाई की अनदेखी करना या कोरोना बीमारी के लक्षण में भी देसी इलाज कराना क्षम्य हो सकता है, लेकिन जब तथाकथित पढ़े-लिखे युवा अपने साथियों के साथ बगैर मास्क लगाए सड़कों पर सिगरेट पीते हुआ निकलते हैं या एक आईएएस अधिकारी अपनी विदेश यात्रा के बाद क्वारंटाइन से भाग जाता है तो यह वर्तमान स्थितियों में देशद्रोह से कम नहीं है।

सरकार को इन्हें ऐसी दफाओं में निरुद्ध करना चाहिए, जिससे अन्य लोग हिम्मत न कर सकें। कुछ ऐसा ही है इबादतगाह और पूजा स्थलों पर इकट्ठा होना। तेलंगाना में जो छह लोग कोरोना से मरे हैं वे दिल्ली में एक धार्मिक संस्थान के मरकज (केंद्रीय कार्यालय) में विगत 13-15 मार्च को इकठ्ठा हुए थे। उनमें से कई अब देश के अनेक भागों में पहुंचकर लोगों के जीवन के लिए संकट का कारण बन रहे हैं। इन्हें यह संक्रमण विदेश से आने वाले संस्था के प्रतिनिधियों के साथ उठने-बैठने से हुआ। क्या धर्म के इन ठेकेदारों को इतनी समझ नहीं थी कि विदेश से जो लोग शिरकत करने आ रहे हैं, उनके बारे में पहले सरकार को सूचित करें और फिर जांच के लिए प्रस्तुत करें।

पटना में ऐसी ही एक इबादतगाह से 20 विदेशी, स्थानीय लोगों की सतर्कता से गिरफ्तार हुए। क्या उस धर्मस्थल के प्रबंधक की जिम्मेदारी नहीं थी कि ऐसे लोगों को क्वारंटाइन में जाने को मजबूर करें और फिर सरकार को सूचना दें? जिस काम से पूरे देश पर संकट मंडराने लगे वह माफी के लायक नहीं है। दिल्ली पुलिस ने उस मौलवी पर मुकदमा किया है, जिसने यह धार्मिक जलसा आयोजित किया था। अमेरिका के मियामी बीच की ताजा तस्वीरें तो उससे भी बड़ी मूर्खता को प्रदशित करती है।

यहां सैकड़ों युवतियां बिकिनी पहने धूप सेंक रही हैं या समूह में डांस कर रही हैं। स्वछंदता तब लंपटता बन जाती है, जब वह समाज के लिए खतरा पैदा कर दे। करीब 240 साल से उदार प्रजातंत्र में जीने के कारण अमेरिका में वैयक्तिक स्वातंत्र्य सबसे महत्वपूर्ण अधिकार माना जाता है, लेकिन यह वर्ग इस बात को भूल रहा है कि घरों में कैद या अस्पतालों में वेंटिलेटर पर जीवन की डोर थामे करोड़ों लोगों को भी जीने का और कोरोनामुक्त वातावरण में रहने का वैसा ही अधिकार है।



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No one has the right to endanger the entire country




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हर धर्म के महान लोगों का समावेश है राम में

राम ने जितना अपने सार्वजनिक जीवन को साधा, उतना ही एकांत को भी सहेजा था। शायद ही कोई अवतार हो, जिसने चौदह साल का वनवास स्वीकार किया। वनवास का अर्थ ही है भीड़, शोर, आपाधापी से दूर एकांत में तपस्वी जीवन जीना। रावण जैसे राक्षस से लड़ने के लिए वनवास आवश्यक था। लड़ाई बहुत बड़ी सेना या बहुत सारे लोगों के साथ नहीं हो सकती थी, यह बात राम, पत्नी सीता को समझा चुके थे।

इस समय हमें भी कोरोना रूपी रावण से ऐसे ही लड़ना है। हमारा घर में रहना वनवास का एक ऐसा रूप है, जिसमें हम अपने आपको राम की तरह तैयार कर सकते हैं एक बड़े अभियान के लिए। इस त्रासदी से निपटना है, कोरोना रूपी राक्षस को समाप्त करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर का राम जगाना होगा। राम केवल हिंदू धर्म के देवता हों, ऐसा नहीं है। उनकी जीवनशैली में हर धर्म के महान लोगों का समावेश है। पहाड़ पर चढ़ने का एक कायदा है कि शरीर को झुकाना पड़ता है।

इस त्रासदी की इतनी बड़ी पहाड़ी चढ़ना है तो थोड़ा झुक जाइए। यहां झुक जाने का मतलब है विनम्र हो जाएं। समझ से काम लें, दूसरों के लिए जीना हो तो खुद भी कुछ समझौते कर लें। आज राम जन्मोत्सव पर बड़ी साधना यही होगी कि अपने घरों में रुके रहें, परिवार के बीच आनंदित जीवन जीएं। अपने भीतर ऐसा उत्साह भर लें कि यदि राम ईश्वर होकर मनुष्य बन सकते हैं, हमें समझाने के लिए लीला कर सकते हैं तो हम मनुष्य क्यों न कुछ ऊपर उठें।



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Rama is comprised of great people of every religion




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बहुत महंगी पड़ सकती है सरकार की हिमालयी चूक

कोरोना संकट विदेशों से आ रहा है, इस बात की जानकारी सड़क पर चल रहे हर दूसरे व्यक्ति को होली के दो सप्ताह पहले से थी। लिहाजा 10 मार्च को होली पर लोगों ने खुद ही एक जगह जमा होने से परहेज किया। ब्यूरो ऑफ इमीग्रेशन (बीओआई) से गृह मंत्रालय को मिल रही जानकारी के अनुसार, विगत 1 जनवरी से तबलीगी जमात के 2100 विदेशी मौलाना भारत आए और इनमें से 1000 ठहर गए। अधिकांश लोग दिल्ली के निजामुद्दीन स्थिति मरकज के परिसर में रहे या देश के 19 राज्यों की बड़ी मस्जिदों में पहुंचे।

ऐसे में कम से कम जब संकट के बादल साफ दिखने लगे तो इन लोगों पर नज़र रखनी चाहिए थी। अगर आम जनता होली जैसा त्योहार मनाने से संकोच करने लगी थी तो क्या इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को सरकार को सतर्क नहीं करना चाहिए था? निजामुद्दीन स्थित ऐसे कई संगठनों की गतिविधियों की जानकारी के लिए आईबी के एक डीसीआईओ (डिप्टी एसपी) रैंक के ऑफिसर की निगरानी में दो सहायक इंटेलिजेंस ऑफिसर की ड्यूटी रहती है।

क्या उन्होंने यह नहीं बताया कि 13 मार्च से अगले तीन दिन तक देशभर के डेढ़ दर्जन राज्यों के सैकड़ों मौलाना इस जलसे में पहुंचे हैं, जबकि उस दिन 200 से ज्यादा लोगों के एकत्र होने पर सरकारी पाबंदी थी? दिल्ली सरकार व केंद्र दोनों ने ही इस पर ध्यान नहीं दिया। वह तो तेलंगाना सरकार ने इस मरकज से मीटिंग के बाद अपने यहां आए तबलीगी जमात के एक इंडोनेशियाई मौलाना को 17 मार्च को पॉजिटिव पाया और तुरंत केंद्रीय गृहमंत्रालय को सूचना दी। लेकिन, यहां के अधिकारियों को चार दिन लग गए यह पता करने में कि कितने विदेशी मौलाना इस समय भारत के किन-किन हिस्सों में गए हैं और मीटिंग में कितने भारतीय लोगों ने शिरकत की थी। तबलीगी जमात के मरकज पर छापा मारने में ही एक सप्ताह लग गया।

सरकार को यह भी मालूम है कि तबलीगी जमात के ये मौलाना टूरिस्ट वीसा पर आते हैं न कि मिशनरी वीसा पर जबकि काम ये धर्म के प्रसार का करते हैं। दरअसल मिशनरी वीसा समयबद्ध और कम समय का होता है और सरकारें उनकी व्यापक जांच करती हैं। लिहाजा, लगभग दो दशकों से ये लोग छह माह का टूरिस्ट वीजा लेकर आराम से देशभर में घूमते रहते हैं। सरकार की यह हिमालयी चूक महंगी पड़ने जा रही है।



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Himalayan lapse of government may be very expensive




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कोरोना के बाद हमारे खाने के तरीके बदल जाएंगे

बुधवार की सुबह मुझे वॉट्सएप पर एक मजेदार वीडियो आया। एक बहुत ही प्यारी और गोल-मटोल, पांच साल की बच्ची, जिसने स्विम सूट पहना था, कहती है, ‘जब आप मुझे इस गर्मी में स्विमिंग सूट पहने देखें, तो अपने काम से काम रखें और मेरी मां को सलाह न दें कि कैसे मेरा वजन कम किया जा सकता है। याद रखें मैं खाने से भरे किचन के साथ क्वारेंटाइन में थी।’ बच्ची बहुत प्यारी थी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आजकल बच्चे अपने आकार को लेकर कितने चिंतित होते हैं। यह देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।


फिर मैंने सोचा कि इस बच्ची के परिवार जैसे और कितने परिवार होंगे जिन्होंने इस 21 दिन के लॉकडाउन की बंदिशों से पहले काफी खाना इकट्ठा कर लिया होगा। मैं यह तो जानता ही हूं कि मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जिनके रसोईघर में इस्तेमाल करने के लिए सीमित चीजें हैं । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इटली के मिशेलिन स्टार शेफ मैसिमो बोटुरा पिछले पंद्रह दिनों से हर शाम सबसे ज्यादा देखे जाने वाले शेफ बन गए हैं, जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है। इस शो में बोटुरा अपनी रसोई में जाते हैं, फ्रिज खोलते हैं और उसमें जो भी सामग्री मिलती है, उसी से वह अपने परिवार के लिए रात का खाना बनाते हैं। इस कार्यक्रम का नाम ‘किचन क्वारेंटाइन’ है। इंस्टाग्राम पर 14 मार्च से शुरू हुआ यह शो याद दिलाता है कि खाना बनाना कोई महान कला नहीं है, जैसा कि टीवी सीरियल्स में दिखाया जाता है, बल्कि यह बुद्धि और रचनात्मकता का काम है कि आप कैसे उपलब्ध हर सामग्री को समझ कर उन्हें इस्तेमाल करते हैं।


मंगलवार शाम को जब मैंने यह शो देखा, तो मैंने पाया कि मेरे फ्रिज में तो इस मिशेलिन स्टार शेफ की सामग्री की तुलना में 30 प्रतिशत सामग्री भी नहीं है। जाहिर है कि यूरोपीय रसोई न केवल बड़ी होती है, बल्कि उसमें काफी मात्रा में प्रोसेस्ड खाना भी होता है। फिर भी मैं प्रभावित हुआ, क्योंकि उन्होंने खाना बनाने को बुद्धिमत्ता का काम बना दिया। इसके बाद ही मैंने भारतीय फूड ब्लॉगर मोनिका मनचंदा को देखा। मनचंदा ने अपने ट्विटर पर भारतीयों के लिए एक सवाल पोस्ट किया कि ‘मुझे बताइए कि आपकी पेंट्री में क्या-क्या उपलब्ध है और मैं अगले 21 दिनों के लिए इन मौजूदा सामग्री से कोई डिश या भोजन बनाने का सुझाव दूंगी।’ उन्होंने बताया कि कैसे आसान तरीके से बचे हुए चावल से मैक्सिकन बरिटो बाउल बनाया जा सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि जैसे हम आलू मेथी और स्प्रिंग अनियन पराठे बनाते हैं, वैसे ही स्प्रिंग अनियन और आलू की सब्जी बना सकते हैं। सात दिनों में ही मेरी रसोई में सब कुछ बदल गया है। पहले बचा हुआ खाना घर पर काम करने वालों और रसोइए के परिवार को दिया जाता था।

चूंकि वे पिछले सात दिनों से काम पर नहीं आ रहे हैं और मेमसाहब खुद खाना बना रही हैं, वह नहीं चाहतीं कि खाने का एक दाना भी बर्बाद हो, क्योंकि उन्होंने खुद ये खाना पकाया है! तो आपकी हिम्मत कैसे हो सकती है इसे बर्बाद करने की? मेरे रेफ्रिजरेटर का निचला हिस्सा, जो सब्जी वाली ट्रे के ऊपर होता है, आजकल हमेशा खाली रहता है, क्योंकि उस जगह पर पहले बचा हुआ खाना रखा जाता था। मुझे लगता है कि भविष्य में हम कम बर्बाद करेंगे, मौजूदा चीजों को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, बचे हुए खाने के ऊपर कद्दूकस किया गाजर और चीज डालकर उसे सुबह के ‘पौष्टिक’और ‘रचनात्मक नाश्ते’ में तब्दील करेंगे। कोई तय रेसिपी नहीं होंगी बल्कि आपकी रसोई में बहुत से प्रयोग होने वाले हैं।

फूलगोभी की सब्जी में कुरकुरापन देने के लिए मोटी पीसी हुई मूंगफली मिलाई जा सकती है। 21 दिनों से खाना न मिलने की वजह से कौवे पहले ही अपना ठिकाना बदल चुके हैं, इसलिए बची हुई ब्रेड उन्हें देने की बजाय ब्रेड को अंडे के साथ मिलाया जा सकता है और उसे ‘ब्रेड भुर्जी’ कहा जा सका है। दही में आलू भुजिया मिलाकर, कुछ टोस्टेड ब्रेड क्यूब्स डालकर बड़ी स्वादिष्ट डिश बनाई जा सकती है, जो दातों को कुरकुरेपन का मजा दे। क्योंकि रसोई में बस यही उपलब्ध है।


फंडा यह है कि कोरोना के बाद नई रेसिपी और खाने के नए तरीकों के लिए तैयार हो जाएं। इसलिए नहीं क्योंकि शेफ संजीव कपूर ने यह सुझाव दिया है, बल्कि इसलिए क्योंकि हमारे घर की महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान रसोई की सामग्री का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना सीख लिया है।



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Our food habits will change after Corona




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जन्म जन्मांतर की प्रेम कथाएं

28 मार्च को कारगिल में एक शिशु का जन्म हुआ। पति को कोरोना का इन्फेक्शन था, लेकिन पत्नी वायरस से मुक्त थी। शिशु का परीक्षण किया गया। उसे कोरोना नहीं है। अत: हम मान लें कि जीन्स द्वारा बीमारी आगे नहीं बढ़ रही है। यह भी एक मेडिकल तथ्य है कि जीन्स सात पीढ़ियों तक यात्रा करता है। कुछ बीमारियां वंशानुगत होती हैं। कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित फिल्म ‘महल’ में पुनर्जन्म का षड्यंत्र संपत्ति हड़पने के लिए रचा गया था। अत: अशोक कुमार द्वारा निर्मित इस फिल्म को पुनर्जन्म अवधारणा की फिल्म नहीं माना जा सकता। ज्ञातव्य है कि जयपुर में जन्मे खेमचंद प्रकाश ने फिल्म का संगीत रचा था। फिल्म का गीत ‘आएगा आने वाला..’ आज भी सुना जा रहा है। पुराने महल में तलघर और सुरंगें हैं, जिनके सहारे पात्र एक जगह, झलक दिखलाकर अगले ही क्षण दूसरी जगह नजर आता है।


अमेरिका में बनी फिल्म ‘रीइन्कारनेशन ऑफ पीटर प्राउड’ से प्रेरित सुभाष घई ने ऋषि कपूर, टीना मुनीम, सिम्मी ग्रेवाल प्राण और प्रेमनाथ अभिनीत ‘कर्ज’ बनाई। मूल फिल्म में पत्नी दूसरी बार जन्म लिए पति की हत्या करते समय कहती है कि वह जितनी बार जन्म लेगा, उतनी बार वह उसकी हत्या करेगी। चेतन आनंद ने राजकुमार, राजेश खन्ना विनोद खन्ना, हेमा मालिनी, प्रिया राजवंश और अरुणा ईरानी अभिनीत ‘कुदरत’ बनाई। यह फिल्म भी पुनर्जन्म अवधारणा से प्रेरित थी। सातवें दशक में नूतन और सुनील दत्त अभिनीत ‘मिलन’ भी इसी तरह की फिल्म थी, जिसका गीत ‘सावन का महीना, पवन करे शोर...’ लोकप्रिय हुआ था। ‘मधुमति’ पुनर्जन्म अवधारणा की पहली फिल्म मानी जा सकती है। ज्ञातव्य है कि बिमल रॉय की कुछ फिल्मों ने यथेष्ठ कमाई नहीं की थी और वे बंगाल वापसी कर विचार कर रहे थे। उनकी दुविधा को समझकर तपन सिन्हा ने ‘मधुमति’ की पटकथा लिखी और उन्हें आश्वासन दिया कि यह फिल्म खूब धन फिल्म में एक मुजरा भी है- ‘हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए..’। कबीर की परंपरा का गीत मैं ‘नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात जरा सी..’ सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। कुछ वर्ष पहले ही फरहा खान ने ‘ओम शांति ओम’ भी पुनर्जन्म अवधारणा प्रेरित है।


जर्मनी के डॉ. वीज ने इस क्षेत्र में बहुत काम किया है। मनुष्य को हिप्नोटाइज करके उसे विगत जन्म की यादों के गलियारे में भेजा जाता है, परंतु समय रहते ही हिप्नोटिज्म प्रक्रिया रोकना होती है। इस प्रक्रिया का उपयोग चेतन आनंद की ‘कुदरत’ में किया गया है। पश्चिम की फिल्म ‘बीइंग बोर्न अगेन’ में पत्नी की आयु तीस वर्ष है और उसका पति अपने पुनर्जन्म में सात वर्ष का है। वह विगत जन्म की सारी यादें साथ लेकर आया है, परंतु इस जन्म में आयु के अंतर के कारण पति-पत्नी साथ नहीं रह सकते। कन्नड़ भाषा के भैरप्पा के उपन्यास ‘दायरे आस्थाओं के’ में पति की मृत्यु के समय पत्नी गर्भवती थी। घटनाक्रम उस समय रोचक हो जाता है जब एक 18 वर्ष का युवक यह सिद्ध कर देता है कि वही उस विधवा का विगत जन्म का पति है। वह कस्बे के हर व्यक्ति को पहचानकर ऐसी बातें बताता है जो केवल उसी व्यक्ति को मालूम हैं। सभी लोगों को यकीन दिला देता है, परंतु पत्नी अभी भी संशय करती है। वह एकांत में पत्नी के शरीर में कहां तिल है, कहां मस्सा है, यह सब भी बता देता है। गांव की पंचायत कहती है कि अब यह 18 वर्षीय युवा अपनी 36 वर्षीय पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन प्ररंभ कर सकता है।


