india news भारत अपनी स्वतंत्र अफगान नीति को दे आकार By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:19:00 GMT कई महीनों तक आगे-पीछे होने के बाद अंतत: अफगानिस्तान में समझौता हो ही गया। तालिबान से समझौते पर दस्तखत कराने में अमेरिका के सफल होने से अगले 14 महीनों में अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी का रास्ता साफ हो गया है। आपसी विश्वास बढ़ाने के लिए दो हफ्तों के संघर्ष विराम के बाद दोहा में इस समझौते पर अमेरिका के विशेष दूत जाल्मे खलीलजाद और तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल घनी बरादर ने दस्तखत किए। इस मौके पर अफगानिस्तान, अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के राजदूत भी मौजूद रहे। समझौते के तहत अगले तीन से चार महीनों में अमेरिका अपने सैनिकों की संख्या को 13,000 से घटाकर 8600 करेगा और 14 महीनों के भीतर इन्हें पूरी तरह हटा लेगा। हालांकि, इसके लिए तालिबान को पूरी तरह से अलकायदा का त्याग करना होगा और साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल अमेरिका या उसके सहयोगियों पर हमले के लिए इस्तेमाल न हो।अमेरिका ने तालिबान पर लगे प्रतिबंधों को हटाने और बहुपक्षीय प्रतिबंधों को हटाने में मदद करने की बात कही है। इस समझौते में कैदियों की अदला-बदली का भी प्रावधान है। 10 मार्च से आेस्लो में अफगान सरकार और तालिबान के बीच शुरू होने वाली वार्ता से पहले 5000 तालिबान और 1000 अफगान सैनिकों की अदला-बदली होगी। अमेरिका ने इस समझौते के दौरान संतुलन साधने की भी कोशिश की। दोहा में जब समझौते पर दस्तखत हो रहे थे, तब अमेरिका के रक्षामंत्री मार्क एस्पर काबुल में अफगान राष्ट्रपति अशरफ घनी के साथ अफगान सरकार को समर्थन का भरोसा दे रहे थे। वह यह साफ करने की कोशिश कर रहे थे कि इन उम्मीदभरे क्षणों के बावजूद यह सिर्फ शुरुआतभर है और अफगानिस्तान में शांति हासिल करने के लिए धैर्य के साथ ही सभी पक्षों को कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ेगा।अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए चुनावी वर्ष में यह एक अहम समझौता है। अपने पिछले चुनाव के प्रचार में उन्होंने इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की अंतहीन लड़ाई को खत्म करने का वादा किया था। अब वह मतदाताओं से कह सकते हैं कि उन्होंने अपना वादा पूरा किया। उन्होंने उम्मीद जताई है कि तालिबान कुछ ऐसा करना चाहता है, जिससे दिखेगा कि हमने समय खराब नहीं किया, लेकिन साथ ही आगाह किया कि ‘अगर बुरी चीजें हुईं तो हम इतनी ताकत के साथ वापस आएंगे, जैसा किसी ने देखा नहीं होगा।’ इन वार्ताओं का किसी सहमति पर पहुंचना 18 साल के अफगान युद्ध का महत्वपूर्ण पड़ाव है। इस दौरान अमेरिका ने लड़ाई पर न केवल एक ट्रिलियन डॉलर खर्च किए, बल्कि 2500 अमेरिकी सैनिकों और दसियों हजार अफगान सैनिकों व नागरिकों ने जान गंवाई। तालिबान के लिए भी यह समझना जरूरी है कि वार्ता ही अफगानिस्तान में उनकी राजनीतिक भूमिका के लिए सबसे तेज रास्ता होगा। अब अंतर-अफगान वार्ता का मंच तैयार हो चुका है और यह बहुत ही कठिन होने जा रही है। मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं। अफगान राष्ट्रपति ने कैदियों की अदला-बदली को वार्ता की पूर्व शर्त मानने से इनकार कर दिया है और कहा है कि यह वार्ता का हिस्सा हो सकता है। वह इन वार्ताओं में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके और छूट हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कैदियों की रिहाई अमेरिका का नहीं, अफगानिस्तान सरकार का अधिकार है।आगे चुनौतियां केवल गंभीर होने जा रही हैं। असल में अफगानिस्तान में दो तरह के राजनीतिक विचार हैं। एक तालिबान का इस्लामिक अमीरात और दूसरा लोकतांत्रिक अफगानिस्तान। इन दोनों का मेलमिलाप कठिन है और तालिबान शासन की यादें आज भी ताजा हैं। सामान्य अफगान, विशेषकर पिछले दो दशकों में बड़ी होने वाली महिलाएं अपनी आजादी को लेकर चिंतित हैं। तालिबान द्वारा इस समझौते को अपनी विजय घोषित किए जाने के बाद से उन्हें इनके इरादों पर भरोसा करना मुश्किल हो रहा है। तालिबान को लेकर भारत की चिंताएं सबको पता हैं और इसमें कोई कमी नहीं हुई है। समझौते पर भारत की प्रतिक्रिया भी सतर्कता भरी रही। अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा से भारत को अपनी चिंताओं से उसे अवगत कराने का भी मौका मिला है। पिछले दो दशकों में भारतीय कूटनीतिक समुदाय अमेरिका को अफगानिस्तान नीति बनाने के लिए समय-समय पर सलाह देते रहे हैं, लेकिन समय आ गया है कि भारत को अब अपनी स्वतंत्र अफगान नीति को आकार देना होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अमेरिका और तालिबान के बीच 1 मार्च को शांति समझौते हुआ- फाइल फोटो। Full Article
india news ठोस तर्क व तथ्य वाली सलाह ही दें By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:20:04 GMT ऐसा कहते हैं कि पहले का समय श्रद्धा का था, आज का दौर तर्क का है। पहले लोगों की जीवन शैली में श्रद्धा और विश्वास की प्रधानता थी। लोग सहज मान लेते थे कि ये भगवान हैं, ये गुरु हैं, ये माता-पिता हैं और पूरी श्रद्धा के साथ उनसे संबंध निभाते थे। धीरे-धीरे समय बदला और लोगों के जीवन में तर्क व विज्ञान की प्रधानता हो गई। आज तो बच्चे अपने माता-पिता के प्रति जो संबंध निभाते हैं, उसमें भी विज्ञान और तर्क की बातें करते हैं।जीवन में संबंधों को निभाते हुए कभी-कभी एक-दूसरे को सलाह देना पड़ती है और एक-दूसरे की राय मानना भी पड़ती है। लेकिन अब उस श्रद्धा और विश्वास का दौर नहीं रहा कि किसी को सलाह दें और वह सहज ही मान ले। इसलिए सलाह ऐसी होनी चाहिए कि सामने वाले को भरोसा भी हो और सुखद भी लगे। लंका के युद्ध मेंं मेघनाद यज्ञ कर रहा था। विभीषण ने सलाह देते हुए रामजी से कहा- यदि मेघनाद का यज्ञ सिद्ध हो गया तो फिर उसे आसानी से जीत पाना मुश्किल हो जाएगा।इस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना।।’ विभीषण की सलाह सुन श्रीराम को बहुत सुख हुआ और उन्होंने अंगद आदि वानरों को बुलाया। यहां ‘राम को सुख हुआ’ वाली बात हमारे बड़े काम की है। जब भी किसी को कोई सलाह दें, उस सलाह में ठोस तर्क, कोई वैज्ञानिक तथ्य होना चाहिए। सबसे बड़ी बात वह सलाह सामने वाले के लिए सुखकारी हो..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Give sound reasoning and sound advice Full Article
india news ‘अनलाइकली हैंडशेक्स’ बिजनेस के लिए, जिंदगी के लिए नहीं By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:25:00 GMT रविवार को देर शाम मैं भोपाल एयरपोर्ट से रेलवे स्टेशन जा रहा था, जहां से मुझे एक कार्यक्रम के लिए सतना पहुंचना था। तब वहां तेज बारिश हो रही थी। मेरी आदत है कि जब मैं ट्रेन से सफर करता हूं तो ज्यादा वजन लेकर नहीं चलता, क्योंकि मुझे रेलवे प्लेटफॉर्म्स पर अपना सूटकेस खींचना कई कारणों से पसंद नहीं है। इनमें से एक कारण स्वच्छता भी है। मैं यह हल्की अटैची भी कुली से उठवाता हूं, न सिर्फ इस अच्छी मंशा के लिए कि इससे उस कुली की कुछ आय हो जाएगी, बल्कि इसलिए भी कि मेरी अटैची के व्हील्स को गंदे रेलवे प्लेटफॉर्म्स पर न खींचना पड़े।मैं बेमौसम तेज बरसात के बीच जब भोपाल स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर चल रहा था, तभी मैंने एक खबर पढ़ी। लिखा था कि टेक्सटाइल से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक, इंसानों के लिए दवाओं से लेकर पौधों के लिए कीटनाशकों तक और जूतों से लेकर सूटकेस तक, भारत सरकार ऐसे करीब 1,050 आइटम्स दुनियाभर में तलाश रही है, क्योंकि चीन से आने वाली सप्लाई कोरोना वायरस की वजह से प्रभावित हुई है। भारत के आयात में 50 फीसदी हिस्सेदारी चीन से होने वाली सप्लाई की होती है।खबर के मुताबिक कुछ क्षेत्रों में सरकार खरीदी में ज्यादा प्राथमिकता दिखाएगी, लेकिन जहां संभव हो, वहां स्थानीय उत्पादन को भी बढ़ावा देगी। और यही भारतीय व्यापार के लिए अनपेक्षित व्यापार उद्योगों से ‘अनलाइकली हैंडशेक्स’ (हाथ मिलाने के असंभव लगने वाले अवसर) का मौका है। जैसा कि 53 वर्षीय कुमार मंगलम बिड़ला भी सलाह देते हैं। करीब 6 अरब डॉलर की नेटवर्थ वाले उद्योगपति बिड़ला ने हाल में सोशल मीडिया पर 10 पेज लंबा लेख साझा किया है, जिसमें उन्होंने पिछले कुछ सालों में जो कुछ सीखा है, उसका सार बताया है।बिड़ला मानते हैं कि उनके सभी बिजनेस की ग्रोथ का अगला चरण ‘अनलाइकली हैंडशेक्स’ से आएगा। वे लिखते हैं, ‘बिजनेस में वैल्यू बनाने का नए युग का तरीका ग्रोथ के ऐसे बेमेल साधनों से आएगा, जो बहुत अलग तरह के ‘लगने वाले’ उद्योगों और कंपनियों से उत्पन्न होंगे।’ वे अपनी बात समझाने के लिए हेल्थ इंश्योरेंस बिजनेस का उदाहरण देते हैं, जो फिटनेस वियरेबल कंपनीज, जिम, फार्मेसी, डायटिशियंस और वेलनेस कोच का इकोसिस्टम बना रहा है।जहां बिजनेस में ज्यादा से ज्यादा ‘अनलाइकली हैंडशेक्स’ की सलाह दी जा रही है, वास्तविक जीवन में न सिर्फ सरकार और प्राइवेट संस्थाएं, बल्कि चीन, फ्रांस, ईरान और दक्षिण कोरिया जैसे देश लोगों से मिलने के दौरान ‘हाथ मिलाने’ के विरुद्ध चेतावनी दे रहे हैं। कोरोना वायरस की वजह से दुनियाभर में लोग हाथ मिलाना बंद कर रहे हैं।पुणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (पीएमसी) और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे संस्थान लोगों से दोस्तों, सहकर्मियों और रिश्तेदारों का अभिवादन करने के लिए पारंपरिक नमस्ते अपनाने पर जोर देने को कह रहे हैं। पीएमसी स्वास्थ्य, शिक्षा और महिला एवं बाल विकास से जुड़े सार्वजनिक महकमों में काम कर रहे लोगों के बीच हाथा मिलाना, फिस्ट बंप (मुटि्ठयां टकराना) और गले लगना बंद करने को लेकर जागरूकता लाने का काम रहा है। उनकी प्राथमिकता न सिर्फ कोरोना वायरस से बल्कि स्वाइन फ्लू और अन्य वायरस व कीटाणुओं से बचना है, जो श्वास संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं। मुंबई में कई संस्थानों ने साफ-सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ाई है और अपने कर्मचारियों में स्वच्छता की आदत को बढ़ावा देने के लिए बार-बार साबुन से हाथ धोने पर जोर दे रहे हैं।इससे मुझे याद आया कि कैसे हमारे माता-पिता छोटी-छोटी बात पर भी हमसे हाथ धोने को कहते थे। मेरी मां इस मामले में इतनी सख्त थीं कि मुझे स्कूल जाते समय जूतों के फीते बांधने के बाद भी हाथ धोने पड़ते थे। उनका तर्क था कि मैं इन्हीं हाथों से किताबें पकड़ूंगा, जिससे मां सरस्वती का अपमान होगा। अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो सोचता हूं कि वे दरअसल बैक्टीरिया को हाथों के जरिये किताबों तक जाने से रोक रही थीं, क्योंकि किताबें कभी-कभी तकिए के पास या बिस्तर पर भी रखी जाती हैं। मेरे घर में न सिर्फ खाने का कोई सामान छूने से पहले हाथ धोना जरूरी था, बल्कि किचन के अंदर जाने से पहले पैर और हाथ धोने का भी नियम था, यहां तक कि मेरे पिता के लिए भी। वे भी इन नियमों का पूरी तत्परता से पालन करते थे।फंडा ये है कि बिजनेस की ग्रोथ के लिए ‘अनलाइकली हेंडशैक्स’ करने होंगे, जबकि खुद की देखभाल के लिए इनसे बचना होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today 'Unlicensed handshakes' for business, not for life Full Article
india news ‘गुड न्यूज’ और ‘परवरिश’ का लिंक By Published On :: Mon, 02 Mar 2020 21:33:00 GMT कुछ महीने पूर्व प्रदर्शित फिल्म ‘गुड न्यूज’ में स्पर्म प्रयोगशाला में समान सरनेम होने के कारण स्पर्म की अदला-बदली हो जाती है। यह फिल्म ‘विकी डोनर’ नामक फिल्म की एक शाखा मानी जा सकती है। मेडिकल विज्ञान की खोज से प्रेरित फिल्में बन रही हैं। ‘गुड न्यूज’ साहसी विषय है। चुस्त पटकथा एवं विटी संवाद के कारण दर्शक प्रसन्न बना रहता है। समान सरनेम होने से प्रेरित एक अन्य कथा में तलाक लिए हुए पति-पत्नी को रेल के एक कूपे में आरक्षण मिल जाता है। वे एक-दूसरे की यात्रा से अनजान थे। ज्ञातव्य है कि भारतीय रेलवे के प्रथम श्रेणी में कूपे का प्रावधान होता था, जिसमें दो-दो यात्री सफर करते हैं। कूपे के इस सफर के दौरान उन दोनों के बीच की गलतफहमी दूर हो जाती है और वे पुन: विवाह करके साथ रहने का निर्णय लेते हैं।किसी भी रिश्ते का आधार समान विचारधारा नहीं वरन् परस्पर आदर और प्रेम होता है। एक ही राजनीतिक विचारधारा को मानने वालों में भी मतभेद हो सकता है, परंतु पहले से तय किए समान एजेंडा के लिए वे साथ मिलकर काम कर सकते हैं। वैचारिक असमानता का निदान हिंसा में नहीं वरन् आपसी बातचीत द्वारा स्थापित करने में निहित है। आचार्य कृपलानी और उनकी पत्नी की राजनीतिक विचारधारा परस्पर विरोधी थी, परंतु इस कारण उनके विवाहित जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। शौकत आज़मी सामंतवादी परिवार में जन्मी थीं, परंतु उनका प्रेम विवाह वामपंथी कैफी आज़मी से हुआ था।विगत सदी के छठे दशक में एक फिल्म ‘परवरिश’ में राज कपूर, महमूद और राधा कृष्ण ने मुख्य भूमिकाएं अभिनीत की थीं। कथासार यूं था कि एक अस्पताल के मेटरनिटी वार्ड में एक समय दो शिशुओं का जन्म होता है। एक शिशु की माता संभ्रांत परिवार की सदस्य थी तो दूसरी एक तवायफ थी। दोनों की पहचान गड़बड़ा जाती है और विवाद का यह हल निकाला जाता है कि दोनों शिशुओं का लालन-पालन सुविधा संपन्न परिवार में होगा। वयस्क होने पर उनकी पहचान कर ली जाएगी। तवायफ का भाई कहता है कि वह अपने भांजे के हितों की रक्षा के लिए संपन्न परिवार में ही रहेगा। कथा में यह पेंच भी था कि वह तवायफ उसी साधन संपन्न व्यक्ति की रखैल थी। अतः पिता एक ही है, परंतु माताएं अलग-अलग हैं। ज्ञातव्य है कि परवरिश के पहले महमूद ने कुछ फिल्मों में एक या दो दृश्यों में दिखाई देने वाले पात्र अभिनीत किए थे। गुरु दत्त की एक फिल्म में उन्होंने मात्र दो दृश्य अभिनीत किए थे। अपने संघर्ष के दिनों में महमूद कुछ समय तक मीना कुमारी के ड्राइवर भी रहे।‘परवरिश’ में वयस्क होते ही राज कपूर अभिनीत पात्र समझ लेता है कि पहचान के निर्णय के बाद महमूद अभिनीत पात्र का जीवन अत्यंत संघर्षमय हो जाएगा। अत: वह पात्र शराबी, कबाबी और चरित्रहीन होने का स्वांग रचता है। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म का संगीत शंकर-जयकिशन के सहायक दत्ता राम ने रचा था। इस फिल्म में हसरत जयपुरी का लिखा और मुकेश का गाया गीत-‘आंसू भरी हैं जीवन की राहें, उन्हें कोई कह दे कि हमें भूल जाएं’ अत्यंत लोकप्रिय हुआ था।रणधीर कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘धरम-करम’ में भी दो शिशुओं का जन्म एक ही समय में होता है। एक का पिता संगीतकार है तो दूसरे का पिता पेशेवर मुजरिम है। मुजरिम संगीतकार के शिशु को अपने बच्चे से बदलकर भाग जाता है। उसे विश्वास है कि संगीतकार के घर पाले जाने पर उसका पुत्र एक कलाकार बनेगा। वह अपने साथियों से कहता है कि संगीतकार के शिशु को बचपन से ही अपराध के रास्ते पर अग्रसर होने दो। प्रेमनाथ अभिनीत ये पात्र कहता है कि उसने शिशुओं की अदला-बदली करके ‘ऊपर वाले का डिजाइन बदल दिया है’। कालांतर में अपराध जगत के परिवेश में पला बालक संगीत विधा में चमकने लगता है और प्रेमनाथ का पुत्र संगीतकार के घर में पलने के बावजूद अपराध प्रवृत्ति की ओर आकर्षित हो जाता है।यह आश्चर्य की बात है कि राज कपूर ने प्रयाग राज की लिखी ‘धरम-करम’ का निर्माण किया था, जबकि कथा उनकी सर्वकालिक श्रेष्ठ रचना ‘आवारा’ की कथा के विपरीत धारणा अभिव्यक्त करती है। ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी ‘आवारा’ का आधार यह है कि परवरिश के हालात मनुष्य की विचारधारा को ढालते हैं। फिल्म में जज रघुनाथ का बेटा गंदी बस्ती में परवरिश पाकर आवारा बन जाता है। जज रघुनाथ ने एक फैसला दिया था जिसमें एक निरपराध व्यक्ति को वे केवल इसलिए सजा देते हैं कि उसका पिता जयराम पेशेवर अपराधी था। उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए उनके अपने पुत्र का पालन पोषण अपराध की दुनिया में किया जाता है। दरअसल ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रगतिवादी पटकथा ‘ब्लू ब्लड’ मान्यता की धज्जियां उड़ा देती है कि अच्छे व्यक्ति का पुत्र अच्छा और बुरे का पुत्र बुरा होता है। इस तरह ‘धरम-करम’ राज कपूर की श्रेष्ठ फिल्म ‘आवारा’ के ठीक विपरीत विचारधारा को अभिव्यक्त करती है।मनुष्य पर कई बातों के प्रभाव पड़ते हैं। जब हम प्याज की सारी परतें निकाल देते हैं तो प्याज ही नहीं बचता, परंतु हाथ में प्याज की सुगंध आ जाती है जो प्याज का सार है। मनुष्य व्यक्तित्व भी प्याज की तरह होता है और उसका सार भी प्याज की सुगंध की तरह ही होता है। व्यक्तिगत प्रतिभा अपनी परंपरा से प्रेरणा लेकर अपने निजी योगदान से उस परंपरा को ही मजबूत करती हुई चलती है। बहरहाल, गुड न्यूज यह है कि विज्ञान की नई खोज से प्रेरित फिल्में बन रही हैं और अवाम उन्हें पसंद भी कर रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Link to 'Good News' and 'Upbringing' Full Article
india news बात उन गलियों की, जहां नफरत की आग हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को छू भी न सकी By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 07:21:37 GMT नई दिल्ली. उत्तर-पूर्वीदिल्ली के कई इलाके जब दंगों की आग में झुलस रहे थे तो कुछ मोहल्ले ऐसे भी थे, जिन्होंने इंसानियत और आपसी भाईचारे को इस आग से बचाए रखा। ऐसा ही एक मोहल्ला चंदू नगर में है, जहां लोगों ने अपने पड़ोसियों के दशकों पुराने रिश्तों पर नफरत को हावी नहीं होने दिया। यहां करीब 40 मुस्लिम परिवारों के बीच सिर्फ तीन हिंदू परिवार रहते हैं। राजबीर सिंह का परिवार भी इनमें से एक है, जो 1981 से यहां रह रहा है। मूल रूप से बुलंदशहर के रहने वाले राजबीर बताते हैं, ‘‘इस मोहल्ले में हम सिर्फ तीन हिंदू परिवार हैं, लेकिन हमें कभी यहां असुरक्षा महसूस नहीं हुई। 90 के दशक में भी जब दंगे भड़के थे, तब भी हमारे पड़ोसियों ने हम पर आंच नहीं आने दी थी। इस बार भी ऐसा ही हुआ। जब दंगे भड़के तो पास के ही जमालुद्दीन और मुर्शीद भाई हमारे घर आए। उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि राजबीर भाई,आपको घबराने की कोई जरूरत नहीं है। यहां कोई आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता।’’चंदू नगर का ये वही इलाका है, जहां खजूरी खास से पलायन करके आए कई मुस्लिम परिवार भी शरण लेकर रह रहे हैं। इन तमाम परिवारों के घर जब दंगाइयों ने जला दिए तो ये अपनी जान बचाकर किसी तरह यहां पहुंचे। इनमें से कुछ परिवार यहां अपने रिश्तेदारों के घर पर रह रहे हैं तो कुछ मस्जिद में पनाह लिए हुए हैं। राजबीर सिंह कहते हैं, ‘‘जब दंगों की शुरुआत हुई तो भी मुझे यहां घबराहट नहीं हुई। मुझे अपने पड़ोसियों पर भरोसा है। जब आसपास के कई मुस्लिम परिवार यहां शरण लेने आने लगे तो मुझे थोड़ी घबराहट महसूस हुई। ये वे लोग थे, जिनके घर हिंदुओं ने जलाए थे। इनमें स्वाभाविक ही बेहद गुस्सा रहा होगा। तब विचार आया कि शायद मुझे यहां से परिवार को लेकर निकल जाना चाहिए। मैंने अपने पड़ोसी इसफाक भाई से इस बारे बात की,लेकिन उन्होंने मुझे जाने नहीं दिया। वे बाकी लोगों को लेकर हमारे घर आए और हमसे कहा कि अगर दंगाई बाहर से इस मोहल्ले में घुसे तो आप पर हमला होने से पहले हमारी जान जाएगी।’’चंदू नगर में रहने वाले राजबीर सिंह और उनकी पत्नी।राजबीर सिंह के पड़ोसी मोहम्मद इसफाक कहते हैं, ‘‘हम लोग पिछले 40 साल से साथ रह रहे हैं। हमारे बीच हिंदू-मुस्लिम का कोई फर्क नहीं है। हमारे घर पर बनी ईद की सेवई राजबीर भाई के घर जाती है और उनकी होली की गुजिया हमारे घर आती है। कभी अचानक तबीयत बिगड़ जाए या कोई मुश्किल पड़ जाए तो सबसे पहले राजबीर भाई ही हमारे और हम उनके काम आते हैं। दशकों पुराने रिश्ते को हम इस नफ़रत की आग में कैसे झोंक सकते हैं।’’मोहम्मद कपिल और उनका परिवार।चारों तरफ फैली नफरत के बीच चंदू नगर की इस गली में आपसी भाईचारे को मजबूत देखना उम्मीद जगाता है। ठीक ऐसी ही उम्मीद बृजपुरी के डी ब्लॉक की गली नंबर आठ में भी नजर आती है। बृजपुरी वही इलाका है, जहां दंगाइयों ने हिंदू समुदाय के लोगों को निशाना बनाया है और उनके घर, दुकान के साथ ही यहां कई स्कूल भी जला दिए। इस माहौल के बीच भी गली नंबर आठ में रहने वाले परिवारों का आपसी भाईचारा इतना मजबूत बना रहा कि नफरत की चौतरफा आग उन्हें छू भी नहीं सकी।बृजपुरी की इस गली में करीब 45 हिंदू परिवारों के बीच सिर्फ दो मुस्लिम परिवार रहते हैं। इन दोनों ही परिवारों की सुरक्षा यहां के स्थानीय लोगों ने इतनी मजबूती से की है कि रात-रात भर ये लोग खासतौर से इन घरों के बाहर तैनात रहे। यहां रहने वाले मोहम्मद कपिल कहते हैं, ‘‘अब्बू ने 1983 में यहां घर लिया था। मेरी तो पैदाइश ही यहां की है। मेरे सारे दोस्त हिंदू हैं और मोहल्ले के लोगों से परिवार जैसे रिश्ते हैं। जब यहां दंगे भड़के तो हमें खयाल भी नहीं आया कि हमें यहां से कहीं चले जाना चाहिए क्योंकि हमें अपने आस-पड़ोस के लोगों पर इतना भरोसा है। इन दंगों में जब आस-पास के लोग हिंदू-मुस्लिम के नाम पर लड़ रहे थे तो हमारे मोहल्ले में हिंदू-मुस्लिम साथ मिलकर दंगाइयों के खिलाफ खड़े थे।’’इसी गली में दूसरा घर 70 साल के यामीन का है। वे कहते हैं, ‘‘गली के बाहर आपने देखा होगा कितने घर और दुकानें दंगाइयों ने जलाकर राख कर दी हैं। हजारों की तादाद में दंगाई यहां आए थे और उन्होंने निशाना बनाकर बाहर हिंदुओं की दुकानें जलाई। सोचिए, ऐसे में हिंदू भाइयों के मन में कितना गुस्सा रहा होगा। लेकिन उन्होंने फिर भी हमारे घरों की खुद अपने घरों से बढ़कर सुरक्षा की। हमारी जिंदगीभर की कमाई यही है कि हमें ये भाईचारा और आपसी मोहब्बत मिली।’’इन दंगों ने जहां कई लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति नफरत की एक दीवार खड़ी कर दी, वहीं चंदू नगर और बृजपुरी की इन गलियों में लोगों के आपसी रिश्ते अब शायद पहले से भी ज्यादा मजबूत हो गए। ये उस भरोसे के चलते हुआ, जो इन लोगों ने एक-दूसरे पर बनाए रखा। कहा जाता है कि इंसान की असल पहचान मुश्किल वक्त में होती है। चंदू नगर और बृजपुरी के इन लोगों ने अपनी यह खूबसूरत पहचान इस मुश्किल वक्त में साबित करके दिखाई है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Delhi Violence Chandu Nagar Ground Report | Hindu Family On Muslim Neighbours During Delhi Riots Full Article
