india news मौसम है कातिलाना पृथ्वी को है बचाना By Published On :: Fri, 21 Feb 2020 20:09:00 GMT कमल हासन अभिनीत फिल्म ‘इंडियन 2’ की शूटिंग के समय क्रेन से गिर जाने से तीन तकनीशियनों की मृत्यु हो गई, 15 घायल हो गए। हर स्टूडियो में एंबुलेंस रखी जाती है। घायलों को तुरंत अस्पताल भेज दिया गया। विगत कुछ वर्षों से शूटिंग के समय कलाकारों और तकनीशियनों का बीमा कराया जाता है।कमल हासन ने भी मृतकों के हर परिवार को एक एक-एक करोड़ रुपए देने की घोषणा की है। साथ ही यह भी कहा है कि कोई भी राशि मनुष्य के जीवन के बराबर नहीं होती। उनके द्वारा मृतकों के परिवार को दिया जाने वाला धन महज सहानुभूति अभिव्यक्त करता है।मनमोहन देसाई की फिल्म ‘कुली’ के सेट पर हुई दुर्घटना में अमिताभ बच्चन घायल हुए थे। मनमोहन देसाई ने दुर्घटना वाले शॉट को फ्रीज करके फिल्म में इस्तेमाल किया। इस शॉट को देखने के लिए दर्शकों में उत्साह रहा। इस तरह दुर्घटना भी बॉक्स ऑफिस पर भुना ली गई।मनोज कुमार की फिल्म ‘क्रांति’ के लिए एक सेट लगाया गया था, जिसमें पैसे की बचत का ध्यान रखा गया। परिणाम यह हुआ कि शूटिंग के समय वह दीवार भरभराकर गिर गई, इसमें कैमरामैन नरीमन ईरानी की मृत्यु हो गई। ईरानी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘डॉन’ का निर्माण कर रहे थे। सलीम खान की पहल पर प्रदर्शन से प्राप्त आय कैमरामैन की पत्नी को दी गई। फिल्म ‘शबनम’ की शूटिंग के समय नायक श्याम घोड़े से गिरकर मर गए थे। इसी तरह हास्य कलाकार गोप की मृत्यु के बाद उनकी शक्ल से मिलते-जुलते एक कलाकार के साथ फिल्म पूरी की गई।एक दौर में एक नन्हा महमूद भी फिल्मों में अवसर पाने लगा था। कपड़े और चाल-ढाल के साथ ही युवा नाई से कहते हैं कि उनके बाल फलां सितारे जैसे बना दो। यहां तक कोई विशेष हानि नहीं होती, परंतु जब कस्बाई युवा स्वयं को सचमुच सितारा समझने लगता है तब बहुत नुकसान होता है। नाई की दुकान को अफवाहों की नर्सरी भी कह सकते हैं। नेताओं के विषय में मजाक भी यहां बनाए जाते हैं। ज्ञातव्य है कि महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ के एक दृश्य की शूटिंग में सुनील दत्त ने नरगिस को झुलसने से बचाया था।इसी घटना से उनकी प्रेम कथा प्रारंभ हुई और उन्होंने शादी कर ली। आर.के.स्टूडियो में एक टेलीविजन सीरियल की शूटिंग हो रही थी। दिवाली के दृश्य के लिए सैकड़ों दीये जलाए गए थे। शूटिंग समाप्त होने पर एक दीया जलता रह गया, जिससे आग लगने के कारण पूरा स्टूडियो खाक हो गया। एक फिल्म विरासत नष्ट हो गई। कुछ लोगों का अनुमान है कि चीन की प्रयोगशाला में केमिकल युद्ध के लिए एक वायरस का विकास किया जा रहा था। दुर्घटना स्वरूप एक जार फूट गया। चीन में हजारों लोगों की मृत्यु हो गई।अस्पताल में इलाज जारी है। पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था इस वायरस के कारण हताहत हो गई है। दुर्घटना कहीं भी हो, आम आदमी ही सबसे अधिक कष्ट पाता है। राकेश रोशन की फिल्म ‘कृष’ में भी खलनायक एक वायरस से अवाम को हानि पहुंचाता है। कुछ फिल्मों में इस तरह के दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।इस समय सबसे बड़ी चिंता यह है कि पृथ्वी को बचाना है। विश्व में तापमान रूठी हुई महबूबा की तरह हो गया है। कई देशों के जंगलों में आग लग रही है। पौधारोपण और उनकी रक्षा एकमात्र बीमा है जो हम अपने बचाव में कर सकते हैं। एक वृक्ष को बचाना इस बीमे की एक किस्त चुकाने की तरह आम आदमी अपनी किफायत और बचत की जीवनशैली से पृथ्वी की रक्षा कर सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अभिनेता कमल हासन। Full Article
india news हर पहल छोटी शुरुआत के बाद ही बड़ी बनती है By Published On :: Fri, 21 Feb 2020 20:13:00 GMT सारा, यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्डन की छात्र थी, जिसे उसके पिता और भाई रोजाना बुरी तरह पीटते थे। जब भी वह क्लास में आती, उदास और दु:खी दिखती और उसके चेहरे पर चोट के निशान होते। लिना खलिफेह को जिज्ञासा हुई कि सारा के जीवन में क्या चल रहा है। लिना जॉर्डन से वन यंग वर्ल्ड एम्बेसडर हैं।सारा ने लिना को कभी नहीं बताया कि उसके साथ क्या गलत हो रहा है, लेकिन एक दिन उसने पूरी कहानी बता दी। लिना ने पूछा कि वह इसके लिए कुछ करती क्यों नहीं, तो सारा का जवाब कई भारतीय महिलाओं की तरह ही था, ‘लिना यह जॉर्डन है। पुरुषों के दबदबे वाले समाज में मैं क्या कर सकती हूं?’लिना उस देश में पली-बढ़ी थीं, जहां केवल पुरुषों का महत्व था। लिना को इस सोच से नफरत थी। उन्हें लगता था कि महिलाएं बिना पुरुषों की मदद के भी जिंदगी जी सकती हैं। लिना की किस्मत अच्छी थी कि उन्हें 5 वर्ष की उम्र में मार्शल आर्ट्स सीखने दिया गया। यही कारण था कि वे बाद में बहुत व्यावहारिक लड़की बनीं।सारा से मिलने के बाद लिना ने तय किया कि वे अपने घर के बेसमेंट में महिलाओं को आत्मरक्षा (सेल्फ-डिफेंस) का प्रशिक्षण देंगी। उन्होंने अपनी दो दोस्तों को सिखाने से शुरुआत की। उन्होंने 2012 में महिलाओं के लिए खुद का सेल्फ-डिफेंस स्टूडियो शुरू करने का फैसला लिया, जिसका नाम ‘शीफाइटर’ था।सभी ने उनसे कहा कि वे असफल होंगी, लेकिन उन्होंने निगेटिव कमेंट्स नजरअंदाज किए और वही किया जो दिल को सही लगा। दो साल में ही ‘शीफाइटर’ बहुत सफल हो गया। पूरे जॉर्डन और मिडल ईस्ट में इसने 12 हजार महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। उन्होंने कई एनजीओ के साथ मिलकर सीरिया के शरणार्थियों को भी प्रशिक्षण दिया।लिना ने 2014 में स्टूडियो को विस्तार दिया और ‘शीफाइटर’ को तेजी से फैलाने का फैसला लिया। ‘प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण’ (ट्रेनिंग ऑफ ट्रेनर्स) कोर्स शुरू किए, जिससे स्कूलों, विश्वविद्यालयों और असुरक्षित इलाकों के प्रोजेक्ट्स के लिए प्रशिक्षक भेजना आसान हो गया। सेल्फ-डिफेंस के माध्यम से महिला सशक्तिकरण पर की गई उनकी मेहनत की वजह से उन्होंने वुमन इन ग्लोबल बिजनेस अवॉर्ड में प्रथम पुरस्कार जीता, जो जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र में आयोजित किया गया था।इस पुरस्कार से उन्हें कई अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंसेस में ‘शीफाइटर’ के बारे में बात करने में मदद मिली। मई 2015 में उन्हें व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया गया, जहां अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनके काम की और महिलाओं को सहयोग की तारीफ की। फिर उन्होंने अपने लिए नया लक्ष्य रखा- दुनियाभर में 30 लाख महिलाओं को प्रशिक्षण देना।मुझे लिना की कहानी तब याद आई जब मुझे बेंगलुरु पुलिस की डीसीपी ईशा पंत के बारे में पता चला, जिन्हें महसूस हुआ कि उनकी फोर्स की महिलाएं डेस्क जॉब में ही उलझी रहती हैं। इसके बाद उन्हें घरेलू जिम्मेदारियों के लिए घर भागना पड़ता था। ईशा ने इसमें दखल दिया और उनका उत्साह बढ़ाया। फिलहाल 15 महिला कॉनिस्टेबल को वहां प्रशिक्षण दिया जा रहा है।ईशा को इनमें से कुछ महिलाओं पर बहुत गर्व है, क्योंकि वे अपने मुक्के या किक में ऐसी तकनीक इस्तेमाल करती हैं, जिससे हमलावर चंद सेकंड में हार जाए। अब ये कॉनिस्टेबल्स स्कूलों और कॉलेजों में युवा लड़कियों, बच्चियों को सेल्फ-डिफेंस के लिए मार्शल आर्ट्स सिखाने जाती हैं। बेशक अभी इनकी संख्या कम है, क्योंकि इस मिथक को तोड़ने में समय लगता है कि लड़कियां कमजोर होती हैं। उनका नारा याद रखिए, ‘गो एंड पंच लाइक ए गर्ल।’ (जाओ और लड़की की तरह मुक्का मारो)फंडा यह है कि हर पहल छोटी संख्या से ही शुरू होती है, लेकिन खुद पर विश्वास के साथ जिद और जुनून इसे बड़ा बनाता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news डोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति कार्यक्रम की आयोजक, पर इसकी न वेबसाइट, न कोई अध्यक्ष; खर्च भी सरकार ही कर रही By Published On :: Sun, 23 Feb 2020 05:08:45 GMT अहमदाबाद. गुजरात केमोटेरा स्टेडियम में 24 फरवरी को "नमस्ते ट्रम्प' कार्यक्रम होगा। इस कार्यक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होंगे। अमेरिका के ह्यूस्टन में 5 महीने पहले हुए ‘हाउडी मोदी’कार्यक्रम की तरह ही इसे भी भव्य बनाने की तैयारी हो रही है। हाउडी मोदी कार्यक्रम को टेक्सास इंडिया फोरम ने आयोजित करवाया था। लेकिन नमस्ते ट्रम्प का आयोजक कौन है? गुरुवार से पहले तक लग रहा था कि इसे केंद्र सरकार ही आयोजित करवा रही है या फिर गुजरात सरकार या हो सकता है कि भाजपा का कार्यक्रम होगा।विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने बताया था कि 'डोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति'कार्यक्रम की आयोजक है। ट्रम्प के भारत दौरे की जानकारी व्हाइट हाउस ने 10 फरवरी को ही दे दी थी। कुछ महीनों पहले से भी अहमदाबाद में ट्रम्प के स्वागत में ऐसा कार्यक्रम होने की बात चल रही थी। लेकिन रवीश कुमार के बयान से पहले तक कभी भी इस समिति के बारे में कोई चर्चा तक नहीं थी। यहां तक कि सरकार ने भी इससे पहले इस समिति के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। इसकी न तो कोई वेबसाइट है। न ट्विटर अकाउंट और न ही फेसबुक पेज।कार्यक्रम पर 100 करोड़ रुपएखर्च होंगेडोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति एक निजी संस्था है और निजी संस्था के कार्यक्रम में सरकारी खर्च क्यों किया जा रहा है? न्यूज एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रम्प के दौरे पर सरकार 80 से 85 करोड़ रुपए खर्च कर रही है। कुछ खबरों में 100 करोड़ रुपए खर्च की भी बात हो रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी लगातार इस कार्यक्रम को लेकर मीटिंग कर रहे हैं। भास्कर की पड़ताल में पता चला कि आयोजन के खर्च को सरकार के खाते में दिखाने से बचने के लिए समिति बनाई गई। इसके जरिए बड़े काॅर्पाेरेट्स, सरकारी कंपनियां और सहकारी संगठन भी सीएसआर के तहत चंदा दे सकते हैं। डोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति के नाम पर बवाल क्यों?1) समिति है भी, तो इसकी कहीं जानकारी क्यों नहीं?इंटरनेट पर इस समिति के बारे में कोई जानकारी मौजूद नहीं है। इसकी न कोई वेबसाइट है। न ही कोई ट्विटर अकाउंट और न ही कोई फेसबुक पेज। यहां तक कि इस समिति का अध्यक्ष कौन है? इसके सदस्य कौन-कौन हैं? इस बारे में भी किसी को नहीं पता। न ही सरकार ने इस बारे में कोई जानकारी दी।अहमदाबाद पश्चिम के सांसद डॉ. किरीट सोलंकी समिति के सदस्य हैं। उन्होंने भास्कर से कहा कि शुक्रवारसुबह ही उन्हेंफोन आया तो इसका पता चला। खर्च समिति को उठाना है, इसके लिए फंड कहां से और कैसे आएगा, इस सवाल पर उन्होंने कहा, ऐसा किसने कहा? एक अन्य सदस्य हसमुख पटेल ने कहा कि समिति के काम के बारे में शनिवार को 12 बजे मीटिंग में तय होगा। फंड के बारे मेंं भी मीटिंग में चर्चा होगी।2) आयोजक समिति है, तो कार्यक्रम के पास एएमसी और कलेक्टर से क्यों मिल रहे?अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर आशीष भाटिया ने पहले कह चुके हैंकि कार्यक्रम के लिए इन्विटेशन पास अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (एएमसी) या कलेक्टर से ले सकते हैं। अब अगर कार्यक्रम का आयोजक समिति है तो पास एएमसी और कलेक्टर से क्यों मिल रहे हैं? कुछ सवाल, जो विदेश मंत्रालय के बयान के बाद खड़े हो रहे1) सरकार आयोजक नहीं, तो सरकार ने इसके लिए वेबसाइट क्यों बनाई?सरकार ने namastepresidenttrump.in वेबसाइट भी बनाई है। इस वेबसाइट को गुजरात सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी ने डेवलप किया है। लेकिन इस वेबसाइट पर "About Us' का पेज ही नहीं है। इस वेबसाइट के नाम से ट्विटर और फेसबुक पर भी अकाउंट बनाया गया है।2) समिति आयोजक है, तो पोस्टर-बैनर में उसका जिक्र क्यों नहीं?अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रम्प’कार्यक्रम के मोदी-ट्रम्प की फोटो के साथ 10 हजार पोस्टर, बैनर, होर्डिंग, विज्ञापन लगाए जा चुके हैं। लेकिन किसी भी बैनर या पोस्टर पर डोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति का नाम तक नहीं है। अहमदाबाद की मेयर ने शुक्रवार को ट्वीट किया, मैं अभिनंदन समिति की प्रमुख हूं। बाद में उन्होंने मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया। कमेटी के कुछ सदस्य बाेले कि उन्हें कुछ पता ही नहीं है। उल्टा वे अपनी भूमिका पूछ रहे थे।3) स्टेडियम का उद्घाटन क्यों नहीं हो सकता?स्टेडियम का उद्घाटन करना हाे तो आयोजक के रूप में जीसीए का नाम होगा। अभी तक जीसीए के प्रमुख का चुनाव नहीं हुआ है। ऐसे में ट्रम्प के अभिनंदन पर होने वाला खर्च भी जीसीए के खाते में आ जाता। डिप्टी सीएम नितिन पटेल बोले- सरकार का कार्यक्रम में सीधा रोल नहींडोनाल्डट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति के बारे में जब भास्कर ने गुजरात के डिप्टी सीएम नितिन पटेल से बात की तो उन्होंने कहा- सरकार का इसमें सीधा रोल नहीं है। हमारा काम तो व्यवस्था करना था। मेरा निजी तौर पर मानना है कि यह समिति शहर के नागरिकों की हो सकती है।इस बारे में और ज्यादा जानने के लिए अहमदाबाद की मेयर बिजल पटेल को 5 बार फोन भी किया, लेकिन उनका फोन रात साढ़े 8 बजे तक बंद आ रहा था। गुजरात भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता भरत पंड्या और प्रशांत वाला का फोन भी बंद था। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री विजय रूपाणी, मेयर बिजल पटेल और अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के कमिश्नर विजय नेहरा को ट्वीट कर भी इस बारे में जानने की कोशिश की, लेकिन उनकी ओर से भी कोई जवाब नहीं आया।शनिवार को बैठक भी हुईडोनाल्ड ट्रम्प नागरिक अभिनंदन समिति की शनिवार को बैठक भी हुई। इसमें गुजरात यूनिवर्सिटी के कुलपति हिमांशु पंड्या, पद्मभूषण से सम्मानित बीवी दोषी, चेम्बर ऑफ कामर्स के दुर्गेश बुच पहुंचे। समिति में पद्मश्री प्राप्त 8 लोगों को भी शामिल करने की चर्चा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Donald Trump Ahmedabad | US President Donald Trump Namaste Trump Program 24 February Updates On Gujarat Ahmedabad Donald Trump Nagarik Abhivadan Samiti Full Article
india news सृजन के क्षेत्र में जुगलबंदी और सफलता की कहानियां By Published On :: Mon, 24 Feb 2020 02:12:00 GMT फिल्मकारों के प्रिय कलाकार होते हैं, जिन्हें वे बार-बार अपनी फिल्मों में लेते हैं। सत्यजीत रे की 27 में से 14 फिल्मों में सौमित्र चटर्जी ने अभिनय किया है। महबूब खान अपनी अधिकांश फिल्मों में दिलीप कुमार को लेना चाहते थे। गुरु दत्त रहमान को महत्वपूर्ण भूमिकाएं देते थे। संघर्ष के दिनों में वे दोनों गहरे मित्र रहे। इसी तरह गुरु दत्त जॉनी वॉकर को भी अधिक अवसर देते थे। फिल्मकार शंकर बार-बार रजनीकांत के साथ काम करते रहे हैं।फिल्मकार आर. बाल्की अमिताभ बच्चन के साथ फिल्में करते रहे हैं। यहां तक कि उन्होंने अपनी एक फिल्म का नाम ‘शमिताभ’ रखा। यश चोपड़ा और आदित्य चोपड़ा ने शाहरुख खान के साथ फिल्में कीं। चरित्र भूमिकाएं करने वाले रशीद खान राज कपूर और देव आनंद की फिल्मों में देखे गए।फिल्मकार हिंगोरानी ने सभी फिल्में धर्मेंद्र के साथ बनाईं, जिन्हें उन्होंने पहला अवसर भी दिया था। ऋषिकेश मुखर्जी ने जया ‘भादुड़ी’ और असरानी को अपनी फिल्मों में बार-बार लिया। सुभाष कपूर, सौरभ शुक्ला को अवसर देते रहे हैं। सुभाष घई ने अनिल कपूर के साथ बहुत फिल्में की हैं। यहां तक कि उनकी फिल्म ‘ताल’ में अनिल कपूर ने नकारात्मक भूमिका अभिनीत की।करण जौहर ने कहा था कि वे बिना शाहरुख खान के किसी फिल्म का आकलन नहीं कर पाएंगे, परंतु ऐसा हुआ नहीं। गोविंदा, डेविड धवन के मनपसंद कलाकार रहे हैं। मणिरत्नम, ऐश्वर्या राय बच्चन को बार-बार लेते रहे हैं। मनमोहन देसाई की सभी फिल्मों में जीवन खलनायक की भूमिका में लिए गए। राज कपूर के आखिरी दौर में कुलभूषण खरबंदा और रजा मुराद को बार-बार लिया गया।विदेशों में भी फिल्मकार अपने प्रिय कलाकारों के साथ बार-बार काम करते रहे हैं। विटोरियो डी सिका ने अपनी फिल्मों में मार्सेलो मास्ट्रोयानी को दोहराया है। कार्लो पोंटी की फिल्मों की नायिका सोफिया लॉरेन रही हैं। कुछ फिल्मकारों ने हमेशा अपने प्रिय संगीतकारों के साथ काम किया है। अमिया चक्रवर्ती और किशोर साहू, शंकर-जयकिशन के साथ काम करते रहे। निर्माता कमाल अमरोही ‘दिल अपना प्रीत पराई’ के लिए नौशाद या गुलाम हैदर को लेना चाहते थे, परंतु निर्देशक किशोर साहू, शंकर जयकिशन के साथ ही काम करना चाहते थे। यहां तक कि इस बात पर फिल्म भी छोड़ने तक तैयार हो गए।साउंड रिकॉर्डिस्ट अलाउद्दीन खान साहब ने केवल राज कपूर के लिए काम किया। परिवार की जिद के कारण संजय खान के सीरियल ‘टीपू सुल्तान’ के लिए वे कठिनाई से तैयार हुए थे। टीपू सुल्तान के सेट पर आग लगने के कारण अलाउद्दीन खान की मृत्यु हो गई। राज कपूर ने ‘आवारा’ (1951) से ‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985) तक कैमरा मैन राधू करमाकर के साथ ही काम किया। सुभाष घई हमेशा आनंद बख्शी के साथ ही काम करते रहे। सुभाष घई की अधिकांश फिल्मों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने संगीत दिया।अपनी फिल्म ‘ताल’ के लिए वे ए.आर.रहमान के पास पहुंचे, परंतु आनंद बख्शी का साथ उन्होंने नहीं छोड़ा। जब आनंद बख्शी अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे तब उन्होंने एकगीत लिखा... ‘मैं कोई बर्फ नहीं कि पिघल जाऊंगा, मैं कोई हर्फ नहीं कि मिट जाऊंगा, मैं बहता दरिया हूं बहता रहूंगा, किनारों में मैं कैसे सिमट जाऊंगा।’दरअसल सभी क्षेत्रों में जोड़ियां बन जाती हैं। बिना कुछ कहे भी एक-दूसरे की बात को समझ लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। आपसी समझदारी के कारण टीम बन जाती है। प्राय: फिल्म निर्माण को टीमवर्क कहा जाता है, परंतु सत्य है कि फिल्मकार के आकल्पन को ठीक से समझकर लोग काम करते हैं। इसलिए फ्रांस के आलोचकों ने यह विचार रखा कि जैसे किताब का श्रेय लेखक हो जाता है, वैसे फिल्म का श्रेय निर्देशक हो जाता है। यहां आपसी समझदारी का यह अर्थ नहीं है कि किसी मुद्दे पर मतभेद नहीं होता।आपसी समझदारी में विरोध को सादर स्थान दिया जाता है और तर्क सम्मत बात स्वीकार की जाती है। रिश्ते की गहराई और मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि विरोध करते हुए भी तर्क द्वारा लिए गए निर्णय का सम्मान सब पक्ष करते हैं। कुछ लोग अपने पूर्वागृह से कभी मुक्त नहीं हो पाते। एक विभाजनकारी कानून की मुखालफत जगह-जगह हो रही है, परंतु अपने अहंकार के कारण उसे खारिज नहीं किया जा रहा है।केदार शर्मा अपनी सब फिल्मों में गीता बाली को लेते थे। एक फिल्म में गीता बाली के लिए कोई भूमिका नहीं थी तो उसने जिद करके पुरुष की भूमिका अभिनीत की। फिल्म असफल रही, क्योंकि दर्शक यह मानते रहे कि गीता बाली अपने सच्चे स्वरूप में आकर फिल्म के क्लाइमैक्स को उत्तेजक बना देंगी। अहंकार हादसे ही रचता है। ताराचंद बड़जात्या की फिल्म ‘दोस्ती’ का एक पात्र अंधा है दूसरे के पैर नहीं। जोड़ी बनकर वे मंजिल पर पहुंच जाते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news बच्चे स्क्रीन को तभी भूलेंगे, जब हम उनके लिए उपलब्ध रहेंगे By Published On :: Mon, 24 Feb 2020 02:12:35 GMT वो 2013 में पैदा हुआ था। जब वह 18 महीने का हुआ तो उसे एक्रिलिक कलर्स और एक कैनवास दे दिया गया। उसने खूबसूरत एब्सट्रैक्ट (अमूर्त) पेंटिंग्स बनाईं। उसके माता-पिता विभिन्न व्यंजनों से परिचय कराने के लिए उसे अलग-अलग देश ले गए। तीन साल की उम्र में उन्होंने उसे पहली पहेली दी। फिर वे 30 पहेलियां और लेकर आए। वह तब तक 90 से ज्यादा पौधे लगा चुका था। उसकी 200 से ज्यादा किताबों की खुद की लाइब्रेरी है।जिसमें डायनोसॉर्स, शार्क्स और अंतरिक्ष के बारे में इंसाइक्लोपीडिया भी हैं। वह बहुत अच्छा बच्चा था और माता-पिता को उसपर गर्व था। लेकिन उन्होंने एक गलती कर दी। उसे नर्सरी की कविताएं सिखाने के लिए यू़ट्यूब दिखा दिया। उन्होंने टीवी, मोबाइल, आइपैड और कम्प्यूटर जैसे स्क्रीन्स के तमाम विकल्प खोल दिए। वह उनमें घंटों डूबा रहने लगा। फिर वह खाना खाते वक्त भी स्क्रीन की मांग करने लगा। उसके माता-पिता को पता नहीं था कि वे चक्रव्यूह में फंसते जा रहे हैं।बच्चा अब भी आज्ञाकारी था और चार साल की उम्र तक खेलता-कूदता भी था। जब वह 5 साल का हो गया, तो उसकी लत मजबूत होती गई। वह स्कूल से लौटता, बैग सोफे पर पटकता और जब घर का नौकर उसे खाना खिलाता, तो टीवी पर पेपा पिग देखता रहता। कभी-कभी वह चार रोटियां खा लेता, तो कभी-कभी एक भी नहीं। बाद में डॉक्टरों ने बताया कि उसके पेट में पाचन वाले रसायन बनना बंद हो गए हैं। वह खाने को देख नहीं रहा था, सूंघ नहीं रहा था। वह कभी अपने हाथ से नहीं खाता था। वह आलसी हो गया था और होमवर्क भी नहीं करता था। उसके नखरे घंटों चलते थे, जो उसकी उम्न के लिए स्वाभाविक नहीं थे।ऐसा सिर्फ यही बच्चा नहीं है, बल्कि यह घर-घर की कहानी है। खाना, पानी और ऑक्सीजन के बाद स्क्रीन्स जीवन का चौथा जरूरी भाग बन गई हैं। वे हर जगह हैं। और ये अटेंशन डेफिसिट हायपरएक्टिव डिस्ऑर्डर (एडीएचडी) बीमारी के लिए जिम्मेदार हैं। तो क्या आप सोच रहे हैं कि इस समस्या को कैसे हराया जाए? सामाजिक कार्यकर्ता बाबा आमटे की पोती डॉ शीतल आमटे-कराजगी ने अपने 6 वर्षीय बेटे शरविल की स्मार्टफोन की लत से छुटकारा पाने में मदद की है।जब शीतल सितंबर 2019 में डेवलपमेंट पीडियाट्रिशियन डॉ समीर दलवाई से मिलीं, तो समीर ने बताया कि स्क्रीन की लत ड्रग्स से भी ज्यादा खतरनाक है। शीतल बेटे के दोस्तों को नहीं जानती थीं और उन्हें यह भी पता चला कि वह घर पर रिश्तेदारों को संभालने में भी व्यवहारकुशल नहीं था। इससे उसकी मुश्किल परिस्थितियों में खुद को संभालने की क्षमता प्रभावित हो रही थी। वे शरविल के साथ बैठीं और उसे बताया कि अगले आठ दिन तक वे हर पल उसके साथ रहेंगी। उन्होंने वादा किया कि उसे मजा आएगा। उसे कुछ समझ नहीं आया लेकिन उसने मां पर भरोसा किया।अगली सुबह से शरविल को सुबह उठाकर स्कूल के लिए तैयार करने से लेकर, रात में उसे सुलाने तक, हर गतिविधि को शीतल ने नियंत्रित करना शुरू किया। सारे पुराने खेल अलमारी से बाहर निकाले और सभी जगह फैला दिए। शरविल जब स्कूल से लौटा तो उन्होंने उसे डाइनिंग टेबल पर बैठाया और एक कहानी सुनाई जिसमें वही हीरो था। ऐसा करते हुए उन्होंने उसे अपने ही हाथ से खाने को कहा। यह जोखिम भरा था लेकिन उसने एक रोटी खा ली।अगली एक्टिविटी थी एक्सकेवेटर्स (खुदाई मशीनों जैसे खिलौने) के साथ मिट्टी में खेलना। इसमें वह कुछ घंटों तक व्यस्त रहा। उसके दादा-दादी उसके लिए ऊनो और डोबल जैसे गेम्स भी लाए थे, जो उसे मजेदार लगे। रात के खाने के वक्त भी शीतल ने उसे खुद अपने हाथों से खाने दिया और कहानियां सुनाईं। सोते समय भी फिर एक कहानी पढ़कर सुनाई।दूसरे दिन उन्होंने ‘नो स्क्रीन’ गेम खेला। जो भी स्क्रीन देखते पाया जाता, उसे वह स्क्रीन तुरंत नीचे रखनी पड़ती। शरविल को यह गेम बहुत पसंद आया क्योंकि इसमें उसे बहुत पॉवर मिली थी। जब भी वह चिल्लाता ‘नो स्क्रीन’ तो सभी अपने मोबाइल नीचे रख देते और टीवी बंद कर देते। तीसरा दिन भी अच्छे से बीता। चौथे दिन उसने अपनी दादी के साथ 300 पीस वाली पहेली 3.5 घंटे में पूरी की।उसने ऊनो खेला और 25 बार जीता। माता-पिता तभी कम्प्यूटर पर काम करते थे, जब वह घर पर नहीं होता था। जब वह स्कूल से लौटता तो सभी स्क्रीन्स बंद कर दी जातीं। उन्होंने फिर से पेंटिंग शुरू कर दी। शरविल को स्क्रीन्स की लत भुलाने में सिर्फ आठ दिन का वक्त लगा। दिन, हफ्ते और महीने बीत गए हैं। शरविल ने अब स्क्रीन्स की तरफ देखना बंद कर दिया है।फंडा यह है किअगर आप चाहते हैं कि बच्चे स्क्रीन को भूल जाएं तो आपको उनके सामने खुद मौजूद रहना होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news दौरे से 3 महीने पहले ही सीक्रेट सर्विस के एजेंट पहुंच जाते हैं, राष्ट्रपति के रूट पर गाड़ी पार्क करने की भी मनाही By Published On :: Mon, 24 Feb 2020 07:34:49 GMT नई दिल्ली. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 24-25 फरवरी को भारत के दौरे पर रहेंगे। वे गुजरात के अहमदाबाद और आगरा के ताजमहल भी जाएंगे। अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर नेता होता है। इसलिए सिक्योरिटी भी खास होती है। भारत आने पर ही ट्रम्प थ्री-लेयर की हाई सिक्योरिटी में रहेंगे। पहले घेरे में अमेरिका की सीक्रेट सर्विस, इसके बाद एसपीजी और फिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच की टीम रहेगी।अमेरिकी न्यूज वेबसाइट ओरेगोनियन की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी राष्ट्रपति के किसी भी दौरे से पहले सीक्रेट सर्विस तीन महीने पहले ही वहां पहुंच जाती है और वहां की लोकल पुलिस के साथ मिलकर सिक्योरिटी की तैयारी शुरू कर देती है। राष्ट्रपति के आने से पहले ही एयरस्पेस क्लीयर करवा लिया जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प एयरफोर्स वन से भारत आएंगे। इसे दुनिया का सबसे सुरक्षित विमान कहा जाता है। ये विमानराष्ट्रपति ऑफिस की तरह ही रहता है। इसमें वह सारी सुविधाएं रहती हैं, जो एक ऑफिस में रहती है।अमेरिकी राष्ट्रपति के आने से पहले किस तरह की तैयारी होती है? राष्ट्रपति के दौरे से कम से कम 3 महीने पहले ही यूएस सीक्रेट सर्विस के एजेंट वहां पहुंच जाते हैं। एजेंट यहां पर लोकल पुलिस, एजेंसियों के साथ मिलकर राष्ट्रपति के दौरे का खाका तैयार करते हैं। ट्रेवल रूट और सबसे नजदीकी ट्रॉमा सेंटर की पहचान भी करते हैं। इसके साथ ही किसी भी तरह के संभावित हमले या इमरजेंसी से निपटने के लिए राष्ट्रपति के लिए सेफ लोकेशन भी तय करते हैं। यूएस सीक्रेट सर्विस के एजेंट लोकल पुलिस के साथ मिलकर संभावित खतरे की पहचान करते हैं।जिन लोगों से राष्ट्रपति को खतरा हो सकता है, ऐसे लोगों की पहचान की जाती है और फिर उन पर नजर रखी जाती है। राष्ट्रपति के दौरे से कुछ दिन पहले से स्नीफर डॉग्स को लाया जाता है। इनकी मदद से राष्ट्रपति के रूट की जांच की जाती है। ताकि विस्फोटक का पता लगाया जा सके।उनके रूट के आसपास गाड़ियों को भी खड़ा नहीं होने दिया जाता, ताकि कोई कार या गाड़ी में बम न रख दे।एयरफोर्स वन : दुनिया का सबसे सुरक्षित विमान, इसी से राष्ट्रपति सफर करते हैंराष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका से भारत एयरफोर्स वन विमान से आएंगे। ये विमान बोइंग 747-200बी सीरीज का विमान होता है। ऐसे दो विमान होते हैं, जिन पर 28000 और 29000 कोड होता है। एयरफोर्स वन को मिलिट्री विमान की कैटेगरी में रखा गया है, क्योंकि ये किसी भी तरह का हवाई हमला झेल सकता है। ये न सिर्फ दुश्मन के रडार को जाम कर सकता है, बल्कि मिसाइल भी छोड़ सकता है। इस विमान में हवा में ही फ्यूल भरा जा सकता है। एयरफोर्स वन एक तरह से राष्ट्रपति ऑफिस की तरह ही काम करता है। इसमें वो सारी सुविधाएं होती हैं, जो राष्ट्रपति ऑफिस में होती है। इसमें एक कम्युनिकेशन सेंटर भी होता है, जिससे राष्ट्रपति जब चाहें, जिससे चाहें फोन पर बात कर सकते हैं। इसमें 85 ऑनबोर्ड टेलीफोन, कम्प्यूटर सिस्टम और रेडियो सिस्टम होते हैं।विमान में 4 हजार स्क्वायर फीट का एरिया, दो किचन, कमरे, कॉन्फ्रेंस रूम भीतीन फ्लोर वाले इस विमान में 4 हजार स्क्वेयर फीट का एरिया होता है। इसमें राष्ट्रपति के लिए सुइट होता है। मेडिकल फैसिलिटी होती है। कॉन्फ्रेंस रूम, डाइनिंग रूम और जिम भी होता है। इसमें दो किचन भी होतेहैं, जिसमें एक बार में 100 लोगों का खाना बन सकता है। इसके साथ ही इसमें प्रेस, सिक्योरिटी स्टाफ, ऑफिस स्टाफ और वीआईपी के लिए भी कमरे बने होते हैं।राष्ट्रपति के पास न्यूक्लियर अटैकका बटन हमेशा साथ रहता है2018 में उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन ने ट्रम्प को धमकी देते हुए कहा था कि उनके पास न्यूक्लियर बम का बटन है। जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी कह दिया कि उनके पास उनसे ज्यादा शक्तिशाली और बड़ा बटन है। वॉशिंगटन पोस्ट के मुताबिक, राष्ट्रपति के साथ हमेशा एक लेदर बैग लिए सेना का अफसररहता है। इस बैग में न्यूक्लियर हथियारों के इस्तेमाल और उनके लॉन्च करने का कोड होता है। इस बैग को ‘फुटबॉल’कहते हैं। यह यूनिक कोड होता है, जो हमेशा राष्ट्रपति के साथ रहता है। राष्ट्रपति बाहर दौरे पर भी हैं, तो भी उनके साथ यह कोड होता है। अगर कोई इमरजेंसी आ जाए या युद्ध जैसे हालात हों, तो राष्ट्रपति दुनिया में कहीं से भीन्यूक्लियर हथियारों को लॉन्च करने का आदेश दे सकते हैं।ट्रम्प की कार "द बीस्ट': न्यूक्लियर अटैक तक झेल सकती है, टायर पंक्चर भी हो, फिर भी चलेगी ट्रम्प के दौरे से पहले ही उनकी कार "द बीस्ट' अमेरिकी एयरफोर्स के सी-17 ग्लोबमास्टर ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट से भारत आ चुकी हैं। इस कार को अमेरिकी कंपनी जनरल मोटर्स ने तैयार किया है। ट्रम्प की कार को दुनिया की सबसे सुरक्षित कार माना जाता है, जिसपर न्यूक्लियर अटैक और कैमिकल अटैक तक का भी असर नहीं होता। इस कार का वजन 20 हजार पाउंड यानी करीब 10 हजार किलो की होती है। इसकी कीमत 10 करोड़ रुपए के आसपास है। इस कार में मशीन गन, टियर गैस सिस्टम, फायर फाइटिंग और नाइट विजन कैमरा जैसे इक्विपमेंट होते हैं। जरूरत पड़ने पर इस कार से दुश्मन पर हमला भी किया जा सकता है। कार की टायर की रिम मजबूत स्टील से बनी होती है। इसका मतलब है कि अगर टायर पंक्चर भी हो जाए तो भी कार की स्पीड पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इस कार में जो पेट्रोल डाला जाता है, उसमें खास तरह का फोम मिक्स किया जाता है, ताकि धमाका न हो। कार के गेट 8 इंच मोटे होते हैं और इसकी विंडो बुलेट-प्रूफ होती है। हालांकि, कार की सिर्फ एक ही विंडो खुलती है जो ड्राइवर सीट के साइड में होती है। ड्राइवर का कैबिन और ट्रम्प के कैबिन के बीच में एक कांच की दीवार भी होती है, ताकि ट्रम्प सीक्रेट मीटिंग कर सकें और सीक्रेट बात भी। ट्रम्प के पास एक सैटेलाइट फोन होता है, जिसकी मदद से वे कभी भी किसी से भी बात कर सकते हैं। इस कार की डिग्गी में ट्रम्प के ब्लड ग्रुप वाला खून भी रहता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Donald Trump Security | Donald Trump Top Security Protocol Interesting Facts Latest Details Updates On US President Melania Trump India Visit Full Article