घटनाक्रम उस समय और अधिक रोचक हो जाता है, जब स्त्री का पति की मृत्यु के बाद जन्मा 18 वर्षीय पुत्र लौट आता है। उसे अपनी मां का इस 18 वर्षीय युवा के साथ दाम्पत्य जीवन बिताना स्वीकार नहीं है। उस बस्ती में राधा-कृष्ण का एक पुराना मंदिर है, जिसमें मूर्तियों में हीरे जड़े हैं। कुछ पर्ष पहले चोर मूर्तियां लेकर भाग रहे थे और युवा उनसे मूर्तियां छीन लेता है। चोर उसका पीछा करते हैं। वह मूर्तियों को एक कुएं में फेंक देता है। चोर उसे पकड़कर मूर्तियों के बारे में पूछते हैं और उसके इनकार करने पर उसे मार देते हैं। यही युवा अपने नए जन्म में
अपने से दोगुनी आयु की स्त्री के साथ दाम्पत्य जीवन जीता है। यह बताना कठिन है कि कोरोना पीड़ित व्यक्ति की संतान को भी यह रोग होगा या नहीं। बहरहाल, चेतन आनंद की ‘कुदरत’ में राहुल देव बर्मन का संगीत था। एक गीत परवीन सुल्ताना ने गाया था। उसी गीत को अन्य गायिका ने भी गाया, परंतु वह कशिश नहीं बनी। बहरहाल फिल्म में कतील शिफाई का लिखा गीत इस तरह है-


खुद को छिपाने वालों का
पल-पल पीछा ये करे,
जहां भी हों, मिट्‌टी के निशां, वहीं जाकर पांव यह धरे,
फिर दिल का हरेक घाव,
अश्कों से यह धोती है,
सुख-दु:ख की हर एक
माला कुदरत ही पिरोती है,
हाथों की लकीरों में
यह जागती-सोती है।



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Love stories of birth birth




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इस घड़ी में मजदूरों व गरीबों के लिए सरप्लस अनाज के भंडार खोले सरकार, बेघरों के रहने की हो व्यवस्था

काेरोना के संकट के बीच हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले लोग प्रवासी श्रमिकों, घरों में काम करने वाली महिलाओं, झुग्गियों में रहने वालों और बाकी गरीबों को ऐसे दिखा रहे हैं कि जैसे समस्या वे ही हों। जबकि सत्य यह है कि कोविड-19 व इससे पहले सार्स को देश में लाने वाले विमानों में सफर करने वाले लोग थे। इस बात को पहचानने की बजाय ऐसा लग रहा है कि हम लोग इन अवांछित लोगों के शुद्धिकरण से अपने शहरों को ही सैनिटाइज करने की कोशिश कर रहे हैं। जरा सोचें कि अगर हम उड़ने वाले लोगों ने ही सड़कों पर जा रहे प्रवासी श्रमिकों मेें से किसी को संक्रमित किया हो और जब वे अपने गांव पहुंचेंगे तो क्या होगा? कुछ हद तक मध्यम वर्ग इस बात से आश्वस्त दिखता है कि अगर वे घर पर रहेंगे और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करेंगे तो सब ठीक होगा। कम से कम हम वायरस से बचे रहेंगे। इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि आर्थिक संकट हम पर कैसे असर करेगा। कई लोगांे के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब कुछ और है। सैकड़ों साल पहले हमने इसका बहुत ही ताकतवर जरिया खोजा था- जाति। इस लॉकडाउन में भी वर्ग और जाति के फैक्टर समाहित हैं।


हमारे लिए यह बात मायने नहीं रखती कि हर साल करीब ढाई लाख लोग टीबी से मर जाते हैं। या फिर डायरिया हर साल एक लाख बच्चांे की जान ले लेता है। वे हमारे नहीं हैं। घबराहट तब होती है, जब सुंदर लोगों को लगता कि उनके पास किसी बीमारी के प्रति प्रतिरोधकता नहीं है। सार्स और 1994 के प्लेग के समय ऐसा ही हुआ। ये दोनों ही खतरनाक बीमारियां थीं, लेकिन इनसे भारत में उतने लोगों की मौत नहीं हुई, जितनी हो सकती थी। लेकिन, इन पर बहुत ध्यान दिया गया। यह सोचना खतरनाक है कि हम सिर्फ एक वायरस से लड़ रहे हैं और एक बार इससे जीत जाएं तो सब ठीक हो जाएगा। निश्चित ही हमें कोविड-19 से पूरी ताकत से लड़ने की जरूरत है, क्योंकि यह 1918 के स्पेनिश फ्लू से भी खतरनाक हो सकता है। उस समय तीन सालों में भारत मेें इससे 1.6 से 2.1 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। लेकिन, कोविड-19 पर जिस तरह से बड़े वर्ग को बाहर करके फोकस किया जा रहा है, वह वैसा ही है जैसे कि सभी टांेटियों को खुला छोड़कर फर्श को पोंछे से सुखाने की कोशिश हो रही हो। हमें ऐसे कदम की जरूरत है, जिससे जनस्वास्थ्य तंत्र मजबूत हो।


1978 में अल्माअता घोषणा-पत्र में 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का नारा दिया गया था। लेकिन, 1980 से स्वास्थ्य में सामाजिक और आर्थिक बातों को महत्व देने का सिलसिला शुरू हो गया। 1990 आते-आते दुनियाभर से शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के विचार को कचरा कर दिया गया। 1990 में वैश्वीकरण की संक्रामक बीमारी आई। लेकिन, स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक वैश्विक हेल्थ तंत्र बनाने की बजाय अनेक देशों ने अपने स्वास्थ्य तंत्र का और भी निजीकरण कर दिया। भारत में तो निजी क्षेत्र हमेशा ही हावी रहा। हम दुनिया में स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का सबसे कम हिस्सा (केवल 1.2 फीसदी) खर्च करने वालों में हैं। हमारा स्वास्थ्य तंत्र 1990 से सरकारी नीतियों के चलते और भी कमजोर हो गया। मौजूदा सरकार तो निजी प्रबंधन को जिलास्तरीय अस्पतालों के अधिग्रहण के लिए आमंत्रित कर रही है। ग्रामीण भारत में लोगों के कर्ज में डूबने की एक बड़ी वजह इलाज पर होने वाला खर्च है। हजारों किसानों की आत्महत्या की एक बड़ी वजह भी स्वास्थ्य के लिए लिया जाने वाला कर्ज है। हमारे पास सबसे बड़ी आबादी है, जिसके पास कोविड-19 से मुकाबले के न्यूनतम साधन हैं। दुखद यह है कि आने वाले सालों में किसी और नाम से नई आपदाएं भी आना तय है।


ग्लोबल वायरोम प्रोजेक्ट के प्रो. डेनिस कैरोल ने हाल ही में ध्यान दिलाया है कि तेल व खनिजों की तलाश मंे हमने उन जगहों को खोद दिया है, जहां पर शायद ही कोई रहता हो। इससे हमारे इकोसिस्टम में तो घुसपैठ हुई ही है, लेकिन इसने वन्यजीवन व मनुष्य के संपर्क को भी बढ़ाया है, जिससे हम ऐसी बीमारियों और वायरस के संक्रमण के शिकार हो रहे हैं, जिनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं। अब हम क्या कर सकते हैं? पहली चीज, हमें अपने 6 करोड़ टन के सरप्लस अनाज के भंडार का आपात वितरण करना चाहिए और इस संकट में उजड़ गए प्रवासी मजदूरों व गरीबों तक इसे पहुंचाना चाहिए। बेघरों व रास्तों में फंसे लोगों के लिए बंद स्कूलों में रहने की व्यवस्था करनी चाहिए। दूसरा, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि किसान न केवल अपनी मौजूदा फसल को बेच सकें, बल्कि खरीफ की फसल भी उगा सकें। सरकार को पूरे देश में निजी अस्पतालों में एक कोरोना कॉर्नर बनाना चाहिए। संकट जारी रहने तक मनरेगा का वेतन रोज बांटा जाना चाहिए। इस अवधि में शहरी मजदूर को कम से कम छह हजार रुपए प्रतिमाह दिए जाएं। क्या हम कोविड-19 संकट को असमानता और न्यायपूर्ण स्वास्थ्य पर एक बहस के मौके के रूप में देख सकते हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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In this hour, the government opened surplus grain reserves for the workers and the poor, there should be arrangements for the stay of the homeless




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कोरोना के दौर में हम लेखन, चित्रकारी, नृत्य, गीत से अपने भीतर का कलाकार ला सकते हैं सामने

कोविड-19 ने हमें कई नए शब्द दिए हैं। वे अपने साथ एक नई जीवनशैली अपनाने का भाव भी साथ लेकर आए हैं। लॉकडाउन। सेल्फ आइसोलेशन। क्वारंटीन। ठहर जाना। सोशल डिस्टेंसिंग। सावधान रहना। यात्रा पर रोक। वर्क फ्रॉम होम। स्कूल ऐट होम। यह सब कुछ ही हफ्तों में हो गया। हम सब एक ही नाव में हैं और खुद को और अपने परिवारों को इस परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार कर रहे हैं। हम बाहरी दुनिया से अपने संपर्क को कम से कम करते जा रहे हैं। हमारा भौतिक संपर्क जीवित रहने के लिए बेहद ज़रूरी जरूरतों तक ही सीमित है। महत्वपूर्ण यह है कि यह सब हम कैसे करते हैं।

दैनिक जीवनचर्या में हमारा संतुलित और दूसरों की फिक्र से भरा मनोभाव दूसरों तक पहुंचता है। कोविड-19 जाति, लिंग, संस्कृति या राष्ट्रीयता में भेदभाव नहीं करता। इसलिए हमें सबके प्रति उदार और करुणावान बने रहना चाहिए। सामाजिक दूरी को समझने के लिए आइए इन दो शब्दों, ‘सामाजिक’ और ‘दूरी’ को समझें। सामाजिक का अर्थ है सहचर्य और मित्रता। दूरी का अर्थ है अलग रहना। सरल शब्दों में सामाजिक दूरी स्वयं और दूसरों के बीच एक फासला बनाए रखना है, चाहे वे बीमारी से प्रभावित हों या नहीं। लेकिन क्या हमें वास्तव में सामाजिक रूप से दूरी रखने को कहा जा रहा है? बिलकुल नहीं। भौतिक रूप से दूर रहते हुए हमें स्वयं से पूछना है कि कहीं हम खुद को भावनात्मक रूप से भी तो दूर नहीं कर रहे हैं? हमें किसी भी तरह इन दोनों बातों को आपस में गड्ड-मड्ड होने से बचाना है। हम हमेशा भौतिक दूरियों के साथ रहते आए हैं। पति-पत्नी अलग-अलग महाद्वीपों में कार्य करते हैं और परिवार पूरे संसार में फैले हुए हैं। आज हम तकनीक से सामाजिक और भावनात्मक संपर्क रखते हैं और हमारी जीवनशैली लंबे समय से ऐसी ही है। क्या यह विपदा हमें जगाने के लिए है कि हम और अधिक काम करें और अधिक सचेत रहें या यह केवल एक चेतावनी है?


छोटी-छोटी बातों से बचना, जैसे अपने प्रियजनों को गले नहीं लगाना, हाथ नहीं मिलाना या अपने चेहरे को नहीं छूना, हमारी कुदरती सहज प्रवृत्तियों के खिलाफ है। और ऐसे परिवारों के लिए जो समुंदर पार की दूरी महसूस करते हैं, भयभीत और चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन, हमें एक और अधिक शक्तिशाली संपर्क के माध्यम को भी याद रखना चाहिए जो हमें मिला हुआ है। वह है हृदय से हृदय के संपर्क में बने रहना। प्रेम प्रेषित करना। मैं एक छोटा सा अभ्यास बता रहा हूं जो हम अपने प्रियजनों के साथ रोज कर सकते हैं-


आराम से बैठकर अपनी आंखें कोमलता से बंद कर लें। जिस व्यक्ति को आप प्रेम भेजना चाहते हैं उन्हें अपने सामने बैठा हुआ महसूस करें। अपने हृदय को उनके हृदय से जुड़ता हुआ महसूस करें। इस जुड़ाव को महसूस करते हुए अपने हृदय से उनके हृदय तक प्रेम और परवाह को बड़ी कोमलता के साथ प्रेषित करें। कुछ मिनट बाद आपको और जिसे आप प्रेम भेज रहे हैं उस व्यक्ति को शांति का अनुभव होगा। कछुए भी अपने परिवारजनों के साथ मानसिक संपर्क बनाए रखना अच्छी तरह जानते हैं। जब मादा कछुए के अंडे देने का समय आता है तो वह समुद्र में अपने स्थान से तैरकर रेतीले तट पर पहुंचती है, गड्ढे खोदती है और रेत में अंडे देकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ढंक देती है। फिर वह तैरकर समुद्र में वापस चली जाती है। जब दो महीने बाद कछुए के बच्चे पैदा होते हैं तो वे तेजी से लहरों की ओर चल पड़ते हैं और आश्चर्यजनक रूप से अपनी मां तक तैरकर पहुंच जाते हैं। अगर कछुए इस तरह का संपर्क रख सकते हैं तो हम क्यों नहीं? हर परिस्थिति में अवसर छिपे हुए होते हैं। कोविड-19 मानवता के लिए एक अवसर है कि हम अपने आंतरिक तल की गहराइयों से एक-दूसरे के संपर्क में रहें और इसे समझें। अगर हम बाहर नहीं जा सकते तो भीतर चलें। ।


सरल तरीकों से एक-दूसरे तक पहुंचने की संभावनाएं खोजें। यह साथ में गीत गाने, ध्यान करने, फिल्म देखने, साथ बैठकर भोजन करने या चुटकुले सुनाने के द्वारा हो सकता है, क्योंकि यह सबको पता है कि जीवंतता, खुशी और हास्य से पीड़ा कम होती है। सरल आदतें, जैसे भोजन सामग्री को बचाकर रखना हमें लंबे समय तक बचा सकेगा। हम उपवास को भी आजमा सकते हैं। बुद्धिमानी इसी में है कि वित्तीय साधनों का भी ध्यान रखें और घबराहट में अधिक सामान खरीदने की कोशिश न करें। हम अपने वृद्धजनों एवं उनकी, जो कम भाग्यशाली हैं उनकी सहायता कर सकते हैं। कितने ही छोटे-छोटे कार्य हैं जिनके लिए हमें समय नहीं मिलता, जिन्हें हम अभी कर सकते हैं। हम लिखने, चित्र बनाने, नृत्य करने, गीत गाने, नए व्यंजन बनाने, प्रियजनों के लिए कपड़े सिलने जैसे कार्यों से अपने भीतर के कलाकार को सामने ला सकते हैं। घर में रहते हुए आलस्य करके समय बर्बाद करना आसान है पर क्यों न इस अवसर का स्वस्थ जीवनशैली अपनाने, पांच मिनट श्वास आधारित व्यायाम, ध्यान और योगासन करने जैसे उपायों से लाभ उठाया जाए? स्वयं के लिए अभ्यास करें। अपने प्रियजनों के लिए अभ्यास करें।(ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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In the era of Corona, we can bring our inner artist through writing, painting, dancing, song




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बेडरूम से कुछ कदम चले, फोन चालू किया और सीधे वर्चुअल कोर्ट रूम में पहुंच गए; बस यूनिफॉर्म पहनना जरूरी

तारीख-30 मार्च, लॉकडाउन का छठा दिन: कोरोनावायरस से जुड़े मामलों में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की मदद करने के लिए एमिकस क्यूरी (किसी विशेष मामले में कोर्ट की सलाहकार) नियुक्त की गईं सीनियर एडव्होकेट मोनिका कोहली रोज की तरह ही अपनी ड्यूटी कर रही हैं। फर्क बस इतना है कि आज वे जल्दबाजी में नहीं है, न ही उन्हें रोजाना की तरह ट्रैफिक में फंसने की कोई चिंता है। उन्हें कोर्ट रूम पहुंचने के लिए अपने बेडरूम से बस कुछ कदम ही चलने की जरुरत है। एक मिनट के अंदर ही वे खुद को पांच अन्य वकीलों के साथ वर्चुअल कोर्ट रूम में मौजूद पाती हैं। ये पांचों वकील भी अपने-अपने घरों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही कोर्ट की कार्यवाही में हिस्सा ले रहे हैं।

सुबह 10 बजते ही चीफ जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस सिंधु शर्मा स्क्रिन पर नजर आती हैं। यह पहली बार है, जब 2 महिला जजों की डिविजन बेंच वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई कर रही हैं। दोनों ही जज कोरोनावायरस को फैलने से रोकनेके लिए देशभर में हुए लॉकडाउन के बीच जनहित वाले मुद्दों की सुनवाई जम्मू के अपने-अपने घरों से कर रहीं हैं। जज समेत ये पांचों वकील अपने-अपने घरों से इस कार्यवाही में मौजूद हैं, लेकिन नियमों के मुताबिक ये सभी अपनी यूनिफार्म में हैं।

राज्य में कई लॉकडाउन हुए, लेकिन हाईकोर्ट पहली बार वर्क फ्रॉम होम कर रहा
जम्मू-कश्मीर में लॉकडाउन नई बात नहीं है। 90 के दशक के बाद से घाटी में बढ़ते उग्रवाद के बाद यहां लॉकडाउन होता रहा है, लेकिन यह पहली बार है, जब राज्य में हाईकोर्ट पर लॉकडाउन का असर पड़ा है। पूरा हाईकोर्ट वर्क फ्राम होम कर रहा है। हालांकि इससे पहले भी कई मौकों (आतंकियों से जुड़े मामलों) पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हाईकोर्ट में सुनवाई होती रही है। लेकिन तब जज और वकील, हाईकोर्ट में ही मौजूद रहते थे।

जनता कर्फ्यू (22 मार्च) के बाद से हीजम्मू की सड़कों और बाजारों में सन्नाटा पसरा हुआ है।

“कोर्ट की सुनवाई का तरीका वैसा ही है, जजों के स्क्रिन पर आते ही वकील घर में ही खड़े होकर उनका अभिवादन करते हैं”
मोनिका कोहली, पहली बार वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कोर्ट की कार्यवाही में हिस्सा ले रही थीं। उन्होंने इस अनुभव को साझा करते हुए बताया, मेरे लिए यह एक अद्भुत अनुभव था। एक सभ्य समाज का हिस्सा होने के नाते सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखते हुए अपने दायित्वों को निभाना वाकई दिलचस्प लगा। वे बताती हैं, “कोर्ट की कार्यवाही वैसे ही चली, जैसे चलती है। हमेशा की तरह जैसे ही हमने डिविजन बेंच की दोनों जजों को हमारी स्क्रिन के सामने पाया, तो सबसे पहले हमने खड़े होकर उनका अभिवादन किया। कार्यवाही शुरू हुई और मैंने देश में 21 दिन के लॉकडाउन के कारण जम्मू में फंसे यात्रियों की परेशानियों और चिंताओं को चीफ जस्टिस के सामने रखा। चीफ जस्टिस ने सरकार के अफसरोंको इन लोगों की सुविधाओं को मुहैया करने के लिए जरूरी दिशा-निर्देश दिए। एक-एक करके, सभी वरिष्ठ वकीलों ने कोर्ट रूम में मौजूद अपने मामलों को डिविजन बेंच के सामने रखा और इन सभी मामलों में बेंच द्वारा जरूरी दिशा-निर्देश जारी किए गए।


