india news बाहर से आए श्रमिकाें को योग्यता के अनुसार जिले में दिया जाएगा रोजगार By Published On :: Sat, 09 May 2020 01:53:00 GMT लॉकडाउन में दूसरे इलाकाें में फंसे मजदूर जो बोकारो पहुंचे हैं उन्हें जिला प्रशासन उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराएगा। यह कहना है उपायुक्त मुकेश कुमार का। वे शुक्रवार काे पत्रकाराें से बात कर रहे थे। उन्होंने कहा है कि दूसरे राज्यों से आए जिले के सभी मजदूरों का बायोडाटा जिला प्रशासन के पास है। जिला प्रशासन ऐसे लोगों को जिले में ही रोजगार उपलब्ध कराने की सोच रहा है। ताकि उन्हें रोजगार के लिए दूसरे राज्य में नहीं जाना पड़े। इसके लिए जिले की छोटी-छाेटी औद्योगिक इकाइयों से भी बात की जा रही है। इसके अलावा जिला प्रशासन ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के तहत कई योजनाएं चला रहा है। इस काम में भी ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों को लगाया जाएगा।हेल्पलाइन नंबरसेंट्रल : 011- 23978046, 1075 टाल फ्री झारखंड : 104, 181 जिला कंट्राेल रूम : 06542-223475 , 06542-242402, 100 टाॅल फ्री नम्बर : 044-331-2422220 हजार से अधिक मजदूर दूसरे राज्यों से आएंगेडीसी ने कहा है कि जिले में 20 हजार से अधिक मजदूर दूसरे राज्यों से आएंगे। अभी तक रेड जोन से 600, ऑरेंज जोन से 500 और बाकी मजदूर ग्रीन जोन से आए हैं। रेड जोन से आ रहे मजदूरों पर विशेष नजर रखी जा रही है। बाहर से आए सभी मजदूरों व छात्रों को 14 दिन के लिए होम क्वारेंटाइन में रखा गया है। अगर कोई होम क्वारेंटाइन का उल्लंघन करते पाए जाएंगे तो उन्हें जिला प्रशासन 28 दिन के लिए होम क्वारेंटाइन करेगा। साथ ही ऐसे लोगों पर कानूनी कार्रवाई भी होगी। डीसी ने कहा कि हमें अभी और अलर्ट रहने की जरूरत है। अभी बड़ी चुनौती है। सैंपल की रिपोर्ट आने के बाद ही आगे की कार्रवाई होगी। अभी बोकारो जिला कोरोना मुक्त है।38 रिपोर्ट निगेटिव आई 136 और सैंपल लिए गएबाहर से बोकारो आए 136 लोगों के सैंपल शुक्रवार को लेकर जांच के लिए भेजे गए। वहींं पहले से भेजे 38 और सैंपल की रिपोर्ट निगेटिव आई हैl यह जानकारी सिविल सर्जन डॉ अशोक कुमार पाठक ने दी हैl अब तक कुल 547 सैंपल के रिपोर्ट आ चुके हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Workers from outside will be given employment in the district according to merit Full Article
india news गरीबी और सुविधाओं की कमी कभी बाधा नहीं बनती By Published On :: Wed, 12 Feb 2020 19:44:00 GMT बहानों की इस दुनिया में इन लोगों ने कभी कोई बहाना नहीं बनाया। जबकि उनके माता-पिता किसान थे या वे देश के कम प्रसिद्ध राज्यों में जन्मे थे। फिर भी उन्होंने सारी बाधाएं पार कीं और वैश्विक मंच पर पहुंचकर अपनी पहचान बनाई।पहली कहानी: सिलिकॉन वैली के ‘सुपर रिच’ लोगों में शामिल होने और 2019 में फोर्ब्स द्वारा अमेरिका के 225वें सबसे अमीर व्यक्ति घोषित किए जाने से दशकों पहले वे हिमालय के एक छोटे से गांव में रहते थे। पंजाब की सीमा से लगे, हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में उनके गांव पनोह में घरों में पानी तक नहीं आता था। जब वे आठवीं में पढ़ते थे, तब गांव में बिजली आई।जब वे 10वीं में आए, तब उन्हें पता चला कि नल से पानी कैसे आता है। और जब वे 12वीं कक्षा में आए तब जिंदगी में पहली बार कार में बैठे। उस वक्त उन्हें यह तक नहीं पता था कि हमारे देश में आईआईटी जैसा संस्थान भी है, जो टॉप परफॉर्मर्स को लेता है। वास्तव में जब वे पंजाब में कोई इंजीनियरिंग कॉलेज तलाश रहे थे, तब एक टीचर ने उन्हें आईआईटी के बारे में बताया।उनका आईआईटी भुवनेश्वर में चयन हो गया और फिर मास्टर्स डिग्री हासिल करने के लिए वे स्कॉलरशिप पर अमेरिका के ओहायो में सिनसिनाटी विश्वविद्यालय चले गए। मास्टर्स के बाद उन्होंने आईबीएम में काम किया और टेक्नोलॉजी को बेहतर ढंग से समझा। फिर 1996 में अपनी पत्नी ज्योति के साथ कंपनी शुरू की, जिन्होंने आईआईएम, कोलकाता से एमबीए किया था।कंपनी का नाम सिक्योरआईटी था, जिसे उन्होंने दो साल में 7 करोड़ डॉलर में बेच दिया। उसके 80 में से 70 कर्मचारी मिलिनियर बन गए थे। इसके बाद इन पति-पत्नी ने तीन कंपनियां शुरू कीं और तीनों बड़ी कीमत पर खरीद ली गईं।मौजूदा कंपनी जेडस्केलर 2018 में पब्लिक हुई और आज इसका बाजार मूल्य 7 अरब डॉलर है। मिलिए हिमालय की तलहटी में रहने वाले किसान के बेटे, 61 वर्षीय जय चौधरी से। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बिजनेस इंसाइडर ने उन्हें पिछले साल वैश्विक स्तर पर सबसे अमीर भारतीयों की सूची में शामिल किया।दूसरी कहानी: वे मणिपुर की रहने वाली हैं। शायद इसी वजह से उन्हें कई अन्य क्षेत्रों में अनदेखा किया जा सकता है, लेकिन खेल के असली मैदान में नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि मणिपुर में लड़कियों को फुटबॉल खेलने के लिए बढ़ावा दिया जाता है। फिर भी जब लड़कियां खेलती हैं तो भारत की दूसरी जगहों की तरह उन्हें भी कई बार समाज के ताने झेलने पड़ते हैं।जहां लोगों की हतोत्साहित करने वाली इन निरर्थक टिप्पणियों के सामने कुछ लोग झुक जाते हैं, वहीं इन टिप्पणियों ने मणिपुर की इस लड़की को और भी मजबूत बनाया, जिससे वे ऐसे लोगों के सामने खुद को साबित कर पाईं। बीबीसी को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, ‘मैं लड़कों के साथ खेलती थी और उन्हें सारे गेम्स में हरा देती थी।’दूसरे क्या सोचते हैं, इसकी परवाह किए बिना उन्होंने स्पोर्ट्स प्रोफेशन चुना। जैसे ही फुटबॉल प्रेमी ‘बाला 10’ नाम की टीशर्ट देखते हैं तो स्टेडियम में एक अलग ही उत्साह दिखता है। पिछले महीने नंगंगोम बाला देवी स्कॉटलैंड रेंजर्स फुटबॉल क्लब के साथ प्रोफेशनल कॉन्ट्रैक्ट साइन करने वाली पहली भारतीय महिला फुटबॉलर बन गईं।अगर आप महिला हैं और स्पोर्ट्स पसंद है तो रेंजर्स की वेबसाइट देखती रहें, जहां बाला देवी अपने प्रोफेशन में आगे बढ़ने और इसी में बने रहने से जुड़ी बातें पोस्ट करती हैं। जय और बाला देवी से यही सीखा जा सकता है कि जो भी करें, उसमें सर्वश्रेष्ठ बनें। अपनी पसंद का कोई भी क्षेत्र चुनें लेकिन उसमें सबसे अच्छा प्रदर्शन हो। इसमें कोई बहाना नहीं चलेगा।फंडा यह है कि बहुत गरीबी, बिजली की कमी, पानी का न होना, गांव में पैदा होना, अच्छा स्कूल या कॉलेज न होना, ये सभी बहाने उन लोगों के लिए बाधा नहीं बनते, जिनमें जीतने का उत्साह होता है और जो उस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ करते हैं, जिसे उन्होंने चुना है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news गुड़ खाते हैं, लेकिन गुलगुले से परहेज करते हैं By Published On :: Wed, 12 Feb 2020 19:50:00 GMT फिल्मकार अनुभव सिन्हा की तापसी पन्नू अभिनीत ‘थप्पड़’ प्रदर्शन के लिए तैयार है। फिल्म में महिला समानता और सम्मान के मुद्दे को प्रस्तुत किया गया है। कहते हैं कि श्रीमती स्मृति ईरानी को थप्पड़ में उठाया गया मुद्दा पसंद नहीं है। साथ ही उन्होंने यह भी फरमाया है कि वे फिल्मकार अनुभव सिंहा के राजनीतिक रुझान को पसंद नहीं करतीं और संकेत यह भी दिया है कि तापसी पन्नू के शाहीन बाग आंदोलन के समर्थन में खड़े होना भी उन्हें पसंद नहीं है।सारांश यह है कि उन्हें गुड़ से नहीं, गुलगुले से परहेज है। अनुभव सिंहा की ऋषि कपूर और तापसी पन्नू अभिनीत ‘मुल्क’ सफल व सार्थक फिल्म मानी गई। फिल्म में मुस्लिम परिवार का एक युवक आतंकवादी है। वह मारा जाता है। उसके पिता और रिश्तेदारों को भी आतंकवादी करार देने के प्रयास होते हैं। उसके पिता को गिरफ्तार कर लिया जाता है।उसके ताऊ को भी हिरासत में लिया जाता है। इस परिवार के लंदन में बसे युवा ने प्रेम विवाह किया है। जब उसकी पत्नी गर्भवती हुई तब पति ने सवाल किया कि जन्म लेने वाला बच्चा किस मजहब को मानेगा? उसकी पत्नी का कहना है कि प्रेम विवाह के समय मजहब आड़े नहीं आया तो बच्चे के जन्म के समय यह सवाल क्यों उठाया जा रहा है?अजन्मे बच्चे के मजहब के गैरजरूरी मुद्दे को उठाने के कारण खिन्न होकर पत्नी अपने ससुराल आई है, उसी समय यह घटना होती है। तापसी पन्नू पेशेवर वकील है और वह ससुराल पक्ष के लिए मुकदमा लड़ती है। अदालत के दृश्य में परिवार का उम्रदराज मुखिया बयान देता है कि प्राय: उसकी पत्नी उससे पूछती है कि क्या वह उससे प्रेम करता है और अगर करता है तो साबित करे।मुखिया जवाब देता है कि प्रेम करते हुए प्रेम जताया तो जाता है, पर इसे साबित कैसे किया जा सकता है? अगर प्रेम को मुकदमा बना दें तो सबूत कहां से लाएंगे। जिस तरह वह बिना साक्ष्य और सबूत के पत्नी से प्रेम करता है, उसी तरह अपने देश से भी करता है जिसे साबित करने की कोई जरूरत नहीं है। वर्तमान में हुक्मरान की जिद है कि देशप्रेम सिद्ध कीजिए। अपने जन्म स्थान और पूर्वजों का अस्तित्व सिद्ध करें।फिल्म में सरकारी वकील एक शेर पढ़ता है- ‘हम उन्हें (मुस्लिम) अपना बनाएं किस तरह, वे (हिंदू) हमें अपना समझते ही नहीं’। बचाव पक्ष की वकील कहती है कि यह ‘हम’ और ‘वो’ में तमाम लोगों को बांट दिया गया है। वह अदालत में प्रमाण देती है कि इस मुस्लिम परिवार ने अपना वतन छोड़ने की बात ठुकरा दी।बचाव पक्ष की वकील यह साबित कर देती है कि इस परिवार का एक युवा आतंकवादी था, परंतु परिवार के अन्य सदस्यों को उसकी गलती में घसीटा नहीं जा सकता। इस प्रकरण की तहकीकात एक मुस्लिम अफसर ने की जिस पर अपने आप को देश प्रेमी सिद्ध करने का ऐसा दबाव था कि गुनाहगार आतंकवादी को वह गिरफ्तार भी कर सकता था, परंतु उसने दबाव के कारण उसे गोली मार दी।जिंदा पकड़कर उस आतंकवादी से उसके संपर्क की जानकारी प्राप्त हो सकती थी। जज फैसला देता है कि परिवार के सदस्य निर्दोष हैं। कोई भी सरकारी कर्मचारी अपने जन्म और धर्म को लेकर बनाए गए दबाव में न आकर विवेक और निष्पक्षता से कार्य करे। जज का यह कथन भी है कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की संसद में पूजा होने की बदतर दशा से मुल्क को बचाना चाहिए।बहलहाल, जब भी कोई व्यक्ति एक असुविधाजनक सवाल उछालता है, तब जवाब में उसे थप्पड़ मार दिया जाता है। तर्क के अभाव में थप्पड़ मार दिया जाता है। प्राय: देखा गया है कि स्कूल में बच्चा प्रश्न पूछता है तो शिक्षक समाधान नहीं करते हुए थप्पड़ मार देता है। थप्पड़ अज्ञान का प्रतीक है और जवाब देने के उत्तरदायित्व से बचने का भौंडा प्रयास है।एक कविता की पंक्ति है- ‘समझ सके तो समझ जिंदगी की उलझन को, सवाल उतने नहीं हैं जवाब जितने हैं।’ बलदेव राज चोपड़ा की फिल्म में भी एक गीत इस तरह था- ‘तुम एक सवाल करो, जिसका जवाब ही सवाल हो’। गालिब का शेर है- ‘ईमां मुझे रोके है, कुफ्र मुझे खींचे है, काबा मेरे पीछे है, कलीता (मिन्नत) मेरे आगे है। यह दौर ही सवालिया है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today थप्पड़ फिल्म के एक सीन की फोटो। Full Article
india news योग करेंगे तभी निर्भय बन पाएंगे By Published On :: Wed, 12 Feb 2020 19:57:00 GMT जिन्हें डर लगता है, वे कभी शांत नहीं हो पाएंगे। यह भी तय है कि पूरी तरह निडर तो दुनिया में कोई नहीं है। बड़े से बड़ा सत्ताधीश भी किसी न किसी बिंदु पर डर जाता है। भय कभी खत्म नहीं होने वाला एक सिलसिला है। जो शांति चाहते हों उन्हें भय के रूप को समझना होगा और निर्भयता कैसे आ सकती है, उसके प्रयास करना पड़ेंगे। स्थायी निर्भय तो वो ही हो सकता है जो हृदय से बोले ‘मेरी जिंदगी तेरे भरोसे।’ तेरे मतलब परमशक्ति के। जब पूरी ताकत और श्रद्धा से ‘तेरे भरोसे’ कहा जाएगा, तब ही आप निर्भय हो पाएंगे, अन्यथा भय अलग-अलग रूप में आता ही रहेगा।बाहर कोई घटना घट रही हो, उसमें अपना अहित दिखे तो हम भीतर से डर जाते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बाहर सब कुछ सामान्य हो तो भी भीतर भय अपना काम करता है। डरना हमारी तासीर में है और निर्भयता हमारा स्वाध्याय होगी। जैसे हमारी सांस चलती है, शरीर में रक्त का संचार होता है, ऐसे ही स्वाभाविक रूप से भय भीतर आता है, पूरे शरीर में बहता है और उसके कारण पूरा शरीर प्रतिक्रिया करने लगता है।सांस तेज हो जाना, रक्त संचार की व्यवस्था गड़बड़ाना, ये भय के ही लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है- एक योगी ही पूरी तरह निर्भय हो सकता है, क्योंकि उसे इस बात का भान हो जाता है कि मैं अलग हूं, शरीर अलग है। दुनिया के नब्बे प्रतिशत से अधिक भय हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए योग के माध्यम से अपने आपको निर्भय कीजिए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news चोरी का कुआं, खोदो तो मिले By Published On :: Wed, 12 Feb 2020 20:00:00 GMT महान लेखक शरद जोशी का एक व्यंग्य है। एक प्यासे गांव में सरकार कुआं खोदने की मंज़ूरी देती है। कुआं खोद भी लिया जाता है। लेकिन, सिर्फ कागजों पर। गांव या गांव की जमीन पर नहीं। प्यास जस की तस। गांव में एक चतुर व्यक्ति था। उसने लोगों को सलाह दी। कुआं चोरी होने की रपट लिखवाओ।गांव वालों ने कलेक्टर को शिकायत की। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई। चोरी हुए कुएं को तलाशने के आदेश हो गए। गांव में पुलिस आई। किसने चोरी किया कुआं? कहां छिपाया? चतुर व्यक्ति आगे आया। उसने यहां-वहां, कई जगहें बताईं। फिर गांव के बीचोबीच ले जाकर पुलिस को बताया- मैंने चोर को यहीं देखा था साहब! उसने यहीं गाड़ा होगा कुएं को! पुलिस ने वहीं खुदाई की। इतनी कि पानी निकल आया। मिल गया गांव को कुआं।दिल्ली वाले अरविंद केजरीवाल ने भी गांव के उस चतुर व्यक्ति की तरह कांग्रेस और भाजपा द्वारा छिपाए हुए कुएं को खोज निकाला था। तीसरी जीत का अमृत उसी कुएं से निकला है। कांग्रेस और भाजपा विकास की बातें तो करती थीं लेकिन सड़क, पुलिया, ब्रिज, ओवर ब्रिज तक सीमित। लोगों की इच्छा का मर्म कहीं दबा ही रह जाता था। यकीनन, सड़क, पुलिया, ब्रिज सब विकास ही हैं और यह दिखता भी है।साफ-साफ। लेकिन जिस विकास का लोगों के मन पर सीधा असर होता है, वह कुछ और था। किसी कुएं में दबा हुआ। किसी खोह में छिपा हुआ। केजरीवाल ने उसे ढूंढ़ निकाला। बिजली बिल, अस्पताल और स्कूल। दिल्ली के स्कूल ज्यादा ली हुई फीस पैरेंट्स को वापस करें! अस्पताल जाकर आपको लगे ही नहीं कि यह सरकारी है!असर तो पड़ता ही है। पड़ा भी। इससे भी बड़ी बात यह कि इन कामों के अलावा दो साल पहले से केजरीवाल ने केंद्र सरकार का व मोदी का विरोध करना छोड़ दिया। अपने काम से काम। भाजपा ने कहा- जय श्री राम। केजरीवाल ने कहा - जय श्री काम । बस, हो गया काम!दिल्ली के इस बार के चुनावों ने एक सबसे बड़ा संदेश यह दिया कि बिना किसी जातिवाद, धार्मिक मुद्दे या आपराधिक गतिविधियों में संलग्न लोगों को टिकट देने, दूसरों पर दोष मढ़ने, आरोप लगाने से पूरी तरह परहेज़ करके भी चुनाव जीते जा सकते हैं। जीत भी मामूली नहीं, प्रचंड। वह भी लगातार तीसरी बार। कोई एंटी इन्कम्बेंसी नहीं। विरोध का कोई वोट नहीं। यही सबसे गजब बात है केजरीवाल की जीत में। वाकई ‘आप’ ने गजब कर दिया।भाजपा की मुश्किल यह है कि उसके पास मोदी के अलावा कोई चेहरा नहीं है। राज्यों में लगातार उसकी पराजय का यही कारण है। महाराष्ट्र, झारखण्ड, की पराजय सबको याद है। हरियाणा में भी बहुमत नहीं मिल पाया और दिल्ली तो दूर हो ही गई। दरअसल, लोकसभा चुनाव में मोदी खूब चलते हैं लेकिन राज्यों के चुनावों में आम आदमी को एक लोकल चेहरा चाहिए होता है जो भाजपा खोती जा रही है। राज्यों में केंद्रीय नेताओं के धुंआधार प्रचार से आम आदमी को लगता है ये कोई अंग्रेज आ गए दूसरे मुल्क से...! इसीलिए वे लोकल पार्टी या उसके नेता में भरोसा पक्का कर लेते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। Full Article