india news अपने शहर को बना सकते हैं अपना प्यार! By Published On :: Mon, 24 Feb 2020 23:54:00 GMT इस रविवार हरियाणा के हिसार में प्रेसिडियम स्कूल की पीले रंग की बस एक चौराहे पर रुकी, जहां एक तरफ जाट कॉलेज और दूसरी तरफ रेलवे स्टेशन है। बस में से लाल रंग की जैकेट पहने दर्जनभर बच्चे अपने शिक्षक के साथ बाहर निकले और वहां मौजूद एक सामाजिक समूह के कार्यकर्ता ने उनका अभिवादन किया।उसने सभी बच्चों से एक ही प्रश्न पूछा, “मुझे उम्मीद है कि आपके शिक्षक ने आने के लिए मजबूर नहीं किया होगा?’ और जब बच्चों ने एक स्वर में कहा नहीं, तो उसने कहा “हमारा प्यार- हिसार में आपका स्वागत है’ और फिर एक अन्य स्वयंसेवक से कहा कि इन्हें बताइए कि बीते हफ्तों में हमने शहर में क्या काम किए हैं और वे हिसार को ज्यादा बेहतर बनाने के लिए क्या कर सकते हैं।हरियाणा में हिसार राज्य के सबसे बड़े कोचिंग क्लास शहर के रूप में उभरा है और यहां पर 200 से ज्यादा कोचिंग चलती हैं। इसके अलावा यहां पर ऐसे उद्यम भी फल-फूल रहे हैं जो युवाओं के सपनों को प्रोत्साहित करते हैं। इनमें उनकी जरूरतों से जुड़े फैशन और बिजनेस शामिल हैं। यही बड़ी वजह है कि इस शहर में पोस्टर वॉर चलता रहता है, जिसमें हर एक प्रतिष्ठान यह कोशिश करता है कि पढ़ाई के जरिये कुछ बड़ा करने की ख्वाहिश रखने वाला युवा उसके साथ जुड़ जाए।अगर आपने इस शहर को 2018 से पहले देखा होगा तो आपको हैरानी हुई होगी कि क्या इस शहर में ऐसी कोई दीवार बची है जिस पर पोस्टर न लगे हों? हालत यह थी कि हिसार की दीवारों के इंच-इंच पर अवैध विज्ञापन जड़ें फैलाकर चिपके बैठे थे और उन्होंने डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर के ऑफिस को भी नहीं बख्शा था जिसे गर्व से यहां ‘सचिवालय’ कहा जाता है।यही समय था जब नवंबर 2018 में “हमारा प्यार- हिसार’ नामक एक समूह के बैनर तले लोगों ने इन अवैध पोस्टर्स और कचरा फेंकने वालों के खिलाफ जंग छेड़ने का फैसला किया। शुरुआत में सिर्फ 25 सदस्यों के साथ इस समूह के काम को लगभग सभी ने नजरअंदाज किया था।दिलचस्प बात यह है कि जो प्रशासक उन पर हंस रहे थे, अब वे अपनी टीम और सेनेटरी स्टाफ को इस समूह के साथ भेज रहे हैं, ताकि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। 2019 के मध्य तक हिसार का चेहरा बदलना शुरू हो गया। उन्होंने दीवारें साफ की, उन पर पेंटिंग और कैरिकेचर बनाकर लोगों की आंखों को लुभाया। उन्होंने धीरे-धीरे पौधरोपण अभियान शुरू किया।स्वयंसेवकों ने खुद अपनी जेब से पैसे लगाए। विदेशों में रह रहे हिसार के निवासी भी मदद के लिए आगे आए। इस साल इस समूह ने कम से कम 5,000 पौधे रोपने की योजना बनाई है। उनके काम को देखकर जिंदल ग्रुप ऑफ कंपनीज ने उन्हें 6 लाख रुपए की एक क्लीनिंग मशीन उपलब्ध कराई है।बीता रविवार 68वां सप्ताह था और अब तक 3581 व्यक्ति उनके साथ स्वेच्छा से जुड़ चुके हैं और हर हफ्ते औसतन तीन घंटे काम करते हुए हिसार शहर को सुंदर और पोस्टर मुक्त बनाने में कुन 10,743 घंटों का योगदान दे चुके हैं! यह जज्बा ही ऐसा था कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भी अपने ट्विटर हैंडल पर उनके काम की सराहना करने के लिए मजबूर हुए।21 वर्षीय दीपांशी गोयल और उसके जैसे कई युवाओं ने इस पहल को पास के फतेहबाद नाम के गांव में “हमारा प्यार- फतेहाबाद’ के नाम से अपनाया है। सुदूर राजस्थान के बीकानेर के लोग भी “हमारा प्यार- हिसार’ के सम्पर्क में है और अपने यहां भी इस तरह की मुहिम शुरू करने के लिए नोट्स साझा कर रहे हैं।फंडा यह है कि यदि आप अपने शहर में आसपास पसरी गंदी और बुरी चीजों से परेशान हैं, तो बस इसके खिलाफ युद्ध छेड़ दें। यहां तक कि सरकार भी आपका समर्थन करेगी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सोना रे सोना मुझसे कभी जुदा नहीं होना By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:02:00 GMT गुजश्ता सदी के चौथे दशक में शेख मुख्तार अभिनीत फिल्म ‘रोटी’ में एक पात्र अपना सारा सोना कार में लादकर भाग रहा है। उसने हमशक्ल होने का लाभ उठाकर एक रईस की जगह ले ली थी। अमीर आदमी दुर्घटनाग्रस्त होकर आदिवासियों की बस्ती में जड़ी-बूटी से अपना इलाज कराकर लौटता है। एक मोड़ पर कार पलट जाती है। उस लालची, कपटी आदमी का पूरा शरीर सोने के नीचे दबा है। वह रोटी मांगता है।सोना खाया नहीं जा सकता है। सिनेमा के पहले कवि चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘गोल्ड रश’ में कुछ लोग सोने की तलाश में भटकते हैं। खाने का सामान समाप्त हो जाता है। नायक अपने जूते को उबलता है और तले में लगी कीलें निकालकर चमड़े को खाता है, मानो वह गोश्त में से हड्डी निकाल रहा हो। संदेश स्पष्ट है कि सोने की तलाश में यह सब भी हो सकता है। एक पुरातन लोककथा है। मिडास टच पात्र अपनी बेटी को छूकर सोने की बना देता है।जे.ली. थॉमसन की बनाई फिल्म ‘मॅकेनाज गोल्ड’ 1969 में प्रदर्शित हुई थी। नायक कुछ व्यावसायिक लुटेरों की टीम बनाकर सोने की तलाश में निकलता है। सोने की चट्टान तक पहुंचते समय वे एक-दूसरे के साथी हैं, परंतु लालच उन्हें आपस में भिड़ा देता है। खाकसार की लिखी और ‘पाखी’ में प्रकाशित कुरुक्षेत्र की ‘कराह’ में यह प्रस्तुत किया गया है कि कुछ व्यापारियों ने युद्ध की सामग्री बेचकर अकूत धन कमाया था। यज्ञ के पश्चात वर्षा नहीं होने से अकाल पड़ गया है। अब वही व्यापारी सोने की दीवारों से टकराते हैं। सोने चांदी के बर्तन तो हैं, परंतु परोसने के लिए भोजन नहीं है।ख्वाजा अहमद अब्बास और वीपी साठे की लिखी राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ में भी तिब्बत में सोना निकालने की बोगस कंपनी खड़े किए जाने का दृश्य है। हाल ही में ‘हप्पू की उल्टन पलटन’ नामक सीरियल में गहनों को दोगुना करने के नाम पर एक व्यक्ति ठगी करता प्रस्तुत किया गया है। अकूट सोना होने वाली काल्पनिक जगह का नाम एल डोराडो है। विगत सदी के छठे दशक में हाजी मस्तान घड़ियों और सोने की तस्करी करता था।नेहरू द्वारा एचएमटी संयंत्र स्थापित होने के बाद घड़ियां भारत में बनने लगीं और घड़ियों की तस्करी बंद हो गई। हाजी मस्तान के जीवन से प्रेरित फिल्म ‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ में अजय देवगन ने हाजी मस्तान की भूमिका अभिनीत की थी। भारत में सोने के भाव विश्व में सबसे अधिक रहे हैं, इसलिए तस्करी होती रही है।गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की एक कथा का सार इस प्रकार है कि एक व्यक्ति अत्यंत कंजूस है। उसका पुत्र उसकी इसी बात से नाराज होकर घर छोड़ देता है। कई वर्ष बीत जाते हैं। कंजूस ने अपना धन अपने घर के बने एक तहखाने में महफूज रखा है। उसे अंधविश्वास है कि अगर वह किसी अबोध बालक को तहखाने में बंद कर दे तो कालांतर में वह बालक सांप के रूप में खजाने की रक्षा करेगा।एक दिन उसे नदी किनारे एक अबोध बालक मिलता है। वह उसे तहखाने में बंद कर देता है। कुछ दिन बाद उसका पुत्र लौटता है। अपने पुत्र को उसने अपने दादा से मिलने के लिए भेजा था। बदले गए सरनेम के कारण कंजूस ने अपने ही पोते को मरने के लिए तहखाने में बंद कर दिया था।सर्प संपत्ति की रक्षा करते हैं जैसे अंधविश्वास के कारण ही दादा ने अपने पोते को अनजाने में मार दिया। ‘धन की भेंट’ के नाम से टैगोर की यह कथा बंगला से हिंदी भाषा में अनुवादित हुई है। खबर है कि भारत में सोने की खान है, परंतु विशेषज्ञों की संस्था का कहना है कि दो किलो से अधिक सोना नहीं है। ज्ञातव्य है कि इतना सोना तो संगीतकार बप्पी लहरी गले में घारण किए रहते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today रोटी फिल्म का पोस्टर। Full Article
india news हमारे नेता ‘राष्ट्र’ की राजनीति करते हैं, उसे आत्मसात नहीं करते By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:07:00 GMT 14 अगस्त 1947 की आधी रात को जब अंग्रेजी झंडा उतर रहा था और उसकी जगह अपना तिरंगा ले रहा था, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने संबोधन में ‘नेशन’ शब्द काम में लिया था। तब से ही देश में यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या पंडित नेहरू का ‘नेशन’ वह ‘नेशन’ ही था जो वे विदेश में पढ़ और सीखकर आए थे या उनका ‘नेशन’ भारत का वह ‘राष्ट्र’ था जिसकी छाया में उन्होंने जन्म लिया था। ‘नेशन’ और ‘राष्ट्र’ के ही अनुरूप नेहरू के ‘नेशनलिज्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ के प्रति संशय की बात होती है। पंडित नेहरू से लेकर अब तक इस देश के नेता ‘नेशनलिज्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ की समझ के प्रति संशय में ही दिखाई देते आ रहे हैं।इन दिनों समाचारों की सुर्खियों में ‘पॉजिटिव नेशनलिज्म’ या ‘सकारात्मक राष्ट्रवाद’ की बात हो रही है। यहां भी वही प्रश्न उपस्थित है जो नेहरू के दौर में उपस्थित था। सही बात यह है जहां ‘राष्ट्र’ की तुलना में ‘नेशन’ शब्द आ जाता है, वहां राजनीति शुरू हो जाती है। हमें समझना चाहिए कि ‘नेशन’ की अवधारणा ‘राष्ट्र’ की अवधारणा से पूरी तरह अलग है। दोनों ही शब्दों को काम लेने वाले लोग इस समय देश में राजनीति कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति को ‘पॉलिटिकल नेशनलिज्म’ या ‘राजनीतिक राष्ट्रवाद’ कहा जाना चाहिए।सीधी-सी बात है कि यदि कहीं राष्ट्रवाद (नेशनलिज्म नहीं) होगा तो वह सकारात्मक ही होगा। वह नकारात्मक हो ही नहीं सकता। क्या सत्य नकारात्मक हो सकता है? यदि इन प्रश्नों का उत्तर ना है, तो हमें समझना चाहिए कि राष्ट्र हमारी सांस्कृतिक विरासत है और वह हमेशा सकारात्मक ही होगी। भारत से बाहर दुनिया में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, धर्म, सत्य आदि प्रत्ययों के लिए ये ही शब्द काम में नहीं लिए जाते। वहां इनके अर्थ पूरी तरह अलग हैं।भारत ही इनका विशिष्ट अर्थ जानता है, क्योंकि इनका मूल भारत में ही है। इसी तर्ज पर कहना चाहिए कि हमारा भारत ‘राष्ट्र’ को जानता है, ‘नेशन’ को नहीं जानता। जाहिर है कि जो लोग ‘राष्ट्र’ का अनुवाद ‘नेशन’ करते हैं, वे गलती करते हैं। अपने यहां तो राष्ट्र सकारात्मक अर्थ में ही होगा। उसमें नेशन की तरह भूमि, आबादी और सत्ता ही शामिल नहीं होगी, बल्कि संस्कृति भी शामिल होगी। संस्कृति कभी नकारात्मक नहीं हो सकती। नकारात्मक होती है दुष्कृति।राष्ट्र न तो यूरोपीय और अमेरिकी सत्ताधीशों द्वारा ताकत के बल पर बनाए हुए नक्शों का नाम है, न उग्र भीड़ द्वारा नारे लगाकर विरोधी देश का दुनिया से नक्शा मिटा देने की कसम उठाने का नाम है और न ही यह लोगों को मुफ्त में बिजली-पानी देने का वादा करके उन्हें मूर्ख बनाने का नाम है। यदि राष्ट्रवाद को समझना ही हो तो इस सरल उदाहरण से समझना चाहिए कि राष्ट्रवाद नाम है उस संस्कार का, उस दर्द का जो किसी भारतीय के मन में भारत के लिए तब भी जागता है, जब वह किसी कारणवश भारत का नागरिक न रहकर किसी अन्य देश का नागरिक बन जाता है।‘न भूमि/ न भीड़/ न राज्य/ न शासन.../ राष्ट्र है/ इन सबसे ऊपर/ एक आत्मा’- किसी कवि के कहे इन शब्दों के माध्यम से आप सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को तो राष्ट्र का अर्थ समझा सकते हैं, लेकिन धन और सत्ता के लोभी हमारे नेताओं को आप इन शब्दों के माध्यम से राष्ट्र का अर्थ नहीं समझा सकते और सही पूछो तो इस दौर का सबसे बड़ा संकट भी यही है कि हमारे नेता ‘राष्ट्र’ की राजनीति करते हैं, उसे आत्मसात नहीं करते! Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news परमाणु समझौते ने ही बदले अमेरिका से संबंध By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:10:00 GMT स्वतंत्रता के बाद 53 सालों में केवल तीन अमेरिकी राष्ट्रपति भारत की यात्रा पर आए- ड्वाइट आइजनहाॅवर (1959), रिचर्ड निक्सन (1969) और जिमी कॉर्टर (1978)। डोनाल्ड ट्रम्प बीते 20 वर्ष में भारत की यात्रा पर आने वाले पांचवें अमेरिकी राष्ट्रपति हैं। बदलाव के इन दो दशकों को घरेलू व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई तरह से देखा जा सकता है।शीतयुद्ध का समापन और सोवियत संघ का विभाजन लगभग उस समय हुआ जब नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। ऐसे में भारत और अमेरिका के बीच नए रिश्तों की शुरुआत स्वाभाविक थी। यदि आपसे पूछा जाए कि रिश्तों में बदलाव का कोई एक तथ्य या एक उपलब्धि क्या थी? मेरे विचार में यह था भारत-अमेरिका परमाणु समझौता।मुझे पता है कि इस पर दो प्रतिक्रियाएं सुनने को मिलेंगी। पहली, इसमें बड़ी बात क्या है, यह सबको पता है। दूसरी, इसका उपहास उड़ेगा और कहा जाएगा कि अब तक एक मेगावॉट परमाणु बिजली भी इससे नहीं बनी है और अमेरिकी रिएक्टर अगले 15 साल तक कोई बिजली भी नहीं उत्पन्न करने वाले हैं। यह सोचना कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौता द्विपक्षीय रिश्तों से संबंधित है या इसका संबंध केवल बिजली से है, गलत होगा। मनमोहन सिंह को इसे अंजाम देने में जितनी कठिनाई हुई उससे पता चलता है कि यह कितना जटिल था।यह पहला मौका था जब भारत ने अमेरिका के साथ किसी ऐसी द्विपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसके गहरे सामरिक प्रभाव थे। शीतयुद्ध के बाद यह भारत के रुख में 180 डिग्री (भले ही 360 नहीं) के बदलाव का प्रतीक ही नहीं था, बल्कि इससे इस सवाल की परीक्षा भी हुई कि क्या दशकों के संदेह के बाद अब हम अमेरिकियों पर भरोसा कर सकते हैं? यह उस वैचारिक राष्ट्रवाद के खिलाफ था, जो कांग्रेस और वाम बौद्धिकों ने चतुराईपूर्वक तैयार किया था। यही कारण है कि वाम दलों के साथ-साथ तकरीबन समूची कांग्रेस इसके खिलाफ थी।इसके अलावा मुस्लिमों की नाराजगी जैसी मूर्खतापूर्ण बातें तो हो ही रही थीं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में इसे अपनी उपलब्धि बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी तमाम राजनीतिक पूंजी दांव पर लगा दी। यूपीए के सहयोगी वामपंथियों के निरादर को सहन करने के बावजूद उन्होंने सोनिया गांधी को इस पर सहमत किया। 2009 में हुए आम चुनाव ने साबित किया कि भारतीय मतदाता समझदार हैं और भारत के राष्ट्रीय हितों को बेहतर समझते हैं। यूपीए पहले से बेहतर सीटों के साथ सत्ता में आई और अमेरिका विरोध का वैचारिक भूत इतने गहरे दफन हुआ कि फिर नहीं उभरा। शीतयुद्ध के बाद के भारत का उदय हो चुका था।दूसरा लाभ सामरिक सिद्धांत से जुड़ा था। हालांकि, योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने मुझसे बातचीत में इसे पहले स्थान पर रखा। उन्होंने कहा कि मनमोहन इस बात से चिंतित थे कि भारत को परमाणु भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि परमाणु हथियार क्षमता संपन्न होने के बावजूद उसे परमाणु कारोबार और तकनीकी हस्तांतरण व्यवस्था में शामिल होने लायक नहीं समझा जाता था। इस समझौते ने इस धारणा को तोड़ने का अवसर दिया।भारत को अब परमाणु हथियार शक्ति वाले देश के रूप में मान्यता प्राप्त है, बल्कि पाकिस्तान के उलट उसे एक जवाबदेह अप्रसार वाला देश माना जाता है। तीसरा लाभ घरेलू महत्ता का है। जब तक भारत खुले तौर पर एक परमाणु शक्ति नहीं था, तब तक भारत पर ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं थी कि वह खुद को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा उपायों और पारदर्शिता मानकों का विषय बनाए। क्योंकि असैन्य और सैन्य परमाणु कार्यक्रम एक-दूसरे में घालमेल वाले थे। ऐसा जान-बूझकर था ताकि वे एक-दूसरे का आवरण बने रहें।इसके साथ ही चूंकि सैन्य और असैन्य कार्यक्रम मिलेजुले थे, इसलिए देश की प्रयोगशालाओं के परमाणु वैज्ञानिक को खुलकर काम करने में दिक्कत होती थी। हर चीज को संदेह की नजर से देखा जाता था। ऐसे में परमाणु समझौते का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि देश का परमाणु कार्यक्रम, उसकी फंडिंग और उसका प्रदर्शन सब पारदर्शिता के दायरे में आ गए। अगला लाभ सामरिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में हासिल हुआ। इसे नागरिक समझौता कहा गया, लेकिन हकीकत में यह सामरिक संधि थी।इससे भारत को संवेदनशील सैन्य तकनीक और उपकरण देने के बारे में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की पुरानी आशंका तेजी से कम हुई। 1980 के दशक के मध्य में भारत और अमेरिका के बीच संदेह इतना गहरा था कि वह मानसून की संभावनाओं का पता लगाने के लिए भारत को सुपर कम्प्यूटर बेचने पर भी तैयार नहीं हो सका। ऐसा तब था, जब राजीव गांधी और रोनाल्ड रीगन के बीच बहुत अच्छे संबंध थे। अब सर्वाधिक संवेदनशील सैन्य तकनीक, डेटा और खुफिया जानकारी साझा हो रही है।पांचवां लाभ क्षेत्रीय भू राजनीति से संबंधित है। शीतयुद्ध के समापन के बाद 15 वर्ष तक अमेरिका अपनी भारत नीति को पाकिस्तान से अलग करने की दिशा में सावधानी से बढ़ता रहा। लेकिन, परमाणु समझौते ने इसे नाटकीय तौर पर बदल डाला। पहली बार अमेरिका ने भारत के साथ ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसकी पेशकश उसने पाकिस्तान से नहीं की थी।छठा और अंतिम लाभ वह है जिसे मैं डरते-डरते अपना पसंदीदा कह रहा हूं। यह लाभ हमारी घरेलू राजनीति में महत्त्व रखता है। परमाणु समझौते का जिस तरह हमारे वामदलों ने विरोध किया और मुंह की खाई, उसने हमारी राजनीतिक अर्थनीति के वामपंथी अभिशाप को समाप्त किया।मनमोहन सरकार गिराने के लिए वाम ने संसद में भाजपा से हाथ मिलाया, लेकिन पराजित हुआ। जल्द ही पश्चिम बंगाल से भी वामपंथ हमेशा के लिए साफ हो गया और लोकसभा में वह दोहरी संख्या में आने के लिए संघर्ष कर रहा है। यह लाभ पीढ़ियों तक संभालकर रखने लायक है। चाहे इसे हासिल करने में थोड़ा सा विदेशी हाथ (अमेरिकी) ही क्यों न रहा हो।(यह लेखक के अपने विचार हैं?) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रधानमंत्री मोदी के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प। (फाइल) Full Article
india news महज व्यापार के नजरिये से न करें ‘नमस्ते ट्रम्प’ By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:14:00 GMT सदियों तक याचक रहने के कारण हम मेहमान के आने का लेखा-जोखा फायदे और खासकर तात्कालिक आर्थिक लाभ के नजरिये से करते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘नमस्ते ट्रम्प’ के भावातिरेक में सम्मान दिया गया। लेकिन, विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग है, जो इस यात्रा को व्यापारिक लाभ-हानि के तराजू पर तौलने लगा है। यानी अगर कुछ मिला तो ही ‘स्वागत’ सफल। दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति को केवल 23 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था (हमसे करीब सात गुना ज्यादा) वाले देश का मुखिया मानना और तब यह सोचना कि दोस्त है तो भारत को आर्थिक लाभ क्यों नहीं देता, पचास साल पुरानी बेचारगी वाली सोच है।भारत स्वयं अब तीन ट्रिलियन डॉलर की (दुनिया में पांचवीं बड़ी) अर्थव्यवस्था है। कई जिंसों का निर्यातक है और शायद सबसे बड़े रक्षा आयातक के रूप में हथियार निर्यातक देशों से अपनी शर्तों पर समझौते करने की स्थिति में है। अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत आना भू-रणनीतिक दृष्टिकोण से भी देखना होगा, क्योंकि हमारे पड़ोस में दो ऐसे मुल्क हैं जो हमारे लिए सामरिक खतरा बनते रहे हैं। सस्ते अमेरिकी पोल्ट्री या डेरी उत्पाद के लिए हम कुक्कुट उद्योग और दुग्ध उत्पादन में लगे किसानों का गला नहीं दबा सकते और अमेरिका हमारा स्टील महंगे दाम पर खरीदे, यह वहां के राष्ट्रपति के लिए अपने देश के हित के खिलाफ होगा।फिर हमारी मजबूरी यह भी है कि हमारे उत्पाद महंगे भी हैं। हमारा दूध पाउडर जहां 320 रुपए किलो लागत का है, वहीं न्यूजीलैंड हमें यह 250 रुपए में भारत में पहुंचाने को तैयार है। स्टील निर्यात को लेकर हमने अमेरिका के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन में केस दायर किया और फिर जब हमने उनकी हरियाणा में असेम्बल मशहूर हर्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर 100 प्रतिशत ड्यूटी लगाई तो ट्रम्प ने व्यंग्य करते हुए हमें टैरिफ का बादशाह खिताब से नवाजा और प्रतिक्रिया में उस लिस्ट से हटा दिया, जिसके तहत भारत अमेरिका को करीब छह अरब डाॅलर का सामान बगैर किसी शुल्क का भुगतान किए निर्यात कर सकता था। ट्रम्प-मोदी केमिस्ट्री का दूरगामी असर दिखेगा, रणनीतिक-सामरिक रूप से भी और चीन की चौधराहट पर अंकुश के स्तर पर भी। बहरहाल कल की वार्ता में रक्षा उपकरण, परमाणु रिएक्टर और जिंसों के ट्रेड में काफी मजबूती आने के संकेत हैं जो भारत के हित में होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प। Full Article
india news योग करें, अपने किए कृत्य पर गौर करें By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:17:00 GMT अपने किए हुए को गौर से देखिए। जो कर रहे हैं उसका सूक्ष्म निरीक्षण कीजिए। इसके दो फायदे होंगे। एक तो यह कि वह काम बड़ी दक्षता से पूरा होगा और दूसरा जब हम एकाग्रता से अपने आप को करते हुए देखते हैं तो अचानक एक शांति सी उतरने लगती है। कुल मिलाकर हम अपने ही कृत्य को जितना गौर से देखेंगे, उतने शांत होंगे।यहां ‘हम देखेंगे’ से मतलब है आत्मा देखेगी शरीर को करते हुए। यदि ऐसा नहीं करेंगे, तो फिर मानकर चलिए हम कहीं न कहीं अशांत होंगे। हमें अपने किए पर लज्जा भी आए। राम-रावण युद्ध में जामवंत ने मेघनाद को उछालकर ऐसा फेंका कि लंका के महल में गिरा।वहां जब उसकी मूर्छा दूर हुई तो तुलसीदासजी ने लिखा- ‘मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी।।’ अर्थात जब मेघनाद की मूर्छा टूटी, तब पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। फिर उसने विचार किया कि अब मैं अजेय यज्ञ करूंगा। इस दृश्य में हमारे काम की बात यह है कि हमें भी जीवन में कई बार अपने ही कृत्य पर लज्जित होना पड़ता है दूसरों के सामने।इसलिए ‘खुद को करते हुए देखना’ के अभ्यास को बनाए रखिए और इसके लिए रोज थोड़ा समय योग को दीजिए। परिणाम यह होगा कि शरीर और आत्मा का अंतर बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे महसूस होगा आप आत्मा हो और अभी इस शरीर में हो। काम शरीर कर रहा है, देख आत्मा रही है। यहां से शांति भी आएगी, अपने कृत्य पर गर्व भी होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news पुरानी स्थिति बहाल कर आगे बढ़ें भारत-अमेरिका By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 00:23:00 GMT अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सोमवार को दो दिन की यात्रा पर भारत पहुंच गए है, लेकिन इससे पहले ही उन्होंने दोनों देशों की बीच किसी अहम व्यापार समझौते की उम्मीदों को धराशायी कर दिया। ऊंचे शुल्क और व्यापार घाटा ये दो ऐसी चीजें हैं, जिनकी वजह से ट्रंप भारत को बार-बार टैरिफ किंग कहते हैं। उनका आरोप है कि भारत अमेरिकी उत्पादों को अपने बाजार में ‘न्यायसंगत और उचित पहुंच’ नहीं दे रहा है।हालांकि, उन्होंने अपने मतदाताओं को आश्वस्त किया है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ व्यापार पर बात करेंगे। मोदी को भी अपने अतिथि के साथ इस मौके पर कुछ प्रासंगिक तथ्यों को रखकर व्यापार पर बात करनी चाहिए। मलेशिया और आयरलैंड सहित भारत उन टॉप 10 देशों में शामिल नहीं है, जिनके साथ अमेरिका का व्यापार घाटा है। 2019 के आंकड़ों को देखें तो अमेरिका का भारत के साथ व्यापार घाटा 23.3 अरब डॉलर था, जबकि चीन के साथ यह 346 अरब डॉलर है।ऐसा लगता है कि भारत के साथ ट्रम्प प्रशासन के आक्रामक रुख की एक वजह इस धारणा से निर्देशित है कि भारत के लिए उसके साथ व्यापार ज्यादा अहम है, क्योंकि अमेरिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, जबकि अमेरिका के व्यापारिक साझीदारों में भारत का स्थान आठवां है। हालांकि, यह एक संकुचित दृष्टिकोण है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है और उसका आर्थिक वजन हर साल बढ़ रहा है।मोबाइल डाटा के क्षेत्र मेंभारत ने असामान्य रूप से विकास किया है और सस्ती सेवा की वजह से 80 करोड़ उपभोक्ता इसका आनंद ले रहे हैं। फेसबुक और गूगल जैसी अमेरिकी टेक कंपनियां भारत के डाटा का इस्तेमाल करके भारी मुनाफा कमा रही हैं। आने वाले सालों में कई अन्य कंपनियों को भारतीय डाटा तक पहुंच की जरूरत होगी।लेकिन, गंभीर मतभेद भी हैं। ट्रम्प प्रशासन अपने डेयरी और कृषि उत्पादों की भारत के 130 करोड़ लोगों तक आसान पहुंच चाहता है। इसके अलावा वह भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ती बनाने, दवाओं, स्टेंट व कृत्रिम घुटनों के मूल्यों को नियंत्रित करने के खिलाफ है। डाटा के स्थानीयकरण और ई-कॉमर्स को लेकर भी मतभेद हैं। इन मुद्दों ने व्यापार में किरकिरी पैदा की हुई है।इसकी शुरुआत भारतीय स्टील व एल्युमिनियम उत्पादों पर अमेरिका की ओर से आयात शुल्क बढ़ाने से हुई। बदले में भारत ने अमेरिका को डब्लूटीओ में घसीट लिया और अमेरिका के 29 उत्पादों पर शुल्क बढ़ा दिया। दबाव बढ़ाने के लिए अमेरिका ने जून 2019 से भारत को हासिल वरीयता वाला जीएसपी दर्जा खत्म कर दिया। इसके तहत भारत 5.6 अरब डॉलर का सामान अमेरिका को बिना शुल्क के निर्यात कर सकता था।मोदी और ट्रम्प को इस मौके का इस्तेमाल लेने और देने की भावना के साथ मतभेदों को सुलझाने के लिए करना चाहिए। शुरुआत के रूप में दोनों देश एक-दूसरे पर लगाए गए शुल्कों को घटाकर व डब्लूटीओ से शिकायत वापस लेकर पुरानी वाली स्थिति बहाल कर सकते हैं। अमेरिका को भारत का जीएसपी दर्जा बहाल करना चाहिए। इससे होने वाले लाभ का इस्तेमाल भारत तेल व गैस सहित अमेरिकी उत्पादों को खरीदने में कर सकता है।भारत को भी समझना होगा कि एक लचीली नीति ही देश के लिए बेहतर होगी। उदाहरण के लिए सभी दवाएं और मेडिकल उपकरण एक जैसे नहीं होते। जरूरी नहीं है कि सब पर ही मूल्य नियंत्रण किया जाए। कुछ मानक उपकरण हैं और कुछ के आधुनिक वर्जन हैं। अगर हमने कीमतों में अंतर नहीं किया तो देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में आधुनिक दवाओं और उत्पादों से वंचित हो सकता है। इसके अलावा घरेलू उद्योगों को प्रभावित किए बिना हर्ले डेविडसन मोटरसाइल पर आयात शुल्क कम किया जाना चाहिए।कृषि और डेयरी का सेक्टर जटिल है। इससे जुड़े देश के 50 करोड़ लोगों की जीविका को संरक्षण देने की जरूरत है, क्योंकि इनकी अमेरिका के कृषि उत्पादकों से कोई तुलना ही नहीं है। इसके अलावा कुछ सांस्कृतिक संवेदनाएं भी हैं। भारत चाहता है कि यहां भेजे जाने वाले डेयरी उत्पाद यह प्रमाण-पत्र दें कि उन्होंने उन जानवरों का दूध इस्तेमाल नहीं किया है, जिन्हें मांस से बना फीड खिलाया जाता है।