“लॉकडाउन से पहले ही कोर्ट परिसर में सोशल डिस्टेंसिंग का सख्त पालन शुरू हो चुका था”
मोनिका कोहली बताती हैं, “चीफ जस्टिस गीता मित्तल ने जम्मू और कश्मीर में कोरोनावायरस के फैलाव को रोकने के लिए पहले से ही जरूरी उपायों की शुरुआत कर दी थी। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के ऐलान से पहले ही उन्होंने कोर्ट परिसर में वकीलों की भीड़ पर रोक लगा दी थी। हर दिन कोर्ट परिसर में सोशल डिस्टेंसिंग को बनाए रखने के लिए सख्त निर्देशों के सर्कुलर जारी किए जाते थे। कोर्ट पहुंचने वाले लोगों की स्क्रीनिंग भी की जाती थी।”

जनता कर्फ्यू से पहले ही जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर सख्त सर्कुलर जारी कर दिए गए थे।

कोहली ने बताया, “जब पहली बार ईरान में फंसे कश्मीर घाटी के कुछ छात्रों ने ईमेल के जरिए चीफ जस्टिस से संपर्क किया, तो उन्होंने इन ईमेल को एक जनहित याचिका के तौर पर लिया और प्रशासन को जरूरी कदम उठाने के लिए कहा। उन्होंने कोरोनोवायरस को राज्य में फैलने से रोकने के लिए समय-समय पर केंद्र शासित प्रदेश सरकार और विदेश मंत्रालय को नोटिस भी जारी किए।

“सभी जरूरी मामलों की सुनवाई वीडियो कॉल पर हो रही”
मोनिका कोहली बताती हैं, “चीफ जस्टिस ने सोशल डिस्टेंसिंग बनाते हुए बेहद जरूरी मामलों को ही प्राथमिकता दी। उन्होंने कोर्ट परिसर में लोगों की आवाजाही को कम करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कार्यवाही पर जोर दिया।” मोनिका कोहली न्यायपालिका में सिस्टम को मॉर्डन करने और अपग्रेड करने के लिए भी चीफ जस्टिस की तारीफ करती हैं। वे बताती हैं कि चीफ जस्टिस कई अन्य जरूरी मामलों में भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई कर रही हैं। एक मामले में बीएसएनएल के मुख्य महाप्रबंधक को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंगके जरिए कोर्ट की कार्यवाही में हिस्सा लेने का कहा गया था। चीफ जस्टिस ने उन्हें जल्द से जल्द जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड्स और ऑब्जर्वेशन होम्स के 24 स्थानों को लीज लाइन कनेक्शन देने के निर्देश दिए थे।

प्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन में जरूरी सुविधा देने से जुड़े मामले पर 3 अप्रैल को सुनवाई
मोनिका बताती हैं, “सभी जरूरी मामलों को सुनते हुए, डिवीजन बेंच ने सभी संबंधित एजेंसियों को यह निर्देश भी जारी किया था कि जहां भी संदिग्ध मामले आ रहे हैं और लोगों को क्वारेंटाइन किया जा रहा है, ऐसी सभी जगहों पर काम करने वाले कर्मचारियों की सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाए। डिविजन बेंच ने अधिकारियों को प्रवासी मजदूरों की जरूरतों, उनके रहने-खाने का इंतजाम और उनकी सेहत की देखभाल का भी निर्देश दिया है। साथ ही यह भी कहा है अगर इस दिशा में कामकाज नहीं हो रहा है तो अगली सुनवाई में इस मुद्दे को ध्यान में लाया जाए। कोरोनावायरस से जुड़े मामलों में यह सुनवाई 3 अप्रैल को होगी।



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सीनियर एडव्होकेट मोनिका कोहली जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में एमिकस क्यूरी हैं। कोरोनावायरस से जुड़े मामलों में वे हाईकोर्ट की मदद करती हैं। लॉकडाउन के बाद वे घर से ही हाईकोर्ट की सुनवाई में हिस्सा ले रही हैं।




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हरिद्वार में फंसे थे गुजरात के 1800 लोग, रूपाणी के कहने पर उन्हें लॉकडाउन के बीच बसों से घर पहुंचाया गया

बात 28 मार्च की है। अहमदाबाद में रहने वाले मुकेश कुमार के मोबाइल पर एक मैसेज आया। यह मैसेज उनके ही एक दोस्त ने भेजा था। इसमें लिखा था कि ‘आज रात उत्तराखंड परिवहन की कई बसें अहमदाबाद पहुंच रही हैं। ये बसें कल सुबह वापस उत्तराखंड लौटेंगी, तुम भी इनमें वापस अपने घर लौट सकते हो।’

मुकेश मूल रूप से उत्तराखंड के ही रहने वाले हैं। बीते कुछ सालों से वे अहमदाबाद के एक होटल में नौकरी कर रहे थे। लॉकडाउन के चलते होटल बंद हुआ तो उनके रोजगार पर भी अल्पविराम लग गया। देश भर के तमाम प्रवासी कामगारों की तरह मुकेश का भी मन हुआ कि वे अपने गांव लौट जाएं। लेकिन सभी सार्वजनिक यातायात बंद हो जाने के चलते वे ऐसा नहीं कर पाए। फिर 28 मार्च को जब अचानक दोस्त का मैसेज आया कि उत्तराखंड परिवहन की गाड़ियां अहमदाबाद आ रही हैं तो पहले-पहल उन्हें इस पर विश्वास ही नहीं हुआ।

मुकेश को लगा कि उनके दोस्त ने शायद मैसेज भेजकर मजाक किया है। जब पूरे देश में यातायात ठप पड़ा है और सभी प्रदेशों की सीमाएं सील की जा चुकी हैं तो फिर उत्तराखंड परिवहन की बसें 1200 किलोमीटर दूर अहमदाबाद कैसे आ सकती हैं। दूसरी तरफ उनके मन का एक हिस्सा इस मैसेज पर विश्वास भी करना चाहता था और लगातार यही सोच रहा था कि शायद उत्तराखंड सरकार ने उन लोगों की मदद के लिए सच में कुछ बसें अहमदाबाद भेजी हों।

इसी रात मुकेश कुमार ने देखा कि उनके होटल के सामने की मुख्य सड़क पर सच में उत्तराखंड परिवहन की कई सुपर लग्जरी बसें कतारबद्ध बढ़ी आ रही हैं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने तुरंत ही उत्तराखंड के अपने अन्य प्रवासी साथियों से संपर्क किया और वापस अपने गांव लौटने की तैयारी करने लगे। मुकेश और उनके साथियों ने मिलकर इन बसों के ड्राइवर से वापस लौटने का समय भी मालूम कर लिया।

मुकेश कुमार बताते हैं- ‘अगली सुबह यानी 29 मार्च को करीब 10बजे हम सब लोग इन बसों के पास पहुंच गए। हम 13 साथी एक बस थे। हमारी बस के ड्राइवर ने फिर हमसे कहा कि तुम्हें ऋषिकेश तक का कुल 18 हजार रुपए किराया चुकाना होगा। ये हमें अजीब तो लगा लेकिन हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं था। मजबूरी थी इसलिए हम तैयार हो गए और हम 13 लोगों ने मिलकर तुरंत ही 18 हजार रुपए ड्राइवर को थमा दिए। हमें लगा था कि चलो इस मुश्किल वक्त में हम कम से कम किसी भी तरह अपने घर तो पहुंच जाएंगे। लेकिन वो भी नहीं हुआ।’

गुजरात से लौट रहे उत्तराखंड के लोगों को आधे रास्ते में ही छोड़ दिया गया।

मुकेश और उनके साथियों को उत्तराखंड परिवहन की इन बसों ने अहमदाबाद से बैठा तो लिया लेकिन उत्तराखंड पहुंचने से पहले ही रात के अंधेरे में किसी को राजस्थान तो किसी को हरियाणा में ही उतार दिया। असल में ये तमाम बसें गुजरात में फंसे मुकेश जैसे उत्तराखंड के नागरिकों को लेने नहीं बल्कि हरिद्वार में फंसे गुजरात के नागरिकों को छोड़ने अहमदाबाद गई थी।

गुजरात के मुख्यमंत्री के सचिव अश्वनी कुमार ने एक न्यूज एजेंसी को बताया- ‘गुजरात के अलग-अलग जिलों के करीब 1800 लोग हरिद्वार में फंसे हुए थे। केंद्रीय मंत्री मनसुखभाई मांडविया और मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के विशेष प्रयासों से इन लोगों को वहां से निकालकर इनके घर पहुंचाने की व्यवस्था की गई।’ इसी व्यवस्था के चलते उत्तराखंड परिवहन की कई गाड़ियां हरिद्वार से अहमदाबाद पहुंची थी। दिलचस्प है कि ये काम इतनी गोपनीयता से किया गया कि उत्तराखंड के परिवहन मंत्री तक को ये खबर नहीं लगी कि उनके विभाग की कई गाड़ियां लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों की सीमाओं को पार करते हुए 1200 किलोमीटर के सफर पर निकल चुकी हैं।

27 मार्च को जारी एक आदेश से मालूम पड़ता है कि उत्तराखंड परिवहन की ये गाड़ियां सीधे प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय के निर्देशों के तहत गुजरात भेजी गई थीं। इनका उद्देश्य हरिद्वार में फंसे गुजरात के लोगों को उनके घर पहुंचाना था। वापस लौटते हुए यही गाड़ियां वहां फंसे उत्तराखंड के लोगों को लेकर आ सकती थी, लेकिन ऐसा कोई भी आदेश उत्तराखंड सरकार की ओर से जारी नहीं हुआ।

वह आदेश जिसके तहत बसों को हरिद्वार से अहमदाबाद भेजा गया।

जब ये बसें हरिद्वार से रवाना होने लगी और यह खबर सार्वजनिक हुई तो यह मामला विवादों से घिरने लगा। सवाल उठने लगे कि जब लॉकडाउन के चलते पूरे देश में ही लोग अलग-अलग जगहों पर फंसे हैं और उत्तराखंड में भी कई अलग-अलग राज्यों के लोग फंसे हैं तो सिर्फ गुजरात के लोगों के लिए ही विशेष बसें क्यों चलाई जा रही हैं? इसके साथ ही यह भी सवाल उठे कि तमाम जगहों से उत्तराखंड के जो प्रवासी पैदल ही लौटने पर मजबूर हैं उनके लिए कोई बस अब तक क्यों नहीं चलाई गई? साथ ही यह सवाल भी उठने लगे कि जब अहमदाबाद के लिए बसें निकल ही चुकी हैं तो फिर ये बसें खाली वापस क्यों लौटें, वहां फंसे उत्तराखंड के लोगों को ही वापस लेती आएं।

यही वो समय था जब सोशल मीडिया पर ये बातें तेजी से फैलने लगीं। लिहाजा इन बसों के अहमदाबाद पहुंचने से पहले इनकी खबर वहां रहने वाले मुकेश कुमार जैसे तमाम लोगों तक एक उम्मीद बनकर पहुंच गई। अब उत्तराखंड सरकार पर भी दबाव बढ़ने लगा। राज्य के परिवहन मंत्री से इस संबंध में सवाल पूछे गए तो सामने आया कि उन्हें भी इन बसों के निकलने की कोई जानकारी नहीं थी।

दबाव बढ़ने पर उत्तराखंड सरकार ने यह एलान तो कर दिया कि वापस लौटती बसें गुजरात में रह रहे प्रवासियों को लेकर लौटेंगी, लेकिन इस दिशा में कोई पुख्ता कदम नहीं उठाए गए। नतीजा ये हुआ कि वहां से लौट रहे मुकेश कुमार जैसे दर्जनों उत्तराखंड के प्रवासी न तो घर के रहे न घाट के। ये तमाम लोग राजस्थान से लेकर हरियाणा के अलग-अलग इलाकों में अब तक भी फंसे हुए हैं।

रात करीब तीन बजेबस ड्राइवरों ने कई लोगों को हरियाणा बॉर्डर पर ही उतार दिया।

मुकेश और उनके साथी अब किस स्थित में और उन पर क्या-क्या बीती है, इस पर चर्चा करने से पहले इस मामले से जुड़े कुछ अन्य अहम सवालों पर चर्चा करना जरूरी है। ये सवाल उन लोगों से जुड़ते हैं जिनके चलते इस पूरे प्रकरण की शुरुआत हुई। यानी हरिद्वार में फंसे वे लोग जिन्हें वापस गुजरात छोड़ने के लिए बसें चलवाई गई।

बताया जा रहा है कि गुजरात के ये तमाम लोग किसी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने हरिद्वार पहुंचे थे। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के अपने प्रदेश से आए इन लोगों को उनका करीबी भी बताया जा रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के सचिव अश्वनी कुमार के आधिकारिक बयान से भी इतना तो साफ होता ही है कि जहां देशभर में लाखों लोग यहां-वहां फंसे हुए हैं, वहीं हरिद्वार में फंसे इन लोगों को सीधा गृह मंत्री के निजी हस्तक्षेप के बाद विशेष व्यवस्था करके निकाला गया है।

दूसरी तरफ मुकेश कुमार जैसे लोग है, जिन्होंने अपने प्रदेश की गाड़ियों को आता देख अपने घर लौट पाने की उम्मीद पाली थी, लेकिन वो अब तक भी अधर में लटके हुए हैं। मुकेश बताते हैं- ‘हम लोग रात करीब तीन बजे हरियाणा बॉर्डर के पास पहुंचे थे। हमारे ड्राइवर ने यहां पहुंच कर हमसे कहा कि आगे पुलिस का नाका लगा है और वो सवारी से भरी गाड़ियों को बॉर्डर पार नहीं करने दे रहे। ड्राइवर ने कहा कि तुम लोग उतरकर पैदल बॉर्डर के दूसरी आेर जाओ तो मैं तुम्हें फिर से बैठा लूंगा। हम उसकी बात मानकर उतार गए, लेकिन वो उसके बाद रुका ही नहीं। हमने सारी रात सड़क पर काटी। फिर कई किलोमीटर पैदल चलकर यहां बवाल (हरियाणा) पहुंचे और उस दिन से ही एक स्कूल में ठहरे हुए हैं। कोई गाड़ी हमें लेने नहीं आई जबकि हमने न जाने कितने अधिकारियों को फोन किए।’

गुजरात से लौटे उत्तराखंड के दर्जनों लोग बवाल (हरियाणा) के एक स्कूल में ठहराए गए हैं।

ऐसी ही स्थिति रुद्रप्रयाग के रहने वाले हिमालय और उनके साथियों की भी हैं। हिमालय गांधीनगर (गुजरात) के कृष्णा होटल में काम किया करते थे। बीती 29 मार्च को वे भी उत्तराखंड परिवहन की ऐसी ही बस से लौट रहे थे, लेकिन उन्हें उनके लगभग 40 अन्य साथियों के साथ राजस्थान के अलवर जिले में ही उतार दिया गया। ये सभी लोग अब भी वहीं फंसे हुए हैं और एक होस्टल में रह रहे हैं।

इनसे भी ज्यादा लोग राजस्थान के उदयपुर में फंस गए हैं। पुनीत कंडारी इन्हीं में से एक हैं जो अहमदाबाद रिंग रोड पर स्थित ऑर्किड नाम के एक होटल में काम किया करते थे। पुनीत बताते हैं- ‘हम कुल 49 लोग हैं। उस रात से ही यहां फंसे हुए हैं। बस वाले ने हमें आगे ले जाने से माना कर दिया और रात के अंधेरे में यहां बीच सड़क में उतार दिया था। पुलिस हमें यहां से भगा रही थी। हमें समझ नहीं आ रहा था क्या करें। फिर हमें अपने यहां के विधायक मनोज रावत जी को फोन किया। उन्होंने ही किसी से बोलकर हमारे रहने-खाने की व्यवस्था करवाई।’

केदारनाथ से कांग्रेस के विधायक मनोज रावत बताते हैं, ‘मुझे जब इन लड़कों का फोन आया तो मुझे पहले तो इनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। मुझे लगा कि जब सारा देश बंद है तो उत्तराखंड परिवहन की गाड़ियां गुजरात कैसे जा सकती हैं। फिर मैंने परिवहन मंत्री यशपाल आर्य जी को फोन किया लेकिन उन्होंने भी फोन नहीं उठाया। कई अन्य जगहों से जब पूरा मामला पता चला तो मैंने कोरोना के लिए नियुक्त हुए नोडल अधिकारी और प्रभारी मंत्री को पत्र लिखा कि इन सभी लोगों की तत्काल मदद की जाए। इसके बाद भी जब इन लोगों की वापसी की कोई राह नहीं बनी तो अंततः मैंने राजस्थान में रह रहे कुछ परिचितों से संपर्क किया फिर उन्होंने ही इन लोगों की व्यवस्था की।’

राजस्थान और हरियाणा के अलग-अलग शहरों में फंस चुके उत्तराखंड के ये प्रवासी कहते हैं- ‘गाड़ियां नहीं चल रही थी तो हम लोग गुजरात में ही रुके हुए थे। भले ही काम बंद था और पगार नहीं मिल रही थी, लेकिन हमारे रहने-खाने की व्यवस्था सेठ ने की हुई थी। हम लोगों ने तो जब ये देखा कि हमारे अपने प्रदेश की गाड़ियां गुजरात आई हुई हैं, तब हमने वापस लौटने की सोची।’ पुनीत कंडारी कहते हैं, ‘हम 14 दिन तक सब लोगों से अलग रहने को तैयार हैं, लेकिन हमें बस उत्तराखंड पहुंचा दिया जाए। यहां ऐसे अनजान इलाके में क्यों छोड़ दिया गया है? हमारे साथ जो हुआ है और हमें जिस स्थिति में छोड़ दिया गया है उसके बाद क्या हमारे मुख्यमंत्री कभी हमसे आंखें मिलाकर कह सकेंगे- आवा आपुण घौर।'

पलायन की समस्या से निपटने के लिए हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रदेश के बाहर नौकरी कर रहे तमाम युवाओं से अपील की थी – ‘आवा आपुण घौर', जिसका मतलब है- ‘आओ अपने घर।'



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उत्तराखंड परिवहन निगम के दस्तावेजों में बसों के हरिद्वार से गुजरात भेजे जाने की एंट्री भी है।