india news आप के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाने का उचित समय By Published On :: Wed, 12 Feb 2020 20:10:00 GMT दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की शानदार जीत ने उसके एक बार फिर से राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की संभावनाओं को बढ़ा दिया है। पार्टी की उत्पत्ति और पहचान सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है, इसलिए देश के अन्य हिस्सों में भी उसकी संभावनाएं दिखती हैं। निश्चित तौर पर यह आसान नहीं है।मायावती और शरद पवार दोनों ने ही राष्ट्रीय स्तर पर जाने का वादा किया था, क्योंकि दलितों व किसानों के मुद्दे राष्ट्रव्यापी हैं। लेकिन, ऐसा हो न सका। आप भी पहले ऐसा कर चुकी है, पर पंजाब में आंशिक सफलता को छोड़कर पार्टी को पहले प्रयास में बहुत कुछ हासिल नहीं हो सका। कठिन हालात के बावजूद अब उसके राष्ट्रीय स्तर उभरने के मौके पहले से कहीं अधिक हैं।ताकतवर भाजपा को दो बार हराना व इतनी शानदार विजय हासिल करना कोई मजाक नहीं है। दूसरी जीत ने आप पर अराजक, अंदोलनकारी और शासन करने मेंअक्षम होने के सभी आरोपों को धो दिया है। आप इतनी बड़ी जीत तभी हासिल कर सकती है, जब उसने अच्छा शासन दिया हो और लोगों को खुश रखा हो। आप को राष्ट्रीय स्तर पर अभी क्यों जाना चाहिए?प्रमुख विपक्ष की कमी, अर्थव्यवस्था की डगमगाती स्थिति, भाजपा सरकार (हालांकि वह अब भी काफी लोकप्रिय नजर आती है) का हनीमून दौर बीतना जैसे अनेक कारण हैं, जिसकी वजह से पांच साल पहले की तुलना में आप के विस्तार के लिए यह समय बेहतर है। पूर्व मेंआप ने जो आलोचना झेली, वह वांछनीय थी।पार्टी ने लंबा समय भाजपा की आलोचना करने, लेफ्टिनेंट गवर्नर पर आरोप लगाने और प्रधानमंत्री से घृणा करने में लगा दिया। उसने इस बात की शिकायत की कि वह क्या नहीं कर सकती, खुद को सताया हुआ दिखाने की कोशिश की और उस पर कम ध्यान दिया जो वह कर सकती थी।हालांकि, अंतर यह है कि आप ने सुना और एक तरह का री-इन्वेशन किया। उसके लिए शांत रहना और उस आनंद को छोड़ना, जो वह प्रधानमंत्री या किसी और भाजपा नेता के विवादास्पद बयान पर फब्तियां कसने से प्राप्त करती थी, आसान नहीं था। लेकिन, उसने बदलाव किया और दोबारा जीत हासिल की।उन्होंने एक काम करने वाली सरकार के रूप में अपनी विश्वसनीयता बनाई। प्रधानमंत्री मोदी ने एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में उभरने से पहले एक दशक से अधिक समय तक गुजरात में शासन किया। भारत में जब तक आप किसी कुलीन घराने में पैदा नहीं होते, आपको सर्वोच्च पद का दावेदार बनने के लिए आवश्यक संघर्ष करना ही होगा।क्या आप ने अपने हिस्से का संघर्ष पूरा कर लिया है? शायद नहीं। इसे दूसरे कार्यकाल में यह दिखाना होगा कि वह अपने हाथ के काम पर फोकस कर सकती है और प्रकट रूप से महत्वाकांक्षी नहीं है। यद्यपि आप की जीत का अंतर बहुत शानदार है और उसने विलुप्त सी हो गई कांग्रेस का राजनीतिक विकल्प दे दिया है। आप को जिस तरह से खुद को मापना होगा, वह तरीका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां पर कुछ कारक हैं, जो विचार करने योग्य हैं।यह समझें कि राष्ट्रीय पार्टी का मतलब पूरे देश में हर जगह मौजूद पार्टी नहीं है। भाजपा जैसी विशाल पार्टी की भी दक्षिण के तीन राज्यों में बहुत थोड़ी मौजूदगी है। उसने हाल में बंगाल और उत्तर पूर्व में जगह बनाई है। आप के राष्ट्रीय होने का मतलब अभी सिर्फ तीन-चार राज्यों में विस्तार से है। उसे ये राज्य बहुत ही सावधानी से चुनने चाहिए। इनके लिए एक समाचार योग्य और साधारण एजेंडा तय करना चाहिए। यह या तो गठजोड़ करे या फिर कांग्रेस के ऐसे नेताओं को खींचे, जो पार्टी नेतृत्व से नाराज हों पर उनमें अब भी उनके क्षेत्र मेंसांगठनिक क्षमता बाकी हो।शक्ति का बंटवारा। पार्टियों के विस्तार न करने की सबसे बड़ी वजह यह होती है कि उसका नेता पार्टी में अन्य किसी के भी उभरने से हिचकता है, क्योंकि वह उसके लिए चुनौती बन सकता है। आप तेजी से नहीं उभर सकती, अगर उसने कुछ मिनी स्टार जैसे नेताओं को नहीं जोड़ा तो अरविंद केजरीवाल को उनके साथ शक्ति साझा करनी होगी। आप के साथ ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ के कई मामले हो चुके हैं, इसलिए बड़े नेता उसमें शामिल होने को लेकर चिंतित हो सकते हैं।शासन का दिल्ली मॉडल- प्रधानमंत्री से सीख लेकर आप शासन के दिल्ली माॅडल को देशभर में प्रचारित कर सकती है। दिल्ली ने क्या सही किया? हम इसे और जगहों पर कैसे ले जा सकते हैं? दिल्ली में अब तक जो दिखता है वह पानी, स्वास्थ्य, बिजली और शिक्षा यानी डब्लूएचईई (व्ही) नजर आता है। आप इस व्ही को ही प्रचारित कर सकती है।अतिरिक्त उदारवादियाेंसे दूरी- ये उदारवादी पढ़े-लिखे, मुखर, अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले और बहुत ही आकांक्षी हैं। भारतीय इन लोगों मान्यता चाहते हैं। यह उन्हें क्षमता से ज्यादा प्रभाव देता है। वे पहले आपकी प्रशंसा करेंगे, लेकिन बाद में चाहेंगे कि आप उनके अनुसार काम करें। उनकी अति प्रगतिवादी सोच भारतीय चुनाव में जिताने की क्षमता नहीं रखती। आप ने इसे जाना और एक छोटे और स्वीकार्य तरीके से राष्ट्रवाद व हुनमान चालीसा को आगे बढ़ाया।नियमित री-इन्वेंशन- इंडिया अगेंस्ट करप्शन से एक आंदोलनकारी आप, फिर गुस्से वाली आप से एक शासन पर ध्यान देने आप का जन्म हुआ। समय के साथ आप को बदलना काफी है। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि अभी राष्ट्रीय स्तर पर जाने का रोडमैप क्या होगा, लेकिन कुछ तो होगा ही जो आप को फिर बदलेगा। जब तक आप के डीएनए में री-इन्वेंशन रहेगा यह बढ़ती और विकसित होती रहेगी।हमारे देश को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है और इस दिशा मेंकिसी भी कोशिश का स्वागत होना चाहिए, भाजपा समर्थकों द्वारा भी। किसी भी पार्टी की तुलना में भारतीय लोकतंत्र अधिक महत्वपूर्ण है और हमें उम्मीद करनी चाहिए आप इसे और मजबूती ही देगी।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सपने और हकीकत के बीच का अंतर ही ‘कर्म’ कहते हैं By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 18:33:00 GMT लोग कहते हैं कि अगर आप ‘कर्म’ करेंगे तो किस्मत आपके लिए दरवाजे खोलती जाएगी। ये ऐसे ही दो उदाहरण हैं।पहली कहानी: इस हफ्ते मुझे किसी ने ललिता की तस्वीर भेजी, जिसने विश्वेश्वरैया टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग शाखा में टॉप करने पर गोल्ड मेडल जीता था। तस्वीर भेजने वाले ने साथ में मैसेज लिखा था, ‘आपको ललिता की कहानी पसंद आएगी, खासतौर पर इसलिए क्योंकि ऐसे लोग जिनके अशिक्षित माता-पिता आजीविका के लिए सब्जी बेचते हैं, वे शायद ही एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग जैसे विषय चुनें।’ मैं उनसे सहमत था इसलिए तय किया कि मैं ललिता का सफर देखूंगा। वह अपने पूरे परिवार में पहली ऐसी व्यक्ति है, जिसे गोल्ड मेडल मिला है।विशेष बात यह है कि उनके पिता राजेंद्र और मां चित्रा कर्नाटक की चित्रदुर्गा म्युनिसिपल काउंसिल के हिरियूर गांव में सब्जी बेचते हैं, जहां आय हमेशा बहुत कम रहती है। वे दोनों पहली कक्षा तक ही पढ़े हैं, बावजूद इसके उन्होंने अपने तीनों बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया। ललिता से छोटा बच्चा फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई कर रहा है, जबकि तीसरा बच्चा स्थानीय पॉलिटेक्निक कॉलेज से डिप्लोमा कर रहा है। सबसे अच्छी बात यह है कि तीनों बच्चे बारी-बारी से सब्जी बेचने की जिम्मेदारी भी निभाते हैं।ललिता स्कूल बोर्ड परीक्षाओं से ही टॉपर रही थी। जब उसने ऐसा ही प्रदर्शन कॉलेज में भी जारी रखा तो कॉलेज प्रिंसिपल ने हॉस्टल की फीस पूरी तरह माफ कर दी। ललिता पर काम का कितना भी प्रेशर हो, वो रोज तीन घंटे जरूर पढ़ती थी। उसने कभी ट्यूशन नहीं ली, लेकिन क्लास की एक्टिविटी हमेशा समय पर पूरी करती थी। इन दो अनुशासनों से उसके जीवन में दबाव नहीं रहा और वह परीक्षा के दौरान निश्चिंत रह पाई।क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि दो सब्जी बेचने वालों को दीक्षांत समारोह में बैठकर कैसा महसूस हुआ होगा, जब उनकी बच्ची को इस साल 8 फरवरी को कर्नाटक के राज्यपाल ने गोल्ड मेडल से नवाजा?दूसरी कहानी: आपको याद है, कैसे 18 जनवरी 2020 को अभिनेत्री शबाना आजमी के एक्सीडेंट की खबर ने हमें चौंका दिया था। अगली सुबह अखबारों में मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाईवे पर शबाना आजमी की कार से निकलने में मदद करते एक ‘आर्मी मैन’ की तस्वीर नजर आई। क्या कभी सोचा है कि वह आर्मी मैन कौन था, जिसने शबाना को सुरक्षित बाहर निकलने और फिर जल्दी से अस्पताल पहुंचने में मदद की?लाइफ सेविंग फाउंडेशन के संस्थापक देवेंद्र पटनायक भी तस्वीर वायरल होने के बाद से इस युवा आर्मी मैन को ढूंढ रहे थे। उन्होंने महाराष्ट्र के सभी आर्मी हेडक्वार्टर्स से संपर्क किया। लेकिन उन्हें यह जानकर निराशा हुई कि तस्वीर में दिख रहा आदमी किसी भी आर्मी विंग से नहीं है। फिर देवेंद्र ने उस अस्पताल से संपर्क किया जिसमें शबाना भर्ती हुई थीं और वहां से उस एंबुलेंस के बारे में पता किया जो उन्हें हॉस्पिटल लेकर आई थी। इससे वे महाराष्ट्र सिक्योरिटी फोर्सेस के सिक्योरिटी गार्ड विवेकानंद योगे तक पहुंचे, जो एक्सप्रेसवे पर तैनात था।हादसे वाले दिन उस गार्ड ने सबसे पहले शबाना की मदद की थी, जब उनकी कार एक ट्रक के पिछले हिस्से से टकरा गई थी। जब उसने आवाज सुनी तो वह दो किलोमीटर दौड़ा और देखा कि घाट वाली सड़क पर हादसा हुआ है। तब उसे यह नहीं पता था कि अंदर कौन है। उसने शबाना के हादसे के बाद वैसा ही किया, जैसा करने का उसे प्रशिक्षण मिला है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि योगे को अब न सिर्फ संस्थानों ने सम्मानित किया, बल्कि अब बड़े लोगों की प्रसिद्धि के बीच में भी वह चमकेगा।फंडा यह है कि जीवन में अनगिनत दरवाजे मिलते हैं। अगर आप मेहनती हैं तो आप उनमें से कुछ दरवाजे खोलेंगे। अगर आप होशियार हैं तो आप कई दरवाजे खोलेंगे और अगर आप जोश से भरे हैं, तो आपके लिए हर दरवाजा खुद खुलेगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news ‘हुं तने प्रेम करूं छुं’ By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 18:42:00 GMT आनंद एल राय की फिल्म ‘हैप्पी भाग जाएगी’ के एक दृश्य में इस आशय का संवाद है कि मधुबाला से युवा को प्रेम है और उसके अब्बा को भी मधुबाला से प्रेम रहा है, परंतु सवाल यह है कि मधुबाला किसे प्रेम करती थी? मधुबाला को चाहने वालों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है- नागरिकों के रजिस्टर की तरह। मधुबाला को दिलीप कुमार से प्रेम था और मधुबाला के लालची पिता अताउल्लाह खान भी यह तथ्य जानते थे।खान साहब ने दिलीप कुमार से कहा कि वे एक शर्त पर इस निकाह की इजाजत दे सकते हैं कि शादी के बाद वे दोनों केवल अताउल्लाह खान द्वारा बनाई जाने वाली फिल्मों में अभिनय करेंगे। दिलीप कुमार अपने काम में सौदा नहीं कर सकते थे। उनके पिता भी उनके अभिनय करने से खफा थे।एक दिन पिता अपने पुत्र दिलीप कुमार को गांधीजी के साथी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद से मिलाने ले गए और गुजारिश की कि इसे भांडगीरी करने से रोकें। वे अभिनय को भांडगीरी मानते थे। आजाद साहब ने दिलीप कुमार से कहा कि जो भी काम करो उसे इबादत की तरह करना। मौलाना साहब से वचनबद्ध दिलीप कुमार अताउल्लाह खान की बात कैसे मानते।यह प्रेम कहानी पनपी नहीं। मधुबाला, दिलीप कुमार को कभी भूल नहीं पाईं। जीवन के कैरम बोर्ड में दिलीपिया संजीदगी की रीप से टकराकर क्वीन मधुबाला किशोर कुमार के पॉकेट में जा गिरी। राज कपूर और नरगिस की प्रेम कहानी ‘बरसात’ से शुरू हुई। ‘बरसात’ के एक दृश्य में राज कपूर की एक बांह में वायलिन तो दूसरी बांह में नरगिस हैं।गोयाकि संगीत और सौंदर्य से उनका जीवन राेशन है। इस दृश्य का स्थिर चित्र उनकी फिल्मों की पहचान बन गया। आर.के. स्टूडियो में यही पहचान कायम रखी। अशोक कुमार और नलिनी जयवंत ने कुछ प्रेम कहानियों में अभिनय किया। अशोक कुमार विवाहित व्यक्ति थे। नलिनी जयवंत और अशोक कुमार दोनों ही चेंबूर में रहते थे।अभिनय छोड़ने के बाद कभी-कभी नलिनी जयवंत अशोक कुमार के चौकीदार से अशोक कुमार की सेहत की जानकारी लेती थीं। कभी-कभी एक टिफिन भी दे जाती थीं। भोजन की टेबल पर व्यंजन देखकर अशोक कुमार जान लेते थे कि कौन सा पकवान नलिनी जयवंत के घर से आया है।जल सेना अफसर की बेटी कल्पना कार्तिक ने देव आनंद के साथ कुछ फिल्मों में अभिनय किया। देव आनंद को यह भरम हुआ था कि उनके बड़े भाई चेतन आनंद भी कल्पना की ओर आकर्षित हैं। उन्होंने स्टूडियो में ही पंडित को बुलाकर लंच ब्रेक में कल्पना से विवाह कर लिया। ज्ञातव्य है कि कल्पना कार्तिक बांद्रा स्थित चर्च में प्रार्थना करने प्रतिदिन आती थीं।वह प्रार्थना थी या प्रायश्चित यह कोई नहीं बता सकता। बोनी कपूर ‘मिस्टर इंडिया’ में श्रीदेवी को अनुबंधित करना चाहते थे। चेन्नई जाकर उन्होंने श्रीदेवी की मां से संपर्क किया कि वे पटकथा सुन लें। उन्हें इंतजार करने के लिए कहा गया। हर रोज रात में बोनी कपूर श्रीदेवी के बंगले के चक्कर काटते थे।यह संभव है कि उसी समय श्रीदेवी भी नींद नहीं आने के कारण घर में चहलकदमी करती हों। संभव है कि आकाश में किसी घुमक्कड़ यक्ष ने तथास्तु कहकर यह जोड़ी को आशीर्वाद दे दिया हो। वर्तमान में रणबीर कपूर और आलिया भट्ट की प्रेम कहानी सुर्खियों में है। खबर है कि ऋषि कपूर के पूरी तरह सेहतमंद होते ही शहनाई बजेगी।भूल सुधार : 13 फरवरी को प्रकाशित गुड़-गुलगुले लेख में पहले पैराग्राफ को यूं पढ़ा जाना चाहिए कि- स्मृति ईरानी को फिल्म थप्पड़ की थीम पसंद है, लेकिन फिल्मकार के राजनीतिक विचारों को नापंसद करती हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today ‘हैप्पी भाग जाएगी’ का पोस्टर। Full Article