india news कर्मचारियों को परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील बनाएं By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 22:51:00 GMT मंगलवार सुबह मैं भोपाल एयरपोर्ट के पहले फ्लोर पर बैठा था और बोर्डिंग एनाउंसमेंट का इंतजार कर रहा था। साथ ही मैं एक खबर पढ़ रहा था, जिसमें बताया गया था कि सोमवार को सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एंटरटेनमेंट स्ट्रीमिंग इंडस्ट्री को सभी ओवर-द-टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म के मालिकों के लिए न्ययायिक निकाय स्थापित करने और कोड ऑफ कंडक्ट को अंतिम रूप देेने के लिए सौ दिन का समय दिया है। यह सब उस कंटेंट के लिए करना होगा, जो इंटरनेट वाली स्क्रीन्स से पहुंचता है, जिसमें हमारी मोबाइल स्क्रीन्स भी शामिल हैं।मेरे सामने महिलाओं के कपड़ों की एक दुकान थी, जिसे तीन युवा सेल्स प्रोफेशनल चला रहे थे। इनमें दो लड़कियां थीं, जो एक ही फोन से चिपकी हुईं कुछ देख रही थीं। मेरा ध्यान इस बात ने आकर्षित किया कि ये युवा सेल्स प्रोफेशनल्स सुबह 7 बजे से वहां थे और उनमें से दो जम्हाई ले रहे थे, जो संकेत था कि उनके शरीर को पूरा आराम नहीं मिला है।ऐसी स्थिति में उन्होंने विशुद्ध मनोरंजन वाला कंटेंट देखना चुना है। मुझे जिज्ञासा हुई और मैंने पूछा कि वे क्या देख रही हैं। उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘टाइम पास’। क्या आप भी मेरी तरह सोच रहे हैं कि कोई सुबह 7 बजे ‘टाइम पास’ कैसे कर सकता है? खासतौर पर तब, जब आसपास का हर यात्री सुबह का न्यूज पेपर पढ़ रहा हो या फिर मोबाइल फोन पर अपने किसी साथी से काम की बात करने में व्यस्त हो।इससे मैंने कुछ गुणा-भाग किया। एयरपोर्ट की दुकानें आम बाजारों की तरह नहीं होतीं, जहां बहुत भीड़ आए। बिक्री कभी भी बुहत ज्यादा नहीं होती, क्योंकि वहां लक्जरी या सुपर लक्जरी आइटम्स मिलते हैं। केवल खाने के काउंटर्स छोड़कर, जिन पर किसी भी एयरपोर्ट पर ज्यादा भीड़ होती है। लेकिन लक्जरी दुकानों पर ये अच्छा बोलने वाले युवा दिन का ज्यादातर समय बहुत कम ग्राहकों के साथ बिताते हैं और बचा हुआ समय अंतत: उन्हें मोबाइल कंटेंट की ओर खींचता है।इसका सीधा मतलब है कि एयरपोर्ट की दुकान का मालिक भी नहीं जानता कि वह अपनी सेल्स फोर्स से ज्यादा काम कैसे ले। एक नजर में कोई भी समझ सकता है कि ये सेल्स प्रोफेशनल उसी को सेवाएं देते हैं, जो उनकी दुकान में खुद आते हैं, लेकिन वे कभी इंतजार कर रहे यात्रियों को दुकान में आने के लिए नहीं ललचाते। दुकान मालिक के नजरिये से ये मैन पॉवर की बर्बादी है।इसलिए इन युवाओं को भी दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे इस उम्र में आसानी से और हमसे ज्यादा तेजी से बोरियत की स्थिति में पहुंच जाते हैं। यही कारण है कि वे मोबाइल स्क्रीन पर कंटेंट दे रहे कई प्रोवाइडर्स के बीच भटकते रहते हैं और इससे उनकी नई कौशल सीखने की प्रक्रिया पूरी तरह रुक जाती है। मुझे इन युवाओं के लिए बुरा लगता है, क्योंकि अगर कल आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस ने उनकी नौकरियां ले लीं तो इन युवाओं के पास नई नौकरी के लिए कोई अतिरिक्त कौशल ही नहीं होगा।आज यह स्थिति सिर्फ एयरपोर्ट्स पर ही नहीं, हर जगह है। मॉल में, बस स्टैंड के वेटिंग एरिया या यात्रा के दौरान, मोबाइल कंटेंट देखने की ये आदत खतरा बनती जा रही है। यहां तक कि सिक्योरिटी गार्ड भी इसमें लगे रहते हैं, जिससे लूट और सुरक्षा के अन्य खतरों की आशंका बढ़ रही है। रोचक बात यह है कि आर्थिक रूप से सबसे निचले स्तर पर मौजूद लोग या कामकाजी लोगों को ही मोबाइल स्क्रीन की लत ज्यादा हो रही है चूंकि इंटरनेट हमारे लिए अभी भी मुफ्त है।फंडा यह है कि कर्मचारियों को परिस्थिति के प्रति संवेदनशील बनाएं और उन्हें नई जिम्मेदारियों में व्यस्त रखें। मुझे भरोसा है कि वे आपके बिजनेस को फायदेमंद बनाने के नजरिये से ज्यादा जिम्मेदार बनेंगे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news बागी टाइगर श्राफ और आधुनिका सोनम कपूर By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 22:54:00 GMT जैकी श्राफ और आयशा के पुत्र का जन्म नाम जय हेमंत श्राफ है, परंतुु वे टाइगर श्राफ के नाम से ही जाने जाते हैं। उसकी शक्ल अपनी मां आयशा से बहुत मिलती है। उसका जन्म 2 मार्च 1990 को हुआ है। 20 वर्ष की आयु में उसने सफलता अर्जित की है। वह अपनी फिल्मों की कामयाबी से अधिक अपनी भलमनसाहत के लिए जाने जाते हैं। टाइगर की फिल्म ‘बागी-3’ 6 मार्च को प्रदर्शित होने जा रही है।अपनी पहली सफलता के बाद टाइगर सुभाष घई से मिलने गए और बिना किसी पारिश्रमिक फिल्म में काम करने का प्रस्ताव रखा। ज्ञातव्य है कि जैकी श्राफ को ‘हीरो’ नामक फिल्म में पहला अवसर सुभाष घई ने दिया था। इस तरह टाइगर अपने पिता को अवसर देने के लिए सुभाष घई को धन्यवाद देना चाहते थे। सुभाष घई के पास टाइगर के लिए कोई कहानी नहीं थी। उन्होंने विनम्रता से टाइगर के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।टाइगर की फिल्म ‘फ्लाइंग जट’ पंजाब में गांजा और हशिश का सेवन करते हुए लाइलाज बीमारों की त्रासदी प्रस्तुत करती है। गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ में भी इस समस्या को समझने का प्रयास किया गया था। तर्कसम्मत वैज्ञानिक सोच के अभाव में यह प्रयास सतही बनकर रह गया, परंतु इस फिल्म का गीत-संगीत आज भी गुनगुनाया जाता है। चप्पा-चप्पा चरखा चले... बहुत लोकप्रिय हुआ। जैकी श्राफ को पहली बार देव आनंद की फिल्म ‘स्वामी दादा’ में एक छोटी भूमिका अभिनीत करते देखा गया था। उन्हीं दिनों मनोज कुमार की फिल्म ‘पेंटर बाबू’ प्रदर्शित हुई थी।इस असफल फिल्म में मीनाक्षी शेषाद्रि ने अभिनय किया था। यह सुभाष घई का साहस था कि उन्होंने जैकी श्राफ और मीनाक्षी के साथ सफल सुरीली ‘हीरो’ बनाई। मीनाक्षी शेषाद्रि को लेकर राजकुमार संतोषी ने घायल, घातक और दामिनी का निर्माण किया। ज्ञातव्य है कि मीनाक्षी शेषाद्रि ने सितारा बन जाने के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखी। राजकुमार संतोषी ने मीनाक्षी से विवाह की बात की थी, परंतु मीनाक्षी ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। संभवत: मीनाक्षी ने संतोषी की ताकत और कमजोरी को पकड़ लिया था। उसका अपना रुझान अध्ययन और बेहतर इंसान बनने की तरफ था।अनिल कपूर और जैकी श्राफ दोनों ने ही प्रेम विवाह किए। अनिल कपूर की पत्नी योग जानती हैं और अच्छी सेहत के लिए क्या खाया जाए, पकाया जाए इसकी उन्हें गहरी समझ है। वे युवा लोगों को प्रशिक्षित भी करती हैं। जैकी की पत्नी आयशा का रुझान काम करने में नहीं है, परंतु वे अपने पुत्र व पति का ध्यान अवश्य रखती हैं। टाइगर श्राफ ने साजिद नडियाडवाला से मुलाकात की और उन्हें अपने एथलेटिक्स के ज्ञान का परिचय दिया। अनुभवी साजिद ने समझ लिया कि टाइगर के साथ एक्शन फिल्म बनाना लाभप्रद हो सकता है। टाइगर के एक्शन दृश्य की शूटिंग में कभी बॉडी डबल या डुप्लीकेट को नहीं लिया गया।जैकी श्राफ और अनिल कपूर ने भी कुछ फिल्मों में काम किया है। जैकी श्राफ अत्यंत सादगी पसंद व्यक्ति हैं। सितारा बन जाने के बाद भी वे यादकदा बीड़ी पीते रहे और अपने सभी परिचितों को भिड़ू कहकर पुकारते हैं। यह जुबान उन्होंने तीन बत्ती क्षेत्र में रहते हुए अपनाई थी। जैकी श्राफ अनकट डायमंड की तरह हैं और उनका पुत्र भी उन्हीं की तरह सरल तथा स्वाभाविक व्यक्ति है। ‘बागी-3’ टाइगर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण फिल्म है, क्योंकि उनकी विगत फिल्म ने आशानुरूप व्यवसाय नहीं किया था। टाइगर के पक्ष में उसका कम उम्र होना जाता है। टाइगर के नाक-नक्श तिब्बत के लोगों की तरह हैं। डैनी डेन्जोगप्पा तिब्बत के हैं, परंतुु उनका चेहरा-मोहरा औसत भारतीय लोगों की तरह है।अभी तक जैकी श्राफ और टाइगर साथ-साथ नहीं आए हैं। जैकी, टाइगर और अनिल अपनी पुत्रियों सहित किसी फिल्म में अभिनय करके एक नया समीकरण प्रस्तुत कर सकते हैं। निर्माता बोनी कपूर के लिए यह करना सुविधाजनक होगा। बोनी कपूर की फुटबॉल केंद्रित ‘मैदान’ की अधिकांश शूटिंग हो चुकी है। बहरहाल, टाइगर श्राफ ने एक्शन के साथ भावनात्मक भूमिकाओं में भी अब बेहतर अभिनय करना शुरू कर दिया है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अभिनेता टाइगर श्राफ। Full Article
india news गई रात तारे गिनते-गिनते जल गईं कुछ अंगुलियां By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 22:59:00 GMT समग्र के नकार और केवल टुकड़ों को वास्तविक बताने की राजनीति आज़ादी के पहले भी थी और आज भी है। अन्याय के अनवरत शिकार इन छोटे-छोटे समूहों को नेता पहले उकसाते हैं, फिर कोरे आश्वासनों की अफ़ीम खिलाते हैं और अंतत: इन्हें अतिवाद की हद तक जाने देते हैं। चूंकि उनकी मांगें मानी नहीं जातीं, इसलिए वे राज-काज के पूरे तंत्र और आख़िरकार पूरे देश को ही अन्यायपूर्ण बताने लगते हैं। सही है, किसी सरकार को निकम्मी कहना, शब्दों को जाया करने जैसा है, क्योंकि सरकार शब्द में ही ये सारे विशेषण निहित हैं।इन बातों को आप दिल्ली से जोड़कर क़तई न देखें। वहां तो अब सिर्फ अफ़वाहें हैं। ... और कुछ भी नहीं। दरअसल, कल मुझसे किसी ने पूछा- इन अंगुलियों को क्या हुआ? मैंने जवाब दिया- गई रात तारे गिनते-गिनते झुलस गई होंगी! उसे विश्वास ही नहीं होता!सच है समय आ गया है जब आप छाह में बैठे - बैठे भी जल सकते हैं। खैर मिट्टी डालिए इन दिल्ली की अफ़वाहों पर। जो दिल्ली हत्यारों को सजा देने की बजाय ख़ुद निर्भया की आत्मा को ही बार-बार फांसी पर लटका रही हो, उसकी क्या बात करें? और क्यों करें?चलिए मोदी जी की बात करते हैं। उन्होंने एक दिन पहले कहा कि वे सोशल मीडिया छोड़ रहे हैं। फिर दूसरे दिन सुना कि अब विचार बदल दिया है। हो सकता है अंदाज़ा देख रहे हों कि लोग क्या प्रतिक्रिया देते हैं। चर्चा में आने के कई नए-नए तरीक़े आजकल ईजाद हुए हैं। जैसे कई ऑटो मोबाइल कंपनियां अपनी गाड़ियों में मामूली ख़राबी बताकर पर्टिकुलर समय में बाज़ार में आई गाड़ियों को वापस ले लेती हैं... आदि। कुल मिलाकर बात ये है कि मोदी जी तो सोशल मीडिया छोड़ना चाहते हैं, लोग छोड़ने नहीं देते...।अब आते हैं कोरोना वायरस पर। दिल्ली में एक-दो केस मिल गए हैं। लगता है अब विदेश यात्राओं पर बंदिश लगने वाली है। कोई बात नहीं। हम भारतीय कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं। सरकार ने कई महीनों तक पेट्रोल के दाम बढ़ाने के बाद हाल ही में कम कर दिए हैं। क्या ज़रूरत है विदेश यात्रा की। अपनी गाड़ी उठाइए और घूमिए देशभर में। पेट्रोल सस्ता है ही। दरअसल, सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि आजकल मीडिया में भी पेट्रोल के दाम बढ़ने की ख़बर कम ही आती है। घटने की ज़रूर आती है।ख़ैर, अब कुछ राजनीति की बात कर लें! छत्तीसगढ़ में लगातार इनकम टैक्स के छापे पड़ रहे हैं। सरकार के क़रीबियों पर भी। अफ़सरों पर भी। लेकिन अचानक ये छापे क्यों? सवाल करते ही जवाब मिलता है- कहीं यह मध्यप्रदेश में चल रही राजनीतिक सुगबुगाहट से ध्यान हटाने का तरीक़ा तो नहीं? हो भी सकता है।दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि विधायकों को ख़रीदा जा रहा है। शिवराज सिंह दिग्विजय को कमलनाथ से उलझाना चाहते हैं। मतलब, कुछ न कुछ पक तो रहा है। अचानक चार्टर से दिल्ली जाना और लौटना। फिर पीछे-पीछे राज्यपाल महोदय का भी दिल्ली प्रवास!कुछ तो कहानी है! क्या है, यह एक-दो महीने में सामने आएगी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news निर्भया मामले में अदालत की मजबूरी समझने की जरूरत By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 23:02:00 GMT निर्भया के दोषियों की फांसी तीसरी बार भी टल गई। चारों अपराधियों की हर सांस न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को झकझोर देती है। दरिंदों द्वारा निर्भया से दुष्कर्म और उसकी हत्या को अंजाम दिए सात साल बीत गए हैं। ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, रिव्यू पिटीशन, क्यूरेटिव पिटीशन, मर्सी पिटीशन, पहले एक दोषी की पिटीशन, फिर उसके फैसले के बाद क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे की, फिर भी कुछ न बना तो यह तर्क कि आरोपियों को अंग्रेजी में कानूनी प्रक्रिया समझ में नहीं आई, लिहाजा अनुवाद दिया जाए।फिर एक की मां बीमार हुई तो दूसरे के ससुर और तीसरा गरीबी के कारण समय से पिटीशन दायर नहीं कर सका। यानी बहाने पर बहाने। लगता है न्याय व्यवस्था का ही सरेआम चीरहरण हो रहा है। लेकिन, लोगों को शायद गुस्से में यह समझ में नहीं आ रहा है कि जो अदालत फांसी दे सकती है, वह क्या इस खेल को नहीं समझ रही है?देश के सबसे बड़े कोर्ट की मजबूरी भी समझनी होगी। न्याय का चश्मा सिविल मामलों में और आपराधिक मामलों में बदल जाता है, क्योंकि अपराध न्यायशास्त्र का सिद्धांत किसी को तब तक दोषी नहीं मानता, जब तक ‘हर संभव युक्तियुक्त (रीजनेबल) शक को निर्मूल नहीं पाया जाता’। इसी तरह अगर किसी को फांसी दी जा रही है तो उसे वे सभी कानूनी बचाव उपलब्ध कराने का सिद्धांत पूरी दुनिया की अदालतें ससम्मान मानती हैं। फिर दोषियों को इस बात के लिए भी अदालत बाध्य नहीं कर सकती कि सभी एक साथ और एक ही किस्म की याचिकाएं दायर करें।कोर्ट की यह भी मजबूरी है कि सीआरपीसी के तहत जब तक किसी एक दोषी की याचिका किसी भी स्तर पर लंबित है तो अन्य तीन को फांसी नहीं हो सकती। फिर अपराध न्यायशास्त्र का सिद्धांत है कि एक ही मामले में समान रूप से संलिप्त दोषियों को समान सजा मिलनी चाहिए, यानी किसी एक भी अपराधी को चंद सांसें कम या ज्यादा मिलें तो वह इस सिद्धांत के खिलाफ होगा। चूंकि यह सब कुछ उस अदालत को देखना है जिसके ऊपर कोई अन्य अदालत नहीं है, लिहाजा लोगों को शीर्ष अदालत की इन सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता भी समझनी होगी। फिर फांसी की सजा अकेली ऐसी सज़ा है, जिसके तामील होने के बाद अगर किसी गलती का पता चला तो उसे सुधारा नहीं जा सकता। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today सुप्रीम कोर्ट। (फाइल फोटो) Full Article
india news अमेरिका-तालिबान समझौते से उपजे नए सवाल By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 23:05:00 GMT कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका ने जो समझौता किया है, यदि वह सफल हो जाए तो उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सुखद आश्चर्य माना जाएगा। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि यदि तालिबान ने इस समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया तो अफगानिस्तान में इतनी अमेरिकी फौजें भेज दी जाएंगी कि जितनी पहले कभी नहीं भेजी गई हैं। ट्रंप को पता नहीं है कि पिछले 200 साल में ब्रिटिश साम्राज्य और सोवियत रूस अफगानिस्तान में कई बार अपने घुटने तुड़वाकर सबक सीख चुके हैं। फिर भी उनके प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद को बधाई देनी होगी कि वे अमेरिका के जानी दुश्मन अफगान तालिबान को समझौते की मेज तक खींच लाए।यह समझौता अभी सिर्फ अमेरिका और तालिबान के बीच हुआ है, अफगान सरकार और तालिबान के बीच नहीं। अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता शुरू होगी 10 मार्च को, लेकिन भोजन के पहले ग्रास में ही मक्खी पड़ गई है। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते की इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया है कि यदि तालिबान एक हजार कैदियों को रिहा करेगा तो 10 मार्च तक काबुल सरकार पांच हजार तालिबान कैदियों को रिहा कर देगी। उन्होंने पूछा कि अमेरिका ने यह वादा उनसे पूछे बिना कैसे कर दिया? पहले तालिबान से बात होगी, फिर कैदियों की रिहाई के बारे में सोचा जाएगा। तालिबान के प्रवक्ता ने गनी की बात को खारिज कर दिया और कहा कि रिहाई पहले होगी। इस बीच, खोस्त में तालिबान ने हमला बोलकर तीन लोगों की हत्या भी कर दी है।इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि अमेरिका ने तालिबान की जो भी शर्तें मानी हैं और जिन मुद्दों पर उन्हें सहमति दी है, वे सब उसने काबुल सरकार को नहीं बताई हैं? जिन्हें तालिबान के नाम से सारी दुनिया जानती है, यह समझौता उनके नाम से नहीं हुआ है। यह हुआ है अमेरिका और ‘इस्लामिक अमीरात-ए-अफगानिस्तान’ के बीच। यानी अमेरिका ने तालिबान सरकार को अनौपचारिक मान्यता दे दी है, जबकि तालिबान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला की सरकार को सरकार ही नहीं मानते। उसे वे ‘अमेरिका की कठपुतली’ कहकर बुलाते हैं।समझौते में कहा गया है कि इस्लामिक अमीरात वादा करती है कि वह अमेरिका के विरोधियों को ‘वीजा, पासपोर्ट, यात्रा-पत्र और आश्रय’ प्रदान नहीं करेगी। जो भी अगली इस्लामी सरकार बनेगी, अमेरिका के साथ उसके संबंध अच्छे रहेंगे। क्या इसका स्पष्ट संकेत यह नहीं है कि वर्तमान काबुल सरकार के दिन लद गए हैं? वैसे भी इस्लामी सरकार के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने समझौते पर दस्तखत करने के बाद दोहा में कई देशों के राजदूतों से मुलाकातें शुरू कर दी हैं।काबुल सरकार वैसे भी अधर में लटकी है। 28 सितंबर, 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव का फैसला अब पांच महीने बाद फरवरी 2020 में आया। इसे गनी के प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला ने मानने से इनकार कर दिया है और कहा है कि असली राष्ट्रपति वे ही हैं और वे ही सरकार बनाएंगे। अभी तक नए राष्ट्रपति ने शपथ भी नहीं ली है। अमेरिकी दबाव में इनके बीच कोई समझौता हो भी जाए तो क्या वे अमेरिकियों के कहने पर तालिबान को सत्ता सौंप देंगे? इस समय अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों में तालिबान का वर्चस्व है। जहां तक अफगानिस्तान की फौज और पुलिस का संबंध है, उसकी संख्या दो लाख के ऊपर है।उसमें ताजिक, उजबेक, तुर्कमान, किरगीज और हजारा लोगों की संख्या पठानों के मुकाबले कम है और तालिबान मूलतः पठान संगठन है। जाहिर है कि अफगान फौज भी रातोंरात अपना पैंतरा बदल सकती है। अमेरिकी फौजों की वापसी के 14 महीनों के दौरान क्या ये पठान चुप बैठे रहेंगे? अगले 135 दिन में अमेरिका के 14,000 और नाटो के 12,500 सैनिकों में से कितनों की वापसी होती है? होती भी है या नहीं? अमेरिका ने वादा किया है कि यदि तालिबान शांति बनाए रखेंगे और अल-क़ायदा जैसे गिरोहों को नाकाम करेंगे तो वह अगले 135 दिन में अपने 8000 जवानों को वापस बुला लेगा।लगभग इसी तरह का समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के समय 1973 में वियतनाम को लेकर हुआ था। पांच लाख अमेरिकी जवान दक्षिण वियतनाम से वापस बुला लिए गए, लेकिन दो साल में ही दक्षिण वियतनाम पर उत्तर वियतनाम का अधिकार हो गया। क्या अफगानिस्तान में यही नहीं होने वाला है? जो भी होना है, हो जाए, अमेरिका को तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना है। ट्रम्प को चुनाव जीतना है। उन्हें यह बताना है कि जो ओबामा नहीं कर सके, वह मैंने कर दिखाया है।प्रश्न यह है कि इस मामले में भारत की नीति क्या हो? यदि अफगानिस्तान में शांति रहती है तो भारत को कई आर्थिक और सामरिक लाभ होंगे। आतंकवाद का खतरा बहुत ज्यादा घटेगा। भारत के विदेश सचिव समझौते के एक दिन पहले काबुल गए, यह अच्छा हुआ, लेकिन दोहा में हमारे विदेश मंत्री की गैरहाजिरी मुझे खटकती रही। भारत ने अफगानिस्तान में अब तक लगभग 25 हजार करोड़ रुपए लगाए हैं और सैकड़ों निर्माण-कार्य किए हैं। भारत ने जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर अफगानिस्तान को फारस की खाड़ी और मध्य एशिया के राष्ट्रों से जोड़ दिया है। भारत ने आंख मींचकर इस समझौते का स्वागत किया है। लेकिन, उसने तालिबान के साथ भी कुछ तार जोड़े हैं या नहीं? पिछले 25-30 साल में तालिबान और मुजाहिदीन नेताओं से मेरा सीधा संपर्क काबुल और पेशावर के अलावा कई देशों में हुआ है। वे पाकिस्तान परस्त हैं, यह उनकी मजबूरी है, लेकिन वे भारत-विरोधी नहीं हैं। उन्होंने भारत से मान्यता प्राप्त करने की गुपचुप कोशिश कई बार की है। उन्होंने 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़ाने में भी हमारी मदद की थी। वे स्वायत्त स्वभाव के हैं। वे किसी की गुलामी नहीं कर सकते। भारत सरकार भविष्य के बारे में सतर्क रहे, यह बहुत जरूरी है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका का शांति समझौता हुआ। Full Article
india news पीड़ा को उड़ा दीजिए, क्रोध नहीं आएगा By Published On :: Tue, 03 Mar 2020 23:10:23 GMT जीवन में कई बार ऐसा होता है कि जब हमारी पसंद का कोई काम न हो और सामने वाले को कुछ कह न पाएं तो हम खुद को चिड़चिड़ा बना लेते हैं। क्रोध में तो मनुष्य फिर भी कुछ व्यक्त कर देता है, लेकिन चिड़चिड़ेपन में वह क्रोध को अपने भीतर ले जाकर नया रूप देता है और खुद को आहत करता है। तो जब भी मनपसंद काम न हो, सबसे पहला धैर्य यहां रखना कि चिड़चिड़े न हो जाएं।जब कोई चिड़चिड़ा होता है तो जड़ वस्तुओं से भी लड़ने लगता है। क्रोधित आदमी तो फिर भी चेतन से लड़ेगा पर चिड़चिड़ा जड़ से भिड़ेगा। कुछ लोग एकदम से पेन ही फेंक देते हैं, कुछ कार के गेट को जोर से बंद करते हैं, कोई कपड़े फाड़ता है तो कुछ बर्तन ही फेंक देते हैं। ये सब चिड़चिड़ेपन का परिणाम है। जब कोई पसंद की बात या काम न तो भीतर एक पीड़ा आती है। उस पीड़ा को एकदम से उड़ा दें।जैसे किसी पिंजरे को खोलकर उसमें बंद परिंदे को बाहर निकालने का प्रयास करते हैं तो वह डरता है, फड़फड़ाता है। लेकिन यदि अपने हाथ से पकड़कर उड़ा दें तो एकदम से उड़ जाता है। मनुष्य के भीतर पीड़ा ऐसी ही होती है। जब उसे बाहर निकालेंगे तो वह निकलना नहीं चाहेगी, फड़फड़ाएगी। लेकिन एक बार खुलकर उड़ा दीजिए उसे। पीड़ा उड़ी कि चिड़चिड़ेपन की संभावना समाप्त हो जाएगी। तब आप क्रोध से भी बचेंगे और पसंद का काम नहीं होने पर भी यह मान लेंगे कि जो होता है, अच्छा ही होता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news बात उन इलाकों की, जहां सोची-समझी साजिश के साथ हिंसा हुई, दंगाइयों ने स्कूलों को भी नहीं बख्शा By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 02:47:43 GMT नई दिल्ली. दिन शनिवार। रात के नौ बजने को हैं। उत्तर-पूर्वीदिल्ली का शिव विहार इलाका पूरी तरह से अंधेरे में डूब चुका है। यहां हुई हिंसा और आगजनी के बाद से इलाके में बिजली नहीं है और कर्फ्यू अब भी पूरी सख्ती से लागू है। पुलिस की गाड़ियों और मीडिया के कैमरों से पैदा हो रही रोशनी के अलावा चारों ओर अंधेरा है। इसी अंधेरे में टॉर्च लिए कुछ लोग एक गली से निकलते हुए दिखाई पड़ते हैं। ये छिद्दरलाल तोमर और उनके परिवार के लोग हैं, जो हिंसा के बाद अपना घर छोड़कर चले जाने को मजबूर हुए हैं। अपने रिश्तेदारों के घर पर शरण लेकर रह रहे ये लोग रात के अंधेरे में डरते-छिपते अपना कुछ जरूरी सामान ढूंढने अपने घर लौटे हैं। छिद्दरलाल बताते हैं, ‘‘24 तारीख की वो रात हमने कैसे काटी, सिर्फ हम ही जानते हैं। यहां हिंदुओं के घरों को एक-एक कर निशाना बनाया जा रहा था। कोई हमारी मदद को नहीं आया। हमारा घर गली में कुछ पीछे है, इसलिए पूरा जलने से बच गया। हमारा परिवार रातभर ऊपर छिपा रहा। 25 की सुबह जब पुलिस आई, तब हमें यहां से निकाला गया।’’छिद्दरलाल (बीच में) पड़ोसियों के साथशिव विहार तिराहे के पास ही रहने वाले सुजीत तोमर कहते हैं, ‘‘यहां पूरी प्लानिंग के साथ हिंसा की गई। बाजार में वही दुकानें जलाई गईं, जो हिंदुओं की थी। बाहर एक बिल्डिंग आप देख सकते हैं, जिसमें नीचे एक मुस्लिम की दुकान थी और ऊपर हिंदू परिवार रहते थे। इस बिल्डिंग में नीचे की दुकान सुरक्षित है, जबकि ऊपर के घर जला दिए गए। उसके पास की ही दूसरी बिल्डिंग में दिलबर नेगी को जलाकर मार दिया गया, राहुल सोलंकी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। राहुल मेरे बचपन का दोस्त था।’’शिव विहार तिराहे इलाके में खड़ी गाड़ियां जला दी गईं।पांच मंजिला स्कूल की छत से बम फेंके जा रहे थेहिंसा के पूर्व नियोजित होने की जो बात सुजीत कह रहे हैं, वही बात शिव विहार के लगभग सभी लोग दोहराते हैं। पेशे से इंजीनियर अजीत कुमार बताते हैं, ‘‘यहां पास में ही राजधानी पब्लिक स्कूल है, जो किसी फैसल नाम के आदमी का है। इस स्कूल को दंगाइयों ने अपना ठिकाना बनायाथा। स्कूल की छत से पत्थर, पेट्रोल बम और गोलियां तक चलाई जा रही थीं। उनकी तैयारी इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने स्कूल की छत की मुंडेर के नाप का लोहे का एक फ्रेम बनवाया था और उस पर ट्यूब का रबर लगाकर उसका इस्तेमाल बड़ी-सी गुलेल की तरह कर रहे थे। पांच मंजिला स्कूल की छत से वे पेट्रोल बमदूर-दूर तक मार रहे थे। इसी स्कूल के बगल में डीआरपी पब्लिक स्कूल भी है, जिसके मालिक पंकज शर्मा है। उन्हेंबुरी तरह जला दिया गया, जबकि राजधानी स्कूल में मामूली तोड़-फोड़ हुई।’’मुस्तफाबाद से इसी बैलगाड़ी पर दंगाई बम रखकर लाए थे।शिव विहार से बृजपुरी की तरफ बढ़ने पर यह बात और मजबूती से महसूस होती है कि यहां हुई हिंसा पूर्व नियोजित थी। यहां के डी ब्लॉक में जली हुई इमारतों के सामने ही दो बड़े-बड़े ड्रम गिरे हुए दिखाई पड़ते हैं, जिनकी जांच यहां पहुंची फोरेंसिक की टीम कर रही है। इस टीम के साथ ही 27 साल के करण कपूर खड़े हैं और अपने जल चुके घर की जांच में इस टीम की मदद कर रहे हैं। वेबताते हैं, ‘‘25 फरवरी को करीब तीन बजे सैकड़ों दंगाई मुस्तफाबाद की ओर से यहां आए। वे एक बैलगाड़ी पर ये ड्रम लादकर लाए थे, जिसमें कोई फ्यूल भरा था। ये क्या था, इसी की जांच फोरेंसिक वाले कर रहे हैं। इसके अलावा वे लोग ईंट-पत्थर, हथियार और पेट्रोल बम भी बैलगाड़ी में भरकर लाए थे।’’फोरेंसिक टीम के सदस्य ने कहा- हिंसा की तैयारी कई दिनों से थीफोरेंसिक टीम के एक सदस्य नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘जो चीजें बरामद हुईं और जिस तरह दंगाई ड्रमों में भरकर ईंधन यहां लाए,उससे साफ होता है कि वेकितनी तैयारी से आए थे। ये सब एक दिन में नहीं जुटाया जा सकता। तैयारी कई दिनों से की गई थी।’’ बृजपुरी के इस इलाके में भी शिव विहार की ही तरह लोगों की धार्मिक पहचान के आधार पर उनके घर और दुकान जलाए गए हैं। यहां रहने वाले राजेश कपूर कहते हैं, ‘‘दंगाइयों ने एक-एक कर हम सबके घर जला डाले। हमने छतों से पिछली तरफ कूदकर अपनी जान बचाई। दंगाइयों ने पहले दुकानों के शटर तोड़कर उनमें लूटपाट की और फिर आग लगाई। मेरे अलावा पास के ही चेतन कौशिक और अशोक कुमार का घर भी पूरी तरह जला दिया गया।’’राजेश कपूर बताते हैं- दंगाइयों ने पहले दुकानें लूटीं और फिर आग लगा दी।दंगाइयों ने स्कूलों को भी नहीं छोड़ाइन घरों से कुछ ही दूरी पर अरुण मॉडर्न पब्लिक स्कूल भी है। यहां पहुंचते ही दिल्ली में हुए इन दंगों की सबसे बदसूरत तस्वीर दिखती है। दुनिया के घोषित युद्धक्षेत्रों में भी स्कूल और अस्पताल जैसी इमारतों पर हमले न करने की न्यूनतम नैतिकता का पालन आतंकवादी भी करते हैं। लेकिन यहां दंगाइयों ने स्कूल को भी नहीं छोड़ा और जलाकर राख कर दिया। हालांकि, यहां कहीं भी किसी मंदिर पर हमला नहीं किया गयाऔर दंगे की चपेट में आए मुस्लिम बहुल इलाकों में मौजूद मंदिर भी पूरी तरह से सुरक्षित है।शिव विहार और बृजपुरी में जिस तरह से एक समुदाय और निशाना बनाकर सोची-समझी हिंसा की गई, ठीक वैसे ही खजूरी खास में दूसरे समुदाय को निशाना बनाया गया। खजूरी खास एक्सटेंशन की गली नंबर 4, 5 और 29 में मुस्लिम समुदाय के लोगों निशाना बनाया गया। यहां बनी फातिमा मस्जिद के साथ ही दंगाइयों ने मुस्लिम समुदाय के सभी 35 घरों को जला दिया। ये सभी लोग अब अपने घर छोड़कर जा चुके हैं। इनमें से कई लोग अब चंदू नगर में शरण लेकर रह रहे हैं। मोहम्मद मुनाजिर ऐसे ही एक व्यक्ति हैं। वे बताते हैं, ‘‘खजूरी में सोमवार से ही माहौल बिगड़ने लगा था लेकिन उस दिन तक हम सुरक्षित थे। मोहल्ले के हिंदू भाइयों हमें भरोसा भी दिलाया था कि हम लोग आपको कुछ नहीं होने देंगे। लेकिन 25 की सुबह दंगाइयों ने चारों तरफ से हमारे घरों में पेट्रोल बम मारना शुरू कर दिया। मोहल्ले के हिंदू परिवार उस वक्त अपने घरों से जा चुके थे। बचाने वाला कोई नहीं था और एक-एक कर हम सबके घर ढूंढ-ढूंढकर जला दिए गए।’’खूजरी खास इलाके में दंगाइयों ने पार्किंग में खड़ीं गाड़ियां फूक दींएक समुदाय की गाड़ियां जलाई गईंखजूरी के इस इलाके में भी दंगाइयों ने कितने सोचे-समझे तरीके से हिंसा की, इसका सबूत मोहल्ले की पार्किंग में हुई आगजनी से मिल जाता है। इस पार्किंग में मोहल्ले के सभी लोगों की गाड़ियां खड़ी होती थीं। लेकिन 25 की सुबह ही हिंदू परिवार के लोगों ने यहां से अपनी गाड़ियां निकाल ली थीं। लिहाजा, जब इस पार्किंग में आग लगाई तो उसमें सिर्फ एक ही समुदाय की गाड़ियां जलीं। श्यामलाल कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहे फिरोज कहते हैं, ‘‘मैं खजूरी में ही पैदा हुआ और वहीं पला-बढ़ा हूं। मोहल्ले के हम दोस्तों में कभी हिंदू-मुसलमान का फर्क नहीं रहा। लेकिन इस बार जाने ऐसा क्या हुआ कि कई साल के रिश्ते टूट गए। सोनू और मैं तो बचपन से साथ पढ़े हैं और अब भी एक ही कॉलेज में जाते हैं। लेकिन 25 की सुबह उसने भी अपनी स्कूटी पार्किंग से निकाली और मुझे नहीं बताया कि यहां कुछ होने वाला है। मुझे भरोसा ही नहीं हो रहा कि उसने सब कुछ जानते हुए भी मुझे कोई जानकारी नहीं दी। कल जब मैं अपने जले हुए घर को देखने गया तो सोनू मोहल्ले में ही था। वो मुझसे नजरें भी नहीं मिला पा रहा था।’’खजूरी खास एक्सटेंशन की फातिमा मस्जिद के चारों तरफ हिंदू समुदाय के लोगों के घर हैं। इस मस्जिद पर जो सबसे पहले हमले हुए, वो इन्हीं आसपास के घरों की छतों से किए गए। ऐसे कई वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें इन घरों की छत से मस्जिद पर पेट्रोल बम मारते दंगाई साफ देखे जा सकते हैं। इस मस्जिद के पास ही रहने वाले नफीस अली कहते हैं, ‘‘हमला करने वाले कई दंगाई बाहर के थे, क्योंकि उन्हें हम नहीं पहचानते। लेकिन उनके साथ यहां के लोग भी मौजूद थे। गली के पान वाले को मैंने खुद देखा था दंगाइयों के साथ मस्जिद पर पत्थर चलाते हुए। ऐसे ही लोगों ने दंगाइयों को यह भी बताया कि कौन-सा घर हिंदू का है और कौन मुसलमान का।’’ Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Delhi Violence Ground Report | The Latest Ground Report Updates From Khajuri Khas, Shiv Vihar, Brijpuri; Delhi Residents Express Concerns Over Difficulties Full Article