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उद्देश्य की ताकत व मजबूत दिमाग वाले ही करेंगे नेतृत्व, ‘फ्री अ क्वार्टर’ का सिद्धांत अपनाएं

नए वित्तीय वर्ष की शुरुआत हो गई है। संभवत: यह हमारी पीढ़ी में सबसे शांति से शुरू हो रहा वित्तीय वर्ष है। निश्चित ही यह हमारी पीढ़ी के सामने सबसे कठिन संक्रमण काल है, जिसका हमें सामना करना है। न तो बिजनेस पहले जैसा है और न जिंदगी पहले जैसी है। हम एक दुनिया में सोते हैं और अगले दिन बिल्कुल ही अलग दुनिया में उठते हैं। हम नहीं जानते कि यह समस्या कितनी बड़ी है। हम यह भी नहीं जानते कि हमारे पास इसका समाधान है भी कि नहीं। हर चीज बदल गई है। लंबे समय से मैं कहता रहा हूं कि स्पर्श प्रेम की भाषा है, लेकिन मैंने उम्मीद नहीं की थी कि दुनिया ऐसी स्थिति में आ जाएगी, जब स्पर्श न करने को प्रेम समझा जाएगा। सोशल आइसोलेशन को योगदान समझा जाएगा।

हम नहीं जानते कि कल कहां से आने जा रहा है। इन स्थितियों में विशेषकर उद्यमी वर्ग, जो यह सब कुछ होते हुए भी इस दुनिया को आगे ले जाने की ताकत रखता है। मैं आज भी आपको एक प्रचुरता वाले साल की शुभकामना देना चाहता हूं। लेकिन कैसे? पहली और सबसे महत्वपूर्ण, आपके दिमाग और आपके भावनात्मक धैर्य की शक्ति है, जो आपको आगे ले जाने वाली है और बदले में आपको, बाकी को आगे ले जाने में मदद मिलने वाली है। तमाम फैली हुई नकारात्मकता और कुछ के लिए जिंदगी और मौत जैसी स्थिति के बावजूद। इस बात का कोई भी संकेत नहीं है कि बहुत सारे लोगों के लिए कल कहां से आएगा। सवाल यह है कि मैं कैसे अब भी अपने भावनात्मक धैर्य को बनाए रख सकता हूं, कैसे दिमागी तौर पर ताकतवर हो सकता हूं? मुझे लगता है कि यह पूरा दौर ही लीडर्स की एक नई प्रजाति से दुनिया की पहचान कराने जा रहा है और मैं चाहता हूं कि आप उनमें से एक हों। मजबूरी में ही सही हमें मानना होगा कि हमें इस परिवर्तन या संक्रमण काल से गुजरना ही होगा। हममें से कुछ, जिनके पास उद्देश्य की ताकत, एक मजबूत दिमाग और सीधी भावनाएं होंगी, उन्हें आगे नेतृत्व करना होगा। उदाहरण के लिए कॉर्पोरेट्स में एक सिद्धांत है, जिसे एफएक्यू यानी ‘फ्री अ क्वार्टर’ कहते हैं। अनेक संस्थान 12 महीने के लिए खर्च की और यह सोचकर कि कुछ महीने कमजोर रहेंगे, नौ महीने में कमाई की योजना बनाते हैं। यह सोचकर कि इन 12 में से तीन महीने उच्च प्रदर्शन वाले नहीं होने जा रहे, इसके बावजूद हम किस तरह से नौ महीनों में ही पर्याप्त कमाई कर लें और मैं समझता हूं कि अब यह हम सब पर लागू होने जा रहा है।


हमें एफएक्यू पर सोचने की जरूरत है और मानना चाहिए कि चीजें धीरे-धीरे जून से गति में आ जाएंगी और अक्टूबर से इससे भी बेहतर करना शुरू कर देंगी। हो सकता है कि इसे दोबारा पीक पर आने में एक या डेढ़ साल लग जाए। और जब यह होगा तो हमारी रणनीतिक सोच क्या हो सकती है? हम अवसर प्रबंधन कैसे करेंगे? हम संसाधनों का अधिकतम प्रभावी इस्तेमाल कैसे करेंगे? हम संस्थान के इस दर्द को समाज के साथ कैसे साझा करेंगे? हम इस रूपक से इसे समझ सकते हैं कि जब कोई युवा आईएएस या चार्टड अकाउंटेंट बनने के लिए पूरे साल तैयारी करता है और परीक्षा को पास नहीं कर पाता। उनको खुद से यह कहना होता है कि घड़ी की सूई सालभर या छह महीने रीसेट हो गई है। इसके बाद जब वे फिर से फोकस करके मेहनत करते हैंऔर विजयी होते हैं तो सफलता की खुशी में खोया हुआ समय वे भूल जाते हैं। ऐसे ही हममें से कई को एक तिमाही या छमाही या फिर पूरे एक वित्तीय वर्ष के लिए रीसेट करना पड़ सकता है। आने वाले सालों में हमें ऐसे ही फिर से बाउंस बैक करना होगा, जैसे हम दूसरे विश्वयुद्ध, भारत की आजादी, सुनामी या फिर वित्तीय संकट की चुनौतियों से उबरे। लेकिन अगर आपका व्यक्तित्व बिखरा है, आपके भीतर का लीडर विचलित है, अगर आपने बाकी सब लोगों की तरह सोचना शुरू कर दिया है तो आप भी बाकी सब की तरह दफा हो जाएंगे।

अगर भीड़ से ऊपर उठकर एक पुरुष या महिला की तरह खड़े होने का कभी कोई समय हो सकता है, तो यह वही है। अगर कभी दुनिया को अपनी सोच की गुणवत्ता, भावनाओं की दृढ़ता और उद्देश्य की ताकत से हराने का कोई समय हो सकता है तो यही है। मिलकर मजबूत बनें, मजबूत इच्छाशक्ति रखें, भविष्यवादी रहें और जब ये सब चीजें ठीक हो जाएंगी, हम फिर रेंगना शुरू कर देंगे और हमेंफिर से चलना होगा, हमें फिर से भागना होगा और हमें फिर से तेज दौड़ लगानी होगी। और दूसरी तरफ हमारे पास दुनिया को बताने लिए प्रेरक कहानियां होंगी कि हमने किस तरह से बाउंस बैक किया। इस पूरे समय का इस्तेमाल अपने बिजनेस मॉडल को रिन्यू करने में लगाएं, अपनी रणनीतियों पर दोबारा देखें और पैदा होने वाली नई दुनिया के लिए तैयार रहें। और नई दुनिया के नए लीडर बनने के लिए तैयार रहें। मिलकर हमें इस दौर से निकलना है।
(महात्रया रा के यूट्यूब चैनल से साभार)



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महात्रया रा, आध्यात्मिक गुरु




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नए शोधों से कोरोना संकट से लड़ने की उम्मीद जागी

पिछले 72 घंटों की तीन खबरों ने दुनिया में भय की बढ़ती काली छाया को कुछ कम किया है और ये भारत के लिए खासतौर पर उत्साहवर्धक रही हैं। एक अप्रकाशित ताजा अमेरिकी शोध कहता है कि भारत में कोरोना का असर कम रहेगा, क्योंकि यहां 1948 से ही टीबी निरोधक टीका, बीसीजी लगाने का अभियान चल रहा है। इस टीके का प्रमाण आपकी बांह पर एक निशान के रूप में ताउम्र विद्यमान रहता है।

ब्राजील, जापान और चीन सहित अन्य कई मुल्कों ने भी इस टीकाकरण अभियान को लागू किया, जबकि यूरोप के देशों और अमेरिका ने यह अभियान नहीं चलाया। शोधकर्ताओं का मानना है कि कोरोना वायरस की संहारक क्षमता के तमाम देशों के आंकड़े इस अवधारणा की पुष्टि करते हैं। उधर, ह्यूस्टन मेथोडिस्ट हॉस्पिटल ने एक प्रयोग किया, जिसकी सफलता की संभावनाएं देखते हुए अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने इसे देशभर में लागू करने की अनुमति दी है। लांसेट इन्फेक्शंस डिसीजेज के एक अध्ययन में भी इसे सही कदम माना गया है। दरअसल, इस अस्पताल ने पाया कि कोरोना से जो मरीज ठीक हो रहे हैं, उनके शरीर में एक किस्म का एंटीबॉडी (उन रोगाणुओं से लड़ने वाला प्रोटीन) विकसित हो रहा है।

अस्पताल के शोधकर्ताओं ने सोचा कि अगर ठीक हुए व्यक्ति का खून या प्लाज्मा लेकर कोरोना से पीड़ित को चढ़ाया जाए तो रोगी ठीक हो सकता है। पिछले सप्ताह कुछ मरीजों पर यह प्रयोग किया गया जिसके परिणाम उत्साहवर्धक थे। इस चिकित्सा पद्धति को ‘रोग-मुक्त प्लाज्मा थैरेपी’ कहते हैं। हांगकांग ने सार्स के खिलाफ 2005 में और स्वाइन फ्लू (एच1एन1) के इलाज़ के लिए अनेक मुल्कों ने इस थैरेपी का प्रयोग किया था। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की शोध पत्रिका ने पाया कि इस थैरेपी से रोगी के सांस की नली में वायरल लोड काफी नीचे आ जाता है और मौत की दर कम हो जाती है।

तीसरी उत्साहवर्धक खबर संयुक्त राष्ट्र वाणिज्य एवं व्यापार संगठन (अंकटाड) की रिपोर्ट से है, जिसमें पूरी दुनिया के लिए कोरोनाजनित आसन्न आर्थिक संकट का जिक्र है, लेकिन कहा गया है चीन और भारत इस संकट से ज्यादा प्रभावित नहीं होंगे। हालांकि, संस्था ने इस आशावादिता का कारण तो नहीं बताया, लेकिन माना जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड तेलों के लगातार गिरते दाम भारत की अर्थव्यवस्था की गिरावट में गद्दे का काम करेगा।



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New researches hope to fight corona crisis




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आइए शहर को खुशहाल बनाने की प्रतियोगिता में भाग लें

पुणे के औंध की निवासी 73 वर्षीय शर्मिला भावे और उनके 76 वर्षीय पति रिटायरमेंट के बाद शांतिपूर्ण जीवन जी रहे थे। उनकी इकलौती बेटी बेंगलुरु में रहती है। भावे मुख्य रूप से पुणे में इसलिए रह रहे थे क्योंकि इस शहर को ‘पेंशनर्स पैराडाइज’' कहा जाता है, जोकि काफी हद तक सही भी है। उनके पास इतनी बचत है कि वो अपनी जरूरत के हिसाब से घर के काम करने वालों को रख सकते हैं। कई बीमारियों की वजह से वे खाना पकाना या साफ-सफाई का काम नहीं कर सकते थे और ये उनके और उनकी बेटी के लिए अब तक चिंता का विषय नहीं रहा था। लेकिन अब स्थिति बदल गई थी। अभूतपूर्व कोरोना वायरस महामारी के चलते अचानक आए इस कड़े लॉकडाउन ने न केवल समाज के कई वर्गों की हालत को बद्तर कर दिया है, बल्कि ऐसे वरिष्ठ नागरिकों को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है।

काले बादलों के पीछे से आती किरण की तरह इस अनिश्चित समय में दयालुता के कई कार्यों के बीच, बनेर-बालेवाडी रेसीडेंट्स एसोसिएशन के सदस्यों ने अपने इलाके में कम से कम 350 वरिष्ठ नागरिकों की सहायता करने के लिए कदम उठाया है। वे उनको तीन वक्त के खाने से लेकर चिकित्सा सुविधाएं भी दे रहे हैं। साथ ही वे उन बुजुर्गों को ज्यादा से ज्यादा व्यस्त रखने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वे लॉकडाउन के दौरान ज्यादा तनाव न लें।

क्षेत्र आधारित इसे एसोसिएशन के सदस्य, जिसमें करीब एक हजार लोग हैं, उन्होंने उन बुजुर्गों को ढूंढा है जो अकेले रहते हैं और उनके पास मदद के लिए कोई जवान व्यक्ति नहीं है। कम से कम 75 परिवारों ने उनके लिए रोज सादा, पौष्टिक और साफ भोजन पकाने की जिम्मेदारी ली है। कई वॉलंटियर, जिसमें ‘वर्क फ्रॉम होम’ करने वाले भी हैं, समय निकाल कर आसपास के बुजुर्गों के घरों में जाकर उनकी मदद करते हैं और साथ ही कोरोना वायरस से लड़ने के लिए पूरी सावधानी भी रखते हैं। इस पहल को व्यवस्थित बनाने के लिए नेक लोग रोज वरिष्ठ नागरिकों के साथ बात करते हैं, उनकी अलग-अलग कठिनाइयों को समझते हैं और उनकी चिंताओं को हल करने की कोशिश कर रहे हैं।

पुणे के एक और इलाके, कोथरूड के निवासियों ने ज्यादातर बिल्डिंगों के लिए सप्ताह में दो बार सब्जी लाने का फैसला किया है। उन्होंने किसानों के साथ बात की है और उन्हें एक दिन में कम से कम 300 खरीद की गारंटी दी है, जो किसी भी बाजार की बिक्री से अधिक है। उन्होंने अंतिम समय पर कीमत में उतार-चढ़ाव का सामना न करने के लिए मूल्य चार्ट भी तैयार किए हैं। बाजार लगने से एक दिन पहले इस चार्ट को सभी निवासियों को वाट्सएप पर भेज दिया जाता है। उनका उद्देश्य न केवल सब्जी मंडियों में भीड़ को रोकना है, बल्कि सदस्यों को सुरक्षित रखना और सभी को सही दाम पर आवश्यक वस्तुएं प्रदान करना है। इस पहल ने किसानों की परेशानी को भी खत्म कर दिया है और वे सुनिश्चित ग्राहक पाकर खुश हैं। किसानों को मंडी में व्यापारियों को अपनी सब्जियां बेचने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करनी पड़ती है। एक पक्के ग्राहक के होने से उन्हें भी पता रहता कि उन्हें सब्जियों की कितनी मात्रा लानी चाहिए। दलाल के न होने से कीमत अपने आप कम हो जाती है। इसलिए किसान यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वे सबसे ताजा फसल सोसाइटी द्वारा हफ्ते में दो बार चलाए जा रहे बाजारों में लाएं।

ऐसे समय में जब माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे कामों में उलझाए रखने में संघर्ष कर रहे हैं, पुणे की दो महिलाओं ने 21 दिन की ड्रॉइंग प्रतियोगिता की पहल की है, जिसमें बच्चों को 21 दिनों के लिए रोज एक ड्रॉइंग देनी होगी। गृहिणी अंकिता पोरवाल और इंटीरियर डिजाइन की छात्रा, प्रियंका पाटिल ने डीवाई पाटिल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की एक प्रोफेसर, भावना अंबुडकर की सलाह लेकर एक प्रतियोगिता शुरू की है। प्रतियोगिता में विभिन्न आयु समूहों के दो बैच हैं ओर जीतने वाले को रोज इनाम दिए जाते हैं। जहां एक समूह किंडरगार्टन के बच्चों से लेकर छठी कक्षा के बच्चों के लिए है, वहीं दूसरा समूह 7वीं से 10वीं कक्षा के बच्चों के लिए है।

फंडा यह है कि जैसे हम स्वच्छ भारत अभियान प्रतियोगिता में योगदान देते हैं, उसी तरह इस लॉकडाउन के समय में वक्त है हमारे शहर को खुशहाल बनाने की प्रतियोगिता में भाग लेने का।



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प्रतीकात्मक




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धारावी झोपड़पट्‌टी से बकिंघम पैलेस तक

खबर है कि इंग्लैंड के प्रिंस चार्ल्स भी कोरोना से पीड़ित हैं और इलाज से उन्हें लाभ हो रहा है। इंग्लैंड के मेडिकल कॉलेज में अंतिम वर्ष के छात्रों को पास घोषित करके अस्पतालों में तैनात किया गया है। दशकों पूर्व टी.एस.इलियट ने विलक्षण कविताएं लिखी थीं। उन्हें साहित का नोबेल पुरस्कार दिए जाने के समय उनके काव्य ‘वेस्टलैंड’ का उल्लेख किया गया। ज्ञातव्य है कि विष्णु खरे ने ‘वेस्टलैंड’ एवं अन्य कविताओं का अनुवाद हिंदी में किया था और उस समय विष्णु खरे की आयु मात्र 20 वर्ष थी टी.एस.इलियट पर पूर्व की संस्कृति का गहरा प्रभाव था। वे एकमात्र अंग्रेज कवि हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में हमेशा ‘गंगा’ और ‘हिमवत’ लिखा, जबकि अन्य साहित्यकार ‘गेनेजीस’ और ‘हिमालय’ लिखते रहे। जब बामनों ने यह फतवा जारी किया कि देव भाषा संस्कृत का अध्ययन अन्य वर्गों के लोग नहीं कर सकते, तब से ही विश्व की एक महान भाषा का विलोप होने लगा। संस्कृत इतनी समृद्ध भाषा है कि उसमें प्रकृति का विवरण देने के लिए आठ हजार से अधिक शब्द हैं।

बहरहाल, टी.एस.इलियट ने एक अलग संदर्भ में लिखा कि अप्रैल क्रूरतम मास है जब बकाइन के पत्ते खून से लाल होने लगते हैं। दरअसल, अप्रैल में बकाइन के पत्ते लाल रंग के होे जाते हैं। कोई महीना क्रूर या दयालु नहीं होता। महीनों को महत्व मनुष्य ही देता है।

इंग्लैंड का प्रिंस हेनरी और बैकेट गहरे मित्र थे। सिंहासन पर विराजमान होते ही हेनरी ने अपने बचपन से मित्र बैकेट को चर्च का उच्चतम अधिकारी नियुक्त किया। उस दौर में प्रशासन और सेना पर राजा का अधिकार था और न्यायालय चर्च के अधिकार में थे। हेनरी अपने मित्र को चर्च का अधिकारी नियुक्त करके निरंकुश शासक बनना चाहता है। तानाशाह बनने की प्रक्रिया एक आंकी-बांकी रेखा की तरह होती है। बैकेट ने अपने मित्र को आगाह किया कि चर्च के शिखर पर बैठते ही वह निष्पक्ष हो जाएगा और वर्षों की मित्रता समाप्त हो सकती है। इस चेतावनी के बाद भी हेनरी ने बैकेट को नियुक्त किया। उनमें टकराहट भी हुई और हेनरी ने बैकेट का कत्ल करा दिया।