india news ईश्वर से जुड़ना है तो जैसे हैं, वैसे दिखें By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 19:02:00 GMT यह हमारे भारत के परिवारों का मनोविज्ञान है कि यदि लड़की वाले के घर लड़के वाले रिश्ता लेकर आ रहे हों तो जो भी बेहतर प्रस्तुति हो सकती है, लड़की वाले करते हैं। कुछ देर के लिए तो पूरे परिवार में एक बेचैनी, खलबली सी मची होती है। और यदि लड़की वालों के मन में यह बात हो कि लड़के वालों को सब कुछ जम जाए, यह रिश्ता तय हो जाए तो एक और दबाव उन पर आ जाता है।दो परिवार जब रिश्ता करने निकलते हैं तो सबसे पहले एक-दूसरे को टटोलते हैं। टटोलने की उस प्रक्रिया में जासूसी भी हो सकती है। उसके बाद दूसरे चरण में आगे बढ़कर एक-दूसरे के रिश्ते को छूते हैं। और तीसरे चरण में रिश्ते को महसूस किया जाता है, तब जाकर हां या ना होती है..। यह एक पुराना मनोविज्ञान है जो हमारे परिवारों में चला आ रहा है।आइए, इसे थोड़ा अध्यात्म से जोड़कर देखें। यदि आप परमपिता परमेश्वर को घर लाना चाहते हैं, जीवन में उतारना चाहते हैं तो वो ही मनोविज्ञान काम करेगा जो लड़की वालों के घर में करता है। मतलब बेहतर से बेहतर प्रस्तुति।जब बाहरी लोग हमारे घर आते हैं तो हम घर को भर लेते हैं, तरह-तरह की वस्तुओं से सजा लेते हैं, लेकिन जब ऊपर वाला घर में आता है तो हमें घर खाली करना पड़ेगा, क्योंकि खाली करने पर ही उसे जगह दे पाएंगे। परिवार में रिश्ते तय होते हैं अच्छे से अच्छा दिखाने से, पर ईश्वर से रिश्ता तय होता है जैसे हैं, वैसा खुलकर दिखाने से। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news टैक्स वसूलने के लिए अपील से ज्यादा सख्ती की जरूरत By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 19:07:00 GMT प्रधानमंत्री ने जनता, खासकर संपन्न वर्ग से अपील की है कि वे पूरी ईमानदारी से अपने टैक्स दें। उन्होंने कहा कि 2022 में देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई जाएगी, ऐसे में लोगों को अपने व्यक्तिगत हितों को उन लोगों की कुर्बानियों के साथ समाहित करना चाहिए, जिनकी वजह से देश आजाद हुआ। साथ ही ईमानदारी से टैक्स देने की प्रतिज्ञा करनी होगी, ताकि देश खुशहाल हो सके।प्रधानमंत्री ने कहा कि यह दुःख की बात है कि आज केवल 1.50 करोड़ लोग ही टैक्स देते हैं और केवल 2200 प्रोफेशनल लोग (जिनमें डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं) ही अपनी आय एक करोड़ से ज्यादा घोषित करते हैं, जबकि पिछले पांच साल में तीन करोड़ लोग व्यापार के सिलसिले में या घूमने विदेश गए हैं। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश की आर्थिक स्थिति बदतर हो रही है।महंगाई वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट यानी बेरोजगारी की मार और गहरी होती जा रही है। इससे पहले वित्त मंत्री ने दावा किया था कि देश आर्थिक मंदी के चंगुल से बाहर आ सकेगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था में हरी कोंपलें दिखने लगी हैं। दरअसल, जहां प्रधानमंत्री की अपील उचित और अनुपालन योग्य है, वहीं केवल अपील से ताकतवर व्यक्तिगत स्वार्थ की दुर्भावना को बदलना असंभव है।दशकों से यह आम जनता की नाराजगी का विषय रहा है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाला एक डॉक्टर दिनभर में दस हजार से दो लाख रुपए या और अधिक कमाता है पर शायद ही समुचित टैक्स भरता है। सुप्रीम कोर्ट के एक वकील की एक केस में मात्र एक दिन की बहस की फीस लाखों रुपए होती है। पर इनसे टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी किसकी है?ये प्रोफेशनल जब बेनामी संपत्ति खरीदते हैं या आलीशान घरों में विदेशी टाइल्स लगवाते हैं या लाखों खर्च कर इटली के झाड़-फानूस लगवाते हैं तो क्या टैक्स वालों की आंख पर पट्टी बंधी होती है? स्वच्छ भारत अभियान के लिए अपील करना तो समझ में आता है, क्योंकि वह समाज में गलत आदत से जुड़ा मुद्दा है, लेकिन किसी अपराधी से अपराध न करने की अपील सत्ता के मुखिया द्वारा करना जाने-अनजाने में यह संकेत देता है कि सरकार अक्षम है। इसलिए आज टैक्स वसूलने के लिए अपील से ज्यादा सख्ती की जरूरत है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news देश नहीं, अभी दिल्ली तक ही ठीक हैं केजरीवाल By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 19:14:00 GMT अरविंद केजरीवाल के उदय को वैसे ही भारतीय राजनीति में पिछले दशक का स्टार्टअप्स कहा जा सकता है, जैसे कि नरेंद्र मोदी इसी अवधि की सबसे बड़ी ब्रांड क्रांति हैं। दोनों की ही खास कहानियां हैँ, जो मध्यम वर्ग और आकांक्षी भारत को लुभाती हैं। एक आईआईटी से पढ़े भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता केजरीवाल ने देश की राजनीतिक संस्कृति को बदलने के वादे के साथ राजनीति में प्रवेश किया था। दूसरी ओर, आरएसएस प्रचारक रहे मोदी ने नेहरूवादी संस्थानों को बदलने का वादा किया है।अपने समर्थकाें के लिए दोनों ही अलग-अलग तरीकों से उम्मीद और बदलाव के प्रतीक हैं। आम आदमी पार्टी नेता जहां सामाजिक तौर पर अधिक जागरूक व समतावादी भारत के सपनों को प्रदर्शित करते हैं, वहीं मोदी हिंदुत्व की राजनीति के ध्वज वाहक हैं, जहां पर धार्मिक और राष्ट्रवादी उत्साह नए भारत के विजन का मूल है। दोनों ही नेता लोकप्रिय व कल्याणकारी उपायों वाला शासन देते हैं और एकाधिकारवादी हैं।इसलिए केजरीवाल की दिल्ली में एक बार फिर जीत होने से यह सवाल बार-बार पूछा जाने लगा है कि क्या वह भविष्य में प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे पाएंगे? इसका छोटा उत्तर हां और ना है। जबकि, लंबे जवाब के लिए भारतीय चुनावी राजनीति के विस्तृत विश्लेषण की जरूरत है।दिल्ली विधानसभा और पिछले साल लोकसभा के चुनाव परिणामों में भारी विरोधाभास से साफ हो गया है कि मतदाता अब राज्य व देश के चुनाव में अंतर करने लगा है। लोकसभा चुनाव नेतृत्व के मुद्दे पर था और मोदी इस सवाल को बेहतर तरीके से उठाने में सफल रहे कि मोदी के मुकाबले कौन? इसके विपरीत विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होता है और जरूरी सुविधाओं की स्थिति निर्णायक होती है। केजरीवाल के बिजली-पानी, स्कूल-मोहल्ला क्लिनिक लोगों को आकर्षित करने में अधिक सफल रहे।लोकसभा में मोदी की ही तरह राज्य स्तर पर कोई प्रतिद्वंद्वी न होने से केजरीवाल का काम और आसान हो गया। साथ ही केजरीवाल ने चालाक प्रचार अभियान चलाकर सरकार की हर योजना से खुद को जोड़ा। इससे केजरीवाल दिल्ली का एक विश्वसनीय चेहरा बन गए। लेकिन, इसने उनकी ब्रांड वैल्यू को सात लोकसभा सीटाें वाली दिल्ली तक ही सीमित कर दिया। उदाहरण के लिए शिवसेना ने कई दशकों तक स्थानीय स्तर पर काम करने वाले की भूमिका निभाई।उसके शाखा प्रमुखों का नेटवर्क एक क्षेत्रीय संपर्क स्थापित करने में सक्षम था, जिसने पैसे वाले बृहन मुंबई नगर निगम (बीएमसी) मेंउसका दबदबा स्थापित कर दिया। क्या केजरीवाल अपने शिक्षा-स्वास्थ्य माॅडल से भ्रष्टाचार में डूबी बीएमसी का कोई विकल्प दे सकते हैं? तब तक नहीं, जब तक कि आप एक ऐसा स्थानीय संगठन बनाने में कामयाब नहीं होती, जाे शहर की महाराष्ट्रीयन प्रकृति को समझता हो।किसी भी नागरिक शासन के लिए देश के अलग-अलग क्षेत्रों में एक खास क्षेत्रीय आयाम की जरूरत होती है। आप की सीमाएं 2017 में गोवा व पंजाब में दिख चुकी हैं, जहां पार्टी ने विस्तार की कोशिश की थी। पंजाब में शुरू में पार्टी के भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे को तो समर्थन मिला, लेकिन बाद में किसी स्थानीय सिख नेतृत्व को पहचानने व उसे अधिकार देने में पार्टी की अक्षमता से यह बढ़त काम नहीं आ सकी। पंचायत संचालित ग्राम्य समितियों वाले गोवा में भी आप को एक बाहरी पार्टी के रूप में ही देखा गया।आप ने खुद को दिल्ली की प्रमुख राजनीतिक पार्टी के तौर पर स्थापित कर दिया है तो क्या वह वास्तव में देश की राजनीति की प्रकृति को इस तरह से बदलने में कामयाब होगी कि वह मुख्यधारा की राजनीति से निराश हो चुके लोगों के लिए एक आकर्षक विकल्प बन सके? आप के जीते हुए विधायकों में कई युवा और चमकदार चेहरे हैं, लेकिन इसमें अनेक दलबदलू और पैसे वाले भी भरे हैं। चुनावी राजनीति की वास्तविकताओं ने अन्ना आंदोलन के आदर्शवाद को खत्म कर दिया है।पार्टी में दूसरे दर्जे का नेतृत्व उभारने के प्रति केजरीवाल की अनिच्छा ने आप पर बाकी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह एक नेता के प्रभाव वाले दल का ठप्पा लगा दिया है। लेकिन, राजनीति पिछली गलतियों से सीखने वाले लोगों को दूसरा मौका देती है। केजरीवाल 2.0 पहले की तुलना में एक अधिक गंभीर, धैर्यवान और चिंतनशील नजर आ रहे हैं। यह 2014 के वाराणसी वाले केजरीवाल नहीं हैं, जिन्होंने मोदी को चुनौती दी थी।उन्होंने दिल्ली के चुनावों में एक बार भी गुस्से में मोदी का जिक्र नहीं किया। यही नहीं 2017 से वह सोशल मीडिया पर भी प्रधानमंत्री पर टिप्पणी करने से बच रहे हैं। बल्कि केजरीवाल का नया अवतार एक राष्ट्रवादी (370 पर उनका रुख), एक सांस्कृतिक हिंदूवादी (बार-बार हनुमान का जिक्र) व एक गरीब समर्थक कल्याणकारी योजना बनाने वाला है।केजरीवाल की यह चुनावी विजय ऐसे महत्वपूर्ण समय पर हुई है, जब कांग्रेस संगठन और नेतृत्व के स्तर पर गंभीर संकट में है और इसका जल्द ही कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है। खासकर राहुल, गांधी की एक विपक्षी नेता के तौर पर उभरने में अक्षमता का साफ मतलब है कि विपक्षी नेतृत्व की कुर्सी पूरी तरह खाली है।ऐसा तो नहीं लगता कि ममता व शरद पवार अपने से जूनियर केजरीवाल के लिए यह स्थान छोड़ेंगे, लेकिन मोदी विरोधी गठबंधन 2024 तक एक विश्वसनीय विकल्प देने की कोशिश करता रहेगा। पांच साल पहले शायद केजरीवाल जल्दबाजी और हेकड़ी में खुद को मोदी के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर पेश कर रहे थे। इस बार उन्हें ऐसी कोशिश करने से पहले कुछ विराम लेना चाहिए।पुनश्च : मोदी-केजरीवाल की कहानी में अब एक और रोचक कड़ी हैं प्रमुख राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर, जो अब मजबूती से केजरीवाल कैंप में हैं। किशोर के क्लाइंटों में अब ममता से लेकर डीएमके तक कई मोदी विरोधी हैं। क्या अब वह इन सबको एक साथ लाकर बड़ा राष्ट्रीय गठबंधन बनाएंगे? देखते रहिए।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंंद केजरीवाल। Full Article
india news बिहार में दिल्ली मॉडल हो सकता है गेमचेंजर By Published On :: Thu, 13 Feb 2020 19:56:00 GMT हाल के दशकों में भारत के सबसे स्वीकार्य नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा के नए अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा, दिल्ली चुनाव में मिली हार के बाद क्या इस स्थिति में होंगें कि पार्टी को नई दिशा दे पाएं? ध्यान रहे कि राज्यों में पार्टी की हार का सिलसिला थम नहीं रहा है और दिल्ली की हार पिछले दो सालों में सातवीं हार है। हालांकि, इसका दोष नए अध्यक्ष को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उनके पद पर आने के मात्र दस दिन बाद ही विधानसभा चुनाव हुए थे। लेकिन, इस साल के अंत में अब सामने एक और बड़ा चुनाव है, जो भारत की सबसे विवादास्पद राजनीतिक प्रयोगशाला बिहार में होने जा रहा है।क्या पार्टी अपनी रणनीति परंपरागत ‘वो बनाम हम’ की राजनीति पर टिकाए रखेगी या अगले कुछ महीनों में राज्य के सात करोड़ से ज्यादा मतदाताओं को विकास का हैवी डोज देकर अपने पाले में करने की कोशिश करेगी।सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अस्थायी होता है और जैसे-जैसे साक्षरता, प्रति-व्यक्ति आय और मीडिया के प्रसार से तर्क-शक्ति में इजाफा होता है, संकीर्ण भावनाओं के ऊपर वैज्ञानिक–तार्किक सोच का प्रभाव बढ़ने लगता है। ऐसे में सामान्य मतदाता भी दीर्घकालिक और नैतिक रूप से सही को ही अपना वास्तविक विकास समझने लगता है।सामूहिक चेतना भी ‘भैंसिया की पीठ से उतरकर’ या ‘तिलक–तराजू और तलवार इनको मारो...’ से हटकर सड़क, बिजली, बच्चों की उपयुक्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर जा टिकती है। दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से तीन गुना है और साक्षरता 90 प्रतिशत (जो केवल केरल से कम है) जिसकी वजह से मुख्यमंत्री को आतंकवादी कहना भी मतदाओं को अच्छा नहीं लगा और न ही नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग के धरने को देश को बांटने वाला बताना।नए भाजपा अध्यक्ष की सबसे बड़ी योग्यता है परदे के पीछे रणनीति बनाने का कौशल, जो उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव में भरपूर ढंग से दिखाया। आमतौर पर परदे के पीछे के रणनीतिकार या ‘चाणक्य’ की संज्ञा ऐसे शख्स को दी जाती है, जो लक्ष्य पाने के लिए हर स्याह-सफ़ेद करने को तत्पर रहे। लेकिन, नड्डा ऐसे रणनीतिकार होते हुए भी सौम्य, मित्रवत और लगभग अजातशत्रु की छवि के धनी रहे हैं। बिहार चुनाव में पार्टी और इसके गठबंधन को भले ही फिर से सत्ता मिल जाए, लेकिन भाजपा का अस्तित्व अपने जनाधार के भरोसे तब तक तैयार नहीं होगा, जब तक वह तेजी से विकास न करे।आयुष्मान भारत और बिहार का स्वास्थ्य : कम ही लोग जानते होंगे कि दुनिया में स्वास्थ्य बीमा की सबसे महत्वाकांक्षी योजना आयुष्मान भारत के जन्मदाता नड्डा ही रहे हैं। तब वह केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री थे। नीति आयोग ने 23 पैमानों पर आधारित सालाना स्वास्थ्य सूचकांक कुछ माह पहले जारी किया। जिसमें बिहार सबसे निचले पायदान पर है। इस रिपोर्ट की सबसे खास बात यह थी कि बिहार में 2015-16 के मुकाबले 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट में सबसे ज्यादा तब रही, जब बिहार में स्वास्थ्य मंत्री भाजपा का आया।इस समय स्वास्थ्य को लेकर अगर भाजपा अध्यक्ष, उनकी पार्टी के स्वास्थ्य मंत्री और नीतीश सरकार, दिल्ली मॉडल पर कुछ नई योजनाएं शुरू कर सके तो दूरगामी परिणाम संभव हैं। अगर सफल होता है तो भाजपा अध्यक्ष यही मॉडल अन्य भाजपा-शासित राज्यों में लागू कर सकते हैं। बिहार में सुविधा यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं की डिलीवरी के लिए सरकारी मशीनरी को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, यानी प्रशासनिक खर्च कम आएगा, क्योंकि इस राज्य का आबादी घनत्व भारत में सबसे ज्यादा (1105 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) है।तस्वीर का दूसरा पहलू : सरकारी व्यवस्था कमजाेर होने की वजह से बीमार पड़ने पर गरीबों को बेहद महंगी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का सहारा लेना पड़ता है। अनेक बार उसे इलाज के लिए खेत-खलिहान भी बेचना पड़ता है। हर साल बीमारी में अपनी जेब से खर्च के कारण चार करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे उस रसातल में पहुंच जाते हैं, जहां से उबरना संभव नहीं होता। जहां, हिमाचल प्रदेश की सरकारें अपने लोगों के स्वास्थ्य पर करीब 2500 रुपए प्रति-व्यक्ति प्रति वर्ष खर्च करती है।वहीं बिहार में मात्र 450 रुपये और उत्तर प्रदेश में 890 रुपए खर्च होते हैं। नतीजतन बिहार की गरीब जनता को सरकारी खर्च का पांच गुना अपनी जेब से लगना पड़ता है। बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। कुल मिलकर सरकारी उदासीनता के कारण स्वास्थ्य पर लोगों का अपनी जेब से खर्च बढ़ता जा रहा। इसीलिए सरकार इस खर्च को बढ़ाकर स्थिति में भारी बदलाव ला सकती है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा। Full Article