india news गलत प्लानिंग कर अपने दिल को न दौड़ाएं By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:44:00 GMT बुधवार को मैं जिस प्लेन से सफर कर रहा था, वह मंजिल पर एक घंटे देरी से पहुंचा। जैसे ही प्लेन रुका यात्री अपना सामान उठाने के लिए तुरंत खड़े हो गए और एक मिनट से भी कम समय में प्लेन का पूरा वॉकवे यात्रियों से भर गया, जबकि सारी सीट्स लगभग खाली हो गईं। एयरहोस्टेस ने अनाउंसमेंट किया कि सभी यात्रियों को आगे वाले दरवाजे से निकलना होगा। यह सुनते ही एयरक्राफ्ट में सबसे पीछे खड़े एक बुजुर्ग दंपति चिल्लाए कि उन्हें किसी जगह के लिए कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़नी है और सभी यात्रियों से रास्ता देने का निवेदन किया, ताकि वे पहले निकल सकें।जल्दी उतरने के लिए यह कुछ बुजुर्गों की चाल होती है और हम उन्हें रास्ता नहीं देते। बुधवार को भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ। हालांकि, दंपति को महसूस हुआ कि कोई उनपर भरोसा नहीं कर रहा है, तो उन्होंने अपनी अगली फ्लाइट के बोर्डिंग पास पर्स से निकाले और जिन यात्रियों को उनके आगे जाने पर आपत्ति थी, उन्हें दिखाते हुए आगे बढ़ने लगे। पूरे प्रयास के बावजूद वे तीसरी रो (पंक्ति) तक ही पहुंच पाए और वहां मौजूद यात्रियों ने उन्हें रास्ता देने से इनकार कर दिया, क्योंकि पहली तीन रो प्रीमियम कीमत की सीट्स थीं। उन यात्रियों का सोचना था कि उन्हें फ्लाइट से पहले उतरने का पूरा अधिकार है, क्योंकि उन्होंने ज्यादा कीमत चुकाई है।चूंकि मैं पहली रो में था, मैंने उन दंपति को इशारा कर मेरे साथ आने को कहा। उनकी आंखों में आशीर्वाद के भाव नजर आ रहे थे। मैंने उन्हें भरोसा दिलाने की कोशिश की कि उनकी अगली फ्लाइट नहीं छूटेगी, हालांकि, वे अपनी तेज धड़कनों की आवाज के बीच मेरी बात नहीं सुन सके। वे पूरी तरह से हांफ रहे थे। दंपति अंतत: लड़खड़ा गए और जैसे-तैसे अगली फ्लाइट पकड़ने के लिए दौड़ पड़े। यहां तक कि एयर होस्टेस ने भी उनकी अगली फ्लाइट पकड़ने में मदद करने की कोई कोशिश नहीं की। जैसे ही दरवाजा खुला, वे ऐसे बाहर निकले, जैसे बांध खुलने पर पानी निकलता है।मुंबई एयरपोर्ट पर बहुत चलना पड़ता है। मैं जब धीरे-धीरे एयरपोर्ट से बाहर निकलने की तरफ बढ़ रहा था, वे दंपति आधे रास्ते में ही फंसे हुए थे। महिला कंपकंपी और घबराहट की वजह से रास्ते में गिर गई थी। किसी ने उन्हें पानी की बोतल दी, दो लोगों ने एयरलाइन स्टाफ को बुलाया, एक पुलिसवाला एक मिनट के अंदर व्हीलचेयर ले आया और सबकुछ तीन मिनट में सामान्य हो गया। लेकिन, मुझे उनकी दिल की धड़कनों की चिंता हो रही थी। वे जोखिमभरी स्थिति में थे, जिसे ऐसा व्यक्ति ही समझ सकता है। हालांकि, खुद को इस आपात स्थिति में फंसाने के लिए मैं उन्हें भी बराबर का दोषी मानता हूं क्योंकि उन्होंने यात्रा से पहले फ्लाइट के लेट होने की स्थिति के बारे में नहीं सोचा।कुछ साल पहले मैं जब ऐसी ही स्थिति में था, मेरे कार्डिएक सर्जन ने सलाह दी थी कि एयरपोर्ट पर ऐसी मैराथन करने से किसी व्यक्ति की अचानक दिल की धड़कनें रुकने या एट्रिअल फिब्रिलेशन (दिल की धड़कनें अनियंत्रित होने की स्थिति) की आशंका होती है। शारीरिक रूप से सक्रिय लोग या रोजाना चलने वाले लोगों में ऐसी स्थितियों में हार्ट अटैक की आशंका 50 फीसदी कम होती है।अगर कोई भी निष्क्रिय या अस्वस्थ व्यक्ति, जिसमें दिल की बीमारी के शिकार बुजुर्ग भी शामिल हैं, अगली या कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ने के लिए एयरपोर्ट या किसी भी जगह पर लापरवाही के साथ दौड़ता है, तो उसकी दिल की सेहत को बड़ा नुकसान पहुंच सकता है। यह उन सभी परिस्थितियों में लागू होता है, जहां आप दिल को बेवजह दौड़ाते हैं।फंडा यह है कि कभी भी अपने दिल को बेवजह न दौड़ाएं। समय का ध्यान रखते हुए अपने सफर की बेहतर प्लानिंग करें। क्योंकि 60 साल की उम्र के बाद आपको उन सुविधाओं का आनंद उठाना है, जो आपने कड़ी मेहनत कर जुटाई हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news इरफान खान : हिंदी मीडियम से अंग्रेजी मीडियम तक By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:47:00 GMT इरफान खान अभिनीत फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ सुर्खियों में है। फिल्म का नायक चांदनी चौक दिल्ली का मध्यम दर्जे का व्यापारी है। वह अपनी पुत्री को इंग्लैंड भेजना चाहता है। पुत्री की इच्छा इंग्लैंड में पढ़ने की है। अपनी पुत्री की इच्छा पूरी करने के लिए इरफान को बहुत पापड़ बेलने होते हैं। ज्ञातव्य है कि भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत से लंबा संघर्ष करना पड़ा। गौरतलब यह है कि इस संघर्ष के अधिकांश नेता इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करके आए थे। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बाबा साहेब अंबेडकर इत्यादि ने इंग्लैंड में ही शिक्षा प्राप्त की थी।ज्ञातव्य है कि इंग्लैंड की संसद में लंबी बहस इस मुद्दे पर चली कि ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था भारत में रोपित की जाए या नहीं। अधिकांश सांसदों ने यह भय व्यक्त किया कि कुछ प्रतिभाशाली छात्र इंग्लैंड आएंगे और अपने वतन लौटकर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो सकते हैं। शिक्षा का प्रस्ताव रखने वाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट किया कि किसी भी देश को हमेशा के लिए गुलाम नहीं रखा जा सकता।विज्ञान की अधिकांश किताबें अंग्रेजी में लिखी गई हैं। चीन में विदेशी भाषा की किताब को महत्व नहीं दिया जाता, परंतु डॉक्टर ग्रे की एनोटॉमी का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। अत: वह किताब पाठ्यक्रम में शामिल है। आश्चर्य है कि जिस डॉक्टर ग्रे ने मानवता का इतना भला किया, वह स्वयं युवा अवस्था में ही दिवंगत हो गए।इरफान खान अभिनीत ‘हिंदी मीडियम’ भी बहुत सफल रही। उस फिल्म में अपने पुत्र के अंग्रेजी मीडियम में दाखले के लिए, वह गरीबों की बस्ती में रहने जाते हैं, ताकि गरीबों के लिए आरक्षित सीट उनके बेटे को प्राप्त हो जाए। इरफान खान ने कुछ अत्यंत सफल सार्थक अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में अभिनय किया है। जैसे लाइफ ऑफ पाई, वारियर, स्लमडॉग मिलेनियर, अमेजिंग स्पाइडर मैन इत्यादि। इरफान खान अभिनीत ‘लंच बॉक्स’ को अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।विशाल भारद्वाज की ‘मैकवेथ’ से प्रेरित फिल्म ‘मकबूल’ में भी उसे बहुत सराहा गया। इरफान को पानसिंह तोमर, पीकू, जज्बा और तलवार में बहुत पसंद किया गया। इरफान का जन्म जयपुर में हुआ। दूरदर्शन के नाटकों में अभिनय करके बड़ा फासला तय किया है। कुछ समय पूर्व उन्हें एक बीमारी हो गई थी, जिसके इलाज के लिए वे इंग्लैंड गए थे। इलाज के बाद उन्होंने अंग्रेजी मीडियम में अभिनय किया है।हिंदी सिनेमा में चॉकलेट चेहरे वाले सितारों के साथ ही खुरदुरे चेहरे वाले कलाकारों ने भी लंबी सफल पारी खेली है। यह सिलसिला शेख मुख्तार से प्रारंभ होकर ओम पुरी से गुजरते हुए इरफान खान तक पहुंचा है और यह सदा जारी रहेगा। भावों की अभिव्यक्ति खूबसूरती की मोहजात नहीं है। पारंगत कलाकार अपने शरीर की हर मांसपेशी का इस्तेमाल करते हैं।गॉडफादर में अपनी भूमिका के लिए मार्लिन ब्रेंडो ने शल्य क्रिया द्वारा माथे पर रबर की एक गांठ प्रत्यारोपित कराई थी। संभवत: ब्रेंडो यह अभिव्यक्त करना चहते थे कि सर्वशक्ति संपन्न अपराध सरगना के अवचेतन में पैठे दर्द को माथे की गांठ द्वारा प्रस्तुत किया जाए। आश्चर्य यह है कि दिलीप कुमार भी ब्रेंडो को अपना आदर्श मानते रहे। उनके माथे पर एक गांठ जन्म के समय से ही बनी हुई है। अजीबोगरीब इत्तफाक होते हैं।इरफान खान अपनी बड़ी-बड़ी आंखों द्वारा ही पात्र के दर्द को अभिव्यक्त करते हैं। उनकी भावाभिव्यक्ति की प्रतिभा को किसी शारीरिक बैसाखी की आवश्यकता नहीं है। इरफान खान ने अपने मुंबई स्थित मकान में कई पौधे लगाए हैं। वे परिंदों को आकर्षित करने के लिए छत पर दाना-पानी उपलब्ध कराते हैं। उनसे संवाद स्थापित करने के जतन भी करते हैं।जानवरों और परिंदों के शरीर संचालन से भी अभिनय सीखा जा सकता है। जीवन ही सबसे बड़ी पाठशाला है। इस पाठशाला में जिस छात्र को सबक याद हो जाता है, उसे कभी छुट्टी नहीं मिलती। विषम परिस्थितियों में जीना एक कला है। इरफान खान जानते हैं कि विशेष वे लोग होते हैं, जो अत्यंत साधारण काम को भी अपनी अदायगी से विशेष बना देते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today फिल्म अभिनेता इरफान खान। Full Article
india news एक क्लिक पर सैकड़ों दोस्त, फिर घनघोर तन्हाई क्यों? By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:51:00 GMT कई बड़े लोग सोशल मीडिया से त्रस्त होकर उसे छोड़ने की बात कह चुके हैं। मुझे भी कई बार सोशल मीडिया की हरकतों से घबराहट होने लगती है। कभी-कभी तो मेरे दिल में ख्याल आ जाता है कि ये गूगल नहीं होता तो क्या होता..! सवालों के जवाब कौन देता और हम बौड़म के बौड़म न रह जाते? और हद तो ये होती कि बौड़म का क्या मतलब है यह भी बिना गूगल के जान ही न पाते..! चींटियों-तिलचट्टों की टांगों के बारे में हमें किसकी वजह से जानकारी मिलती।मान लो दुनिया जहान के बारे में हमें कौन बताता। गूगल के बिना दुनिया-जहान के पर्यायवाची ही कहां से ढूंढते। ऊपर से अब दालान में बैठे दद्दा को भी कोई डिस्टर्ब नहीं कर रहा है क्योंकि पोते खुद ही जवाब ले आते हैं विचित्रवीर्य कौन थे। कुंती कर्ण की कुंअारी मां थीं। जाते-जाते भीष्म का हस्तिनापुर से रिलेशन भी समझा जाते हैं। सो अब कौन परवाह करता है कि दद्दा दालान में चारपाई जैसा ही एक सामान हो रहे हैं।इसी तरह, कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ये फेसबुक न होता तो क्या होता..! तो हम अज्ञानी ही रह जाते। कभी फ्रेंडशिप ही नहीं समझ पाते..? समझ भी जाते तो करते किससे..! कुल मिलाकर फेसबुक के बिना फ्रेंडविहीन होकर मर जाते। फेसबुक ही है जिसके चलते पतझड़ प्रसाद हरेभरे नामक हमारे फ्रेंड बता पाते हैं कि आज भी उन्होंने रोटी ही खाई है, ये देखो फोटो..!दुनिया तो इतनी गोपनीय जानकारी से वंचित रह जाती..! फेसबुक न होती तो खुल्लम-खुल्ला किसी को भी लाइक करने जैसी कोशिश के बाद भी पिटने से बच जाने जैसी सुविधा और संतुष्टि कैसे मिलती। और तो और कई फु़रसतिया लोगों को फु़लटाइम बिजी रहने का काम कहां से मिलता, सोचिए जरा..! लेकिन इतने के बाद भी हम समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि सैकड़ों दोस्तों के बाद भी अंदर इतना अकेलापन क्यों है?तभी तो, कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि ये टेंपलरन नामक धांसू गेम न होता तो क्या होता..! क्या जान पाते कि अपन भी ‘भाग मिल्खा भाग’ से तेज भाग सकते हैं। लंबी-लंबी कुलांचे भर सकते हैं। नदी-पहाड़-घाटियां फांद सकते हैं। भले ही घर के पांच कदमों पर जाकर दूध का पैकेट नहीं लाएं लेकिन जरूरत पड़ने पर किसी हीरो की तरह दीवार के ऊपर से कल्टियां और पल्टियां मार सकते हैं। ये कैंडीक्रश सागा गेम न होता तो क्या होता..! हम तो कभी जान ही नहीं पाते कि रिक्वेस्ट कैसे भेजी जाती है। केवल रिक्वेस्ट भेज-भेजकर ही किसी को भी आत्महत्या की दिशा में कैसे ढकेला जा सकता है।फिर कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ये इंटरनेट न होता तो क्या होता..! इंसान क्या सभ्य और सुशिक्षित भी होता? ये चीजें न होती तो हम तो पुराने जमाने टाइप एक दूसरे के भरोसे ही टाइम पास कर रहे होते। बात कर-करके एक दूसरे का माथा खा लेने टाइप फु़रसतिया परंपराओं को ही सीने से चिपकाए रहते। कहीं एक-दूसरे के घर जाने टाइप की हरकत फिर से न करने लगते। और क्या पता इन सब हरकतों से रिश्तों में ही फिर से गर्मजोशी न भरने लगती।सो कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है इंटरनेट उर्फ वर्चुअल वर्ल्ड और रिश्तों के बीच सही बैलेंस बनाया जा सकता तो जिंदगी कितनी हसीन होती। और ‘इंटरनेट के सहारे गुजर रही है ज़िन्दगी जैसे, इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं...’ जैसी बातों को मुकम्मल तौर पर गलत साबित किया जा सकता। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news परिश्रम को अपना स्वभाव बना लेंगे तो सुख-दुख ठीक से देख सकेंगे By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:53:00 GMT यह बहुत अधिक परिश्रम का दौर है। आज हर मनुष्य कुछ ऐसा पाना चाहता है जिससे सुख प्राप्त हो, इसलिए परिश्रम भी करता है। लेकिन यह याद रखें कि यदि सुख की आकांक्षा है तो दुख भी पीछे-पीछे आ रहा है। सावधानी नहीं रखी तो सुख की जितनी उम्मीद करेंगे, उदासी उतना ही आपको घेर सकती है। जिस चाहत में हम परिश्रम कर रहे होते हैं, जरूरी नहीं कि वैसा जीवन में घट ही जाए।जिंदगी के गणित बिलकुल अलग होते हैं। यहां बहुत कुछ अदृश्य है, अनिश्चित है। जैसा हम सोचते हैं और उसके लिए जिस तरह से कर रहे हैं, जरूरी नहीं कि वैसा ही हो। इसलिए अपने परिश्रम के पीछे दुख में सुख ढूंढते रहिएगा और सुख में दुख की अनुभूति करते रहिएगा। यदि परिश्रम को केवल सुख से जोड़ा तो वह श्रम जो पूजा बनना चाहिए, वासना बन जाएगा।जैसे शृंगार करने वाले लोग आईना देखते हैं, ऐसे ही परिश्रम करने वाले ‘क्या मिला’ देखते हैं। मेहनत जरा सी करेंगे और बार-बार देखेंगे कि मुझे क्या मिला? ऐसे में आप परिश्रमलोलुप हो जाएंगे। फिर लगेगा मेरे परिश्रम को प्रशंसा मिले और नतीजे में परिश्रम आत्महिंसा बन जाता है।परिश्रम को आदत नहीं, स्वभाव बनाइए। यदि परिश्रम स्वभाव बन गया तो फिर उसके पीछे आने वाले दुख या सुख को ठीक से देख सकेंगे। फिर जो भी मिलेगा, एक बात का संतोष होगा कि हमने परिश्रम पूरी ईमानदारी से किया। यही बड़ी उपलब्धि होगी..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news दिल्ली में हिंसा के बाद अब अपना-उसका की बेजा बहस By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:56:00 GMT मानव स्वभाव आदतन परपीड़क होता है। वह हर दंगे के बाद क्रिकेट स्कोर जैसे पूछता है पहले किसने शुरू किया और किसके कितने मरे? वह मानता है कि जिसने पहले शुरू किया वह गलत, बाद में प्रतिक्रिया में हिंसा करने वाला सही। दिल्ली दंगों के बाद भी लोग यह तलाशने में लगे हैं कि नाले से जो लाशें निकाली गईं, उनके नाम क्या हैं। इस देश में नाम, पहनावे, बांह में बंधे ताबीज या गले के रुद्राक्ष से पता चल जाता है कि किस पक्ष का है। समाज की न्याय की अपनी परिभाषा है।दिल्ली दंगे के बाद देश और खासकर मीडिया जानना चाहता है कि पहल किसने की। अगर छत पर पत्थर, गुलेल, पेट्रोल और तेजाब मिले तो यह मतलब पूरी तैयारी पहले से थी और फिर तलाशा जाता है उसका धर्म ताकि प्रतिक्रिया को न्यायोचित ठहराया जा सके। दूसरा पक्ष पत्थर रखना इस आधार पर उचित बताता है कि जब मंत्री ‘गोली मारो...’ का नारा भीड़ से लगवाता है और जब पूर्व विधायक डीसीपी को बगल में खड़ा करके कहता है कि ‘48 घंटे बाद तो आपकी भी नहीं सुनेंगे’ तो हिफाज़त के लिए छत पर पत्थर तो रखना ही पड़ेगा।क्या हो गया है इस देश की सामूहिक सोच को? सवाल तो शासन में बैठे लोग, पुलिस और खुफिया तंत्र से पूछा जाना था। सवाल तो ये है कि जब मंत्री नारे लगवा रहा था, कर्नाटक में एक नेता 100 करोड़ पर 15 करोड़ भारी कह रहा था, सीएए का विरोध कर रहे लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए विपक्षी नेता उकसा रहे थे तो कानून पंगु क्यों था।जब पत्थर, तेज़ाब और पेट्रोल बम फेंकने के लिए गुलेल जैसा बरबादी का सामान छत पर इकट्टा हो रहा था तो खुफिया तंत्र ने आंख पर पट्टी क्यों बांधी थी। जब पहला पत्थर आया तो तभी दंगाइयों को कानून की ताकत क्यों नहीं दिखाई गई? सवाल तो यह भी पूछना था कि आजादी के बाद के 70 साल में किसने प्रजातंत्र यानी सबका शासन में अपना-बनाम-उसका-शासन का जहर घोला? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today दिल्ली में देगों के बाद शांति बहाल करने के प्रयास जारी हैं। (फाइल फोटो।) Full Article
india news मौजूदा दौर में बदलाव की जरूरत समझे कांग्रेस By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 18:59:00 GMT भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व को फिर से खड़ा करने के मेरे हाल के आह्वान के बाद कुछ बेचैनी सी उत्पन्न हो गई। मेरे कुछ दोस्तों ने कहा कि आपको गलत तो समझा ही जाना था, क्योंकि आपने वह बात जोर से कह दी, जो लोग निजी स्तर पर कानाफूसी कर रहे थे। इससे मैंने खुद को बगावत के आरोपों के लिए खुला छोड़ दिया है। लेकिन, मैंने जो कहा है वह कांग्रेस पार्टी के आदर्शों और मूल्यों के प्रति निष्ठा है।मैंने जिंदगीभर राजनीति नहीं की है। मैं किसी कॅरियर बनाने वाले की तरह नहीं सोचता, जो हंगामे के डर से ऐसी बातों से बचता हो। मैं राजनीति में इसलिए हूं, क्योंकि मेरे कुछ मत हैं, जो मैं समझता हूं कि भारत को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी हैं। मैं कांग्रेस का समर्थन इसलिए करता हूं, क्योंकि अपने इतिहास, अनुभव और उपलब्ध प्रतिभाओं के साथ वह उन समावेशी और अनेकता के सिद्धांतों को आगे ले जा सकती है, जो मुझे प्रिय हैं।हालांकि, पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के एक बार फिर खाता खोलने में असफल रहने से यह दावा कमजोर होता है। महाराष्ट्र में चौथे स्थान पर रहने, हरियाणा में पर्याप्त मेहनत न करने और कर्नाटक में सरकार बनाने के बावजूद उसे जल्द गंवाने और हाल ही में दिल्ली के परिणामों से साफ है कि कांग्रेस को तत्काल उन प्रमुख चिंताओं को दूर करना चाहिए, जो देशभर में भाजपा का प्रभावी विकल्प बनने में आड़े आ रही हैं।ऐसे समय पर जब हमें भाजपा का जवाब बनने के लिए खुद को मजबूत करना था, राष्ट्रीय राजधानी में सिर्फ चार फीसदी वोट पाना हार से भी बुरा है और यह शर्मनाक है। इससे भी खराब यह है कि मीडिया के एक वर्ग की वजह से इससे लाेगों की इस धारणा को मजबूती दी है कि कांग्रेस दिशाहीन व नियंत्रणहीन है और एक प्रभावी राष्ट्रीय विपक्ष की चुनौतियों को उठाने में अक्षम है।स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टी के इतिहास के छात्र के रूप में, देश को उसके द्वारा दिए गए महान नेताओं के प्रशंसक के तौर पर और देशभर में अपने मूल्यों को किताबों, भाषणों व लेखों के जरिये आगे बढ़ाने वाली पार्टी के सिपाही के रूप में मैं कांग्र्रेस को उपहास का विषय बनते नहीं देख सकता। मेरे विचार में देश के भविष्य के लिए कांग्रेस अपरिहार्य है। केवल इसके पास ही देशभर में उपस्थिति और लोगों की उम्मीदों को पूरा करने की क्षमता है।लेकिन, हमारे लिए मौजूदा धारणा को बदलने के लिए सक्रिय तौर पर काम करने की जरूरत है। जब लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने इसकी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफे का प्रस्ताव किया तो मैं उन नेताओं में एक था, जिन्होंने उनसे बात करने की कोशिश की। इसकी पहली वजह यह थी कि सामूहिक परिणाम पर जिम्मेदारी भी सामूहिक होती है। दूसरा पार्टी कार्यकर्ताओं का दृढ़ विश्वास था कि उनके पास पार्टी का नेतृत्व करने और उसे एक रखने की क्षमता व विजन था।वह पार्टी को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया शुरू कर सकते थे। वह अपने निर्णय पर अडिग रहे और हमें उसका सम्मान करना चाहिए। अनेक लोगोंका मानना है कि पार्टी में आज जो बाहर निकलने की भावना है, उसकी वजह यह है कि पार्टी संगठन राहुल का मन बदलने के लिए अनिश्चितकाल तक इंतजार करना चाहता है। अगर यह सच है, तो क्या यह सही है उनके लिए या पार्टी के लिए?निश्चित तौर पर अगर वह पुन: पद संभालने के लिए तैयार होते हैं और यह जितनी जल्द हो, बेहतर होगा और पार्टी उनका स्वागत करेगी। लेकिन, अगर वह पद न संभालने के अपने फैसले पर अडिग रहते हैं तो पार्टी को एक सक्रिय व पूर्णकालिक नेतृत्व की जरूरत होगी, ताकि पार्टी देश की उम्मीदों के मुताबिक आगे बढ़ सके। अभी के लिए सोनिया गांधी को अंतरिम दायित्व देकर कार्यसमिति ने बेहतरीन समाधान निकाला है, लेकिन यह भी साफ है कि हम अनिश्चितकाल तक उन पर निर्भर नहीं हो सकते और उन पर ज्यादा भार नहीं डाल सकते।यह न तो उनके साथ सही है और न ही मतदाताओं के साथ। हम जितना इंतजार करेंगे, उतना ही हमारे परंपरागत वोट बैंक के बिखरने और हमारे विपक्षियों के साथ जाने का खतरा बढ़ जाएगा। यही वजह है कि मैंने नए कांग्रेस अध्यक्ष व कार्यसमिति के चुनाव को अनिवार्य बताया था। मैं व्यक्तिगत रूप से इन पदों के लिए पार्टी में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए मुखर रहा हूं। मेरा मानना है कि चुने हुए नेता के लिए पार्टी की संगठनात्मक व अन्य चुनौतियों से निपटना आसान होता है। जबकि हाईकमान द्वारा नियुक्त अध्यक्ष के पास ऐसी वैधता नहीं होती।मेरा मानना है कि पार्टी में एक वास्तविक प्रतिनिधि संस्था का मूल्य असीमित होता है। इससे कार्यकर्ताओं में भी यह भावना आती है कि पार्टी की किस्मत पर उनका नियंत्रण है। जो लोग यह दावा करते हैं कि इसे पार्टी विभाजित होगी, उनसे मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि एआईसीसी व पीसीसी के दस हजार से अधिक कार्यकर्ताओं की भागीदारी वाली चुनाव प्रक्रिया से निश्चित ही पार्टी मजबूत होगी। इसे पार्टी में लोकप्रिय लीडरशिप टीम उभरेगी।हमें यह भी समझना होगा कि आज की चुनौतियों से निपटने के लिए कांग्रेस को बदलाव की जरूरत को समझना होगा। नई लीडरशिप टीम के पास अधिकार होगा कि वह किसकी नियुक्ति करे और किसे निकाले। इससे भ्रम की स्थिति खत्म होगी। इससे राज्यों में कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की प्रक्रिया शुरू होगी, विशेषकर जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत बनाया जा सकेगा।मैं कई बार कह चुका हूं कि कांग्रेस के खत्म होने की बात करना जल्दबाजी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम महाराष्ट्र और झारखंड में एक सफल गठबंधन बनाने में सफल रहे व हरियाणा में भाजपा को तगड़ी चुनौती दी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब व छत्तीसगढ़ में हमारी प्रभावी सरकारें हैं। लोकसभा चुनाव में हमने 19 फीसदी वोट पाए हैं, जो कम नहीं हैं। यह समय दोबारा से शुरू करने का है।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App 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india news बदला जाना चाहिए सरकारी मदद का तरीका By Published On :: Wed, 04 Mar 2020 19:03:00 GMT सरकार देश के हर गरीब को मुफ्त या बेहद कम दाम पर राशन देती है, क्योंकि वह पेट भरने के लिए अनाज नहीं खरीद सकता। सालों से चल रही इस स्कीम के बावजूद भुखमरी सूचकांक में भारत और फिसलते हुए 107 देशों में 102वें स्थान पर है। किसानों को रासायनिक खाद पर सब्सिडी दी जाती है कि वह महंगी खाद नहीं खरीद सकेगा, लिहाज़ा कृषि उत्पादन कम होगा।अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए ही बिजली-पानी पर सब्सिडी दी जाती है। फिर इतना सब कुछ करने के बाद सरकार किसानों की फसल बाजार मूल्य से ज्यादा पर खरीदती है, क्योंकि बिक्री मूल्य के मुकाबले किसान की लागत ज्यादा आती है और आढ़तिये बाजार भाव कम रखते हैं। इकोनॉमिक सर्वे बताता है कि इस अनाज पर रखरखाव और माल ढुलाई का खर्च भी लगभग गेहूं की कीमत के बराबर ही होता है। यानी गेहूं 18 रुपए किलो से बढ़कर 35.50 रुपए का हो जाता है। इसके बाद यह गरीबों को दो से तीन रुपए किलो की दर से दिया जाता है।लब्बोलुआब यह है कि अनाज उगाने में सब्सिडी, खरीदने में सब्सिडी और खरीदने के बाद गरीब को फिर सब्सिडी पर अनाज, लेकिन इसके बावजूद भारत का कृषि उत्पाद विश्व बाजार में खड़ा होने की स्थिति में इसलिए नहीं है, क्योंकि वह महंगा है। एक किलो गेहूं पर किसान की लागत करीब 15-18 रुपए आती है, जबकि ऑस्ट्रेलिया इससे सस्ता गेहूं भारत पहुंचाने को तैयार है और न्यूजीलैंड दूध।क्या 70 सालों में सरकारों ने सोचा है कि इतना सब कुछ करने के बाद (कुल सब्सिडी और कर्ज माफी जोड़ी जाए तो हर साल करीब साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए का खर्च आता है) भी पिछले 29 सालों में हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है। हर रोज 2055 किसान खेती छोड़कर मजदूर बन जाते हैं?इसका कारण समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए। भारत में पिछले कई दशकों से आर्थिक असमानता इतनी भयंकर रूप से बढ़ी है कि घरों में काम करने महिला को एक सीईओ की सालाना आमदनी के बराबर कमाने के लिए वर्तमान औसत आयु के हिसाब से 360 बार दुनिया में जन्म लेना होगा।इस सीईओ की हर सेकंड आय 106 रुपए है। आर्थिक विषमता यानी गरीब-अमीर के बीच खाई नियंत्रण से बाहर होती जा रही है, क्योंकि सरकारों की नीतियां गलत हैं। नीति आयोग ने हाल ही में बताया है कि भारत में पिछले एक साल में लगभग सभी राज्यों में भूख, गरीबी और असमानता की स्थिति 2018 के मुकाबले और खराब हुई है। आयोग ने 62 सूचकांकों का इस्तेमाल करते हुए पाया कि 28 में से 22 राज्यों का परफॉर्मेंस घटा है। समाजशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि यह खाई सामाजिक उपद्रव का एक बड़ा कारण बन सकती है, वह भी तब जब आज शिक्षा और संचार के प्रसार के कारण लोगों में सामूहिक चेतना बढ़ी है।देश में केवल भोजन से संबंधित सब्सिडी पर कुल खर्च 3.50 लाख करोड़ का है, इससे 12 करोड़ परिवार जुड़े हैं। यानी प्रति परिवार खर्च करीब 30,000 रुपए सालाना या 2500 रुपए प्रतिमाह या 83 रुपए प्रतिदिन। अगर इसमें बच्चों को दिया जाने वाले मध्याह्न भोजन और अन्य योजनाओं पर होने वाला व्यय भी जोड़ दिया जाए तो यह गरीबी सीमा रेखा के लिए 27 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आय की परिभाषा को पार कर जाता है।दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में कोई गरीब नहीं है। अगर यह राशि सीधे गरीब परिवार को मिले तो देश में कुपोषण से बच्चों के मरने की स्थिति में भारत बेहद नीचे न होता और न ही हंगर इंडेक्स में हमारा नंबर 102वां होता। हमारी भंडारण क्षमता से अधिक अनाज सड़कों पर या रेलवे साइट पर पड़ा रहता है और उसे चूहे या चूहेनुमा अफसर खाते रहते हैं।कुछ माह पहले खाद्य मंत्रालय ने विदेश मंत्रालय से गुहार लगाई कि कुछ गरीब देश तलाशो, जिन्हें मानवीयता के आधार पर पुराने अनाज को मुफ्त मदद के रूप में भेजा जा सके। नहीं तो इन्हें फेंकना पड़ेगा, क्योंकि इसके रखरखाव पर खर्च बढ़ता जा रहा है और नई फसल आने वाली है।हंगर इंडेक्स में पाकिस्तान हमसे बेहतर 94वें पायदान पर, बांग्लादेश 88वें, श्रीलंका 66वें और नेपाल 73वें स्थान पर हैं। चीन 25वें स्थान पर जबकि 150 तक औपनिवेशिक शासन और नस्लभेद झेलने के बाद 1994 में गणतंत्र बना दक्षिण अफ्रीका 59वें पायदान पर है। 2015 में भारत 93वें स्थान पर था। क्या आज जरूरत इस बात की नहीं है कि हम आर्थिक नीति और डिलीवरी सिस्टम को पूरी तरह बदलें? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news एक महीने पहले दुनिया से 18 गुना ज्यादा मामले चीन में थे, अब दुनिया में चीन से 18 गुना तेजी से फैल रहा वायरस By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 13:16:00 GMT नई दिल्ली. चीन के मुकाबले अब दुनिया के बाकी देशों में कोरोनावायरस ज्यादा तेजी से फैल रहा है। जनवरी के आखिर और फरवरी की शुरुआत में चीन में इस वायरस का संक्रमण चरम पर था। आज से ठीक एक महीने पहले 4 फरवरी को बाकी देशों में कोरोनावायरस के 221 नए मामले सामने आए थे, जबकि चीन में नए मामलों की संख्या 3,887 थी। यानी करीब 18 गुना ज्यादा। एक महीने बाद यानी 4 मार्च को हालात बदल चुके हैं। बुधवार के आंकड़े बताते हैं कि चीन में कोरोनावायरस के सिर्फ 120 नए मामले सामने आए, जबकि बाकी देशों में 2103 नए केस देखे गए। यानी 18 गुना का फर्क अब बदल चुका है।27 दिसंबर को 1.1 करोड़ की आबादी वाले वुहान के अस्पतालों में संदिग्ध वायरस के मामले पहुंचने शुरू हुए थे। कुछ ही दिनों में कोरोनावायरस की पुष्टि हुई और जनवरी में यह तेजी से बढ़ा। 21 जनवरी तक यह दुनियाभर में सुर्खियों में आने लगा था। तब तक चीन में 291 मामले सामने आ चुके थे। इनमें से 258 मामले अकेले वुहान में थे। वुहान से ही संक्रमण की शुरुआत हुई थी। 21 जनवरी को चीन में इस वायरस से 6 मौतें हो चुकी थीं। वुहान वही शहर है, जहां दुनिया के 80 देशों की कंपनियों ने निवेश कर रखा है। यहां के बंदगाह से एक साल में 17 लाख कंटेनर दुनियाभर में जाते हैं। 23 जनवरी को यह शहर लॉकडाउन कर दिया गया था।एक महीने में क्या बदला1) नए मामले अब दुनिया में ज्यादा तारीख चीन में नए मामले दुनिया में नए मामले 4 फरवरी 3,887 221 4 मार्च 120 2,103 2) नए मरीजों से ज्यादा संख्या रिकवर होने वाले मरीजों की तारीख दुनिया में नए मामले कितने रिकवर हुए 4 फरवरी 3,887 264 4 मार्च 2,103 2,580 रिसर्च के मुताबिक, चीन में दो तरह के कोरोनावायरसचीन के वैज्ञानिकों का एक शोध हाल ही में सामने आया है। वैज्ञानिकों ने 149 जगहों से कोरोनावायरस के 103 जीनोम का एनालिसिस किया। इसके बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कोरोनावायरस एल और एस टाइप का है। एस टाइप की वजह से दुनिया में अब इन्फेक्शन तेजी से फैल रहा है। एस टाइप का कोरोनावायरस एल टाइप से ही पैदा हुआ है। वुहान में 7 जनवरी से पहले एल टाइप वायरस मौजूद था। बाद में यह एस टाइप में तब्दील हुआ, जिस वजह से कोरोनावायरस के मामलों में अचानक तेजी आई।ये भी पढ़ें1#कोरोनावायरस से भारत को कारोबार में 2.5 हजार करोड़ रु. के नुकसान की आशंका, यूरोपियन यूनियन इससे 44 गुना ज्यादा घाटे में रहेगा2#कोरोनावायरस से 15 देशों में 3286 की मौत, चीन में सबसे ज्यादा; 95488 मामलों में 57975 लोग ठीक हुए3#कोरोनावायरस से बचाव के लिए बार-बार हाथ धोएं, छींकने-खांसने वालों से 1 मीटर दूर रहें4#जयपुर के जिस 10 मंजिला अस्पताल में संदिग्धों को भर्ती कराया गया, वहां के सभी मरीज 24 घंटे के अंदर छुट्टी लेकर चले गए5#फैक्ट चेक: कोरोनावायरस का न शरीर के रंग से संबंध, न शराब से; 10 फेक वायरल दावों का सच Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Coronavirus Latest; Coronavirus New Cases Latest Updates On Infection Spreading Outside China Full Article
india news कोई भी जोखिम न लें और बिल्कुल न घबराएं By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:38:00 GMT कोरोना वायरस को लेकर बढ़ती चिंता ने पहले ही बड़े-छोटे, सभी तरह के कार्यक्रम बिगाड़ दिए हैं। बुधवार रात को मुझे एक ईमेल और वाट्सएप मैसेज और उसके बाद एक पर्सनल कुरियर मिला। इसमें दूल्हा और दुल्हन के माता-पिता के हस्ताक्षर वाली विनम्रता से भरी चिट्ठी थी, जिसमें लिखा का, ‘हम जानते हैं कि आप दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से हमारे बच्चों को आशीर्वाद देने और उनकी शादी का उत्सव मनाने आ रहे हैं।आपके आने से हमें बहुत खुशी होगी। चूंकि हमारे मेहमानों की सुरक्षा और स्वास्थ्य हमारे लिए सर्वोपरि है, इसलिए वायरस के तेजी से बढ़ने की इन नई परिस्थितियों के बीच हम रिसेप्शन को आगे बढ़ा रहे हैं। रिसेप्शन रद्द नहीं किया गया है। हम आपके साथ नई तारीखें जल्द साझा करेंगे। उम्मीद है आप स्थिति को समझेंगे...’मैं समझ सकता हूं कि भीड़भरी सार्वजनिक बैठकों को लेकर कोई भी जोखिम उठाना नहीं चाहता। कोरोना वायरस का इंफेक्शन 70 देशों में पहुंच चुका है, जिसमें भारत भी शामिल है, जहां मामलों की संख्या बढ़ी है। विभिन्न शहरों के बड़े क्लब्स भी होली के त्योहार के दौरान पार्टियां आयोजित न करने का फैसला ले रहे हैं।दुनियाभर में विशेषज्ञ कोरोना वायरस को फैलने से रोकने और इसका शिकार होने से बचने के लिए किसी भीड़ वाले समारोह से बचने की सलाह दे रहे हैं। ज्यादातर कॉर्पोरेट ऑफिस ने अपने कर्मचारियों को सावधानियों के बारे में बताने के लिए नोटिस बोर्ड पर ‘क्या करें’ और ‘क्या न करें’ वाली सूचनाएं लगा दी हैं।संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि कोरोना वायरस महामारी से वैश्विक स्तर पर शिक्षा को हो रहा नुकसान ‘अद्वितीय’ है। तीन महाद्वीपों के ज्यादा से ज्यादा देश अलग-अलग संख्या में स्कूलों को बंद करने की घोषणा कर रहे हैं, जिस कारण संयुक्त राष्ट्र ने ऐसी चेतावनी दी। अमेरिका के लॉस एंजिलिस में बुधवार को आपातकाल घोषित कर दिया गया।माता-पिता को सलाह दी गई है कि वे खुद को स्कूल के बंद होने के लिए तैयार कर लें। स्पष्ट रूप से कहूं तो मुझे आधुनिक समय में ऐसा कोई मौका याद नहीं आता, जब आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं ने लंबे समय के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्कूल बंद किए हों। दूसरी तरफ सोशल मीडिया हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा है कि कोरोना वायरस के फैलने से पूरी मानव जाति ही खतरे में आ गई है। लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं है, हालांकि यह स्थिति चेताने वाली जरूर है।अफवाहों का फैलना, वायरस से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। दुर्भाग्य से तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों को ऐसे अप्रमाणित मैसेज फॉर्वर्ड करने में आनंद आ रहा है, जो न सिर्फ आम जनता में भय का माहौल बना रहे हैं, बल्कि मरीजों को संभावित इलाज के बारे में भी भ्रमित कर रहे हैं। ऐसे इलाज बता रहे हैं, जिनका कोई प्रमाण ही नहीं है। चूंकि स्मार्टफोन वाली भीड़ में आत्मसंयम का गुण नहीं होता है, इसलिए याद रखें, आपको ही हर जानकारी को शक की निगाह से देखना होगा। ऐसे समय में गलत जानकारी से ज्यादा बड़ा खतरा कोई नहीं है।एक बुनियादी काम जो सभी कर सकते हैं, वह है हाथ मिलाने की जगह नमस्ते करना। इसके कम से कम कुछ पत्तियां तुलसी की खाएं, स्मोकिंग बंद कर दें, जब भी संभव हो नीबू का रस पीएं, शराब से बचें, घर पर ही खाना पकाएं और कुछ समय के लिए फास्ट फूड से बचें। और आखिर में जितनी बार संभव को, हाथ धोएं। सार्वजनिक स्थानों पर तभी जाएं जब जरूरी हो। हर बार सामान के पैकटों को धोएं, जिसमें ऑनलाइन मंगाए गए किराने के सामान की पैकिंग भी शामिल है।फंडा यह है कि कोई भी जोखिम न उठाएं। बुनियादी तरीके अपनाएं और घबराएं नहीं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news आरोप बिछाने की चीज है-ठाठ से उस पर बैठिए और अचल रहिए By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:41:00 GMT हिंदी के जाने-माने आलोचक रहे नामवर सिंह का एक कथन है-आरोप ओढ़ने की चीज नहीं, बिछाने की चीज है- वह चादर नहीं, दरी है। ठाठ से उस पर बैठिए और अचल रहिए।नामवर सिंह ने चाहे जिस संदर्भ में यह कहा हो, लेकिन लगता है हमारे ‘महनीय’ विधायकों ने इस कथन को कुछ ज्यादा ही आत्मसात कर लिया है। गोवा हो या महाराष्ट्र या फिर कर्नाटक की बात हो या फिर बात हो मध्यप्रदेश की। आरोपों से बेपरवाह हमारे विधायक बिना संकोच बेशर्मी की सभी हदें पार करते हुए सत्ता हथियाने के लिए इस कथन पर आंख मूंदकर अमल कर रहे हैं।वो मन बदल रहे हैं, दल बदल रहे हैं और बदल रहे हैं सत्ता-समीकरण। जनता चाहे नैतिकता को ताक पर रखने का आरोप लगाए या चांदी के चंद खनकते-चमकते सिक्कों में जमीर बेच डालने का आरोप मढ़े, सत्ता पर मोहित विधायक अचल रहते हैं।वैसे दल-बदल भारतीय राजनीति की पुरानी और लाइलाज बीमारी है। बिलकुल सड़े और बदबूदार नासूर में तब्दील हो चुके घाव की तरह। इस नासूर का इलाज करने के लिए तमाम पैथियां आजमाई जा चुकी हैं, लेकिन सब विफल रही हैं।सैद्धांतिक निष्ठा बचाने की सबसे पहली कोशिश 1985 में दल-बदल विरोधी कानून लाकर की गई। इसके पहले दल-बदल पर कोई बंदिश नहीं थी। फिर 2003 में 91वां संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ, लेकिन नतीजा सिफर रहा। 1980 का वो घटनाक्रम कौन भूल सकता है, जब हरियाणा की पूरी भजनलाल सरकार का ही कांग्रेस में विलय हो गया था। वैसे विचारधारा की राजनीति देश से कब तिरोहित होनी शुरू हुई, इसका एकदम सटीक अंदाजा लगाना तो राजनीतिक वैज्ञानिकों के लिए भी बेहद मुश्किल है, लेकिन आयाराम-गयाराम का जुमला पहली बार मार्केट में आया 1967 में, वाया हरियाणा।असल में इसी साल हरियाणा की हसनपुर विधानसभा सीट से गया लाल नाम के एक नेता विधायक चुने गए थे। निर्दलीय। चुनाव नतीजे आने के बाद गया लाल कांग्रेस में शामिल हो गए। चंद घंटों में ही गया लाल का मन बदल गया और वो संयुक्त मोर्चा में वापस चले गए। लेकिन नौ घंटे के भीतर ही उनका मन फिर बदला और वो वापस कांग्रेस में चले गए। यानी गया लाल एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदल चुके थे। घटनाक्रम के बाद मुख्यमंत्री बने राव बीरेंद्र सिंह ने उसी वक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहली बार कहा था कि ‘गया राम, अब आया राम’ हैं।वैसे पाला बदलने वाले विधायकों पर- जिस पर भी धार आ जाए, वही उस्तरा वाला जुमला भी पूरी तरह सटीक बैठता है। यानी जो भी दल बदल ले वही मंत्री। ऐसे दल-बदलुओं को कालाधन के धनकुबेरों से एक मुश्त पैसा भी खूब मिल जाता है और मंत्री पद के साथ माहवार अवैध उगाही का इंतजाम भी हो जाता है। सत्ता और पैसे का यही दरिद्र मनोविज्ञान वर्जनाएं तोड़कर नैतिकता नाम की चिड़या को बार-बार खूंटी पर टांगने का दुस्साहस पैदा करता है।जाने-माने लेखक जिम कॉलिंस कंपनियों के बारे में लिखी अपनी पुस्तक-गुड टू ग्रेट में लिखते हैं- जो कर्मचारी बार-बार झूठ बोले, अपनी जिम्मेदारी न निभाए, बार-बार वादा तोड़े, काम करने की कोशिश ही न करे, दूसरों की चुगली करे और हर बात में हमेशा नकारात्मकता ही देखे, ऐसे कर्मचारी को मनोरोगी (Sociopath) मानकर कंपनी से बाहर करने में कतई संकोच नहीं करना चाहिए...तो क्या जब ये सारे लक्षण हमें अपने विधायकों में भी दिखने लगें तो क्या हमें उन्हें भी मनोरोगी और समाजकंटक मानकर उनका इलाज खोजना चाहिए? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news लैंगिक समानता के साथ रहना सीखें पुरुष By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:44:00 GMT भारत में एक लड़की का बड़ा होना आसान नहीं है। एक महिला और एक कामकाजी महिला होना और भी कठिन है। कई बार तो ऐसा भी कहा जाता है कि अगर आप पुरुष नहीं हैं तो यह दुनिया की सबसे खतरनाक जगह है। यहां पर लैंगिक विभाजन बहुत अधिक है, हालांकि यह धीरे-धीरे बंद हो सकता है, यह उनके लिए जीवन को अधिक खतरनाक बनाता है, जो जबरन पुरुष विशेषाधिकार के दरवाजे खोलना चाहता है।ऐसे देश में जहां यौन अपराध हर सुबह अखबारों के पहले पेज पर होते हैं, वहां हजारों अनदेखी, अपरिचित महिलाओं ने लैंगिक पूर्वाग्रह और अपमान के साथ रहना सीख लिया है। उन्हें लगता है कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। हाल ही में सरकार ने सेना में महिलाओं को अधिक समानता देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि महिलाएं कमांडिंग पदों के लिए उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि पुरुष सैनिक उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह भी तर्क दिया गया कि अलग-अलग शारीरिक मानदंडोंकी वजह से तैनाती के लिए महिला और पुरुष अफसरों को समान नहीं आंका जा सकता। अधिक पारिवारिक जरूरत, युद्धबंदी बनाए जाने का डर और युद्ध की स्थिति में महिला अफसरों पर संदेह जैसे अनेक कारणों से कहा गया कि वे इस कार्य के योग्य नहीं हैं।सौभाग्य से अदालत ने इन ओछे और लैंगिक भेदभाव वाले तर्कों को खारिज कर दिया और आदेश दिया कि अब पुरुषों की ही तरह महिलाएं भी स्थायी कमीशन पा सकेंगी। जजों ने कहा कि ‘लैंगिक आधार पर क्षमताओं पर संदेह करने से न केवल महिला के रूप में, बल्कि भारतीय सेना की सदस्य के तौर पर भी उनके अात्मसम्मान का तिरस्कार हुआ है।’ उम्मीद है कि इस ऐतिहासिक फैसले से हमारी सेना में महिलाओं की संख्या में मौजूदा चार फीसदी की तुलना में ठीकठाक बढ़ोतरी होगी।इसके अलावा गणतंत्र दिवस परेड में एक शोपीस की तरह प्रोजेक्ट होने की बजाय महिला ऑफिसर्स जल्द ही पुरुषों के समान ही प्रोन्नति, रैंक, लाभ व पेंशन पा सकेंगी। लेकिन, आदमी तो आदमी ही है और वो अपने पूर्वाग्रहों काे आसानी से नहीं छोड़ेगा। यही वजह है कि एक वैश्विक शक्ति के दावों के बावजूद हम यूएनडीपी लैंगिक असमानता इंडेक्स में 162 देशों में 122वें स्थान पर हैं, चीन, म्यांमार और श्रीलंका भी हमसे आगे हैं।हम महिलाओं के बारे में क्या सोचते हैं, इसकी वास्तविकता का पता आएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हाल के बयान से पता चलता है। उनका कहना था कि सामान्य तौर पर अधिक तलाक पढ़े-लिखें और संपन्न परिवारों में होते हैं, ‘क्योंकि शिक्षा और दौलत से दंभ आता है और परिणाम स्वरूप परिवार बंट जाते हैं।’ यह मानसिकता बदलनी चाहिए। भागवत जिसे संपन्नता कहते हैं वह शिक्षा और वित्तीय स्वतंत्रता असल में महिला के लिए यह संभव बनाती है कि वह उस समाज में बराबरी के दर्जे पर दावा कर सके, जहां हर संबंध में उसे कमतर आंका जाता है, खासकर विवाह में।गरीब और मध्यम वर्ग की लाखों महिलाएं सामाजिक निंदा के डर से आज भी एक प्रेमहीन व नाखुश विवाह में फंसी हैं। यह खासकर भारत के उन हिस्सों में हो रहा है, जहां पर परंपराएं सुनिश्चित करती हैं कि किससे शादी करनी है यह तय करने में महिलाओं की इच्छा न्यूनतम हो। यह फैसला समुदाय या फिर परिवार के बड़े लोग करते हैं और इसकी वजह प्रेम के अलावा ही होती है। मान्यता यह है कि प्रेम शादी के बाद होना चाहिए न कि अन्य तरीके से।यह सच है कि अधिक से अधिक महिलाएं अब खुद का अधिकार जता रही हैं। वे चाहे अपनी पसंद का साथी चुन रही हों जाति, समुदाय, गोत्र या फिर कुछ मामलों में तो लिंग को भी नकार रही हैं। यही नहीं वे शादी जरूरत है इस विचार को भी खारिज कर रही हैं। अधिक से अधिक महिलाएं कॅरियर चुन रही हैं, ताकि उनमें एक गर्व की भावना आए।कई अन्य जो ऐसे विवाहों में फंसी हैं, जिसमें वे रहना नहीं चाहती, वे उसे छोड़कर अपनी जिंदगी को नए सिरे से परिभाषित कर रही हैं और वे उस खुशी और समानता को हासिल कर रही हैं, जिससे अब तक उन्हें वंचित किया गया था। उन्हें इस बात का डर नहीं लगता कि समाज उनके बारे में क्या सोचेगा। शिक्षा और वित्तीय स्वतंत्रता ने उन्हें यह चुनने का अधिकार दिया है, दंभ नहीं। यह लैंगिक न्याय की चाहत से आया है।यह सही है कि परिवार टूट रहे हैं। लेकिन ये इसलिए टूट रहे हैं कि महिलाएं अब उस विवाह को छोड़ने से डर नहीं रही हैं, जो चल नहीं पा रहा है। उनके लिए तलाक स्वतंत्र इच्छा का एक जरिया है। यह एक असंतुष्टि वाली नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी पाने जैसा है, जहां पर आपके सफल होने के अधिक मौके हैं। यह खुद को बचाने की भावना से आता है, दंभ से नहीं।दंभ तो वह है जब पुरुष मासिक धर्म की उम्र वाली महिलाओं को मंदिर में जाने से रोकते हैं। दंभ तब होता है, जब विधवाओंका सामजिक तिरस्कार होता है। या तब होता है, जब दहेज न लाने पर दुल्हनों को जला दिया जाता है। एक आधुनिक कार्यस्थल पर अवसरों व वेतन में असमानता और महिलाआें के प्रति व्यवहार दंभ है। अमेरिकी फिल्मकार विंसटीन का मामला इसका उदाहरण है।लैंगिक समानता की लड़ाई जारी रहेगी। असल में तो यह गति पकड़ेगी। पुरुषों को अब समानता की हकीकत मेें रहना सीखना होगा। परंपराओं को नए सामाजिक बदलावों बीच से रास्ता निकालकर यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं वह सब कुछ कर सकें जो पुरुष कर सकते हैं और वह भी बिना इस डर के कि उनसे पूछताछ होगी या सजा मिलेगी।(यह लेखक के अपने विचार हैं) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news आपके भीतर की योग्यता ही मूल प्रकृति है By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:51:00 GMT हम मनुष्य बनाए गए हैं, इसलिए हमारे भीतर एक संभावना है और उस संभावना को निखारने का नाम प्रकृति है। हमारे यहां तीन शब्द बड़े अच्छे आए हैं- प्रकृति, विकृति और संस्कृति। शास्त्रों में अलग-अलग ढंग से इन पर चर्चा भी होती आई है। प्रकृति हमें जन्म से मिली है, विकृति हम कर्म से पैदा करते हैं और इन दोनों से जो अच्छा किया जाता है उसे संस्कृति कहा गया है।चूंकि हम मनुष्य हैं तो हमें अपनी प्रकृति का विकास करना चाहिए, विकृति से अपने आपको बचाना चाहिए और इन दोनों से पार जाते हुए संस्कृति के साथ जीवन जीना चाहिए। बात थोड़ी कठिन लग रही है, पर इसे यूं आसानी से समझें कि हमारे भीतर जो भी योग्यता है और उसे जब निखारेंगे तो वह हमारी मूल प्रकृति है। लेकिन जब हम आगे बढ़ रहे होंगे तो हमारे आसपास बहुत सारे लोग होंगे जो आलोचक या ईर्ष्यालु भी हो सकते हैं, उन पर यदि रुक गए, उनसे उलझ गए तो यह विकृति होगी।उन सबको भूलकर आगे बढ़ें। यदि उन पर ठहर गए तो वो फिर आपके साथ ही चलते रहेंगे। यदि उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ गए तो विकृति से बच जाएंगे। जब प्रकृति के साथ आगे बढ़ेंगे, विकृति को पीछे छोड़ देंगे तो पाएंगे आप एक दिव्य संस्कृति में हैं। संस्कृति का अर्थ होता है एक ऐसा अनुशासित जीवन जिसमें आपके पास सफलता भी है और शांति भी। यदि सफलता के साथ शांति चाहते हैं तो इन तीन शब्दों को ठीक से समझकर जीवन में इनका उपयोग कीजिए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news पीएम और सरकार के होली न मनाने का संदेश समझें By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:55:00 GMT कोरोना वायरस के नए मामले आने के बाद स्वास्थ्य मंत्री ने संसद में यह जरूर कहा है कि सरकार तैयार है, लेकिन सामाजिक संचरण के किसी भी उद्यम या संस्था पर अभी तक रोक नहीं लगी है। यानी स्कूल और दफ्तर उसी तरह खुले हैं, कर्मचारी व मजदूर वर्ग भी पहले की ही तरह रोजी-रोटी के लिए जा रहा है। सॉफ्ट स्टेट, जबरदस्त आबादी घनत्व, सामाजिक आदतें, अज्ञानता, गरीबी और सरकार का उनींदापन ही नहीं, होली का आसन्न त्योहार भी इसमें घी का काम कर सकता है।दिल्ली में जिस व्यक्ति को इसका शिकार पाया गया, उसने अपने बच्चे के जन्मदिन पर पार्टी दी। उसके जो रिश्तेदार आगरा से आए उनमे सभी छह लोगों को भी कोरोना वायरस टेस्ट पॉजिटिव पाया गया है। जाहिर है ये छह भी अन्य लोगों के संपर्क में आए होंगे। क्या इस जानकारी के बाद भी सरकार को देश के सभी स्कूल-कॉलेजों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और उद्यमों को महज दो-चार दिन के लिए बंद नहीं करना चाहिए? शायद देश के प्रधानमंत्री को संक्रमण की इस विभीषिका के खतरे का अंदेशा था, लिहाज़ा उन्होंने अपने सहयोगी गृहमंत्री और सरकार ही नहीं, भाजपा को होली न मनाने की सलाह दी।इसका छिपा संदेश यही था कि होली मिलन भौतिक/शारीरिक तौर पर मिलने का त्योहार होता है, लिहाज़ा इस बार कोरोना के मद्देनजर देश व व्यक्तिगत हित में इससे परहेज किया जाए। इस त्योहार में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं, गले मिलते हैं और सामूहिक रूप से रंग-गुलाल लगाकर उत्साह प्रदर्शन करते हैं। ये सभी क्रियाएं वायरस के फैलने के लिए अनुकूल हैं। उसी तरह तमाम पर्वों/प्राकृतिक आपदाओं पर स्कूल बंद होते हैं तो क्या इस अवसर पर सरकार को किसी महामारी का इंतजार करना चाहिए?राष्ट्रवाद को लेकर जिस तरह एक वर्ग काफी उत्साहित दिखता है, इस मामले में भी वही उत्साह दिखाते हुए होली का पर्व घर पर रहकर मनाने का फैसला लेना चाहिए। इस वैश्विक संकट से भारत के निकलने के बाद उसकी खुशी में दूने उत्साह से देश ऐसा ही त्योहार मना सकता है। कुल मिलाकर मात्र इस त्योहार का स्वरूप अबकी बार बदलना होगा, यानी पकवान भी बनें, रंग भी घुलें पर अपने-अपने घरों में ही। जितना हम एक-दूसरे के संपर्क में आने से बचेंगे, उतना ही खुद सुरक्षित रहेंगे और अन्य लोगों को भी सुरक्षित रखेंगे। कहा भी जाता है कि सावधानी इलाज से बेहतर है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news प्रगतिशील राष्ट्र की बुनियाद हैं स्वस्थ महिलाएं By Published On :: Thu, 05 Mar 2020 19:59:00 GMT डॉ. हर्षवर्धन, केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री.