अमेरिका को यह मंजूर नहीं है। इसकी बजाय हमें ब्लूबेरीज और चेरी जैसे फलों का आयात बढ़ाना चाहिए। अंत में भारत को अपने हित में अमेरिकी कंपनियों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टोरेज क्षमता, प्लांटों का निर्माण और बीमा क्षेत्र में एफडीआई के मानकों को उदार बनाना चाहिए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news कानूनी सुधारों के बगैर नहीं बदलेंगे हालात By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 19:06:00 GMT निर्भया मामले के बाद महिला सुरक्षा और 2जी घोटाले के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ हुई लामबंदी से यूपीए-2 सरकार का सूपड़ा साफ हो गया था। निर्भया कांड के बाद न्याय प्रणाली दुरुस्त करने की बजाय, सख्त कानूनों का और 2जी जैसे भ्रष्टाचार के मामलों को रोकने के लिए लोकपाल का शॉर्टकट लाया गया। लोकपाल की हालत तो अब जोकपाल सी हो गई है। निर्भया के दोषियों को दंड नहीं मिलने से त्रस्त समाज ने हैदराबाद में रेप कांड के आरोपियों के एनकाउंटर के बाद देशव्यापी जश्न मनाया, जिसे अदालतों के खिलाफ जनता का अविश्वास प्रस्ताव माना जा रहा है। इन दोनों केस स्टडीज से साफ है कि शॉर्टकट चुनावी नारों के दम पर सरकार बनाना आसान है, लेकिन व्यवस्था बदलना बहुत ही कठिन है। निर्भया के दोषियों में से एक नाबालिग की रिहाई पहले ही हो चुकी है। अब दूसरे दोषी को नाबालिग साबित करने के लिए यत्न किया जा रहा है। शराब, ड्रग्स और पोर्नोग्राफी से लैस नाबालिग अब वयस्कों की तरह अपराध में लिप्त हो रहे हैं। अपराध के मूल कारण को दूर किए बगैर सिर्फ कानून की सख्ती से समाज में अनाचार कैसे कम होगा? हैदराबाद में दुष्कर्मियों के पुलिस एनकाउंटर के बाद अब देशभर में आंध्रप्रदेश के दिशा बिल की चर्चा है। इसके तहत सात दिन के भीतर पुलिस जांच और 14 दिन में मुकदमा खत्म करने के लिए कानून बनाने की योजना है। यदि यह बना तो एक मजाक ही साबित होगा, क्योंकि हैदराबाद एनकाउंटर की जांच कर रहे न्यायिक आयोग को सुप्रीम कोर्ट ने ही छह महीने का समय दिया है।निर्भया मामले में पुलिस ने तीन दिन में दोषियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर कर दिया था। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने भी मामले को लगभग एक साल में निपटा दिया। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की वजह से यह मामला 6 सालों से लटका है। हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि कई साल की चुप्पी के बाद अब जेल अधिकारी और सरकार मामले को असाधारण तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दो मामले दायर किए हैं, जिसमें दीर्घकालिक न्यायिक सुधारों की बजाय निर्भया मामले में फौरी न्याय की मंशा ज्यादा है। जिन दोषियों ने अपने सारे कानूनी विकल्प खत्म कर दिए, उनके खिलाफ डेथ वॉरंट जारी करने के लिए ट्रायल कोर्ट में अर्जी देने की बजाय, सुप्रीम कोर्ट से नए दिशानिर्देशों की मांग बेतुकी है। संविधान में विशेष मामलों में दया याचिका के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति को विशेषाधिकार दिया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले से गुनाहगारों का संवैधानिक अधिकार मान लिया गया। कई दशक पुराने प्रिवी काउंसिल के फैसलों को नजीर मानकर आज भी अनेक फैसले होते हैं। दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम फैसलों पर कुछ सालों में सवाल खड़ा होना न्यायिक त्रासदी है। सोशल मीडिया पर दोष मढ़ने की बजाय, आंखों पर पट्टी बांधे महिला यदि दबावों से मुक्त होकर निष्पक्ष फैसले करे तो न्याय की देवी पर जनता का भरोसा फिर कायम होगा।पुलिस और सरकारी विभागों द्वारा बेवजह की मुकदमेबाजी से आमजनता त्रस्त है। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद बड़े लोगों के खिलाफ कारवाई नहीं होती। 15 साल लंबी मुकदमेबाजी के बावजूद टेलिकॉम कंपनियों से हज़ारों करोड़ की वसूली नहीं होने से नाराज़ सुप्रीम कोर्ट के जज ने यह कह दिया कि पैसे के दम पर अदालतों को प्रभावित करना खतरनाक है। रसूखदारों के मामलों में बड़े वकीलों के कानूनी पेंच से टरकाए गए मामलों को न्यायशास्त्र की उपलब्धि से नवाज़ा जाता है तो अब बीमारी, मनोरोग और नाबालिग जैसे बहानों से निर्भया के दरिंदों की फांसी टलवाने की कोशिशों की ठोस खिलाफत कोई कैसे करे? जज के अनुसार कानूनी विकल्प रहने तक फांसी देना पाप होगा। लेकिन, बेजा मुकदमेबाजी से अदालतों को हलकान करने वालों पर जुर्माना नहीं लगाना तो ज्यादा बड़ा पाप है, जिसकी सजा पूरे समाज को मिलती है।आज़ादी के बावजूद दो शताब्दी पुराने ब्रिटिशकालीन साम्राज्यवादी कानूनों पर निर्भरता, डिजिटल इंडिया की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। कानून में बदलाव के लिए बनाए गए विधि आयोग का कार्यकाल अगस्त 2018 में ख़त्म हो गया और अब दो साल बाद नए विधि आयोग के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी है, इससे साफ़ है, कि दीर्घकालिक कानूनी सुधार, नेताओं और सरकार की प्राथमिकता नहीं है। इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक व्यवस्था पर जीडीपी का सिर्फ .08 फीसदी औसतन खर्च हो रहा है। दूसरी तरफ पुलिस पर जीडीपी का 3 से 5 फीसदी और जेलों के सिस्टम पर .2 फीसदी खर्च होता है। इसे अगर इस तरह से समझा जाए कि अदालतों से ढाई गुना ज्यादा खर्च जेलों में बंद कैदियों पर और 62 गुना से ज्यादा पुलिस पर खर्च किया जा रहा है। खर्च के इस तरीके में बदलाव करके, सही तरीके से कानून का शासन लागू हो तो जीडीपी में 9 फीसदी का इजाफा हो सकता है।तीसरे डेथ वॉरंट के अनुसार, 3 मार्च की मुकर्रर तारीख में निर्भया के दरिंदों की फांसी होगी या नहीं, इस पर अभी संशय बरकरार है। वकीलों के साथ अब पेशेवर मुकदमेबाज भी अदालतों के रुख और संभावित परिणामों को पहले ही समझने लगे हैं। इन परिस्थितियों में यह जरूरी हो गया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से न्यायिक व्यवस्था के विलंब को प्रभावी तरीके से दूर किया जाए। मीडिया के आंदोलनों से निर्भया जैसे मामलों में न्याय की चक्की तेज हो गई है। लेकिन, मुकदमेबाजी में फंसे करोड़ों भारतीयों की जिंदगी अदालतों के चक्कर में बर्बाद हो रही है। अंग्रेजों के समय के भाप के इंजन बंद होने के बाद, अब बुलेट ट्रेन की बात होने लगी है। उसी तर्ज पर अदालतों के दो शताब्दी पुराने भोथरे सिस्टम को बदला जाए तो निर्भया के मां-बाप समेत 25 करोड़ लोगों को जल्द न्याय और 130 करोड़ आबादी को सुकून मिल सकेगा। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Things will not change without legal reforms Full Article
india news ट्रम्प का दौरा भारत के लिए आंशिक रूप से सार्थक By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 19:13:00 GMT ‘आप हमारे यहां नौकरियां दें और हम आपके यहां’ अमेरिकी राष्ट्रपति की भारतीय उद्योगपतियों से अपील भारत के वैश्विक परिदृश्य पर याचक से दाता में बदलने की पुष्टि है। व्यापक रक्षा और रणनीतिक साझेदारी पर समझौता आने वाले दिनों में एक ताकतवर भारत का आगाज है। दो दिन देश स्वागत-मोड में रहा। कुछ मानते हैं कि ‘नमस्ते ट्रम्प’ ही देश को वैतरणी पार कराएगा और कुछ का कहना है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश के नेता का स्वागत तो हमारा ‘प्रजाधर्म’ है। लेकिन, एक तीसरे वर्ग ने इसे शुद्ध रूप से ‘स्वागत, लेकिन वार्ता की मेज पर अपने हित के लिए दृढ़ता के भाव’ से लिया।यह तीसरा वर्ग मोदी सरकार का था। लिहाजा समझौते हुए। कुछ उम्मीद के अनुरूप और कुछ निराशाजनक। लेकिन, 21 हजार करोड़ डॉलर में खतरनाक अपाचे और रोमियो हेलिकॉप्टर की रक्षा डील में दोनों पक्षों के लिए जीत है। रक्षा उपकरण किसी भी मजबूत राष्ट्र की अपरिहार्य जरूरत है, खासकर तब जब पड़ोस में पाकिस्तान और चीन जैसे मुल्क हों। आज भारत भले ही खाद्य प्रचुरता वाली दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हो पर मानव विकास के पैमाने पर वह अब भी काफी पीछे है। अमेरिकी राष्ट्रपति का इशारा कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के व्यापार में क्रांतिकारी उछाल दिखेगा से साफ है कि व्यापार में कोई खास समझौता नहीं हो सका है। भारत-अमेरिकी समझौते का दूसरा सबसे मजबूत पक्ष है ऊर्जा क्षेत्र में अमेरिकी सयंत्र हासिल करना। प्रधानमंत्री ने एचवन-बी वीसा का मुद्दा भी उठाया, लेकिन ट्रम्प ने केवल इसकी पुष्टि भर की।भारत ने अमेरिकी डेयरी उत्पाद खरीदने से मना कर दिया, हालांकि बहाना तो वहां की गायों को मांसाहार देना है, लेकिन असली मकसद भारतीय दुग्ध उत्पादक किसानों की रक्षा करना है। अमेरिकी राष्ट्रपति शायद भारत की यह मजबूरी समझते हैं। इस दो दिन के दौरे में कभी भी नागरिकता संशोधन कानून या 370 हटाए जाने की चर्चा नहीं हुई। ऐसे समय में जब दिल्ली जल रहा हो, ट्रम्प द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत की धार्मिक स्वतंत्रता व मोदी की तारीफ करना ही अपने आप में मोदी डिप्लोमेसी की सफलता मानी जा सकती है। कुल मिलकर ट्रम्प की यह यात्रा दोनों देशों की ही नहीं, मोदी और ट्रम्प की भी व्यक्तिगत सफलता मानी जा सकती है। भले ही उसे आंशिक ही कहें। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Trump's visit partially meaningful for India Full Article
india news समान होती है स्त्री व पुरुष की शक्ति By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 19:25:00 GMT स्त्री-पुरुष के भेद ने कई समस्याएं पैदा की हैं। यह मसला आज से नहीं, बहुत पहले से चला आ रहा है। शास्त्रों में लिखा है- एक बार देवताओं पर जब बहुत बड़ा संकट आया तो उन्होंने एक स्त्री को सेनापति बनाया और तब ही यह बात तय हो चुकी थी कि स्त्री के पास ऐसी शक्ति है कि वह किसी भी सेना का नेतृत्व कर सकती है।सचमुच कुछ पराक्रम ऐसे हैं कि पुरुष चाहकर भी नहीं कर सकता। महिषासुर नामक राक्षस यह वरदान प्राप्त कर चुका था कि उसे कोई स्त्री ही मार सकेगी। ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने उससे युद्ध भी किया और हारना पड़ा। तब देवताओं ने तय किया कि विष्णुजी से सलाह ली जाए। विष्णु ने सलाह दी कि हम लोगों की जो समवेत शक्ति है, उसके अंश से कोई देवी प्रकट हो, वही उसे मार सकेगी। शंकर के तेज से उस देवी का मुंह बना, यमराज के तेज से बाल, अग्नि ने तीन नेत्र दिए, सुंदर भौहें संध्या के तेज से बनी। वायु ने कान, कुबैर ने नासिका दी।प्रजापति से दांत मिले, इंद्र ने मध्य भाग, पृथ्वी ने नितंभ भाग दिया। विष्णु ने चक्र सौंपे, शंकर ने त्रिशूल दिया, यमराज ने कालदंड और ब्रह्मा ने गंगाजल। इस प्रकार तैयार हुई महालक्ष्मी, उनके हाथों मारा गया महिषासुर। इसलिए यह सोच, यह भ्रम कि स्त्रियां पुरुष की तरह पराक्रम नहीं कर सकतीं, तब भी मिट गया था और अब भी मिटाना चाहिए..। इसमें कोई संदेह न हो कि स्त्री व पुरुष की शक्ति समान है। हां, उपयोगिता और क्षेत्र अलग हो सकते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today The power of man and woman is equal Full Article
india news देसी सिनेमा बनाम डॉलर सिनेमा का छलावा By Published On :: Tue, 25 Feb 2020 19:51:00 GMT अ मेरिका से ‘अनधिकृत’ यात्रा पर आए हमारे मेहमान ने भारतीय फिल्म और क्रिकेट खिलाड़ियों के नाम भी लिए। उनके घोस्ट राइटर को मालूम था कि भारत में क्रिकेट और फिल्मों के लिए समान जुनून है। हिंदुस्तानी फिल्मों के टिकट के दाम औसत अमेरिकन फिल्म के टिकट के दाम से दोगुना होते हैं। अमेरिका में भारतीय फिल्में केवल सप्ताहांत में प्रदर्शित होती हैं। महिलाएं और बच्चे फिल्म देखते हैं, पति और पिता लाउंज के बार में बैठकर बीयर पीते हैं। कुछ महिलाएं तो अपने साथ अपने ड्रेस डिजाइनर को भी फिल्म दिखाने ले जाती हैं, ताकि वह वैसे ही वस्त्र उसके लिए बना दे। अमेरिका में लगभग तीस लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं और उन्हें नागरिकता प्राप्त है। डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा उनके चुनाव प्रचार का एक हिस्सा है। इसके साथ ही वे अपने कुछ आउट डेटेड हथियार भी भारत को बेच देंगे। पाकिस्तान के हव्वे के कारण हथियार खरीदे जाते हैं। चीनी मोगेम्बो इस बात से बहुत खुश होता है।सूरज बड़जात्या की पहली फिल्म एक प्रेम कथा थी और उन्होंने एक समारोह में राज कपूर के प्रभाव को स्वीकार किया था। बाद में परिवार की इच्छानुरूप उन्होंने अपनी ही कंपनी द्वारा पहले बनाई फिल्मों को भव्य पैमाने पर बनाया। मसलन सीधी सादी ‘नदिया के पार’ को ‘हम आपके हैं कौन’ के नाम से बनाया। फिल्म में मंदिरनुमा घर और घरनुमा मंदिर में दर्जनभर से अधिक गीत फिल्माए गए जिनमें समधन के साथ छेड़छाड़ का गीत भी शामिल था। गुलेल चलाने वाले दीवाने देवर का जिक्र भी था।सूरज बड़जात्या की फिल्म ‘साथ-साथ’ भी उनकी संस्था द्वारा बनाई गई पुरानी फिल्म का नया संस्करण थी। ज्ञातव्य है कि राजश्री प्रोडक्शन संस्था के स्थापक ताराचंद बड़जात्या दक्षिण भारत के फिल्म व्यवसाय से जुड़े थे और दक्षिण में बनी हिंदी भाषा की फिल्मों का वितरण करते हुए उन्होंने ‘आरती’ नामक फिल्म से निर्माण संस्था का शुभारंभ किया। उन्होंने हर क्षेत्र में अपने फिल्म वितरण के दफ्तर खोले थे। उन्होंने रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’ का भी वितरण किया था। जी.एन. शाह की धर्मवीर का वितरण भी उन्होंने ही किया था।सूरज बड़जात्या और सलमान खान बहुत गहरे मित्र हैं। सलमान की पहली हिट सूरज बड़जात्या ने ही बनाई। उनकी ताजा फिल्म असफल रही तो सूरज ने उसका पूरा दोष स्वयं अपने पर लिया। वर्तमान समय में सूरज आत्मचिंतन में लगे हैं और अपनी फिल्म शैली में परिवर्तन करना चाहते हैं। संभवत: वे प्रेम कथा पर लौटें। वे जानते हैं कि भारत में संयुक्त परिवार नामक संस्था का विघटन हो चुका है और पति-पत्नी के रिश्ते के बीच भी एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई है।डोनाल्ड ट्रम्प ने क्रिकेट का जिक्र भी किया। अमेरिका में क्रिकेट नहीं खेला जाता। कपिल देव निखंज, सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ निष्णात खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट संस्था के संचालन में हाशिये पर बैठा दिए गए हैं, जबकि अगली विश्व कप टीम का संचालन इन महान खिलाड़ियों के हाथ होना चाहिए। सभी क्षेत्रों में दोयम दर्जे के लोग महत्वपूर्ण पद हथिया चुके हैं। हमने चुनाव प्रक्रिया को ही दूषित कर दिया है। मिथ मेकर हुक्मरान हो गए और आधुनिक कालखंड में मायथोलॉजी की वापसी हो रही है।एक दौर में हिंदुस्तानी फिल्में अमेरिका में इतना अधिक धन कूट रही थीं कि भारत में डॉलर सिनेमा का उदय हुआ। कुछ फिल्मकारों ने यहां तक बयान दिए कि वे बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के दर्शक के लिए फिल्में नहीं बनाते। कुछ ही दिनों में उनका यह भरम दूर हो गया। विदेशों में बसे भारतीय पहचान के संकट से गुजरते हैं। जिस देश ने उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान बनाने के अवसर दिए, उस देश के लोगों से उन्होंने सामाजिक सामंजस्य नहीं बनाया। विदेश में मराठी क्लब, गुजराती संस्था इत्यादि का निर्माण शुरू हो गया है। अक्षय कुमार और ऋषि कपूर अभिनीत पटियाला हाउस नामक फिल्म में पिता को ऐतराज है कि उनका बेटा इंग्लैंड के लिए खेल रहा है, जबकि अंग्रेजों ने हमें दो सौ वर्ष गुलाम रखा। बड़ी जद्दोजहद के बाद उन्हें यह समझ आया कि इंग्लैंड अब उनका अपना वतन है और उनकी तीन पीढ़ियों का जन्म इंग्लैंड में हो चुका है। संकीर्णता विभिन्न स्वरूपों में हमेशा मौजूद रहती है। एक दौर में एक सिख गेंदबाज इंग्लैंड के लिए खेलता था। जब इंग्लैंड की टीम भारत दौरे पर आई तब उस सिख गेंदबाज की सफलता के लिए प्रार्थना की गई।किसी अन्य संदर्भ में लिखी पं. जवाहरलाल नेहरू की बात याद आती है कि विदेश में बसे भारतीय उन पंखहीन प्राणियों की तरह हैं जो छद्म आधुनिकता का सैटेलाइट पकड़ने के मोह में अपनी धरती से संपर्क खो देते हैं। वे न जमीन के रहते हैं और न सैटेलाइट उनकी पकड़ में आता है। विदेशों में बसे भारतीय लोग भारत की राजनीति को प्रभावित करते हैं। उनके अपने पूर्वाग्रह वे भारत पर थोपना चाहते हैं। विदेश में उपलब्ध सुविधाओं को वे छोड़ना नहीं चाहते। भारत के इतिहास बोध से वंचित ये लोग भारत का अमेरिकीकरण करने के प्रयास कर रहे हैं। आज आप उड़ते हुए विमान से भारत को देखें तो गगनचुंबी इमारतें आपको यह भरम देती हैं कि आपका जहाज मैनहट्टन एअरपोर्ट पर उतरने जा रहा है। आज मेहमान विदा होगा और हमारे हुक्मरान नए तमाशे के आकल्पन में व्यस्त हो जाएंगे। जाने कब से यह खेल जारी है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Desi cinema vs dollar cinema Full Article
india news बिना तेल के असंभव है एक संपन्न हिंदू राष्ट्र By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 18:42:00 GMT अधिकांश भारतीय देश की अनेकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों को समझते हैं, लेकिन इसके बावजूद देश की जनसंख्या का एक अच्छा प्रतिशत हिंदू राष्ट्र के विचार को पसंद करता है। नैतिकता और कट्टरता के अलावा यह समझना महत्वपूर्ण है कि व्यावहारिक मायने में भी एक समृद्ध हिंदू राष्ट्र असंभव है। इसकी बजाय भारत और हिंदुओं के लिए बेहतर होगा कि वे अगले कुछ दशकों तक आर्थिक विकास पर फोकस करें और संपन्नता से मिलने वाली ताकत का इस्तेमाल हिंदू संस्कृति को बढ़ाने में लगाएं। इस लेख का उद्देश्य हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति की आलोचना करना या एक अति उदार तर्क पेश करना नहीं है। यह इस बात को बताने के लिए है कि हम अपने धर्म और संस्कृति के लिए अधिकतम कीर्ति कैसे पा सकते हैं।हालांकि, हिंदू राष्ट्र की परिभाषाओं में अंतर है, लेकिन जो लोग इस विचार को पसंद करते हैं वे इनमें से कोई एक या कुछ को मिलकर सोचते हैं।1. ऐसा भारत, जहां पर समान लोगों में हिंदू पहले हों।2. जहां कानून हिंदू भावनाओं को प्राथमिकता दे।3. अल्पसंख्यक धर्मों को कोई भी विशेषाधिकार न हों।4. एक हद तक हिंदू धार्मिक संहिता से तय हो कि लोगों को कैसे रहना और व्यवहार करना चाहिए।5. कानून, धर्म के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर बनाए जाएं।कुलीन उदारवादी इन विचारों का उपहास उड़ा सकते हैं, लेकिन इनका समर्थन करने वालों की सोच को समझना महत्वपूर्ण है। हिंदू राष्ट्र के समर्थक सोचते हैं- अ. हिंदुत्व एक शानदार, सहनशील धर्म है, इसलिए यह देश पर शासन का अच्छा आधार है। ब. क्योंकि दुनिया में सिर्फ भारत ही प्रभावी तौर पर हिंदुओं का वास्तविक घर है, इसलिए उन पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। स. हमारा प्राचीन भोजन, संबंध और जीवनचर्या की सलाह दुनिया में हर एक के लिए शानदार है और एक अच्छी जीवन संहिता का पालन करने में गलत ही क्या है?इसका एक सरल उत्तर यह है कि ऐसा सोचना ही अव्यावहारिक है कि शानदार नियमों वाले धर्म का पालन सत्तासीन व्यक्तियों द्वारा भी शानदार ढंग से ही किया जाएगा। ईश्वर के बताए रास्ते को लोगों पर थोपने वाले तालिबान के हाथों अफगानिस्तान एक नर्क बन गया था, इसलिए यह कहना बेवकूफी होगा कि हिंदू और हिंदू शासक अलग होंगे। ईसाई धर्म वाले देशों में भी लोगों का शोषण होता है। डरावनी जाति व्यवस्था से हिंदू शासकों ने भी अपने लोगों का दमन किया। हम खुद को विभाजित करने के रास्ते निकाल ही लेंगे, फिर चाहे वह जाति या धर्म या फिर सनातन धर्म या आर्य समाज जैसे संप्रदाय हों। अगर आप पहले किसी समुदाय से घृणा करते थे तो बाद में आप किसी और समुदाय के साथ ऐसा करेंगे। हालांकि, एक हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत के साथ एक दिक्कत और है। हम एक हो सकते हैं, लेकिन हम बहुत धन नहीं बना सकते। इतिहास बताता है कि दुनिया के देश दो में से किसी एक तरीके से अमीर बने हैं। पहला, उनके पास अासानी से हासिल होने वाले प्राकृतिक संसाधन व्यापक पैमाने पर हों। दूसरा यह कि देश के लोग शिक्षा पर फोकस करें, बहुत मेहनत करें, आज की आधुनिक वैज्ञानिक सोच को अपनाएं और सामाजिक सद्भाव के साथ रहें।दुनिया में अमीर इस्लामिक देश वे ही हैं, जो तेल निकालते हैं। मध्य-पूर्व में धार्मिक देश हैं और उनकी प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है। वे केवल जमीन के भीतर से पेट्रो-डॉलर ही निकाल रहे हैं। इतने अधिक धन से वे ऐसे हो सकते हैं। अगर धन नहीं होगा तो इस्लामिक देश बहुत अच्छे से नहीं रह सकते। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सूडान व सोमालिया इसके उदाहरण हैं।हिंदू राष्ट्र के चाहने वालों के पास दुर्भाग्य से कोई तेल नहीं है। इसलिए जब तक हम नागपुर या वाराणसी में तेल के बड़े कुएं नहीं खोज लेते तब तक हमारे पास अमीर बनने का एक ही रास्ता है- कड़ी मेहनत, आधुनिक विज्ञान और सामाजिक सद्भाव। अन्यथा अगर आप एक हिंदू राष्ट्र बना भी लेते हैं तो आप बहुत कीर्तिवान नहीं होने जा रहे हो। भारत की जनसांख्यिकी को देखें तो हम देश के अनेकता वाले लोकतंत्र को बदलने की कोशिश भी नहीं कर सकते। आप 14 करोड़ मुसलमानों को दूर जाने या फिर दूसरे दर्जे के नागरिक बनने को नहीं कह सकते। इससे पनपने वाले गुस्से और अलगाव से ही भारत एक जिंदा नर्क बन जाएगा। हमारा एक बहुत ही युवा देश है और हमारे युवा रोजगार चाहते हैं। हिंदू राष्ट्र की कोशिश देश मंे निवेश, व्यापार और सद्भाव को नष्ट कर देगी और इससे हमारे युवा चाहे हिंदू हों या मुसलमान रोजगार नहीं पा सकेंगे।प्रति व्यक्ति आय के रूप में हम आगे बढ़े हैं और आज यह 2000 डॉलर (करीब एक लाख चालीस हजार रुपए) के सम्मानित स्तर पर है। 1991 में यह सिर्फ 300 डॉलर थी। यह बढ़ोतरी भी देश के गर्व और राष्ट्रवाद में वृद्धि के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। यह हमारी हिंदू सर्वोच्चता व उग्र राष्ट्रवाद की दबी हुई इच्छाओं को उभारने की भी वजह है। याद रखें कि यह संपन्नता किसी एक धर्म की वजह से नहीं आई है। यह इसलिए आई है, क्योंकि भारत को एक लोकतांत्रिक, आधुनिक, मेहनती और उद्यमी देश के रूप में देखा जा रहा था। अगर हमने 1991 में देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सोचा होता तो हम आज कहीं नहीं होते। हिंदू आज इसलिए गर्व करते हैं, क्योंकि हम समरसतापूर्ण बने रहे और विकास पर फोकस करते रहे। हमें वैसा ही बने रहना चाहिए। जिस दिन यह प्रति व्यक्ति आय 10,000 डॉलर (आठ फीसदी की बढ़ोतरी दर से यह दो दशकों में संभव है) हो गई, उस दिन से भारत के बारे में हर चीज और अप्रतिम हो जाएगी। इसमें हिंदू धर्म और संस्कृति भी शामिल है। आइए हम अपना सिर नीचे करके विकास और सद्भाव पर फोकस करें, बाकी चीजें तो खुद ही आ जाएंगी। हमारे पास तेल नहीं है। हमारे पास एक टीम के रूप में काम करके दुनिया में खुद को साबित करने के लिए सिर्फ हमारी क्षमता और मेहनत ही है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर बिहार ने रास्ता दिखाया By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 18:55:00 GMT देशभर में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर फैले आक्रोश और हिंसा के बाद बिहार ने रास्ता दिखाया है। विधानसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि एनआरसी लागू नहीं होगा, एनपीआर 2010 के फॉर्मेट (मनमोहन सिंह के कार्यकाल वाला) के अनुसार होगा यानी किसी व्यक्ति के माता-पिता का जन्म प्रमाण और निवास प्रमाण तथा उसका पिछला निवास स्थान नहीं पूछा जाएगा।दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा की आग में लगभग दो दर्जन लोगों की आहुति के बाद केंद्र को शायद अहसास होने लगा है कि कदम मोड़ने पड़ सकते हैं, लिहाज़ा बिहार सदन में सत्ता में रहते हुए भी पार्टी के विधायकों ने इस प्रस्ताव पर सहमति दी। उस समय पार्टी के नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी, जिन्होंने ऐलान किया था कि बिहार में मई 15 से 28 के बीच एनपीआर प्रक्रिया पूरी की जाएगी, विधायकों की सहमति का जायजा ले रहे थे। पहले दिन सदन में सभा अध्यक्ष ने जब सबको चौंकाते हुए उर्दू में भाषण पढ़ा तो भाजपा ठगी सी रह गई। परिणति तब हुई जब शिक्षामंत्री कृष्णनंदन ने भाषण ख़त्म होने पर ‘सुभान अल्लाह’ कहा।इस पर एक भाजपा सदस्य ने ‘जय श्रीराम’ कहा। बहरहाल, राजनीतिक शतरंज में बिसात तर्क के आधार पर नहीं मौके की बुनियाद पर होती है यह नीतीश कुमार ने सिद्ध कर दिया। तेजस्वी में नेतृत्व क्षमता की पोल खुल रही है और ऐसे में राजद का एक बड़ा वर्ग नीतीश से हाथ मिलाने की वकालत कर रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today बिहार विधानसभा में एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया था। Full Article
india news आप की दिल्ली हैट्रिक के बाद बदली पंजाब की सियासी चाल By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 19:03:00 GMT पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार अगले महीने तीन वर्ष पूरे करने वाली है। अब तक कछुआ चाल चल रहे कैप्टन पिछले दिनों से अचानक खरगोश की चाल चलने लगे हैं। उन्होंने मीटिंग में पहली बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि वे ब्यूरोक्रेसी के कामकाज से खुश नहीं हैं। उनकी कार्यशैली के केंद्र में वे मुद्दे आ गए हैं, जिनका सीधा सरोकार जनता से है। यह बदलाव न तो महंगी बिजली से त्रस्त जनता के गुस्से से आया है और न ही विपक्ष के दबाव से। इसके पीछे 11 फरवरी को आए दिल्ली के अप्रत्याशित नतीजे हैं, जिसमें अरविंद केजरीवाल ने तीसरी बार सरकार बनाते हुए यह साबित किया कि चुनाव काम के दम पर ही जीते जा सकते हैं।दरअसल दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों पर यदि किसी एक राज्य की नजर सबसे ज्यादा टिकी थी तो वह पंजाब था। आम आदमी पार्टी ने तीन साल पहले दिल्ली से पहली बार बाहर निकलकर जिस राज्य को चुना, वह पंजाब ही था। तमाम अनुमानों को पलटते हुए उसने पंजाब की राजनीति में भूचाल ला दिया था और विधानसभा में शिअद से बड़ी पार्टी बन गई थी। दिल्ली के हाल के नतीजों ने पंजाब में आप के कार्यकर्ताओं में तो नई जान फूंकी ही, यहां की सियासत के रंग-ढंग भी बदलते दिखाई दे रहे हैं। न केवल सत्तारूढ़ कांग्रेस अपने कामकाज का आलोचनात्मक आकलन करने लगी है, शिरोमणि अकाली दल भी रूठों को मनाने के लिए अपना अहं त्यागने लगा है। पंथक मामलों पर कैप्टन की सियासी चाल में फंसे अकालियों को इस बार भी आप की बढ़ती ख्याति डरा रही है।मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बहस यह चल रही है कि क्या पंजाब में आप इस बार अपनी पुरानी भूलों को सुधार पाएगी? क्या उसके पास पंजाबी मुख्यमंत्री का चेहरा होगा, जो उसकी पिछली सबसे बड़ी कमजाेरी थी? गर्मदलियों से सहानुभूति का जो ठप्पा उस पर पिछले चुनाव में लगा, उस धारणा को वह कैसे बदल पाएगी? स्थानीय मुख्यमंत्री का चेहरा तो आम आदमी पार्टी के लिए ढूंढना आज भी उतनी ही बड़ी चुनौती है, परंतु फंडिंग जुटाने की उसकी मजबूरी इस बार नहीं होगी। पिछले चुनाव में खेल बिगड़ने की शुरुआत उस फंडिंग से ही हुई थी, जो उसे विदेशों से मिली थी। यहीं से गर्मख्यालियों के समर्थन की अवधारणा ने जन्म लिया। इस बार अरविंद केजरीवाल कहीं ज्यादा परिपक्व हो गए हैं और उनकी पार्टी कहीं ज्यादा संपन्न। नशा और बेरोजगारी जैसे मुद्दे आज भी उतने ही प्रभावी हैं।सूबे की आर्थिक हालत बेहद कमजोर है, परंतु राजनेताओं की संपन्नता बढ़ रही है। फिर भी अकालियों जैसी सत्ता विरोधी लहर कैप्टन के खिलाफ नहीं बन पाई है। पिछली बार आप ‘लोक लहर’ मानकर आत्ममुग्ध हो गई थी। इसी अति आत्मविश्वास के कारण सत्ता के पाए पकड़कर उसे लौटना पड़ा। वह ठेठ पंजाबी मिजाज को समझती, उससे पहले अकाली और कांग्रेस की राजनीति के मंझे खिलाड़ी कैप्टन अमरिंदर अपने पक्ष में लहर बना गए। दिल्ली के बाद पंजाब की निगाहें अब बिहार पर हैं, जहां इसी साल चुनाव हैं। उसकी दिलचस्पी बिहार की राजनीति में नहीं है। नजरें इस बात पर टिकी हैं कि दिल्ली का पीके (प्रशांत किशोर) मॉडल क्या बिहार में भी आप के लिए चलेगा? पिछले विधानसभा चुनाव में पंजाब में इस पीके मॉडल ने काम किया था। यह बात अलग है, तब यह कैप्टन के लिए था और इसने केजरी मॉडल पर पानी फेर दिया था। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह (फाइल फोटो)। Full Article