india news मंटो की कहानी ‘नंगी आवाजें’ और टाट के पर्दे By Published On :: Fri, 14 Feb 2020 18:53:00 GMT राहुल द्रविड़ ने लंबे समय तक बल्लेबाजी करके अपनी टीम को पराजय टालने में सफलता दिलाई और कुछ मैचों में विजय भी दिलाई। राहुल द्रविड़ इतने महान खिलाड़ी रहे हैं कि कहा जाने लगा कि राहुल द्रविड़ वह संविधान है, जिसकी शपथ लेकर खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं। राहुल को ‘द वॉल’ अर्थात दीवार कहा जाने लगा। पृथ्वीराज कपूर का नाटक ‘दीवार’ सहिष्णुता का उपदेश देता था।देश के विभाजन का विरोध नाटक में किया गया था। चीन ने अपनी सुरक्षा के लिए मजबूत दीवार बनाई जो विश्व के सात अजूबों में से एक मानी जाती है। मुगल बादशाह शहरों की सीमा पर मजबूत दीवार बनाया करते थे। के. आसिफ की फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में अनारकली को दीवार में चुन दिया जाता है। यह एक अफसाना था। उस दौर में शाही मुगल परिवार में अनारकली नामक किसी महिला का जिक्र इतिहास में नहीं मिलता।यश चोपड़ा की सलीम-जावेद द्वारा लिखी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘दीवार’ दो सगे भाइयों के द्वंद की कथा थी। एक भाई कानून का रक्षक है तो दूसरा भाई तस्कर है। ज्ञातव्य है कि दिलीप कुमार ने ‘मदर इंडिया’ में बिरजू का पात्र अभिनीत करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह नरगिस के पुत्र की भूमिका अभिनीत करना नहीं चाहते थे, परंतु बिरजू का पात्र उनके अवचेतन में गहरा पैठ कर गया था। उन्होंने अपनी फिल्म ‘गंगा जमुना’ में बिरजू ही अभिनीत किया।इस तरह ‘मदर इंडिया’ का ‘बिरजू’ दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना’ के बाद सलीम जावेद की ‘दीवार’ में नजर आया। कुछ भूमिकाएं बार-बार अभिनीत की जाती हैं। एक दौर में राज्यसभा में नरगिस ने यह गलत बयान दिया था कि सत्यजीत राय अपनी फिल्मों में भारत की गरीबी प्रस्तुत करके अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने नरगिस से कहा कि वे अपना बयान वापस लें, क्योंकि सत्यजीत राय तो मानवीय करुणा के गायक हैं।कुछ समय पश्चात श्रीमती इंदिरा गांधी के विरोधियों ने नारा दिया ‘इंदिरा हटाओ’ तो इंदिरा ने इसका लाभ उठाया और नारा लगाया ‘गरीबी हटाओ’। घोषणा-पत्र से अधिक प्रभावी नारे होते हैं। हाल में ‘गोली मारो’ बूमरेंग हो गया अर्थात पलटवार साबित हुआ। देश के विभाजन की त्रासदी से व्यथित सआदत हसन मंटो ने कहानी लिखी ‘नंगी आवाजें’ जिसमें शरणार्थी एक कमरे में टाट का परदा लगाकर शयनकक्ष बनाते हैं, परंतु आवाज कभी किसी दीवार में कैद नहीं होती।ज्ञातव्य है कि नंदिता बोस ने नवाजुद्दीन अभिनीत ‘मंटो’ बायोेपिक बनाई। फिल्म सराही गई, परंतु अधिक दर्शक आकर्षित नहीं कर पाई। गौरतलब है कि विभाजन प्रेरित फिल्में कम दर्शक देखने जाते हैं। संभवत: हम उस भयावह त्रासदी की जुगाली नहीं करना चाहते। पलायन हमें सुहाता है, क्योंकि वह सुविधाजनक है।दीवारें प्राय: तोड़ी जाती हैं। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात बर्लिन में दीवार खड़ी की गई। एक हिस्से पर रूस का कब्जा रहा, दूसरे पर अमेरिका का। कालांतर में यह दीवार भी गिरा दी गई। कुछ लोगों ने इस दीवार की ईंट को दुखभरे दिनों की यादगार की तरह अपने घर में रख लिया। जिन लोगों ने युद्ध का तांडव देखा है वे युद्ध की बात नहीं करते, परंतु सत्ता में बने रहने के लिए युद्ध की नारेबाजी की जाती है।निदा फ़ाज़ली की नज्म का आशय कुछ ऐसा है कि- ‘दीवार वहीं रहती है, मगर उस पर लगाई तस्वीर नहीं होती है’। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news रिक्तता, खालीपन या शून्यता है अवकाश By Published On :: Fri, 14 Feb 2020 18:58:00 GMT ‘अवकाश’ का सामान्य अर्थ होता है काम के बीच छुट्टी। लेकिन यह बहुत सतही अर्थ है। अध्यात्म में अवकाश को रिक्तता, खालीपन या शून्यता कहा है। रिक्त और शून्य ये दो ऐसे शब्द हैं कि यदि ठीक से समझ में आ जाएं तो हम अपने घर में वैकुंठ उतार सकते हैं। हमारे परिवार अवकाश के श्रेष्ठ स्थान हैं। यहां आकर ऐसी रिक्तता, शून्यता औार शांति मिल सकती है जिसकी तलाश में हम यहां-वहां भागते फिरते हैं।तो अवकाश को अपने परिवार से ठीक से जोड़ें। जब भी घर में आएं, खुद को समझाइए कि यह अवकाश का क्षेत्र है, यहां हमें रिक्त होना है। घरों में एक प्रयोग करिए..। अवकाश का मतलब यूं समझिए कि आप अपने भीतर रिक्तता के कारण दूर खड़े होकर स्वयं को ही देख रहे हैं। बात सुनने में कठिन लग सकती है, परंतु अभ्यास से धीरे-धीरे समझ में आ जाएगी कि घर के बाहर हम दूसरों से संचालित रहते थे, पर घर आने के बाद चूंकि अवकाश में उतरे हैं, इसलिए अब हमारा संचालन स्वयं ही करेंगे।जब घर के बाहर होंगे तो एक तो आप होंगे जो कुछ कर रहे होंगे और दूसरे वो सब लोग जिनके प्रति आप कोई क्रिया कर रहे होंगे। लेकिन घर आने पर जैसे ही खुद को अवकाश में उतारेंगे तो तीन लोग हो जाएंगे- एक आप करने वाले, दूसरे जिनके लिए कर रहे हैं और तीसरे आप ही देखने वाले। ऐसा करते हुए अपने घर के सदस्यों के इतने निकट पहुंच जाएंगे, जिसकी उनको वर्षों से चाहत होगी। बस, यहीं से घर स्वर्ग हो जाता है..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news गुस्सा नहीं करेंगे तो एक-दूसरे में प्यार, विश्वास और सम्मान बढ़ेगा By Published On :: Fri, 14 Feb 2020 19:02:00 GMT हमने ऐसे-ऐसे माता-पिता देखे हैं जिनके बच्चे पढ़ने विदेश चले जाते हैं। माता-पिता उन्हें यहां से फोन करके उठाते हैं, फिर दस मिनट के बाद फोन करते हैं कि अभी वो उठा नहीं होगा। क्योंकि हम उसी तरीके से चलते आ रहे हैं। फिर कहेंगे बच्चों को उठाने के लिए गुस्सा करना पड़ता है। ऑफिस में काम कराने के लिए गुस्सा करना पड़ता है। ये हमारा तरीका बन गया है, जिससे हमारे संस्कार गहरे होते गए।फिर थोड़े दिन के बाद तो सोचना ही नहीं पड़ेगा गुस्सा अपने आप ही आ जाएगा। फिर हमने कहा गुस्सा आना तो सामान्य है। भले ही हमारे आसपास ये दिखेगा भी कि गुस्से से बोलो तो काम जल्दी हो जाता है। अगर आप किसी को कहेंगे कि टेबल को हटाओ तो कहेगा अभी हटाते हैं, फिर कहते हैं प्लीज टेबल को हटाओ तो कहेगा अभी हटाते हैं। फिर अगर आप थोड़ा सा जोर से बोलते हैं तो टेबल फटाफट उसी समय हट जाएगा।जैसे ही हमने ये देखा तो हमारी यह मान्यता बन जाती है कि गुस्से से बोला तो काम जल्दी हो गया। अब समय की कमी है, अगली बार हम तीन तरीके इस्तेमाल करके नहीं बोलेंगे, क्योंकि काम जल्दी करवाना है तो हम पहली बार में ही गुस्से वाला तरीका ही इस्तेमाल करके बोलते हैं क्योंकि गुस्से से काम होता हुआ दिखाई दे रहा है। फिर मैं किसी विशेष व्यक्ति के साथ वो वाला तरीका इस्तेमाल नहीं करूंगी बल्कि अब वो मेरा संस्कार बन चुका है।फिर वो सिर्फ ऑफिस में नहीं रहेगा जब आप शाम को घर आएंगे तो भी सबके साथ गुस्से से ही बात करेंगे। फिर उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। हम अपने परिवार को खुशी देना चाहते थे और दे क्या रहे हैं? जितना हम उनको गुस्सा दे रहे हैं वो भी वैसे ही बनते जा रहे हैं। फिर हम कहते हैं कि आजकल बच्चे और युवा देखो कैसे हो गए हैं।आजकल के बच्चों में कुछ भी बदला हुआ नहीं है, लेकिन सारा दिन हम उनको कौन सी एनर्जी दे रहे हैं और ये सब इसलिए हो रहा है कि हमने कहा कि गुस्से से काम हो जाता है। गुस्सा करने से हमारे मन, शरीर और रिश्तों का नुकसान होता है और हम कहते हैं कि काम हो जाता है। काम जल्दी क्यों करवाना था? क्योंकि मुनाफा बढ़ेगा। जितना लाभ होगा उससे हमारे घर में पैसा आएगा।पैसा आएगा तो खुशी आएगी। आखिर हम खुशी प्राप्त करने के लिए ये सब करते गए जो कि सही नहीं था। लंबे समय से ऐसा करते-करते वो हमारा तरीका बन गया है। अब हम इसे बदलने के लिए एक प्रयोग शुरू करते हैं। अब हम गुस्से से नहीं बल्कि प्यार से काम करवाकर देखते हैं। क्या होगा? काम थोड़ा धीरे होगा हो सकता है कि थोड़ा मुनाफा भी कम होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है।गुस्सा नहीं करने से एक तो हमारी खुशी बढ़ जाती है, हमारी टीम की काम करने की इच्छा बढ़ जाती है, क्योंकि हम एक-दूसरे के ऊपर चिल्लाना बंद कर देते हैं। हमारा एक-दूसरे के ऊपर प्यार, विश्वास, सम्मान बढ़ चुका होता है, क्योंकि हमने गलत व्यवहार करना बंद कर दिया। जब हमारा ये बदल चुका होता है तो घर जाने के बाद बच्चों के साथ व्यवहार भी बदल चुका होता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news बेटियों की सुरक्षा में कोताही के प्रति हो जीरो टॉलरेंस By Published On :: Fri, 14 Feb 2020 19:05:00 GMT कभी पाकिस्तान की संसद में जाने का मौका मिले तो महिला सांसदों की संख्या (कुल 20 प्रतिशत महिला आरक्षण है) देखकर लगेगा कि दुनिया में सबसे ज्यादा महिला हित की चेतना इसी देश में है। लेकिन, इसी देश की लाखों लड़कियां सबसे बड़ी जरूरत शिक्षा और स्वास्थ्य से महरूम हैं, क्योंकि आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान का ‘फाटा’ क्षेत्र में फरमान है कि लड़कियां केवल घर में पढ़ेंगी और पुरुष डॉक्टर लड़कियों के शरीर को स्पर्श नहीं करेंगे। लिहाजा यहां नारी स्वतंत्रता केवल अभिजात्य वर्ग तक सीमित है।कमजोर वर्ग की पाकिस्तानी महिलाएं जानवरों से भी बदतर जीवन जीती हैं। दूसरी तरफ भारत में मंचों से, विधायिकाओं में और आलेखों के जरिये हम सभी ‘नारी मुक्ति’ की बात तो करते हैं, लेकिन राजनीतिक वर्ग के लिए देश की यह आधी आबादी अब भी ‘वोटिंग ब्लॉक’ नहीं है, लिहाजा वैसी गंभीरता नहीं दिखाई देती, जिसकी जरूरत है। निर्भया कांड हो, हैदराबाद का दिशा दुष्कर्म कांड या महिलाओं के प्रति अन्य अपराध, सभी में सरकारी तंत्र की असंवेदनशीलता की कहीं न कहीं गुनाहगार रही है।उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में पिछले साल अगस्त में एक 15 वर्षीय छात्रा से स्कूल से लौटते वक्त गांव के ही संपन्न युवक ने बलात्कार किया, लेकिन पुलिस के कोई केस दर्ज नहीं किया। तीन दिन बाद बमुश्किल जब केस दर्ज हुआ तो अभियुक्त फरार हो गया। पिछले सप्ताह उसने लड़की और उसके पिता को कुछ गुर्गों के साथ रात में घर आकर धमकी दी। इस पर लड़की का पिता थाने गया तो पुलिस ने डांटकर भगा दिया। दो दिन पहले उस दुष्कर्मी ने लड़की के पिता की हत्या कर दी और अब वह लड़की अनाथ है।सवाल यह है कि क्या वह सालों तक चलने वाले मुकदमे में इस हत्यारे व दुष्कर्मी को सजा दिलवाने की हिम्मत कर पाएगी? क्या किसी सभ्य समाज में लड़कियों की ऐसी स्थिति के बाद भी मेरा भारत महान कहा जा सकता है? अगर सरकारी तंत्र ऐसी लापरवाही और आपराधिक मिलीभगत करेगा तो फिर नारी मुक्ति, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे बेकार हैं। लड़कियों की शिक्षा की योजनाएं सफल हों, इसके लिए जरूरी है कि उनकी सुरक्षा में कोताही के खिलाफ जीरो-टोलरेंस हो। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news पहली डिजिटल जनगणना और संवेदनशील डेटा By Published On :: Fri, 14 Feb 2020 19:10:00 GMT आजकल जब व्यक्ति केंद्रित निजी जानकारी (या डेटा) दुनियाभर में चर्चा में है, तब जनगणना जैसी सामूहिक, जनसमुदाय के डेटा की अहमियत बढ़ जाती है। जनगणना में इकट्ठा की जाने वाली जानकारी काफी व्यापक होती है- जनसंख्या, उसमें महिला-पुरुष का अनुपात, जाति, शिक्षा का स्तर, उम्र, जन्म-मृत्यु, लोगों के घरों के स्थिति (कच्चा-पक्का), पलायन, व्यवसाय, आदि। आबादी के बारे में ये सभी जानकारियां देश में प्लानिंग के नज़रिये से अत्यंत महत्वपूर्ण है।जनगणना देश की वास्तविक स्थिति समझने के काम आती है। उदाहरण के लिए, राजनीतिक भाषणों के चलते कई लोगों के मन में धारणा है कि फर्टिलिटी रेट (टीएफआर) का लोगों के धर्म से गहरा संबंध है। जनगणना की बदौलत पता लगने वाला यह तथ्य आश्चर्यचकित कर देगा। 2001 और 2011 के बीच उत्तरप्रदेश में हिंदू महिलाओं में टीएफआर 4.1 से घटकर 2.6 तक पहुंचा। उस दौरान केरल की मुस्लिम महिलाओं में यह 2.6 से 2.3 हुआ।जब आजादी के सत्तर सालों में देश की उपलब्धियों पर सवाल उठाए जाते हैं तब भी जनगणना में एकत्रित जानकारी का सहारा लेना पड़ता है। इसके जरिये ही हमें पता लगता है कि भारत में 1951 में औसतन लोग 32 साल तक जी पाते (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) थे, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 65 साल से ज्यादा हो गए। 1951 में पैदा होने वाले (हर हज़ार) बच्चों में से 180 अपने पहले जन्मदिन तक नहीं बचते थे। 2011 में यह संख्या 40 से कम हो गई है और केरल में तो सिर्फ 12 है।1951 में दस में से एक ही महिला शिक्षित थी, 2011 तक शिक्षित महिलाओं की दर 65 प्रतिशत पार कर गई थी। इन साधारण से आंकड़ों से हमें पता चलता है कि देश ने विकास की राह पर, कितना सफर तय कर लिया है और कितना रास्ता आगे तय करना बाकी है। निजी जानकारी का आज इतना ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि इस शोर में पुराने तरीके से इकट्ठा किए डेटा की कद्र करना लोग भूल रहे हैं।