भारत की विकास गाथा में महिलाओं का बहुमूल्य योगदान है। इसलिए वे सरकार के लिए एक प्राथमिकता हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने महिलाओं के लिए जन्म से लेकर किशोरावस्था एवं वयस्क होने तक के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम बनाए हैं। स्वस्थ बचपन के लिए टीके व पोषण और उसके बाद मासिक धर्म स्वच्छता कार्यक्रम, साप्ताहिक आयरन एंड फोलिक एसिड योजना (विफ्स) और साथिया (सहकर्मी शिक्षक) जैसे किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।इसके अलावा प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (पीएमएसएमए), सुरक्षित मातृत्व आश्वासन (सुमन) जैसे विशिष्ट कार्यक्रमों के जरिये गर्भावस्था एवं बच्चे के जन्म से जुड़ी विशेष देखभाल सुनिश्चित की जाती है। महिलाओं के लिए स्तन एवं गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की जांच की सुविधा भी नि:शुल्क है।जून, 2016 में शुरू किए गए पीएमएसएमए का लक्ष्य सभी गर्भवती महिलाओं को हर महीने की 9 तारीख को सुनिश्चित, व्यापक और गुणवत्तापूर्ण प्रसव पूर्व देखभाल सेवाएं नि:शुल्क मुहैया कराना है।अब तक 2.38 करोड़ से भी अधिक गर्भवती महिलाओं को इसके तहत सेवा देने के साथ ही 12.55 लाख से भी अधिक उच्च-जोखिम वाली गर्भावस्था की पहचान की जा चुकी है। मातृ एवं नवजात मृत्यु दर को रोकने के लिए लेबर रूम और मैटरनिटी ऑपरेशन थिएटरों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए दिसंबर 2017 में ‘लक्ष्य’ को लॉन्च किया गया था। अब तक 506 लेबर रूम एवं 449 मैटरनिटी (प्रसूति) ऑपरेशन थिएटर राज्य प्रमाणित हैं और 188 लेबर रूम एवं 160 मैटरनिटी ऑपरेशन थिएटर राष्ट्रीय स्तर पर ‘लक्ष्य’ के तहत प्रमाणित हैं।पिछले साल 10 अक्टूबर से शुरू किए गए ‘सुमन’ कार्यक्रम का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं नि:शुल्क मुहैया कराना है। इसके तहत स्वास्थ्य केंद्र पर आने वाली किसी भी महिला और नवजात शिशु को सेवा न देने पर ‘जीरो टॉलरेंस’ का प्रावधान है। सुमन के तहत मां और नवजात शिशु के स्वास्थ्य से जुड़ी सभी मौजूदा योजनाओं को एक समग्र कार्यक्रम के अंतर्गत लाया गया है। सभी को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए ‘एबी-एचडब्ल्यूसी’ के तहत 30 साल से अधिक उम्र वाले सभी लोगों की मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मुंह, स्तन और गर्भाशय ग्रीवा कैंसर की जांच की जाती है। अब तक 1.03 करोड़ से भी अधिक महिलाओं में स्तन कैंसर की जांच की गई है तथा 69 लाख से भी अधिक महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की जांच की गई है। इस तरह के कार्यक्रमों एवं सुविधाओं के लिए कुशल मानव संसाधन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2015 में ‘दक्षता’ के नाम से एक राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया। यह डॉक्टरों, स्टाफ नर्सों और एएनएम सहित सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए एक तीन दिवसीय प्रशिक्षण कैप्सूल है। इसमें प्रसव पीड़ा से लेकर शिशु के जन्म तक जुड़ी सभी देखभाल सेवाओं का समुचित प्रशिक्षण दिया जाता है। अब तक 16,400 लोग यह प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं।गर्भवती महिलाओं एवं नवजात शिशुओं के लिए सम्मानजनक देखभाल सुनिश्चित करने के लिए हाल में ‘मिडवाइफरी सेवा पहल’ शुरू की गई है। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक दक्ष ‘मिडवाइफरी में नर्स प्रैक्टिशनरों’ का एक कैडर तैयार करना है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए 2014 में दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र में ‘दक्ष’ के नाम से पांच राष्ट्रीय कौशल लैब की स्थापना की गई है। इसी तरह गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, जम्मू और कश्मीर में 104 एकल कौशल लैब बनाई गई हैं।इसके अच्छे नतीजे सामने आए हैं। भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी नवीनतम विशेष बुलेटिन के अनुसार, भारत के मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) में एक वर्ष में आठ अंकों की गिरावट दर्ज की गई है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक वर्ष लगभग 2000 और गर्भवती महिलाओं की जान बच रही है। इस निरंतर गिरावट से भारत पांच साल पहले ही 2030 के लक्ष्य को हासिल कर लेगा।जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जेएसएसके) के तहत सभी गर्भवती महिलाओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में बिल्कुल मुफ्त और बिना किसी खर्च के प्रसव के लिए प्रेरित किया जाता है, जिसमें शल्य प्रसव (सिजेरियन सेक्शन) भी शामिल है। एक और अहम बात। महिलाएं न केवल स्वास्थ्य कार्यक्रमों की लाभार्थी हैं, बल्कि वे वास्तव में उस टीम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी हैं जो समाज को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराती है। इसमें आशा, एएनएम, स्टाफ नर्स और महिला चिकित्सक शामिल हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news व्यवस्था की सहूलियत बौनों की जम्हूरियत By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 00:26:37 GMT राजकुमार हिरानी की आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘पीके’ में नायक चलते समय अपने हाथ बदन से सटाकर चलता है। आमतौर पर चलते समय हमारे पैरों के साथ-साथ हाथ चलायमान रहते हैं। नदी में तैरते समय भी हाथ और पांव दोनों चलते हैं। तैरने के लंबे अनुभव से मनुष्य बिना हाथ-पैर हिलाए भी पानी की सतह पर कुछ समय तक स्थिर रह सकता है।जैसे लकड़ी की नाव बिना पतवार चलाए भी पानी में डूबती नहीं। पानी और हवा के वेग का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर पड़ता है। जब अनिच्छुक अशोक कुमार को अभिनय करना पड़ा तब समस्या यह थी कि संवाद बोलते समय या खामोश चलते हुए, अपने हाथ कैसे रखें। उन्होंने हाथ कोट की जेब में रखने की पतली गली खोज निकाली।गांव में नदी से जल के मटके सिर पर रखकर चलने वाली स्त्री इतना संतुलन बनाए रखती है कि एक बूंद भी मटके से नहीं गिरती। यह काम रस्सी पर चलने की तरह संतुलन बनाए रखने की कला है। सरौते से सुपारी काटते समय भी मुंह से आवाज निकलती है। मानो खामोश रहते हुए सुपारी नहीं काटी जा सकती। ‘शोले’ की बसंती बिना बोले तांगा नहीं चला सकती।संभवत: उसकी घोड़ी धन्नो को भी बातें सुनना पसंद है। देव आनंद बहुत तेज गति से चलते थे और उनका साथ देने वालों को दौड़ना पड़ता था। जॉनी वॉकर ने कुछ फिल्मों में लंगड़े व्यक्ति का पात्र अभिनीत किया है और उनका बांकपन अवाम को बहुत पसंद आता है। ज्ञातव्य है कि बलराज साहनी ने इंदौरी बदरुद्दीन को मुंबई में बस कंडक्टर का काम करते देखा।वे अपना काम करते हुए यात्रियों को हंसाया करते थे। बलराज साहनी की सिफारिश पर ही गुरु दत्त ने बदरुद्दीन को जॉनी वॉकर नाम दिया। वे इतने सफल हुए कि बतौर नायक भी उन्होंने अभिनय किया। ‘छूमंतर’ फिल्म में वे मेहबूबा के मोहल्ले से पिटकर वापस आते हैं। उन्हें हमेशा इतना पीटा जाता है कि खटिया पर डालकर उन्हें घर लाया जाता है।गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का कथन है कि मनुष्य का सीधा खड़ा होना भी उसका स्वतंत्रता के प्रति आग्रह माना जा सकता है। व्यवस्था की जिद है कि मनुष्य झुककर चले। आज्ञा न मानने पर डंडे चलाए जाते हैं। दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ की शूटिंग बनारस में नहीं होने दी थी। दीपा मेहता ने केंद्र और प्रदेश सरकार से बाकायदा शूटिंग करने के लिए आज्ञा पत्र प्राप्त किया था।शूटिंग का विरोध करने वाला एक हुड़दंगी गंगा में कूद गया। इस तथाकथित आत्महत्या प्रकरण के बाद प्रदेश सरकार ने दीपा मेहता को यूनिट सहित बनारस छोड़ने की आज्ञा दे दी। बहरहाल दीपा मेहता ने फिल्म की शूटिंग श्रीलंका में की। कुछ समय बाद दीपा मेहता की बेटी ने उसी गंगा में आत्महत्या करने वाले हुड़दंगी को दिल्ली में देखा।वह आत्महत्या का एक और स्वांग रचने जा रहा था। बाद में उसने दीपा मेहता की पुत्री को बताया कि हुड़दंग करना उसका पेशा है। वर्तमान समय में मनुष्य मृत शताब्दियों का बोझ लेकर चल रहा है और यही प्रक्रिया उसे बौना भी बना रही है। गुजश्ता सदियों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है, उन्हें मारा गया है, मुर्दा बनाया गया है ताकि अवाम को संकीर्णता की खाई में फेंक दिया जाए। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का कथन है कि नागरिकता में मनुष्य स्वभाव का अनापेक्षित कार्यकलाप शामिल है। जिसे किसी भी रजिस्टर में कैसे दर्ज किया जा सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news कोरोना, सर्वत्र रोना-धोना By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:13:00 GMT अर्थशास्त्र के विद्वानों ने दशकों पूर्व सन् 2022 में वैश्विक आर्थिक मंदी होने की बात कही थी। उनका कहना है कि सन् 1933 में घटी वैश्विक मंदी से कहीं अधिक भयावह होगी 2022 की मंदी। वर्तमान में कोरोना नामक वायरल बीमारी लगभग 50 देशों में फैल चुकी है। कोरोना से 60 हजार लोग बीमार पड़े और उनमें 8% की मृत्यु हुई। चीन से प्रारंभ हुई यह बीमारी अब विश्वव्यापी संकट बन चुकी है। हवाई जहाज और रेलगाड़ियों में आरक्षित टिकट निरस्त किए जा रहे हैं। पहले ही ठप पड़े हुए उद्योग-धंधों की संख्या बढ़ती जा रही है। बैंक में धन की कमी है। अतः 50,000 से अधिक धन अपने खाते से निकाला नहीं जा सकता।जिया सरहदी कि ‘फुटपाथ’ नामक फिल्म में दवा बनाने वाली कंपनी नकली दवा बेचती है और कई लोग मर जाते हैं। दवा कंपनी का मुलाजिम अदालत में कहता है कि उसे उसकी सांसों से हजारों मुर्दों की दुर्गंध आती है। उसने समय रहते सरकार को सूचना नहीं दी। ज्ञातव्य है कि फिल्म में दिलीप कुमार ने मुलाजिम की भूमिका अभिनीत की थी। यह गौरतलब है की ऋषिकेश मुखर्जी की 1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘अनाड़ी’ में एक दवा बनाने वाली कंपनी के पास इलाज की मूल दवा सीमित मात्रा में है, परंतु बीमारी के फैलते ही वे नकली दवा बनाने लगते हैं।कंपनी के कर्मचारी की मां की मृत्यु नकली दवा के सेवन के कारण हो जाती है। फिल्म के क्लाइमेक्स में दवा कंपनी का मालिक अदालत में अपना अपराध स्वीकार करता है। एक ही थीम पर बनी इन दो फिल्मों में ‘फुटपाथ’ असफल रही, जबकि ‘अनाड़ी’ सफल हुई। कुछ दिन पूर्व ही शांताराम की फिल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कथा’ का सारांश इस कॉलम में दिया गया था कि कैसे एक भारतीय डॉक्टर ने चीन के अवाम को वायरस से बचाने हेतु अथक परिश्रम किया था। वह मानवता की सेवा में शहीद हो गया था। फिल्म सत्य घटना से प्रेरित थी।दक्षिण भारत के फिल्मकार श्रीधर की राजकुमार, राजेंद्र कुमार और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म ‘दिल एक मंदिर’ में कर्तव्य परायण डॉक्टर मर जाता है, परंतु अपने मरीज का जीवन बचा लेता है। ज्ञातव्य है कि एक दौर में इंदौर में नकली शराब पीने के कारण कई लोग मर गए और कुछ लोग अंधे हो गए। इस सत्य घटना से प्रेरित खाकसार की फिल्म ‘शायद’ मैं कुछ काल्पनिक घटनाओं का समावेश भी किया गया था। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, नीता मेहता, पूर्णिमा जयराम अभिनीत फिल्म का एक दृश्य इंदौर के शायर काशिफ इंदौरी के जीवन की एक घटना से प्रेरित था।काशिफ इंदौरी ने ग्वालियर में आयोजित एक मुशायरा लूट लिया था अर्थात उनकी रचनाएं सबसे अधिक पसंद की गई थीं। इंदौर लौटकर उन्होंने अपने परिवार से कहा कि वे शराब से तौबा करने जा रहे हैं और वह दिन उनकी शराबनोशी का आखिरी दिन था। उस दिन ही शहर में नकली शराब बेची गई थी। काशिफ इंदौरी का शेर कुछ इस तरह था- ‘सरासर गलत है मुझपे इल्जामें बलानोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब।’ काफिये कि गलती मेरी अपनी है, क्योंकि याददाश्त का हिरण ऐसी ही लुका-छिपी करता है।विदेशों में बीमारियों पर अनगिनत फिल्में बनी हैं। ढेरों उपन्यास लिखे गए हैं। आईलेस इन गाजा, कोमा, हॉस्पिटल इत्यादि रचनाएं सराही गई हैं। कोरोना का इस तरह फैल जाना शंकर-जयकिशन द्वारा रचे गए फिल्म ‘उजाला’ के गीत का याद ताजा करता है। नफरत है हवाओं में, यह कैसा जहर फैला दुनिया की फिजाओं में, रास्ते मिट गए मंजिलें गुम हो गईं अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं...’। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news कुछ देना चाहते हैं तो कर्ण की तरह दीजिए By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:14:39 GMT महाभारत में कर्ण की एक कहानी है। एक दिन कर्ण तेल से स्नान कर रहे थे। किसी ने उनसे तेल का सोने का पात्र मांगा और कर्ण ने तुरंत बाएं हाथ से पात्र दे दिया। पात्र लेने वाले ने आपत्ति जताई कि बाएं हाथ से कुछ सामान देना सही नहीं है। यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट किया कि उनका बायां हाथ तेल से मैला हो गया था और जब तक वे हाथ धोने जाते, हो सकता था कि उनका चंचल मन बदल जाता और वे पात्र देने से मना कर देते। यह कहानी बताती है कि मन कितना चंचल होता है।नामी मेडिकल विशेषज्ञ, पद्म विभूषण से सम्मानित और संचेती हॉस्पिटल के संस्थापक डॉ. के.एच.संचेती ने हाल ही में पुणे में बिल्कुल ऐसा ही किया। कहानी कुछ इस तरह है- महाराष्ट्र के सांगली का निवासी अंतरराष्ट्रीय स्तर का 22 वर्षीय ग्रेको-रोमन (क्लासिक) रेसलर बापू वसंत कोलेकर गुरुवार को पुणे में था। यह पेशेवर पहलवान गरीब किसान परिवार से है। 6 महीने पहले ही उसके पिता का निधन हुआ। तमाम बाधाओं के बावजूद इस कम अनुभवी खिलाड़ी ने अतंरराष्ट्रीय स्तर की एशियन चैम्पियनशिप में कांस्य पदद जीता है। साथ ही पिछले तीन-चार सालों में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कई मेडल हासिल किए हैं।करीब चार महीने पहले एक अभ्यास सत्र के दौरान वह चोटिल हो गया। उसने ये चार महीने घर पर बिस्तर पर लेटे-लेटे बिताए। वह चल भी नहीं पा रहा था। अभ्यास न कर पाने का तनाव, स्थिति और भी खराब कर रहा था। वह पहले सांगली के सरकारी अस्पतालों में गया, जहां उससे कहा गया कि ऐसी प्रक्रिया जटिल है और उन अस्पतालों में ऐसे मामले के लिए जरूरी देखभाल की सुविधाएं नहीं हैं। प्राइवेट अस्पतालों में सुविधाएं थीं, लेकिन वहां इलाज कराने के लिए बापू के पास पैसे नहीं थे। उसकी सर्जरी विशेषज्ञों द्वारा की जाना ही जरूरी था।उसके घर की माली हालत इतनी खराब थी कि टूर्नामेंट्स के लिए यात्रा करना भी मुश्किल होता था। आखिरकार किसी ने उसे बताया कि पुणे का चैरिटी कमिश्नर ऑफिस (धर्मादाय आयुक्तालय) उसकी मदद कर सकता है। यही कारण था कि वह इलाज की बहुत कम उम्मीद लिए गुरुवार को पुणे पहुंचा। गुरुवार को सुबह करीब 11 बजे बापू चैरिटी कमिश्नर ऑफिस पहुंचा और किसी तरह डिप्टी चैरिटी कमिश्नर नवनाथ जगताप और असिस्टेंट चैरिटी कमिश्ननर एडी तिड़के से मिला। अपने हाथों में सारे मेडिकल दस्तावेज लेकर उसने अपनी सारी परेशानी एक सांस में बता दी।वह उत्सुकता से सोच रहा था कि क्या ऐसी स्थिति में उसे कोई मदद मिलेगी? अपना कॅरिअर जारी रखने के लिए मदद मांगने दिया गया बापू का जोशपूर्ण भाषण वहीं पास में बैठे डॉ. संचेती के कानों पर भी पड़ा, जो खुद के किसी काम से वहां आए थे। युवा बापू की बात कुछ समय सुनने के बाद डॉक्टर खड़े हुए और कहा कि वे मदद करना चाहते हैं। उन्होंने चैरिटी कमिश्नर से कहा कि वे बापू की देखभाल करना चाहते हैं। सभी ने सोचा कि डॉक्टर बापू से बाद में अस्पताल आने को कहेंगे, लेकिन डॉक्टर ने उसे सामान समेत अपनी कार में बिठाया और सीधे अस्पताल ले गए।यह बापू के लिए किसी ‘परी कथा’ की तरह था, जैसे उसका मसीहा उसके सामने प्रकट हो गया हो। बापू पूरे सम्मान और देखभाल के साथ सीधे अत्याधुनिक अस्पताल पहुंच गया। वहां उसकी जांच की गई और कहा गया कि उसका जल्द ऑपरेशन किया जाएगा। रेसलर बापू की सर्जरी होगी और फिर स्वास्थ्य लाभ लेते हुए फिजियोथैरेपी दी जाएगी। लैप्रोस्कोपी सर्जरी से वह जल्दी ठीक हो जाएगा, बिल्कुल वैसे ही, जैसे अन्य खिलाड़ी खेल के दौरान लगी चोट के इलाज के बाद हो जाते हैं।फंडा यह है कि अगर कुछ देना चाहते हैं तो कर्ण की तरह दीजिए, क्योंकि हममें से ज्यादातर लोगों का मन चंचल होता है, जो हमारे अच्छे फैसले को पलट सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news परिवार में लाभ-नुकसान भी संयुक्त By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:17:00 GMT परिवार में जो कुछ भी घटता है, सब संयुक्त होता है। भले ही अब संयुक्त परिवार धीरे-धीरे कम हो रहे हों, एक छत के नीचे दो ही सदस्य हों, पर वो भी है संयुक्त। इसलिए यदि परिवार का कोई एक सदस्य बिगड़ा तो अकेले उसकी जिम्मेदारी नहीं मानी जाएगी, क्योंकि सबकुछ संयुक्त है। इसी तरह यदि कोई सदस्य योग्य बना, आगे बढ़ा तो वह योग्यता भी उसकी अकेले की न होकर संयुक्त रहेगी।घर के अन्य सदस्यों का भी योगदान उसमें होगा ही। हमारी दस इंद्रियों में यदि एक भी सही रहे, अपने उद्देश्य में ऊपर उठ जाए तो उसका लाभ बाकी नौ को भी मिलेगा। और यदि एक भी इंद्री गड़बड़ करे तो उसकी कीमत भी सभी को चुकाना है। आंखें यदि कुछ गलत देखें तो उसका परिणाम बाकी नौ इंद्रियां भी भुगतेंगी।ऐसे ही परिवार में यदि एक व्यक्ति के कदम गलत उठ जाएं तो कीमत पूरे परिवार को चुकाना पड़ेगी। परिवार में यदि एक भी व्यक्ति योगी हो जाए तो उसका फायदा पूरे परिवार को मिलेगा। इसलिए अब समय आ गया है कि परिवारों में अनबन, मनमुटाव जैसी जो बीमारियां आ गई हैं, उनकी ग्रुप थैरेपी की जाए।इस फैमिली ट्रीटमेंट में साथ बैठकर योग किया जाए। परिवार में यह ध्यान रखा जाए कि यदि कोई ऊपर उठ रहा है तो भी सबका योगदान है, कोई नीचे गिर रहा है तो उसमें भी सबकी भूमिका है। कोई एक अच्छा है, लाभ सबको मिलेगा, कोई एक बुरा है, नुकसान सभी उठाएंगे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news चुप्पी मन में है, बीमारी मन में है तो इलाज भी मन में होगा By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:21:00 GMT हमारे जीवन में बहुत सारी गलत मान्यताएं बन गई है जिसके कारण मन बेवजह बार-बार दुखी हो जाता है। हम देखते हैं कि इन दिनों हमारा शरीर बार-बार बीमार हो रहा है, रिश्ते टूट रहे हैं कमजोर पड़ रहे हैं, लेकिन इस सबके बीच हमारा मुनाफा बढ़ रहा है। आज तो यही हो रहा है ना? हम ही इस पर रोज लिखते-पढ़ते हैं। यही नहीं हम अपने आसपास ऐसा ही तो देखते हैंं। डिप्रेशन रेट इतना बढ़ गया, युवावस्था में हार्टअटैक आने लग गया है।हम ही रोज सुनते सुनाते हैं कि तलाक की घटनाएं बढ़ रही हैं। आज हमारे बच्चे ड्रग्स, शराब, स्मोकिंग की तरफ युवावस्था में आकर्षित क्यों होते जा रहे हैं? क्योंकि वे अंदर से दुखी है। ये सब कुछ हो रहा है फिर साथ-साथ हम कहते हैं कि प्रॉफिट बढ़ गया, तो सवाल तो खड़ा हो गया न? ये हरेक को बैठकर अपने आप से पूछना पड़ेगा कि मुझे अपने लिए और अपने परिवार के लिए क्या चाहिए।आज बच्चे दर्द में हैं वो अपने माता-पिता से आकर बात भी नहीं कर सकते हैं। क्योंकि जैसे ही बात करेंगे तो वह बेवजह गुस्से में प्रतिक्रिया देंगे। फिर हमने बाहर काउंसलर तैयार कर दिए, साइकोलॉजिस्ट बनाए गए। बच्चे उनके पास जाकर काउन्सलिंग कर रहे हैं। बीस साल पहले या दस साल पहले ऐसा कोई सिस्टम नहीं था कि बाहर जाकर उनकी काउंसलिंग कराई जाए।ये सब फायदे हो रहे हैं गुस्सा करने की कीमत पर। बच्चे हमसे बात करने के बजाय अपनी दिक्कत लेकर किसी अजनबी के पास जाकर, उसको वही पैसे देकर जो हमने कमाए थे अपनी दिक्कत का समाधान ढूंढऩे जा रहे हैं। फिर भी हम रुककर नहीं सोच रहे हैं कि क्या हम सही दिशा में चल रहे हैं? चुप्पी मन में है, बीमारी मन में है तो इलाज भी मन में ही है। लेकिन इलाज करने वाला भी मन ही है।शांति और प्यार हमारी पहली पूंजी है। ईमानदारी दूसरी। या यूं कहें कि शांति की अहमियत पहली है और ईमानदारी का नंबर उसके बाद आता है। हम दूसरी पूंजी को इसलिए अहमियत नहीं देते क्योंकि पहली पूंजी कहीं बाकी ही नहीं है। प्रेम, पवित्रता, सुख, शांति, शक्ति, ज्ञान और आनंद ये आत्मा के सात गुण है। ईमानदारी तो दूर की बात है।प्राथमिक रंग होंगे तो उनको मिलाकर हम दूसरे रंग बना सकते हैं। अगर प्राथमिक ही नहीं होगा तो बाकी बातें कोई काम नहीं करेंगीे। जहां शांति नहीं है, गुस्सा है, फायदा ज्यादा चाहिए तो आप ईमानदारी का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। फिर मैं कहूंगा कि गलत तरीका अपनाओ, जल्दी-जल्दी काम करो क्योंकि हमें जल्दी-जल्दी मुनाफा चाहिए।खुशी नहीं है तो हमने सोचा कि खुशी दूसरी जगह है। रास्ते में कोई आया तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाती हूं। मूल्य इसलिए काम नहीं कर रहे क्योंकि आत्मा के जो प्राथमिक मूल्य हैं उसका हम इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। अब हमने सोचा कि मूल्य हमें बाहर से मिलेंगे। मुझे प्यार, खुशी और शांति चाहिए तो परमात्मा ने आकर बताया कि मैं शांत स्वरूप आत्मा हूं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news अपरंपरागत चुनौतियां महिलाओं के लिए अवसर By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:26:00 GMT साधना शंकर,भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी.कुछ महीने पहले फिनलैंड में चार पार्टियों की एक साझा सरकार की ताजपोशी हुई है। इतिहास की शायद यह ऐसी पहली साझा सरकार है जिसमें चारों दल की प्रमुख महिलाएं हैं और सना मरीन प्रधानमंत्री हैं। एक युवा स्कूली बच्ची ग्रेटा थनबर्ग दुनियाभर में पर्यावरण बचाने के लिए आंदोलन कर रही है और उसे टाइम ने पर्सन ऑफ द ईयर 2019 घोषित किया है। भारत की सर्वोच्च अदालत ने सेना में महिलाओं को परमानेंट कमीशन और कमांड पोस्ट देने के फैसले के साथ जेंडर बराबरी को मजबूती दी है। इंटरनेशनल वुमन्स डे 8 मार्च 2020 को लीडरशिप रोल्स में महिलाओं की प्रगति का जश्न तो मनाया जाना चाहिए, साथ-साथ वक्त है चिंतन का।फिलहाल दुनिया के लगभग 22 देशों की प्रमुख महिलाएं हैं। दुनिया में लीडरशिप पोजीशन पर बोलीविया से न्यूजीलैंड, नामीबिया से नॉर्वे और जर्मनी से ग्रीस तक महिलाएं हैं। तकरीबन 12 प्रतिशत दुनिया पर महिलाओं का शासन है और यह प्रतिशत बस बढ़ता जाएगा। भविष्य में हमारे समाज की संरचना और हमारी धरती एक अलग नेतृत्व की मांग करेगी। आज जिन चुनौतियों का सामना लोग और राष्ट्र कर रहे हैं वह उससे बेहद अलग है जब पुरुषों के नेतृत्व में मानवजाति के विकास की गति पंक्तिरूप में चल रही थी।जलवायु परिवर्तन नि:संदेह ही सबसे ज्यादा भयानक और व्यापक है। डेटा पर हमला और उसकी अहमियत, बिजनेस और कॉमर्स में तकनीक के जरिए व्यवधान और पहचान में बदलाव कुछ ऐसी लड़ाई हैं जिनके बारे में पहले कोई नहीं जानता था। इन नए वक्त की चुनौतियों को मिल रही प्रतिक्रिया भी पारंपरिक है। आक्रामकता की सदियों पुरानी तकनीक, ‘हम और वे' का प्रतिमान बनाने की या फिर दिक्कतों से इंकार करने की, या फिर लंबी खिंची चली आ रही बातचीत, कानून का रामबाण सरीखा पास होना, कहना कुछ और करना उससे अलग, ऐसी कुछ पारंपरिक प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।अब जब विकास की परिभाषा बदल रही है तो ये अपरंपरागत चुनौतियां महिला लीडर्स के लिए अवसर हैं इन मसलों को अलग नजरिए से उठाने का, ऐसा मॉडल लाने का जो दुनिया के व्यावहारिक और विस्तारित दृष्टिकोण से वास्ता रखता हो। जो करुणा से प्रेरित हो न कि आक्रामकता से। महिलाओं को पुरुषों से बेहतर होने की जरूरत नहीं। उन्हें लीडरशिप पोजीशन में अलग और बेहतर विकल्प चुनने होंगे। वह विकल्प जो वक्त के साथ प्रतिध्वनित होते हैं और संकल्प का अलग प्रतिमान दें। आतंक पर न्यूजीलैंड की प्रतिक्रिया, मॉस्को में क्रोएशिया की राष्ट्रपति का 2018 फीफा फुटबॉल वर्ल्डकप टीम को दिलासा देना और आइसलैंड का महिला और पुरुषों को बराबर वेतन का कानून लागू करना इसी दिशा में बढ़ने के कुछ उदाहरण हैं। खेती का प्रारंभ, औद्योगिक युग या फिर सूचना युग, सभी के अग्रज पुरुष रहे हैं। जो अब बदलाव की ओर है। अब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं आने वाली सदी में उद्योग कैसे हों ये गढ़ने में लगी हैं। उनके नए मोर्चे में खेती से लेकर स्पेस तक शामिल है। महिलाएं नेतृत्व के पदों के लिए धीरे-धीरे अपना रास्ता बना रही हैं। फॉर्चून 500 कंपनियों की लिस्ट में शामिल 33 कंपनियों की सीईओ महिलाएं हैं, जिनमें से शेरिल सैंडबर्ग फेसबुक की सीओओ हैं, उर्सुला बर्न्स वेेओन की चेयरपर्सन हैं, फेबे नोवाकोविक डिफेंस कंपनी अमेरिकन डायनमिक्स की प्रमुख हैं।ये सभी कल की उम्मीदों पर नजर रखने के साथ ही वर्तमान की जरूरतों और व्यवधानों के आधार पर विकास की रणनीति बना रही हैं। कार्यस्थल की बात करें तो वहां भी बदलाव असाधारण हैं। आईएलओ के मुताबिक दुनियाभर में फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (एफएलएफपीआर) लगभग 49 प्रतिशत है।