उपरोक्त घटना से प्रेरित होकर टी.एस.इलियट ने ‘मर्डर इन कैथ्रेडल’ नामक काव्य की रचना की और उससे प्रेरित फिल्म भी बनी, परंतु इसी विषय पर बनी अन्य फिल्म ‘बैकेट’ में रिचर्ड बर्टन और पीटर ओ' टूल ने अभिनय किया। रिचर्ड बर्टन ने राजा की भूमिका और पीटर ओ'टूल ने बैकेट की भूूमिका अभिनीत की थी। इस फिल्म में अपनी भूमिका के कारण पीटर ओ'टूल छा गए।

टी.एस. इलियट की ‘मर्डर इन कैथ्रेडल’ में टेम्पटर दृश्य अभूतपूर्व बन पड़ा। घटनाक्रम है कि राजा ने चार व्यक्तियों को बारी-बारी से बैकेट के पास भेजा। उसे भांति-भांति के प्रलोभन दिए गए। वह टस से मस नहीं हुआ। चौथे ने बैकेट से कहा कि वह जानकर शहीद हो जाना चाहता है और शहादत के माध्यम से अमर हो जाना चाहता है। वह जानता है कि शहादत के बाद उसका निर्वाण दिवस एक महान उत्सव बन जाएगा। उसकी महानता पर साहित्य रचा जाएगा। सरकारी छुट्‌टी घोषित होगी। इस तरह टी.एस.इलियट शहादत के खोखलेपन को उजागर करते हैं। यह बात सभी शहीदों पर लागू नहीं होती। मसलन शहीद भगतसिंह और साथियों पर यह लागू नहीं होती।

ज्ञातव्य है कि ऋषिकेश मुखर्जी ने फिल्म ‘बैकेट’ से प्रेरित अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना अभिनीत ‘नमकहराम’ बनाई थी। बाबू मोशाय की ‘आनंद’ में दोनों कलाकार अभिनय कर चुके थे। आनंद तो पूरी तरह राजेश खन्ना की फिल्म मानी गई, परंतु ‘नमक हराम’ में अपनी भूमिका में निहित सीमाओं के बावजूद अमिताभ ने बहुत प्रभावित किया।

कोरोना ने एक अजीबोगरीब किस्म के समाजवाद को रेखांकित किया है, उसने मुंबई के स्लम धारावी से लंदन के बकिंघम पैलेस तक किसी को नहीं छोड़ा। टी.एस.इलियट की एक कविता में इस आशय की बात प्रस्तुत की गई है कि मनुष्य, देवता व राक्षस हिमवत पर दिशा-निर्देश के लिए जाते हैं। बादल घिर आते हैं। दा दा दा की गर्जना होती है। एक ही ध्वनि तीन बार होती है और सब अपनी-अपनी रुचियों के अनुरूप अर्थ निकालते हैं। दानव दमन के मार्ग पर, देवता धर्म के मार्ग पर, मनुष्य दया के मार्ग पर चल पड़ते हैं। कोरोना कालखंड में मनुष्य केवल दया करे- स्वयं पर और अपने हमसफर पर। एक शेर याद आता है- ‘दरिया में तलातुम (तूफान) हो तो बच सकती है कश्ती?’
‘आवारा’ में शैलेंद्र का गीत है- ‘सावधान सावधान तेरी कश्ती में है तूफान..’।



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इंग्लैंड के प्रिंस चार्ल्स भी कोरोना से पीड़ित हैं




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जिस डॉक्टर ने कोरोना मरीजों के सैम्पल लिए, उन्हें संक्रमण हुआ; पत्नी, पिता और नौकर की रिपोर्ट भी पॉजिटिव

...‘मुझे समझ नहीं आ रहा हो क्या रहा है? मेरे पति मुझे इन्फॉर्म कर रहे हैं। हम तीन लोग पॉजिटिव हैं और यहां पर कोई नहीं आ रहा हमारी मदद के लिए। अथॉरिटीज से एक फोन भी नहीं आया। एक एंबुलेंस बाहर खड़ी है और वो कह रहे हैं आप तीनों आकर बैठ जाओ। अंदर एक लेडी है, जिसके लिए हम चार दिन से चीखरहे हैं किवो हार्ट अटैक से मर जाएगी। वो खुद अपने घर से ये वायरस नहीं लेकर आई है। उसका बेटा अस्पताल की लापरवाही की वजह से बीमार हुआ है, क्योंकि उसे पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट नहीं दिए गए थे। उसकी वजह से ये सब हुआ है। वो अस्पताल में है। अंदर पापा बीमार हैं। कोई हमें इंसान क्यों नहीं समझ रहा।'


ये शब्द उस पत्नी के हैं, जिसकापति जम्मू के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज यानी जीएमसी के माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट में सीनियर डॉक्टर है। एक डॉक्टर होने के नाते उसका पति कोरोना संक्रमितों के सैम्पलकलेक्ट करता था, लेकिनअब खुद उसकी कोरोना टेस्ट की रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। डॉक्टर के अलावा बुधवार शाम को उनके पत्नी, पिता और उनके घर पर काम करने वाले नौकर भी कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। इन सभी को जम्मू के एक अस्पताल के आइसोलेशन वॉर्ड में रखा गया है।


उनकी पत्नी भी डॉक्टर हैं। उनका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। ये वीडियो उनकी कोरोना रिपोर्ट आने से पहले रिकॉर्ड किया गया था। इस वीडियो में पत्नी आगे कहती हैं, ‘हम तीन दिन से क्वारैंटाइन में हैं। सुबह हमारे सैंपल लिए थे। अभी मेरे पति मुझे बता रहे हैं कि उन्हें फोन आया है। हम पॉजिटिव हैं। मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मुझे लेना-देना है मेरी फैमिली से क्योंकि हमने कुछ नहीं किया है। हमने खुद सब सावधानी बरती थी। मेरे पति बीमार हैं क्योंकि अस्पताल में उन्हें पीपीई नहीं मिली थी। अगर किसी को कुछ हो जाता है तो मैं जवाबदेही किससे मांगूंगी? मुझे किसी पॉलिटिक्स से कुछ लेना-देना नहीं है।'

सोशल मीडिया पर ये वीडियो वायरल हो रहा है

अस्पताल ने कहा- वे कोरोना टेस्टिंग टीम का हिस्सा नहीं थे

जीएमसी अस्पताल के मायक्रोबायोलॉजी विभागाध्यक्ष ने गैर जिम्मेदाराना बयान दिया था। जम्मू के स्थानीय अखबार डेली एक्सेलशियर को दिए बयान में डॉ शशि एस सूदन ने कहा था कि यह डॉक्टर कोरोना वायरस टेस्टिंग टीम का हिस्सा ही नहीं थे। टीम ये पता लगाने की कोशिश कर रही है कि वह और उनका परिवार ईरान सउदी अरब या इंडोनेशिया से आए किसी व्यक्ति के संपर्क में तो नहीं आया। माना जा रहा था कि उन्हें अस्पताल में ड्यूटी के दौरान नहीं कहीं बाहर से इंफेक्शन लगा है। जबकि जीएमसी अस्पताल के ड्यूटी रोस्टर में लिखा है कि डॉक्टर 13 से 19 मार्च के बीच ड्यूटी पर थे। इस दौरान उनके साथ माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट के स्टाफ के तीन लोग भी थे। उनकी टीम कोरोना संक्रमित मरीजों के सैंपल इकट्ठे कर रही थी। डॉक्टर के परिवार के एक करीबी दोस्त बताते हैं ‘एक दिन ड्यूटी से घर लौटने के बाद उनमें कोरोना के कुछ सिम्प्टम्स नजर आए। टेस्ट करवाया तो 30 मार्च को उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव भी आई।' डॉक्टर की रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद माइक्रोबायोलॉजी लैब के स्टाफ मेंबर्स को भी क्वारैंटाइन कर दिया गया है।

जीएमसी का ड्यूटी रोस्टर। इसमें सबसे ऊपर उसी डॉक्टर का नाम लिखा है, जो कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। वे 13 से 19 मार्च तक ड्यूटी पर थे।

जम्मू-कश्मीर में कोरोना के 67 मरीज, ज्यादातर तब्लीगी जमात से लौटे

अभी तक जम्मू-कश्मीर में कोरोना के 70केस सामने आ चुके हैं। जिसमें से 53कश्मीर से और 17 जम्मू से हैं। दो मरीजों की मौत भी हुई है। जबकि, जम्मू के दो मरीज पूरी तरह ठीक हो चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के 8 जिलों के 30 से ज्यादा गांवों को सरकार ने ‘रेड जोन' घोषित कर दिया है। इन इलाकों में लोगों में घरों से निकालने की सख्त मनाही है।


फिलहाल, 52 मरीजों को अस्पताल के आइसोलेशन वॉर्ड में रखा गया है। 516 मरीज अस्पताल में क्वारैंटाइन रखे गए हैं। जबकि, 3 हजार 961 लोगों को घरों पर ही निगरानी में रखा गया है। यहां अब तक 977 लोगों के सैंपल को टेस्ट किया जा चुका है, जिसमें से 911 की रिपोर्ट निगेटिव आई है।


सरकार ने अभी तक 2000 से ज्यादा उन लोगों की पहचान की है, जो कोरोना संक्रमितों के संपर्क में थे। कोरोना को फैलने से रोकने के लिए इन सभी का टेस्ट किया जाएगा। पॉजिटिव केस में ज्यादातर वही लोग हैं, जो नई दिल्ली के निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात में शामिल हुए थे। सरकार ने ट्रैवल हिस्ट्री छिपाने के आरोप में 10 लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी शुरू कर दी है।



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अभी तक जम्मू-कश्मीर में कोरोना के 70 केस सामने आ चुके हैं, जिसमें से 53 कश्मीर से और 17 जम्मू से हैं।




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कोविड-19 ने बदले हमारे कल के सिद्धांत, भविष्य को लेेकर जरा भी आश्वस्त नहीं हैं

(पत्रकार दैनिक भास्कर के लिए इटली से विशेष)कोविड-19 ने हमारी जिंदगी को बदल दिया है। अब हमारी जिंदगी दो अध्यायों में बंट रही है, एक कोरोना से ‘पहले’ और एक कोरोना के ‘बाद’। हमारे कल के सिद्धांत बदल गए हैं। इस हेल्थ इमरजेंसी से पहले हम सभी अपने भविष्य के बारे में इस तरह से सोचने के अादी थे कि यह तो होगा ही। एक यात्रा, कोई अन्य अनुभव या फिर कोई भी फैसला हो। लेकिन अब यह मानना कि भविष्य में सब कुछ योजना के मुताबिक नहीं होगा, इसकी वजह यह धक्का है। कम से कम हमारे दिमाग में तो कोविड-19 ने यह सब कुछ बदल दिया है। यह हमें याद दिलाता है कि कुछ योजना नहीं बनाई जा सकती। यह वायरस अब धक्का नहीं है, यह अब हमारी रोज की जिंदगी का हिस्सा बन गया है और हमें अब इसके साथ जीना सीखना है। लॉकडाउन का अगला दिन, जिसने हमें सोशल डिस्टेंस सिखाया, गुजारना मुश्किल था। हालांकि, अब री-ओपनिंग धीरे-धीरे होगी। हम सब सोचेंगे कि पहले क्या करना चाहिए। सच तो यह है कि हममें से कोई नहीं जानता कि इसके बाद का दिन या कहें कि कई दिन कैसे होंगे।

कोविड-19 ने हमारी आदतों और हमारे एक-दूसरे से संबंध रखने के तरीकों को बदल दिया है। इस महामारी से हम पर जो असर हुआ है, वह महत्वपूर्ण है और वह वैक्सीन के बनने के बाद भी बना रहेगा। यह डर हमेशा बना रहेगा कि कोई ऐसी चीज है जो बहुत तेजी से फैल सकती है और हमारे जीवन को खतरे में डाल सकती है। मास्क पहनना फैशन बन जाएगा। शायद हमारे पास ऐसे एप होंगे जो कोविड-19 से संक्रमित व्यक्ति या ऐसी जगह के बारे में बताएंगे, जहां पर दस से अधिक व्यक्ति जमा होंगे। कामकाजी लोगों की दुनिया बदल जाएगी। खुले और बड़े ऑफिस छोटे-छोटे ऑफिसों में बदल जाएंगे, जहां पर सिर्फ दो या तीन लोग काम कर रहे होंगे। यातायात भी बदल जाएगा। अभी तक चाहे ट्रेन हों, विमान हों या बसें, कंपनियां अधिक से अधिक स्थानों तक उन्हें ले जाती थीं, ताकि उनकी क्षमता बढ़ सके। लेकिन, शायद अब क्षमता का आकलन सुरक्षा, इस मामले में स्वास्थ्य सुरक्षा से होगा और निश्चित ही इससे कीमत तो बढ़ेगी ही। कैटरिंग उद्योग यानी बार, रेस्टोरेंट को भी इसी तरीके से काम करना होगा यानी अब भीड़भाड़ वाली जगहें नहीं होंगी, बल्कि अब टेबल दूर-दूर होंगी। आने वाले कल में ऐसा होगा और यह लंबे समय तक चलेगा। कोविड-19 एक ऐतिहासिक क्षण लेकर आया है, यह आधुनिक जीवन का एक टर्निंग पॉइंट है। बड़ी घटनाएं केवल नकारात्मक प्रभाव ही नहीं डालतीं, बल्कि उसका सकारात्मक असर भी होता है। लेकिन मिलान में रहने वाली एक इटैलियन के लिए आज कुछ भी सकारात्मक देखना मुश्किल है। कभी यह चर्चा होती थी कि लोग आज की भीड़-भाड़ वाली जिंदगी में कितने फंसे हुए हैं, वे अपने लिए कितना कम समय निकाल पाते हैं। नई पीढ़ियों को अक्सर यह उलाहना सुनना पड़ता था कि वे जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों की सराहना नहीं करते हैं। कई बार हमने अपने दादा-दादी या नाना-नानी से सुना है कि ‘यह पहले ज्यादा अच्छा था’।

कोविड-19 ने हम पर क्वारेंटाइन का लंबा समय लाद दिया है। हममें से किसी ने शायद ही पहले कभी इस तरह की बंदिशों का अनुभव किया हो। हम सब अपने घरों में हैं। हममें से अनेक लोग अपने परिवारांे, माता-पिता, भाई-बहनों के साथ नहीं हैं। ‘उसके बाद’ हमें पहला काम यह करना चाहिए कि हमें अपने करीबियों या प्रियजनों से मिलने जाना चाहिए। इस क्वारेंटाइन में हमें उन चीजों की सराहना करना सिखाया है, जिन्हें हम पहले एेसे ही समझ लेते थे। जब आदमी तालांे में बंद है तो प्रकृति खुलकर बाहर आ गई है। हमने हल्के पीले दिख रहे बीच, बंदरगाहों पर तैरती डॉल्फिनों, तालाबों में नहाते भालू के छोटे-छोटे बच्चों, खाली पड़े हुए पार्कों में घूमते खरगोशों की फोटो देखी हैं और हमने इन्हें पसंद किया है। इसने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है।

जब यह क्वारेंटाइन खत्म होगा तो हमें इस बात के प्रति सतर्क रहना होगा कि प्रकृति का यह जादू या आकर्षण बरबाद न हो जाए। निश्चित ही दुनिया के देशों को खुद को फिर से शुरू करना होगा, लेकिन यह प्रकृति और वातावरण को सम्मान देकर हो सकता है। ग्रेटा थनबर्ग की बात को अनसुना किया गया। कोविड-19 को हर किसी ने सुना और यह हम सबके लिए एक चेतावनी भी है। कोविड-19 ने हम सभी को एक-दूसरे की एकजुटता और एक-दूसरे के महत्व को दोबारा से समझाया है। यही नहीं इसने तमाम दुनिया को हेल्थ केयर के महत्व के पुनर्मूल्यांकन को कहा है। पिछले सालों में तमाम अन्य रणनीतिक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर धन का निवेश किया गया। हेल्थकेयर भी अब रणनीतिक क्षेत्र है। यह कोविड-19 से मिला एक और सबक है। इसके ‘बाद का दिन’ अनिश्चितताओं से भरा है। लोगों को अनेक बड़ी समस्याओं को सुलझाना होगा, नाटकीय दुष्परिणामों के साथ सामाजिक वर्गों के बीच दूरी बढ़ेगी। लेेकिन कोविड-19 हमें सिखाएगा वह है गठबंधन, एकजुटता व मानवता की ताकत। हमें इसे भूलना
नहीं चाहिए। (यह लेखिका के अपने विचार हैं।)




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Kovid-19 changed our principles of tomorrow, we are not at all confident about the future




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काेरोना के बारे में अत्यधिक जानकारी व सूचनाएं कोई और खतरा तो खड़ा नहीं कर रही हैं?