चुनाव और राजनीति के लिहाज से भी जनगणना अहम है। जब चुनावी सीटें तय होती हैं तो जनसंख्या के आधार पर ही तय किया गया था कि कितने लोगों पर लोकसभा और विधानसभा में प्रतिनिधि चुना जाएगा। भारत में 1971 के बाद लोकसभा में प्रतिनिधियों की संख्या नहीं बढ़ाई गई। इसके पीछे एक अहम कारण यह है कि देश में दक्षिण के राज्यों में जनसंख्या बढ़त की दर घटी है, लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में उस गति से कम नहीं हुई है।उन राज्यों का देश की जनसंख्या में अनुपात बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में दक्षिण राज्यों का मानना है कि यदि जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधि तय हुए तो लोकसभा में उनकी आवाज कमजोर पड़ जाएगी। भारत में जनसंख्या पर काबू पाना पहले से बड़ी चुनौती थी, दक्षिण के राज्यों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके बावजूद, उन्हें इस योगदान के लिए उनकी लोकसभा की सीटें घटाकर ‘दंडित' करना अन्यायपूर्ण होगा।इसी विवाद के चलते 2001 में जो "डीलिमिटेश’ आयोग बनाया गया, उसके सुझावों पर 2026 तक रोक लगा दी गई है। इसके अलावा अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजातियों (आदिवासियों) के लिए संसद और विधानसभाओं में कितनी सीटें आरक्षित होंगी और उन्हें शिक्षा और नौकरी में कितना आरक्षण मिलेगा, यह भी जनसंख्या में उनकी आबादी पर निर्भर करता है।जनगणना की इकोनॉमिक प्लानिंग में भी बड़ी भूमिका है। ज्यादातर टैक्स (आयकर, जीएसटी) केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाते हैं, हालांकि आर्थिक गतिविधियों में राज्य सरकारों का बहुत बड़ा योगदान होता है। इसलिए, संविधान में वित्त आयोग (फाइनेंस कमीशन) का प्रावधान है। वित्त आयोग का एक महत्वपूर्ण काम यह है कि टैक्स से प्राप्त पैसों को केंद्र और राज्यों के बीच किस आधार पर बांटा जाए। इसमें राज्य की जरूरतों और उनके आर्थिक योगदान के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन है।इसके लिए भी राज्य की जनसंख्या एक महत्वपूर्ण मापदंड होती है। गौरतलब है कि 1948 में पारित जनगणना कानून में स्पष्ट था कि जनगणना से मिली लोगों की जानकारी गुप्त रखी जाएगी। लोगों की जिम्मेदारी थी कि मांगी गई जानकारी वे जनगणना अधिकारियों से साझा करें और रजिस्ट्रार जनरल की जिम्मेदारी थी कि एकत्रित जानकारियां सरकार के अन्य विभाग या मंत्रालय, किसी से भी बंंाटी नहीं जाए। यह इसलिए कि लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक होने से उन्हें नुकसान हो सकता है।देश में बहुत से दलित हैं, जिन्होंने फैसला किया कि वे अपना सरनेम इसलिए नहीं इस्तेमाल करेंगे, क्योंकि उनके साथ भेदभाव होता है। जनगणना के दो मुख्य चरण हैं - "हाउस-लिस्टिंग’(मकान सूचीकरण) और वास्तविक जनगणना। पहला चरण इस वर्ष अप्रैल से शुरू होगा और जनगणना अगले साल फरवरी में होगी। 2010 पिछली जनगणना में हुए हाउस लिस्टिंग में नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को जोड़ा गया। इस बार कई संवेदनशील जानकारियां पूछी जा रही हैं।7 जनवरी 2020 को जारी गजट में 31 मापदंडों की सूची दी गई है, जिसमें व्यक्ति का नाम, मोबाइल नंबर, जाति आदि शामिल हैं। साथ ही एनपीआर में वोटर कार्ड और आधार नंबर जैसे अन्य पहचान-पत्रों की जानकारी जोड़ने की बात कही गई है, जिसका देशभर में विरोध हो रहा है।अहम सवाल यह है कि एनपीआर में एकत्रित जानकारी पर भी क्या गोपनीयता के वही प्रावधान लागू होते हैं, जो जनगणना कानून के तहत जनगणना में दी गई जानकारी पर लागू होते हैं? इसी से जुड़ा हुआ एक और जरूरी सवाल है कि यदि इस बार की जनगणना इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर होगी, तो फिर इन दोनों डेटा को जो हाउस लिस्टिंग के तहत इकट्ठा किए जा रहे हैं और एनपीआर वाले सवाल को अलग-अलग कैसे रखा जाएगा?जनगणना कानून में लोगों की सही जानकारी देने की जिम्मेदारी के साथ-साथ सूचनाओं को सुरक्षित रखने की सरकार की जिम्मेदारी भी रेखांकित की गई है। डिजिटल युग में सूचना को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के कई उदाहरण सामने आए हैं और इस बार की जनगणना भारत की पहली डिजिटल जनगणना होगी, इसलिए नागरिकों का सरकार से यह सवाल पूछना बेहद आवश्यक है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news मोदी-राहुल अपराधियों को टिकट देने पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन 5 साल में भाजपा और कांग्रेस ने 30-30% टिकट दागियों को बांटे By Published On :: Sat, 15 Feb 2020 13:38:00 GMT नई दिल्ली. आज से 5 साल 10 महीने और 8 दिन पीछे चलें तो तारीख आती है- 7 अप्रैल 2014। यह वो तारीख है जब भाजपा ने 2014 के आम चुनावों के लिए घोषणा पत्र जारी किया था। इस घोषणा पत्र मेंवादा किया "भाजपा चुनाव सुधार करने के लिए कटिबद्ध है, जिससे अपराधियों को राजनीति से बाहर किया जा सके।' लेकिन 2014 के ही आम चुनाव में भाजपा के 426 में से 33% यानी 140 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले थे। इन 140 में से 98 यानी 70% जीतकर भी आए। इसके बाद 2019 के आम चुनावों में भी भाजपा के433 मेंसे 175 यानी 40% उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज थे।जिसमें से 116 यानी 39% जीतकर भी आए थे।इतना ही नहीं, 2014 के आम चुनाव के बाद से अब तक सभी 30 राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हो चुके हैं। इन विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 3 हजार 436 उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 1 हजार 4 दागी थे। मोदी अकेले ऐसे नेता नहीं है जो चुनाव सुधार की बातें करते हैं। बल्कि, कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी राजनीति से अपराधियों को दूर रखने की बात अक्सर कहते रहते हैं। 2018 में ही कर्नाटक चुनाव के दौरान राहुल ने दागियों को टिकट देने पर मोदी पर सवाल उठाए थे। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस ने भी 2014 के चुनाव में 128 तो 2019 में 164 दागी उतारे थे। भाजपा-कांग्रेस ही नहीं बल्कि कई पार्टियां चुनावों में दागियों को टिकट देती हैं और जीतने के बाद राजनीति के अपराधिकरण को रोकने की बातें करती हैं।2014 में भाजपा के घोषणा पत्र में चुनाव सुधार की बात कही गई थी। लोकसभा चुनाव : 2014 में 34% दागी चुने गए, 2019 में 43% हो गए2014 के आम चुनावों में 545 सीट पर 8 हजार 163 उम्मीदवार खड़े हुए। इनमें से 1 हजार 585 उम्मीदवार अकेले 6 राष्ट्रीय पार्टियों में से थे। इन 6 राष्ट्रीय पार्टियों में भाजपा, कांग्रेस, बसपा, भाकपा, माकपा और राकांपा है। इस चुनाव में खड़े हुए 1 हजार 398 यानी 17% उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। जब मई 2014 में नतीजे आए तो 185 सांसद आपराधिक रिकॉर्ड वाले भी चुनकर लोकसभा आए। यानी 34%। भाजपा के 281 में से 35% यानी 98 सांसद दागी थे। कांग्रेस में ऐसे सांसदों की संख्या 44 में से 8 थी। पार्टी कुल उम्मीदवार दागी उम्मीदवार जीते दागी जीते भाजपा 426 140 (33%) 281 98 (35%) कांग्रेस 462 128 (28%) 44 8 (18%) बसपा 501 114 (23%) 00 00 सीपीएम 93 33 (35%) 9 5 (56%) सीपीआई 68 19 (28%) 0 00 राकांपा 35 18 (51%) 6 5 (83%) अन्य/निर्दलीय 6578 946 (14%) 202 71 (35%) 2019 के आम चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की संख्या 2014 की तुलना में घट तो गई, लेकिन दागी उम्मीदवारों की संख्या बढ़ गई। 2019 में कुल 7 हजार 928 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से 19% यानी 1500 दागी उम्मीदवार थे। इस चुनाव में इन सभी 6 राष्ट्रीय पार्टियों ने 1 हजार 384 उम्मीदवारों को उतारा, जिनमें से 496 पर आपराधिक मामले थे। नतीजे आए तो 233 यानी 43% दागी उम्मीदवार चुनकर लोकसभा आए। पार्टी कुलउम्मीदवार दागी उम्मीदवार जीते दागी जीते भाजपा 433 175 (40%) 301 116 (39%) कांग्रेस 419 164 (39%) 51 29 (57%) बसपा 381 85 (22%) 10 5 (50%) सीपीएम 69 40 (58%) 9 5 (56%) सीपीआई 48 15 (31%) 00 00 राकांपा 34 17 (50%) 5 2 (40%) अन्य/निर्दलीय 6544 1004 (15%) 169 79 (47%) कुल 7928 1500 (19%) 539 233 (43%) विधानसभा चुनाव : 30 राज्यों के चुनाव में 1476 दागी चुने गए, सिक्किम में एक भी दागी नहींपिछले 5 साल में सभी 30 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। सभी राज्यों को मिलाकर 4 हजार 33 सीटें होती हैं। इन सीटों के लिए 39 हजार 218 उम्मीदवार खड़े हुए, जिसमें से 7 हजार 481 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। इन 7 हजार 481 उम्मीदवारों में से 1 हजार 476 यानी 20% उम्मीदवार जीतकर विधानसभा भी पहुंचे। इस हिसाब से हर 4 में से एक विधायक पर आपराधिक मामला दर्ज है। अगर बात 6 राष्ट्रीय पार्टियों की करें, तो अकेले इन 6 पार्टियों की टिकट पर 2 हजार 762 दागी उतरे, जिसमें से 840 यानी 30% दागी उम्मीदवार जीते।30 राज्यों के चुनाव, 1476 दागी चुने गए; सिक्किम में एक भी दागी नहीं2014 के आम चुनाव से लेकर अब तक सभी 30 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। सभी राज्यों को मिलाकर 4 हजार 33 सीटें होती हैं। इन सीटों के लिए 39 हजार 218 उम्मीदवार खड़े हुए, जिसमें से 7 हजार 481 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। इन 7 हजार 481 उम्मीदवारों में से 1 हजार 476 यानी 20% उम्मीदवार जीतकर विधानसभा भी पहुंचे। इस हिसाब से हर 4 में से एक विधायक पर आपराधिक मामला दर्ज है। अगर बात 6 राष्ट्रीय पार्टियों की करें, तो अकेले इन 6 पार्टियों की टिकट पर 2 हजार 762 दागी उतरे, जिसमें से 840 यानी 30% दागी उम्मीदवार जीते। राजनीति के अपराधिकरणपर रिसर्च कर चुके और"व्हेन क्राइम पेज़ : मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स' किताब लिख चुके मिलन वैष्णव का ओपिनियन पार्टियां दागियों को इसलिए उतारती हैं, ताकि वे अपना खर्चा खुद उठाएं राजनीतिक पार्टियों की तरफ से चुनाव में आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों को इसलिए उतारा जाता है, ताकि वे पैसे का इंतजाम कर सकें। आजकल चुनाव लड़ना वैसे भी महंगा होता जा रहा है, इसलिए पार्टियां ऐसे उम्मीदवार उतारती हैं, जो खुद पैसा खर्च कर सकें। आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों न सिर्फ अपने कैंपेन का खर्चा उठा सकते हैं, बल्कि पार्टी को भी पैसा दे सकते हैं। इसके साथ ही अगर किसी उम्मीदवार के पास पैसा नहीं है, तो उसका भी खर्च उठा सकते हैं। क्योंकि ऐसे उम्मीदवारों के पास संसाधन जुटाने के लिए लोग भी होते हैं। दागी खुद को 'रॉबिन हुड' की तरह पेश करते हैं, इसलिए जीत जाते हैं जहां कई लोग मानते हैं कि वोटर आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवार को गरीबी और नादानी की वजह से वोट देते हैं, वहीं मेरा मानना है कि लोग उन्हें सरकार के खराब कामकाज (पुअर गवर्नेंस) की वजह से ऐसा करते हैं। भारत जैसे देश में जहां कानून काफी कमजोर है और लोग सरकार को पक्षपाती माना जाता है, वहां उम्मीदवार अपनी आपराधिकता को काम कराने की क्षमता और विश्वसनीयता के तौर पर पेश कर लेते हैं। यह ऐसी जगहों पर ज्यादा देखा जाता है, जहां लोग जाति और धर्म के नाम पर बंटे हैं। यानी इन जगहों पर आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोग खुद को रॉबिन हुड (गुंडई से काम कराने वाले) की तरह दिखाते हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today BJP Vs Congress Vs All Parties {Criminal Candidates}; Dainik Bhaskar Research On Candidates With Criminal Cases List In Vidhan Sabha Lok Sabha Election BJP Vs Congress Vs All Parties {Criminal Candidates}; Dainik Bhaskar Research On Candidates With Criminal Cases List In Vidhan Sabha Lok Sabha Election Full Article
india news मोदी-राहुल अपराधियों को टिकट देने पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन 5 साल में भाजपा और कांग्रेस ने 30-30% टिकट दागियों को बांटे By Published On :: Sun, 16 Feb 2020 10:00:59 GMT नई दिल्ली.आज से 5 साल 10 महीने और 8 दिन पीछे चलें तो तारीख आती है- 7 अप्रैल 2014। यह वो तारीख है जब भाजपा ने 2014 के आम चुनावों के लिए घोषणा पत्र जारी किया था। इस घोषणा पत्र मेंवादा किया "भाजपा चुनाव सुधार करने के लिए कटिबद्ध है, जिससे अपराधियों को राजनीति से बाहर किया जा सके।' लेकिन 2014 के ही आम चुनाव में भाजपा के 426 में से 33% यानी 140 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले थे। इन 140 में से 98 यानी 70% जीतकर भी आए। इसके बाद 2019 के आम चुनावों में भी भाजपा के433 मेंसे 175 यानी 40% उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज थे।जिसमें से 116 यानी 39% जीतकर भी आए थे।इतना ही नहीं, 2014 के आम चुनाव के बाद से अब तक सभी 30 राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हो चुके हैं। इन विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 3 हजार 436 उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 1 हजार 4 दागी थे। मोदी अकेले ऐसे नेता नहीं है जो चुनाव सुधार की बातें करते हैं। बल्कि, कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी राजनीति से अपराधियों को दूर रखने की बात अक्सर कहते रहते हैं। 2018 में ही कर्नाटक चुनाव के दौरान राहुल ने दागियों को टिकट देने पर मोदी पर सवाल उठाए थे। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस ने भी 2014 के चुनाव में 128 तो 2019 में 164 दागी उतारे थे। भाजपा-कांग्रेस ही नहीं बल्कि कई पार्टियां चुनावों में दागियों को टिकट देती हैं और जीतने के बाद राजनीति के अपराधिकरण को रोकने की बातें करती हैं।