india news वक्त बदलने पर सबसे अधिक भूमिका स्वयं की होनी चाहिए By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 20:30:00 GMT समय सबका बदलता है। जिनके घर कभी आए दिन दिवाली मना करती थी, एक दिन उनकी मुंडेरों पर कोई छोटा सा दीया जलाने वाला भी नहीं रहता। ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। हो सकता है वर्षों पहले हमारा वक्त बहुत अच्छा हो, आज खराब हो जाए। या किसी समय बहुत बुरा था, आज अच्छा हो जाए..।हमने देखा है कि जब किसी का अच्छा समय आ जाए तो अहंकार माथे पर चढ़कर नाचने लगता है और बुरा दौर आ जाए तो मरने की सोचते हैं। समय अपना काम सबके प्रति दिखाता है और इसलिए काल को भारतीय संस्कृति में देवता मानकर पूजा गया है। जब कभी आपका समय बदल रहा हो (अच्छा हो या बुरा) तो पांच चीजों को बहुत सावधानी से देखिएगा। उस बदलते समय में पहली भूमिका होगी कोई आसमानी-सुल्तानी घटना।दूसरी परिस्थितिजन्य होगी, तीसरी व्यक्तियों के कारण, चौथा कारण अज्ञात हो सकता है और पांचवां सबसे महत्वपूर्ण है आप स्वयं। अपने बदलते वक्त की सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद लीजिए और जब समय बदल रहा हो तो उसे तीन भागों में बांटिए- भूतकाल, वर्तमान और भविष्य। फिर बारीकी से देखिए कि आज मेरा अच्छा समय है तो भूतकाल में कैसा था, वर्तमान में इस अच्छे दौर का कैसे लाभ उठाऊं और यदि भविष्य में यही अच्छा दौर बुरा हो जाए तो उसे लेकर मेरी क्या तैयारी होगी? वक्त बदलने पर सबसे अधिक भूमिका हमारी खुद की होना चाहिए। दूसरों पर बहुत अधिक टिक गए तो वक्त अच्छा हुआ तो भी गड़बड़ा जाएंगे..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today The most important role should be your own when times change. Full Article
india news शिक्षा से बहुत अलग होती है नैतिकता By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 20:40:00 GMT अगर आप मेहनत से कमाया गया पैसा किसी ऐसे संस्थान को देना चाहते हैं, जिसने जरूरतमंद मरीजों के लिए एम्बुलेंस खरीदने का फैसला लिया है, तो नीचे दी गई घटना आपके लिए है। ऐसा इसलिए नहीं है कि इस समाजसेवी संस्थान ने कुछ गलत किया है, बल्कि यह जानने के लिए कि उस एम्बुलेंस का सरकारी अस्पताल में कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है।सैंट जॉर्ज हॉस्पिटल, मुंबई में राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे सबसे बड़े अस्पतालों में से एक है। इसकी चारों एम्बुलेंस का चिकित्सा अधीक्षक (मेडिकल सुपरिंटेंडेंट) टैक्सी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसमें वह एम्बुलेंस भी शामिल है, जिसमें कार्डिएक केयर के आधुनिक इक्विपमेंट हैं और जिसे आपात स्थितियों में ही इस्तेमाल किया जाता है।डॉ. मधुकर गायकवाड़ मार्च 2017 से चिकित्सा अधीक्षक के पद पर हैं। तब से अब तक वे एम्बुलेंस का इस्तेमाल 240 बार निजी कामों के लिए और 90 बार आधिकारिक कार्यों के लिए कर चुके हैं। पिछले साल ही उन्होंने कार्डिएक केयर एम्बुलेंस का 25 बार इस्तेमाल किया। ज्यादातर बार उन्हें जेजे हॉस्पिटल छोड़ा गया, जहां वे अपने परिवार के साथ सरकार द्वारा दिए गए अपार्टमेंट में रहते हैं। ड्राइवर की लॉग बुक कहती है, ‘अधीक्षक साहेब को घर छोड़ा’, ‘अधीक्षक साहेब को मीटिंग के लिए जेजे हॉस्पिटल लेकर गया और आया’। डॉ. गायकवाड़ के लिए की गई कुल एंट्रीज लगभग 8 हजार किलोमीटर की हैं। वह भी तब, जब राज्य सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में काम कर रहे सभी चिकित्सा अधीक्षकों को मीटिंग और आधिकारिक काम से आने-जाने के लिए यात्रा भत्ता मिलता है। इस खबर के सामने आने के बाद अधिकारी इसकी जांच कर रहे हैं कि डॉ. गायकवाड़ ने ये भत्ता लिया या नहीं। डायरेक्टोरेट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (डीएमईआर) के प्रमुख डॉ. टी.पी. लहाने ने कहा है कि एम्बुलेंस केवल मरीजों के लिए है, डॉ. गायकवाड़ को घर और मीटिंग जाने के लिए इनका इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है।रोचक बात यह है कि डॉ. गायकवाड़ अपना बचाव भी अजीब ढंग से कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि उन्होंने एम्बुलेंस का इस्तेमाल आधिकारिक कार्यों के लिए किया, क्योंकि ये मुंबई के ट्रैफिक से बचने का सबसे अच्छा तरीका है। ‘घर से काम पर जाना’ और ‘काम से घर जाना’ भी उन्हें ऑफिस के काम लगते हैं। वे दावा करते हैं कि उन्हें कोई गाड़ी अलॉट नहीं की गई है, इसलिए उन्होंने एम्बुलेंस इस्तेमाल की। इसके अलावा मुंबई में गाड़ियां चलाने वाले सड़क पर एम्बुलेंस को रास्ता देते हैं और इसलिए वे जल्दी पहुंच जाते हैं। वे दावा करते हैं कि इस तरह उन्होंने कभी भी एम्बुलेंस ‘निजी काम’ के लिए इस्तेमाल नहीं की।ऐसी नैतिकता की कमी का एक और उदाहरण तब सामने आया जब यहीं के महानगर पालिका ने मुंबई की मेस्को एयरलाइंस के दो हेलिकॉप्टर्स जब्त किए, क्योंकि कंपनी ने 1.64 करोड़ रुपए का प्रॉपर्टी टैक्स नहीं भरा था। चूंकि 30 नवंबर 2019 तक 1,387 करोड़ रु. प्रॉपर्टी टैक्स ही इकट्ठा किया जा सका है, जो कि 5,016 करोड़ रुपए के 2019-20 के लक्ष्य का 25 फीसदी ही है। इसलिए नगर पालिका ऐसी बिल्डिंगों के पानी का कनेक्शन काटने जैसे गंभीर कदम उठा रही है, जिनमें देश के कुछ सबसे अमीर लोग रहते हैं।यह वही देश है जहां डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग रहे हैं, जिनकी नैतिकता की कहानियां पढ़कर हम बड़े हुए हैं। डॉ. कलाम एक मिसाल थे, जो अपनी निजी संपत्ति के रूप में केवल 16 हजार रुपए छोड़कर गए, जबकि वे देश के प्रथम नागरिक, राष्ट्रपति थे। और इसी देश में हम ऐसे विपरीत उदाहरण भी देखते हैं, वह भी ऐसे लोगों के जो शिक्षा से डॉक्टर हैं या इतने अमीर हैं कि हेलीकॉप्टर तो रख सकते हैं लेकिन नगर पालिका को टैक्स नहीं दे सकते।फंडा यह है कि नैतिकता, शिक्षा से पूरी तरह अलग है। जैसा कि डॉ. कलाम ने कहा है, युवाओं को नैतिकता तीन ही लोग सिखा सकते हैं, ‘एक अच्छी मां, एक मेहनती पिता और प्राथमिक स्कूल का नेकदिल शिक्षक।’ इसलिए बच्चों के प्राइमरी टीचर ऐसे हों जो उन्हें सबसे अच्छी नैतिक शिक्षा पढ़ाएं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Morality is very different from education Full Article
india news पुलिस प्रेरित फिल्मों की भेल By Published On :: Wed, 26 Feb 2020 20:43:00 GMT गोविंद निहलानी की फिल्म ‘अर्द्ध सत्य’ में हवलदार का अमरीश पुरी अभिनीत पात्र अपने पुत्र ओम पुरी अभिनीत पात्र पर दबाव बनाता है कि वह पुलिस विभाग में दाखिल हो जाए। ओम पुरी को साहित्य पसंद है, परंतु पिता की इच्छानुरूप वह पुलिस में सब इंस्पेक्टर बनता है। वह अपने साहस से डाकुओं के गिरोह को पकड़ता है, परंतु इस शौर्य का श्रेय अन्य अफसर को दिया जाता है, क्योंकि उस अफसर को एक नेता की सिफारिश प्राप्त हो गई थी। इस अन्याय के कारण आक्रोश से भरा ओम पुरी दो आरोपियों की इतनी पिटाई करता है कि वे मर जाते हैं। मामला गंभीर है और केवल शेट्टी नामक एक अपराध सरगना ही अपने राजनीतिक रिश्ते से लाभ उठाकर ओम पुरी की सहायता कर सकता है।ओम पुरी उस गॉड फादर के भव्य बंगले में प्रवेश करता है। शेट्टी उसे बचाने का वचन इस शर्त पर देता है कि इसके बाद वह पुिलस में रहते हुए अपराध सरगना शेट्टी के लिए काम करेगा, एक पालतू कुत्ते की तरह। ओम पुरी शेट्टी की हत्या कर देता है और थाने पर जाकर आत्मसमर्पण कर देता है। सलीम-जावेद की ‘आक्रोश’ की मुद्रा वाला पुलिस पात्र अपने माता-पिता के साथ किए गए अन्याय का बदला लेते हैं। अत: वे सामाजिक आक्रोश से संचालित पात्र नहीं माने जा सकते। ‘अर्ध सत्य’ की पटकथा महान लेखक विजय तेंडुलकर ने लिखी थी।फिल्म ‘देव’ में अमिताभ बच्चन और ओम पुरी पुराने मित्र हैं और एक ही बैच में प्रशिक्षित हुए हैं। ओम पुरी एक दंगाग्रस्त क्षेत्र में नियुक्त है। पुलिस द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने वालों पर लाठियां चलाई जाती हैं और बीस लोग पुलिस की गोलियों से मार दिए जाते हैं। ओम पुरी घटनास्थल पर मौजूद था और उसके आचरण की जांच के लिए उसका मित्र अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र नियुक्त किया जाता है। इसके पूर्व घटी एक घटना में अमिताभ अभिनीत पात्र अपने परिवार के एक सदस्य को खो चुका है। इस फिल्म के एक दृश्य में करीना कपूर अपने समाज की सभा में समाज के स्वयंभू नेताओं के दोगलेपन को उजागर करती है, जिस कारण उसका अपना समाज उससे खफा है।सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली एलएलबी-2’ में दिखाया गया है कि कमाई वाले थानों में नियुक्ति के लिए अघोषित नीलामी होती है। कानून व्यवस्था बनाए रखने वाले विभाग पर गैरकानूनी दबाव बनाए जाते हैं। प्रकाश झा की ‘दामुल’, ‘मृत्युदंड’ और ‘गंगाजल’ में पुलिस पात्रों की दुविधा व असमंजस को बखूबी प्रस्तुत किया गया है। ‘वेडनेसडे’ नामक फिल्म में अनुपम खेर अभिनीत पुलिस अफसर पात्र नसीरुद्दीन अभिनीत पात्र को देखकर समझ लेता है कि इस आम आदमी ने पूरी व्यवस्था को हिला दिया। अनुपम खेर सब कुछ जानकर भी उसे गिरफ्तार नहीं करता।अमिताभ बच्चन ने के. भाग्यराज की फिल्म ‘आखिरी रास्ता’ में दोरही भूमिकाएं अभिनीत की हैं। एक भूमिका पुलिस इंस्पेक्टर की है तो दूसरी इंस्पेक्टर के पिता की है जो अपनी पत्नी से दुष्कर्म करने वालों को दंडित कर रहा है। सलीम-जावेद ने अशोक कुमार अभिनीत ‘संग्राम’ से प्रेरित दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘शक्ति’ लिखी थी। पुलिस अफसर के नन्हे बेटे को गुंडों ने अगवा किया है और दबाव बनाते हैं कि उनके गिरफ्तार किए गए सरगना को छोड़ दें, अन्यथा वे उसके बेटे को मार देंगे। बच्चा किसी तरह छूट जाता है, परंतु उसके मन में गांठ पड़ गई है कि उसके पिता ने उसके लिए कुछ नहीं किया। दरअसल, पुलिस को मानवीय करुणा की दृष्टि से देखा जानना चाहिए। कुछ वर्ष पूर्व रिश्वत का नया ढंग ईजाद हुआ है कि धर्मनिरपेक्ष देश के कुछ थानों के गेट पर छोटा मंदिर बना दिया गया है और शिकायत दर्ज करने आए आम आदमी से कहा जाता है कि मंदिर में चढ़ावा दे दें। अजब-गजब भारत में सब कुछ संभव है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Bhel of police inspired films Full Article
india news पुलिस दंगाइयों से कह रही है- चलो भाई अब बहुत हो गया; वापस लौटते दंगाई नारे लगाते हैं- दिल्ली पुलिस जिंदाबाद, जय श्रीराम By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 06:21:32 GMT नई दिल्ली. दोपहर के तीन बजे हैं (मंगलवार) और चांद बाग का माहौल अब पहले से कहीं ज्यादा तनावपूर्ण बन गया है। दोनों ही पक्षों में भय का माहौल और आक्रोश दोनों साफ-साफ देखा जा सकता है। नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष और विपक्ष की बात अब कहीं पीछे छूट चुकी है और माहौल पूरी तरह से सांप्रदायिक हो चुका है। चंदू नगर की तंग गलियों में मोटर साइकल से गुजरता एक नौजवान जब रुककर स्थानीय लोगों से शेरपुर चौक जाने का रास्ता पूछता है तो एक स्थानीय व्यक्ति उसे फिलहाल वहां न जाने की सलाह देता है। तभी वहां मौजूद दूसरा व्यक्ति बाइक सवार से सवाल करता है, ‘तुम हिंदू हो या मुसलमान?’ बाइक सवार जवाब में बताता है कि वो हिंदू है, तो सवाल करने वाला कहता है- ‘हिंदू हो तो निकल जाओ। शेरपुर चौक जाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। कोई रोके तो बता देना कि तुम हिंदू हो।’चंदू नगर की गलियों से लेकर बाहर करावल नगर रोड तक अब हजारों की संख्या में लोग लाठी-डंडे लिए निकल पड़े हैं। तकरीबन हर गली के बाहर ईंट-पत्थर जमा किए जा चुके हैं। लोग बड़े-बड़े कपड़ों या बोरों में पत्थर भरकर उन्हें मुख्य सड़क पर जमा कर रहे हैं। कई महिलाएं अपने बच्चों के लिए फिक्रमंद हैं और उन्हें घर के अंदर चलने को कह रही हैं, लेकिन कई बच्चे ऐसे भी हैं जो पत्थर जुटाने में बड़ों का पूरा सहयोग कर रहे हैं। उधर, न्यू मुस्तफाबाद में भी माहौल अब बदलने लगा है। यहां भी लड़के बोरों में पत्थर भरकर गली के मुहाने तक ले आए हैं। हालांकि, यहां लोगों में हिंदू बहुल इलाकों की तुलना में भय ज्यादा है। लोगों को शिकायत भी है कि इस दौरान पुलिस खुले तौर से एक पक्ष के साथ खड़ी है और हिंसा में उनकी मदद कर रही है।न्यू मुस्तफाबाद के रहने वाले यूनुस परेशान हैं और पत्रकारों को देखते ही लगभग दौड़ते हुए वे उनके पास आते हैं। उनका 16 साल का बेटा यूसुफ तीन दिन से लापता है। उसकी फोटो दिखाते हुए वो पत्रकारों से कहते हैं, ‘मेरा बेटा तीन दिन से घर नहीं लौटा है। प्लीज इसे खोजने में हमारी मदद कीजिए।’ पूछने पर यूनुस बताते हैं कि उन्होंने तीन दिन बीत जाने के बाद भी बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई है। वो कहते हैं, ‘रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए पुलिस के पास जाना होगा। सौ नंबर पर भी अगर मैं शिकायत करूं तो भी पुलिस मुझे थाने आने को कहेगी। इस माहौल में पुलिस थाने जाने की न तो हिम्मत जुटा पा रहा हूं और न ही भरोसा।’16 साल का यूसुफ, जो तीन दिन से लापता है।भजनपुरा चौक से करावल नगर रोड की तरफ सुबह से जो इक्का-दुक्का गाड़ियां चल रही थी, अब वो भी पूरी तरह बंद हो चुकी हैं। ये सड़क अब दो हिस्सों में बंट चुकी है। चौक से क़रीब पांच सौ मीटर आगे तक का हिस्सा एक पक्ष का है और उससे आगे का हिस्सा दूसरे पक्ष का। इस रोड पर क्षेत्रीय पार्षद ताहिर हसन का एक कार्यालय है। इस कार्यालय के पास ही वह अदृश्य ‘बॉर्डर’ है जो बाहर से आए लोगों को नहीं दिखता लेकिन स्थानीय लोग जानते हैं कि इससे आगे का हिस्सा दूसरे पक्ष का है।ताहिर हसन के दफ्तर के बाहर ही सीआरपीएफ के कुछ अधिकारी बैठे हैं। इनमें से एक अधिकारी ज़मीन पर पड़े गोलियों के कुछ खोखे उठाकर अपने साथी को दिखाते हैं और पहचानते हुए कहते हैं, ‘ये गोलियां पुलिस की नहीं हैं। जिस पिस्टल से ये चलाई गई हैं वो पुलिस के पास नहीं होती हैं।’ यहीं मौजूद स्थानीय व्यापारी इस्माइल उनकी बात से हामी भरते हुए कहते हैं, ‘हां, ये गोलियां दंगाइयों ने ही चलाई हैं। कल यहां दोनों पक्षों की ओर से जमकर गोलियां भी चलाई गई हैं।' ठीक साढ़े तीन बजे सीआरपीएफ के ये अधिकारी अपनी गाड़ियों में बैठ कर रवाना हो जाते हैं। इसके साथ ही सीआरपीएफ की वह टुकड़ी भी वापस लौटने लगती है, जो बीती रात आठ बजे से यहां तैनात थी। तीन बजकर 40 मिनट तक इस इलाके में मौजूद सभी सुरक्षा बल लौट जाते हैं। हैरानी इसलिए होती है कि अब तक कोई अन्य सुरक्षा बल इनकी जगह लेने नहीं आया है। लिहाजा अब यह इलाका पूरी तरह से दंगाइयों के कब्जे में हो चुका है।ऐसा होने के दस मिनट के भीतर ही दोनों पक्षों के हज़ारों लोग करावल नगर मेन रोड पर आमने-सामने आ चुके हैं और 3 बजकर 50 मिनट पर यहां पत्थरबाज़ी शुरू हो जाती है। अब मौके पर कोई सुरक्षाबल नहीं है। सिर्फ दंगाइयों में तब्दील हो चुके लोग हैं जो एक दूसरे पर ईंट, पत्थर और पेट्रोल बम बरसा रहे हैं। दोनों पक्षों ने ही अपनी ढाल के रूप में बड़े-बड़े टिन और प्लाई बोर्ड आगे रखे हैं और इनके पीछे से पत्थरबाज़ी हो रही है। निगम पार्षद ताहिर हसन का कार्यालय चार मंजिला इमारत में है। इस इमारत की छत पर कई लड़के हेलमेट पहने खड़े हैं और ऊपर से पत्थर चला रहे हैं। साफ है कि इस इमारत से पत्थर चलाने की तैयारी बहुत पहले से की गई है, तभी इतनी संख्या में पत्थर चार मंजिला इमारत की छत पर हैं। करीब आधे घंटे की लगातार पत्थरबाजी के बाद करावल नगर की ओर से पुलिस की एक गाड़ी भीड़ के बीच आती है। इस गाड़ी के आते ही भीड़ ‘भारत माता की जय’ और ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते हुए कुछ और आगे बढ़ती है। गाड़ी में से उतरा एक पुलिसकर्मी आंसू गैस का गोला दूसरे पक्ष की तरफ दागता है तो ‘जय श्री राम’ की गूंज कुछ और ऊंची हो जाती है। किसी भी व्यक्ति के लिए इस दृश्य पर विश्वास करना मुश्किल होता है कि पुलिस खुले आम दंगाइयों के बीच मौजूद है और एक पक्ष के साथ खड़े होकर दूसरे पक्ष को निशाना बना रही है। दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में ये पक्ष कई बार ‘दिल्ली पुलिस जिंदाबाद’ के नारे लगाता है। पुलिस के सामने आई इस भीड़ में शामिल लोग पत्थर चला रहे हैं, पेट्रोल से भरी कांच की बोतलों में रस्सी डालकर उसे पेट्रोल बम बना रहे हैं और आगजनी कर रहे हैं। बीच-बीच में जब कभी दूसरा पक्ष हावी हो रहा है तो दिल्ली पुलिस के जवान इस ओर मौजूद दंगाइयों का हौसला बढ़ाने का काम भी कर रहे हैं। करीब एक घंटा पत्थरबाजों के पीछे रहने और समय-समय पर आंसू गैस दागने के बाद पुलिस की यह टुकड़ी उनसे आगे बढ़ती है।साढ़े पांच बजे पत्थरबाजी उस वक्त थमती है जब पुलिस आगे बढ़कर दोनों पक्षों से शांत होने की अपील करती है। लेकिन पांच मिनट के भीतर ही कोशिश नाकाम हो जाती और दोनों ओर से इतनी तेज पत्थर बरसने लगते हैं कि अब पुलिस को मजबूरन पीछे दौड़ना पड़ रहा है। यहां भी पीछे लौटते हुए पुलिस दंगाइयों को आगे जाकर मोर्चा संभालने की बात कहती जाती है। दंगाइयों की इस भीड़ में कई लोग पत्थर चला रहे हैं, कई पत्थर जमा कर रहे हैं तो कई सिर्फ इस पर नजर बनाए हुए हैं, कि कहीं कोई इस घटना का फोटो या वीडियो तो नहीं उतार रहा। वीडियो बनाने की यह मनाही दोनों तरफ बराबर है। कहीं किसी छत पर भी अगर कोई वीडियो बनाता लग रहा है तो ये भीड़ उस पर टूट पड़ती है। कई इलाकों में पत्रकारों के कैमरे भी इस दौरान तोड़ दिए गए हैं। दंगाई आपस में भी एक-दूसरे को वीडियो बनाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में हो रही यह हिंसा कई घंटों तक यूं ही जारी रहती है। इस दौरान पत्थर से लेकर गोलियां और पेट्रोल बम तक दोनों ही तरफ से चलाए जाते हैं, लेकिन पुलिस की मौजूदगी एक ही पक्ष में है,लिहाजा उनका निशाना भी एक ही पक्ष पर है।कर्फ्यू का ऐलान होने के बाद घटना स्थल पर पहुंची सुरक्षाबलों की गाड़ियां।बैनर-पोस्टर थामे शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर अक्सर लाठी चार्ज करने के लिए कुख्यात दिल्ली पुलिस का यह नया अवतार है जो पत्थर फेंकते, बम मारते दंगाइयों पर एक भी लाठी नहीं उठा रही। बल्कि उनके साथ मिलकर सामने वालों को निशाना बना रही है। कई घंटों की पत्थरबाजी के बाद करीब साढ़े 6 बजे पुलिस यहां से वापस लौटती है। इस दौरान दंगाइयों ने पार्षद ताहिर हसन के उस कार्यालय को कई प्रयासों के बाद अंततः आग के हवाले कर दिया है,जिसकी छत से लगातार इस तरफ पत्थर बरसाए जा रहे थे। पेट्रोल बम मारकर लगाई गई इस आग से इस बिल्डिंग की पहली मंजिल की बालकनी में रखी चीजें और इलेक्ट्रॉनिक आइटम जलाए जा चुके हैं। लेकिन भीड़ की कोशिश है कि ताहिर हसन की पूरी बिल्डिंग को पूरी तरह जला दिया जाए।घंटों की पत्थरबाजी के बाद करावल नगर की स्थिति।लगभग सात बजे सुरक्षा बलों की कम्बाइंड यूनिट, जिसमें आरएएफ, एसएसबी, सीआरपीएफ और दिल्ली पुलिस के जवान शामिल हैं, उस तरफ से दाखिल होती है, जहां से मुस्लिम पक्ष के लोग पत्थर चला रहे हैं। अब कई घंटों की पत्थरबाजी के बाद हिंदू पक्ष की ओर पहला आंसू गैस का गोला फेंका गया है। कुछ ही मिनट में ऐसे कई सुरक्षा बल इस तरफ आते हैं, जिससे यहां मौजूद भीड़ छंट जाती है। सुरक्षा बल अब तक मुस्लिम पक्ष के लोगों को वापस भेज चुके हैं और उधर से पत्थर चलना पूरी तरह बंद हो चुका है। इस मौके पर हिंदू पक्ष के कुछ लोग ताहिर हसन के कार्यालय की बिल्डिंग के बिलकुल नजदीक जाकर पेट्रोल बम मारते हैं। इससे जब जब बिल्डिंग में आग नहीं लगती तो बाकायदा सिलेंडर मंगवाया जाता है। ये सब पुलिस की मौजूदगी में हो रहा है। दंगाई खुलेआम पुलिस को कह रहे हैं कि ‘इस बिल्डिंग को पूरी तरह जलाए बिना वापस नहीं जाएंगे।’ सुरक्षा बलों की बड़ी टुकड़ी अब दंगाइयों को पीछे भेजने के लिए मना रही है। अब भी एक भी लाठी पुलिस ने नहीं चलाई है, बल्कि पुलिसकर्मी इन दंगाइयों को यह कहते हुए वापस जाने को कह रहे हैं कि ‘चलो भाई अब बहुत हो गया।’ वापस लौटते दंगाई लगातार ‘दिल्ली पुलिस ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं।’दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर सतीश गोलचा ने कहा- मैं यहां कोई बाइट देने नहीं आया।सड़कें खाली होने के बाद दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर सतीश गोलचा मौके का मुआयना करने पहुंचे हैं। उनसे जब पूछा गया कि ‘सुबह से दंगे जैसा माहौल होने के बाद भी बीच में क्यों सुरक्षा बलों को पूरी तरह हटा लिया गया था?’ उनका जवाब साफ है- ‘मैं यहां कोई बाइट देने नहीं आया हूं।’ सतीश गोलचा के साथ ही यहां आई सुरक्षा बलों की कई टुकड़ियां भी वापस लौट रही हैं। इनके लिए कई बसें भजनपुरा चौक पर खड़ी हैं जिनमें आगे ‘ऑन स्पेशल ड्यूटी’ लिखा हुआ है। ये गाड़ियाँ ठीक उस मजार के पास खड़ी हैं, जिसमें कल आग लगा दी गई थी। इस वक्त कुछ लड़के हथौड़ा लेकर मजार की दीवार पर मार रहे हैं और इससे बमुश्किल 20 मीटर दूर बसों में बैठे सुरक्षा बलों को यह नजर नहीं आ रहा है।भजनपुरा चौक से अंदर करावल नगर रोड पर कर्फ्यू है मगर चंदू नगर में ऐसा कोई निशान नहीं।रात के साढ़े नौ बज चुके हैं और अब तक टीवी पर यह खबर चलने लगी है कि दिल्ली के हिंसाग्रस्त इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। भजनपुरा चौक से अंदर करावल नगर रोड पर काफी दूर तक यह कर्फ्यू महसूस भी होता है, क्योंकि सभी गलियों के मुख्य गेट पर ताले लग चुके हैं और यहां अब ड्यूटी पर आए जवान हर आने वाले को रोक रहे हैं। लेकिन यहां से कुछ आगे बढ़ने पर चंदू नगर में कर्फ्यू का कोई निशान नहीं है। यहां लोग अब भी सड़कों पर हैं और उनके हाथों में अब भी लाठी-डंडे हैं। रात के साढ़े ग्यारह बजे भजनपुरा से समीर हैदर, मुस्तफाबाद गली नंबर-1 से वहीर अहमद और चांदबाग से मोहम्मद कयूम पत्रकारों को फोन करके बस एक ही सवाल पूछ रहे हैं- ‘सर अगर यहां कर्फ्यू लगा है तो पास के मोहल्लों में कैसे लोग अब भी खुलेआम घूमते हुए भड़काऊ नारे लगा रहे हैं? क्या कर्फ्यू भी धर्म के आधार पर लागू हुआ है?’यह भी पढ़ेंहिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल : भाग-1दिल्ली पुलिस की निगरानी में होती रही हिंसा, सीआरपीएफ के जवान ने कहा- जब हमें कुछ करने का आदेश ही नहीं तो यहां तैनात क्यों किया? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Delhi Violence Ground Report News and Updates: Delhi Police, CRPF Over CAA Protest Full Article
india news इमरान सरकार ने ट्रम्प को बुलाने के लिए अमेरिकी फर्म से लॉबिंग करवाई थी, व्हाइट हाउस ने कहा- जाने की कोई वजह नहीं By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 06:23:33 GMT राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दिल्ली दौरे और भारत-अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकियों से पाकिस्तान बेचैन है। इमरान सरकार इस वजह से भी छटपटा रही है, क्योंकि ट्रम्प पाकिस्तान जाए बिना अमेरिका लौट जाएंगे। यहीं नहीं, ट्रम्प को इस्लामाबाद बुलाने के लिए इमरान सरकार ने लॉबिंग तक करवाई, फिर भी कामयाबी नहीं मिली। पाकिस्तान के राजनयिक गलियारों में चर्चा है कि भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अमेरिका के साथ रिश्तों को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया है। मोदी की प्रभावशाली विदेश नीति की वजह से ही ट्रम्प का भारत दौरा संभव हो सका और वह पाकिस्तान नहीं गए। अहमदाबाद में जिस तरह से ट्रम्प का भव्य स्वागत हुआ, वह भारत-अमेरिका के रिश्तों को बताने के लिए काफी है। ट्रम्प द्वारा भारत के साथ अरबों रुपए की रक्षा डील के ऐलान से भी पाकिस्तान में है।पाकिस्तानी आर्मी और प्रधानमंत्री इमरान खान ने खुद ह्वाइट हाउस को इस बात के लिए मनाने की हर संभव कोशिश की कि राष्ट्रपति ट्रम्प भारत दौरे के दौरान इस्लामाबाद भी आएं, भले ही कुछ घंटे के लिए ही सही। हालांकि यह संभव नहीं हो सका। नाम नहीं बताने के शर्त पर पाकिस्तान सरकार के एक उच्च अधिकारी ने बताया कि पीएम इमरान ने ट्रम्प के इस्लामाबाद बुलाने के लिए ह्वाइट हाउस के साथ कई बार लॉबिंग कराने के प्रयास भी किए। लेकिन उनके अनुरोध को ठुकरा दिया गया। इमरान खान के एक नजदीकी सूत्र ने दैनिक भास्कर को बताया कि ‘ह्वाइट हाउस ने सुरक्षा कारणों और दौरे के लिए कोई उचित वजह नहीं होने का तर्क देकर ट्रम्प के पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को नजरअंदाज करने से इमरान काफी चिंतित भी हैं।'इमरान प्रधानमंत्री बनने के बाद से ट्रम्प को पाकिस्तान बुलाने के लिए लॉबिंग करवा रहे थेसरकारी सूत्रो के मुताबिक इमरान खान प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही इस कोशिश में लगे हुए थे कि राष्ट्रपति ट्रम्प पाकिस्तान आएं। जब ट्रम्प के भारत आने की आधिकारिक घोषणा हो गई, तब भी ये कोशिश जारी रही। इमरान सरकार ने ट्रम्प के दौरे के लिए लॉबिंग करने को पिछले साल एक टॉप अमेरिकी फर्म को हायर किया था। इस फर्म का नाम होलांद एंड नाइट है। फर्म के साथ पाकिस्तानी राजदूत मोहम्मद खान ने विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की मौजूदगी में हस्ताक्षर भी किया था। हालांकि इसकी डिटेल सरकार की ओर से जारी नहीं की गई। पाकिस्तान विदेश मंत्रालय की ऑफिस से जब अमेरिका-भारत के बीच हुए रक्षा करार के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया।विपक्षी पार्टियों ने कहा- इमरान की विदेश नीति फेल हो गई हैपाकिस्तान में नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी पार्टी पीएमएल-एन और आसिफ जरदारी की पार्टी पीपीपी ने कहा है कि इमरान खान की विदेश नीति फेल हो गई है। वह राष्ट्रपति ट्रम्प को पाकिस्तान यात्रा के लिए सहमत तक नहीं कर सके। पीएमएल-एल की प्रवक्ता और पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री मरयम औरंगजेब ने बताया कि इमरान सरकार ट्रम्प को पाकिस्तान बुला तक नहीं सकी, जबकि वह भारत के साथ अरबों रुपए के रक्षा करार कर डाले।राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर एक साथ घर में घिरे इमरानइमरान सरकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों के कई मुद्दों पर एक साथ घिर गई है। देश की अर्थव्यवस्था के खराब होते हालात, बढ़ती बेरोजगारी दर, रोजमर्रा के सामान की बढ़ते दाम और पेट्रोल-गैस की बढ़ती कीमत से सरकार पहले से ही बेचैन है। इसके अलावा विदेशी मामलों में फाइनेंशियल एक्शन टास्कर फोर्स (एफएटीएफ), कश्मीर मुद्दे और मुस्लिम देशों का समर्थन जुटाने में भी सरकार नाकामयाब रही है। विपक्षी दल इन मुद्दों पर इमरान सरकार के खिलाफ हल्ला बोल रही हैं।5 अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान आए हैं, सभी सैन्य शासन में1947 के बाद से अब तक अमेरिका के 5 राष्ट्रपति पाकिस्तान आए हैं। जबकि इस दौरान पाकिस्तानी हेड ऑफ स्टेट 43 बार अमेरिका गए हैं। खास बात ये कि सभी अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान तब पहुंचे, जब यहां सैन्य शासन था। इसका मतलब, वॉशिंगटन डीसी के पाकिस्तान के साथ अच्छे तालुकात तभी रहे हैं, जब यहां सैन्य शासन रहा है। आइजनहावर पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे, जो 1959 में पाकिस्तान के दौरे पर आए थे। तब सैन्य शासक आयुब खान थे। आखिरी बार 2006 में राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश पाकिस्तान गए थे। तब जनरल परवेज मुशर्रफ सैन्य शासक थे। ट्रम्प से पहले अमेरकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दो बार भारत आए, लेकिन वह पाकिस्तान नहीं गए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today इमरान खान और डोनाल्ड ट्रम्प। (फाइल) Full Article