जैसे-जैसे महिलाएं नौकरी की सीढ़ी चढ़ रही हैं, कार्यस्थल पर महिलाओं का एकजुट होना जरूरी है। ठीक उसी तरह जैसे दफ्तरों में पुरुष गुटबाजी करते हैं, महिलाओं का साथ होना ही उनकी मदद करेगा, उन्हें मेंटर करेगा और लड़कियों-महिलाओं को प्रोत्साहित भी। आज ऐसे किसी गठबंधन को पोषित करने के लिए किसी ऑर्गेनाइजेशन में सिर्फ एक वॉट्सएप ग्रुप की जरूरत होती है।कार्यस्थल पर भी जेंडर आइडेंटिटी को अपनाने के मामले बढ़ेंगे जिनसे हम अभी तक अपरिचित हैं। अभी से ही लिंग जांच सर्जरी के लिए छुट्टी और रीइम्बरसमेंट, ट्रांसजेंडर्स के लिए दफ्तर में टॉयलेट और होमोफोबिया से निपटना एचआर के काम का हिस्सा बन गया है।इसरो ने हाल ही में व्योमित्रा रिलीज की है जो बिना पैरों वाली फीमेल ह्युमोनाइड है और गगनयान प्रोजेक्ट की पहली ट्रेवलर भी। वह या उसकी ही तरह कोई और ह्युमोनाइड मानव मिशन के साथ जाएंगी। तकनीकी एडवांसमेंट के साथ कार्यस्थल सिर्फ मानव का इलाका नहीं रहेगा। संवेदनशीलता और बुद्धिमता के साथ परिपूर्ण रोबोट्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हमारे दफ्तर का अहम हिस्सा होंगे। पुरुष, महिलाओं, अलग-अलग पहचान वाले लोगों, मशीनों, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और माहौल से निपटना महिला मैनेजर के लिए चुनौती होगा।इंटरनेशनल वुमन्स डे के मौके पर जब हम पितृसत्ता की जंजीरों को तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं तो हमें आने वाली दुनिया के लिए तैयार रहना होगा। आगे का रास्ता पुरुषों के खिलाफ नहीं है। जैसे-जैसे हमारा परिदृश्य उभर रहा है हमें मिलनसार, दयालु और समावेशी होना होगा। इसलिए नहीं क्योंकि हम महिला हैं बल्कि इसलिए क्योंकि भविष्य में फायदा सिर्फ चुनिंदा का नहीं होना चाहिए जैसा कि अतीत में होता रहा है।भविष्य है बराबरी का न कि हिस्से का, सशक्तिकरण का न कि सुधार का और अवसरों का जो अपने विकल्पों से निर्मित हों। हर एक के लिए - महिलाएं, पुरुष और बाकी सभी।(यह लेखिका के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news विज्ञान की दुनिया में महिलाओं को कम अहमियत क्यों? By Published On :: Fri, 06 Mar 2020 23:35:00 GMT विज्ञान प्रौद्योगिकी और महिला बाल विकास मंत्रालय ने 20 वीं सदी की 11 भारतीय महिला वैज्ञानिकों को चुना है, जिनके नाम पर देश के मशहूर संस्थानों में चेयर होंगी। यहां महिलाओं को शोध करने के लिए 1 करोड़ रुपए तक दिए जाएंगे। इसी महीने विज्ञान दिवस को हुई इस घोषणा का महिला दिवस पर जश्न मनाया जाना चाहिए। वक्त है मंगलयान और चंद्रयान प्रोजेक्ट्स में महिला वैज्ञानिकों के योगदान को याद करने का। इस सबके बावजूद अफसोस यह कि दुनिया में महिला रिसर्चर सिर्फ 30% हैं।साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स(एसटीईएम-स्टेम) में करिअर बनाने में महिलाएं क्यों पीछे हैं? एक स्टडी कहती है स्टेम में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा आधे से भी कम रिसर्च पब्लिश करने का मौका मिलता है। यही नहीं उन्हें रिसर्च के लिए पुरुषों के मुकाबले कम पैसे भी दिए जाते हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियां और वर्कप्लेस पर कम अहमियत दिए जाने जैसी कुछ वजहें हैं जिनके चलते भारत में रिसर्च फील्ड में महिलाओं की संख्या बमुश्किल 15% ही है। यूनेस्को के इसी से जुड़े आंकड़े चौंकाने वाले हैं।बोलीविया में महिला रिसर्चर की संख्या 63% है, जबकि फ्रांस में 26%। स्टडी कहती है कि साइंस की पढ़ाई करने के बाद ज्यादातर महिलाएं रिसर्च की दुनिया मंे सरकारी नौकरी करती हैं और पुरुष प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर में। बात साफ है कि उनके हाथ कम सैलरी वाली सरकारी नौकरी आती है। हैरानी और अफसोस तो इस बात पर होता है कि मेडिकल साइंस की दुनिया में मानव शरीर, दिल और दिमाग पर हो रही तमाम रिसर्च में से 95% पुरुषों को उदाहरण मानकर हो रही हैं।यहां तक कि दवाइयों का असर जानने के लिए जिन जानवरों का इस्तेमाल किया जाता है वह भी फीमेल नहीं होते। शोध करने वालों को फर्क नहीं पढ़ता कि दवाई का महिलाओं पर या फीमेल टिशू आखिर क्या असर होगा। खैर मनाइए कि अमेरिका के नेशनल हेल्थ इंस्टीट्यट ने कुछ साल पहले ही इस लैंगिक भेदभाव को खत्म करने का फैसला लिया है और ऐलान किया है कि उनके रिसर्च में अब फीमेल टिशू, सेल और जानवर भी शामिल होंगे। सवाल बस यही है कि लड़कों से ज्यादा डिग्री लेने वाली, मैरिट में बेहतर जगह हासिल करने वाली मेहनतकश और होशियार लड़कियों के हिस्से विज्ञान की दुनिया में इतनी थोड़ी अहमियत क्यों आती है? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news मेघालय में 30% परिवार की जिम्मेदारी सिंगल वुमन के कंधों पर, सब्जी-फल बेचकर खर्च चलाती हैं By Published On :: Sun, 08 Mar 2020 08:13:05 GMT शिलॉन्ग. इस साल जनवरी में नॉर्थ-ईस्ट के एक न्यूज चैनल पर खबर चल रही थी कि असम भारत में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगह है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि असम में महिलाओं के ट्रैप होने के सबसे ज्यादा 66 मामले दर्ज हुए। 265 महिलाएं साइबर अपराध की शिकार हुईं। 2018 में असम में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 27,728 मामले दर्ज हुए, जो भारत के कुल अपराध का 7.3 % है।इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले आंकड़े मां की पूजा करने वाले मेघालय के हैं। मेघालय पुलिस के हालिया आंकड़े बताते हैं कि यहां महिलाओं के खिलाफ अपराध के 481 मामले दर्ज हुए हैं, जबकि बच्चों के खिलाफ 292 केस दर्ज हुए। महिलाओं के खिलाफ दर्ज हुए 481 मामलों में से 58 दुष्कर्म के इरादे से की गई मारपीट के थे, 67 दुष्कर्म के थे। इसके अलावा 17 केस दुष्कर्म के प्रयास, 36 अपहरण, 14 केस सम्मान को ठेस पहुंचाने को लेकर थे।मेघालय में करीब 30% परिवार की जिम्मेदारी सिंगल वुमन (अकेली रहने वाली महिला) के जिम्मे है। ये वे महिलाएं हैं, जिन्हें उनके पति ने छोड़ दिया या तलाक दे दिया है। बच्चे इन्हीं के साथ रहते हैं। 29% आबादी इन्हीं घरों में रहती है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाएं घर चलाती हैं, वे बाजार के बड़े हिस्से पर प्रभाव रखती हैं, लेकिन वे सब्जियों और फल जैसे जल्दी खराब हो जाने वाले सामान ही बेचती हैं।शिलॉन्ग की ज्यादातर महिलाएं सब्जी और फल बेचती हैं।नगालैंड में महिलाओं के खिलाफ अपराध दो साल में तीन अंकों से दो अंकों में पहुंचाबात नगालैंड की करें तो यहां 2016 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे ज्यादा 105 केस दर्ज हुए थे। पर यह दो साल के अंदर ही दो अंकों में पहुंच गए। एनसीआरबी के मुताबिक, 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 75 केस दर्ज हुए, 2017 में 79 केस थे। आंकड़े 90 के पार जा सकते थे, पर कई ऐसे मामले भी थे, जो दर्ज ही नहीं किए गए। वास्तव में मणिपुर की पहाड़ियों पर जहां नगा रहते हैं, वहां भारतीय कानून के तहत किसी के खिलाफ केस दर्ज नहीं किए जा सकते। नागा समुदाय अभी भी अपनी संप्रभुता को बचाए रखने के लिए भारतीय सरकार से बातचीत जारी रखे हुए हैं।छेड़छाड़ की रिपोर्ट इसलिए भी दर्ज नहीं हो पाती, क्योंकि इसे अभी भी शर्म माना जाता हैएनसीआरबी के 2017 के आंकड़े बताते हैं कि अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा में महिलाओं के खिलाफ अपराध के केस केवल तीन अंकों में हैं। यह पूरे भारत के आंकड़ों का 1% भी नहीं है। हर कोई जानता है कि मिजोरम में अपराध दर सबसे कम है, पर यह इसलिए है, क्योंकि यहां केस दर्ज नहीं किए गए। अपराध, दुष्कर्म और छेड़छाड़ की रिपोर्ट इसलिए भी दर्ज नहीं हो पाती, क्योंकि समाज में इसे शर्म की बात माना जाता है। इसके अलावा चर्च का प्रभुत्व भी महिलाओं द्वारा केस दर्ज कराने के रास्ते में मुश्किल बनता है।महिलाएं वोट करने में पुरुष से आगे हैं, पर विधानसभा पहुंचने में पीछेनॉर्थ-ईस्ट में मेघालय लैंगिक समानता के लिहाज से सबसे ज्यादा बेहतर है। यह बात आंकड़े साबित करते हैं। फिलहाल मेघालय की 60 सदस्यीय विधानसभा में 4 महिलाएं हैं, यह सदस्यों का 6.6 % है। असम के 126 विधायकों में 8 महिला हैं। यह कुल सदस्यों का 6.34% है। नगालैंड ओर मिजोरम में एक भी महिला विधायक नहीं हैं। मणिपुर में 60 विधायकों में 2 महिला हैं। त्रिपुरा के 30 विधायकों में से 3 महिला हैं। सिक्किम की 30 सदस्यीय विधानमंडल में 4 महिला विधायक हैं। ताजुब की बात यह है कि नॉर्थ-ईस्ट में हर चुनाव में महिला मतदाता पुरुषों से वोट करने में आगे रहती हैं। लेकिन सिर्फ राजनीति ही ऐसी जगह नहीं है, जहां महिलाएं हासिए पर हैं।असम के सिवाय इस क्षेत्र में एक दशक में साक्षरता दर में काफी सुधार हुआ हैसाक्षरता के मामले में जेंडर गैप बाकी देश की तुलना में इस क्षेत्र में कम है। 2001 और 2011 में राष्ट्रीय साक्षरता दर में जेंडर गैप क्रमशः 21.6% और 16.68% है। यह मिजोरम, मेघालय और नगालैंड के लिहाज से कम था। यहां अरुणाचल प्रदेश में साक्षरता दर में जेंडर गैप सबसे ज्यादा था। हालांकि पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में साक्षरता दर बहुत सुधार हुआ है। असम को छोड़कर इस क्षेत्र के सभी राज्यों में साक्षरता में जेंडर गैप कम हो गया है। हैरानी की बात कि यह गैप असम में बढ़ गया है।नॉर्थ-ईस्ट स्वास्थ्य और देखभाल के मामले में लगातार पिछड़ रहा हैनॉर्थ-ईस्ट स्वास्थ्य और देखभाल के मामले में लगातार पिछड़ रहा है। असम में मातृत्व मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। यहां एक लाख बच्चों के जन्म में औसतन 300 मांओं की जान जाती है। जबकि देश में औसत दर 178 है। शिशु मृत्यु दर भी असम में सबसे ज्यादा है। यहां 1000 बच्चों में से 48 की मौत होती है। एनएसएसओ के 2017 के आंकड़ों के मुताबिक देश में यह दर 37 है।बदलाव के लिए आवाज उठानी होगी, क्योंकि हमें एक स्वस्थ लोकतंत्र और राजनीति चाहिएदुर्भाग्य है कि नॉर्थ-ईस्ट की सरकारों की खामियों को दूर करने में कई अड़चनें आ जाती हैं। यह उस समाज की ओर से आती हैं, जहां आवाजों को पहले परंपराओं द्वारा दबाया जाता है फिर धर्मों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। लोगों को लगता है कि उनकी आवाज कोई नहीं सुनता। कई इसलिए भी आवाज उठाने में संकोची हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं समाज के लोगों, उनके साथियों और परिवार द्वारा उनकी आलोचना न हो जाए।आवाज एजेंसी जैसी है और यह आवाज इसलिए जरूरी है, क्योंकि हमें एक स्वस्थ लोकतंत्र और राजनीति चाहिए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today शिलॉन्ग स्थित सब्जी मार्केट, जिसे महिलाएं ही चलाती हैं। Full Article
india news पूरा परिवार खिलाफ था, तब पूनम के साथ मां खड़ी हुई; बेटी ने वर्ल्ड कप फाइनल खेला By Published On :: Sun, 08 Mar 2020 09:45:59 GMT आगरा.‘‘बेटी जबछोटे बालों में स्टेडियम जातथी,दिन भर खेलतथी,तब रिश्तेदार और नातेदारन ने खूब ताना मारो,यहां तक सास-ससुर ने भी खूब तंज कसो। कहते थे कि क्या लड़की को खेलने भेजती हो,ये भी कोई खेल है क्या...ये सब सुन मैं कभी-कभी अकेले में खूब रोती थी, लेकिन कभी किसी से बताती नहीं थी। इन सबके बावजूद मैंने पूनम पर भरोसा किया और आज वह दूसरी बार महिला क्रिकेट वर्ल्डकप खेल रही है। मुझे उस पर गर्व है।’’यह कहना है टी-20वर्ल्ड कप फाइनल में पहुंची इंडिया टीम की खिलाड़ी पूनम यादव की मां मुन्नीदेवी का। वहहंसते हुए बताती हैं- ‘‘मैं8वीं तक पढ़ी हूं। पति आर्मी में थे तो लगभग बाहर ही रहते थे। मैंने बच्चों को कभी उनके सपनों को पूरा करने से नहीं रोका। पहले जो लोग ताने मारते थे, वेआज कहते हैं कि हमारी बिटिया को भी पूनम की देखरेख में छोड़ दो।’’आगरा में ईदगाह स्टेशन से तकरीबन एक किमी दूर पूनम यादव को रेलवे की तरफ से घर मिला हुआ है। दोपहर एक बजे हम वहां पहुंचे।पिता रघुबीर यादव बागवानी करते मिले। बातचीत के दौरान रघुबीर के पास लगातार फोन आते रहे। कोई अग्रिम शुभकामनाएं दे रहा था तो कोई जीत के बाद आयोजित सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाने की गुजारिश कर रहा था।रेलवे की ओर से मिला पूनम यादव का आवास।पूनम की मां बताती हैं,‘‘दूसरों को क्या कहूं भाई साहब, जब इन्हें (पूनम के पिता) ही अपनी बेटी पर विश्वास न था। जब उसे2011में खेलते हुए रेलवे की नौकरी मिली तो इन्हें विश्वास हुआ कि खेलन से भी कुछ होए है।’’ बीच में बात काट रघुबीर बताते हैं- ‘‘मैं आर्मी में एजुकेशन सेक्टर में था। हमारे खानदान में कोई खिलाड़ीन बना,इसलिए चिंता रहती थी।’’रघुबीर बताते हैं कि पूनम हमेशा लड़कों की तरह रहती थी। भाई की हमेशा नकलकरती थी। लड़कों के साथ खेलना,लड़कों के साथ ही उठना बैठना भी था। वह सोचती थी कि जब लड़के कोई काम कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते। 10साल की उम्र में पूनम ने स्टेडियम जाना शुरू किया। पहले पूनम को बास्केटबॉल में रुचि थी, लेकिन हाइट कम होने की वजह से उसने क्रिकेट खेलना शुरू किया। लोगों के तानों से तंग आकर मैंने स्टेडियम जाने से मना किया तो उस वक्त इंडियन टीम में आगरा से खेल रही हेमलता काला को वह घर ले आई।उन्होंने समझाया तो हमने उसे फिर स्टेडियम भेजना शुरू किया।मुन्नी देवी कहती हैं- ‘‘उसे तो जैसे लड़कियों की तरह रहना ही नहीं आता था। सजती-संवरती नहीं थी। शादी ब्याह में जाने का भी कोई शौक नहीं था। उसकी बड़ी बहनउसे समझाती थी, लेकिन उसे खेल का जुनून सवार था।पूनम को खेलने की वजह से नॉनवेज भी खाना पड़े है। पूरे घर में मैं नहीं खाती, लेकिन उसके लिए अंडा उबाल कर दे देती हूं।’’पूनम यादव के पिता रघुबीर यादव और मां मुन्नी देवी।मुन्नी देवी यह भी बताती हैं- ‘‘जब पूनम हमारे पास रहती है तो बहुत समय नहीं रहताउसके पास,लोगों का मिलना जुलना,ऑफिस जाना और फिर प्रैक्टिस रहती है। अब बस उसमें एक बदलाव आया है कि वह अपनी जिम्मेदारी समझने लगी है। परिवार में किसी को क्या दिक्कत है या किसी को क्या जरूरत है, सबका ध्यान रखती है।2017में जब वर्ल्डकप खेल कर लौटी तब इतने लोग स्वागत में उमड़े कि उसे घर पहुंचने में शाम हो गई। मैं सुबह से उसे देखना-मिलना चाहती थी, लेकिन सीधे शाम को ही मुलाकात हो पाई।’’मां कहती हैं- ‘‘पूनम ने अपनी कमाई से गाड़ी खरीदी है और एक घर भी लिया है, लेकिन बहुत बड़ा न होने की वजह से वहां नहीं रहती। हर बच्चे की तरह वह सब बातें मुझे बताती है। मैं उसका चेहरा देखकर ही बताती थी कि उसे कोई दिक्कत है। मुझे बहुत जानकारी नहीं थी क्रिकेट की, लेकिन वह बताती थी। आज बॉलिंग नहीं ठीक कर पाई,आज कोच ने डांटा...,इस तरह की बातें बताती रहती थी।’’ Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Poonam Yadav | India W VS AUS W Poonam Yadav Success Story Life-History Over Women Day Mahila Diwas 2020 Special Full Article
india news दो बहनों ने एवरेस्ट समेत दुनिया की 5 चोटियां फतह कीं; चढ़ाई में शवों पर से गुजरीं, लेकिन हौसला नहीं हारीं By Published On :: Sun, 08 Mar 2020 17:16:37 GMT सूरत. हीरानगरी सूरत की पर्वतारोही बहनें अनुजा वैद्य (21) और अदितिवैद्य (25) को पहाड़ों से मुकाबला करने की हिम्मत विरासत में मिली है। दोनों के माता-पिता भी पर्वतारोही रहे हैं। बेटियों को माता-पिता ने इस तरह प्रोत्साहित किया कि दोनों एवरेस्ट ही नहीं, बल्कि ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और यूरोप की 5 चोटियांफतह कर चुकी हैं। अब उनका अगला मुकाम उत्तर अमेरिका महाद्वीप केमाउंट देनाली को फतह करना है। इसके लिए दोनों बहनें जल्द ही रवाना होने वाली हैं। पढ़ें, उनकी सफलता की कहानी, उन्हीं की जुबानी...दोनों बहनें हमेशा एक साथ पर्वतारोहण करती हैं।अदितिवैद्य-आंखों के आगे अंधेरा छाया,शव देखकर ठिठकी भी, पर हार नहीं मानीहमने बचपन मेंही पर्वतारोहण सीखना शुरू कर दिया था। अमेरिकाके एकॉन्कागुआ पर्वत चढ़ने का पहला मौका मिला। 12 दिन में इस पर्वत पर 22837 फीट का सफर पूरा किया। एकॉन्कागुआ कैंप से हम तड़के 3 बजे से चलना शुरू कर देते थे। एक दिन चढ़ाई करते वक्त अचानक मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया, मैं बेसुध हो गई थी। मुझे कुछ लोगों ने झकझोरा, तब होश आया कि मैं पहाड़ पर हूं। ऐसी स्थिति में हिम्मत हारे बिना मैंने कामयाबी पाई। इसके बाद हम दोनों बहनों का सपना एवरेस्ट फतह करने का था। एवरेस्ट की चोटी की ओर बढ़ते वक्त 26 हजार फीट की ऊंचाई पर हवा एकदम खत्म हो जाती है। ऑक्सीजन के साथ बढ़ना ही अकेला विकल्प होता है। हम चढ़ाई कर रहे थे, तब एवरेस्ट पर बहुत भीड़ थी। लाइन में लगकर हमें बहुत इंतजार करना पड़ा। रास्तेमें शवों के ऊपर से भी गुजरे। कुछ पल तो मैं शवों को देखकर ठिठकी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी, क्योंकि लक्ष्य आंखों के सामने था। इसी से हिम्मत आई। शिखर पर पहुंचने का जो अहसास है, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। बस यह मानिए ऐसा लग रहा था कि मानो समूची दुनिया मेरी मुट्ठी में है। 40 दिन की यह यात्रा धैर्य, साहस और रोमांच से भरपूर थी।अदिति के मुताबिक- मुझे पहाड़ों पर चढ़ाई से अच्छा कुछ नहीं लगता।अनुजा वैद्य- माइनस 37°तापमान में फतह की एकॉन्कागुआ, ओस की बूंदों से पानी पीते थेहमारी ननिहाल उत्तराखंड में है। स्कूल कीछुटि्टयां अक्सर वहींबीतती थीं। पहाड़ देखकरउनके ऊपर चढ़नेका मन करता था। सही मायनों में पर्वतारोहण कीयह हमारी पहली क्लास थी। प्रशिक्षण के दौरान में हर दिन 5 घंटे अभ्यास करते। एकॉन्कागुआ हमने माइनस 37° सेल्सियस तापमान में फतह की थी। रास्ते में ओस की बूंदों से पानी पीते थे। बैग का वजन 25 किलो था। चढ़ाई के सातवें दिन तो ऐसा लगा कि अब यह सफर पूरा नहीं हो सकेगा, हमें बीच में ही छोड़ना पड़ेगा। कुछ पल के लिए मन कमजोर हुआ, लेकिन इरादा पक्का था। नतीजा,सफलता ने कदम चूमे।अनुजा कहती हैं कि पर्वतारोहण के दौरान उनके पास 35 से 40 किलो सामान होता है।अनुजाबताती हैं,‘‘एवरेस्ट की चढ़ाई के लिए प्रति व्यक्ति के हिसाब से 7.50 लाख रुपए परमिशन फीस लगी, अन्यखर्च को मिलाकर यह आंकड़ा 46 लाख पहुंच गया। जापान सेजरूरी इक्विपमेंट खरीदे, जो एक के हिसाब से 15-15 लाख रुपए में आए। एवरेस्ट की चढ़ाई में बैग का वजन 16 किलो था। एवरेस्ट पहुंचने मेंसबसे मुश्किलखुंभू ग्लेशियर लगा। यह चारों ओर से बर्फ की चोटियों से घिरा हुआ है। नीचे गहरी खाई। फैनी चक्रवात का असर हम पर भी हुआ,इसलिए शिखर तक पहुंचने में ज्यादा वक्त लगा। एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने का गर्व है। इस काम में हमें 40 दिन लगे। इसके बाद हमनेएल्ब्रुस (यूरोप), कार्सटेंज पिरामिड (ऑस्ट्रेलिया), विंसन और अंटार्कटिकाको भी फतह करने में सफलता पाई। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today अफ्रीका के माउंट किलिमंजारों पर तिरंगा फहरातीं अनुजा और अदिति। Full Article
india news मजबूत नेता की अर्थनीति मजबूत हो जरूरी नहीं By Published On :: Mon, 09 Mar 2020 21:06:00 GMT अब समय आ गया है कि भारतीय राजनीति के हम जैसे विश्लेषक दो बातें स्वीकार करें। पहली, हम पिछले कुछ समय से गलत सवाल पर बहस कर रहे हैं। दूसरी यह कि हम गलत जवाब को आगे बढ़ा रहे थे। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही यह सवाल बना रहा है कि क्या अच्छी अर्थनीति ही अच्छी राजनीति है? दूसरे शब्दों में क्या आप आर्थिक सुधार करके, सरकार और अफसरशाही का आकार घटाकर, कुछ ताकत बाजार को देकर, विकास दर को बढ़ाकर दोबारा चुनाव जीत सकते हैं? अगर नहीं तो इसके लिए क्या करना चाहिए? इसका उत्तर है कि एक मजबूत नेता चुनें जो राजनीतिक जोखिम उठाने से डरता नहीं हो। केवल ऐसा करके ही अच्छी अर्थव्यवस्था हासिल की जा सकती है।हाल के राजनीतिक इतिहास की वास्तविकता यह है कि हम दोनों ही मोर्चों पर गलत रहे। इंदिरा गांधी के बाद हम सबसे मजबूत नेतृत्व के छठे वर्ष में हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि मोदी उनसे भी मजबूत हैं। आखिर उन्होंने ऐसे जोखिम उठाए और निर्णय लिए जो इंदिरा अपने शिखर दिनों में भी नहीं कर पाईं। जैसे जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करना। परंतु कुछ सवाल बाकी हैं। पहला तो यही कि यदि देश का सबसे मजबूत और साहसी नेता अभी भी अच्छी राजनीति कर रहा है तो क्या इससे अच्छी अर्थव्यवस्था का रास्ता बना है? हम यह नहीं कह रहे हैं कि आपने जिसे चुना है उस निर्णय पर आप पछताएं। आपके वोट देने के पीछे सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि कई कारण होते हैं। सवाल यही है कि क्या मजबूत नेता का मतलब मजबूत अर्थव्यवस्था भी होता है? 2019 में मोदी दोबारा और बड़े बहुमत से चुनकर आए तो दो बातें साबित हुईं। पहली, उन्होंने अच्छी राजनीति की और दूसरा वृद्धि में ठहराव, बढ़ते घाटे और बेरोजगारी के बावजूद मतदाताओं ने उन्हें वोट दिया।यही वजह है कि इन तमाम वर्षों में हमारा पहला प्रश्न ही गलत था कि क्या अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति को जन्म देती है? सवाल यह होना चाहिए था कि क्या अच्छी और सफल राजनीति को अर्थव्यवस्था की परवाह करने की जरूरत है? उत्तर स्पष्ट है कि यदि आप अपनी राजनीति को समझते हैं, सही भावनात्मक पहलुओं को स्पर्श कर सकते हैं, पर्याप्त तादाद में लोगों को लाभ पहुंचा सकते हैं तो वे बेरोजगारी, रुकी विकास दर और कृषि आय में ठहराव जैसी बातों की अनदेखी कर देंगे। परंतु आज कोई आंकड़ा हमें राहत नहीं प्रदान करता। तमाम आर्थिक संकेतक नकारात्मक हैं। तो क्या मजबूत नेतृत्व अच्छी और साहसी अर्थव्यवस्था की गारंटी नहीं है? किसी वैचारिक विश्लेषण को आंकड़ों के माध्यम से साबित करना अत्यंत कठिन है। बहरहाल, क्वार्ट्जडॉटकॉम की रिपोर्टर एनालिसा मेरेली ने स्टेफनी रिजियो और अहमद सकाली द्वारा रॉयल मेलबर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलांजी व विक्टोरिया यूनिवर्सिटी के लिए किए गए अध्ययन की रिपोर्ट के रूप में हमें यह अनमोल चीज दी है।इन शोधकर्ताओं ने 133 देशों के 1858 से 2010 (152 वर्ष) के राजनीतिक और आर्थिक इतिहास का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि मजबूत नेता अपनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए नुकसानदेह रहे या बेमानी। अध्ययन कहता है कि ऐसे ताकतवर नेताओं में संयोग से कुछ अच्छे भी निकलते हैं, लेकिन मोटे तौर पर तो उनका अपने देश की अर्थव्यवस्थाओं पर नकारात्मक असर ही पड़ता है। मेरेली अपने अध्ययन में कहती हैं कि ‘अधिकतकर शक्तिशाली नेताओं ने अपने देश की अर्थव्यवस्थाओं को उससे भी बुरी हालत में छोड़ा, जिस हालत में वह उन्हें मिली थी। या फिर उन्होंने उस आर्थिक लहर की सवारी की जिसे आना ही था।’ ये सारे नेता तानाशाह नहीं थे। प्रश्न यह है कि मतदाताओं ने उन्हें दंडित क्यों नहीं किया? मतदाता ऐसे नेताओं की तुलना में कमजोर नेताओं को जल्दी दंडित क्यों करते हैं? भारतीय संदर्भ में बात करें तो आपातकाल के कारण इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के बाद मतदाता तीन वर्ष से भी कम समय में उन्हें वापस सत्ता में ले आए। मजबूत नेता के प्रति यह कैसा खिंचाव है? उपरोक्त शोध इस बारे में वानरों के दृष्टांत का सहारा लेते हुए कहता है कि कठिन समय में वे सबसे मजबूत नर वानर का नेतृत्व स्वीकारते हैं। यानी यह सही नहीं है कि मजबूत नेता आर्थिक मोर्चे पर भी बेहतर होगा। जरा मोदी के कार्यकाल पर नजर डालिए। मेरी नजर में उनका सबसे साहसी और सुधारवादी कदम नया भूमि अधिग्रहण विधेयक था और यही एकमात्र ऐसा कदम है, जिससे वह पीछे हटे। अपनी सत्ता और लोकप्रियता के शिखर पर वह यह जोखिम लेने से पीछे हट गए। छह साल में ऐसा केवल एक बार हुआ। इसके विपरीत सबसे खराब और बिना सोचे समझे लिए गए नोटबंदी के निर्णय पर वह टिके रहे। इससे उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिला। कम से कम उत्तर प्रदेश के चुनाव में, जो नोटबंदी के ठीक बाद हुए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे उनकी निर्णायक नेता की छवि और मजबूत हुई थी। (ये लेखक के अपने विचार हैं) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी- फाइल फोटो। Full Article