2014 में भाजपा के घोषणा पत्र में चुनाव सुधार की बात कही गई थी। लोकसभा चुनाव : 2014 में 34% दागी चुने गए, 2019 में 43% हो गए2014 के आम चुनावों में 545 सीट पर 8 हजार 163 उम्मीदवार खड़े हुए। इनमें से 1 हजार 585 उम्मीदवार अकेले 6 राष्ट्रीय पार्टियों में से थे। इन 6 राष्ट्रीय पार्टियों में भाजपा, कांग्रेस, बसपा, भाकपा, माकपा और राकांपा है। इस चुनाव में खड़े हुए 1 हजार 398 यानी 17% उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। जब मई 2014 में नतीजे आए तो 185 सांसद आपराधिक रिकॉर्ड वाले भी चुनकर लोकसभा आए। यानी 34%। भाजपा के 281 में से 35% यानी 98 सांसद दागी थे। कांग्रेस में ऐसे सांसदों की संख्या 44 में से 8 थी। पार्टी कुल उम्मीदवार दागी उम्मीदवार जीते दागी जीते भाजपा 426 140 (33%) 281 98 (35%) कांग्रेस 462 128 (28%) 44 8 (18%) बसपा 501 114 (23%) 00 00 सीपीएम 93 33 (35%) 9 5 (56%) सीपीआई 68 19 (28%) 0 00 राकांपा 35 18 (51%) 6 5 (83%) अन्य/निर्दलीय 6578 946 (14%) 202 71 (35%) कुल 8163 1398 (17%) 542 187 (35%) 2019 के आम चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की संख्या 2014 की तुलना में घट तो गई, लेकिन दागी उम्मीदवारों की संख्या बढ़ गई। 2019 में कुल 7 हजार 928 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से 19% यानी 1500 दागी उम्मीदवार थे। इस चुनाव में इन सभी 6 राष्ट्रीय पार्टियों ने 1 हजार 384 उम्मीदवारों को उतारा, जिनमें से 496 पर आपराधिक मामले थे। नतीजे आए तो 233 यानी 43% दागी उम्मीदवार चुनकर लोकसभा आए। पार्टी कुलउम्मीदवार दागी उम्मीदवार जीते दागी जीते भाजपा 433 175 (40%) 301 116 (39%) कांग्रेस 419 164 (39%) 51 29 (57%) बसपा 381 85 (22%) 10 5 (50%) सीपीएम 69 40 (58%) 9 5 (56%) सीपीआई 48 15 (31%) 00 00 राकांपा 34 17 (50%) 5 2 (40%) अन्य/निर्दलीय 6544 1004 (15%) 169 79 (47%) कुल 7928 1500 (19%) 539 233 (43%) विधानसभा चुनाव : 30 राज्यों के चुनाव में 1476 दागी चुने गए, सिक्किम में एक भी दागी नहींपिछले 5 साल में सभी 30 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। सभी राज्यों को मिलाकर 4 हजार 33 सीटें होती हैं। इन सीटों के लिए 39 हजार 218 उम्मीदवार खड़े हुए, जिसमें से 7 हजार 481 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। इन 7 हजार 481 उम्मीदवारों में से 1 हजार 476 यानी 20% उम्मीदवार जीतकर विधानसभा भी पहुंचे। इस हिसाब से हर 4 में से एक विधायक पर आपराधिक मामला दर्ज है। अगर बात 6 राष्ट्रीय पार्टियों की करें, तो अकेले इन 6 पार्टियों की टिकट पर 2 हजार 762 दागी उतरे, जिसमें से 840 यानी 30% दागी उम्मीदवार जीते।30 राज्यों के चुनाव, 1476 दागी चुने गए; सिक्किम में एक भी दागी नहीं2014 के आम चुनाव से लेकर अब तक सभी 30 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। सभी राज्यों को मिलाकर 4 हजार 33 सीटें होती हैं। इन सीटों के लिए 39 हजार 218 उम्मीदवार खड़े हुए, जिसमें से 7 हजार 481 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। इन 7 हजार 481 उम्मीदवारों में से 1 हजार 476 यानी 20% उम्मीदवार जीतकर विधानसभा भी पहुंचे। इस हिसाब से हर 4 में से एक विधायक पर आपराधिक मामला दर्ज है। अगर बात 6 राष्ट्रीय पार्टियों की करें, तो अकेले इन 6 पार्टियों की टिकट पर 2 हजार 762 दागी उतरे, जिसमें से 840 यानी 30% दागी उम्मीदवार जीते। राजनीति के अपराधिकरणपर रिसर्च कर चुके और"व्हेन क्राइम पेज़ : मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स' किताब लिख चुके मिलन वैष्णव का ओपिनियन पार्टियां दागियों को इसलिए उतारती हैं, ताकि वे अपना खर्चा खुद उठाएं राजनीतिक पार्टियों की तरफ से चुनाव में आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों को इसलिए उतारा जाता है, ताकि वे पैसे का इंतजाम कर सकें। आजकल चुनाव लड़ना वैसे भी महंगा होता जा रहा है, इसलिए पार्टियां ऐसे उम्मीदवार उतारती हैं, जो खुद पैसा खर्च कर सकें। आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों न सिर्फ अपने कैंपेन का खर्चा उठा सकते हैं, बल्कि पार्टी को भी पैसा दे सकते हैं। इसके साथ ही अगर किसी उम्मीदवार के पास पैसा नहीं है, तो उसका भी खर्च उठा सकते हैं। क्योंकि ऐसे उम्मीदवारों के पास संसाधन जुटाने के लिए लोग भी होते हैं। दागी खुद को 'रॉबिन हुड' की तरह पेश करते हैं, इसलिए जीत जाते हैं जहां कई लोग मानते हैं कि वोटर आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवार को गरीबी और नादानी की वजह से वोट देते हैं, वहीं मेरा मानना है कि लोग उन्हें सरकार के खराब कामकाज (पुअर गवर्नेंस) की वजह से ऐसा करते हैं। भारत जैसे देश में जहां कानून काफी कमजोर है और लोग सरकार को पक्षपाती माना जाता है, वहां उम्मीदवार अपनी आपराधिकता को काम कराने की क्षमता और विश्वसनीयता के तौर पर पेश कर लेते हैं। यह ऐसी जगहों पर ज्यादा देखा जाता है, जहां लोग जाति और धर्म के नाम पर बंटे हैं। यानी इन जगहों पर आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोग खुद को रॉबिन हुड (गुंडई से काम कराने वाले) की तरह दिखाते हैं। (सोर्स- एडीआर रिपोर्ट्स। नोट- विधानसभा और लोकसभा चुनावों के डेटा में उपचुनावों के आंकड़े शामिल नहीं है।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today BJP Vs Congress Vs All Parties {Criminal Candidates}; Dainik Bhaskar Research On Candidates With Criminal Cases List In Vidhan Sabha Lok Sabha Election BJP Vs Congress Vs All Parties {Criminal Candidates}; Dainik Bhaskar Research On Candidates With Criminal Cases List In Vidhan Sabha Lok Sabha Election Full Article
india news अमित शाह ने दिल्ली में 18% वोट और शून्य सीटें मिलने की रिपोर्ट से बेचैन होकर खुद को प्रचार के मैदान में झोंका था By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 05:44:12 GMT नई दिल्ली. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा भले ही जीत का दावा कर रही थी, लेकिन अंदरूनी रिपोर्ट में उसे हार तय दिख रही थी। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी शुरू से बढ़त लेती दिख रही थी, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की आक्रामकता ने इस एकतरफा चुनाव को बहुत हद तक मुकाबले वाला चुनाव बना दिया था। इसके बाद ही यह बहस शुरू हो गई थी कि पहले वॉकओवर देती भाजपा अब चुनाव लड़ती नजर आ रही है। लेकिन नतीजों के बाद सवाल उठा कि चुनाव में हार सामने नजर आने के बावजूद शाह खुद इस तरह मैदान में क्यों कूदे और प्रचार में पूरी ताकत क्यों झोंक दी?भास्कर ने इस रणनीति को समझने के लिए पड़ताल की तो पाया कि 21 और 22 जनवरी को शाह के घर पर रात ढाई बजे तक बैठक हुई थी। इसमें भाजपा को दिल्ली चुनाव में 18% वोट मिलने के अनुमान पर चर्चा की गई थी। यानी 2015 के विधानसभा चुनाव में मिले 32.19% वोट से करीब आधे और लोकसभा चुनाव में मिले 56.86% वोट से तीन गुना कम। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने खुलासा किया कि दिल्ली चुनाव से जुड़े तमाम रणनीतिकारों के साथ हुई इस बैठक में जो रिपोर्ट रखी गई, उसके मुताबिक दिल्ली में भाजपा भी कांग्रेस की तरह शून्य पर सिमट रही थी। इस रिपोर्ट ने शाह को बेचैन कर दिया। इसी दिन भाजपा ने उम्मीदवारों की आखिरी सूची जारी कर दी और तीन सीटें सहयोगी दलों जदयू और लोजपा को दे दी। दिल्ली में पार्टी अमूमन अपने चुनाव चिह्न पर ही सहयोगियों को लड़ाती रही है, लेकिन इस बार सहयोगी दल खुद के सिंबल पर लड़े।शाह ने कहा- नतीजा जो भी हो, मैं लड़ूंगावोट पर्सेंट और सीटों से जुड़ी इस रिपोर्ट पर चर्चा के बाद शाह ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से ज्यादा पार्टी की साख से जोड़ा और कहा कि सीटों से ज्यादा वोट शेयर को बचाना बड़ी चुनौती है। उनका इशारा था कि अगर भाजपा का वोट शेयर घटा तो उसे भी कांग्रेस के साथ एक तराजू में तोला जाएगा। लेकिन वहां मौजूद रणनीतिकारों ने शाह से कहा कि हारी हुई लड़ाई में आप न कूदें तो ही ठीक रहेगा। इस पर शाह ने कहा, “मैं योद्धा हूं, नतीजा जो भी हो लड़ूंगा।”शाह ने बैठक के बाद प्रचार बढ़ाया23 जनवरी से शाह ने एक दिन में 3 से 5 पदयात्रा और जनसभाएं करना शुरू कर दी। इतना ही नहीं, गणतंत्र दिवस के दिन भी शाह ने तीन जनसभाएं कीं तो 29 जनवरी की बीटिंग रीट्रीट में भी शिरकत नहीं की और चार जनसभाओं में शामिल रहे। दिल्ली चुनाव का संकल्प पत्र जारी होने वाले दिन 31 जनवरी को केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को संकल्प पत्र जारी करने का काम सौंपा गया और शाह ने उस दिन चार सभाओं को संबोधित किया। दिल्ली में शाह ने कुल 36 पदयात्रा, जनसभाएं कीं। इसके अलावा कुछ उम्मीदवारों के चुनाव कार्यालय तक खुद गए।प्रदेश संगठन में बड़े बदलाव की तैयारी में भाजपाचुनाव नतीजों के बाद के विश्लेषण में भाजपा इस बात पर संतोष कर रही है कि उसका वोट शेयर शाह की रणनीति की वजह से न सिर्फ बचा, बल्कि इसमें इजाफा भी हुआ है। लेकिन दिल्ली संगठन को लेकर जिस तरह अकर्मण्यता की रिपोर्ट पार्टी को मिली है, उसके बाद शीर्ष नेतृत्व इस बार दिल्ली भाजपा में प्रतीकात्मक बदलाव की नहीं, बल्कि बड़ी सर्जरी की रणनीति बना रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today वोट पर्सेंट और सीटों से जुड़ी रिपोर्ट पर चर्चा के बाद शाह ने दिल्ली में आक्रामक चुनाव प्रचार किया। (फाइल फोटो) Amit Shah was upset with the report of getting 18% votes and zero seats in Delhi and threw himself into the campaign field. Full Article
india news किसी भी इंसान का सबसे अच्छा गुण है माफ करना By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 19:56:00 GMT आनंद कुमार ओझा आगरा के ट्रैफिक पुलिस विभाग में सब इंस्पेक्टर हैं, लेकिन उन्होंने कई भोजपुरी फिल्मों में बतौर लीड एक्टर काम किया है। वे सिल्वर स्क्रीन पर न सिर्फ अपनी हीरोइन को बचाते हैं, बल्कि उन्होंने कॉलेज की 22 वर्षीय लड़की को अपहरणकर्ताओं से भी बचाया, जब वे 2013 में लखनऊ में पदस्थ थे। बतौर पुलिस वाला, उन्होंने कई मानदंड बनाए हैं।फिल्मों की शूटिंग के लिए वे कभी काम नहीं छोड़ते। वे अपनी वार्षिक छुटि्टयों का ही इस्तेमाल करते हैं। वे फिल्म में काम करने के पैसे भी नहीं लेते, क्योंकि वे यूपी पुलिस की आचार संहिता से बंधे हुए हैं। अगर आप उनके बचपन को देखेंगे तो पाएंगे कि वे भागने वाले बच्चे थे। एक बार वे घर से 20 रुपए लेकर एक्टर बनने के लिए मुंबई भाग गए थे, जबकि उनके पिता चाहते थे कि वे कोई अच्छी सी सरकारी नौकरी करें।ट्रेन के टीटी ने आनंद को समझाया और उन्हें वापस घर भेज दिया। कुछ सालों बाद उनके दोस्तों ने 500 रुपए इकट्ठा किए और मुंबई पहुंचने में मदद की, जहां उन्होंने बतौर चौकीदार काम किया, कई स्टूडियो गए, लेकिन कोई मौका नहीं मिल पाया। बाद में उनके पिता उन्हें वापस ले आए।आनंद जब परीक्षा के लिए वाराणसी गए तो उन्होंने अपने पिता की इच्छा पूरी करने का फैसला लिया। वे चुन लिए गए और 2005 में उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के सुरक्षा दल में शामिल हुए। उन्हें मुंबई जाने का मौका मिला। वहां उनकी मुलाकात भोजपुरी फिल्म निर्माता निर्मल पांडे से हुई।फिर 2013 में आई भोजपुरी फिल्म ‘सबसे बड़ा मुजरिम’, जिसने आनंद को सफलता के रास्ते पर ला दिया। बाकी इतिहास है। हाल ही में मैंने बेंगलुरु की नौंवीं कक्षा में पढ़ने वाली 15 वर्षीय दो लड़कियों के बारे में पढ़ा जो 11 फरवरी को घर छोड़कर भाग गईं। वे दोनों 840 रुपए लेकर, बिना फोन मुंबई जाने के लिए ट्रेन में बिना टिकट बैठ गईं।दोनों टीवी स्टार बनना चाहती थीं। वे 12 फरवरी को मुंबई पहुंचीं और एक ऑटो रिक्शा किया। ड्राइवर से उन्होंने अंधेरी स्थित बालाजी टेलिफिल्म्स के ऑफिस ले चलने को कहा। वहां सिक्योरिटी गार्ड ने बताया कि यहां कोई वॉक-इन इंटरव्यू नहीं हो रहे और वे अपना बायोडाटा उसे दे जाएं।दोनों बच्चियां इस बात से अनजान थीं कि उनके घरों पर क्या हो रहा होगा। जब उनके माता-पिता उन्हें लेने स्कूल पहुंचे थे, तो उन्हें बताया गया कि वे खुद ही जल्दी निकल गई थीं। उन्होंने शहरभर में बच्चियों को तलाश और पुलिस में शिकायत भी दर्ज की थी। उनकी रातों की नींद उड़ चुकी थी।इन दोनों लड़कियों ने उस प्रोडक्शन हाउस में किसी से बात करने के लिए 28 वर्षीय ऑटो ड्राइवर सोनू यादव से फोन मांगा। जब फोन पर कोई जवाब नहीं मिला तो सोनू को लगा कि कुछ गड़बड़ है। तब उसने सख्ती से लड़कियों से सच बताने को कहा और बोला कि अगर वे सच नहीं बताएंगी तो उन्हें पुलिस स्टेशन ले जाएगा।तब लड़कियां रोने लगीं और सोनू को अपनी कहानी बताई। उनकी बात जानने के बाद सोनू उन्हें कुर्ला स्टेशन वापस लाया और उन्हें प्रीपेड ऑटो स्टैंड के ऑफिस में बैठाया, जहां सीसीटीवी लगे थे। फिर अपने साथी ऑटो ड्राइवर गुलाब गुप्ता की मदद ली और 1400 रुपए इकट्ठे कर बेंगलुरु जाने के लिए टिकट और खाना खरीद कर लड़कियों को दिया। उनके माता-पिता से भी बात की।वे दूसरे यात्रियों के मोबाइल के जरिये लड़कियों के संपर्क में बने रहे और यह सुनिश्चित किया कि दोनों 13 फरवरी को सुरक्षित घर पहुंचें। इस कहानी को पढ़कर मैंने उन ऑटो ड्राइवरों को ढेर सारी दुआएं दीं, जैसे कई लोगों ने उस ट्रेन टीटी को दी होगी, जिसने आनंद ओझा की लौटने में मदद की थी।फंडा यह है कि जमाना कोई भी हो, लोगों को माफ करना सबसे उत्तम मानवीय गुण है। यह किसी भी दौलत और समाजिक रुतबे से बढ़कर है। अच्छा है कि हम माफ करना नहीं भूले हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सपनों के सौदागर और सौदागर के सपने By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:04:00 GMT फिल्मकार और नेताओं की विचार प्रक्रिया में यह बात एक समान है कि दोनों ही अधिकतम की प्रशंसा समान शिद्धत से चाहते हैं। एक दर्शक को खुश करना चाहता है, दूसरा मतदाता को लुभाना चाहता है। इसके लिए दोनों ही सारे जतन और जुगाड़ करते हैं। नेता अपने घोस्ट राइटर से कहता है कि भाषण में कुछ ऐसे वाक्य अवश्य हो कि आवाम तालियां बजाने लगे। फिल्मकार अपने लेखक के साथ मिलकर कुछ ऐसे दृश्य रचते हैं, जिन्हें देखते हुए दर्शक तालियां बजाएं। पटकथा लेखन के स्वांग में इसे ‘क्लैप ट्रैप’ कहा जाता है। कलाकार भी जानते हैं कि किस संवाद के बोलने पर ताली बजाई जाएगी।इतना ही नहीं, फिल्मकार वस्त्र बनाने वालों से यह चाहता है कि पात्रों की पोशाक में ऐसा कुछ हो कि दर्शक का ध्यान उस तरफ जाए। अपनी रोमांटिक भूमिकाओं के दौर में ऋषि कपूर विविध रंग के स्वेटर पहनते थे और उनके पास स्वेटर का जखीरा बन गया था। राजकुमार ने बलदेव राज चोपड़ा की एक फिल्म में चमड़े के सफेद जूते पहने और हर दृश्य में उनके जूते से ही शॉट शुरू किया जाता था।फिल्म की सफलता के पश्चात राजकुमार ने फिल्मकार से कहा- ‘जॉनी, सुना है आप आजकल हमारे जूतों की कमाई खा रहे हो’। हरफनमौला कलाकार किशोर कुमार ने सनकीपन की छवि गढ़ी थी, जिसका इस्तेमाल करके वे अनचाहे लोगों को अपने से दूर रखने में सफल हुए, परंतु राजकुमार सौ प्रतिशत स्वाभाविक सनकी व्यक्ति थे।