india news दिल्ली पुलिस की निगरानी में होती रही हिंसा, सीआरपीएफ के जवान ने कहा- जब हमें कुछ करने का आदेश ही नहीं तो यहां तैनात क्यों किया? By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 08:15:21 GMT करावल नगर/भजनपुरा/मुस्तफाबाद/चांद बाग/चंदू नगर/खजूरी खास से भास्कर रिपोर्ट.सुबह के 10 बजने को हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में यह सुबह बेहद तनाव के साथ हुई है। सिग्नेचर ब्रिज से खजूरी की ओर बढ़ने पर इसके दर्जनों सबूत दिखने लगते हैं। बाजार बंद हैं। सड़कें पत्थरों से पटी पड़ी हैं। जली हुई दर्जनों गाड़ियां सड़क के दोनों ओर मौजूद हैं और आग लगी इमारतों से अब तलक धुआं उठ रहा है। धुआं उगलती ऐसी ही एक इमारत मोहम्मद आजाद की है। ये इमारत उस भजनपुरा चौक के ठीक सामने है, जहां स्थित पुलिस सहायता केंद्र और एक मजार को भी सोमवार कोदंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया था। मोहम्मद आजाद कई सालों से यहां ‘आजाद चिकन कॉर्नर’ चलाया करते थे, जो अब राख हो चुका है। इसी इमारत के दूसरे छोर पर उनके भाई भूरे खान और दीन मोहम्मद की फलों की दुकानें हुआ करती थीं। इस दो मंज़िला इमारत में नीचे दुकानें थीं और ऊपर मोहम्मद आज़ाद के भाई भूरे खान का परिवार रहता था।आगजनी के बारे में आजाद बताते हैं, ‘सोमवार की दोपहर दंगाइयों ने हमला किया। सड़क के दूसरी ओर भजनपुरा है, वहीं से सैकड़ों दंगाई आए और तोड़-फोड़ करने लगे। पहले उन्होंने दुकान का शटर तोड़ा और लूट-पाट की। इसके बाद पेट्रोल छिड़क कर हमारी गाड़ियां, दुकान, घर सब जला डाला।’ जिस वक्त इस इमारत में आग लगाई गई उस दौरान भूरे खान अपने परिवार के साथ इमारत में ही मौजूद थे। वे बताते हैं, ‘कल दोपहर पत्थरबाज़ी दोनों तरफ से ही हो रही थी। जब यह शुरू हुई, उससे पहले ही माहौल बिगड़ने लगा था तो हम लोग दुकान बंद करके ऊपर अपने घर में आ चुके थे। हमें अंदाज़ा नहीं था कि दंगाई शटर तोड़कर हमारे घर में दाख़िल हो जाएंगे या घर को आग लगा देंगे।’मोहम्मद आजाद, जिनकी चिकन की दुकान जला दी गई।डबडबाई आंखों के साथ भूरे खान कहते हैं- ‘जब भीड़ नीचे हमारी दुकानें जलाने लगी तो हम छत की ओर भागे। वहीं से दूसरी तरफ कूद कर जान बचाई। बचपन में हम टीवी पर तमस देखकर सोचा करते थे कि दंगों का वो दौर कितना खतरनाक रहा होगा। कल हमने वही सब अपनी आंखों से देखा। पुलिस भी उन दंगाइयों को रोक नहीं रही थी, बल्कि पुलिस की आड़ लेकर ही दंगाई आगे बढ़ रहे थे।’ भूरे खान जब आपबीती बता रहे हैं, तब तक दोपहर के 11 बज चुके हैं। सड़क के दूसरी तरफ बसे भजनपुरा की गलियों में अब तक कई लोग जमा हो चुके हैं और ‘जय श्री राम’ के नारों का उद्घोष होने लगा है। फिलहाल पुलिस या सुरक्षा बल के कोई भी जवान इन्हें रोकने के लिए मौजूद नहीं है। हालांकि, भजनपुरा चौक से करावल नगर रोड की तरफ सुरक्षा बलों की तैनाती की गई है।भूरे खान, जिनकी फलों की दुकान में आगजनी हुई।मुख्य सड़क से एक तरफ जिस तरह से मोहम्मद आज़ाद की इमारत और अन्य संपत्ति खाक हुई है, ठीक वैसे ही सड़क के दूसरी ओरमनीष शर्मा की संपत्ति के साथ भी हुआ है। मनीष की बिल्डिंग उस पेट्रोल पंप के ठीक बगल में स्थित है, जिसे सोमवार को दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया था। इस आगज़नी में मनीष की कार, बाइक और उनकी ‘दिल्ली ट्रैवल्स’ नाम की कंपनी का दफ्तर भी जला दिया गया है। इसी इमारत में ‘कैप्टन कटोरा’ नाम का एक रेस्टौरेंट भी जलाया गया है। मनीष के दफ्तर से कुछ ही आगे बढ़ने पर ‘हॉराइजन एकेडमी’ है। मेडिकल और इंजीनियरिंगकी कोचिंग करवाने वाले इस संस्थान को नवनीत गुप्ता चलाते हैं। वो बताते हैं- ‘कल करीब साढ़े बारह बजे दंगाइयों ने यहां आगजनी शुरू की। उस वक्त हमारे संस्थान में करीब 50-60 बच्चे मौजूद थे। हम बस इसी बात के लिए भगवान का शुक्रिया कर रहे हैं कि दंगाई कोशिश करने के बावजूद भी दरवाज़े तोड़ने में कामयाब नहीं हुए। उन्होंने यहां लगे सारे सीसीटीवी कैमरे और कांच तोड़ डाले लेकिन अगर वो भीतर दाख़िल हो जाते तो बच्चों की सुरक्षा हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाती।’मनीष शर्मा, जिनका ऑफिस और गाड़ियां जला दी गईं।नवनीत गुप्ता के इस कोचिंग इंस्टिट्यूटके ठीक सामने, सड़क की दूसरी तरफ की सर्विस रोड पर कुछ तिरपाल लगे हैं। यही वो जगह है, जहां बीते कई दिनों से नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा था। सोमवार को दंगाइयों ने तिरपाल लगे इस कैंप को भी आग के हवाले कर दिया था, लेकिन अभी थोड़ी देर पहले ही स्थानीय लोगों ने इसे दोबारा खड़ा किया है। यहां मौजूद मोहम्मद सलीम बताते हैं कि ‘स्थानीय महिलाएं बीते डेढ़ महीने से यहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहीं थी। कोई हिंसक घटना नहीं हुई। लेकिन कल पुलिस के साथ कई दंगाई आए और उन्होंने महिलाओं से मारपीट शुरू कर दी। इसके बाद पत्थरबाज़ी शुरू हो गई।’ मोहम्मद सलीम सामने इशारा करते हुए दिखाते हैं,‘सड़क के उस तरफ जो मोहन नर्सिंग होम आप देख रहे हैं, वहां से प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं। कई बच्चे इसमें ज़ख़्मी हुए और कुछ की तो मौत भी हो गई।'यहां न्यू मुस्तफाबाद के रहने वाले शाहिद की मौत भी उसी गोली लगने से हुई है, जो इस नर्सिंग होम की छत से चलाई गई थी।’ शाहिद खान न्यू मुस्तफाबाद की गली नंबर-17 का रहने वाला था। 23 साल के शाहिद की अभी तीन महीने पहले ही शादी हुई थी। मूल रूप से बुलंदशहर का रहने वाला शाहिद बीते 5 साल से दिल्ली में था और यहां ऑटो चलाया करता था। शाहिद के बहनोई सलीम बताते हैं, ‘वो काम से लौट रहा था। साढ़े तीन-चार बजे के करीब उसे गोली लगी। कुछ लोगों ने उसे यहीं पास के मदीना नर्सिंग होम पहुंचाया, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही शायद वो दम तोड़ चुका था।’ शाहिद की ही तरह 20 वर्षीय दानिश को भी गोली लगी है। दानिश मुस्तफाबाद की ही गली नंबर-11 का रहने वाला है। उसके पिता मोहम्मद जलालुद्दीन का आरोप है कि उनके बेटे को भी मोहन नर्सिंग होम से चलाई गई गोली लगी है। वे कहते हैं, ‘हम लोग कसाबपुरा से लौट रहे थे। बस से उतर कर आगे बढ़े ही थे कि उसकी जांघ में गोली लग गई। अल्लाह का शुक्र है कि उसकी जान बच गई। वो अभी गुरु तेग बहादुर अस्पताल में भर्ती है।’मंगलवार को दिन चढ़ने के साथ ही उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इस हिस्से में तनाव भी बढ़ने लगा है। दोपहर के बारह बज चुके हैं और अब तक सैकड़ों लोग अपनी-अपनी गलियों के बाहर लाठी-डंडे, पत्थर और लोहे के सरिए लिए टहलने लगे हैं। भजनपुरा चौक से करावल नगर रोड पर आगे बढ़ने पर शुरुआत का इलाका चांद बाग कहलाता है। मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र की जितनी भी गलियां रोड पर खुल रही हैं, लगभग सभी गलियों के बाहर कुछ बुजुर्ग लोग कुर्सी डाले बैठे हैं। ऐसी ही एक गली के बाहर जेके सैफी, आर सिद्दीकी और इस इलाके के पूर्व पार्षद ताज मोहम्मद मौजूद हैं। इस तरह गली के मुहाने पर बैठने के बारे में जेके सैफी कहते हैं कि ‘हम यहां इसलिए बैठे हैं, ताकि मोहल्ले के जवान लड़के जोश में कोई गलत कदम न उठाएं। हमने सभी को गली के अंदर ही रहने को कहा है और हम खुद इसकी निगरानी कर रहे हैं।’ उनकी बातों को आगे बढ़ाते हुए ताज मोहम्मद कहते हैं, ‘हम शांति और भाईचारा चाहते हैं। हम जो प्रदर्शन भी कर रहे थे वो पूरी तरह शांतिपूर्ण था और किसी समुदाय के खिलाफ नहीं,बल्कि सरकार के फैसले के खिलाफ था। अब अगर हम अपनी मांगें सरकार के सामने न रखें तो क्या करें। कल यहां इतनी हिंसा हुई, कई दुकानें और घर जला दिए गए, चौक पर बनी मजार और पीछे के इलाकों में कुछ मस्जिद तक जला दी गई, पर ये सामने का मंदिर आप देख लीजिए, इस पर एक भी पत्थर नहीं चला है। जबकि ये मंदिर मुस्लिम बहुल चांदबाग में स्थित है।’मुस्लिम बहुल इलाकों में युवाओं को उपद्रव करने से रोकने के लिए गलियों के बाहर बैठे बुजुर्ग।सीआरपीएफ जवानों की लाचारीचांद बाग के इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में अभी शांति है। यहां से न तो कोई नारेबाजी हो रही है और न ही मुख्य सड़क पर कोई हथियार लिए नजर आ रहा है। जबकि यहां से थोड़ा ही आगे बढ़ने पर मूंगानगर और चंदू नगर जैसे हिंदू बहुल इलाकों का माहौल बेहद खतरनाक हो चला है। यहां खुलेआम लोग लाठी-डंडे लिए सड़कों पर घूम रहे हैं और रह-रह कर धार्मिक नारे उछाले जा रहे हैं। सीआरपीएफ के कई जवान भी यहां तैनात हैं, लेकिन हजारों की भीड़ के आगे कुछ दर्जन ये जवान बेबस ही नज़र आ रहे हैं। इसका एक उदाहरण तब मिलता है जब सीआरपीएफ के कुछ जवान कूलर-फैन की एक लूटी गई दुकान से स्टील के फ्रेम उठाकर ले जाते लड़कों को रोकने की नाकाम कोशिश करते हैं। ये स्टील के फ्रेम इसलिए ले जा रहे हैं ताकि पत्थरबाज़ी के दौरान इसका ढाल के रूप में इस्तेमाल कर सकें। पर जब कुछ जवान उन्हें रोकते हैं तो लड़के जवानों को लगभग डपटते हुए फ्रेम उठाकर आगे बढ़ जाते हैं।मंगलवार करीब सवा बारह बजे हैं और अब पुलिस की कई गाड़ियां भजनपुरा चौक से करावल नगर रोड में दाखिल हो रही हैं। इस भारी पुलिस बल के बीच कुछ मुस्लिम नेता तिरंगा झंडा लिए शांति मार्च कर रहे हैं। वो मूंगानगर और चंदू नगर के निवासियों से शांति व्यवस्था बनाने की अपील कर रहे हैं, लेकिन सड़क के दोनों ओर मौजूद ‘जय श्री राम’ का नारा लगाती भीड़ के शोर में उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा। यह भीड़ लाठी-डंडे लहराती हुई ‘मोदी-मोदी’ के नारे भी लगा रही है। स्थिति को भाँपते हुए पुलिस जल्दी ही शांति मार्च कर रहे इन लोगों को वापस ले जाती है।दोपहर में एक-डेढ़ बजे के करीब जब मस्जिदों से नमाज की आवाज़ शुरू हुई है, तब तक माहौल ऐसा बन चुका है कि अब कभी भी हिंसा शुरू हो सकती है। इस हिंसा के लिए दोनों ही पक्ष तैयार भी नज़र आते हैं। दोनों पक्षों में बस इतना ही फर्क है कि जहां हिंदू बहुल इलाकों में सब कुछ खुलेआम हो रहा है, वहीं मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हिंसा की यह तैयारी गलियों से भीतर दबे-छिपे की जा रही है।लाठी-डंडे, पत्थर, लोहे की रॉड और पेट्रोल बम जैसे हथियार दोनों ही पक्षों ने तैयार कर लिए हैं। लेकिन जहां हिंदू पक्ष की भीड़ मुख्य सड़क पर सुरक्षा बलों की आंखों के आगे ये सब जमा कर रही है, वहीं मुस्लिम पक्ष ये सारे काम मुख्य सड़क से दूर अपनी गलियों के भीतर कर रहे हैं। दूसरे पक्ष को उकसाने वाले नारे भी सिर्फ हिंदू पक्ष की ओर से ही उछाले जा रहे हैं।सीआरपीएफ के जिन जवानों की यहां तैनाती है, उन्हें मौके पर पहुंचे 19 घंटों से ज्यादा हो चुका है। सोमवार की रात आठ बजे से लगातार मौके पर तैनाती दे रहे इन जवानों की मंगलवार दोपहर तीन बजे तक भी शिफ्ट नहीं बदली गई है। हालांकि, इन लोगों की तैनाती से अब तक कोई हिंसक घटना नहीं हुई है, लेकिन जिस तरह से इन जवानों के आगे ही भड़काऊ नारे लग रहे हैं, पत्थर जमा किए जा रहे हैं, हथियार लहराए जा रहे हैं और खुलेआम दूसरे समुदाय को जला डालने की बात कहते हुए ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को जमा किया जा रहा है, उसे देखते हुए जवान भी जानते हैं कि अब कभी भी हिंसा भड़क सकती है। इस इलाके में हिंसा कैसे और कब शुरू हुई और इस दौरान पुलिस व सुरक्षा बलों की क्या भूमिका रही, इसका विस्तृत ब्यौरा रिपोर्ट के अगले भाग में... 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india news मोहम्मद जुबैर कहते हैं- जिन्होंने मुझे दंगाइयों का शिकार होने भेजा वे भी इंसान थे और जिन्होंने मेरी जान बचाई वे भी इंसान ही थे By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 10:52:59 GMT नई दिल्ली. मोहम्मद जुबैर को उनके नाम से ज्यादा लोग नहीं पहचानते, लेकिन उनकी तस्वीर देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ने देखी है। वह तस्वीर दिल्ली दंगे की सबसे दर्दनाक तस्वीरों में शुमार है। वह तस्वीर, जिसमें लहूलुहान होकर जमीन पर गिरे एक व्यक्ति को चारों ओर से घेरकर दंगाई लाठी-डंडों से पीट रहे हैं। दिल्ली में हुई क्रूरता का प्रतीक बनी इस तस्वीर में जो लहूलुहान होकर अधमरा पड़ा है, वे हैं 37 साल के मोहम्मद जुबैर।बीते 19 साल से चांदबाग में रहने वाले जुबैर कूलर ठीक करने का काम करते हैं। सियासी मसलों से दूर रहने वाले जुबैर बताते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। सोमवार की सुबह वे खुश थे, क्योंकि उन्हें इज्तिमा में शामिल होने जाना था। सुबह नए कपड़े पहन दुआ के लिए कसाबपुरा की ईदगाह के लिए निकल गए। उस दिन क्या, कब और कैसे हुआ इसका बारे में विस्तार से बताते हुए ज़ुबैर कहते हैं- ‘ईदगाह में दुआ करीब साढ़े बारह बजे खत्म हुई। इसके बाद मैंने वहीं लगी दुकानों से बच्चों के लिए हलवा पराठा, दही बड़े और दो किलो संतरे खरीदे। बच्चों को सालभर इज्तिमा का इंतजार रहता है। उन्हें पता होता है कि इज्तिमा से लौटकर आने वाला उनके लिए हलवा और खाने-पीने की अन्य चीजें लेकर आएगा। खाने-पीने का सामान लेकर चांद बाग की बस पकड़ी। रास्ते में ही था जब मुझे मालूम हुआ कि मेरे घर के की तरफ दंगा हो रहा है। इस कारण पांचवें पुश्ते पर ही उतर गया।’‘खजूरी में दंगे हो रहे थे तो मैंने भजनपुरा मार्केट की तरफ से वापस लौटने की सोची। वहां पहुंचा तो दोनों ओर से तेज पत्थरबाजी हो रही थी। मुझे सड़क के दूसरी तरफ अपने घर जाना था तो मैं वहां बने अंडर-पास की तरफ जाने लगा। तभी कुछ लोगों ने मुझे रोका और दूसरी तरफ से जाने को कहा। ये लोग पत्थरबाजी में शामिल नहीं थे, इसलिए उनकी बात पर भरोसा कर लिया। मुझे लगा कि वे मेरी सुरक्षा के लिए दूसरी ओर से जाने को बोल रहे हैं। नहीं पता था कि मुझे दंगाइयों की तरफ भेज रहे हैं। मैं जैसे ही दूसरी तरफ पहुंचा, कई लोगों ने मुझे घेर लिया और मारो-मारो कहने लगे। इज्तिमा से लौट रहा था लिहाज़ा मजहबी लिबास में था। उन्होंने दूर से मुझे पहचान लिया। शुरुआत में मैंने उनसे कहा भी कि भाई मेरा कसूर तो बता दो, लेकिन वहां कोई सुनने को तैयार नहीं था। उन्हीं में से किसी ने पहले मेरे सिर पर लोहे की रॉड मारी और उसके बाद तो पता नहीं कितने ही लोग लाठी-डंडों और सरियों से मुझे मारने लगे। भीड़ में एक आदमी बाकियों को रोक भी रहा था और मुझे वहां से जाने देने की बात कह रहा था। लेकिन वो भी शायद अकेला था।’जुबैर के साथ यह घटना 24 फरवरी को हुई। इसके बाद उनकी यह फोटो वायरल हो गई।‘इसके बाद मुझे बेहोशी होने लगी थी। मुझे बस इतना याद है कि मेरे सर से खून बह रहा था और मैं जमीन पर गिर पड़ा था। मुझे लगा था कि मैं मर जाऊंगा। मैंने कलमा पढ़ना शुरू कर दिया था। उस वक्त दोपहर के करीब तीन बजे होंगे। जिस जगह मुझ पर हमला हुआ वहां पुलिस का कोई भी जवान नहीं था। हां, वहां से कुछ दूरी पर पुलिस गश्त जरूर कर रही थी। सड़क पर ही बेहोश हो जाने के बाद मुझे बस धुंधला-धुंधला ही याद है कि क्या हुआ। इतना याद है कि चार लोग मुझे उठाकर कहीं ले गए थे। फिर जब मुझे एंबुलेंस में डाला जा रहा था तो उसकी धुंधली सी तस्वीर जेहन में है। लेकिन ये कौन लोग थे, कहां से आए, मुझे नहीं पता। मुझे शाम करीब छह बजे होश आया। तब मैं जीटीबी अस्पताल के एक स्ट्रेचर पर पड़ा था। कोई लगातार मुझसे पूछ रहा था कि मेरे साथ कौन आया है, पर मेरे पास जवाब नहीं था। सिर पर टांके लगे थे। मुझे बताया गया कि जीटीबी अस्पताल पहंचने से पहले सिर पर टांके लगाए जा चुके थे। इसका मतलब कहीं और ले जाया गया, जो मुझे याद नहीं।’जुबैर को हेलमेट पहने दंगाई जब मार रहे थे, तब एक व्यक्ति उन्हें बचाने की भी कोशिश कर रहा था।जिसने भी मुझे अस्पताल पहुंचाया वो लोग मुझे वहां छोड़कर जा चुके थे। वहां मैंने बैठने की कोशिश की तो बैठ न सका। मैंने स्ट्रेचर पर लेटे-लेटे दो बार उल्टी कर दी थी। अस्पताल के कर्मचारी मुझे एक्स-रे कराने को बोल रहे थे, लेकिन मैं अकेला था। मुझमें इतनी ताकत भी नहीं थी कि मैं किसी को फोन करके बुला सकूं। अस्पताल में मौजूद व्यक्ति ने मेरी मदद की और एक्स-रे करवाया। करीब सात बजे मैं भाई को फोन करने की स्थिति में आ पाया। पर वह चांदबाग में था, जहां दंगे जारी थे। वो घर से निकलने की स्थिति में नहीं था। फिर बहन-बहनोई को फोन किया, जो कहीं ओर रहते हैं। वो लोग अस्पताल पहुंचे। मेरा बचना करिश्मे जैसा है।’जुबैर बार-बार कराहते हुए आपबीती सुना रहे हैं। उनके पूरे शरीर में चोट के निशान हैं, गर्दन से लेकर चेहरे, हाथ और कंधों पर सूजन है और पसलियों में रह-रह कर दर्द उठ रहा है। वे कहते हैं- ‘डॉक्टर ने मुझे सीटी स्कैन की लिए बोला था, लेकिन अस्पताल की मशीन खराब थी, इसलिए सीटी स्कैन न हो सका।’ ओखला में दुकान चलाने वाले ज़ुबैर के 24 वर्षीय भतीजे रेहान बताते हैं- ‘सोमवार शाम तक चाचू की तस्वीर वायरल हो चुकी थी। हमें भी इंटरनेट पर उनकी तस्वीर देखकर ही इस बारे में मालूम हुआ। तब हमने रिश्तेदारों को फोन लगाए और हम उनके पास पहुंचे।’ जुबैर अपनी तस्वीरों के बारे में कहते हैं- ‘मुझे नहीं पता था कि मेरी तस्वीरें वायरल हुई हैं। मैं उन तस्वीरों को देख पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं।’ इस हिंसा के बारे में जुबैर कहते हैं, ‘किस्मत ने मेरा साथ दिया कि मैं जिंदा हूं। कई लोग इस हिंसा में जान से हाथ धो बैठे हैं। हर समुदाय में अच्छे-बुरे, दोनों तरह के लोग हैं। लोग वो भी थे, जिन्होंने मुझे जानबूझकर दंगाइयों का शिकार होने भेज दिया था और वो भी थे जिन्होंने मुझे अस्पताल पहुंचा दिया। मैं दोनों में से किसी को नहीं जानता। बस इतना जानता हूं कि एक ने मेरी जान लेनी चाही तो दूसरे ने जान बचा ली।'जुबैर के सिर में टांके आए हैं। वे अभी अपने रिश्तेदार के यहां रह रहे हैं।(सभी फोटो: रॉयटर्स)यह भी पढ़ें1# दिल्ली में दंगे संयोग या प्रयोग : सीएए समर्थकों और विरोधियों ने एक-दूसरे को निशाना बनाने के लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाया, धरना-प्रदर्शनों का सहारा लिया2# ग्राउंड रिपोर्ट : आप पार्षद के घर की छत से पेट्रोल बम, पत्थर, गुलेल-एसिड मिले; मृत आईबी कॉन्स्टेबल के परिवार ने इसी नेता पर हत्या का आरोप लगाया3# हिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल: भाग-1दिल्ली पुलिस की निगरानी में होती रही हिंसा, सीआरपीएफ के जवान ने कहा- जब हमें कुछ करने का आदेश ही नहीं तो यहां तैनात क्यों किया?4# हिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल: भाग-2पुलिस दंगाइयों से कह रही है- चलो भाई अब बहुत हो गया; वापस लौटते दंगाई नारे लगाते हैं- दिल्ली पुलिस जिंदाबाद, जय श्रीराम5# हिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल: भाग-3तीन दिन की सुस्ती के बाद चौथे दिन जागी पुलिस, ये मुस्तैदी पहले दिखाती तो कई जिंदगियां बच सकती थीं Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Mohammad Zubair Delhi | Delhi Chand Bagh Violence Story Updates Picture About Mohammad Zubair Delhi Full Article
india news अशांति के खिलाफ ईमानदार और सख्त ‘राजदंड’ जरूरी By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 18:54:00 GMT पूरे देश में दो संप्रदायों के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। देश की राजधानी जल रही है, लगभग तीन दर्जन लोग मारे गए हैं, जिसमें एक पुलिस कांस्टेबल भी है। पिछले कुछ वर्षों में देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है। गृह राज्यमंत्री का कहना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे के दौरान भड़की दिल्ली हिंसा की घटनाएं किसी साजिश की बू देती हैं।साजिश कौन कर रहा है, अगर कर रहा है तो कहने वाले मंत्री, जो स्वयं इसे रोकने के जिम्मेदार हैं, क्या कर रहे हैं? ऐसे इशारों में बात करके क्या साजिशकर्ताओं को रोक सकेंगे? यही सब तो वर्षों से किया जा रहा है। क्या सत्ता का काम इशारों में बात करना है? अच्छा तो होता जब उसी मीडिया के सामने ये मंत्री साजिशकर्ताओं को खड़ा करते और अकाट्य साक्ष्य के साथ उन्हें बेनकाब करते। जब एक मंत्री बयान देता है कि ‘तुम्हें पाकिस्तान दे दिया, अब तुम पाकिस्तान चले जाओ, हमें चैन से रहने दो’, तो क्यों नहीं उसी दिन उसे पद से हटाकर मुकदमा कायम किया जाता?उसने तो संविधान में निष्ठा की कसम खाई थी और उसी संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ लिखा था न कि ‘हमारा हिंदुस्तान, तुम्हारा पाकिस्तान’। राजसत्ता के प्रतिनिधियों की तरफ से इन बयानों के बाद लम्पट वर्ग का हौसला बढ़ने लगता है और दूसरी ओर संख्यात्मक रूप से कमजोर वर्ग में आत्मसुरक्षा की आक्रामकता पैदा हो जाती है। फिर अगर मंच से कोई बहका नेता ‘120 करोड़ पर 15 करोड़ भारी’ कहता है तो उसे घसीटकर पूरे समाज को बताना होता है कि भारी लोगों की संख्या नहीं, बल्कि कानून और पुलिस है।लेकिन इसकी शर्त यह है कि सरकार को यह ताकत तब भी दिखानी होती है जब चुनाव के दौरान केंद्र का मंत्री ‘देश के गद्दारों को’ कहकर भीड़ को ‘गोली मारो सा... को’ कहलवाता है। आज जरूरत है कि देश का मुखिया वस्तु स्थिति समझे और एक मजबूत, निष्पक्ष राजदंड का प्रयोग हर उस शख्स के खिलाफ करे जो भावनाओं को भड़काने के धंधे में यह सोचकर लगा है कि इससे उसका राजनीतिक अस्तित्व पुख्ता होगा। भारत को सीरिया बनने से बचाने के लिए एक मजबूत राज्य का संदेश देना जरूरी है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news घर में प्रवेश से पहले अहंकार बाहर छोड़ दें By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 18:57:00 GMT किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी करना, किसी के शारीरिक दोष आदि पर उपहास करना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। ऊपर वाला किसे कब शारीरिक दोष दे दे, कह नहीं सकते। इसलिए भूलकर भी किसी का उपहास न करें। दुनियादारी में बहुत से संबंध निभाने पड़ते हैं जिसमें किसी को कुछ कहना पड़ता है, टिप्पणी भी करनी पड़ सकती है।अपने जीवन साथी पर कभी कोई व्यक्तिगत टिप्पणी या उसके किसी शारीरिक दोष का उपहास न करें। पति-पत्नी का संबंध इतना निकटता का होता है कि दोनों एक-दूसरे के शरीर को जानते हैं। इसलिए कम से कम शरीर के दोष को लेकर तो कोई टिप्पणी न करें। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि एक बार शिवजी ने पत्नी पार्वती के रूप पर टिप्पणी कर दी थी। इस पर पार्वती बोलीं- आपने मुझे काली कहा है, अब मैं गोरी होकर बताऊंगी। ऐसा कहकर वे चली गईं।पति-पत्नी में एक-दूसरे को लेकर टीका-टिप्पणी करवाता है मनुष्य का अहंकार। जब हम अपने घर में होते हैं तो चार काम बड़े मौलिक और निजी रूप में करते हैं- वस्त्र, पूजन, भोजन और भोग। पर ध्यान रखिए, जब कहीं बाहर से आकर घर में प्रवेश करते हैं तो अपने जूते-चप्पल बाहर उतार देते हैं। इसी तरह अपना अहंकार और बाहरी विचार भी घर के बाहर ही छोड़ दें। ये दो चीजें भीतर आ गईं तो फिर एक-दूसरे पर टिप्पणी, दोषारोपण होगा ही। परिणाम आएगा कलह, अशांति के रूप में। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news बॉलीवुड की फिल्मों के न्यायालय दृश्य में संकेत By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 21:12:00 GMT विगत वर्षों में अदालत के दृश्यों को प्रधानता से प्रस्तुत करने वाली कुछ फिल्में प्रदर्शित हुई हैं। राजकुमार संतोषी की ‘दामिनी’ का क्लाइमैक्स प्रभावोत्पादक बन पड़ा था। ‘आर्टिकल 15’ और ‘सेक्शन 375’ में अदालत के दृश्य थे। ‘मुल्क’ का अदालत का दृश्य और जज का फैसला बदलते हुए समाज और व्यवस्था के सामने सवाल खड़े करता है।जज इस आशय की बात कहता है कि आठ सौ साल पहले बिलाल कौन था ये देखने जाएंगे तो पांच हजार वर्ष पीछे चले जाएंगे। अवाम सिर्फ यह देखे कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कहीं संसद में पूजा-पाठ-हवन इत्यादि तो नहीं हो रहा है, बाकी सब काम अदालतें देख लेंगी।अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म ‘पिंक’ में तो कई तथ्य बेबाकी से प्रस्तुत किए गए हैं। ‘पिंक’ में तो जज, पुलिस को भ्रष्ट ठहराता है। कुछ मामलों को अदालतें टाल रही हैं, क्योंकि खौफ की चादर ने कायनात को ही ढंक लिया है। एक शेर याद आता है-‘इक रिदाएतीरगी है और ख्वाबे कायनात,डूबते जाते हैं तारे भीगती जाती है रात।’अदालत में बैठा जज पूरा प्रकरण समझ लेता है, परंतु साक्ष्य के अभाव में दोषी को दंडित नहीं कर पाता। ‘क्यू बी सेवन’ नामक उपन्यास में एक मुकदमा प्रस्तुत हुआ है। दूसरे विश्व युद्ध के समय नाजी कन्सेंट्रेशन कैम्प में एक डॉक्टर यहूदी महिलाओं के गर्भाशय और पुरुषों के अंडकोष की शल्य क्रिया ऐसे करते थे कि वे आगे संतान पैदा न कर सकें। युद्ध के पश्चात वह डॉक्टर नए पहचान-पत्र के साथ लंदन में रहने लगता है।एक खोजी पत्रकार उसका कच्चा-चिट्ठा अपने अखबार में प्रस्तुत करता है। डॉक्टर अदालत में मान हानि का मुकदमा कायम करता है। जज यह जान लेता है कि यह व्यक्ति वही डॉक्टर है, जिसने यहूदियों को प्रताड़ित किया है, परंतु कोई ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। बुद्धिमान जज फैसला लेता है कि पत्रकार को हरजाना देना होगा, परंतु यह हरजाना मात्र एक पेन्स है। हालांकि, उस नाजी डॉक्टर के सम्मान की कीमत एक पेन्स है।टीनू आनंद की अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘शहंशाह’ में भरी अदालत में नायक अपराधी को फांसी पर टांग देता है। जज के बदले नायक न केवल फैसला देता है, मुजरिम को फांसी भी चढ़ा देता है। इस तरह की फिल्में यह रेखांकित करती हैं कि व्यवस्था टूट गई है। बलदेवराज चोपड़ा की फिल्म ‘कानून’ में ऐसी कथा प्रस्तुत हुई है कि लगता है मानो जज ही कातिल है। अंतिम दृश्य में जज का हमशक्ल कातिल होता है।राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ का अधिकांश घटनाक्रम अदालत में घटित होता है। एक दृश्य में राज कपूर मुजरिम के कठघरे में खड़ा है। सरकारी वकील जज रघुनाथ उसे कातिल साबित करना चाहते हैं। पृथ्वीराज कपूर ने जज रघुनाथ की भूमिका अभिनीत की थी। इसी दृश्य में एक संवाद है कि ‘मन की अदालत ही सबसे बड़ी अदालत है।’फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ में कानून का छात्र इस ढंग से हत्या करता है कि पुलिस को कोई सबूत नहीं मिलता। कातिल अपने मन की अदालत में निरंतर दंडित होता है और एक दिन स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। ज्ञातव्य है कि यह फिल्म आज भी खय्याम के माधुर्य और साहिर लुधियानवी के गीतों के कारण बार-बार देखी जाती है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news दिल्ली दंगे: क्या सरकारें वाकई सबक लेंगी? By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 21:20:10 GMT यह सोशल मीडिया पर भड़काऊ शोर-शराबे का दौर है। दिल्ली में कपिल मिश्रा जैसे एक मामूली राजनेता ने उत्तेजक और भड़काऊ टिप्पणियों के जरिये खबरों में बने रहने का हुनर सीख लिया है। मिश्रा जो किसी वक्त आम आदमी पार्टी की सरकार में मंत्री हुआ करते थे, फिलहाल भाजपा के साथ हैं। उन पर आरोप है उस आग को भड़काने का जिसने देश की राजधानी को अपने आगोश में ले रखा है।उन्होंने सीएए का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों को धमकी दी थी कि या तो वे प्रदर्शन बंद कर दें या खामियाजा भुगतें। यह धमकी उन्होंने एक सीनियर पुलिस अफसर के पास खड़े होकर दी थी, जो हैरानी वाली बात है। यह राजनेता और पुलिस की मिलीभगत का खुलासा करता है और बेहद परेशान करने वाला है। याद कीजिए ये वही कपिल मिश्रा है, जिन्होंने दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान वोट बटोरने की साजिश में सांप्रदायिक टिप्पणी करते हुए चुनावों को भारत बनाम पाकिस्तान की जंग करार दिया था।उस वक्त चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की, लेकिन अब दिल्ली में हिंसा के मद्देनजर उनके संदिग्ध व्यवहार की जांच की जानी चाहिए। मिश्रा मुसीबत खड़ी करने वाले अकेले नहीं। पिछले हफ्ते मजलिस ए एतिहाद अल मुसलमीन के मुंबई के एक स्थानीय नेता ने सीएए विरोधी प्रदर्शन के मद्देनजर चेतावनी दी थी कि कैसे उनके 15 करोड़ बाकी 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे। ऐसे आग लगाने वाले बयानों ने जमीनी स्तर पर सांप्रदायिक रिश्तों में जहर भरने का काम किया है।इसके चलते जो ज्वालामुखी फूटा है, उससे दिल्ली दंगों में करीब तीन दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है और 100 से ज्यादा घायल हैं। यह साफ है कि ये दंगे होने के इंतजार में थे, उस एक महीने की घृणित बयानबाजी के बाद जिसने समुदायों में डर, नाराजगी और गुस्सा भर दिया। जब शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को गद्दार यानी एंटी नेशनल कहा जाता है, जब सरकार का मंत्री और उन्हें उकसाने वाले कहते हैं कि उन्हें गोली मार दी जानी चाहिए तो वह नफरत फूट पड़ने के बीज बोने जैसा है।जब एक प्रोपेगंडा मशीन बहुतायत मीडिया की सहायता से बहुसंख्यक समुदाय के घटिया पूर्वाग्रहों को पोषित करती है तो जमीनी स्तर पर धार्मिक विभाजन को गहरा होने से रोकना असंभव है। देखा जाए तो नफरत का लावा विस्फोट के इंतजार में उबल रहा था। पिछले रविवार को सीएए के समर्थक और विरोधियों के बीच हुआ संघर्ष आग भड़काने के लिए एक ट्रिगर भर था। सरकार को इस संभावित खतरे का अंदाजा नहीं था ये और ज्यादा हैरानी वाली बात है।सरकारी तंत्र को शायद जान-बूझकर या फिर किसी और वजह से सोते हुए पकड़ा गया है। यह तब होना, जब एक हाईप्रोफाइल अमेरिकी राष्ट्रपति आए हुए थे और भी ज्यादा चौंकाने वाला है। निश्चित ही नरेंद्र मोदी सरकार जो आखिरी बात चाहेगी वह यह कि उसके तड़क-भड़क वाले सेरेमोनियल समारोह को सड़कों पर धार्मिक हिंसा से ढंक दिया जाए। ट्रंप और मोदी जब हैदराबाद हाउस के सुुविधाजनक माहौल में धार्मिक स्वतंत्रता पर बात कर रहे थे, तब नॉर्थ ईस्ट दिल्ली के मोहल्ले धार्मिक नफरत की आग में जलने लगे थे।दो बड़ी आदमकद राजनीतिक हस्तियों की राजधानी में मौजूदगी का वीवीआईपी नशा और सड़कों पर गुस्से एवं उन्माद के बीच विरोधाभास से ज्यादा भड़कीला कुछ नहीं हो सकता। यही वजह है कि स्थिति पर काबू पाने में सरकारी मशीनरी की असफलता की गहन जांच होनी चाहिए। यह प्रशासनिक नियम पुस्तक का सबसे पुराना कायदा है कि किसी भी दंगे को बिना किसी प्रशासनिक अक्षमता या पेचीदगी के 48 घंटे से ज्यादा उबलने नहीं दिया जाए।पहले दिन सड़कों पर जारी हिंसा पर काबू पाने के लिए दिल्ली पुलिस की मौजूदगी बेहद कम, कमजोर और बिना तैयारी की थी। दूसरे दिन इस बात को साबित करने के लिए काफी वीडियो और सबूत हैं जो बताते हैं कि पुलिस ने मजबूती के साथ एक्शन लेने की जगह शर्मनाक तरीके से एक समुदाय विशेष का पक्ष लिया। पुलिस फोर्स का यूं सांप्रदायिक होना नया नहीं है। हर बड़े दंगे में बेेखौफ और बिना पक्ष लिए कानून व्यवस्था लागू करवाने को लेकर पुलिस की भूमिका संदिग्ध ही रही है, 1984 में दिल्ली दंगों से लेकर आज तक।इन दिनों पुलिस पूरी तरह सत्तारूढ़ दल के साथ ही है। तबादलों और पोस्टिंग का पूरा सिस्टम ही राजनीति की सनक और पसंद से तय होता है। यही वजह है कि पुलिस हेडक्वार्टर और गृह मंत्रालय को कुछ कठिन सवालों का जवाब देना होगा। हिंसा के पहले दिन ही पर्याप्त पुलिस बल क्यों नहीं पहुंचा? किसने पुलिस को यह अनुमति दी कि वह दंगों के दूसरे दिन एक तरफा होकर काम करे? अक्षमता और पेचीदगी का यह खतरनाक मिश्रण यूं ही निर्विरोध नहीं चल सकता।तथ्य यह है कि नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में एक समुदाय द्वारा चलाए कुछ सीएए विरोधी प्रदर्शन हथियारबंद अपराधी गैंग के साथ मिलकर हिंंसक हो गए। और इसे स्थानीय संगठनों को जवाबी कार्रवाई की अनुमति देने के लिए पर्याप्त कारण समझा गया। नतीजा, आम हिंदू और मुसलमान पड़ोसी अब बंट चुके हैं, डरे हुए हैं, उन्हें जिंदगियों और संपत्तियों का नुकसान हुआ है। चांद बाग के एक पीड़ित ने मुझे कहा भी, नेता आग शुरू करते हैं और आम आदमी जल जाता है।असली चिंता यह है कि नॉर्थ ईस्ट दिल्ली सिर्फ एक ट्रेलर हो सकता है जो ज्यादा समय नहीं लेगा ऐसी ही हिंसा बाकी इलाकों में फैलाने के लिए। कम ही उम्मीद है कि केंद्र की सत्ताधारी पार्टी ने इससे सबक लिया हो या वह धार्मिक बंटवारे को मिटाना चाहते हों। यदि ऐसा होता तो वह कपिल मिश्रा पर कार्रवाई करते, न कि उनके भड़काऊ भाषणों को दोहराते।यदि ऐसा होता तो वह शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों से बातचीत का रास्ता निकालते, उन्हें एंटी नेशनल नहीं करार देते। यदि सच में ऐसा होता तो वह समझते कि मुस्लिम विरोधी घृणा हिंदुत्व वोट बैंक तो दिला सकती है पर समाज का उस हद तक ध्रुवीकरण कर देगी जहां से लौटना असंभव है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today दिल्ली में हो रही हिंसा में कई लोगों की जान चली गई। -फाइल फोटो Full Article