india news कागज रंगना पुराना हुआ, अब कोडिंग नया रंग By Published On :: Mon, 09 Mar 2020 22:37:00 GMT शायद ही ऐसा कोई बच्चा हो जिसे ड्राइंग बुक रंगना या होली के त्योहार के दौरान रंग लगाना पसंद न हो। उन्हें चमकदार रंग बहुत अच्छे लगते हैं। लेकिन यहां छह साल के बच्चों की एक पूरी पीढ़ी कलरिंग की तरह कोडिंग में लगी हुई है, क्योंकि उन्हें इसमें गणित से ज्यादा मजा आ रहा है।आमतौर पर 6 साल की उम्र में बच्चों को कुछ तरह के खेलों के अलावा संगीत, चित्रकला, यहां तक कि नाट्यकला आदि सिखाई जाती है। और वे इन क्लासेस को कोचिंग क्लास कहते हैं। लेकिन नई पीढ़ी अपनी क्लास को ‘कोडिंग क्लास’ कहती है, जहां वे एबीसी अल्फाबेट नहीं, बल्कि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की एबीसी सीखते हैं। ऐसी ही एक कोडिंग क्लास के मालिक अशोक अनंतरमैया को लगता है कि कोडिंग बच्चों की मदद करने का एक तरीका है, जैसे समस्या को पहचानना, उसे छोटे-छोटे चरणों में बांटना और उसे समाधान के लायक बनाना, जो कि कम्प्यूटिंग की आधारभूत प्रक्रिया है। यह बच्चों के लिए आसान और संभव इसलिए भी हो पाया क्योंकि वे टेक्नोलॉजी से पहले से ही परिचित हैं।वे यह भी मानते हैं कि कोडिंग दरअसल पाठ्य पुस्तकों की तुलना में गणित सीखने का ज्यादा बेहतर तरीका है क्योंकि इसमें बच्चे सहज रूप से खुद की सीखने की इच्छा रखते हैं। इसलिए छह वर्ष की उम्र में कोडिंग अब नई गणित बन चुकी है। कोटा या हिसार या किसी भी टीयर-टू और थ्री शहर की कोचिंग क्लासेस की तरह बेंगलुरु में कई दर्जन कोडिंग क्लास खुल गई हैं। कैम्पके12, स्माउल और मूव फॉर्वर्ड कुछ ऑनलाइन और एजुकेशन टेक स्टार्टअप हैं, जो बच्चों को कम से कम उम्र में कोडिंग सिखाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।अगर आपका तर्क है कि कोडिंग से दिमाग का केवल बायां भाग विकसित होगा और बच्चों में कलात्मकता विकसित नहीं हो पाएगी तो कैम्पके12 के अंशुल भागी के पास इसका जवाब है। वे कहते हैं कि कोडिंग, हिन्दी, अंग्रेजी या फ्रेंच की तरह ही एक भाषा है। अंशुल के मुताबिक, जैसे भाषा से हम अभिव्यक्ति और कविता जैसे रचनात्मक स्वरूप, इन दोनों तरह के संवाद कर पाते हैं, कोडिंग में भी उसी तरह कलात्मकता और अभिव्यक्ति की बहुत संभावनाएं हैं।आईआईटी दिल्ली से पढ़े, स्माउल के सह-संस्थापक शैलेंद्र धाकड़ मानतेहैं कि 12 से 14 साल स्कूल की पढ़ाई उन नए बच्चों को बहुत परफेक्ट बना सकती है और कम्प्यूटर की बेसिक समझ दे सकती है, जो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र कॅरिअर बनाना चाहते हैं। और उन्हें लगता है कि स्कूलों को इस नई जरूरतके मुताबिक खुद को ढालना होगा। शैलेंद्र यह भी मानते हैं कि कोडिंग केवल एक अलग माध्यम है, जो युवा मनों को कुछ बनाने का एक मंच प्रदानकरती है। शैलेंद्र कहते हैं, ‘जैसे बच्चे क्रेयॉन्स से कागज पर चित्र बनाते हैं,वैसे ही कोडिंग ड्रॉइंग की तरह कुछ खूबसूरत और रचनात्मक बनाने के लिए प्रोग्रामिंग का इस्तेमाल करती है।’वहीं माता-पिता भी कोडिंग की इन ऑनलाइन या फिजिकल कोचिंग क्लासेस का साथ दे रहे हैं, मुख्यत: इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि किसी भी बच्चे के लिए डिग्री के सर्टिफिकेट्स के साथ कौशल होना भी जरूरी है। इन मॉड्यूल्स के खत्म होने के बाद ये बच्चे मोबाइल एप्स, छोटे गेम्स और यहां तक कि अपने पैरेंट्स के बिजनेस के लिए जानकारी वाली वेबसाइट्स तक बना पा रहे हैं। वे दिन गए जब मेहमानों के आने पर बच्चों का परिचय यह कहकर करवाते थे कि ‘यह पिआनो या तबला बजा सकता है’। बच्चों का परिचय करवाने का नया तरीका है, ‘यह रंग-बिरंगी वेबसाइट्स और मोबाइल एप इसने बनाया है।’हालांकि कोडिंग भविष्य है, लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान है बच्चों द्वारा स्क्रीन के सामने बिताने वाले समय का बढ़ना। खासतौर पर तब, जब आधुनिक समय में पैरेंटिंग की सबसे बड़ी चुनौती बच्चों के लिए गैजेट्स की उपलब्धता है। शायद माता-पिता को भी बच्चों की जिंदगी रंग-बिरंगी बनाने के लिए संतुलन और निगरानी का नया कोर्स करना पड़ेगा।फंडा यह है कि रंगों के त्योहार होली पर यह समझें कि बच्चों के युवा मन को कौन-से विषय रंगों से भरते हैं। फिलहाल कोडिंग उनके लिए सबसे रंगीन विषय लग रहा है। इनका भविष्य परफेक्ट बनाने के लिए आने वाले शैक्षणिक सत्र में कोडिंग का ये रंग जोड़ सकते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news रंग बरसे, पान खाए गोरी का यार By Published On :: Mon, 09 Mar 2020 22:44:00 GMT श्री राम के अयोध्या लौटने से दीपावली उत्सव प्रारंभ हुआ। संभवत होली उत्सव द्वापर युग से प्रारंभ हुआ। बंगाल में सबसे बड़ा उत्सव मां दुर्गा के पूजने का उत्सव है। इस्लाम और इसाई लोगों के उत्सव भी उनके धर्म से जुड़े हैं। ‘मदर इंडिया’, ‘शोले’, ‘नवरंग’ और ‘टॉयलेट-एक प्रेमकथा’ जैसी फिल्मों में होली के दृश्य नाटकीय व निर्णायक दौर प्रदान करते हैं। यूरोप में भी होली की तरह एक उत्सव में रंग के बदले टमाटर फेंके जाते हैं। जैसा कि फरहान अख्तर अभिनीत फिल्म में प्रस्तुत किया गया था। बरसाना होली उत्सव में महिलाएं पुरुषों पर लट्ठ बरसाती हैं। पुरुष सूपड़ों को ढाल बनाकर बचते हैं। इस उत्सव में महिलाएं और पुरुष अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वाह मनोयोग से करते हैं। वर्षभर पिटने वाली स्त्रियों को एक अवसर अपनी भड़ास निकालने का मिलता है। यथार्थ जीवन में तो हिसाब बराबर करने का अवसर मिलना संभव ही नहीं है।विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘कहानी’ में क्लाइमैक्स दुर्गा उत्सव के समय रचा गया है। नायिका आतंकवादी को मारकर महिलाओं के जुलूस में शामिल हो जाती है। सभी महिलाओं के चेहरे पर गुलाल मला जाता है। अतः पुलिस कत्ल करने वाली महिला को पहचान नहीं पाती। राजीव कपूर की ‘प्रेम ग्रंथ’ में रावण दहन का दृश्य प्रस्तुत किया गया। रावण दहन का दृश्य शशि कपूर की ‘अजूबा’ में भी प्रस्तुत किया गया। शशि कपूर की फिल्म ‘उत्सव’ का प्रारंभ ही बसंत उत्सव से होता है। फिल्म उद्योग में राज कपूर अपने स्टूडियो में होली उत्सव धूमधाम से मनाते थे। सितारा देवी नाचती थीं। फिल्म उद्योग में होली मनाने का प्रारंभ करने वाले राज कपूर की अपनी निर्देशित किसी फिल्म में होली दृश्य नहीं है। अपने संघर्ष के दिनों में अमिताभ बच्चन ने आरके स्टूडियो की होली में ‘रंग बरसे’ गीत गाया था। कुछ वर्ष पश्चात यश चोपड़ा की फिल्म ‘सिलसिला’ में इसका प्रयोग किया गया। इस होली दृश्य में पति की मौजूदगी में पत्नी अपने प्रेमी से सरेआम छेड़छाड़ करती है और प्रेमी भी उसे यहां-वहां छूता है। इस दृश्य में संजीव कुमार उस निरीह पति की भूमिका अभिनीत करते हैं और जया बच्चन उस पत्नी की भूमिका अभिनीत करती हैं, जिसका पति अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ मर्यादा की सीमा का सरेआम उल्लंघन कर रहा है। अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, संजीव कुमार और रेखा जैसे शेखर सितारों द्वारा अभिनीत यह फिल्म दर्शक वर्ग ने ठुकरा दी थी। संभव है कि होली दृश्य के कारण ही फिल्म पसंद नहीं की गई। यश चोपड़ा की ‘केप फियर’ से प्रेरित फिल्म ‘डर’ में भी होली उत्सव पर पुते हुए चेहरों का लाभ उठाकर खलनायक एक स्त्री के चेहरे पर रंग लगाता है।यह एकतरफा जुनूनी प्रेम की फिल्म थी। ‘केप फियर’ के क्लाइमेक्स की तरह ‘डर’ का क्लाइमेक्स भी मोटरबोट पर घटित होते प्रस्तुत किया गया है। ‘केप फियर’ जे.ली थॉमसन की रचना है। मार्टिन स्कोर्सेसे 1951 में इसे निर्देशित किया था। राकेश रोशन अभिनीत फिल्म में होली के रंग के कारण एक पात्र अपनी आंखें खो देता है। अन्य मृत व्यक्ति की आंखों का प्रत्यारोपण किया जाता है। फिल्म में यह प्रस्तुत किया गया कि किसी भले आदमी की आंख प्रत्यारोपण के बाद उनकी सोच भी बदल जाती है। आंखों के साथ उसके दृष्टिकोण में सकारात्मकता आ जाती है। इस वर्ष तेजी से फैलते कोरोना के कारण होली उत्सव धूमधाम से नहीं मनाया जाएगा। पारंपरिक तौर पर होली उत्सव के समय भांग का सेवन भी किया जाता है। यह माना जाता है कि भांग खाने वाला मीठा खाने का आग्रह करता है और मिठाई के कारण नशा दोगुना हो जाता है। शराब जल्दी चढ़ती है और जल्दी उतरती है परंतु भांग का नशा लंबे समय तक कायम रहता है। भंगेड़ी हंसना शुरू करता है तो हंसता ही रहता है और बातों को दोहराता रहता है। भांग अफीम शराब गांजे के प्रभाव भी अलग-अलग पड़ते हैं। दरअसल सारे नशे कैटेलिटिक एजेंट की तरह काम करते हैं और नशे में मनुष्य के असली रुझान ही सामने आ जाते हैं। नशे का प्रयोग अच्छे व्यक्ति को बेहतर बना देता है और बुरे व्यक्ति की नकारात्मकता बढ़ जाती है। यह बात रवींद्र जैन की पंक्तियों की याद ताजा करती है-‘गुण अवगुण का डर भय कैसा, जाहिर हो भीतर तू है जैसा।’रवींद्र जैन ने यह गीत राज कपूर की एक फिल्म के लिए रचा था जो कभी बनाई ही नहीं गई। प्रदर्शित फिल्मों से अधिक संख्या है उन फिल्मों की जिनका आकल्पन किया गया परंतु कभी बनाई नहीं गई। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today It rained, drank the white lady Full Article
india news कांग्रेस धीरे-धीरे कोमा से चिर-निद्रा की ओर By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 18:44:00 GMT राजनीति शास्त्र में जीव की तरह राजनीतिक दल भी जैविक माने जाते हैं। मानव चेतना की एक मेडिकल स्थिति होती है ‘कोमा’ और दूसरी ‘वेजिटेटिव स्टेट’। कोमा में व्यक्ति सोया लगता है, शरीर व दिमाग प्रतिक्रिया देना बंद कर देता है, लेकिन सिर्फ रिलेक्स एक्शन ही उसके जिंदा होने की सनद है। चोट लगने पर भी शरीर प्रतिक्रिया नहीं देता, लेकिन कभी-कभी अंगुलियां हिलती हैं, सांसें अनियमित रूप से चलती हैं। वेजिटेटिव स्टेट में आंखें खुली होने से चैतन्यता का अहसास तो होता है पर दिमाग के काम न करने के कारण बाहरी दुनिया से असंबद्धता रहती है। मेडिकल विज्ञान के अनुसार इस स्थिति में ‘लिक्विड व ऑक्सीजन चेंबर में होते हैं, लिहाज़ा लिक्विड रोगी को जीने नहीं देता और ऑक्सीजन मरने नहीं देता’। कांग्रेस अब इसी स्थिति की ओर जा रही है।गाहे-बगाहे रिफ्लेक्स एक्शन में अंगुलियां हिलने की तरह चुनावी हार के झटके इसे जीवन में लाने की उम्मीद बंधाते हैं। केंद्रीय नेतृत्व को पहला झटका तब लगा जब असम के एक कद्दावर नेता ने पार्टी छोड़ भाजपा ज्वाइन करते हुए कहा कि ‘मैं तीन दिन बैठा रहा पर दिल्ली नेतृत्व नहीं मिला और एक बार जब बात हुई भी तो उस तरह जिसके बारे में ग़ालिब ने कहा था ‘ये क्या कि तुम कहा किए, और वो कहें कि याद नहीं’। असम हाथ से निकल गया।पहले जनमंचों से पीएम की आलोचना से रिफ्लेक्स एक्शन का अहसास तो होता था, लेकिन जब मध्यप्रदेश की हालत पर प्रतिक्रिया तो दूर, नेतृत्व ने मुख्यमंत्री से ही नहीं, दूसरे सबसे कद्दावर युवा नेता से मिलने से इनकार कर दिया तब लगा कि शायद पार्टी नेतृत्व की आंखें खुली हैं पर बाहरी दुनिया का अहसास नहीं है। राज्य में दोनों नेताओं की लड़ाई इस हालत में इसलिए पहुंची कि नेतृत्व ने प्रभावी अंकुश नहीं लगाया।1970 के दशक के मध्य एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने कई बार मुख्यमंत्रियों को अलसुबह बुलवाकर मिलने की जगह किसी पीए से कहलवा दिया कि इस्तीफा दे दो, लेकिन आज यह व्यवहार इसलिए सफल नहीं होगा कि बगल में दूसरा राजा, जिसकी ताकत और प्रसिद्धि भी कई गुना ज्यादा है, उसे बड़ा मंसब देने को तैयार है। नेतृत्व इस बात से भी गाफिल है कि अगला नंबर राजस्थान का हो सकता है। जनता यह अहसास दिला रही है कि 135 साल पुरानी पार्टी की जिंदगी के लिए जरूरी ऑक्सीजन तो है पर लिक्विड संकट पैदा कर रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today फाइल फोटो। Full Article
india news 50 साल बाद का भारत हमारे बारे में क्या सोचेगा By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 18:49:00 GMT प्रिय शिक्षक,हमें 2020 में भारत में रहने वाले हमारे दादा-दादी की पीढ़ी के बारे में लिखने का काम देने के लिए धन्यवाद। यह बहुत पुराना सा लगता है। अगर हमें यह काम नहीं दिया गया होता तो हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हमें आज हमारे चारों ओर की चीजों को कैसे महत्व देना चाहिए।आज हम भारत को बहुत महत्व नहीं देते हैं। लगभग हर किसी के पास कार व घर है। लोगों को अच्छे अस्पताल व स्कूल उपलब्ध हैं। सड़कें अच्छी हैं और सार्वजनिक परिवहन निजी कार से भी बेहतर है। हमारी प्रति व्यक्ति आय 60 हजार डॉलर है। निश्चित ही यह हमारी औसत आय का उच्च स्तर है, जिससे अधिकतर भारतीयों को अच्छा जीवन मिल पाता है। लेकिन, क्या आप जानते हैं, 2020 में हमारी प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 2000 डॉलर थी। किसी समय, शायद हमारे माता-पिता के समय में भारत ने विकास पर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि, हमारे दादा-दादी के समय 2020 में ऐसा नहीं हुआ।2020 में भारत कई दशकों में सबसे कम विकास दर का सामना कर रहा था। नौकरी पाना मुश्किल था और ऑटो से लेकर रियल एस्टेट व बैंक जैसे व्यापार भी संकट में थे। जरा अंदाजा लगाओ कि तब तक हमारे दादा-दादी ने किस बात पर फोकस किया होगा? हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर। निश्चित ही तब भारत में हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे। राजनेता इसका इस्तेमाल लाेगों को बांटने और वोट पाने के लिए करते थे। बिल्कुल, अब यह सब पूरी तरह अवैध है। हकीकत में आज के भारत में हम सामाजिक रूप से उन लोगों को बहुत ही बुरी नजर से देखते हैं, जो बांटने वाली बात करते हैं। हमारे पास कानून हैं, जो भगवान और राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा नहीं होने देते। 2020 में तो यह सबके लिए आम था। हमारे दादा-दादी कम आय, खराब सड़कों और बुरी स्वास्थ्य सेवाओं की परवाह नहीं करते थे। मेरा मतलब है कि उनकी प्राथमिकता में यह बहुत नीचे था। जब वोट देने की बारी आती थी तो यह कोई मुद्दा नहीं होता था। सोचिए कि यह कितना मूर्खतापूर्ण रहा होगा?2020 में दो प्रमुख राजनीतिक दल थे। उनमें से एक भाजपा मजबूत थी और उसके पास बड़ा बहुमत भी था। वे लगातार जीत रहे थे, इससे साफ था कि लोग उन्हें चाहते थे। जब वे धर्म व राष्ट्रवाद की बात करते थे तो लोग पसंद करते थे। असल में उन्हांेने जब भी आर्थिक सुधारों की कोशिश की, लोगों ने इसे पसंद नहीं किया। उन्होंने इसे सूट-बूट की सरकार कहा। सूट-बूट की सरकार में गलत क्या है? क्या वे नहीं चाहते थे कि सभी भारतीयों के पास सूट-बूट हों, जैसे कि आज हमारे पास है। दूसरी पार्टी कांग्रेस ने लगातार दो चुनावों में हार का सामना किया। हालांकि, इसके बावजूद वह जरा नहीं बदली। देश के पहले प्रधानमंत्री की बेटी के बेटे का बेटा उनका प्रधानमंत्री पद का दावेदार था। इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लोग क्या चाहते हैं।2020 में पूरी दुनिया कोरोना वायरस से डरी हुई थी। इसका चीन पर सबसे अधिक असर हुआ। इससे पूरी दुनिया में मंदी आ गई और इसका भारत पर भी असर पड़ा। इस वायरस के बाद दुनिया निर्माण के क्षेत्र में चीन से अपनी निर्भरता को कम करना चाहती थी, भारत इस अवसर को ले सकता था। लोगों ने उस समय अर्थव्यवस्था की बहुत कम चिंता की। लोग पूरे दिन हिंदू-मुस्लिम की बात करना चाहते थे। जैसे कि कौन अच्छा था और कौन बुरा। हालांकि, दोनों में ही अच्छे लोग भी थे और बुरे भी, लेकिन उन्होंने इसे कभी नहीं समझा। वे इतिहास से यह साबित करना चाहते थे कि मुस्लिम बुरे हैं या हिंदू बुरे हैं। यही प्राइम टाइम की बहस होती थी। हमारे दादा-दादी अपने भूतकाल से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। कई बार सड़कों पर दंगे होते थे और लोग मारे जाते थे। वे गरीब लोग होते थे और हमारे देश में तब बहुत थे, इसलिए मायने नहीं रखते थे। बाद में तेल की कीमतें गिर गईं, वायरस और फैल गया और भारतीय व्यापार को भारी क्षति पहुंच गई।जो कोई भी कहता था कि हमें अर्थव्यवस्था पर फोकस करना चाहिए, उसे उबाऊ कहा जाता था और कम महत्व दिया जाता था। दुर्भाग्य से जीडीपी का कोई धर्म नहीं था। कुछ लोगों ने स्वास्थ्य, विकास दर, रोजगार और शिक्षा जैसे वास्तविक मुद्दों पर बात करने की कोशिश की। हालांकि, वे संख्या में बहुत कम थे। वे एक सोशल मीडिया एप ट्विटर का इस्तेमाल करते थे, जो आज मौजूद भी नहीं है। इन लोगों को इसलिए नजरअंदाज कर दिया गया, क्योंकि ट्विटर पर लोग दिनभर हिंदू-मुस्लिम मसलों पर चर्चा करते थे।ईश्वर का शुक्र है कि किसी समय भारतीय जाग गए। उन्हें अहसास हो गया कि यह सब मूर्खता है और कुछ भी अच्छा नहीं करेगा। उन्हांेने बदलने का फैसला किया। उन्होंने कानून बनाए और ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया जो ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करते थे, जिनका भारत की प्रगति और संपन्नता से कोई सरोकार नहीं था। उन्होंने सिर्फ विकास का फैसला किया। हिंदू और मुसलमान दोनों ने ही अपने बच्चों को शिक्षित करने, उन्हें व्यापार, नेटवर्किंग सिखाने के साथ ही उनकी कम्युनिकेशन क्षमताओं को बढ़ाया। मतदाताओं ने नेताओं को सिर्फ प्रदर्शन के आधार पर आंका। उन्होंने कहा कि अगले दो दशकों में हमें सिर्फ विकास करना है। अाज भारत अमीर और कीर्तिवान है। हम अमीर हैं, इसलिए हमें सौम्य माना जाता है। अब होली और दीपावली दुनियाभर में प्रसिद्ध है, क्योंकि भारत जैसा अमीर देश इन्हें मनाता है। यह वैसा ही है, जैसा 2020 में थैक्सगिविंग और हैलोवीन जैसे अमेरिकी त्योहार प्रसिद्ध थे। इससे हिंदू संस्कृति का विकास 2020 की तुलना में बेहतर हुआ है। मैं सोचता हूं कि हमारी पीढ़ी का क्या होता अगर भारत बदला न होता। वास्तव में हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हम आज 2070 में रह रहे हैं, न कि 2020 के भारत में। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सेहत, व्यवहार, चरित्र वाले अमीर होते हैं By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 18:55:00 GMT हम सभी के भीतर अमीर होने की लालसा छिपी हुई है। सबकी इच्छा होती है अमीर हो जाएं। होना भी चाहिए। तो इस इच्छा को दबाएं नहीं, बल्कि सही दिशा में मोड़ें। चलिए, पहले यह समझें कि कितने किस्म के अमीर होते हैं। बारीकी से चिंतन करें तो छह तरह के अमीर पाएंगे। एक वो जो पुश्तैनी हैं। मतलब जिनके लिए बाप-दादा छोड़कर गए। दूसरी तरह के वो होते हैं जो पहले अमीर थे, अब नहीं हैं। ऐसे लोग बावले से हो जाते हैं। अपने अभाव के किस्से सुनाते फिरते हैं या उसी अभाव में डूबकर बर्बाद हो जाते हैं। तीसरी किस्म के वो लोग जो नए-नए अमीर बने हैं। उनके शौक माथे चढ़कर बोलते हैं।भोग-विलास इनका आवरण हो जाता है। चौथे वो होते हैं जो भविष्य में अमीर होने की तैयारी में लगे हैं। खूब मेहनत करते हैं, धन कमाने का हर तरीका अपनाते हैं। पांचवें जो अमीर होने का केवल सपना देखते हैं। उसके लिए करेंगे कुछ नहीं। एक नंबर के आलसी-निकम्मे, लेकिन धनवान बनना चाहते हैं। और छठे प्रकार के अमीर वो लोग हैं जो ऐश्वर्य-वैभव या धन-सपंत्ति से नहीं, बल्कि सेहत, संबंध, व्यवहार और चरित्र से अमीर हैं।अब आप ही तय कीजिए कि आपको इन छह में से किस ढंग का अमीर होना है। किसी एक प्रकार से अमीर हो, यह भी जरूरी नहीं। इन छह में से कभी कोई तो कभी कोई स्थिति होगी। पर जो भी हो, छठे किस्म के अमीर होने की कोशिश जरूर कीजिए। इस प्रकार के लोग परमात्मा को भी बहुत पसंद होते हैं..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news राजनीति के अंधे चौराहे पर मध्यप्रदेश का आम आदमी By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 19:02:00 GMT राजनीति एक चौराहा है। अंधा चौराहा। हर आम आदमी, जहां भी जाता है या जाना चाहता है, यह चौराहा उसके साथ आ जाता है। यहां से एक राह उस अंधे कुएं की तरफ़ जाती है जिसमें सरकारी सोच की लाश पड़ी है। दूसरी राह एक नदी की तरफ़ जाती है, जिसमें आम जन-जीवन का शव तैर रहा है। तीसरी राह एक विशाल गड्ढे की तरफ़ जाती है जिसमें सत्ता का मुर्दा गड़ा है और ज़िद का तांत्रिक उसे जगाने या जगाते रहने का यत्न कर रहा है।.. और चौथी राह एक चिता की तरफ़ जाती है जिसकी आग में कई परिवारों और उनसे मिलकर बने समाज के अरमानों की लाश जल रही है। चौराहे की चारों राहों पर लाशें देख कोई आम आदमी पांचवीं राह तलाशता भी है तो दस क़दम चलने के बाद ही उसके पैरों से बहते लहू में वह राह गुम हो जाती है।मध्यप्रदेश में यही हो रहा है। ठीक है पिछले चुनावों में जनता खुद भी कन्फ्यूज थी और उसने भी किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया था। लेकिन सरकार तो किसी एक की बननी ही थी। बन गई। नई सरकार को लगभग डेढ़ साल हो गया। चुनाव के वक्त दस दिन के भीतर पूरे करने के जो वादे किए गए थे, आज तक पूरे नहीं हो सके। इसलिए सरकार रहे या जाए, मप्र के आम आदमी का ठगा जाना तय है। बहरहाल, कमलनाथ सरकार पर इतनी जल्दी ऐसा संकट आ जाएगा, किसी ने नहीं सोचा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में आ चुके हैं। उन्होंने अपनी राज्यसभा सीट भी पक्की कर ली है। उधर, शिवराज सिंह चौहान अपनी सरकार के सपने देखने लगे हैं। हो सकता है वे साकार भी हो जाएं लेकिन आगे संकट आएगा- सिंधिया को भी और शिवराज को भी। यह संकट होगा सिंधिया ख़ेमे के विधायकों का राजनीतिक समायोजन। इनमें दर्जन से ज्यादा तो मंत्री ही हैं। कम से कम उन्हें तो मंत्री या मंत्री जैसी कोई ज़िम्मेदारी देनी ही होगी। फिर 22 विधायकों को अगले चुनाव में टिकट भी चाहिए ही होगा। हालांकि, कहा जा सकता है कि राजनीति में चार साल किसने देखे? तब तक तो गंगा में बहुत पानी बह जाएगा। लेकिन सिंधिया समर्थक तो सिंधिया समर्थक ही रहेंगे! एडजस्ट करना महंगा पड़ सकता है।वैसे जब भाजपा के केंद्रीय नेताओं से बात हुई होगी, सिंधिया ने ये सब सवाल सामने रखे ही होंगे और बेशक, भाजपा नेताओं ने सभी सवालों के जवाब में हां ही कहा होगा। लेकिन, केंद्रीय और राज्य की राजनीति में फ़र्क़ होता है। कुछ भी कीजिए, यह फ़र्क़ रहता ही है। 13-14 साल के भाजपा राज में भाजपा के समर्थक भी तो बने ही होंगे। उनका क्या होगा? उन्हें भी लगेगा कि सिंधिया समर्थक किसी न किसी रूप में उनका हक़ मारने वाले हैं। परेशानी तब बढ़ेगी।फ़िलहाल, बाड़ाबंदी जारी है। कांग्रेस के सभी विधायक जयपुर में हैं और भाजपा वाले गुड़गांव में। विधानसभा का सत्र शुरू होने वाला है। सिंधिया समर्थकों के इस्तीफ़ों पर विचार के लिए स्पीकर के पास सात दिन का वक्त है। इसके बाद ही मामले में राज्यपाल कोई हस्तक्षेप कर सकते हैं। कुल मिलाकर, मामला अभी लम्बा खिंचने वाला है। जो कुछ नया होगा, वह 18 मार्च तक ही होगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today सिंधिया को भाजपा की सदस्यता दिलाते हुए जेपी नड्डा। Full Article