प्रेमनाथ अपनी दूसरी पारी में सनकी हो गए थे। एक फिल्मकार 18 तारीख को उन्हें अनुबंधित करने आया। उन्होंने 18 लाख मेहनताना मांग लिया। फिल्मकार हाजिर जवाब था उसने कहा कि वह अगले माह की दो तारीख को उन्हें अनुबंधित करने आएगा।राजेश खन्ना गुरु कुर्ता पहनते थे, क्योंकि उनका पृष्ठ भाग शरीर के अनुपात से अधिक बड़ा था। कपड़ों द्वारा शरीर का बेढंगापन छिपाया जाता है। अब्बास-मस्तान और उनके भाई हमेशा सफेद रंग के कपड़े पहनते थे। दो भाई डायरेक्शन करते, दो भाई पटकथा लिखते थे और एक भाई संपादन करता था। उन्होंने हमेशा विदेशी फिल्मों का देसी चरबा बनाया।संगीतकार नौशाद के संगीत कक्ष में हमेशा सफेद चादर बिछी होती थी और जरा सा दाग भी नजर आ जाए तो वे काम रोक देते थे। ए.आर.रहमान हमेशा रात में ही धुन बनाते थे। उनके संगीत कक्ष में एक बड़ी मोमबत्ती रखी जाती थी और उसके बुझते ही वे काम बंद कर देते थे। हवा के कारण मोमबत्ती रात 10 बजे ही बुझ जाए तो वे काम करना बंद कर देते थे।आमिर खान अभिनीत ‘पीके’ में एक संवाद इस आशय का है कि पृथ्वी एक छोटा सा गोला है, उससे बड़े-बड़े अनगिनत गोले हैं और इस छोटे से गोले के एक छोटे से शहर में बैठा यह स्वयंभू आदमी कहता है कि उसने सब कुछ रचा है। सभी देशों के फिल्मकार अधिकतम को पसंद कर आने वाली फिल्म बनाना चाहते हैं। वह फिल्म के विधिवत प्रदर्शन के पूर्व फिल्म का प्रदर्शन बिना किसी पूर्व प्रचार के किसी भी शहर में कर देते हैं और दर्शक प्रतिक्रिया का अध्ययन करते हैं।मनोज कुमार प्रदर्शन पूर्व अपने मित्रों के लिए एक शो रखते थे। उनके निर्देशानुसार प्रोजेक्शन करने वाले कभी भी इलेक्ट्रिसिटी जाने के बहाने फिल्म रोक देते। इस तरह फिल्म के यकायक रुक जाने पर दर्शक की प्रतिक्रिया उन्हें संकेत देती थी कि कितनी रुचि से फिल्म देखी जा रही थी। फिल्मकारों का हाल उन पांच अंधों की तरह है जो हाथी का वर्णन कर रहे हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news पोर्न साइट्स पर बैन को अदालतों में क्यों उलझाया जा रहा है? By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:08:00 GMT पोर्नोग्राफी की महामारी के तीन पहलू हैं। पहला महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते यौन अपराध, दूसरा इस संगठित और अवैध बाजार से कंपनियों की भारी कमाई, तीसरा सरकार और अदालतों की नाकामी। तीसरे पहलू यानी कानून, पुलिस, अदालत और सरकार की लाचारी को सिलसिलेवार तरीके से समझा जाए तो इस महामारी का सटीक इलाज हो। पोर्नोग्राफी से समाज का विक्षिप्त होना वीभत्स है। इस संगठित बाजार के सामने व्यवस्था का नतमस्तक होना, भारत की सार्वभौमिकता के लिए त्रासद है।आठ साल पुराने वाकये से शुरुआत करें, जब बिग बॉस से सॉफ्ट पोर्नोग्राफी के प्रसार के खिलाफ शिकायतों को तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने दरकिनार कर दिया था। उसके बाद बढ़े हौसले से पोर्नोग्राफी को कानूनी दर्जा देने के लिए संसद मार्ग में पोर्नोग्राफी की ब्रांड एंबेसडर सनी लियोनी के आतिथ्य में जलसे की योजना बनाई गई।भारत में आईटी एक्ट और आईपीसी के तहत पोर्नोग्राफी का निर्माण, प्रचार और प्रसार सभी अपराध हैं। दिल्ली पुलिस को लीगल नोटिस देकर मैंने इस गैरकानूनी आयोजन के लिए प्रदान की गई अनुमति को निरस्त करने की मांग की। त्वरित कार्रवाई से पोर्नोग्राफी का रोड शो नाकाम हो गया। लेकिन, इंटरनेट के पिछले दरवाजे से घुसपैठ करके सनी लियोनी भारत में सबसे ज्यादा गूगल सर्च होने वाली सेलिब्रिटी बन गईं।फेसबुक और गूगल के माध्यम से ऑनलाइन ड्रग्स, रेव पार्टियों, वेश्यावृत्ति और पोर्नोग्राफी और बच्चों के लिए बढ़ रहे खतरे के खिलाफ जून 2012 में के.एन. गोविंदाचार्य ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की। तत्कालीन कांग्रेस और फिर भाजपा सरकार समेत फेसबुक और गूगल ने भी इसे रोकने पर सहमति जताई।यूरोप और अमेरिका के देशों में बच्चों की पोर्नोग्राफी पर कई प्रतिबंध हैं। जबकि, भारत में बच्चों और वयस्क सभी प्रकार की पोर्नोग्राफी निर्माण और वितरण गैरकानूनी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में पोर्नोग्राफिक वेबसाइट या सोशल मीडिया से पोर्नोग्राफिक कंटेंट को अलग करना कुछ सेकंड का काम है, तो फिर इसके लिए जनता से शिकायतों की क्या जरूरत है? असल में पोर्नोग्राफी को फेक न्यूज़ के साथ जोड़ने से उसे कानूनी रक्षा का बड़ा कवच मिल रहा है।देश के अनेक राज्यों में धारा 144 के क़ानून से जबरिया इंटरनेट बंद कर दिया जा रहा है, लेकिन आईटी एक्ट के तहत इंटरनेट के कंटेंट या वेबसाइट्स पर रोक लगाने का हक़ सिर्फ केंद्र सरकार को ही है। धारा 370 के प्रावधानों को रद्द करने बाद जम्मू-कश्मीर में भारत के सभी कानून लागू हो रहे हैं।वहां चुनिंदा वेबसाइट्स के परिचालन की अनुमति देकर सरकार ने कई कानूनी वेबसाइट्स भी बैन कर दी है तो अब अवैध पोर्नोग्राफिक वेबसाइट्स को बंद करने के लिए अदालती प्रक्रिया के नाम पर मामले को क्यों उलझाया जा रहा है? अनेक मंत्रालय, संसदीय समिति, बाल आयोग, पुलिस, सीबीआई की कार्रवाई के स्वांग से कन्फ्यूजन बढ़ने का लाभ इन कंपनियों को मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है।निर्भया के दोषियों को फांसी देने के लिए केंद्र ने पिछले कुछ महीनों में बहुत चुस्ती दिखाई है। पोर्नोग्राफी में लिप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर नियमों के अनुपालन का डंडा चले तो इंटरनेट की स्वतंत्रता बाधित किए बगैर भारत में पोर्नोग्राफी का खेल खत्म हो सकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news वृद्धावस्था में ऊर्जा का स्रोत परमात्मा हैं By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:12:00 GMT जवानी जाएगी तो फिर आएगी नहीं और बुढ़ापा आएगा तो जाएगा नहीं। बूढ़ा सबको होना है। यह दावा कोई नहीं कर सकता कि मैं कभी बूढ़ा नहीं होऊंगा। वृद्धावस्था में शरीर धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगता है। वो सारी शक्तियां, ऊर्जा जो कभी जवानी में पास थीं, चली जाती हैं। चलिए, आज एक दृश्य से गुजरते हैं जिसमें कोई वृद्ध अचानक शक्तिशाली बन जाता है।मेघनाद ने रामजी को नागपाश में बांध लिया और पूरी वानर सेना को परेशान करने लगा। तब जामवंत जो रामजी की सेना के सबसे बूढ़े सदस्य थे, उन्हें क्रोध आया। मेघनाद के सामने गए तो उसने टिप्पणी की- ‘बूढ़ जानि सठ छांड़ेउ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही।।’ मेघनाद कहता है- अरे मूर्ख, मैंने बूढ़ा समझ तूझे छोड़ दिया, पर अब तू मुझे ही ललकार रहा है?उसने एक त्रिशूल जामवंत की ओर फेंका। लेकिन, जामवंत में अचानक ऐसी शक्ति आई कि उसी त्रिशूल के प्रहार से मेघनाद को मूर्छित कर ऐसा उछाला कि वह सीधा लंका में गिरा। बूढ़े जामवंत में ऐसी शक्ति कहां से आई? दरअसल श्रीराम भले ही नागपाश में बंध गए, पर जामवंत की दृष्टि में वे तब भी ऊर्जा के स्रोत थे।बड़े-बूढ़ों को ऊर्जा मिलती है अपने बच्चों, नाती-पोतों को देखकर, लेकिन इस अवस्था में एक स्रोत से और ऊर्जा लीजिए और वह है परमात्मा। भरोसा करिए। जिसने बूढ़ा शरीर दिया है, यहां तक पहुंचाया है, वह आगे की यात्रा में भी आपको शक्तिमान बना देगा...। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सरकारी स्कूलों में प्री-प्राइमरी लर्निंग एक सराहनीय प्रयास By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:15:00 GMT केंद्र सरकार द्वारा इस बात का संज्ञान लेना कि प्रारंभिक शिक्षा से पहले बच्चों का मानसिक रूप से तैयार न होना आगे की कक्षाओं में ज्ञानार्जन में उन्हें कमजोर बनाता है और इसके लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में व्यापक प्रावधान रखना एक क्रांतिकारी कदम है।दरअसल, शिक्षा पर काम कर रही गैर सरकारी संस्था असर की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी या आंगनवाड़ी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले पांच वर्ष के हर चार में से केवल एक ही बच्चा कक्षा में बताए गए तथ्यों को समझने की क्षमता रखता है। वैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे का दिमाग पहले आठ साल में ही विकसित हो जाता है।आंगनवाड़ी के कर्मचारी अपेक्षित ट्रेनिंग न होने के कारण बच्चों को तैयार करने में अक्षम साबित हो रहे हैं। साथ ही उनके जिम्मे टीकाकरण, मातृ स्वास्थ्य कार्यक्रम या कुपोषण सरीखे अभियान भी रहते हैं। लिहाजा, इन नौनिहालों को प्री-प्रारम्भिक स्कूलिंग (पीपीएस) नहीं मिल पाती, जिसके कारण वे पूरे शिक्षाकाल में उस तरह का प्रदर्शन नहीं कर पाते, जो महंगे प्राइवेट स्कूलों में अभिजात्य वर्ग के बच्चों को उपलब्ध होते हैं।भारत सरकार ने इस कमी को समझा और अब एक प्रयास किया जा रहा है कि हर सरकारी स्कूल में भी प्री-प्राइमरी लर्निंग का कोर्स, शिक्षकों को प्रशिक्षण और अन्य साधन विकसित किए जाएं। स्वयं सरकार के अनुसार अगर यह अमल में लाया जा सका तो भारतीय समाज में शायद सबसे बड़ा इक्वलाइजर (खाई पाटने वाला) अभियान साबित होगा। लेकिन, यहां दो गंभीर समस्याएं हैं।इस अभियान का व्यावहारिक पक्ष राज्य सरकारों को देखना होगा। क्या उनके पास संसाधन हैं? वह भी उस स्थिति में जब वर्तमान शिक्षा के लिए ही बजट बेहद कम हो और अंतरराष्ट्रीय स्तर से हम मीलों पीछे हों। फिर क्या राज्यों के भ्रष्ट और अकर्मण्य शिक्षा विभाग इसे अभियान के रूप में लेंगे या इसे भी अन्य कार्यक्रमों की तरह केंद्र के पैसे में एक और बंदरबांट का साधन बना देंगे?बहरहाल, इस बड़ी कमजोरी के कारण हमारे नौनिहालों का बड़ा हिस्सा ज्ञान के वैश्विक बाज़ार में खड़ा नहीं हो पाता। अब उसका निदान देश को आत्मनिर्भर बनाने में भारी मदद करेगा। गरीबी के कारण देश का बच्चा पहले से ही स्कूल में नहीं जाता या जाता भी है तो कुछ वर्षों में शिक्षा की जगह कमाने के साधन की और मुड़ जाता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सत्ता की शीर्ष जोड़ियाें व माेदी-शाह में है अंतर By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:20:00 GMT अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष का कार्यभार छोड़ने के बाद अब हम नरेंद्र मोदी-अमित शाह की भाजपा सरकार के बारे में क्या कहेंगे? उन्होंने कुछ हफ्ते पहले ही यह पद जे.पी. नड्डा को सौंप दिया था। हालांकि, दिल्ली चुनाव उनके एजेंडे में बाकी था। अब आगे की राह क्या होगी? हम आजादी से लेकर अब तक केंद्र में सता के समीकरणों को कई तरह से वर्गीकृत कर सकते हैं।इसमें एक वो हैं, जहां पर सत्ता के शीर्ष पर लगभग बराबरी के दो नेता रहे, दूसरे वे जहां पर सिर्फ एक ही नेता रहा या फिर अल्प समय वाली सरकारें, जिनमें कोई नेता ही नहीं था। चरण सिंह से इंद्र कुमार गुजराल और वीपी सिंह से चंद्रशेखर और देवेगौड़ा के शासन को सबसे रोचक माना जाता है, क्योंकि उस दौर में लड़ाइयां हुईं, जानकारियां लीक हुईं और बहुत जल्द इसका अंत हो गया।इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जैसी एक नेताओं वाली सरकारों में प्राय: ये किस्से सुनने को मिलते रहे कि कौन अंदर या बाहर हो रहा है, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व वाली ऐसी पहली सरकार के किस्से 75 वर्ष बाद आज भी सुर्खियों में रहते हैं।यह कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच सत्ता की साझीदारी आपसी विश्वास पर आधारित थी। परंतु अंतर यह है कि उस सरकार में प्रधानमंत्री समकक्षों में प्रथम नहीं थे। यूपीए की दूसरी सरकार में तो मनमोहन की हैसियत राहुल गांधी के बाद तीसरे व्यक्ति की रह गई थी। इसके बाद हमारे पास अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा/राजग की दो सरकारें रह जाती हैं।दोनों सरकारें दो ताकतवर लोगों ने मिलकर चलाईं। पहली सरकार वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने मिलकर चलाई और दूसरी नरेंद्र मोदी और अमित शाह मिलकर चला रहे हैं, परंतु यहां अंतर है। वाजपेयी और आडवाणी बहुत करीबी व्यक्तिगत मित्र, पुराने सहयोगी और हमउम्र थे। उन्हें हमेशा समकक्ष माना गया। एक अधिक लोकप्रिय, स्वीकार्य और नरम था, जबकि दूसरा कठोर, राजनीतिक और वैचारिक। नेहरू व पटेल भी समकक्ष थे, पर उनके कई मतभेद सार्वजनिक थे।वाजपेयी और आडवाणी के रिश्ते अलग थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि नई भाजपा का निर्माण आडवाणी ने किया, उन्होंने नए हिंदुत्व की जगह बनाई और उसे स्थापित किया। उन्होंने पार्टी पर नियंत्रण कायम किया। वाजपेयी की छवि एक सार्वजनिक वक्ता और रूमानी व्यक्ति की थी।अपनी राजनीति के दौरान ज्यादातर उन्होंने आडवाणी का अनुसरण किया, भले ही कई बार वह उनके तरीकों से आहत भी होते और किनारा भी करते थे जैसा कि उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त किया। परंतु वह कभी आडवाणी की अवज्ञा नहीं करते थे। जब पार्टी को सत्ता मिलने की बारी आई तो आडवाणी ने व्यवहार कुशलता दिखाई।उन्हें पता था कि उनके नेतृत्व में गैर कांग्रेसियों का गठजोड़ मुश्किल है। वाजपेयी एक स्वीकार्य चेहरा थे, वे प्रधानमंत्री बने, लेकिन पार्टी और सरकार में असली ताकत आडवाणी के पास रही। इसका पहला प्रमाण तब दिखा जब वाजपेयी को अपने विश्वसनीय मित्र और सहयोगी जसवंत सिंह को कैबिनेट में शामिल नहीं करने दिया गया।सामरिक विषयों पर भी अंतिम फैसला आडवाणी का ही होता था। यह दस्तावेजों में है कि जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर बैठक का विचार आडवाणी का ही था और उसे रद्द करने व संयुक्त घोषणा-पत्र पर चर्चा का भी। उन दिनों भी चाटुकार और कानाफूसी करने वाले यही कहते कि दोनों नेता राम-लक्ष्मण की तरह साथ रहते हैं।ऐसा तब तक चला, जब तक कि आडवाणी का धैर्य चुक नहीं गया। मैंने 2009 में लिखा था कि उनके आसपास के लोगों ने उन्हें भड़काया और उसके बाद कुछ नाटकीय घटनाएं हुईं। वाजपेयी के कार्यकाल के आखिरी साल में ऐसी अफवाहें फैलाई गईं कि वह थक गए हैं और रिटायर हो सकते हैं।इसने वाजपेयी को चुप्पी तोड़ने पर विवश किया और उन्होंने अपने एक भाषण में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि ‘वह न तो थके हैं और न ही रिटायर हो रहे हैं।’ मामला तब और जटिल हो गया जब 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत से उत्साहित आडवाणी ने वाजपेयी पर दबाव बनाया कि आम चुनाव जल्दी करा लिए जाएं।प्रचार के दौरान वाजपेयी के थके और बुजुर्ग होने की खबरें दोबारा आने लगीं। कहा जाने लगा कि अगला कार्यकाल वह आडवाणी को सौंपेंगे। वाजपेयी ने अपनी नाराजगी छिपाई नहीं। राजग के चुनाव हारने के बाद उन्होंने लोगों से यह नहीं छिपाया कि किसके लालच और पाप के कारण यह हश्र हुआ।नेहरू-पटेल अौर वाजपेयी-आडवाणी से मोदी-शाह की व्यवस्था कई मायनों में अलग है। तीन अहम बातों का जिक्र करें तो पहली बात वे दो दशक से साथी हैं। एक जननेता हैं और दूसरा शानदार पार्टी संचालक। भूमिकाएं अलग हैं और उनका बंटवारा स्पष्ट है। एक वोट लाता है और दूसरा पार्टी और चुनावी व्यवस्था से उन्हें संग्रहीत करता है। यहां तक कि यह रिश्ता नंबर एक और नंबर दो का है।हालांकि, शाह ने इस सप्ताह एक कार्यक्रम में कहा कि उन्हें तुलनाएं पसंद नहीं, लेकिन आप चाहें तो चंद्रगुप्त मौर्य और कौटिल्य से भी तुलना कर सकते हैं। दूसरा, सार्वजनिक जीवन को लेकर दोनों का दृष्टिकोण अलग है। एक मुखर सार्वजनिक व्यक्तित्व है, जिसे वैश्विक स्तर पर प्रशंसा मिलती है तो दूसरा परदे के पीछे से सत्ता संचालित करता है। एक भीड़ जुटाता है तो दूसरा पार्टी के वफादारों को प्रोत्साहित करता है।तीसरी बात, इस मामले में नंबर दो की उम्र नंबर एक से 14 साल कम है। यानी उसके लिए नंबर एक के बाद भी राजनीतिक भविष्य है। दिल्ली चुनाव के साथ शाह की पार्टी प्रमुख की पारी समाप्त हो गई। शायद वह इसे अलग तरह से समाप्त करते, लेकिन हरियाणा से झारखंड और दिल्ली तक तथा कुछ हद तक महाराष्ट्र में मतदाताओं ने उनके सामने यह कड़वा सच रख दिया कि मोदी के लिए मतदान का मतलब भाजपा के लिए मतदान नहीं है। शाह अब इस हकीकत के साथ ही अपने राजनीतिक कॅरियर के दिलचस्प और अपरिचित दौर में प्रवेश कर रहे हैं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह (फाइल फोटो)। Full Article