हमें यह याद रखना चाहिए कि जानकारी से ही हमारे विचार बन रहे हैं। अगर हम लगातार एक ही जानकारी लेते रहे तो हमारा भय बढ़ जाएगा। काेरोना वायरस के दौर में हमें ध्यान रखने की जानकारी लेनी है न कि इससे होने वाले नुकसान की। कोरोना के बारे में जानने के लिए हम दिन में 15 मिनट भी समाचार सुनेंगे ताे हमें पता लग जाएगा कि दुनिया में क्या हो रहा है। लेकिन अगर हर 15 मिनट के बाद कोरोना के बारे में सुनेंगे, उसका विजुअल देखेंगे और फिर उसके ही बारे में सोचेंगे, फिर अगले एक घंटे तक उसके ही बारे में बात करेंगे तो पूरी ऊर्जा सिर्फ बीमारी, मृत्यु, आतंकित और चिंता करने वाली हो जाएगी। अगर हमने लगातार वही देखा, वही पढ़ा, वही मैसेजेज चार बार सुन लिए। फिर सिर्फ सुना और पढ़ा ही नहीं, औरों को भी सुनाया। औरों को भी भेजा। इससे तो हम लोगों के मन में डर और चिंता को कई गुना बढ़ा रहे हैं। वो वायरस इतना डर और चिंता पैदा नहीं कर रहा है, जितना ये मैसेजेज एक-दूसरे को भेजने से पैदा हो रहा है।

सूचना का यह आदान-प्रदान हमारे मन पर प्रभाव डाल रहा है और हमारा मन हमारे शरीर को प्रभावित कर रहा है। जब हमारा मन और शरीर दोनों कमजोर हो जाएंगे तो हमारे ऊपर उस बीमारी के होने की संभावना बढ़ जाती है। जब हम इतनी सारी सावधानियां एक-दूसरे को सुना रहे हैं, शेयर कर रहे हैं तो सबसे बड़ी सावधानी तो ये होनी चाहिए कि हमें इससे संबंधित किसी को मैसेज न भेजना है और न ही सुनना है। डॉक्टर ने हमें जो बताना है, सरकार ने हमें जो बताना है वो एक छोटे से नोट में आ जाएगा। उसके लिए इतने सारे वीडियो, इतने सारे ऑडियो, इतने सारे मैसेजेज, इतने सारे डेटा को जानने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की जानकारी से बचाव नहीं होता, बल्कि रिस्क फैक्टर और ज्यादा बढ़ जाता है। हमें लगता है कि भय क्या कर सकता है, भय होना तो नैचुरल है। जबकि भय हमारे भावनात्मक स्वास्थ्य को कमजोर कर रहा है। थोड़ी देर का भय प्राकृतिक है, लेकिन यहां तो स्थायी हो गया न।

माना हम गाड़ी में कहीं जा रहे हैं अचानक सामने से एक गाड़ी आती है। तो थोड़ी देर के लिए हमें डर लगता है कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाए। लेकिन ये भय कितनी देर का होता है, पांच मिनट, ज्यादा से ज्यादा वो आपके मन पर एक घंटा और रह जाएगा या एक दिन आप उसे नहीं भूलेंगे। लेकिन, यहां तो हमें कोई भूलने ही नहीं दे रहा है। आप इस वायरस को थोड़ी देर के लिए भूलने की कोशिश भी करते हैं तो दस मिनट के बाद कोई न कोई बहुत ही प्यार से आपको याद दिला ही देता है। किसी चीज के बारे में अगर हम सिर्फ वही सोचेंगे और वही बोलेंगे तो वो तो हमारे मन में बैठ जाएगा। पिछले एक महीने से हम भय, चिंता, तनाव से डर-डरकर ही तो जी रहे हैं। जब ये स्थायी हो जाएगा तो इसका सीधा असर हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा। डब्ल्यूएचओ ने बताया है कि औसतन चार-पांच लोगों में से हर एक को डिप्रेशन के लक्षण हैं या डिप्रेशन होने की आशंका है। ये महामारी से पहले के आंकड़े हैं। अब अचानक से ये परिस्थिति आई और हमने पूरे विश्व में भय और चिंता को नाॅर्मल कर दिया। क्या हम एक मिनट बैठकर कल्पना कर सकते हैं कि जब यह डर बढ़ेगा तो जिन चार लोगों में डिप्रेशन के लक्षण नहीं थे, उनमें से भी एक लक्षण वालों में शामिल हो सकता है। इसका मतलब है जब इतना डर और चिंता स्थायी होगी तो हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत बड़ा असर आने वाला है।

हम एक वायरस से बचने के बारे में तो सोच रहे हैं, लेकिन सोचने का तरीका इतना गलत है कि हम एक और महामारी खड़ी कर देंगे। ये वायरस निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगा। अधिकांश लोग ठीक हो रहे हैं तो हम सब भी धीरे-धीरे ठीक हो जाएंगे। लेकिन अगर हमारे डराने से किसी को डिप्रेशन हो जाता है तो भले ही वायरस एक-दो महीने में खत्म हो जाए, लेकिन डिप्रेशन खत्म नहीं होगा, क्योंकि यह हमारे मन के अंदर घूम रहा है। इसलिए हमें विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। अगर हम इसके बारे में इतना डर का और चिंता का महौल बनाएंगे तो जितने लोगों को डिप्रेशन है वो बढ़ जाएगा। जिनको नहीं है, उनको भी होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। वायरस खत्म हो जाएगा, डिप्रेशन महीने में नहीं जाएगा। शायद कइयों के लिए तो जीवन का हिस्सा बन जाएगा। तो एक चीज का ध्यान रखना है, लेकिन उसके डर से सारे जीवन में हम मुश्किलें नहीं ला सकते। इसके लिए हमें अपनी सोच पर ध्यान रखना ही पड़ेगा कि हमारी इमोशनल हेल्थ का हमारी मेंटल हेल्थ पर सीधा असर पड़ता है। कितने आंकड़े हैं देश में और विश्व में, जिनको हाई ब्लड प्रेशर हृदय रोग, कैंसर या डायबिटीज है। क्या हम कल्पना कर सकते हैं इस डर का इन बीमारियों पर क्या असर पड़ेगा? (यह लेखिका के अपने विचार हैं।)



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Are excessive information and information about Carona not posing any other threat?




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संकट में गलतियों से सीखने के साथ ही सराहनीय नेतृत्व

अगर देश कोरोना संकट से निकल गया (जिसकी उम्मीद अब बन रही है), तो भारत के प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेश, फैसले और प्रयोग दुनिया के मैनेजमेंट पाठ्यक्रम में सदियों तक पढ़ाए जाएंगे। असफलता या संकट से जल्द न उबरने की स्थिति में वर्तमान और भावी पीढ़ी के आलोचक इन्हें हास्यास्पद और गैर जिम्मेदाराना भी मान सकते हैं। जब देश में घंटों के अंतराल पर लोग मर रहे हों तो ताली बजाना, घंटा बजाना या अंधेरे में टॉर्च जलाना किसी भी आपदा प्रबंधन की किताब में नहीं लिखा है। फिर यह किया क्यों गया?

दरअसल यह एक सामाजिक मनोविज्ञान के तहत अनूठा प्रयोग है, जनता को आने वाले 21 दिन के लॉकडाउन के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से तैयार करने का। यह आंशिक रूप से कुछ वर्गों में असफल जरूर रहा, लेकिन 139 करोड़ की आबादी वाले देश में ऐसी असफलताएं उतना महत्व नहीं रखतीं, जितनी सफलताएं। यह जरूर कहा जा सकता है कि शहरों में रह रहे लाखों मजदूरों की मन:स्थिति का पूर्वानुमान सरकार नहीं लगा सकी। यह भी केंद्र व दिल्ली सरकार दोनों की गलती थी कि जब 13 मार्च को धार्मिक जलसा कर तब्लिगी जमात देश को संकट में डाल रहा था तो पुलिस, प्रशासन और खुफिया विभाग ने इसका संज्ञान नहीं लिया। लेकिन, प्रधानमंत्री का अंधेरे में दीया जलाकर ‘हम अकेले नहीं हैं’ का भाव देशवासियों के मन में विकसित करना इसलिए जरूरी था कि अभाव की मानसिकता वाला देश अचानक 21 दिन के लॉकडाउन में कभी भी निराशाजनित कदम उठा सकता था।

5 अप्रैल को लॉकडाउन का अर्द्धकाल होगा। ऐसे में जनता में खेल मिश्रित उत्साह से कुछ करने का संदेश बेहद सामयिक हस्तक्षेप है और वह भी उस शीर्ष नेतृत्व से, जिसकी लोकप्रियता आज भी अक्षुण्ण है। प्रधानमंत्री ने 24 घंटे पहले ही मुख्यमंत्रियों से संवाद में अपील की थी कि लोगों को समझाने के लिए धर्मगुरुओं की मदद लें। लिहाज़ा, उन्होंने तब्लिगी जमात पर कोई आरोप न लगाकर अच्छा ही किया। समाजशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार जननेता को ओवरएक्सपोज़र से बचना चाहिए और नौ दिन में चार बार संबोधन संदेशों का वजन कम कर सकता है, लेकिन असाधारण परिस्थिति में असाधारण कदम लेना भी ताकतवर नेतृत्व की अपरिहार्य शर्त है।



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Commendable leadership along with learning from mistakes in crisis




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नौ मिनट रामनवमी के नाम कर दीये जलाएं

भारतीय जनमानस में दो शब्द बहुत रचे-बसे हैं, रामबाण और लक्ष्मणरेखा। हमारे प्रधानमंत्री ने कोरोना को लेकर अपने संबोधन में भी इन दोनों का जिक्र किया। उनका कहना था सोशल डिस्टेंसिंग ही कोरोना का रामबाण इलाज है और इसकी लक्ष्मणरेखा मत लांघिए। किसी औषधि के प्रभाव के लिए आज भी हम लोग रामबाण शब्द का प्रयोग करते हैं। तो राम के बाण में ऐसा क्या था?

दरअसल, राम द्वारा छोड़ा गया कोई भी बाण अचूक होता था, कभी खाली नहीं जाता था। जब उनके बाण से रावण जैसे शक्तिशाली दानव को मरना पड़ा तो कोरोना रूपी राक्षण के लिए सोशल डिस्टेंसिंग रामबाण है। फिर जिक्र किया लक्ष्मणरेखा का। सीताजी की सुरक्षा के लिए लक्ष्मणजी ने जाते-जाते एक रेखा खींच दी थी। पीछे से रावण सीताजी का हरण करने पहुंचा, जैसे ही रावण वह रेखा लांघने लगा, रेखा से अग्नि निकली। तब अपनी सिद्धि से उसने जान लिया कि यदि इसे लांघा तो मेरा नुकसान है।

लक्ष्मणरेखा की ये ही विशेषता है कि यदि उसके उस पार जाएं तो जल जाने का डर और पार कर इस ओर आएंगे तो अपहरण का भय, जो कि सीताजी के साथ हो गया। अपने 11 मिनट के भाषण में नौ मिनट की महत्वपूर्ण बातें कह गए देश के शीर्ष पुरुष। कोरोना के चलते हम नवरात्रि और रामनवमी वैसी नहीं मना पाए जैसी मनाते आ रहे हैं। तो चलिए, कल रात यह अवसर रहेगा जब घर-घर में नौ दीये नवरात्रि के और नौ मिनट श्रीरामनवमी के नाम कर दिए जाएं।



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Burn lamps after nine minutes of Ram Navami




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असाधारण समय में असाधारण काम जरूरी है

‘प्रा इम मिनिस्टर मोदी ने क्या कहा? जो जहां है, वहीं रहे। केरल का आदमी दिल्ली में फंस गया या बिहार का आदमी केरल में, सभी को खाना, पीना सब वहीं मिलेगा, समझे?’ यह कोझीकोड के एक होमगार्ड के. करुणाकरण के वीडियो का हिस्सा है। वे हिंदी में दूसरे राज्यों के उन कर्मचारियों से ये बात कह रहे हैं जो घर वापस नहीं जा पा रहे। इस वीडियो में वे ये समझाते हुए दिखे हैं कि कोरोना वायरस क्या है और कैसे इससे सुरक्षित रह सकते हैं। कोझीकोड से लगभग 40 किलोमीटर दूर मेय्यापयूर में कर्मचारियों का समूह ध्यान से सुन रहा है। उनके सवालों का जवाब धैर्यपूर्वक देते हुए करुणाकरण उन्हें बताते हैं कि क्यों उन्हें केरल में ही रहना है और सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी कि उन्हें भोजन, पानी और रहने की जगह मिले।


एर्नाकुलम जिला कलेक्टर ने अपने फेसबुक पेज पर इस वीडियो को साझा किया है और लिखा कि ऐसे लोगों का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द काफी नहीं होंगे। उनके पेज पर वीडियो को लगभग 3 लाख बार देखा गया है और हजारों द्वारा साझा किया गया है। कलेक्टर इस वीडियो में मेहमान कामगारों (केरल के सीएम पिनारारयी विजयन ने केरल से बाहर से आए कर्मचारियों को जबसे इस नाम से संबोधित किया है, सभी यही कहते हैं) को इस वीडियो को देखने-सुनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और वीडियो के अंत में करुणाकरण को ‘बिग सैल्यूट सर' कहते हैं। कोझीकोड ग्रामीण एसपी डॉ. श्रीनिवास चाहते थे कि जो होमगॉर्ड्स हिंदी जानते हैं, वे कोझीकोड कैंप के आसपास रह रहे कामगारों से संपर्क करें। वे यह जानना चाहते थे कि क्या उन्हें कोई समस्या है, जिसका प्रशासन द्वारा समाधान करने की आवश्यकता है? इसलिए जनमैत्री योजना के तहत सिविल पुलिस अधिकारी अशरफ चिरक्करा और करुणाकरण को इस काम के लिए चुना गया।


पिछले छह दिनों से विभिन्न पुलिस अधिकारियों के साथ करुणाकरण इन मेहमान कामगारों के पास जा रहे हैं और उन्हें समझा रहे हैं, उन्हें खुद का मोबाइल नंबर दे रहे हैं और किसी भी समस्या के लिए उनसे संपर्क करने के लिए कह रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि यह वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत पसंद किया जा रहा है। ग्रामीण कोझीकोड में 64 कैंप हैं और प्रत्येक कैंप में कम से कम 50 लोग हैं। सभी लोगों को धैर्य से जवाब देने के इस अनूठे काम ने करुणाकरण को मेहमान कामगारों के लिए कोझीकोड ग्रामीण का मैस्कॉट (शुभंकर) बना दिया है और फिलहाल करुणाकरण ही संपर्क के लिए सेंटर पॉइंट हैं।


डॉ. श्रीनिवास की देखरेख में ग्रामीण पुलिस ने ‘अपना भाई’ नामक एक योजना शुरू की है, जिसमें सभी राशन की दुकानों और स्टोर में एक डिब्बा रखा गया है। तो जो लोग अपना किराना खरीद रहे हैं, वे ‘अपना भाई’ बॉक्स के लिए भी कुछ खरीद सकते हैं। हर शाम बॉक्स का सामान उन मेहमान कामगारों के बीच बांटा जाता है, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। एक और ऐसी घटना है जो ये साबित करती है कि केरल में समुदायों में कितना मेल-जोल है और पुलिस लोगों के लिए कितनी मित्रवत है। नीरज और उमेश, जो कोझीकोड पुलिस स्टेशन में बीट पुलिस हैं, वे अंतिम संस्कार के बाद की रस्मों के लिए कुछ सामान ले जाते हुए देखे गए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि आनंद रामास्वामी, जो दुबई के एक बैंकर हैं, उनकी मां की एक दिन पहले मृत्यु हो गई थी और इस सामग्री की तत्काल जरूरत थी। जबसे वे वापस आए हैं, तबसे घर पर क्वारेंटाइन में हैं।

चूंकि वे बाहर नहीं जा सकते थे और कोई भी ऑटो रिक्शा वाला सामान घर नहीं पहुंचाता, तो इन पुलिसकर्मियों ने सामान खरीदने में उनकी मदद की। क्वारेंटाइन के चलते बंद लोगों की आवश्यकता की जांच करना उनका काम है। वे ऐसे सभी क्वारेंटाइन किए गए लोगों की आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं, वास्तव में वो वर्दी पहनकर होम डिलीवरी बॉय का काम कर रहे हैं। कई ऐसे सरकारी अधिकारी हैं, जो ऐसे काम कर रहे हैं जो उनके पेशे का हिस्सा नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि देशभर का मीडिया इस बारे में बात कर रहा है कि केरल इस महामारी से मजबूत, कुशल और मानवीय तरीके से लड़ रहा है।

फंडा यह है कि असाधारण समय में असाधारण विचार ही काम आते हैं। ऐसे में लोग अपने आधिकारिक ओहदे की तुलना उनके असाधारण काम से नहीं करते हैं।



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Extraordinary work is necessary in extraordinary times




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सोफिया लॉरेन: शोखियों में घोला फूलों का शबाब

कोरोना के कारण इटली में चौदह हजार व्यक्ति मर चुके हैं। इटली का नाम लेते ही सोफिया लॉरेन की याद आती है। सोफिया की मां को उसके प्रेमी ने धोखा दिया था, इसलिए सोफिया नाजायज संतान मानी गई। सोफिया की मां का नाम रोमिल्डा विलानी था। वह अभिनय क्षेत्र में जाना चाहती थी, परंतु सफल नहीं हुई। रोमिल्डा विलानी पियानो बजाती थी। आठ लोगों के परिवार का गुजारा बमुश्किल हो पाता था। तीन कमरे के छोटे मकान में आठ सदस्य रहते थे। परिवार नेपल्स में रहता था, जहां दूसरे युद्ध में बहुत बमबारी हुई थी। 14 वर्ष की सोफिया ने एक सौंदर्य प्रतियोगिता जीती और उसे फिल्मों में छोटी भूमिकाएं मिलने लगीं।
इन छोटी भूमिकाओं में फिल्मकारों ने सोफिया लॉरेन के खूबसूरत जिस्म की नुमाइश की और मीडिया ने उसे सेक्स सिंबल कहना प्रारंभ कर दिया। उसे इस बात का दु:ख था कि उसे कलाकार नहीं माना जा रहा है। यह प्रकरण हमें विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ की याद दिलाता है।

इटली के फिल्मकार कार्लो पोंटी ने सोफिया की प्रतिभा को पहचाना और ऐसी फिल्में बनाईं जो सोफिया लॉरेन को सेक्स सिंबल खिताब से मुक्त करा सकें। अलबर्तो मोरानिया के उपन्यास ‘टू वीमैन’ से प्रेरित फिल्म में पहली बार सोफिया लॉरेन के अभिनय की प्रशंसा हुई। इस फिल्म में एक दृश्य में सोफिया अभिनीत पात्र दूसरे विश्व युद्ध की आग से बचते हुए एक चर्च में शरण लेती है, जहां उसके साथ दुष्कर्म होता है। सोफिया ने इस दृश्य में बड़ा प्रभावोत्पादक अभिनय किया। सोफिया ने सितारा हैसियत अर्जित की। वह हॉलीवुड में चमकना चाहती थी। निर्माता हॉवर्ड यूजेस ने उसके साथ अनुबंध किया, परंतु कोई फिल्म नहीं बनाई। सोफिया के कुछ वर्ष बेकार चले गए, परंतु रॉक हडसन के साथ बनी फिल्म ‘कम सेप्टेम्बर’ ने उसे हॉलीवुड में भी सफल सितारे के रूप में स्थापित कर दिया। शॉन कोनरी के साथ ‘वीमैन ऑफ स्ट्रा’ अत्यंत सफल रही।


सन् 1949 में उसका पहला विवाह यूगोस्लाव के डॉक्टर मिल्को स्कोफी से हुआ जो अधिक समय तक टिक नहीं सका। अत: उसने तलाक ले लिया। सन् 1957 में कैरी ग्रांट और फ्रेंक सिनेट्रा के साथ ‘द प्राइड पेशन’ में उसे सराहा गया। कार्लो पोंटी ने सोफिया और एंटोनी पार्किंसन के साथ ‘डिजायर अंडर आल्पस’ का निर्माण किया। कार्लो पोंटी ने ही क्लार्क गैबल और सोफिया लॉरेन के साथ सफल फिल्म ‘इट स्टार्टेड इन नेपल्स’ बनाई। कार्लो लगातार सोफिया के लिए बेहतर अवसर बनाते थे। इस तरह एक प्रेम कहानी विकसित होने लगी। कार्लो पोंटी, सोफिया को सेक्स सिंबल के प्रचारित खिताब से मुक्त कराकर उसके कलाकार स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास करते थे। प्राय: चित्रकार और मॉडल में प्रेम हो जाता है। अशोक कुमार और नरगिस अभिनीत ‘बेवफा’ मेंं भी चित्रकार और मॉडल की प्रेमकथा प्रस्तुत की गई थी।


इटली में दो तलाकशुदा लोगों के विवाह की इजाजत नहीं थी, अत: दोनों ने मैक्सिको जाकर विवाह किया। शादी के समय कार्लो मैक्सिको में थे और दुल्हन सोफिया अमेरिका में थी। यह विवाह 1957 में हुआ था और 1966 में उन्होंने दोबारा विवाह किया। यह कवायद इटली में विवाह को स्वीकार किए जाने के लिए की गई। कार्लो पोंटी और सोफिया की प्रेमकथा और विवाह भी उनकी फिल्मों जैसे रोचक रहे।
चार कमरों के छोटे से मकान में आठ लोगों के साथ रहने वाली सोफिया लॉरेन ने बाद में पचास कमरों वाली हवेली खरीदी। उसका जीवन दंतकथा की सिंड्रेला की तरह रहा। कार्लो पोंटी ने सोफिया लारेन अभिनीत ‘मैरिज इटैलियन स्टाइल’ का निर्माण किया। यह अत्यंत मनोरंजक व्यंग्य फिल्म थी। कथा में नायिका से अनचाहे एक अपराध हो गया है और उसे सजा हुई है, परंतु उस समय वह गर्भवती थी और उनके देश के कानून के अनुसार गर्भवती को जेल नहीं भेजा जा सकता। बच्चे के जन्म के बाद चालीस दिन तक कैद नहीं किया जा सकता। सजा से बचने के लिए वह बार-बार गर्भ धारण करती है। इस तरह आधा दर्जन बच्चों का जन्म होता है। एक बार वह गर्भवती नहीं हो पाने के कारण अपने पति की पिटाई करती है कि वह इस कदर निकम्मा है कि एक अदद बच्चा और उसे नहीं दे सकता? चार्ली चैपलिन भी सोफिया लॉरेन से प्रभावित थे। उन्होंने उसे लेकर काउंटेस फ्रॉम हांगकांग’ नामक फिल्म बनाई।


इटली में शीत ऋतु में वर्षा होती है। इसे समशीतोष्ण जलवायु कहते हैं। इस कारण वहां फल बहुत अधिक पैदा होते हैं। वाइन बनाने के कारखाने हैं। इटली की वाइन सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इटली की सोफिया लॉरेन भी एक नशा ही साबित हुई, जिसका हैंगओवर आज भी कायम है। इटली में दिए जाने वाले ऑस्कर पुरस्कार की तरह का पुरस्कार सोफिया लॉरेन को कई फिल्मों के लिए मिला?