india news दूसरों से पहले सोचने के अपने फायदे हैं By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 19:15:00 GMT कई इतिहासकारों को मप्र के नरसिंहपुर जिले का गाडरवारा1901 में मराठा साम्राज्य के मुख्यालय के रूप में याद होगा, जहां केवल 6,198 लोग रहते थे। अगले 110 वर्षों में यहां की जनसंख्या बढ़कर 60,000 हो गई और इसे रजनीश (ओशो) के बचपन के घर के रूप में जाना जाने लगा। लेकिन, जब मैं इस रविवार को यहां कुछ घंटे ठहरा, तो मैंने यहां कई नई संस्कृतियां देखीं। जैसे कि जब मैं एक होटल में मीटिंग के लिए गया था, तब वहां एक घंटे में तीन जन्मदिन के केक काटे गए और कॉलेज जाने वाले युवा कोरस में जन्मदिन की शुभकामनाएं दे रहे थे। स्टेशन रोड पर सरसरी निगाह व कुछ निवासियों से बात करने पर पता चला कि कैसे वह शहर जिसका वर्णन करना मुश्किल रहा है, आधुनिक दुनिया को अपना रहा है, साथ ही उन महिलाओं को भी प्रोत्साहन दे रहा है, जिनमें उच्च आकांक्षा और प्रगति की भूख है। कुछ महिलाएं ऐसी हैं जो छोटे से एक कमरे में अपना व्यवसाय चला रही हैं, तो कुछ ऐसी हैं जिनमें खुद को साबित करने की आग है। इससे मुझे हाल ही में पढ़ी गई हैदराबाद में 37 साल पहले शुरू हुए एक बिजनेस की कहानी याद आई। यह व्यवसाय युवा बहनों ने तब शुरू किया था, जब ‘ग्रूमिंग’ और ‘स्टाइलिंग’ आम बात नहीं थी, खासतौर पर अगर कोई व्यक्ति तेलुगु फिल्मों के शोबिज या आतिथ्य उद्योग से न जुड़ा हो। उन दिनों ब्यूटीशियन बनना कठिन हुआ करता था। लेकिन आत्मविश्वास और माता-पिता के सहयोग के साथ, चार बहनों, अनुराधा चेप्याला, पोल्सानी अन्नपूर्णा और जुड़वां बहनें तक्कल्लपल्ली अनुपमा और अनिरुद्धा मिर्यला ने न केवल हैदराबाद में बल्कि, सिकंदराबाद तक में सौंदर्य व्यवसाय का चेहरा बदल दिया।खास बात यह है उन्होंने एक गैरेज में अपना व्यवसाय शुरू किया। ये विचार उन्हें उनके पिता तिरुपति राव ने दिया था जो उस वक्त नगरपालिका आयुक्त थे। लड़कियों ने पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ सौंदर्य उद्योग में अपनी रुचि को भी पूरा किया। दिलचस्प बात यह है कि उनके पिता के ओहदे के बावजूद, बच्चों पर कोई पाबंदी नहीं थी और वे जो चाहें कर सकते थे। अब उनके पिता को नारीवादी कहें या दूरदर्शी, उन्होंने बच्चों और पत्नी को भी पढ़ाई करने और प्रतियोगी परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया। जब अनुराधा और अन्नपूर्णा ने अपने तिलक नगर स्थित घर के गैरेज में ब्यूटी सैलून ‘अनूस’ शुरू किया, तो कॉलोनी में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। अधिकांश निवासी उनके परिचित थे और सामाजिक वर्जना के बावजूद अपनी बेटियों को दुल्हन के मेकअप, वैक्सिंग और फेशियल के लिए ले लाते थे। शुरुआत में उनके ग्राहक कम थे, लेकिन संख्या बढ़ती गई। फिर उनकी दो कजिन बहनें भी उनके साथ जुड़ गईं और उन्हें बड़ी जगह की जरूरत पड़ी। उन्होंने अपने घर के एक हिस्से में सैलून को विस्तार दिया। वे अपने पिता को किराया भी देती थीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने अपने अंकल-आंटियों द्वारा दी गईं बुरी टिप्पणियों को अनसुना कर दिया था। उनका कहना था कि लड़कियां दूसरों के बाल नहीं काटतीं!शादी होने के बाद चारों बहनें हैदराबाद और सिकंदराबाद के विभिन्न क्षेत्रों में चली गईं और वहां उन्होंने अपनी शाखाएं शुरू कीं। बहनों ने सौंदर्य का कौशल सिखाने वाले अंतरराष्ट्रीय कॉलेजों में दाखिला लिया और इस कला में महारत हासिल की। अब अनिरुद्धा अमेरिका में रहती हैं और उन्होंने फ्लोरिडा में ‘अनूस’ की शाखा खोली है। आज, लगभग 500 लड़कियां उनके संस्थानों में नौकरी कर रही हैं। परिवार के लिए इस ब्रांड को बनाने में कई साल लग गए और वो आज भी उसी जुनून के साथ काम कर रही हैं। अन्नपूर्णा का ही उदाहरण ले लीजिए, जो अब दादी बन चुकी हैं, इसके बावजूद अगर वो सुबह 9 बजे काम के लिए न निकलें तो उन्हें अपने पिता से डांट पड़ती है। जाहिर है बेटियां अपने 85 वर्षीय पिता, जो कि सख्त नगरपालिका आयुक्त रह चुके हैं, उनसे ही प्रेरित होती हैं।फंडा यह है कि बाजार में हमेशा पहले शुरुआत करने का फायदा मिलता है। फिर चाहे बात गैरेज से शुरू होने वाले एक छोटे से व्यवसाय की हो या करोड़ों के निवेश के साथ शुरू हुए बड़े व्यवसाय की। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news जेम्स बॉन्ड : अय्यार, शॉन कॉनेरी और क्रेग By Published On :: Wed, 11 Mar 2020 19:20:00 GMT इ यान फ्लेमिंग ने जेम्स बांड नामक पात्र रचकर कुछ उपन्यास लिखे। एक उपन्यास से प्रेरित पहली फिल्म का नाम था ‘डॉक्टर नो’, जिसमें शॉन कॉनेरी ने जेम्स बॉन्ड की भूमिका की थी। कुछ बॉन्ड फिल्मों में अभिनय करने के पश्चात शॉन कॉनेरी ने अपनी अभिनय कला के विकास के लिए जेम्स बांड की भूमिका अभिनीत करने से इनकार कर दिया। अन्य कलाकारों के साथ फिल्में बनती रहीं और डेनियल क्रेग ने ‘कैसिनो रॉयल’ में यह भूमिका अभिनीत की। शॉन कॉनेरी के बाद डेनियल क्रेग अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। जेम्स बॉन्ड शृंखला की नई फिल्म का नाम है ‘नो टाइम टू डाई’। यह फिल्म इसी वर्ष प्रदर्शित होने जा रही है। भारत में हिंदी, तमिल, तेलुगु भाषाओं में फिल्म को डब किया जाएगा।इयान फ्लेमिंग के लिखे उपन्यासों से कहीं अधिक जेम्स बॉन्ड फिल्में बन चुकी हैं। दरअसल, जेम्स बॉन्ड एक ब्रांड है, जिसे भुनाना जारी रखा जाएगा। ज्ञातव्य है कि इस पात्र का जन्म शीत युद्ध के समय हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात यह तय किया गया कि तीसरा विश्व युद्ध कभी न हो। इसी कारण जेम्स बॉन्ड की रचना की गई जो अकेला ही विरोधी के खेमे में जाकर उसके शस्त्र भंडार को नष्ट करता है और अपने काम के साथ शत्रु देश की महिलाओं से प्रेम भी करता है। एक जेम्स बॉन्ड फिल्म का नाम है ‘फ्रॉम रशिया विद लव’। ज्ञातव्य है कि डेनियल क्रेग भी जेम्स बॉन्ड का पात्र अभिनीत करने से मना कर चुके थे, परंतु निर्माता ने बड़ी मिन्नत करके उन्हें यह फिल्म करने के लिए राजी किया है।जेम्स बॉन्ड फिल्मों के निर्माण के लिए अस्त्र-शस्त्र, कार, हवाई जहाज इत्यादि उपकरणों का निर्माण किया जाता है। जेम्स बॉन्ड की कार सड़क पर दौड़ने के साथ ही समुद्र सतह पर तैर भी सकती है। कार पनडुब्बी की तरह भी काम करती है। एक दृश्य में जेम्स बॉन्ड की कार समुद्र तट पर आती है और वहां मौजूद व्यक्ति चकित रह जाते हैं। जेम्स बॉन्ड एक मछली भीड़ की ओर उछाल देता है। इस तरह मारधाड़ के दृश्यों से भरी फिल्म में हास्य के लिए गुंजाइश रखी जाती है। अमेरिका का फिल्म उद्योग अपने ब्रांड के गन्ने से रस की आखिरी बूंद भी निचोड़ लेता है।ज्ञातव्य है कि स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘जुरासिक पार्क’ फिल्म की शूटिंग के लिए आवश्यक वस्तुओं और जानवरों को बनाने के लिए कुछ कारखाने भी रचे थे। फिल्म के प्रदर्शन के दिन ही डायनासोर खिलौने भी बाजार में आ गए। मूल उद्योग से अधिक कमाई उप-उद्योग द्वारा प्राप्त होती है। अब बच्चे गुड्डे-गुड़िया से नहीं खेलते, वरन् खिलौने एके-47 की तरह बनाए जाते हैं। खिलौनों से बचपन का अध्ययन किया जा सकता है।इयान प्लेमिंग के उपन्यास फॉर्मूला उपन्यास हैं, परंतु उनमें कुछ महत्वपूर्ण बातें भी शामिल रहती हैं, जैसे ‘डायमंड्स फॉर एवर’ उपन्यास में दक्षिण अफ्रीका के दोहन का वर्णन है। खदान से हीरे निकालने वाले मजदूर हमेशा गरीब ही बने रहते हैं। अमेरिका की गुप्त एजेंसी सीआईए कहलाती है। रूस की संस्था को केजीबी के नाम से जाना जाता है। भारत में सीबीआई के साथ ही विदेशों में जासूसी करने के लिए एक और संस्था भी है। ‘नाम शबाना’ और ‘बेबी’ नामक फिल्मों में काल्पनिक संस्था रची गई है। सलमान खान और कैटरीना कैफ अभिनीत फिल्म में सलमान भारत के लिए और कैटरीना पाकिस्तान के लिए काम करते हैं। दोनों में प्रेम हो जाता है और वे लापता हो जाते हैं। फिल्म में एक संवाद है कि कम से कम यह एक ऐसा प्रकरण है, जिसमें दोनों दुश्मन देश मिलकर काम कर रहे हैं। फिल्म एक था टाइगर में एक संवाद इस आशय का है- ‘जब प्रेम हुआ तब यह पता नहीं था कि वह दुश्मन देश के लिए काम करती है और प्रेम हो गया तो दुश्मनी कैसी’ गोयाकि प्रेम ही दुश्मनी समाप्त करता है। प्रेम को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जाता है। राजी फिल्म में भारतीय कन्या का विवाह पाकिस्तानी से होता है और वह भारत के लिए जासूसी करती है। राजी में प्रस्तुत विवाह भी प्रायोजित है। बहरहाल, फिल्म के नाम पर गौर करने से लिए कोई समय मौजूं भी हो सकता है? जन्म के समय पंचांग देखकर व्यक्ति की कुंडली बनाई जाती है, परंतु मृत्यु का समय उसमें नहीं दिया जाता। नाड़ी विशेषज्ञ वैद्य भी मृत्यु का सूक्ष्म संकेत देते हैं। नाड़ी वैद्य पर आरोग्य निकेतन एक विलक्षण उपन्यास है। जीवन नामक वाक्य में मृत्यु कॉमा है, पूर्णविराम नहीं।आजकल जासूसी पर वेब सीरीज रची जा रही हैं। विनोद पांडे और शिवम नायर की सीरीज का प्रदर्शन 17 मार्च से हो रहा है। ये दोनों फिल्मकार एक और जासूसी कथा वाली वेब सीरीज बनाने जा रहे हैं। गुजश्ता सदी में देवकीनंदन खत्री ने अय्यार केंद्रित चंद्रकांता, भूतनाथ इत्यादि उपन्यास लिखे थे। इन उपन्यासों की तर्कहीन बातें ही अब जेम्स बॉन्ड नुमा फिल्मों में प्रस्तुत की जा रही हैं। फिल्म यकीन दिलाने की कला है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today James Bond: Iyer, Sean Connery and Craig Full Article
india news विकास को परंपरा की दृष्टि से अपनाने की जरूरत By Published On :: Thu, 12 Mar 2020 18:47:00 GMT समाज में परिवर्तन इतिहास की शक्तियों के अधीन होता है और समाज विज्ञान उसे मानवीय कर्तृत्व की परिधि में समझने-समझाने की कोशिश में लगा रहता है। इसके लिए आज भी जिन मुहावरों का उपयोग किया जाता है, वे उपनिवेश की छाया में गढ़े गए और आधुनिकतावादी यूरो-अमेरिकी समझ को सार्वभौमिक मानते हुए अपनाए गए। इसको उत्कृष्ट जीवन का खाका मानकर लागू किया गया। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज ‘आधुनिक’ और भारतीय ‘पिछड़े’ व ‘परंपरावादी’ ठहराए गए।जबकि, तर्क और ज्ञान पश्चिम का जन्मजात अधिकार नहीं था। लेकिन, भारतीय सभ्यता का समस्त संचित ज्ञान अप्रासंगिक हो गया। इस नई दृष्टि में एक यांत्रिक दुनिया की अवधारणा स्वीकार की गई और सृष्टि के विकास में बलशाली को जीने का अधिकार माना गया। इसके परिणामस्वरूप भीषण नरसंहार भी हुए। इस सोच की परिणति समाज को एक उद्योग मानने में हुई और लोभ तथा भोग हावी होते गए।काल क्रम में आधुनिक भारतीय बौद्धिकता का उदय 19वीं सदी के आरम्भ में सांस्कृतिक जागरण, मध्य वर्ग के उदय और साक्षरता की वृद्धि के साथ हुआ। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के जननेता जिन्होंने स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाया, उन्होंने भविष्य के भारत की छवि गढ़ी और गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन द्वारा 1947 में देश को आजाद किया। तब विचार में भी स्वराज की बात उठी थी, परंतु अनसुनी ही रह गई। गणतंत्र की स्थापना के साथ संविधान ने सामाजिक जीवन में ढांचागत बदलाव शुरू किया।सभी नागरिकों को मताधिकार देने के साथ ही बहुत सी पुरानी संस्थाओं को आधिकारिक तौर पर समाप्त कर राज्य द्वारा नियोजित विकास का दौर शुरू हुआ। नेहरू के नेतृत्व में समाजवादी नजरिये को तरजीह मिली। भारी उद्योग लगाने, आधार संरचना का विकास, विज्ञान और प्रौद्यौगिकी की संस्थाओं को बढ़ावा, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बल दिया गया। कुल मिलाकर अविकसित देश के लिए राजमार्ग के रूप में विकास के तर्क और विमर्श ने अधिकार जमाया। हरित क्रांति भी आई और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा, शिक्षा संस्थाओं का विस्तार हुआ और औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी।स्वतंत्रता मिलने के बाद दो दशकों तक राज्य और समाज के अध्येताओं के बीच विकास को लेकर सहमति बनी थी। आधुनिकीकरण और प्रगति को समाज के उज्ज्वल भविष्य के द्वार खोलने वाला स्वीकार करते हुए सतत तीव्र परिवर्तन को असंदिग्ध रूप से श्रेयस्कर ठहरा दिया गया। परंतु सत्तर के दशक के बाद विकास के साथ उसके अंतर्विरोध भी प्रकट होने लगे। सांस्कृतिक तनाव भी दिखने लगा। कृषि के क्षेत्र में छोटे किसान समाज के हाशिये पर जाने लगे।उनकी उपेक्षा के चलते जातीय अस्मिता ने नया कलेवर धारण करना शुरू किया। जाति के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण शुरू हुआ। गरीबी, स्वास्थ और शिक्षा को लेकर संरचनात्मक सवाल भी खड़े होने लगे। जेंडर और दलित चेतना भी आंदोलित होनी शुरू हुई। धर्म, समुदाय, भाषा और क्षेत्र की अस्मिताएं भी सिर उठाने लगीं। संशय और अविश्वास की खाई को सतही नारों से पाटने की कोशिशें हुईं पर समाज के लिए जरूरी संरचनात्मक बदलाव नहीं आ सका।नब्बे के दशक में उदारीकरण ने अर्थनीति में नया आयाम जोड़ा। सोवियत संघ के टूटने के साथ पूंजीवाद ही राजनीति का एकल आधार बनता गया। सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी के विस्तार और विदेशी निवेश के साथ कई ‘सुधार’ भी आने लगे। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण और वैश्वीकरण के रिश्ते भी जटिल होने लगे। वैश्वीकरण एक नए किस्म के उपनिवेशीकरण की तरह पांव पसारने लगा और विकास अपना वादा पूरा करता नहीं दिखता।वह गरीबी, विस्थापन, सामाजिक-आर्थिक भेद, कूड़ा उत्पादन, और प्रदूषण आदि के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आधुनिकता की परियोजना भी वैयक्तिकता, निजीकरण और पूंजीवाद के बल पर जो आभिजात्य को ही स्थापित करती है, सफल होती नहीं दिख रही है। विकल्प के रूप में अब’ टिकाऊ विकास’ के बारे सोचा जा रहा है, जिसमें भविष्य की चिंता भी शामिल है। इसी क्रम में यह भी सोचना होगा कि उत्तर आधुनिक क्या ‘आधुनिक’ से भिन्न है या छद्म रूप में उसका ही विस्तार है?विचारणीय यह भी होगा कि उत्तर उपनिवेशवाद और वि-उपनिवेशीकरण के तर्क हमें कहां ले जाएंगे। आज पर्यावरण के बढ़ते खतरे, अकेलेपन, मानसिक अस्वास्थ्य और बढ़ती हिंसा को देखते हुए सिर्फ मानव केंद्रित सोच अधूरी और खतरनाक लग रही है। चूंकि सांस्कृतिक रचनाशीलता में परंपरा का पुनराविष्कार भी आता है, अत: परंपरागत दृष्टि अधिक प्रासंगिक है। सबमें अपने को देखना और अपने में सबको देखना ही देखना होता है। इसी के आधार पर विविधताभरी दुनिया में साझेदारी वाला भविष्य बन सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news ‘मध्य प्रदेश वायरस’ महाराष्ट्र में भी पहुंचेगा क्या? By Published On :: Thu, 12 Mar 2020 18:58:00 GMT दुबई से प्रवास कर लौटी पुणेकर दंपति में कोरोना वायरस के लक्षण सामने आए हैं। उनके बाद उनकी बेटी, उन्होंने जिस कैब में सफर किया उसका चालक, विमान के सहयात्री में भी कोरोना वायरस की पुष्टि हुई है। इसके बाद पुणे सहित महाराष्ट्र दहल गया। सभी ओर यह चर्चा है, लेकिन राजकीय उठापटक की चर्चा का स्तर अलग ही है।कोरोना वायरस से भी ज्यादा ‘एमपी वायरस’ के बारे में महाराष्ट्र में ज्यादा बोला जा रहा है। विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद से महाराष्ट्र में दहशत का माहौल है। 21 अक्टूबर 2019 को वोटिंग हुई, 24 अक्टूबर 2019 को परिणाम आया। सरकार ने शपथ ली 28 नवंबर को। मंत्रिमंडल ने आकार लिया 30 दिसंबर को। यानी 21 सितंबर को आचार संहिता लागू हुई और 30 दिसंबर तक, यानी पूरे 100 दिन तक महाराष्ट्र में सरकारी कामकाज ठप ही रहा। इस अवधि में सरकार स्थापित हुई और इस दौरान एक सरकार अस्तित्व में आने के साढ़े तीन दिन में ही ढह गई।भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। लेकिन, वह आज विरोधी पक्ष बना हुआ है। शिवसेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा, उसका अब मुख्यमंत्री है। मणिपुर, मेघालय, गोवा जैसे छोटे राज्यों में भाजपा ने सत्ता स्थापित करने के लिए पूरा जोर लगा दिया, ऐसे में महाराष्ट्र जैसा बड़ा राज्य कैसे छोड़ दिया, यह प्रश्न सबको परेशान कर रहा है। इस पर उत्तर यही है कि ऐसा प्रयत्न उन्होंने करके देखा है। लेकिन रात में बनी सरकार के गिरने से देवेंद्र फड़नवीस औंधे मुंह गिरे। तब भाजपा ने कोशिशें बंद कर दीं और इस सरकार में ‘ऑल इज वेल’ है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद राजस्थान, महाराष्ट्र में भी पुनरावृत्ति हो सकती है, ऐसी चर्चा शुरू हो गई है। महाराष्ट्र में भाजपा ही ‘सिंगल लार्जेस्ट पार्टी’ है। इस वजह से यहां यह कोशिश तो होगी ही, ऐसा कइयों को लगता है। ऐसी चर्चा करने से पहले आंकड़ों को ध्यान में रखना होगा। मध्य प्रदेश में कुल 230 सीटें हैं। दो विधायकों के निधन की वजह से सदन की प्रभावी संख्या है 228 सीटों की। ऐसे में जादुई नंबर 115 हो जाता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायक हैं, जिससे प्रभावी संख्या रह गई- 206 सीटें। ऐसे में 104 जादुई अंक होगा और भाजपा के पास अपने 107 विधायक तो हैं ही।ऐसा प्रयोग महाराष्ट्र में करना आसान नहीं। भाजपा सिंगल लार्जेस्ट पार्टी है जरूर, लेकिन बहुमत से काफी दूर है। जादुई अंक है 145 सीटों का और भाजपा के पास 105 विधायक ही हैं। इस वजह से 40 विधायक जुटाना अथवा सदन की प्रभावी सदस्य संख्या को इस कदर घटाना संभव नहीं है। किसी भी पार्टी में तोड़फोड़ मचाने के लिए दो-तिहाई विधायक साथ लाना होंगे। पर्याय है तो विधायकों के इस्तीफे लेने का। इसके लिए विधानसभा में सदस्यों की प्रभावी संख्या को 210 तक लाना होगा।इसके लिए 78 विधायकों से इस्तीफा लेना असंभव है। महाविकास आघाड़ी सरकार में नाराजगी भरपूर है। मंत्री पद न मिलने से कांग्रेस के विधायक संग्राम थोपटे ने बवाल मचाया था। शिवसेना में दिवाकर रावते नाराज हैं। राकांपा में अजित पवार, जयंत पाटिल जैसे दो गुट हैं। चुनावों में आयाराम-गयाराम का जो दौर चला और भाजपा में ‘इनकमिंग’ का दौर सभी ने देखा है। इस वजह से कोई धोखा नहीं देगा, यह सोचना भी संशय पैदा करता है। किसी पार्टी ने अधिकृत तौर पर भाजपा के साथ जाने का स्टैंड लिया तो ही महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार आ सकती है। फिर भी इसकी संभावना काफी कम है। लेकिन पिक्चर अभी बाकी है!’ Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news जीवन में खूबियों को जोड़ते चलिए By Published On :: Thu, 12 Mar 2020 19:08:00 GMT अच्छे ड्राइवर अपनी गाड़ी को सुबह-सुबह थोड़ी देर स्टार्ट करके रखते हैं। उसके बाद उसे बढ़ाते हैं, गति देते हैं। उनका मानना है गाड़ी यदि बिना चले थोड़ी देर स्टार्ट रहे तो उसके इंजन में ऑइल का, हर तत्व का प्रॉपर सर्कुलेशन हो जाता है और इससे इंजन मजबूत रहता है। बस, अब इस बात को जोड़िए अपने शरीर से। हमें अपने शरीर के इंजन को सुबह-सुबह ऐसे ही स्टार्ट करना चाहिए बिना गति दिए।जागने के बाद एकदम से पलंग मत छोड़िए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि बिस्तर पर पड़े रहें। जब भी पलंग से उतरें, इस शरीर के भीतर कुछ ऐसा है, जिसमें ऊर्जा को बहने दीजिए, फिर उसका उपयोग कीजिए। दार्शनिकों ने कहा है इस शरीर को श्वान से सीखना चाहिए।कुत्ते में जो छह खूबियां होती हैं, वो हमारे शरीर में भी होना चाहिए। पहली अधिक खाने की शक्ति रखना, दूसरी अभाव की स्थिति में थोड़े में ही संतोष करना। कुत्ते की तीसरी विशेषता है गहरी नींद में सोना और चौथी गहरी नींद में सोते हुए भी सजग रहना। पांचवीं स्वामीभक्ति और छठी होती है वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना करना।मनुष्य हर दिन अपने भीतर इन खूबियों का समावेश कर सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य कुत्ते जैसा हो जाए। बस, मनुष्य एक कुत्ते की विशेषताओं को स्वीकार करे, क्योंकि वह भी एक प्राणी है। जैसे ही दूसरे प्राणियों की अच्छी बातें या खूबियां अपने से जोड़ते हैं, आप प्रकृति के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news शिशु के पहले दो सालों में निवेश देश के लिए जरूरी By Published On :: Thu, 12 Mar 2020 19:16:00 GMT विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत सहित दुनिया के तमाम देश इस बात को तरजीह नहीं दे रहे हैं कि जन्म के पहले दो सालों में नवजातों पर निवेश देश की खुशहाली का बड़ा कारण बन सकता है। लांसेट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगर इन शिशुओं के पैदा होने के दो सालों में इनके पालन-पोषण पर समुचित ध्यान दिया जाए तो उनका भावी जीवन उनकी सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक अक्षमताओं से बच सकता है।इससे गरीब-अमीर के बीच जन्मजात विभेद पर भी अंकुश पाया जा सकता है। आज दुनिया में 25 करोड़ ऐसे बच्चे हैं, जो पूर्ण विकास हासिल नहीं कर पाते। इनमें से बड़ी संख्या भारत के बच्चों की है। यहां आज भी हर पांचवां बच्चा गैर-प्रशिक्षित दाइयों द्वारा जना जाता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने बच्चों की खुशहाली और स्वास्थ्य के पैमाने पर दुनिया के 180 देशों में 131वें स्थान पर है। तथाकथित ग्रोथ और गरीबी हटाने के दिखावटी उपायों से पांच साल से कम उम्र के करोड़ों बच्चों के विकास को भारी ख़तरा है।अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (यूएसएड) की रिपोर्ट के अनुसार मध्याह्न भोजन की योजना के कारण भारत के स्कूलों में बच्चे तो बढ़े हैं, लेकिन वे शिक्षार्जन शायद ही कर पा रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण बिहार में देखने को मिला, जहां शिक्षकों की हड़ताल के कारण मध्याह्न भोजन बंद हुआ तो बच्चों की स्कूलों में उपस्थिति भी कम हो गई। रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में चार में से तीन बच्चे ब्लैकबोर्ड पर लिखे दो संयुक्त मात्र शून्य अक्षरों को मौखिक रूप से पढ़ नहीं सकते।मौखिक रीडिंग प्रवाह (ओरल रीडिंग फ्लूएंसी) जानने के इस अध्ययन में बताया गया कि इसी वजह से इन बच्चों में बड़े होने पर भी शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता का विकास नहीं होता है और वे पीछे रह जाते हैं। नतीजतन आगे की पढ़ाई बाधित हो जाती है। अगर वे किसी तरह डिग्री ले लेते हैं तो नौकरी की दौड़ में काफी पीछे रह जाते हैं। ग्रामीण भारत के बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार होते हैं और आजीविका के लिए वे कृषि में ही ठहर जाते हैं, जिनसे दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं हो पाती। लांसेट की सिफारिश है कि सरकारें अगर बच्चों की पैदाइश के दो साल तक निवेश करें तो गरीबी खत्म हो सकती है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news नैतिक विपक्षियों पर ही प्रभावी हैं गांधी सिद्धांत By Published On :: Thu, 12 Mar 2020 19:22:00 GMT हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे अहम कदम दांडी मार्च को 90 साल हो गए हैं। ब्रिटिश राज के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया यह सबसे सफल अवज्ञा आंदोलन था। ब्रिटिश शासन ने उस समय भारतीयों के नमक बनाने और बेचने पर प्रतिबंध व भारी कर लगा दिया था, जिससे लोग महंगा और विदेशी नमक लेने को मजबूर थे। इस नमक कर का विरोध तो 19वीं सदी में ही शुरू हो गया था, लेकिन 12 मार्च 1930 को गांधीजी द्वारा आंदोलन शुरू करने से ही सफलता हासिल हुई।गांधीजी ने साबरमती के अपने आश्रम से दांडी के लिए यात्रा शुरू की। 385 किलोमीटर की इस यात्रा में उनके साथ कई दर्जन अनुयायी भी शामिल थे। वे अपने हर पड़ाव पर लोगों को संबोधित करते थे और उनके साथ चलने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती थी। वह 5 अप्रैल 1930 को समुद्र के किनारे दांडी पहुंचे और अगले दिन 6 अप्रैल को उन्हाेंने मुट्ठीभर नमक बनाकर प्रतिकात्मक रूप से कानून का उल्लंघन किया। यह नागरिक अवज्ञा का बहुत ही प्रभावी काम था।इस नाटकीय घटनाक्रम ने देश और दुनिया का ध्यान खींचा। गांधीजी ने नमक कर के खिलाफ दो महीने तक आंदोलन किया और अन्य लोगों को भी नमक कानून तोड़ने के लिए उकसाया। हजारों लोगाेंको गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। मई में गांधीजी को भी गिरफ्तार किया गया। इससे दसियों हजार लोग इस आंदोलन में शामिल हो गए और 21 मई 1930 को करीब 2500 सत्याग्रहियों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया।साल खत्म होते-होते 60 हजार लोगों को जेलों में डाल दिया। बाद में ब्रिटिश शासन को अहसास हुआ कि दमन और जेल में डालने से कुछ लाभ नहीं है। जनवरी, 1931 में गांधीजी को रिहा कर दिया गया और लॉर्ड इरविन से वार्ता शुरू हुई। 5 मार्च 1931 को हुए गांधी-इरविन समझौते के बाद गांधीजी ने सत्याग्रह समाप्त कर दिया। उनकी नैतिक विजय हो चुकी थी।गांधीजी के दांडी मार्च को याद करने की वजह यह है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज कई तरह से जवाहरलाल नेहरू के 15 अगस्त 1047 की मध्यरात्रि को दिए गए प्रसिद्ध भाषण ‘नियति से साक्षात्कार’ के शब्दों की प्रतिध्वनि कर रही है। तब उन्होंने महात्मा को ‘भारत की भावना का अवतार’ बताते हुए कहा था कि उनके संदेश को भावी पीढ़ियां याद रखेंगी। संदेश क्या था? महात्मा दुनिया के पहले सफल अहिंसा आंदोलन के अप्रतिम नेता थे। उनकी आत्मकथा थी ‘सत्य के प्रयोग’।दुनिया की कोई भी डिक्शनरी सत्य के अर्थ को उतनी गहराई से परिभाषित नहीं करती, जितना गांधीजी ने किया। उनका सत्य उनके दृढ़ मत से निकला था। यानी यह केवल सटीक नहीं था, लेकिन यह न्यायपूर्ण था इसलिए सही था। सत्य को अन्यायपूर्ण या असत्य तरीकों से नहीं पाया जा सकता। यानी अपने विरोधियों के खिलाफ हिंसा करके। इसी तरीके को समझाने के लिए गांधीजी ने सत्याग्रह की खोज की।वह इसके लिए अंग्रेजी शब्द पैसिव रजिस्टेंस (निष्क्रिय विरोध) को नापसंद करते थे, क्योंकि सत्याग्रह के लिए निष्क्रियता नहीं, सक्रियता की जरूरत थी। अगर आप सत्य में विश्वास करते हो और उसे पाने की परवाह करते हो तो गांधीजी कहते थे कि आप निष्क्रिय नहीं रह सकते, आपको सत्य के लिए दुख उठाने के लिए सक्रिय तौर पर तैयार रहना होगा। अहिंसा विपक्षी को चोट पहुंचाए बिना सत्य को साबित करने का तरीका था, बल्कि इसके लिए खुद चोट खाई जा सकती थी।गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए यह रास्ता चुना और यह प्रभावी रहा। दांडी तो सिर्फ इसका प्रतिमान था। जहां छिटपुट चरमपंथ और उदार संवैधानिकता दोनों ही निष्प्रभावी रहे, वहां गांधीजी स्वतंत्रता का मुद्दा लोगों तक ले गए। उन्होंने लोगों को वह तकनीक दी, जिसका अंग्रेजों के पास कोई जवाब नहीं था। हिंसा से दूर रहकर गांधीजी ने पहले ही बढ़त ले ली थी।अहिंसात्मक रूप से कानून को तोड़कर उन्होंने इसके अन्याय को भी दिखा दिया था। खुद पर लगाए गए दंडों को स्वीकार करके उन्होंने बंदी बनाने वालों का ही उनकी क्रूरता से सामना कराया। खुद पर ही भूख हड़ताल जैसे कष्ट थोपकर उन्होंने दिखाया कि वह सही वजह से की जा रही अवज्ञा के लिए किस हद तक जाने को तैयार हैं। अंत मेंउन्होंने अंग्रेजों के शासन को ही असंभव बना दिया।आज के भारत में गांधीजी और दांडी से हमें क्या सीख मिलती है? एक चीज को समझना होगा कि गांधीजी का रास्ता उन्हीं विपक्षियों के खिलाफ काम करता है, जिन्हें नैतिक अधिकार खाेने की चिंता होती है, एक सरकार जो घरेलू और अंतराष्ट्रीय राय के प्रति उत्तरदायी हो और हार पर शर्मसार होती हो। गांधीजी की अहिंसात्मक नागरिक अवज्ञा की ताकत यह कहने में निहित है : ‘यह दिखाने के लिए कि आप गलत हैं, मैं खुद को दंडित करूंगा।’लेकिन इसका उन लोगों पर कोई असर नहीं होता, जो इस बात में इच्छुक ही नहीं हैं कि वे गलत हैं और पहले से ही अपने साथ असहमति की वजह से आपको दंडित करना चाहते हैं। आपके खुद को सजा देने की इच्छा तो उनके लिए विजय का सबसे आसान तरीका होगा। नैतिकता के बिना गांधीवाद वैसा ही है जैसे कि सर्वहारा वर्ग के बिना मार्क्सवाद। इसके बाद भी जिन लोगों ने यह तरीका अपनाया वह उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और नैतिकता है। जबरन हड़ताल, पाखंडी क्रमिक धरना और धरनाें के दुरुपयोग से यही पता चलता है कि दुनिया गांधीजी के सत्य के विचार से कितना गिर गई है।इससे गांधीजी की महानता कम नहीं हुई है। जब, दुनिया फासीवाद, हिंसा और युद्ध में बंट रही थी, महात्मा ने हमें सत्य, अहिंसा और शांति का मतलब सिखाया। उन्हाेंने ताकत का मुकाबला सिद्धांतों से करके उपनिवेशवाद की विश्वसनीयता खत्म कर दी। उन्हाेंने ऐसे व्यक्तिगत मानदंडों को हासिल किया, जिसकी बराबरी शायद ही कोई कर सके। वह एक ऐसे दुर्लभ नेता थे, जिनका दायरा समर्थकों तक सीमित नहीं था। उनके विचारों की मौलिकता और उनकी जिंदगी के उदाहरण आज भी दुनिया को प्रेरणा देते हैं। लेकिन, हमें आज भी गांधीजी से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today महात्मा गांधी (फाइल फोटो।) Full Article