india news ट्रम्प को क्यों दें भारत-पाक विवाद में दखल का हक? By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 21:21:00 GMT (हामिद मीर,पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार,tweets @HamidMirPAK).बराक ओबामा आज सत्ता में नहीं हैं, लेकिन दुनिया का सबसे शक्तिशाली आदमी बराक ओबामा बनना चाहता है। जी हां, डोनाल्ड ट्रम्प ओबामा बनना चाहते हैं। 2009 में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति थे ओबामा। अब ट्रम्प हर कीमत पर नवंबर 2020 में होने वाले चुनाव से पहले इसे पाना चाहते हैं। वह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में शांति को बेचने की कोशिश कर रहे हैं। वह शांति के नाम पर अपना व्यापार कर रहे हैं।उन्होंने कुछ हफ्ते पहले मध्य-पूर्व में एकतरफा शांति समझौते की घोषणा की, लेकिन फलस्तीनियाें ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसके बाद उन्होंने अफगान तालिबान के साथ शांति समझौते के लिए पाकिस्तान का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। 29 फरवरी को इस समझौते की घोषणा कर दी जाएगी। वह कश्मीर विवाद के समाधान के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच भी मध्यस्थता करना चाहते हैं। वह सोचते हैं कि अफगानिस्तान और कश्मीर में शांति कायम करके वह नोबेल पुरस्कार पाने के हकदार हो जाएंगे। वह नोबेल के मजबूत दावेदार बनने के लिए कई तरह के काम कर रहे हैं।ट्रम्प ने अपनी हाल की भारत यात्रा के दौरान पाकिस्तान को सराहा। इससे भारत में काफी लोग नाराज भी हुए। पाकिस्तान में कुछ लोग बहुत खुश हुए। लेकिन, सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान ट्रम्प पर भरोसा कर सकता है? ट्रम्प वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने सितंबर 2019 में अफगान शांति वार्ता सिर्फ इसलिए निलंबित कर दी थी, क्योंकि तालिबान ने शांति समझौते पर दस्तखत के लिए कैंप डेविड आने से इनकार कर दिया था। यह न केवल पाकिस्तान के लिए, बल्कि शांति प्रक्रिया का हिस्सा रहे सऊदी अरब, यूएई, कतर, चीन, रूस, जर्मनी और कुछ अन्य देशों के लिए अत्यंत अपमानजनक था।ट्रम्प को तत्काल अहसास हो गया कि उन्हांेने बहुत बड़ी गलती कर दी है, क्योंकि तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान में अपने हमले तेज कर दिए थे। इसके बाद उनके प्रतिनिधि जाल्मे खलीलजाद ने पाकिस्तान से तालिबान के साथ फिर वार्ता शुरू करने की भीख मांगी। पाकिस्तान के लिए अफगान तालिबान को दोबारा शांति वार्ता के लिए मनाना बहुत कठिन था। अंत में पाकिस्तान ने कतर की मदद से तालिबान को राजी कर लिया। जो लोग सोचते हैं कि तालिबान और अमेरिका का समझौते पर दस्तखत करना शांति के लिए काफी होगा तो वे गलत हैं।शांति की मंजिल बहुत दूर है। तालिबान अशरफ गनी को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। वे एक अंतरिम सरकार चाहते हैं, जो संविधान मेंबदलाव कर सके। सत्ता की साझेदारी के फॉर्मूले पर अभी फैसला होना है। यह सब नवंबर 2020 से पहले नहीं हो सकेगा, लेकिन ट्रम्प को जल्दी है। वह अफगानिस्तान के साथ ही कश्मीर में भी शांति चाहते हैं, जो संभव नहीं है। अगर वह मध्यस्थ बनना चाहते हैं ताे यह सभी पक्षों को मंजूर होना चाहिए। उनका दावा है कि उनके नरेंद्र मोदी और इमरान खान दोनों से ही अच्छे रिश्ते हैं, इसलिए वह भारत व पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता कर सकते हैं।हकीकत यह है कि इमरान तो ट्रम्प पर भरोसा कर सकते हैं, लेकिन अधिकांश पाकिस्तानी उन पर भरोसा नहीं करते। वह भारत गए, लेकिन कभी पाकिस्तान नहीं आए। पाकिस्तानी कैसे भराेसा कर सकते हैं कि वह सच्चे दोस्त हैं? पाकिस्तान में अनेक लोगों का कहना है कि ट्रम्प ने भारत में पाकिस्तान की तारीफ सिर्फ इसलिए की कि वह चाहते हैं कि 29 फरवरी को अफगान-तालिबान से समझौता हो जाए। उनकी प्रशंसा तो एक धोखा है, हकीकत में तो उन्होंने पाकिस्तान को नजरअंदाज किया है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इमरान खान ने एक से अधिक बार ट्रम्प से भारत व पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता के लिए कहा है। वह ऐसा क्यों कर रहे हैं?इमरान अपने देशवासियों को आर्थिक राहत देने में नाकाम रहे हैं। अब वे ट्रम्प का इस्तेमाल करके कश्मीर पर बड़ी सफलता चाहते हैं। यदि मान भी लिया जाए कि भारत, पाकिस्तान के साथ बातचीत को राजी हो जाता है, तो भी इमरान को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ट्रम्प को मध्यस्थता के लिए स्वीकार कराना बहुत कठिन होगा। अनेक विपक्षी नेता तो ट्रम्प के बार-बार मध्यस्थता का राग अलापने पर सवाल भी उठा चुके हैं। उनका कहना है कि क्या पाकिस्तान की संसद को ट्रम्प और इमरान के बीच हुई किसी गुप्त समझौते की जानकारी नहीं है?मैं नहीं जानता की भारतीय ट्रम्प को स्वीकार करेंगे या नहीं पर पाकिस्तान में तो बहुत लोग ऐसा नहीं चाहते। पाकिस्तान और भारत पड़ोसी हैं। कल या उसके अगले दिन दोनों को एक-दूसरे से बात करनी ही पड़ेगी। बेहतर हो कि वे खुद ही बातचीत शुरू करें। ट्रम्प को बार-बार हमारे विवादों में दखल की इजाजत नहीं देनी चाहिए। ट्रम्प पर भरोसा न करें। वह शांति नहीं केवल नोबेल शांति पुरस्कार चाहते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प। Full Article
india news भारत अमेरिका संबंध : बराक ओबामा से डोनाल्ड ट्रम्प तक By Published On :: Thu, 27 Feb 2020 21:21:33 GMT डोनाल्ड ट्रम्प जिस नाटकीयता के लिए जाने जाते हैं, वह उन्होंने भारत दौरे में नहीं की। अमेरिका के राष्ट्रपति होने के नाते उन्होंने उस ओहदे की गरिमा बनाए रखी। इसके बावजूद ट्रम्प की यात्रा के अवसर पर बराक ओबामा की भारत यात्रा की याद आना स्वाभाविक है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहते हुए बराक ओबामा दो बार भारत आए थे। ओबामा पहली बार आए तो डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और दूसरी बार आए तो वे इस पद पर मोदी से मिले।ओबामा अच्छे स्पीकर और प्रतिभाशाली लेखक तो हैं ही, उनका पूरा व्यक्तित्व ग्लोबल समझदारी वाला है। श्याम वर्ण पिता और श्वेत वर्ण मां की संतान ओबामा डर की नहीं, भाईचारे की भाषा बोलते हैं। भारत दौरे पर दिए उनके भाषण वर्तमान संदर्भ में भी काफी अहम हैं, जैसा कि वे बोले थे- आपके पास मिल्खा सिंह है, शाहरुख है, मेरी कॉम है कहते हुए उन्होंने भारत-अमेरिका का अलग ही नाता जोड़ा था।अमेरिका और भारत में मैत्री की शुरुआत डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल से शुरू हो गई थी। उन्होंने अपनी पूरी साख दांव पर लगाकर अमेरिका से परमाणु समझौता किया था। उस समय जूनियर जॉर्ज बुश राष्ट्रपति थे। उसके बाद भारत-अमेरिका के संबंध गहरे होने लगे। विश्व में अमेरिका की छवि युद्ध करने वाले लड़ाकू देश की रही है, बुश के कार्यकाल में यह और ज्यादा गहरी हुई।इधर, मनमोहन सिंह भी जान चुके थे कि हमारा पड़ोसी चीन है तो ऐसे में अमेरिका से दोस्ती करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। प्रतिरक्षा, प्रौद्योगिकी, स्पेस टेक्नोलॉजी और व्यापार भारत-अमेरिका संबंधों के चार प्रमुख स्तंभ हैं। दोनों देशों में संबंध बढ़ाने का विचार इन्हीं आधारों पर किया जाता है। विदेश नीति में निरंतरता जरूरी है और यही नीति आगे ले जाने की कोशिश नरेंद्र मोदी ने की है।जिस समय ट्रम्प राष्ट्रपति बने उसके बाद का कुछ समय भारत के लिए ठीक नहीं रहा। उनके कई बयान और फैसलों ने भारत की राह कठिन कर दी। बाद में संबंध धीरे-धीरे सुधरने लगे, लेकिन सवाल यह है कि इससे दीर्घावधि में हमें क्या लाभ होगा? अमेरिका में इसी वर्ष चुनाव होने हैं। राष्ट्रपति का कार्यकाल चार वर्ष का होता है और चुनाव वर्ष में राष्ट्रपति का मूल रूप में कोई फैसला न लेना भी एक संकेत हो सकता है।देखा जाए तो ट्रम्प की भारत यात्रा उनकी चुनावी रैली की तरह थी। अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के वोट वहां के राष्ट्रपति चुनाव में बहुत मायने रखते हैं। इस यात्रा में ट्रम्प की कोशिश भी यही थी कि अमेरिकी भारतीयों के सभी वोट उनकी झोली में गिरें। ट्रम्प की मदद के लिए ही मोदी ने इतने भव्य कार्यक्रम का आयोजन रखा। अहमदाबाद की रैली काफी बड़ी रही, लेकिन ट्रम्प की अपेक्षा से लोगों की संख्या कम थी।इस बीच मोदी ने ट्रम्प और ट्रम्प ने मोदी की तारीफ करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उधर, दिल्ली में उपद्रव के दौरान लोग मर रहे थे, बावजूद इसके ट्रम्प ने सीएए या एनआरसी पर एक भी शब्द नहीं बोला। ओबामा ने यात्रा के दौरान मोदी को भारत की उदारता और खुलेपन की याद दिलाई थी। वैसा ट्रम्प कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह उनकी छवि के विपरीत होता। ट्रम्प की भारत यात्रा से देश को क्या मिलेगा, इसका विश्लेषण चलता रहेगा। भारत-अमेरिका संबंधों में ‘ओबामा से ट्रम्प’ तक के सफर का सार समझना आसान नहीं है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अमेरिका के वर्तामान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा।- फाइल फोटो Full Article
india news उपलब्धि हासिल करने का उम्र से कोई संबंध नहीं है By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 00:37:11 GMT जब भी मैं किसी बात से परेशान होता हूं तो यूट्यूब या गूगल पर जाकर जज फ्रैंक कैप्रियो के फैसले सर्च करता हूं। वे अमेरिका के प्रोवीडेंस, रोड आइलैंड मेें म्युनिसिपल कोर्ट जज हैं। वे सख्ती से, सीधे मुद्दे की बात करते हैं, इसके बावजूद मुझे लगता है कि उनका दिल इस दुनिया से भी बड़ा है। वास्तव में उनके वीडियो मुझे शांति देते हैं और मुझे उन लोगों को माफ करने के लिए तैयार करते हैं, जिन्होंने अनजाने में गलती की है। गुरुवार की सुबह मैंने गूगल किया और एक वीडियो देखा।उस वीडियो में कोर्ट अगस्त 2019 के आसपास का एक केस शुरू करता है, जिसमें जज कैप्रियो एक बुजुर्ग पर स्कूल के पास की एक सड़क पर तेज गति से गाड़ी चलाने का आरोप लगाते है। आरोपी बुजुर्ग को उनके सामने बैठने को कहा गया, क्योंकि वे 96 साल के थे। आरोपी विक्टर कोएला ने अपने बचाव में कहा, ‘जज, मैं इतनी तेज गाड़ी नहीं चलाता हूं। मैं 96 साल का हूं और धीरे ड्राइव करता हूं, वह भी केवल जरूरत पड़ने पर। मुझे अपने बेटे को ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए हर दो हफ्ते में एक बार डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है, क्योंकि उसे कैंसर है।’कैमरे ने 96 वर्षीय व्यक्ति की आंखें दिखाईं, जो ऐसी लग रही थीं कि किसी भी पल आंसुओं से भर उठेंगी। जज कैप्रियो ने उनकी आंखों की तरफ देखा और पूछा, ‘आपके बेटे की उम्र क्या है?’ विक्टर ने हिम्मत जुटाकर जवाब दिया, ‘63 साल!’ फिर जज ने कहा, ‘आप एक अच्छे आदमी हैं। आप ही अमेरिका की असली पहचान हैं। आप 90 साल से ऊपर के हैं और अब भी परिवार की देखभाल कर रहे हैं।यह बहुत शानदार बात है।’ फिर उन्होंने धीरे से कहा, ‘मैं यह केस खारिज करता हूं!’ कोई अपराध हर कीमत पर अपराध होता है, खासतौर पर अगर आप उसे करते हुए कैमरे में कैद हो जाएं, क्योंकि उस मामले में किसी इंसान का हित नहीं होता। लेकिन बेटे को डॉक्टर के पास ले जाते 96 वर्षीय व्यक्ति की मनोस्थिति को जज ने समझा। उन बुजुर्ग के मन में बहुत संघर्ष चल रहा होगा और खुद जिंदा रहते हुए, वे अपने बेटे को खोना नहीं चाहते होंगे।यही वह पल रहा होगा, जब बुजुर्ग ने अनजाने ही एक्सीलेटर थोड़ा और दबा दिया होगा और तय गति सीमा से आगे निकल गए होंगे। इससे मुझे दिल्ली के सुमेर हांडा बख्शी की याद आई, जिसने 8 साल पहले ‘सेव द स्प्रिट ऑफ द सीज’ नाम से वेबसाइट डिजाइन की थी। उसने यह सोशल मीडिया के साथ खुद के लिए ही बनाई थी। उस समय इसके पीछे मुख्य विचार अपने साथियों को समाज के उन मुद्दों से जोड़ना था, जिनकी कम चर्चा होती है।अब आते हैं 2020 में। ‘सेव द स्प्रिट ऑफ द सीज’ अब 15 लोगों की मजबूत टीम है और एक रजिस्टर्ड संगठन बन चुका है। अब 16 वर्षीय सुमेर और उसकी टीम खासतौर पर अपने नए प्रोजेक्ट पर काम कर रही है: ‘सेव द स्प्रिट ऑफ द गंगा’। इसकी अप्रैल में एक शॉर्ट फिल्म के साथ आधिकारिक घोषणा की जाएगी, जिसका नाम तय करना अभी बाकी है।सुमेर ने हाल में फिल्म की शूटिंग के लिए बिहार के भागलपुर में विक्रमशिला की यात्रा की है। यह इस टीनएजर के लिए खास पल था, क्योंकि उसे गंगा नदी में डॉल्फिन्स देखने और फिल्माने का मौका मिला। उसे लगता है कि ज्यादातर लोगों को पता भी नहीं है कि गंगा में डॉल्फिन्स हैं। फिल्म का उद्देश्य दुनिया को ऐसे अद्भुत जीवों की मौजूदगी और उनके घर में मौजूद प्रदूषण की वजह से उनकी दुर्दशा के प्रति जागरूक करना है।टीम ने 10 लाख रुपए जुटा लिए हैं और पिछले नवंबर में इंडिया फिल्म सर्विसेस के साथ पार्टनरशिप में अपने पहले वीडियो की शूटिंग शुरू कर दी है। प्रोजेक्ट को यूवी निसान द्वारा भी आंशिक रूप से वित्तीय सहायता मिल रही है, साथ ही युवराज सिंह और हेजल कीच भी सोशल सपोर्ट दे रहे हैं।फंडा यह है कि कोई व्यक्ति 96 साल की उम्र में भी अपने परिवार को संभाल सकता है और कोई 16 साल की उम्र में भी दुनिया को संवेदनशील मुद्दों के बारे में सिखा सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news तीन दिन की सुस्ती के बाद चौथे दिन जागी पुलिस, ये मुस्तैदी पहले दिखाती तो कई जिंदगियां बच सकती थीं By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 05:54:44 GMT उत्तर-पूर्व दिल्ली. तारीख 26 फरवरी। दिन बुधवार। दिल्ली में भड़की हिंसा का चौथा दिन। ये सुबह बीते तीन दिनों से बिलकुल अलहदा है। सुरक्षा बलों की मुस्तैदी बीते दिनों की तुलना में कहीं ज्यादा है। दिल्ली सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक पहली बार हिंसा रोकने और इसके शिकार हुए लोगों को राहत पहुंचाने के गंभीर प्रयास करती दिख रही है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हिंसाग्रस्त इलाकों का दौरा कर रहे हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी हिंसा की चपेट में आए इलाकों में पहुंच रहे हैं। उधर, दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक भी मामले की सुनवाई चल रही है। दिल्ली पुलिस को जिम्मेदारी का अहसास दिलाया जा रहा है। इस सबके साथ पहली बार प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट कर लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है। कांग्रेस भी कुछ करती दिखने की कोशिश में है।इन मुस्तैदियों का असर मौके पर देखा जा सकता है। कल तक जहां दंगाई जगह-जगह हिंसा भड़काने के भरसक प्रयास करते नजर आ रहे थे, वहीं आज सड़कों पर तुलनात्मक रूप से शांति है। राहत कार्य भी किए जा रहे हैं। दमकल की गाड़ियां सुबह से ही उन इमारतों से उठ रहे धुओं को बुझाती दिख रही हैं जिन्हें कल आग के हवाले कर दिया गया था। सुरक्षा बलों के जवान हिंसाग्रस्त इलाकों में मार्च कर रहे हैं। ऐसी मुस्तैदी कुछ पहले दिखाई जाती तो दो दर्जन से ज्यादा लोगों की जान बच सकती थी, सैकड़ों लोग चोटिल होने से बच जाते और दर्जनों परिवारों को अपने घर छोड़ने पर मजबूर हो जाने से बचाया जा सकता था।हिंसा का थमना सुखद खबर है, पर कई त्रासद खबरें भी हैं। इंटेलिजेन्स ब्यूरो के कॉन्स्टेबल अंकित शर्मा का शव चांदपुर के नाले से बरामद होना ऐसी ही एक त्रासदी है। अंकित के पिता का कहना है कि दंगाई भीड़ ने बेरहमी से उनके बेटे का कत्ल कर लाश नाले में फेंक दी थी। ऐसी ही एक भयावह खबर शिव विहार चौक से भी आई है, जहां अनिल स्वीट्स नाम की दुकान की जली हुई इमारत की दूसरी मंज़िल से एक अधजली लाश बरामद हुई है। बीते तीन दिनों से उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा का जो तांडव होता रहा, उसमें दबी ऐसी ही कई त्रासद घटनाएं अब धीरे-धीरे सामने आ रही हैं। ऐसी ही त्रासदी खजूरी के उन परिवारों की भी है, जिन्हें अपना घर छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ा है।बीती शाम यहां के कई घरों को उनकी धार्मिक पहचान के चलते निशाना बनाया गया और उनमें आग लगाई गई। इसके चलते दर्जनों परिवारों को यहां से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। दोपहर में जब सुरक्षा बल यहां फ्लैग मार्च कर रहे हैं तो उनके संरक्षण में इन परिवारों की महिलाएं अपने खाक हो चुके घरों में अपना कीमती और जरूरी सामान तलाशने की कोशिश कर रही हैं। करावल नगर रोड पर खुलती गलियों के मुहाने पर लोग खड़े हैं, पर वे न तो बीते दिनों की तरह हथियार लहरा रहे हैं और न ही मेन रोड पर जमा होकर हिंसा भड़कने की संभावना बना रहे हैं। पुलिस बल भी इतना मुस्तैद है कि पत्रकारों को जगह-जगह रोक कर उनसे कर्फ्यू पास दिखाने को कहा जा रहा है।दो विरोधाभासयह दिलचस्प विरोधाभास है कि दिल्ली पुलिस ने तब पत्रकारों को नहीं रोका, जब उसके जवान अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे थे और वह अब पत्रकारों को रोक रही है, जब जवानों को जिम्मेदारी निभाते देखा जा सकता है। इससे भी बड़ा विरोधाभास दिल्ली पुलिस के बयान में दिखता है। पुलिस ने आज कहा है कि वो सीसीटीवी फुटेज खंगालकर दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। यदि ऐसा सच में होता है तो सबसे ज्यादा मामले संभवतः दिल्ली पुलिस पर ही दर्ज होंगे, जो लगातार हिंसक भीड़ के कंधों से कंधे मिलाकर खड़ी रही है।यह भी पढ़ें1# हिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल: भाग-1दिल्ली पुलिस की निगरानी में होती रही हिंसा, सीआरपीएफ के जवान ने कहा- जब हमें कुछ करने का आदेश ही नहीं तो यहां तैनात क्यों किया?2# हिंसाग्रस्त इलाकों से आंखों देखा हाल: भाग-2पुलिस दंगाइयों से कह रही है- चलो भाई अब बहुत हो गया; वापस लौटते दंगाई नारे लगाते हैं- दिल्ली पुलिस जिंदाबाद, जय श्रीराम Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Delhi Violence Report | Delhi Violence Ground Zero Report Today Latest News Updates On Violence Affected Areas Maujpur, Kardampuri, Chand Bagh and Dayalpur दिल्ली के खूजरी इलाके से लोगों का पलायन जारी है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में कई दुकानें जलकर राख हो गईं। (फोटो : विकास कुमार, एशियाविल) Full Article
india news मोदी सरकार में जजों के ट्रांसफर का चौथा बड़ा विवाद; इससे पहले जिन पर विवाद हुए, उन्होंने अमित शाह से जुड़े फैसले दिए थे By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 09:50:19 GMT नई दिल्ली. जस्टिस एस मुरलीधर का ट्रांसफर दिल्ली हाईकोर्ट से पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में किए जाने पर विवाद खड़ा हो गया। विवाद इसलिए क्योंकि एक दिन पहले ही यानी 26 फरवरी को जस्टिस मुरलीधर ने तीन भाजपा नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने में देरी पर नाराजगी जताई थी। ये तीन नेता थे- अनुराग ठाकुर, परवेश वर्मा और कपिल मिश्रा। उससे भी एक दिन पहले यानी 25-26 फरवरी की रात 12:30 बजे जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली हिंसा से जुड़े मामले परअपने घर पर सुनवाई की थी। हालांकि, इस पर सरकार की दलील है कि जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने 12 फरवरी को कर दी थी, जो सही भी है,लेकिन सरकार ने इसका नोटिफिकेशन 26 फरवरी की रात को जारी किया। जजों के ट्रांसफर से जुड़ा ये कोई पहला विवाद नहीं है। इससे पहले भी मोदी सरकार में जजों के ट्रांसफर पर विवाद होते रहे हैं। मोदी सरकार में ये चौथा बड़ा विवाद है, लेकिन सबसे पहले बात जस्टिस मुरलीधर की....दो दिन...दो अलग-अलग सुनवाई...निशाने पर दिल्ली पुलिस, सरकार, भाजपातारीख: 25-26 फरवरी, समय: रात के 12:30 बजेवकील सुरूर मंदर ने याचिका लगाई। उनकी अपील थी किहिंसाग्रस्त मुस्तफाबाद के अल-हिंद अस्तपाल से घायलों को जीटीबी अस्पताल या दूसरे सरकारी अस्पतालों में भर्तीकराया जाए। इस याचिका पर देर रात जस्टिस मुरलीधर और जस्टिस अनूप भंभानीने सुनवाई की और दिल्ली पुलिस को घायलों को इलाज के लिए दूसरे सरकारी अस्पतालों में ले जाने का आदेश दिया।तारीख: 26 फरवरी, समय: दोपहर 12:30-1:00 बजेएक्टिविस्ट हर्ष मंदर ने भड़काऊ बयानों के लिए भाजपा नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग करते हुए याचिका लगाई। जस्टिस मुरलीधर ने इसकी सुनवाई की। जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई। कहा- हिंसा रोकने के लिए तुरंत कड़े कदम उठाने की जरूरत है। हम दिल्ली में 1984 जैसे हालात नहीं बनने देंगे।जज मुरलीधर से पहलेमोदी सरकार में 3 जजों के ट्रांसफरों पर जमकर विवाद हुआ, संयोग से तीनों ने मोदी-शाह से जुड़े फैसले दिए थे1) जस्टिस विजया के ताहिलरमानीविवाद की वजह : जस्टिस ताहिलरमानी ट्रांसफर के फैसले से नाराज थीं। उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट से मेघालय हाईकोर्ट ट्रांसफर किए जाने के कॉलेजियम के फैसले पर पुनर्विचार की मांग की,लेकिन 5 सितंबर 2019 को कॉलेजियम ने मांग ठुकरा दी। नवंबर 2018 में उन्हें मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त किया गया था। इससे पहले वे दो बार बॉम्बे हाईकोर्ट में एक्टिंग चीफ जस्टिस भी रह चुकी थीं। जजों की संख्या के लिहाज से मेघालय देश की दूसरी सबसे छोटी हाईकोर्ट है। इस कारण भी वे नाराज थीं। आखिरकार 6 सितंबर को उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पद से इस्तीफा दे दिया। 21 सितंबर को राष्ट्रपति ने उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया। जस्टिस ताहिलरमानी 2 अक्टूबर 2020 को रिटायर होने वाली थीं।बड़ा फैसला : गुजरात दंगों से जुड़े बिल्किस बानो का केस। मई 2017 में जस्टिस ताहिलरमानी की बेंच ने 11 दोषियों की उम्रकैद की सजा बरकरार रखी थी,जबकि5 पुलिस अफसरों और 2 डॉक्टरों को बरी करने के फैसले को पलट दिया था। इस मामले में कुल 18 लोगों को सजा सुनाई गईथी।2) जस्टिस अकील कुरैशीविवाद की वजह : कॉलेजियम ने 10 मई 2019 को जस्टिस अकील कुरैशी का ट्रांसफर बॉम्बे हाईकोर्ट से मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में बतौर चीफ जस्टिस करने की सिफारिश की,लेकिनकेंद्र सरकार ने कॉलेजियम की इस सिफारिश को छोड़कर बाकी सिफारिशें मंजूर कर लीं। इसके बाद कॉलेजियम ने एक बार फिर उन्हें मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त करने की सिफारिश भेजी,लेकिन सरकार ने इसे भी वापस भेज दिया। इसके बाद कॉलेजियम ने जस्टिस कुरैशी को सितंबर 2019 में त्रिपुरा हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस नियुक्त करने की सिफारिश की, जिसे सरकार ने मंजूर कर लिया। जस्टिस कुरैशी की नियुक्ति में देरी होने पर गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट एसोसिएशन ने भी पीआईएल लगाई थी।बड़ा फैसला : जस्टिस कुरैशी पहले गुजरात हाईकोर्ट के जज थे और उन्होंने 2010 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में अमित शाह को दो दिन की पुलिस हिरासत में भेजने का फैसला दिया था।3) जस्टिस जयंत पटेलविवाद की वजह : 13 फरवरी 2016 में जस्टिस पटेल को कर्नाटक हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया गया था। सितंबर 2017 में कॉलेजियम ने उनका ट्रांसफर कर्नाटक हाईकोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट करने की सिफारिश की,लेकिन उनका कहना था कि उनके रिटायरमेंट में 10 महीने बाकी हैं और इतने कम समय के लिएवे इलाहाबाद हाईकोर्ट नहीं जाना चाहते,इसलिए उन्होंने 25 सितंबर 2017 को इस्तीफा दे दिया।बड़ा फैसला : कर्नाटक हाईकोर्ट आने से पहले जस्टिस पटेल गुजरात हाईकोर्ट में जज थे। वहां उन्होंने एक्टिंग चीफ जस्टिस का पद भी संभाला। जस्टिस पटेल ने ही इशरत जहां एनकाउंटर केस की सीबीआई जांच कराने का आदेश दियाथा।जस्टिस मुरलीधर के मामले में 15 दिन के भीतर सरकार ने कॉलेजियम की सिफारिश मानी, लेकिन कई सिफारिशें सालों से पेंडिंग रहीं1) एडवोकेट पीवी कुन्हीकृष्ण : अक्टूबर 2018 में कॉलेजियम ने केरल हाईकोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की। फरवरी 2019 में दोबारा नाम भेजा,लेकिन नियुक्ति13 फरवरी 2020 को हुई।2) एडवोकेट एसवी शेट्टी : अक्टूबर 2018 में कॉलेजियम ने इनके नाम कर्नाटक हाईकोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की। मार्च 2019 में दोबारा नाम भेजा गया, लेकिनसरकार ने इसे खारिज कर दिया।3) एडवोकेट एमआई अरुण : इनको भी कर्नाटक हाईकोर्ट में जज बनाने की सिफारिश की थी,लेकिन सरकार ने इसे खारिज कर दिया।4) एडवोकेट सी. इमालियास : 2017 में कॉलेजियम ने इनका नाम मद्रास हाईकोर्ट में जज के लिए भेजा। अगस्त 2019 में दोबारा सिफारिश की गई,लेकिन अभी तक इनकी नियुक्ति नहीं हुई।5) जस्टिस विक्रम नाथ : अप्रैल 2019 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनाने की सिफारिश हुई। अगस्त 2019 में इनकी नियुक्ति हुई।इमरजेंसी में 16 जजों का ट्रांसफर हुआ था25 जून 1975 से 21 मार्च 1997 तक देश में इमरजेंसी लागू थी। इस दौरान 1976 में 16 हाईकोर्ट के जजों का ट्रांसफर कर दिया गया था। इनमें से गुजरात हाईकोर्ट के जज जस्टिल एसएच सेठ ने ट्रांसफर को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उनका ट्रांसफर गुजरात हाईकोर्ट से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट कर दिया गया था। उनका कहना था कि ट्रांसफर से पहले उनकी सहमति नहीं ली गई थी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today HC Judge S Muralidhar transfer is fourth controvercial transfer in modi government linked directly with amit shah Full Article