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सोफिया लॉरेन।




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मास्क, गॉगल्स और विशेष सूट के बावजूद डॉक्टर्स वायरस से बच नहीं पाए, यहां युवाओं को भी वेंटिलेटर्स की जरूरत पड़ रही

मिसेज एममिलान में रहती हैं। उम्र 70 साल है और वे कोरोना पॉजिटिव हैं। इलाज के बावजूद जब उनकी हालत में सुधार नहीं आया तो डॉक्टर ने उनकी बेटी को कॉल कर उनकी खराब तबीयतकी जानकारी दी। बेटी ने दूसरी तरफ से जवाब दिया- पापा भी कोरोना पॉजिटिव हैं और उनका इलाज शहर के दूसरे हॉस्पिटल में चल रहा है। पति-पत्नी एक-दूसरे से बहुत दूर एक महामारी से लड़ रहे हैं और बेटी भी उन्हें देखनहीं पा रही है। यह महज एक घर की कहानी है, लेकिन ऐसी कहानी इन दिनों इटली के कई घरों में देखी जा रही है। मिलान में इमरजेंसी मेडिसिन स्पेशलिस्ट फेडरिका (34) ऐसे कई किस्सों की गवाह हैं।

इटली में जब यह महामारी अपने शुरुआती दौर में थी, तभी से फेडरिका अपने हॉस्पिटल के इमरजेंसी रूम में कोरोना पॉजिटिव लोगों का इलाज कर रही हैं। फिलहाल घर पर क्वारैंटाइन पीरियड बीता रही हैं, क्योंकि कोरोना संक्रमितों के बीच रहते-रहते सभी सावधानियां बरतने के बावजूद वे भी संक्रमित हो गईं। वे बीते कुछ दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि, “शुरुआत में इटली के लोडी और कोडोग्नो शहर इस महामारी की चपेट में आए थे। इन शहरों के हालात से हम बहुत कुछ सीख चुके थे। हमें यह पता था कि यह जल्द ही हमारी ओर भी रूख करेगाऔर फिर ठीक एक सुनामी की तरह इसकी पहली लहर हम तक पहुंच गई।”

हॉस्पिटल के इमरजेंसी रूम को दो हिस्सो में बांट दिया गया- एक बड़ा हिस्सा कोरोना के मरीजों का, दूसरा हिस्सा अन्य मरीजों के लिए था
फेडरिका कहती हैं, “कोरोना के फैलाव को देखते हुए हमारे हॉस्पिटल के इमरजेंसी रूम को दो हिस्सों में बांट दिया गया था- एक बड़े हिस्से में वे लोग होते थे, जिनमें कोरोनोवायरस के लक्षण मिल रहे थे और दूसरी तरफ एक छोटा हिस्सा, जहां अन्य मरीजों को रखा जाने लगा। धीरे-धीरे मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। कारण एक जैसे थे- खांसी, बुखार और सांस लेने में तकलीफ। हमारी तैयारी बहुत अच्छी थी, लेकिन इसके बावजूद हर दिन हॉस्पिटल में भीड़ बढ़ती जा रही थी। हमारे पास जगह कम पड़ने लगी। हॉस्पिटल के अन्य डिपार्टमेंट्स में हर दिन थोड़ी-थोड़ी जगह बनाई जाने लगी।”

इटली के ब्रेसिया शहर के स्पेडाली सिविल हॉस्पिटल में मरीज की मदद करते एक डॉक्टर।

फेडरिका बताती हैं, “मामले बढ़ते गए और इमरजेंसी रूम में शिफ्ट में वर्किंग शुरू हो गई। एक-एक शख्स 12 से 13 घंटे काम कर रहा था। इमरजेंसी रूम में घुसने से पहले उन्हें मास्क और विशेष तरह के गॉगल्स दिए जाते। मास्क तो इमरजेंसी रूम से बाहर आते ही डिस्पोज कर दिए जाते, लेकिन गॉगल्स को हमेशा साथ ही रखना होता था।”

कुछ मरीज गुस्सा करते, कुछ रोते रहतेऔर हम उन्हें थोड़ी राहत देने की कोशिश करते रहते
फेडरिका बताती हैं कि, “बूढ़े, वयस्क, युवा और बच्चे सभी इसकी जद में हैं। सभी के लक्षण एक जैसे होतेहैं। कई मरीज गंभीर होते हैं, इनमें से कुछ को यह भी पता नहीं होता है कि वे कम ऑक्सीजन ले पा रहे हैं। सभी बहुत डरे हुए होते हैं।वे जानते हैं कि इस वक्त बीमार होना बहुत बड़ा जोखिम है, खासकर अगर वे बूढे हैं तो डर और बढ़ जाता है। जब आप उनसे बात करते हैं, तो कुछ रोने लगते हैं, कुछ बहुत गुस्सा भी करते हैं। मेरी एक ही कोशिश रही कि मैं उन लोगों को कुछ राहत दे सकूं। मैं उन्हें बताती थी कि सबसे अच्छी बात यह है कि आप इस समय हॉस्पिटल में हैं और आपके पास सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सपोर्टर है।”

जो कोरोना पॉजिटिव युवा मजबूत और स्वस्थ थे, कुछ दिनों बाद उन्हें भी वेंटिलेटर्स की जरूरत पड़ने लगी
मार्च के पहले हफ्ते में ही फेडरिका ने 34 साल के एक भारतीय मरीज को हॉस्पिटल में देखा था। वे बताती हैं कि, "वह कोरोना पॉजिटिव था, बुखार भी तेज था। उसे हॉस्पिटल में भर्ती किया गया, लेकिन उसकी हालत ज्यादा खराब नहीं थी। उसे डिस्चार्ज कर दिया गया। 3 दिन बाद मैंने उसे फिर से इमरजेंसी रूम में ऑक्सीजन सपोर्ट के साथ देखा। मैं यही सोच रही थी कि वह मेरी उम्र का ही है, लगभग ठीक हो चुका था, फिर वह इतनी बुरी हालत में कैसे पहुंच गया?”

इटली में मार्च के तीसरे हफ्ते में आई एक रिपोर्ट में बताया गया था कि कोरोनावायरस से हुई 3200 मौतों में से महज 36 ऐसे थे जो 50 से कम उम्र के थे। हालांकि यहां बड़ी संख्या में युवा और बच्चे कोरोना संक्रमित हैं।

हालत यह थी कि युवाओं में भी यह वायरस तेजी से फैल रहा था। एक और उदाहरण देते हुए फेडरिका कहती हैं, “एक 18 साल का लड़का था। वह बहुत मजबूत और स्वस्थ था। उसे कई दिनों से बुखार था और फिर उसे अचानक इमरजेंसी रूम में भर्ती किया गया। इलाज के बावजूद वह ठीक नहीं हो रहा था। वह कहता था कि वह डर नहीं रहा, वह ठीक-ठाक महसूस कर रहा है, लेकिन यह कहते-कहते भी वह तेजी से सांस लेने लगता था। आखिर में उसे भी इंट्यूबेटेड कर ऑक्सीजन पहुंचाना पड़ा।

19 मार्च को डॉ. फेडरिका कोरोना पॉजिटिव पाईं गईं, पति भी संक्रमित हो गए
फेडरिका के पति मार्को एक फोटोग्राफर हैं। 19 मार्च को इनकी जिंदगी में भी कोरोनावायरस की एंट्री हो गई। पहला लक्षण मिलते ही जब फेडरिका का टेस्ट हुआ तो नतीजा खून जमा देने वाला था। वे कोरोना पॉजिटिव पाईं गईं। उसी दिन उनके पति में भी इस बीमारी के कुछ लक्षण दिखे। वे कहती हैं, "मैंने उन्हें संक्रमित किया। मैं बहुत डरी हुई थी। उन दिनों का तनाव में बयां नहीं कर सकती। अभी हम क्वारैंटाइन में हैं। चीजें अब ठीक होने लगी हैं। जैसे ही क्वारेंटाइन पीरियड खत्म होगा, वैसे ही मैं फिर से काम पर लौट जाऊंगी।”

पाउला, 32 साल से मेडिकल प्रोफेशन में हैं, सतर्कता बरतने के बावजूद कोरोना से संक्रमित हो गईं
फेडिरका की तरह ही पाउला (50) भी जल्द ही काम पर लौटेंगी। पाउला की शादी को 25 साल हो चुके हैं। उनके 2 बच्चे हैं और 32 साल से वे मिलान शहर के नजदीक सरनुस्को सुल नेवीग्लियो हॉस्पिटल में हेल्थकेयर प्रोफेशनल हैं। जब उनके हॉस्पिटल में पहले कोरोना संदिग्ध की बात सामने आई तो उनका भी टेस्ट किया गया। 2 दिनों बाद उन्हें कॉल पर बताया गया कि वे कोरोना पॉजिटिव हैं। पाउला कहती हैं, "मैं खुद के लिए और अपने परिवार के लिए बहुत डरी हुईथीं। हर पल खुद को शांत करने की कोशिश करती रहती।”

पिछले चार हफ्तों से इटली पूरी तरह लॉकडाउन है।

पाउला के संक्रमित होते ही उन्हें फौरन उनके परिवार से अलग किया गया। बहुत जरूरी होने पर ही वे कमरे से बाहर निकलती हैं और इसके बाद वे जिस भी चीज को हाथ लगाती उसे तुरंत डिसइन्फेक्टेड किया जाता है। पाउला कहती हैं, "मैं कुछ ही बार अपने कमरे से बाहर निकली हूं और जब भी निकली हूं तो मास्क लगाकर। जब भी मेरी बेटियां मेरे लिए खाना लाती हैं, तब भी मैं मास्क लगाकर ही दरवाजे खोलती हूं।"

क्वारैंटाइन पीरियड के बाद फिर से काम पर लौटने का एक डर अभी से सता रहा है
पाउला की बेटी कियारा (23) लॉ स्टूडेंट हैं। वे बताती हैं कि,"जब हमें पता चला कि ममी कोरोना पॉजिटिव हैं तो सभी डरे हुए थे। पर क्योंकि वे लम्बे समय से हॉस्पिटल में काम कर रही हैं तो अन्य के मुकाबले वे बेहतर तरीके से इसे मैनेज कर रही हैं।" पाउला कहती हैं, "मैं काम पर फिर से जाने को लेकर थोड़ी डर रही हूं। डर यहहै कि फिर से बीमार लोगों के संपर्क में आ गई तो क्या होगा। कहीं मैं कोरोनावायरस को अपने घर में न ले आऊं। लेकिन हां, जब भी जरूरत पड़ी,मैं काम के लिए जाने के लिए तैयार हूं।"

33 साल के प्लास्टिक सर्जन एंड्रिया कोरोना के विशेषज्ञ नहीं, लेकिन लोगों की मदद के लिए खुद आगे आए
इस महामारी से निपटने के लिए कई लोग खुद आगे आ रहे हैं। 33 साल के प्लास्टिक सर्जन एंड्रिया की कहानी इसका एक उदाहरण है। कोरोनावायरस का ग्राफ जब बढ़ने लगा तो उन्होंने अपने निजी स्टूडियो को बंद कर लोगों की मदद करने के तरीकेखोजने शुरू किए। वे कहते हैं, "मुझमें इस महामारी से निपटने के लिए विशेष योग्यता नहीं है। लेकिन क्योंकि मैं एक डॉक्टर हूं तो मैं चाहता हूं कि इस समय में लोगों की मदद कर सकूं।” उन्होंने बरगामो में अपने एक साथी डॉक्टर से इस पर बात की। इटली में बरगामो उन शहरों में से एक है जो इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा है।

डेटा से पता चलता है- पुरुषों के मुकाबले महिलाएं इस महामारी से कम प्रभावित रही हैं
एंड्रिया बताते हैं, "मुझे मरीजों का डेटा इकट्ठा करने और स्टडी करने का काम मिला। और अब जब मैं यह कर रहा हूं तो कई सवाल सामने आए हैं। जैसे- यह पता नहीं चल पा रहा है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं और बच्चे इस महामारी से कम प्रभावित कैसेहैं?पुरुषों के मामले में यह वायरस इतना तेजी से प्रभावित करता है कि कुछ ही दिनों में शख्स की मौत हो जाती है।"

एंड्रिया (33)प्लास्टिक सर्जन हैं। इन दिनोंवे कोरोना संक्रमित मरीजों के डेटा पर स्टडी कर रहे हैं।

एंड्रिया अपना बहुत सारा समय फेसबुक पर भी बिताते हैं। उन्होंने एक पेज बनाया है, जहां पूरे इटली के डॉक्टर्स इस महामारी से जुड़े जरूरी फैक्ट्स और जानकारियां साझा करते हैं ताकि इससे निपटने में कुछ मदद मिल सके। एंड्रिया बताते हैं, "मैं रात के 4 बजे तक कोरोनावायरस को ठीक से समझ पाने के लिए डॉक्टरों की कमेंट पढ़ते रहताहूं। यहां कई साथी हैं, जो मदद के लिए लगातार आगे आ रहे हैं। हॉस्पिटलों में बहुत ज्यादा डर है, लेकिन इन सब के बीच एक सकारात्मक वातावरण में काम करना बहुत जरूरी है।"

हॉस्पिटलों में बाकी इलाज के लिए भी तरीके बदल गए हैं
कोरोनावायरस के कारण बाकी इलाज में भी तरीके बदल गएहैं। जैसे- प्रसव के दौरान होने वाले ऑपरेशन। मिकोल (35) दो बच्चों की मां हैं और फिलहाल प्रेग्नेंट हैं। वे कहती हैं, "एक साथ लोग इकट्ठे नहीं हो सकते। ऐसे में महिलाएं गर्भ के दौरान सावधानियां और सतर्कता बरतने की क्लासेस अटेंड नहीं कर पा रही हैं। जो पहली बार प्रेग्नेंट हैं, उनके लिये यह थोड़ा परेशानीभरा है।"

मिकोल (35) का रेग्युलर चेक-अप बंद है, लेकिन जरूरत पड़ने पर हॉस्पिटल में एक खास प्रक्रिया से गुजरने के बाद उनका इलाज किया जाता है।

वे बताती हैं कि"रेग्युलर चेक-अप बंद हैं। हॉस्पिटल में घुसने से पहले आपको एक डॉक्यूमेंट पर हस्ताक्षर करना होता है कि आप पिछले 15 दिनों से किसी कोरोनावायरस संक्रमित के संपर्क में नहीं आए हैं और आपमें कोरोना के कोई लक्षणनहीं हैं। जब आप बच्चे को जन्म देने वाली होती हैं तो सिर्फ पति ही आपके साथ हॉस्पिटल आ सकते हैं, वो भी तब जब वह पूरी तरह ठीक हों। अगर आपको थोड़ी भी सर्दी-खासी हो तो आपको प्रसव के दौरान ही हॉस्पिटल में एडमिट किया जाएगा। लेकिन अगर आपको सांस लेने में भी थोड़ी समस्या आ रही हैऔर कोरोना के लक्षण दिखाई दे रहे हैं तो ऐसी महिलाओं को अलग वार्ड में भेजा जाता है। हाल ही के दिनों में कोरोना संक्रमित कई महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया है। किस्मत से वे सभी स्वस्थ हैं।"



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इटली में 27 मार्च तक कोरोनावायरस से संक्रमित 45 डॉक्टरों की मौत हो चुकी थी। यहां 6 हजार से ज्यादा हेल्थ वर्कर कोरोना पॉजिटिव हैं।




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कोरोना चीन से शुरू हुआ, लेकिन इसे फैलाया इटली ने; करीब 50 देशों में कोरोना के पहले मरीज का संबंध इटली से ही रहा

कोरोनावायरस। महज 60 नैनोमीटर का। मतलब- इतना छोटा कि पेन से बनाई एक बिंदु में लाखों कोरोनावायरस रह सकते हैं। ये छोटा सा वायरस चीन के वुहान शहर में सबसे पहले आया। कारण था- शहर में लगने वाला सीफूड मार्केट। माना यही जा रहा है कि सीफूड मार्केट से किसी जानवर से ये वायरस इंसानों में आया। कोरोनावायरस के लिए दुनियाभर में चीन को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। लेकिन सच तो ये है कि भले ही ये वायरस चीन से आया, लेकिन इसे फैलाया इटली ने। वुहान शहर से इटली की राजधानी रोम के बीच की दूरी साढ़े 8 हजार किमी से भी ज्यादा है। रोम में 31 जनवरी को कोरोना के दो मरीज मिले थे। ये दोनों चीन से आए पर्यटक थे। इसके बाद इटली में कोरोना संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ती गई। इटली से होते ही ये वायरस न सिर्फ यूरोपीय देशों, बल्कि दुनिया के कई देशों में फैलता गया। दुनिया के करीब 50 देशों में कोरोना का पहला मरीज जो मिला, उसका किसी न किसी तरह से इटली से ही संबंध था। यानी, या तो ये इटली का नागरिक था या इसने इटली की यात्रा की थी।


कोरोना संक्रमित बढ़ने के बाद भी इटली ने उड़ानें चालू रखीं
कोरोनावायरस को रोकने के लिए कई देशों ने ट्रैवल बैन लगा दिया था। लेकिन, इटली में लगातार मामले बढ़ने के बाद भी फ्लाइट चालू रहीं। इटली ने मिलान एयरपोर्ट के एक टर्मिनल को 16 मार्च को बंद किया, जबकि उस समय तक लॉम्बार्डी में 3 हजार 760 से ज्यादा केस आ चुके थे। इसके उलट चीन ने 23 जनवरी को हुबेई को पूरी तरह लॉकडाउन कर दिया था। उस समय तक हुबेई में 500 के आसपास ही मामले आए थे। वुहान, हुबेई की ही राजधानी है। सिर्फ इटली ही नहीं बल्कि कई यूरोपीय देशों ने भी कोरोना बढ़ने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें जारी रखीं।


दुनिया के किस रीजन में कैसे इटली ने फैलाया कोरोना
1) अफ्रीका

अल्जीरिया, मोरोक्को, नाइजीरिया, सेनेगल, ट्यूनिशिया जैसे 9 देशों में कोरोना का पहला कन्फर्म केस जो मिला था, उसका कनेक्शन इटली से था। 9 मार्च को दक्षिण अफ्रीका में पहले 7 केस मिले थे। ये सातों हाल ही में इटली से यात्रा करके लौटे थे।


2) अमेरिका
अर्जेंटिना, ब्राजील, बोलिविया, चिली, कोलंबिया, क्यूबा, डोमिनियन रिपब्लिक, ग्वाटेमाला, मैक्सिको, उरुग्वे और वेनेजुएला में कोरोना का पहला संक्रमित मरीज इटली से ही आया था। यूएसए में पहला संक्रमित मरीज वुहान से लौटा व्यक्ति था। हालांकि, यूएसए के न्यू हैम्पशायर, रोड आइसलैंड और मिसौरी में जो पहले मरीज मिले थे, वो सभी इटली से लौटकर आए थे।


3) एशिया
कोरोनावायरस का जन्म एशियाई देश चीन में ही हुआ। लेकिन एशियाई देशों में कोरोना चीन से ज्यादा इटली की वजह से फैला। बांग्लादेश में 8 मार्च को पहले तीन केस आए थे। इनमें से दो की ट्रैवल हिस्ट्री इटली की ही थी। भारत में 30 जनवरी से 2 फरवरी के बीच तीन केस आए थे। ये तीनों वुहान से लौटे थे। उसके बाद एक महीने तक कोई नया मामला नहीं आया। लेकिन, 2 मार्च को दो नए मामले आए। एक दिल्ली में और एक तेलंगाना में। दिल्ली में जो केस आया था, वो इटली से यात्रा करके लौटा था। इसके अलावा 6 मार्च को भारत घूमने आए इटली के 16 नागरिक कोरोना पॉजिटिव आए थे। इसके अलावा श्रीलंका में जो पहला कोरोना संक्रमित मिला था। उसकी कोई ट्रैवल हिस्ट्री तो नहीं थी। लेकिन, वो एक गाइड था, जो इटली से आए पर्यटकों के साथ था।


4) यूरोप
कोरोना की सबसे ज्यादा मार यूरोपीय देशों पर ही पड़ा है। न्यूज एजेंसी एएफपी के मुताबिक, 1 अप्रैल तक यूरोप में कोरोना से 30 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। कोरोना से प्रभावित टॉप-10 देशों की लिस्ट में भी 5 यूरोप के ही हैं। एंडोरा, ऑस्ट्रिया, क्रोएशिया, साइप्रस, डेनमार्क, फ्रांस, ग्रीस, आइसलैंड, आयरलैंड, लातविया, लिथुआनिया, माल्टा, मोलडोवा, नीदरलैंड, नॉर्थ मैसेडोनिया, पोलैंड, रोमानिया, सर्बिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, स्पेन, स्विट्जरलैंड, यूक्रेन में पहले मरीज की ट्रेवल हिस्ट्री इटली में थी।


5) ओशिनिया
इस रीजन में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत 14 देश हैं। इन देशों में पहले केस की ट्रैवल हिस्ट्री इटली नहीं थी। हालांकि, न्यूजीलैंड में दूसरे केस की ट्रैवल हिस्ट्री इटली थी।


इटली में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ने की तीन वजहें
1) लापरवाही :
कोरोना का सबसे ज्यादा असर उत्तरी इटली में पड़ा। सरकार ने 8 मार्च से यहां के 1.6 करोड़ लोगों को क्वारैंटाइन करने का फैसला लिया। लेकिन, एक अखबार ने इस प्लान को लीक कर दिया। इससे लोग डरकर दूसरी जगह चले गए।
2) बेफिक्री : इटली का लॉम्बार्डी रीजन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ। यहां 19 फरवरी को कोरोना संदिग्ध व्यक्ति को एक अस्पताल में भर्ती किया गया। भर्ती होने के बाद भी संदिग्ध 36 घंटे तक अस्पताल के कैंपस में घूमता रहा।
3) पॉपुलेशन डेंसिटी : इटली की आबादी 6.04 करोड़ है। यहां का लैंड एरिया 2.94 लाख स्क्वायर किमी है। यहां पर हर 1 किमी के दायरे में 206 लोग रहते हैं। जबकि, अमेरिका में यही आंकड़ा सिर्फ 36 लोगों का है।

इटली में अब तक कोरोना से 14 हजार लोगों की मौत
इटली में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या के आंकड़े हर घंटे बढ़ रहे हैं। अब तक यहां पर 1.15 लाख से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मौतें भी यहीं हुई हैं। इटली में अब तक करीब 14 हजार लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि, 18 हजार से ज्यादा लोग ठीक हो चुके हैं।



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जिंदगी इम्तिहान लेती है

कोरोना कालखंड में सभी समूहों पर दबाव और दायित्व है। डॉक्टर जूझ रहे हैं और पुलिस मुस्तैदी से काम कर रही है। पुलिस विभाग में वेतन कम है और काम कभी घटता नहीं। वे अपने परिवार के साथ तीज-त्योहार भी नहीं मना पाते। शोभायात्रा और शवयात्रा के समय भी पुलिस को बंदोबस्त रखना होता है। हमारा समाज पुलिस को यथेष्ट सम्मान नहीं देता। नेताओं के दबाव के कारण पुलिस अपना काम नहीं कर पाती। नुक्कड़ में और मोहल्लों के असामाजिक लोगों को नेताओं का प्रश्रय प्राप्त है। टूटी हुई व्यवस्था का दागदार चेहरा पुलिस को बना दिया जाता है। सुलगती सरहदों पर तैनात सेना को सम्मान दिया जाता है, परंतु देश की भीतरी व्यवस्था के लिए काम करने वाली पुलिस को हेय नजर से देखा जाता है। गुलामी के दौर में अंग्रेज हाकिम के हुक्म पर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों पर पुलिस ने लाठियां बरसाईं, आजादी के बाद उन्हीं लोगों को पुलिस सलाम करती है।


प्राय: पुलिस पर रिश्वतखोर होने का इल्जाम लगाया जाता है, परंतु सारे विभाग ही रिश्वत लेते हैं। अफसर से मिलने के लिए उसके अर्दली को भी पैसे देने पड़ते हैं। आला अफसर के बिगड़ैल बच्चों से भी पुलिस अपमानित होती है। कोरोना में रकम जमा करने का काम भी पुलिस कर रही है, परंतु विधायक-सांसद-मंत्री इस फंड में रकम नहीं दे रहे हैं।


सिनेमा में भी पुलिस वाले का पात्र गढ़ा गया है। सलीम-जावेद की ‘जंजीर’ व ‘दीवार’ में पुलिस वाला अपने परिवार के साथ किए गए अन्याय का बदला लेता है, परंतु सच्चा सामाजिक आक्रोश गोविंद निहलानी की ओमपुरी अभिनीत ‘अर्धसत्य’ में प्रस्तुत किया गया है। प्रकाश झा की फिल्म ‘गंगाजल’ में पुलिस अफसर के पात्र को अजय देवगन ने बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से अभिनीत किया। गोविंद निहलानी की फिल्म ‘देव’ में ओम पुरी और अमिताभ बच्चन ने पुलिस अफसरों की भूमिकाएं अभिनीत की थीं।


वी. शांताराम की 1940 में बनी फिल्म ‘आदमी’ एक पुलिस वाले और एक तवायफ की प्रेम कथा प्रस्तुत करती है। तीन दशक बाद विदेशी फिल्म ‘इरमा-लॉ-डूज’ में भी इसी तरह की प्रेम कथा प्रस्तुत की गई थी, जिसका चरबा शम्मी कपूर निर्देशित ‘मनोरंजन’ में प्रस्तुत किया गया था। अबरार अल्वी के विटी संवाद के कारण फिल्म यादगार बन गई। राहुल देव बर्मन ने माधुर्य रचा था। इस फिल्म का गीत ‘गोयाकि चुनांचे… कितना प्यारा वादा है….’ लोकप्रिय हुआ था।


अनियंत्रित जुनूनी भीड़ पर लाठी चार्ज या गोली मारने का आदेश देने वाले अफसर को प्राय: जांच कमीशन के सामने प्रस्तुत होना पड़ता है। के. भाग्यराज की फिल्म ‘आखिरी रास्ता’ में अमिताभ बच्चन ने कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अफसर की भूमिका अभिनीत की थी। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन की दोहरी भूमिका थी। अमिताभ बच्चन ही कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अफसर के उम्रदराज पिता की भूमिका में अरसे पहले अपनी पत्नी के साथ हुए दुष्कर्म करने वालों को दंडित करता है। सारा सच जानने के बाद पुलिस अफसर अपना पद त्याग करके अपने पिता की सहायता करना चाहता है। तीन शेर वाला राष्ट्रीय चिह्न पुलिस धारण करती है। पुलिस को रिश्ते-नातों से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य निभाना होता है।


पुलिस वाला कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन की तरह है जिसे श्री कृष्ण समझाते हैं कि उसे सत्ता और न्याय के लिए अपने स्वजनों के खिलाफ युद्ध करना होगा। महिला पुलिस पात्रों वाली फिल्में भी बनी हैं। तब्बू अभिनीत ‘दृश्यम’ और रानी मुखर्जी अभिनीत ‘मर्दानी’ यादगार फिल्में हैं। सिंघम शृंखला भी सफल रही है। ‘ईश्वर’ नामक मर्मस्पर्शी फिल्म में काम करने वाली विजया शांति ने पुलिस अफसर की भूमिका का निर्वाह किया है। पूरन चंद राव की फिल्म ‘अंधा कानून’ में एक महिला के साथ दुष्कर्म हुआ था। उस महिला की पुत्री पुिलस अफसर बनकर अपराधियों को दंडित करना चाहती है। कानून के हाथ लंबे हैं, परंतु पहुंच सीमित है। अतः रजनीकांत अभिनीत भाई का पात्र अपने ढंग से अपराधियों को दंडित करता है। कोरोना कालखंड में पुलिस विभाग पूरी क्षमता से अपना काम कर रहा है। सच तो यह है कि सभी समुदाय सहायता का कार्य कर रहे हैं। इंदौर के आनंद मोहन माथुर ने कलेक्टर की सहमति से भगत सिंह ब्रिगेड के सदस्यों द्वारा लगभग 1000 परिवारों को गेहूं, चावल और दाल मुहैया कराई है। उनका कहना है कि अपने लंबे कॅरियर में उन्होंने ऐसा समय नहीं देखा, जब रेल और न्यायालय बंद कर दिए गए हों। अमेरिका में सबसे अधिक लोगों की मृत्यु की आशंका है। सभी लोग अपनी बंद रखी कारों के इंजन कुछ समय चलाते हैं ताकि बैटरीज काम करती रहे। सारे देश की बत्ती गुल रखने पर बिजली के ग्रिड बिगड़ने की आशंका एक मंत्री ने जाहिर की है। इस संकट काल में यह तय करना कठिन है कि सही क्या है, परंतु दया करने पर कोई विवाद नहीं है।



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यह तस्वीर इंदौर में तुकोगमज के टीआई निर्मल श्रीवास की है जो कोरोनावायरस की ड्यूटी के चलते रात में घर न जाकर होटल में रुकते हैं। घर के बाहर बैठकर ही खाना खाते हैं। पिछले 5 दिन से ऐसा ही कर रहे हैं।




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कोरोना के बाद कार्यस्थल बदल जाएंगे!

माहौल सही होने के बाद भी किसी सार्वजनिक परिवहन में छींकें नहीं, क्योंकि खांसने से सभी का ध्यान आपकी ओर आकर्षित होगा और छींकने पर लोग आपकी तरफ गुस्से से देखेंगे। यदि आप लगातार ऐसा करते हैं तो कोई सशक्त व्यक्ति आपको नीचे उतरने के लिए भी कह सकता है! हैरान हो गए? जी हां, लॉकडाउन के बाद की आदतें धीरे-धीरे सामने आ रहीं हैं। ऐसा सार्वजनिक परिवहन में अभी भले ही न हो, कम से कम अभी के लिए, कॉर्पोरेट में निश्चित तौर पर ऐसा जरूर होने लगा है। आपकी वर्क टेबल पर अब हैंड सैनिटाइजर भी एक जरूरी चीज होगी। इसके अलावा, आप खुद पेपर टिश्यू पर खर्च करेंगे। आप एक के बजाय दो रूमाल ले जाएंगे। आपके दराज में एक साबुन और नैपकिन हमेशा होगा ताकि आप कभी भी चेहरे और हाथों को धोकर पोंछ सकें। और अगर ऑफिस इन सभी बेसिक सुविधाओं को प्रदान करना शुरू कर देते हैं तो वे आपके ऑफर लेटर में सीटीसी (कॉस्ट टू कंपनी) में टेबल कॉस्ट भी जोड़ देंगे। मुंबई की कंपनियां जो नरीमन पॉइंट जैसी अधिक किराए वाली जगहों पर हैं, उन्होंने पहले ही अपनी नई रिक्रूटमेंट पॉलिसी में ये शामिल कर लिया है।

माताओं और गृहिणियों ने पहले से ही रसोई में शोर किए बिना काम करने का अभ्यास करना शुरू कर दिया है, क्योंकि पति, बेटी या बेटा, हमेशा कोई न कोई वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) कर रहा होता है और ‘जूम’ कॉल या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर रहा होता है। लॉकडाउन की अवधि समाप्त होने से पहले वे ‘बिना अवाज के खाना बनाने’ की कला सीख चुकी होंगी। क्या आप सोच रहे हैं कि लॉकडाउन के बाद ऑफिस जाने वाले लोग घर पर क्या करेंगे? क्योंकि तंग कार्यस्थल में सभी कर्मचारियों के बीच फिजिकल स्पेस बनाने के लिए कई प्रबंधन सभी कर्मचारियों के लिए बारी-बारी से वर्क फ्रॉम होम की सुविधा देने वाले हैं। यहां तक कि कॉन्फ्रेंस रूम में भी कम लोग होंगे। ऐसा सामान्य दिनों में भी फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने के लिए किया जाएगा।

जूम कॉल के दूसरी ओर आप एक मैनेजर के तौर पर न केवल अपने किसी कर्मचारी के घर प्रेशर कुकर की सीटी की आवाज को नजरअंदाज करेंगे, बल्कि आप इसकी गिनती भी रखेंगे कि प्रेशर कुकर में कितनी बार सीटी आई है। कभी-कभी आप कर्मचारी को बता भी देंगे कि कुकर पहले ही तीन से ज्यादा सीटी दे चुका है।

अगर आपका कुत्ता आपके कमरे की खिड़की के बाहर किसी चलती हुई चीज को देखकर भौंकता है तो आपको उसके पीछे भागने की जरूरत नहीं है। क्योंकि आपके सभी साथी पहले ही आपके पालतू जानवर से प्यार करने लगे हैं। बढ़ती हाथ धोने की आदतों की वजह से कर्मचारियों द्वारा बार-बार वाशरूम जाने से पानी की खपत बढ़ जाएगी। बिल्डिंग जिसमें किराए पर या खरीदे हुए कई कार्यालय हैं, वे पानी की रीसाइक्लिंग पर भारी निवेश करेंगी और पानी की खपत को कम करने के लिए योजनाओं की तलाश करेंगी।

टॉप बॉस से अनुमति मिलने से पहले आपकी यात्रा पर कई बार सवाल उठाए जाएंगे। क्योंकि हमने स्काइप, जूम और कई टेक्नोलॉजी टूल्स पर कई चीजें करने की कला सीख ली है। ट्रैवल प्लान को मंजूरी मिलने से पहले, उस जगह की सुरक्षा और शहर के नागरिक अधिकारियों के प्रदर्शन पर कम से कम एक बार चर्चा जरूर की जाएगी। इसी तरह, जिन कर्मचारियों को मुख्यालय जाने के लिए कहा जाएगा, उन्हें अपने एचआर विभाग से यह पूछने का अधिकार होगा कि उन्हें कार्यालय में किस जगह बैठाया जाएगा और वे कौन-सी सुविधाएं प्रदान करेंगे।

इसी दौरान कर्मचारियों पर नजर रखी जाएगी कि कौन कितनी बार छींक और खांस रहा है। जल्द ही इसका पता लगाने का भी कोई तरीका आ जाएगा। एक सामान्य मेडिकल टेस्ट एचआर के रुटीन काम का हिस्सा बन जाएगा। कर्मचारियों और कार्यस्थल में आने वाले वाले हर व्यक्ति के बुखार की जांच करना, सुरक्षाकर्मियों के काम में शामिल हो जाएगा। अब सुरक्षा का काम कंपनियों के लिए अधिक खर्चीला हो जाएगा, क्योंकि अब उन्हें इस काम के लिए कई कौशलों वाले व्यक्ति चाहिए होंगे। आप किसी को सिर्फ यूनिफॉर्म पहनाकर बाहर मूर्ति की तरह खड़ा नहीं कर सकते हैं, उसके पास कुछ कौशल भी होने चाहिए।
फंडा यह है कि हो सकता है कोरोना के बाद आप नए कार्यस्थल में जाएंगे, जिसमें नई सुविधाएं और नई तरह की आदतें होंगी। खुद को इसके लिए तैयार रखें।



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(फाइल फोटो)