india news दिल्ली की हिंसा 18 साल में देश का तीसरा सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 09:51:20 GMT नई दिल्ली. राजधानीदिल्ली में 4 दिन तक चले सांप्रदायिक दंगे में अब तक 42 लोगों की जान जा चुकी है। 364 से ज्यादा लोग घायल हैं। मौतों की संख्या के लिहाज से यह 18 साल में देश का तीसरा सबसे बड़ा दंगा है।2005 में यूपी के मऊ जिले में रामलीला कार्यक्रम में मुस्लिम पक्ष ने हमला कर दिया था। इसके बाद जिले में हुए दंगे में दोनों पक्षों के 14 लोगों की जान चली गई थी। 2006 में गुजरात के वडोदरा में प्रशासन द्वारा एक दरगाह को हटाने को लेकर हुए दंगे में 8 लोगों की मौत हुई थी। 2013में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में लड़की से छेड़छाड़ को लेकर हुए दो पक्षों के विवाद ने सांप्रदायिक दंगे का रूप ले लिया। इसके बाद पश्चिमी यूपी के अलग-अलग जिलों में हुई हिंसा में 62 से ज्यादा लोगों की जान गई थी। 18 साल पहले 2002 में गुजरात दंगों के दौरान 2000 से ज्यादा लोगों की जान गई थी।सरकारी आंकड़े: 2014 से 2017 तक देश में 2920 दंगे हुए, 389 मौतें हुईंभारत में 2014, 2015, 2016, 2017 में कुल 2920 सांप्रदायिक दंगे हुए, इनमें 389 लोगों की मौत हुई,जबकि 8,890 लोग घायल हुए। यह जानकारी गृह मंत्रालय की ओर से फरवरी 2018 में दी गई थी। इन चार सालों में सबसे ज्यादा 645 दंगे यूपी में हुए, दूसरे नंबर पर 379 दंगे कर्नाटक में हुए, महाराष्ट्र में 316 हुए। 2017 की नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) और गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले चार साल में देश में सांप्रदायिक दंगों में कमी आई है।2004 से 2017 के बीच देश में 10399 दंगे हुए, 1605 लोगों की जान गईएक आरटीआई केजवाब में गृह मंत्रालय की ओर से बताया गया है कि 2004 से 2017 के बीच 10399 सांप्रदायिक दंगे (छोटे-बड़े) हुए। इन दंगों में 1605 लोगों की जान गई, 30723 लोग घायल हुए। सबसे ज्यादा 943 दंगे 2008 में हुए। इसी साल दंगों में सबसे ज्यादा 167 जानें भी गईं, 2354 लोग घायल हुए। सबसे कम 2011 में 580 दंगे हुए। इस साल 91 लोगों की जान गई थी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Delhi Violence Riots Death Toll | Delhi Violence Is The 3rd Biggest Communal Riots After Muzaffarnagar Haryana Panchkula Sirsa Punjab Violence Full Article
india news मीटू: वाइनस्टीन मामले से सबक ले भारतीय कानून By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 18:33:00 GMT हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइनस्टीन को दुष्कर्म और यौन शोषण के मामलों में दोषी करार देने को मीटू मूवमेंट का अहम मोड़ माना जा रहा है। वाइनस्टीन को इस मामले में 5 से 25 साल तक की सजा हो सकती है। फैसला सुनाए जाने के बाद इस बदनाम 67 वर्षीय हॉलीवुड सेलिब्रिटी को हथकड़ी पहनाकर ले जाया गया। इसे अमेरिका की यौन शोषण पीड़ित महिलाओं के लिए बड़ा दिन बताया गया। लेकिन मसला सिर्फ अमेरिकी महिलाओं का नहीं है। ये फैसला दुनियाभर की औरतों के लिए अहम है।मीटू वह अभियान है जिसने तमाम महिलाओं को रसूख का फायदा उठाकर यौन शोषण कर रहे मर्दों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दी। ऐसी अनगिनत महिलाओं ने भारत ही नहीं दुनियाभर में अपनी कहानी सुनाई लेकिन उन आरोपियों के खिलाफ चुनिंदा मामलों में ही सजा हो पाई। कारण कानूनी है। शायद यही वजह है कि आरोपी बेेखौफ अपराध किए जा रहे हैं? चाहे घर में कोई नजदीकी रिश्तेदार हो या दफ्तर का सहकर्मी, महिलाओं की सुरक्षा पर हर जगह प्रश्नचिन्ह लगा है।भारत में 2014 से 2017 के बीच कार्यस्थल पर यौन शोषण के मामले 54% बढ़े हैं। लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक इन चार सालों में 2500 से ज्यादा ऐसे मामले दर्ज किए गए हैं। वहीं नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक 90% दुष्कर्म के मामलों में अपराधी पीड़िता की पहचान वाला होता है। जो या तो कोई उसका नजदीकी रिश्तेदार होता है या दोस्त, सहकर्मी या फिर पड़ोसी। हर 12 मिनट में भारत में एक बच्ची या महिला यौन शोषण की शिकार होती है। बावजूद इसके इन मामलों को लेकर जो गंभीरता और संवेदनशीलता कानूनी और सामाजिक तौर पर दिखाई जानी चाहिए उसका पूरी तरह अभाव है।शायद यही वजह है कि हजारों महिलाओं द्वारा मीटू अभियान में सुनाई दर्दनाक दास्तां अहमियत नहीं रखती। कानून अपनी गति से रेंगता है। अमेरिका वाइनस्टीन को सजा सुनाता है और हम इंतजार करते रह जाते हैं ऐसे किसी उदाहरण का जो उन पीड़िताओं के लिए मरहम साबित हो। दुर्भाग्य है कि अब तक यौन शोषण के ज्यादातर वीवीआईपी अपराधी आराम से अपने घरों में हैं। जरूरत बस यह है कि भारतीय कानून अमेरिका के इस मामले से सबक ले। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today पुलिस हिरासत में हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइनस्टीन। Full Article
india news सवाल, पक्षियों की आखिर अहमियत क्या है? By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 18:42:00 GMT बसंत का मौसम है। मौसम पंछियों वाला। देश में भले आप कहीं भी रहते हों, घने जंगल से लेकर बियाबान रेगिस्तान या फिर गली-मोहल्लों वाले किसी शहर में। संभावना है कि सुबह आपकी नींद पक्षियों के चहचहाने से खुलती होगी। फिर भले वह कौआ हो या कोयल, पक्षी देश में हर जगह मिल जाएंगे। दुनियाभर में गिने-चुने मुल्क हैं जहां हमारे देश जैसी मुख्तलिफ पक्षियों की आबादी है। बर्ड वॉचर अब तक 867 प्रजातियां देखने की बात दर्ज कर चुके हैं। जिनमें स्थानीय भी हैं और प्रवासी भी।सच तो ये है कि दशकों तक हमारे उपमहाद्वीप ने साइबेरिया जैसी मीलों दूर जगहों से आए प्रवासी पक्षियों का स्वागत किया है। हम्पी के पास लकुंड़ी गांव में हजारों साल पुराने चालुक्य मंदिर की बाहरी दीवारों पर प्रवासी पक्षियों की आकृतियां उकेरी हुई हंै। जिसमें हंस, सारस और फ्लेमिंगो तक शामिल हैं। देखा जाए तो हमारी संस्कृति में पक्षी बेहद लोकप्रिय हैं। हमें यह याद दिलाने तक की जरूरत नहीं कि देवी देवताओं के वाहन कौन से पक्षी हैं या फिर हमारे राजघरानों के प्रतीकों में किन पक्षियों के चिह्न थे। संगीत हो या फिर कला हर एक में पक्षी मौजूद हैं। हर बच्चे को पंछियों की कहानियां याद हैं, चतुर कौए की कहानी तो याद ही होगी, हिंदुस्तान की कई कहानियों में पक्षी हैं। हमारे पास 3000 साल पहले यजुर्वेद में दर्ज एशियाई कोयल की परजीवी आदतों का डेटा है। पक्षी हमारे पक्के साथी हैं, शारीरिक तौर पर भी और सांस्कृतिक रूप में भी।हालांकि हाल ही में जारी हुए स्टेट ऑफ इंडिया बर्ड्स 2020 रिपोर्ट का डेटा बेहद चौंकाने वाला है। यह देश में पक्षियों के बहुतायत में होने के चलन, संरक्षण स्थिति का अपनी तरह का पहला विस्तृत आकलन है। भारत में पक्षियों के डेटा को इक्ट्ठा करने एनसीएफ, एनसीबीएस और ए ट्री जैसे दसियों संगठन साथ आए हैं। उन्होंने 15,500 आम लोगों के 1 करोड़ ऑब्जरवेशन पर बहुत भरोसा जताया है। जिन्होंने आसानी से इस्तेमाल होने वाले ‘ई बर्ड’ प्लेटफॉर्म पर अपना डेटा रिकॉर्ड किया हैै।डेटा के मुताबिक 867 प्रजातियों में से 101 को संरक्षण की बेहद ज्यादा, 319 को सामान्य और 442 को कम जरूरत है। 261 प्रजातियों के लिए लंबे वक्त के ट्रेंड समझे गए जिसमें से 52 प्रतिशत जो कि आधे से ज्यादा हैं, उनकी संख्या साल 2000 के बाद से घटी है। जबकि इनमें से 22 प्रतिशत की संख्या काफी ज्यादा घटी है। 146 प्रजातियों के लिए सालाना ट्रेंड पढ़े गए और उनमें से 80 प्रतिशत की संख्या घट रही है और 50 प्रतिशत की संख्या खतरनाक स्तर पर है। इस स्थिति पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।इस रिपोर्ट के आने से पहले तक हमें अपने पक्षियों के जीवन का भाग्य नहीं पता था। हम चुनिंदा प्रजातियों के बारे में जानते थे, जैसे मोर, जो कि देश का खूबसूरत राष्ट्रीय पक्षी है। जिसकी स्थिति काफी अच्छी है और संख्या ठीक-ठाक बढ़ रही है। और गौरेया जिसके बारे में पर्यावरणविदों को लगा था कि वह खत्म हो रही है।बस इसलिए क्योंकि शहरी इलाकों में उनकी मौजूदगी कम हो रही थी, जबकि असल में उनकी संख्या स्थिर है। इस रिपोर्ट की बदौलत अब मालूम हुआ कि प्रवासी पक्षी जैसे कि गोल्डन प्लोवर, शिकार पक्षी जैसे कि गिद्ध और हैबिटेट स्पेशलिस्ट जैसे कि फॉरेस्ट वैगटेल काफी खतरे में हैं। पर इनकी चिंता हम क्यों करें? इन पक्षियों की आखिर अहमियत ही क्या है?पक्षी हमारे इकोसिस्टम में अहम भूमिका रखते हैं। वह दूसरी प्रजातियों के लिए परागणकारी हैं, बीज फैलाने वाले, मैला ढोने वाले और दूसरे जीवों के लिए भोजन भी हैं। पक्षी स्थानीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन सकते हैं, क्योंकि कई लोग उन्हें देखना पसंद करते हैं। देश में बर्ड वॉचर्स की बढ़ती संख्या ने इकोटूरिज्म को बढ़ावा दिया है।सच तो यह है कि मानव स्वास्थ्य पक्षियों की भलाई से काफी नजदीक से जुड़ा है। और उनकी संख्या घटना खतरे की चेतावनी है। अंग्रेजी का एक रूपक है, ‘केनारी इन द कोल माइन’। यानी कोयले की खदान में केनारी चिड़िया। पुराने जमाने में खदान में जाते वक्त मजदूर पिंजरे में केनारी चिड़िया साथ ले जाते थे। यदि खदान में मीथेन या कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर ज्यादा होता था तो इंसानों के लिए वह गैस खतरनाक स्तर पर पहुंचे इससे पहले ही केनारी चिड़िया मर जाती थी। और मजदूर खदान से सुरक्षित बाहर निकल आते थे।स्टेट ऑफ इंडिया बर्ड्स रिपोर्ट 2020 इस केनारी चिड़िया की तरह ही हमें आगाह कर सकती है। अपने पक्षियों को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? जरूरत है हम देखें, समझें और उनकी रक्षा करें। मैं कई दशकों से पक्षी प्रेमी हूं, पक्षी मुझे बेइंतहा खुशी देते हैं। एक तरीके से उनका कर्ज चुकाने को मैं अपने बगीचे का एक हिस्सा अनछुआ रहने देती हूं ताकि पक्षी वहां आकर अपना घोंसला बना सकें। हमारे आसपास मुनिया, बुलबल और सनबर्ड के कई परिवार फल-फूल रहे होते हैं। मेरी कोशिश होती है कि फल और फूलों वाले कई पौधे लगाऊं। मैं बगीचे के अलग-अलग कोनों में पक्षियों के लिए पानी रखती हूं।अलग-अलग ऊंचाई पर ताकि छोटे-बड़े हर तरह के पक्षी उसे पी सकें। भारत में कई समुदाय पक्षियों के संरक्षण के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। कई बार अपनी आजीविका की कीमत पर भी। कर्नाटक के कोकरेबैल्लूर में गांववालों और दो तरह के पक्षियों की प्रजातियों स्पॉट बिल्ड पेलिकन और पेंटेड स्टॉर्क के बीच एक खास संबंध है। नगालैंड के पांगती में गांववालों ने पिछले दिनों अमूर फालकन को न मारने की कसम खाई है। ये पक्षी बड़ी संख्या में उस इलाके से गुजरते हैं।हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पहल करते हए राजस्थान की सरकार को लुप्तप्राय सारंग पक्षी को बचाने का निर्देश दिया हैै। सारंग वह पक्षी है जो मोर चुनते वक्त हमारा राष्ट्रीय पक्षी बनने की दौड़ में था। ऐसे उदाहरण हर जगह हैं, जैसे पक्षी हर तरफ हैं। पक्षी हमारी आंखों को खूबसूरती से भर देते हैं और कानों को चहचहाहट से। वह हमारे दिलों को शांति और सुकून देते हैं। अब बतौर समाज हमें सोचना होगा कि भारत की पक्षियों की अद्भुत विविधता को स्वस्थ रखने के लिए कर क्या सकते हैं। उनके लिए भी और खुद के लिए भी।(यह लेखिका के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news व्यस्त शब्द को मिटाएं, वह आपकी इमोशनल हेल्थ खराब करेगा By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 18:50:00 GMT आजकल हम तनाव होने के बाद चीजों का ध्यान रख रहे हैं। पहले से ध्यान रखें तो किसी को तनाव होगा ही नहीं। जो लोग ज्यादातर देश के बाहर यात्राएं करते हैं तो उनको बाहर जाकर एक अंतर दिखाई देता है कि वहां ज्यादातर लोग अकेले रहते हैं। सड़कों पर भी ज्यादातर अकेले लोग दिख जाते हैं। शाम को छ: बजे लाइट बंद हो जाती है। उनके यहां अकेले रहना अवसाद और बैचेनी का कारण है।लेकिन हमारे यहां इसका क्या कारण है? यहां तो मुश्किल से पांच मिनट भी अकेले रहने को नहीं मिलता। ये हमारा अच्छा भाग्य है कि हम भारत देश में हैं। जहां हम कभी भी अकेले नहीं होते हैं। हमारे साथ हमेशा एक दिव्य शक्ति होती है। लेकिन फिर ऐसे माहौल में सबके बीच रहते हुए भी कभी-कभी अकेले हो जाते हैं। आज हम खुद से एक प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अपने भावनात्मक स्वास्थ्य को 10 प्रतिशत पर लाते हैं।डब्ल्यूएचओ ने पिछले साल कहा था कि चार में से एक व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार है। फिर डब्ल्यूएचओ ने कहा 2020 तक मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण डिप्रेशन होगा। लेकिन आज अगर हम ये निर्णय लें कि हम अपनी इमोशनल हेल्थ को 10 पर लेकर आएंगे और अपने आसपास सारे जो हैं उनकी भी इमोशनल हेल्थ को 10 पर लेकर आएंगे। तो 2020 के अंत तक कम से कम भारत से डिप्रेशन खत्म हो जाएगा और यह हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए।हमने मेहनत करके अपने देश से पोलियों खत्म किया है। उसी तरह हमें देश का थोड़ा ध्यान रखकर डिप्रेशन को भी पूरी तरह से खत्म करना है। अब उसका ध्यान नहीं रखना है बल्कि उसे पूरी तरह से खत्म करना है। यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि तनाव, अवसाद और चिंता न मुझे हो और न ही अन्य किसी को हो।औरों का ध्यान रखने से पहले महत्वपूर्ण यह है कि पहले अपना ध्यान रखें। आजकल हम किसी को कहते हैं थोड़ा सा टाइम निकालो, सुबह थोड़ी देर मेडिटेशन करो। इसके जवाब में एक नकारात्मक ऊर्जा वाला शब्द सबके मुंह पर होता है कि मैं बहुत व्यस्त हूं और दूसरा कि मेरे पास वक्त नहीं है। ये एक शब्द इस समय बहुत सारे दुखों का कारण है।हम पूरे दिन में न जाने कितनी बार इस शब्द का प्रयोग करते हैंं। बार-बार हम अपने आपको कह रहे हैं मेरे पास समय नहीं है। इस वर्ष हम अपनी एक सोच को बदलते हैं व्यस्त शब्द को सदा के लिए खत्म कर देते है। ये शब्द हमारी इमोशनल हेल्थ को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है। समय उतना ही है सभी के पास। लेकिन समय के बारे में हमारा एटीट्यूड कैसा है वो हरेक का अलग-अलग होता है।कुछ लोग 18 घंटे काम करके भी बड़े हल्के रहते हैं और कुछ लोग कुछ न करते हुए भी कहते हैं मेरे पास वक्त नहीं है। वो घर पर हैं रिटायर हो चुके हैं कुछ नहीं कर रहे हैं लेकिन ऐसा लगेगा कि इनसे ज्यादा कोई व्यस्त ही नहीं है। दिक्कत मन के अंदर है बाहर नहीं। अब हमें सकारात्मक ऊर्जा वाले शब्दों का इस्तेमाल करना है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Erase busy words, it will spoil your emotional health Full Article
india news सतोगुण की वृद्धि से बुद्धि बढ़ेगी By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 18:57:00 GMT अक्ल बड़ी या भैंस? इस कहावत को लेकर आज भी लोग उलझ जाते हैं, लेकिन समझ नहीं आता कि अक्ल और भैंस का क्या संबंध है? दार्शनिक लोग कहते हैं भैंस ठस होती है, बिल्कुल अक्ल नहीं लगाती, लेकिन उसकी उपयोगिता बहुत है। भले ही कहा यह जाता है कि भैंस का दूध प्रमादी है और पीने वाला आलसी हो जाता है, लेकिन लगभग सारे सक्रिय लोग भैंस का दूध पी रहे हैं। फिर भी यह तय है कि भैस में अक्ल नहीं होती, केवल उसकी उपयोगिता के कारण लोग उसका मान करते हैं।भैंस अपने प्रमाद के कारण प्रसिद्ध है, मनुष्य की अक्ल-बुद्धि अपने प्रवाह के कारण मानी जाती है। बुद्धि में बहुत तीव्र प्रवाह होता है। कहां से कहां पहुंच जाती है, बड़े से बड़े रहस्य को उजागर कर सकती है। फिर मनुष्य की अक्ल तो दो भागों में बंटी हुई है। पुरुष की अक्ल अलग और स्त्री की अलग। इसका शिक्षा से कोई संबंध नहीं है। शिक्षा ऊपर का आवरण है, भीतर अक्ल चलती है। जब जिसकी बुद्धि चल जाए, समस्या का निदान निकल आए, वह अकलमंद।बुद्धि खूब परिष्कृत हो जाए तो मेधा बन जाती है। इसमें सतोगुण, खान-पान और नींद का बड़ा महत्व है। जो लोग नींद पर नियंत्रण पा लेंगे, खानपान शुद्ध रखेंगे और जो अपने भीतर सतोगुण की वृद्धि करेंगे उनकी बुद्धि बहुत जल्दी मेधा में बदल जाएगी। वहीं बुद्धि यदि रजो-तमोगुण से जुड़ी रही तो वह लगभग भैंस जैसी हो जाएगी। शायद इसीलिए यह कहावत बनी है कि अक्ल बड़ी या भैंस? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news ‘हुनूज दूर अस्थ’ By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 19:01:00 GMT खबर यह है कि हुक्मरान नया संसद भवन बनाना चाहते हैं। इतिहास में अपना नाम दर्ज करने की ललक इतनी बलवती है कि देश की खस्ताहाल इकोनॉमी के बावजूद इस तरह के स्वप्न देखे जा रहे हैं। खबर यह भी है कि नया भवन त्रिभुज आकार का होगा। मौजूदा भवन गोलाकार है और इमारत इतनी मजबूत है कि समय उस पर एक खरोंच भी नहीं लगा पाया है।क्या यह त्रिभुज समान बाहों वाला होगा या इसका बायां भाग छोटा बनाया जाएगा? वामपंथी विचारधारा से इतना खौफ लगता है कि भवन का बायां भाग भी छोटा रखने का विचार किया जा रहा है। स्मरण रहे कि फिल्म प्रमाण-पत्र पर त्रिभुज बने होने का अर्थ है कि फिल्म में सेंसर ने कुछ हटाया है। ज्ञातव्य है कि सन 1912-13 में सर एडविन लूट्यन्स और हर्बर्ट बेकर ने संसद भवन का आकल्पन किया था, परंतु इसका निर्माण 1921 से 1927 के बीच किया गया।किंवदंती है कि अंग्रेज आर्किटेक्ट को इस आकल्पन की प्रेरणा 11वीं सदी में बने चौसठ योगिनी मंदिर से प्राप्त हुई थी। बहरहाल, 18 जनवरी 1927 को लॉर्ड एडविन ने भवन का उद्घाटन किया था। सन् 1956 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भवन के ऊपर दो मंजिल खड़े किए। इस तरह जगह की कमी को पूरा किया गया।13 दिसंबर 2001 में संसद भवन पर पांच आतंकवादियों ने आक्रमण किया था। उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। फिल्मकार शिवम नायर ने इस सत्य घटना से प्रेरित होकर एक काल्पनिक पटकथा लिखी है। जिसके अनुसार 6 आतंकवादी थे। पांच मारे गए, परंतु छठा बच निकला और इसी ने कसाब की मदद की जिसने मुंबई में एक भयावह दुर्घटना को अंजाम दिया था। पटकथा के अनुसार यह छठा व्यक्ति पकड़ा गया और उसे गोली मार दी गई।बहरहाल, शिवम नायर ने इस फिल्म का निर्माण स्थगित कर दिया है। विनोद पांडे और शिवम नायर मिलकर एक वेब सीरीज बना रहे हैं, जिसकी अधिकांश शूटिंग विदेशों में होगी। वेब सीरीज बनाना आर्थिक रूप से सुरक्षित माना जाता है, क्योंकि यह सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए नहीं बनाई जाती। आम दर्शक इसका भाग्यविधाता नहीं है। एक बादशाह को दिल्ली को राजधानी बनाए रखना असुरक्षित लगता था। अत: वह राजधानी को अन्य जगह ले गया।उस बादशाह ने चमड़े के सिक्के भी चलाए थे। यह तुगलक वंश का एक बादशाह था, जिसके परिवार के किसी अन्य बादशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया था। दिल्ली में भगदड़ मच गई थी, परंतु हजरत निजामुद्दीन औलिया शांत बने रहे। उन्होंने कहा ‘हुनूज (अभी) दिल्ली दूर अस्थ’ अर्थात अभी दिल्ली दूर है। सचमुच वह आक्रमण विफल हो गया था। फौजों को यमुना की उत्तंुग लहरें ले डूबी थीं। आक्रमणकर्ता के सिर पर दरवाजा टूटकर आ गिरा और वह मर गया।वर्तमान समय में भी दिल्ली जल रही है। समय ही बताएगा कि यह साजिश किसने रची। मुद्दे की बात यह है कि अवाम ही कष्ट झेल रहा है। देश के कई शहर उस तंदूर की तरह हैं जो बुझा हुआ जान पड़ता है, परंतु राख के भीतर कुछ शोले अभी भी दहक रहे हैं। दिल्ली के आम आदमी में बड़ा दमखम है। वह आए दिन तमाशे देखता है।केतन मेहता की फिल्म ‘माया मेमसाब’ का गुलजार रचित गीत याद आता है- ‘यह शहर बहुत पुराना है, हर सांस में एक कहानी, हर सांस में एक अफसाना, यह बस्ती दिल की बस्ती है, कुछ दर्द है, कुछ रुसवाई है, यह कितनी बार उजाड़ी है, यह कितनी बार बसाई है, यह जिस्म है कच्ची मिट्टी का, भर जाए तो रिसने लगता है, बाहों में कोई थामें तो आगोश में गिरने लगता है, दिल में बस कर देखो तो यह शहर बहुत पुराना है।’ Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today संसद भवन (फाइल फोटो)। Full Article
india news बच्चों से सलाह लेना उन्हें जिम्मेदार बनाता है By Published On :: Fri, 28 Feb 2020 19:06:00 GMT इस गुरुवार कलकत्ता हाईकोर्ट की जस्टिस शंपा सरकार ने अदालत में एक बच्चे से 10 मिनट बात करने के बाद एक आदेश जारी किया। जज ने बच्चे को अपनी कुर्सी के पास बुलाया और उससे बात की। जबकि उसके नाना-नानी के वकील कुछ दूरी पर खड़े रहे और बाकी का कोर्ट रूम भी देखता रहा। कोर्ट में मौजूद बाकी लोग उनकी बातें नहीं सुन पा रहे थे, क्योंकि दोनों बहुत धीमी आवाज में बात कर रहे थे। जज ने पत्नी की मृत्यु के बाद से क्रिमिनल ट्रायल का सामना कर रहे पिता को बच्चे को हफ्ते में एक बार देखने देने का आदेश सुनाया।यह भी कहा कि बच्चे से मिलने के दौरान 10 वर्षीय बच्चा उस बिल्डिंग की पहली मंजिल की बालकनी पर खड़ा रहेगा, जिसमें नाना-नानी रहते हैं और पिता सड़क पर खड़ा रहेगा। जस्टिस सरकार ने अपने फैसले में कहा, ‘नाना बच्चे को हर शनिवार 10 मिनट के लिए उस दो मंजिला बिल्डिंग के बरामदे में खड़ा रहने देंगे, जहां बच्चा नाना-नानी के साथ रहता है। पिता को बिल्डिंग के सामने खड़े होकर रोड से बच्चे को देखने की अनुमति होगी।’ कोर्ट ने यह व्यवस्था इसलिए की क्योंकि नाना दामाद को अपने घर में नहीं घुसने देना चाहते थे।पिता एक स्कूल में पढ़ाता है। इस स्कूल शिक्षक ने 2008 में एक महिला से शादी की और 2010 में बेटे का जन्म हुआ। फिर 2017 में पत्नी का जलने के कारण निधन हो गया। उसकी मौत के बाद महिला के पिता ने अपने दामाद के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए (पत्नी को मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना देना) और धारा 302 (मर्डर) के तहत पुलिस में शिकायत दर्ज की, इसलिए दामाद को कोर्ट से जमानत लेनी पड़ी।शिक्षक ने बच्चे की कस्टडी के लिए भी अपील की, जिसे निचली अदालत ने खारिज कर दिया। इस बीच शिक्षक पर बच्चे का अपहरण करने की कोशिश करने का आरोप भी लगा, जब वह इसी साल एक दिन बच्चे से मिलने और बात करने की कोशिश करने के लिए उसके स्कूल गया था। जब शिक्षक ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की तो जस्टिस सरकार ने उसकी याचिका स्वीकार की और गुरुवार को किसी फैसले पर पहुंचने से पहले बच्चे से बात करना चाहा।इन काबिल जज ने बच्चे से जो भी बात की हो और बच्चे ने जो भी जवाब दिया हो, लेकिन फैसला सुनाने से पहले बच्चे से बात करना और इस नाजुक मन की बात को समझना बहुत जरूरी था और यह सराहनीय काम है। काबिल जज ने सोचा होगा कि वे जानना चाहती हैं कि 10 साल के बच्चे के मन में क्या चल रहा होगा। याद रखें कि बच्चा नाना और पिता के झगड़ों के बीच फंस गया होगा। जज द्वारा बच्चे से बात करने से मुझे याद आया कि कैसे मेरे पिता मेरी गर्मियों की छुट्टी के दौरान घर की दीवारों पर हर साल चूना पुतवाते थे और हमेशा मुझसे पूछते थे कि मैं घर में कौन सा रंग चाहता हूं।ऐसा नहीं था कि उन दिनों हमारे पास बहुत विकल्प होते थे, लेकिन वे मेरे मन को समझने के लिए मुझसे ये पूछते थे। यह बहुत खूबसूरत अहसास था। मैं सोचता हूं कि बड़े होते हुए मेरे लिए यह बहुत बड़ी सीख थी। वे हमेशा मुझे यह समझाना चाहते थे कि वे मुझे उस घर में खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं। वे स्पष्ट रूप से कहते थे कि यह तुम्हारा घर है।वे मेरे साथ बैठते थे और मुझे याद दिलाते थे, ‘देखो मैंने घर की पुताई करवाते समय भी तुम्हारी सलाह ली थी।’ बहुत सालों बाद मुझे यह समझ आया कि वे मुझसे तारीफें पाने के लिए यह सब नहीं करते थे, बल्कि वे उन ‘ब्लाइंड स्पॉट्स’ (समझने में कमियां) को दूर कर रहे होते थे, जो मुझे उनकी मेहनत, उनके त्यागों और मेरे प्रति उनकी चिंता को लेकर थे।फंडा यह है कि आज के बच्चों में हमारी पीढ़ी से ज्यादा ब्लाइंड स्पॉट्स हैं। वे आपके योगदानों को तुरंत नहीं पहचान पाते हैं, इसलिए उनसे बात करें। वे कभी न कभी जरूर समझेंगे, जिससे उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनने में मदद मिलेगी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सब याद रखा जाएगा, हमें मार दो हम भूत बन जाएंगे By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 01:46:00 GMT पिछले सप्ताह लंदन में आयोजित एक कार्यक्रम में रॉकस्टार रोजर विंटर्स ने एक भारतीय छात्र की कविता का अनुवाद प्रस्तुत किया। यह छात्र शाहीन बाग में जारी विरोध में शामिल है। कविता का अनुवाद कुछ इस तरह है-‘सब याद रखा जाएगा, हमें मार दो हम भूत बन जाएंगे, हम इतने जोर से बोलेंगे कि बहरे भी सुन लेंगे, हम इतना साफ और बड़े अक्षर में लिखेंगे की अंधा भी पढ़ सके, तुम धरती पर अन्याय लिखो हम आकाश पर क्रांति लिखेंगे, सब याद रखा जाएगा, सब कुछ लिखित में दर्द है...’समारोह में इन पंक्तियों के पढ़े जाने पर श्रोताओं ने जोरदार तालियां बजाईं, जो दसों दिशाओं में गूंजने लगीं पर हुक्मरान ने कान में रुई ठूंस ली है। 76 वर्षीय रॉकस्टार रोजर विंटर्स ने कहा कि इस कविता को लिखने वाले युवा छात्र की मुट्ठी में भविष्य बंद है।रोजर विंटर्स ने शाहीन बाग में जारी आंदोलन की बात की और आशा अभिव्यक्त की कि हमारे नाजुक विश्व में स्वतंत्रता और ज्ञान का प्रकाश फैलेगा। रोजर विंटर्स की बात तो हमें शैलेंद्र की फिल्म ‘जागते रहो’ के गीत की याद दिलाती है। ‘गगन परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, जागो मोहन प्यारे जागो, नगर-नगर डगर-डगर सब गलियां जागीं, जागो मोहन प्यारे मत रहना अंखियों के सहारे।’संभवतः कवि ने प्रचार तंत्र के तांडव की पूर्व कल्पना कर ली थी। महाकवि कबीर आंखन देखी पर विश्वास करते थे और उन्हीं की परंपरा के शैलेंद्र आगाह करते हैं कि मत रहना अंखियों के सहारे। रॉकस्टार रोजर विंटर्स का भाषण ट्विटर मंच पर वायरल हो गया है और संभावना है कि व्यवस्था को बैक्टीरिया लग जाएगा। व्यवस्था पहले से ही बीमार है।बहरहाल इम्तियाज अली की रणबीर कपूर अभिनीत फिल्म ‘रॉकस्टार’ के गीत इरशाद कामिल ने लिखे थे और संगीत ए आर रहमान का था। ज्ञातव्य है कि इरशाद कामिल पंजाब में हिंदी साहित्य में एम ए कर रहे थे। छात्र नेता ने परीक्षा को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन किया तो पढ़ने वाले छात्रों ने आंदोलन के खिलाफ अपना पक्ष रखा कि परीक्षा पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुरूप ही हो। उनका नारा था ‘साड्डा हक एथे रख’ और इसी से प्रेरित गीत इरशाद कामिल ने लिखा। आजकल इरशाद कामिल फिल्म निर्देशन के लिए स्वयं को तैयार कर रहे हैं।ज्ञातव्य है कि बीटल्स और रॉक असमानता और अन्यायपूर्ण आधारित व्यवस्था के खिलाफ रहे हैं और इसी मुखालफत से इस विद्या का जन्म भी हुआ है। जॉन लेलिन का संगीत एल्बम ‘इमेजिन’ सन 1971 में जारी हुआ था और इसने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। उनके गीत का आशय कुछ इस तरह था कि ‘मूर्ख एवं मनोवैज्ञानिक तौर पर बीमार राजनेताओं की अर्थहीन बातों को सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं और मैं थक गया हूं।मुझे सच जानना है, बराय मेहरबानी थोड़ा सा सच तो बता दो। हम कल्पना करें कि हमारे ऊपर कोई स्वर्ग नहीं है और ना ही हमारे पैरों के नीचे कोई नर्क है... कल्पना करें कि कोई सरहद नहीं है, कोई युद्ध नहीं है, यह कल्पना करना कोई कठिन नहीं है कि ना तो कोई आदर्श मर जाने के लिए है और ना ही कुछ जीने के लिए, सारे मनुष्य सुख शांति से जी रहे हैं। आपको यह लगता है कि मैं स्वप्न देख रहा हूं, सच मानिए मैं अकेला स्वप्न नहीं देख रहा हूं। मैं आशा करता हूं कि आप मेरे साथ हैं किसी दिन पूरा विश्व एक कुटुंब की तरह हो जाएगा।’गौरतलब है कि जॉन लेनिन की स्वर्ग और नर्क को नकारने की बात हमें ‘इप्टा’ के लिए लिखे शैलेंद्र के गीत की याद दिलाता है, ‘तू आदमी है तो आदमी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।’गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने आर्तनाद किया, ‘केन रे भारत, केन तुई हाय, आवार हासिस! हासीवार दिन आहो कि एकनो ए घोर दुखे! अर्थात क्यों रे भारत, क्यों तू फिर हंस रहा है। इस घोर दुख में हंसने का दिन कहां रहा?’गुरुदेव टैगोर की कविता का सारांश इस तरह है कि कोई नहीं जानता किस के बुलाने पर यह जल स्रोत कहां से आकर इस समुद्र में विलीन हुआ है। यहां पर आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान और मुगल एक साथ मिल गए।किसी दौर में चार्ली चैपलिन ने कहा था कि जिस दिन हम हंसते नहीं वह दिन खो देते हैं। चार्ली चैपलिन ने हिटलर के दौर में उसकी विचारधारा के विरुद्ध ‘द डिक्टेटर’ नामक फिल्म बनाई थी। चार्ली चैपलिन ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि हिटलर से अधिक निर्मम लोग दुनिया पर शासन करेंगे। आज समय समुद्र तट पर हिटलर और मुसोलिनी घरौंदा खेलते नजर आते हैं। उनसे कहीं अधिक विराट लोग वर्तमान में मौजूद हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news आपके मन में कितनी बार कुछ बड़ा करने का विचार कौंधा है? By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 01:50:00 GMT माटुंगा मुबंई में एक उपनगर है, जहां एक समय ज्यादातर दक्षिण भारतीय रहा करते थे। मैं 1970 के दशक में कभी वहां सब्जियां खरीद रहा था, तभी मैंने एक दक्षिण भारतीय महिला और गैर-दक्षिण भारतीय सब्जी वाले के बीच की बातचीत सुनी। महिला हिन्दी का एक शब्द नहीं बोल सकती थी और सब्जी वाले को तमिल समझ नहीं आ रही थी। महिला उससे मोलभाव करने की कोशिश कर रही थी। आखिर में परेशान होकर सब्जी वाला चिल्लाया, ‘लेव न लेव लेवाटी पो’। वह एक प्रकार से तमिल लहजे में हिन्दी बोल रहा था। उसका मतलब था, ‘लेना है तो लो, नहीं तो जाओ।’ उसका यह लहजा सुनकर आसपास खड़े लोग बहुत हंसे।अब आते हैं साल 1993 में। मैंगलुरू के बाजार में पिछले 10 साल से संतरे बेच रहे हरेकला हजब्बा के पास एक दंपति आया और कन्नड में बात करने की कोशिश करने लगा। हजब्बा कभी स्कूल नहीं गए थे और उन्हें कन्नड नहीं आती थी। वे तुलु ही बोल पाते थे।माटुंगा के सब्जी वाले से अलग, हजब्बा को बुरा लगा कि वे उस दंपति की मदद नहीं कर पाए। उन्होंने एक स्कूल शुरू करने के बारे में सोचा, ताकि वहां के सभी लोग कन्नड सीख सकें। लेकिन उन्हें बिल्कुल नहीं पता था कि ऐसा कैसे किया जाए।उन्होंने त्वाहा जुमा मस्जिद समिति के सदस्यों से पूछा कि क्या वे स्कूल खोल सकते हैं और सदस्य मान गए। समिति से जुड़े संपन्न लोगों ने कुछ पैसे दान किए। कक्षाएं सफलतापूर्वक चलने लगीं और हजब्बा के काम को पहचान मिलने लगी। जल्द ही उन्हें मस्जिद समिति का कोषाध्यक्ष बना दिया गया।उनका ध्यान उन बच्चों पर था जो पांचवीं कक्षा के बाद स्कूल नहीं जा पाए थे, लेकिन स्कूल जाना चाहते थे। कन्नड मीडियम का स्कूल खोलने का विचार हमेशा से ही उनके मन में था।याद रखें कि वे संतरा बेचने वाले ही थे। उन्होंने पैसे बचाना जारी रखा और 1999 में 40 वर्गफीट का जमीन का छोटा-सा टुकड़ा खरीदा। उनका दृढ़ निश्चय देखकर कुछ समाजसेवियों ने एक एकड़ जमीन हासिल करने में उनकी मदद की। फिर 2000 में कर्नाटक सरकार के शिक्षा विभाग के कई चक्कर लगाने के बाद उन्हें स्कूल की बिल्डिंग बनाने की अनुमति मिल गई।इस मुश्किल दौर में हजब्बा को कुछ विनम्न सरकारी अधिकारी भी मिले, जो उनकी मदद करने के लिए तैयार थे। जैसे ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी के. आनंद। नौ जून 2001 को सरकारी उच्च माध्यमिक स्कूल का उद्घाटन हुआ। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, स्थानीय राजनेता और अमीर लोग भी मदद को आगे आने लगे। वे इस स्कूल के लिए बेंच, डेस्क और दूसरे जरूरी सामान दान करने लगे।हजब्बा का स्कूल शुरू करने का सपना पूरा हो चुका था लेकिन उनकी इच्छाएं अभी यहां खत्म नहीं हुई थीं। कुछ महीनों बाद उन्होंने हाईस्कूल बनाना चाहा। चूंकि स्कूल के प्रांगण में पर्याप्त जगह थी और अब सरकारी अधिकारी उन्हें जानने लगे थे, इसलिए उन्हें आसानी से बिल्डिंग बनाने की अनुमति मिल गई। फिर 2003 से हजब्बा ने संतरे बेचकर और लोगों से दान इकट्ठा कर पैसे जोड़ना शुरू किया। साल 2010 में स्कूल का निर्माण शुरू हुआ और 2012 में पूरा हो गया।दूसरी स्कूलों की ही तरह इसमें लाइब्रेरी और कम्प्यूटर लैब हैं। कक्षाओं के नाम मशहूर शख्सियतों के नाम पर रखे गए हैं, जिनमें रानी अबक्का, कल्पना चावला, स्वामी विवेकानंद जैसे नाम शामिल हैं। इसके पीछे यह विचार था कि बच्चे इन नामों को पढ़कर और उनकी कहानियां जानकर ज्यादा से ज्यादा उपलब्धियां पाने के लिए प्रेरित हों। पिछले साल दसवीं कक्षा के 92 फीसदी बच्चे पास हुए थे।अब मैंगलोर विश्वविद्यालय, कुवेंपू विश्वविद्यालय और दावणगेरे विश्वविद्यालय के डिग्री छात्रों के लिए हरेकला हजब्बा के जीवन की कहानी को एक अध्याय में शामिल किया गया है। उनकी छोटी-सी झोपड़ी, जिसे वे अपना घर कहते हैं, उसमें पूरे कमरे की तीन दीवारें जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मिले पुरस्कारों, मेडल और सम्मानों से भरी हुई हैं। और इन सभी में सबसे ऊपर है प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार, जो इन 68 वर्षीय बुजुर्ग को 2020 में भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने दिया है।फंडा यह है कि इस बात पर विचार करें कि आपके मन में कितनी बार हजब्बा की तरह कुछ बड़ा करने का विचार कौंधा है और आपने क्या हासिल किया है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today हरेकला हजब्बा -फाइल फोटो। Full Article
india news 360 करोड़ लीटर पानी सहेजने को 4 घंटे में बना डाली 40 हजार जल संरचना By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 03:54:20 GMT Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today यह फोटो झाबुआ के हाथीपावा की पहाड़ी का है। यहां रविवार को शिवगंगा संस्था ने शिवजी का हलमा कार्यक्रम किया। गांवों से आए हजारों कार्यकर्ताओं ने चार घंटे तक पहाड़ी पर श्रमदान कर 40 हजार के लगभग कंटूर ट्रेंच बनाए। इस अभियान के तहत लगभग 360 करोड़ लीटर पानी सहेजने का लक्ष्य रखा गया है। बारिश का पानी पहाड़ पर इन कंटूर ट्रेंच के जरिये जमीन में उतरेगा। बारिश का पानी पहाड़ पर इन कंटूर ट्रेंच के जरिये जमीन में उतरेगा। इस तरह से वर्षाजल को सहेजकर भूजल स्तर बढ़ेगा। परमार्थ की इस परंपरा को देखने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी, पर्यावरणविद्, समाजसेवी और ब्यूरोक्रेट्स पहुंचे। Full Article
india news केंद्रीय मंत्री घुसपैठियों को देश से खदेड़ने की बात कह रहे, पर जम्मू में रोहिंग्याओं को स्थानीय लोगों पर तरजीह मिल रही By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 04:15:01 GMT जम्मू. मोदी सरकार म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान करने और उन्हें वापस भेजने की लगातार बात कर रही है, लेकिन जम्मू म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (जेएमसी) में स्थानीय लोगों के मुकाबले ऐसे अवैध प्रवासियों को तरजीह मिल रही है। करीब 200 रोहिंग्या मुसलमान जम्मू म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में दिहाड़ी मजदूर हैं, जो नालियों की सफाई का काम करते हैं। इन्हें हर रोज 400 रुपए मिलते हैं। जबकि, इसी काम के लिए स्थानीय मजदूरों को 225 रुपए ही मिलते हैं। ठेकेदारों ने इन रोहिंग्याओं को लाने-ले जाने के लिए ट्रांसपोर्ट व्हीकल का इंतजाम भी किया है। काम पर जाने से पहले ये मजदूर स्थानीय जेएमसी सुपरवाइजर के ऑफिस में अटेंडेंस भी लगाते हैं।दैनिक भास्कर से बातचीत में जेएमसी के सफाई कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष रिंकू गिल बताते हैं, ‘‘जम्मू में नालों की सफाई के लिए ठेकेदारों के पास करीब 200 रोहिंग्या काम कर रहे हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें "नाला गैंग' कहते हैं। इन्हें 3 से 5 फीट की गहरी नालियों की सफाई करनी होती है। इसके लिए हर व्यक्ति को रोज 400 रुपए दिए जाते हैं।’’रोहिंग्या पर सरकार के बयानों का जिक्र करते हुए गिल कहते हैं, "एक तरफ सरकार रोहिंग्याओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताती है। दूसरी ओर जेएमसी में स्थानीय लोगों की अनदेखी कर इन्हें रखा जा रहा है।’’स्थानीय मजदूरों के समर्थन पर गिल आगे कहते हैं "अगर ठेकेदार बाहरी लोगों को काम पर रख रहे हैं, तो सभी को समान मजदूरी दी जानी चाहिए। स्थानीय मजदूरों से डबल शिफ्ट में काम कराया जाता है, लेकिन उन्हें मजदूरी रोहिंग्याओं की तुलना में कम मिलती है।"इस बारे में जब जेएमसी के मेयर चंदर मोहन गुप्ता से बात की गई, तो उन्होंने कहा- जिस तरह से सरकार रोहिंग्या और अन्य सभी अवैध अप्रवासियों को बाहर करना चाहती है, उसी तरह से हम भी जम्मू से इन्हें बाहर कर रहे हैं। गुप्ता दावा करते हैं कि जेएमसी में किसी भी रोहिंग्या को काम पर नहीं रखा गया है। वे कहते हैं कि हम मजदूरों-कर्मियों की जांच करते हैं और यहां तक कि जेएमसी से जुड़े एनजीओ भी मजदूरों का रिकॉर्ड रखते हैं।देशभर में 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्याहजारों की संख्या में रोहिंग्या जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने शिविर बनाकर रह रहे हैं। ये बिना किसी रोकटोक के आर्मी कैम्प, पुलिस लाइन या रेलवे लाइन्स के नजदीक अपने तम्बू लगाते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्या रह रहे हैं, इनका एक चौथाई हिस्सा यानी 10 हजार से ज्यादा अकेले जम्मू और इससे सटे साम्बा,पुंछ, डोटा और अनंतनाग जिले में हैं। पिछले एक दशक में म्यांमार से बांग्लादेश होते हुए ये रोहिंग्या जम्मू को अपना दूसरा घर बना चुके हैं।गृह विभाग ने रोहिंग्याओं पर जारी रिपोर्टकी थी2 फरवरी 2018 को राज्य विधानसभा में पेश हुई जम्मू-कश्मीर गृह विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के 5 जिलों के 39 अलग-अलग स्थानों पर रोहिंग्याओं के तम्बू मिले थे। इनमें 6,523 रोहिंग्या पाए गए थे। इनमें से 6,461 जम्मू में और 62 कश्मीर में थे। इस रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू के बाहरी इलाके सुंजवान क्षेत्र में मिलिट्री स्टेशन के पास भी रोहिंग्याओं के तम्बू थे। इनमें 48 रोहिंग्या परिवारों के 206 सदस्य पाए गए। 10 फरवरी, 2018 को जब आतंकवादियों ने सेना के सुंजवान कैम्प पर हमला किया, तब सुरक्षा बलों ने गंभीर चिंता जताई थी कि इन आतंकवादियों को अवैध प्रवासियों ने शरण दी होगी। हालांकि, सबूत नहीं मिले और किसी भी अवैध अप्रवासी की जांच नहीं की गई। गृह विभाग की रिपोर्ट बताती है कि 150 परिवारों के 734 रोहिंग्या जम्मू के चन्नी हिम्मत क्षेत्र में पुलिस लाइन्स के सामने अस्थायी शेड बनाकर रह रहे हैं। नगरोटा में सेना के 16 कोर मुख्यालय के आसपास भी कम से कम 40 रोहिंग्या रह रहे हैं। जम्मू के नरवाल इलाके में एक कब्रिस्तान में भी 250 रोहिंग्या रह रहे हैं। इनकी संख्या धीरे-धीरे इस क्षेत्र में बढ़ती ही जा रही है।रोहिंग्याओं की संख्या अनुमान से कहीं ज्यादा: दावास्थानीय लोग रोहिंग्याओं को वापस भेजने की मांग लगातार कर रहे हैं। इनका कहना है कि रोहिंग्याओं की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। इनका बायो मैट्रिक्स डेटा भी अब तक नहीं लिया गया है। पिछले साल रोहिंग्याओं की वास्तविक संख्या का डेटा जुटाने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एक विशेष अभियान शुरू किया था। केंद्र सरकार के निर्देश पर यह अभियान शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य रोहिंग्याओं को उनके देश वापस भेजने के लिए उनका बायोमैट्रिक्स डेटा लेना था। यह डेटा जुटाने के दौरान पुलिसकर्मियों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें इन रोहिंग्याओं के विरोध का सामना करना पड़ा।सीवरेज लाइन बिछाने का काम करते हैं रोहिंग्याज्यादातर रोहिंग्या कचरा बीनने और साफ-सफाई के काम करते हैं। ठेकेदार इन्हें केबल और सीवरेज लाइन बिछाने के लिए मजदूरी पर रखते हैं। महिलाएं फैक्ट्रियों में काम करती हैं। भटिंडी क्षेत्र में इनका अपना बाजार है। यहां युवा एक साथ बैठे अपने मोबाइल फोन पर गेम खेलते और टीवी देखते देखे जाते हैं। युवा यहां इलेक्ट्रॉनिक सामान और मोबाइल फोन सुधारने की दुकानें भी चलाते हैं। कुछ रोहिंग्या सब्जी के ठेले और मांस की दुकानें लगाते हैं। इनके शिविरों में मस्जिदें भी हैं और कश्मीरी एनजीओ द्वारा संचालित स्कूल भी खुले हुए हैं। बच्चे सरकारी स्कूलों और स्थानीय मदरसे में भी पढ़ते हैं।जम्मू में रोहिंग्या दिहाड़ी मजदूर साफ-सफाई के अलावा केबल और सीवरेज लाइन बिछाने का काम भी करते हैं।केन्द्रीय मंत्री रोहिंग्याओं को बाहर करने के बयान देते रहे हैंमोदी सरकार में कई सीनियर मंत्री यह दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार देश के कोने-कोने से अवैध घुसपैठियों की पहचान कर अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक,उन्हें वापस उनके देश भेजेगी। गृह मंत्री अमित शाह इस मामले में सबसे आगे रहे हैं। पिछले साल उन्होंने चुनावी रैलियों में घुसपैठियों को बाहर करने की बात लगातार कही। संसद में भी वे इस मुद्दे पर केन्द्र सरकार का रुख साफ कर चुके हैं। 17 जुलाई, 2019 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा था कि यह एनआरसी था, जिसके आधार पर भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आई है। शाह ने कहा था, "असम में हुई एनआरसी की कवायद असम समझौते का हिस्सा है और देशभर में एनआरसी लाना यह लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के घोषणापत्र में शामिल था। इसी आधार पर हम चुनकर दोबारा सत्ता में आए हैं। सरकार देश के एक-एक इंच से घुसपैठियों की पहचान करेगी और अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक उन्हें बाहर करेगी।"हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान पर 22 दिसंबर को हुई रैली में कहा था, ‘‘हमारी सरकार बनने के बाद से आज तक एनआरसी शब्द की कभी चर्चा तक नहीं हुई। असम में भी हमने एनआरसी लागू नहीं किया था, जो भी हुआ वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुआ।’’ केन्द्रीय मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने 3 जनवरी को दिए बयान में कहा था, ‘‘नागरिकता संशोधन कानून से रोहिंग्याओं को किसी तरह का फायदा नहीं होगा। वे किसी भी तरह से भारत केनागरिक नहीं हो सकते। ऐसे में जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हर रोहिंग्या को वापस जाना ही होगा।’’ Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Kashmir Rohingya Muslims | Jammu Kashmir Rohingya Muslims Earning Ground Report Latest News and Updates On Narendra Modi Govt, Amit Shah Full Article
india news लालच है ये जान मेरी, इश्क नहीं जो छूटेगा By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 09:35:30 GMT इतना भी क्या पढ़ना फूंक किताबों कोअपने होने पे ही जो शक हो जाएनमक नहीं है यार तबियत है मेरीये क्यों सबके स्वाद मुताबिक़ हो जाएबड़ा मुश्किल होता है किसी के मुताबिक होना। उन हालात में और भी मुश्किल, जब आपको अपने आप पर थोड़ा बहुत विश्वास हो। ये बात मुझसे पहले उस लड़के को समझ में आ गई थी, जिसकी माशूका का नाम मर्जी था। एक सुंदर शहर था, उस शहर में एक दफ्तर था, दफ्तर में बहुत कमरे थे। उन्हीं में से एक कमरे में वो लड़का बैठता था। उस कमरे में पांच लोग और भी बैठा करते थे। स्कूल की घंटी की तरह रोज घड़ी दस बजाती थी और सब लोग अपनी-अपनी कुर्सी पर आकर बैठ जाते थे। कोई किसी की तरह नहीं था, मगर फिर भी सब एक दूसरे की तरह थे। बात में, हालात में, जज़्बात में। फिर भी पता नहीं क्यों, हर आदमी कमरे में बैठे दूसरे आदमी को अपनी तरह का करना चाहता था। रंग में, ढंग में, प्रसंग में।हम क्यों चाहतें हैं, सामने वाले को अपने जैसा करना? हम गाली देते हैं तो सामने वाला भी गाली देता है, हम देखकर मुस्कुराते हैं तो सामने वाला भी मुस्कुराता है, हम बिना किसी भाव के किसी बस, दफ्तर, घर या कतार में होते हैं तो सामने वाला भी भावहीन होता है। क्या हम दिन-ब-दिन सिर्फ प्रतिक्रिया-वादी हो रहे हैं ? मतलब सिर्फ रिएक्शन दे रहे हैं अपना, किसी भी मामले में कोई ठोस एक्शन नहीं ले रहे। वो शायद इसलिए कि एक्शन लेने में हिम्मत की जरूरत होती है, समझ की जरूरत होती है।और हां में हां मिलाने में इन दोनों की जरूरत नहीं होती बस दो-तीन बार सर झुकाना पड़ता है और इस सर झुकाने को आपकी हां समझ लिया जाता है। वो पांच लोगों के साथ बैठा लड़का ऐसी बातें सोचा करता था और वो पांच लोग कैन्टीन की चाय के गिरते हुए स्तर से परेशान थे। कौन कितना बड़ा मर्द है ये बताने और जताने के शौकीन थे, बोनस की बढ़ती रकम उनके पेट में तितलियां भर देती थी। बहुत अच्छे लोग थे, दफ्तर के कमरे में उस लड़के के सिवा जो उनके मुताबिक, उनके अनुसार, उनके जैसा नहीं था, न होना चाहता था।इन सबके ऊपर छोटा और बड़ा दो मैनेजर थे। जो उन पांचों के दिमाग को झूठी-सच्ची बातों से बांधे रखते थे। कभी-कभी तो वो मैनेजर किसी एक को इतना उकसा देते थे कि वो मैनेजर का सगा होकर बाकी साथियों की खुफिया जानकारी तक मैनेजर को दे देता। अक्सर उन मैनेजरों की बातें उस कमरे के लोगों को आपस में लड़ा भी देती थीं, गाली-गलौच तक भी हो जाता कई बार। पता नहीं चलता था ये कौन था जो मैनेजर को सारी जानकारी देता है। एक दिन अचानक उस लड़के को पता चल गया कि उसका नाम क्या है, जो मैनेजर को बाकियों की खुफिया जानकारी देता है। उसका नाम लालच था। इनसान इस दुनिया में आकर नहाया, दुनिया से जाते हुए नहाया। इस बीच, यह लालच कहां से आया? यही है जो रोज धीरे-धीरे हमारे भीतर बैठे असली इनसान को मार रहा है। यही वो रस्सी है जिसने सिर्फ हमारे हाथ-पांव ही नहीं, बल्कि दिल-दिमाग तक बांधे हुए हैं। ये लालच कभी हमदर्दी पहन कर आता है, कभी प्रेम और कभी राष्ट्रभक्ति।आज अभी मैंने उस लड़के के बारे में सोचा तो मुझे सब समझ में आ गया। वो खूबसूरत शहर मेरा हिंदुस्तान था, वो दफ्तर का एक कमरा एक राजधानी थी, वो खुफिया जानकारी देने वाला सियासत का भाई लालच था।तेरे अश्क सियासत वालेअपने दर्द मोहब्बत वालेबिन दरवाजों का घर हूं मैंकौन लगाये मुझपे तालेमत पनपने देना अपने अंदर इस लालच के दीमक को मेरे दोस्त। ये खा लेगा तुम्हारा इनसान और ईमान। ये बिगाड़ सकता है तुम्हारी साख। कर सकता है तुम्हारे सपनों को राख। तुम्हारे पंख कतरेगा, ये रिश्ते तोड़ डालेगा। तुम्हारी सीधी राहों में भंवर से मोड़ डालेगा। तुम्हें मुश्किल में डाल के ये खुद मुस्कुरायेगा। हमेशा की तरह ये जरूरत के कपड़े पहन कर आएगा।यही लालच है जो हमें औरों जैसा होने पर मजबूर कर देता है। दूसरों के अनुसार चलाने लगता है। लालच पैसे का, रिश्ते का, साथ का ही नहीं होता। कभी-कभी तारीफ की बात का भी होता है। लालची होकर जीतने से अच्छा, बड़े दिल का होकर हार जाना है शायद। मुझे लगता है कुछ कर गुज़रने की ख़्वाहिश को, कुछ कर दिखाने की कोशिश को भीतर ही भीतर खत्म कर देता है ये दीमक। वो सपने जो तुम्हारें हैं, वो राहें जो तुम्हारे इंतज़ार में हैं, वो नया जो सिर्फ और सिर्फ तुम्हीं से होना है उसे इस दीमक के हवाले करना ठीक नहीं।कांटा बनके रोजाना आंखों में ही टूटेगा,लालच है ये जान मेरी, इश्क नहीं जो छूटेगा।- इरशाद कामिल (कवि औरगीतकार) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today सिंबोलिक इमेज Full Article
india news काेरोना से निपटने में भारत का आबादी घनत्व चिंता की वजह By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:07:00 GMT कोरोना वायरस इस समय दुनिया के 70 देशों में फैल चुका है। इसके भारत में फैलने के खतरे को लेकर अमेरिकी एजेंसियों ने एक रिपोर्ट दी है, जिसके अनुसार भारत मंे आबादी घनत्व (455 व्यक्ति प्रति किमी) एक बड़ी समस्या है, क्योंकि यह आंकड़ा चीन के मुकाबले तीन गुना और अमेरिका (36 व्यक्ति प्रति किलोमीटर) के मुकाबले 13 गुना है। इस वायरस से पीड़ित व्यक्ति कुछ फीट की दूरी पर स्थित दो से तीन लोगों को प्रभावित करता है।इसके अलावा भारतीय समाज आदतन ऐसी संक्रामक बीमारियों में भी दूरी नहीं बनाता। एक अन्य समस्या उदारवादी शासन व्यवस्था की है, जिसमें सरकार का सख्त कदम लोगों के गुस्से का कारण बनता है, लिहाजा सरकारें रोकथाम के लिए सख्त कदम उठाने से बचती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इस वायरस का घातक प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जाएगा, लेकिन अभी भारत के गांवों में इस संकट से निपटने के लिए विशेष प्रबंध की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) भी विभिन्न देशों की मदद करने का खाका तैयार कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सघन आबादी वाले भारत में इस पर अंकुश के उपाय सरकार के लिए चुनौती हैं।डब्लूएचओ के महानिदेशक ने चीन सरकार द्वारा इस महामारी के बाद किए गए उपायों की जबरदस्त प्रशंसा की है। चीनी सरकार ने सुनिश्चित किया कि कोरोना वुहान से अन्य राज्यों में न फ़ैलने पाए। डब्लूएचओ का कहना है कि जिस तरह चीन ने इसकी रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए, वैसा ही अन्य देशों को करना होगा, ताकि वायरस से ग्रस्त लोगों को पूरी तरह अलग-थलग करके इसका प्रसार रोका जा सके। किसी भी देश को ऐसी महामारी के आसन्न संकट के लिए चिह्नित करने का खतरा यह है कि उसकी आर्थिक स्थिति पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है, क्योंकि उस देश से आवागमन के अलावा व्यापार भी दुनिया के देश बंद कर देते हैं। यही कारण है कि चीन, ताइवान, दक्षिण कोरिया, ईरान सहित तमाम देश इस वायरस की चपेट में आने से आर्थिक रूप से भी क्षति झेल रहे हैं।हालांकि, भारत में अभी तक इस बीमारी की दस्तक के संकेत नहीं मिले हैं, फिर भी भारत सरकार किसी भी ऐसी स्थिति से निपटने को तैयार है। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि इस वायरस में मृत्यु-दर (3.4 प्रतिशत) स्वाइन फ्लू (0.02) से भले ही ज्यादा हो, लेकिन इबोला (40.40), मर्स (34.4) व सार्स (9.6) से काफी कम है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today India's population density a cause for concern in dealing with Carona Full Article
india news दिल्ली दंगों की मूल वजह पर विचार का समय By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:15:36 GMT क्या यह एक ऐसी समस्या की मूल वजह के बारे में चर्चा का उचित समय है, जबकि देश की राजधानी इसके कारण जल रही है? अब मरने वालों की संख्या 40 से अधिक हो गई है, जो विभाजन के बाद हिंदू-मुस्लिम दंगों में दिल्ली में हुई मौतों की सबसे बड़ी संख्या है? यह देश का सबसे सुरक्षित शहर है। यह सब राष्ट्रपति भवन से 8-10 किलोमीटर के दायरे में हुआ जो हमारे गणतंत्र का गौरव है और जिसके आसपास साउथ और नॉर्थ ब्लॉक स्थित हैं। जहां देश के घरेलू और सैन्य सुरक्षा प्रतिष्ठानों के कार्यालय हैं, जो देश और देश की जनता की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी हैं। क्या इस काम को तब तक के लिए नहीं छोड़ा जा सकता, जब तक कि यह उबाल शांत नहीं हो जाता और सरकार तथा न्यायपालिका समेत विभिन्न प्रतिष्ठान हालात सामान्य नहीं कर लेते? इस वक्त असहज करने वाले सवाल पूछने के अलग जोखिम हैं। कोई मंत्री अथवा सोशल मीडिया के शूरवीरों की टुकड़ी आप पर मनचाहे ढंग से हमला कर सकती है। आप पर भड़काऊ बातें करने से लेकर राजद्रोह तक के आरोप लगा सकती है। अदालत भी आपको नोटिस जारी कर सकती है।हालांकि, हम इतने कायर भी नहीं हैं कि एक अन्य संस्था से यह कुतर्क करें कि वह भी उन नागरिकों की रक्षा में नाकाम रही। जबकि, यह संस्था पीड़ितों से बमुश्किल पांच किमी की दूरी पर थी। ध्यान रहे यहां मामला, मिलीभगत, अक्षमता या विचारधारा का नहीं है। हम आमतौर पर सरकारों पर यही इल्जाम लगाते हैं। यहां मामला उस संस्था द्वारा अपने विवेक का इस्तेमाल न करने और अपनी संस्थागत तथा नैतिक पूंजी को गंवाने का है, जो मौजूदा हालात में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। सीएए-एनआरसी की विष बेल देश की सबसे बड़ी अदालत ने उस वक्त बोई थी, जब न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और रोहिंटन नरीमन की पीठ ने अपनी निगरानी में असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का काम शुरू करने का आदेश दिया। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि न्यायाधीशों ने अचानक उत्पन्न किसी समझ से यह निर्णय नहीं लिया होगा। असम और वहां आव्रजन के उलझे हुए इतिहास में घुसपैठियों का मुद्दा अहम है। 1980 के दशक में इस मुद्दे पर हुए आंदोलन ने असम को पंगु बना दिया था। वहां तीन साल तक सरकार की कुछ नहीं चली थी। उस दौर में असम में उत्पादित कच्चे तेल की एक बूंद भी बाहर रिफाइनरी तक नहीं पहुंची। स्थानीय असमी लोगों में गुस्सा इस बात का था कि बांग्ला भाषी घुसपैठिये स्थानीय संस्कृति, राजनीतिक और अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर चुके हैं। 1985 में हालात तब सामान्य हुए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रदर्शनकारी नेताओं के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए। समझौते के प्रावधानों में एक प्रावधान व्यापक एनआरसी बनाकर अवैध विदेशी नागरिकों की पहचान करने, उनका नाम मतदाता सूची से बाहर करने और उन्हें वापस भेजने का भी था। असम के विशेष संदर्भ में इसकी तारीख 25 मार्च, 1971 तय की गई। इसके पीछे यह सोच थी कि 1947 के बाद से ही दमन से बचने के लिए लाखों हिंदुओं ने पूर्वी पाकिस्तान छोड़कर असम में शरण ली थी। उन्हें भारत में शरण मिलनी चाहिए थी। सरल शब्दों में कहें तो जब तक पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व था, वहां से आने वाले किसी व्यक्ति से कोई सवाल या उस पर कोई संदेह नहीं किया जाना था। 25 मार्च, 1971 के बाद हिंदू अल्पसंख्यकों की देखरेख की जवाबदेही बांग्लादेश सरकार की थी। यानी इस तारीख के बाद देश में आने वाले लोग अवैध विदेशी थे और उन्हें वापस भेजा जाना था। बांग्लादेश उन्हें लेने के लिए प्रतिबद्ध था, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम। समझौते में धर्म के आधार पर कोई भेद नहीं किया गया था। न्यायाधीशों का इरादा भी ऐसा नहीं था।बाकी बातें हाल की हैं। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की निगरानी में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हुई। न्यायालय ने एनआरसी के प्रभारी को अपने अधीन रखा और कहा कि वह मीडिया समेत किसी से बात नहीं कर सकता। इससे पूरी प्रक्रिया को लेकर अस्पष्टता और भय का माहौल बना। अदालत ने यह आदेश भी दिया कि अवैध प्रवासियों के लिए डिटेंशन सेंटर बनाए जाएं। परंतु जब हकीकत सामने आई तो सब कुछ बदल गया। कुछ लोग सामने आए तथ्यों से नाराज थे, लेकिन ताकतवर लोगों को इसमें अवसर नजर आया। जो विदेशी चिह्नित किए गए वे अब तक की गई कल्पना की तुलना में नाममात्र थे। अब तक वैध साबित न हो सके लोगों में से दो तिहाई बंगाली हिंदू निकले। भाजपा को इसमें अवसर नजर आया कि असम के हिंदू घुसपैठियों को नए सीएए की मदद से सुरक्षित किया जा सकता है और इससे मुस्लिमों से निपटाया जाएगा। जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसे एक राज्य के लिए वैध कर दिया तो इसे पूरे देश में क्यों नहीं लागू किया जा सकता है? यह सबको जीतने में सक्षम ध्रुवीकरण का मंत्र बन गया। इसलिए अब हम यहां हैं। सीएए की संवैधानिकता की नई गेंद उसी पाले में उछल रही है। इस बीच, सोचकर बोया गया जहर पूरे देश में फैल रहा है। असम में भी अब भाजपा की सरकार कह रही है कि वह एनआरसी से नाखुश है और इसे दोबारा कराना चाहती है। हम अब तक सर्वोच्च न्यायालय को भी उसकी बात का बचाव करते नहीं देख पाए हैं, जो उसकी निगरानी में हुआ। उसने कभी नहीं कहा कि वह दोबारा एनआरसी की प्रक्रिया नहीं होने देगा या सीएए के माध्यम से अपने काम को समाप्त नहीं होने देगा। दिल्ली का दंगा तो एक घटना है। इसमें बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश को जोड़ लीजिए तो मृतकों की संख्या बहुत बड़ी नजर आएगी। यह एक लंबे अंधकारमय दौर की शुरुआत हो सकती है, इसलिए अब इसकी जड़ों पर विचार करने का समय आ गया है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Time to consider the root cause of Delhi riots Full Article