india news छोटे विवाद नहीं बड़ा परिदृश्य देखें भारत-अमेरिका By Published On :: Mon, 17 Feb 2020 20:25:00 GMT डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर अगले सप्ताह अपनी पहली भारत यात्रा पर आ रहे हैं। इससे यह बात अहम हो गई है कि पिछले एक दशक में भारत-अमेरिका संबंध किस तरह आगे बढ़े हैं। पिछले वर्ष जून में ट्रम्प प्रशासन ने भारत के विशेष व्यापार दर्जे को खत्म कर दिया था, इसके तहत 5.6 अरब डॉलर (392 अरब रुपए) का सामान भारत से बिना शुल्क के मंगाया जा सकता था।2018 में अमेरिका ने भारत से स्टील और एल्युमिनियम के आयात पर भी शुल्क लगा दिया था। भारत ने भी अमेरिका के हर कदम का जवाब उसकी ही भाषा में देते हुए उसके 1.4 अरब डॉलर के सामान पर 23 करोड़ डॉलर का शुल्क लगा दिया था। इससे इस बात की आशंका होने लगी थी कि दोनों देशों के बीच व्यापार को लेकर तनाव बढ़ सकता है।हालांकि, जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष निकालना गलत हो सकता है। हाल के महीनों में भारत-अमेरिका की राजनयिक वार्ताओं को लेकर नकारात्मक हेडलाइंस के बावजूद दोनों देशों के संबधों का आधार मजबूत रहा है। अमेरिकी व्यापार परिषद की 44वीं बैठक में विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने भारत व अमेरिका के संबंधों में हुई बढ़ोतरी की ओर ध्यान दिलाते हुए दोनों देशों को हिंद-प्रशांत क्षेत्र समेत पूरी दुनिया में और सहयोग बढ़ाने की जरूरत पर बल दिया।पूर्व कार्यकारी रक्षा मंत्री पैट्रिक शनाहन ने भी सिंगापुर में शंगरी-ला वार्ता में में दोनों देशों के रक्षा संबंधों की प्रशंसा करते हुए भारत को अपना प्रमुख रक्षा सहयोगी करार दिया था। कुछ छोटी-मोटी बातों को छोड़ दिया जाए तो शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से ही भारत व अमेरिका के संबंध लगातार बढ़ते रहे हैं।2008 का नागरिक परमाणु समझौता इस दिशा में एक बड़ा कदम था। 2018 में भारत को स्ट्रैटजिक ट्रेड ऑथोराइजेशन (एसटीए)-1 सूची में शामिल करने से भारत को अमेरिका से हथियार बंद ड्रोन जैसी संवेदनशील तकनीक आयात करने की अनुमति मिल गई थी। 2016 में भारत को अमेरिका के साथियों के समान ही प्रमुख रक्षा सहयोगी का दर्जा मिलने के बाद इस सूची में शामिल करना सही कदम माना गया।पिछले साल दोनों देशों के बीच मंत्रिस्तर की 2+2 वार्ता, संचार क्षमता और सुरक्षा समझौता, अमेरिकी प्रशांत कमान का नाम हिंद-प्रशांत कमान करना व तीनों सेनाओं के युद्धाभ्यास पर सहमति होना महत्वपूर्ण है। ये समझौते बताते हैं कि भारत और अमेरिका चुनौतियों से निपटने के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग स्थापित करना चाहते हैं।व्यापार के मोर्चे पर हालांकि अमेरिकी व्यापार घाटा 2017 के 27 अरब डॉलर से घटकर 2018 में 21 अरब डॉलर हो गया, लेकिन भारत की व्यापार नीतियां को लेकर ट्रम्प की शिकायतों पर मतभेद बने हैं। भारत के ईरान के साथ व्यापार संबंध और रूस से लंबी दूरी की वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली एस-400 की खरीद ऐसे मुद्दे हैं जो दोनों देशों के संबंधों की गति को कम कर सकते हैं।लेकिन, यह भी ध्यान देने वाली बात है कि द्विपक्षीय मतभेदों से भारत-अमेरिका संबंधों पर सीधा असर नहीं हो रहा है, बल्कि ये अमेरिका द्वारा किसी तीसरे देश को निशाना बनाने से हो रहा है। उदाहरण के लिए, रूस पर अमेरिका के प्रतिबंधों की वजह से भारत की रक्षा प्रणाली खरीद प्रभावित हो रही है।जहां तक रक्षा-उद्योग का सवाल है तो भारत की रूस पर निर्भरता की वजह भारत के अधिकतर प्लेटफॉर्म का रूसी मूल का होना है। इसके अतिरिक्त अगर भारत रूस से दूरी बनाता है तो वह संवेदनशील रक्षा प्रणालियां पाकिस्तान को दे सकता है। विदेश नीति बनाने में स्वायत्तता भारत का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है।माेदी भारत को अमेरिका के काफी निकट ले गए हैं, लेकिन उन्होंने साथ ही चीन व रूस के साथ संबध बढ़ाकर इसे संतुलित किया हुआ है। व्यापार, मध्य एशिया, रूस व 5जी से लेकर कई बातों पर मतभेद और पूर्व के अविश्वास के बावजूद भारत और अमेरिका अप्रसार, आतंकवाद व पाकिस्तान पर आगे बढ़े हैं। आज द्विपक्षीय संबंध नई ऊंचाई पर हैं।हकीकत में ट्रंप प्रशासन ने हुवावे को उपकरण बेचने के लिए अमेरिकी कंपनियों को अनुमति देकर भारत को 5जी पर नीति बनाने का पर्याप्त मौका दे दिया है। इसी तरह ऊर्जा सुरक्षा के मसले पर ईरान से खाली हुई सप्लाई को उसने पूरा कर दिया है।आने वाले महीनों में भारत अमेरिका से 18 अरब डॉलर का रक्षा समझौता करने जा रहा है। अब जरूरत है कि दोनों देश छोटे-मोटे मतभेदों से निपटते समय बड़े परिदृश्य को ध्यान में रखें। आखिर यह मतभेदों पर बात करने की ही चाहत है, जिसने भारत व अमेरिका जैसे लोकतंत्रों को प्राकृतिक सहयोगी बना दिया है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प। Full Article
india news दोषियों के वकील एपी सिंह बोले- आप लिखकर रख लो, 3 तारीख को फांसी नहीं होगी By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 08:00:43 GMT नई दिल्ली.निर्भया केस में पटियाला हाउस कोर्ट ने सोमवार को चारों दोषियों के लिए नयाडेथ वॉरंट जारी किया। पिछले 41 दिनों में यह तीसरा डेथ वॉरंट है।इसमें चारों दोषियों को 3 मार्च कीसुबह 6 बजे फांसी देने का आदेश है। हालांकि चार दोषियों में से एक के पास अभी दया याचिका और क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प है। ये दोनों विकल्प खारिज होने के बाद भी दोषी नए सिरे से राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेज सकते हैं। दोषियों के खिलाफ एक मामला दिल्ली हाईकोर्ट में भी चल रहा है, जिस पर फैसला आने तक फांसी नहीं हो सकती। यह बात पिछले 7 साल से निर्भया के दोषियों के लिए केस लड़ रहे वकील एपी सिंह ने कही। उन्होंने दैनिक भास्कर से बातचीत में यह भी कहा किलिखकर रख लो, 3 मार्च को फांसी नहीं होगी।एपी सिंह ने बताया,''मैं क्लाइंट से मिलूंगा। सभी कानूनी विकल्प पर बातचीत करूंगा और फिर वे जो चाहेंगे, जो उनके परिवार वाले चाहेंगे, वो करूंगा। अभी कई कानूनी विकल्प बाकी हैं। सभी का उपयोग किया जाएगा। राष्ट्रपति के पास दोबारा दया याचिका भी भेजी जाएगी और खारिज होने पर भी जो विकल्प होंगे उनका भी उपयोग किया जाएगा। यह पूछने पर कि क्या आगे भी एक-एक कर कानूनी विकल्प उपयोग किए जाएंगे, क्या चारों की याचिकाएं एक साथ नहीं भेजी जा सकती? इस पर उनका जवाब था- दया याचिका के लिए सभी क्लाइंट का आधार अलग-अलग होता है। तो ऐसे में एक-एक कर ही ये याचिकाएं लगाई जाएंगी।एपी सिंह के इस बयान को सुनने पर ऐसा लगा कि शायद 2 से 3 महीने तक दोषियों की फांसी को आसानी से टाला जा सकता है। जब हमने उनसे यह पूछा कि सभी कानूनी विकल्प का उपयोग कर ज्यादा से ज्यादा कितने समय तक फांसी टाली जा सकती है? इस पर उन्होंने एक बात कोट कर लिखने के लिए कही, ''न मैं परमात्माहूं। न मैं यमराज हूं। मैं एडवोकेट हूं। जो क्लाइंट कहेगा, क्लाइंट के परिवार वाले कहेंगे, उनको भारतीय संविधान, सुप्रीम कोर्ट के लैंडमार्क जजमेंट के अनुसार सभी कानूनी विकल्प उपलब्ध कराऊंगा। बेशक इस केस में मीडिया ट्रायल है। पब्लिक और पॉलिटिकल प्रेशर भी है लेकिन उससे मैं न्याय की पराकाष्ठा को झुकने नहीं दूंगा।''निर्भया के दोषियों पर लूट का केस भी, इस मामले में उन्हें 10 साल की सजानिर्भया के साथ दुष्कर्म करने से पहल उसके 6 दोषियों- राम सिंह, मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और नाबालिग ने राम आधार नाम के व्यक्ति से भी लूटपाट की थी। इस मामले में निर्भया के चार दोषियों- मुकेश, पवन, विनय और अक्षय को 2015 में पटियाला हाउस कोर्ट ने 10 साल की सजा सुनाई थी। वकील एपी सिंह बताते हैं कि दिल्ली हाईकोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई है और यह मामला अभी पेंडिंग है। और जब तक केस का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक चारों को फांसी नहीं हो सकती।कानूनी रास्ते: क्यों 3 मार्च को भी दोषियों को फांसी मुमकिन नहीं?1) क्यूरेटिव पिटीशन : तीन दोषी- मुकेश, विनय और अक्षय की क्यूरेटिव पिटीशन खारिज हो चुकी है। लेकिन पवन के पास अभी भी क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प है।2) दया याचिका : पवन के पास दया याचिका का विकल्प भी है। इसके अलावा संविधान के तहत दोषियों के पास दोबारा दया याचिका लगाने का भी विकल्प है।3) दया याचिका को चुनौती : राष्ट्रपति की तरफ से दया याचिका खारिज होने के बाद इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।4) प्रिजन मैनुअल : दिल्ली का 2018 का प्रिजन मैनुअल कहता है- जब तक दोषी के पास एक भी कानूनी विकल्प बाकी है, उसे फांसी नहीं हो सकती। अगर उसकी दया याचिका खारिज भी हो जाती है तो भी उसे 14 दिन का समय दिया जाना चाहिए। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Nirbhaya Lawyer AP Singh | Nirbhaya Rape Case Convicts Lawyer AP Singh On Nirbhaya Hanging Date Latest News and Updates On Delhi Gang Rape And Murder Case Full Article
india news धैर्य ऐसा गुण है जो कठिन समय में शक्ति बढ़ाता है By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:30:00 GMT कजाकस्तान की 17 वर्षीय टीनएजर एइगेरिम बालावायेवा बहुत खुश है और कहती है कि अब वह दूसरी लड़कियों की तरह हेडफोन्स इस्तेमाल कर सकेगी और झुमके पहन सकेगी। उसके देश की 16 से ज्यादा लड़कियां और लड़के भी ऐसे ही खुश हैं। वे भी ऐसी बीमारी से पीड़ित हैं, जिसे वैज्ञानिक भाषा में माइक्रोशिया-एट्रीसिया कहते हैं और इसका मरीज बिना बाहरी कान के पैदा होता है।इसका मरीज बच्चा अच्छे से सुन नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी आवाज के नोटेशन पैदा करने के लिए बाहरी कान ही नहीं होता। वे चश्मा नहीं पहन पाते क्योंकि कानों पर ही चश्मा टिकता है। यह मध्य एशियाई देशों में इतनी ज्यादा फैल गई है कि करीब 10 हजार बच्चे इस कमी का शिकार हैं। दुर्भाग्य से कजाकस्तान में इसकी सर्जरी के लिए प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं हैं। इस आनुवंशिक दोष से पीड़ित बच्चों के माता-पिता ने माइक्रोशिया एंड एट्रीसिया कजाकस्तान पब्लिक एसोसिएशन नाम से एक एनजीओ भी बनाया है।एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के दौरान 2017 में इस एसोसिएशन की चेयरपर्सन मलिका सुल्तान की मुलाकात डॉ. आशीष भूमकर से हुई। डॉ. भूमकर ने बच्चों की करेक्टिव सर्जरी करने के अलावा ईएनटी सर्जन्स को प्रशिक्षण भी दिया है। जब मलिका उनसे इलाज के खर्चे के बारे में चर्चा कर रही थीं, तब डॉ. भूमकर ने उनसे कहा कि अभी बच्चों को सर्जरी का फायदा होने दीजिए। पैसों की बात बाद में की जा सकती है। इससे मलिका बहुत प्रभावित हुईं। डॉ. भूमकर कजाकस्तान जा चुके हैं। उन्होंने जरूरतमंद बच्चों की 40 सर्जरी की हैं।लेकिन यह पहली बार है जब कजाकस्तान से लोगों का एक समूह अपने बच्चों को विशेष सर्जरी के लिए भारत लाया है। कुल 14 बच्चों में से 13 का ऑपरेशन किया गया। डॉ. भूमकर के मुताबिक बाहरी कान बनाने की सर्जरी में मरीज की पसली पिंजर (रिब केज) से कार्टिलेज (नरम हड्डी) का इस्तेमाल करना शामिल है। इसे कई चरणों में करना पड़ता है और मरीज के सात वर्ष के होने के बाद ही इसे कर सकते हैं। वर्षों धैर्य रखते हुए इंतजार करने के बाद पिछले दो महीनों में ठाणे के श्री महावीर जैन हॉस्पिटल में इन बच्चों का ऑपरेशन किया गया और सारे इलाज का खर्च खुद डॉ. भूमकर ने उठाया।इससे मुझे बहुत साल पहले सुनी एक कहानी याद आ गई। कहानी के अनुसार, एक दिन एक शिक्षक कक्षा में आए, सभी बच्चों को टॉफी दी और बोले, ‘तुम सभी 10 मिनट के लिए अपनी टॉफी नहीं खा सकते।’ ऐसा कहकर वे कक्षा से बाहर चले गए। कक्षा में कुछ देर के लिए खामोशी छा गई। हर बच्चा अपने सामने रखी टॉफी को देख रहा था और एक-एक पल बीतने के साथ खुद को टॉफी खाने से रोकना मुश्किल हो रहा था। 10 मिनट के बाद शिक्षक लौटे तो पाया कि केवल सात बच्चों ने टॉफी नहीं खाई थी। शिक्षक ने चुपचाप उनके नाम दर्ज कर लिए और कक्षा शुरू कर दी।इन शिक्षक का नाम था प्रोफेसर वॉल्टर टॉर्च। कुछ सालों बाद प्रोफेसर वॉल्टर ने इन सात बच्चों पर शोध किया और पाया कि उन्होंने जीवन में कई सफलताएं हासिल कीं और अपने ही क्षेत्र के बाकी के लोगों की तुलना में ज्यादा सफल रहे। बाकी बच्चे मिली-जुली जिंदगी जी रहे थे, जिनमें सामान्य जीवन से लेकर आर्थिक और सामाजिक मुसीबत झेलना शामिल था। फिर उन्होंने अपने रिसर्च पेपर में एक वाक्य लिखा। ‘एक व्यक्ति जो 10 मिनट के लिए भी धैर्य नहीं रख सकता, वह जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता।’ इस शोध को दुनियाभर में ख्याति मिली और इसका नाम ‘मार्श मेलो थ्योरी’ रखा गया क्योंकि प्रोफेसर वॉल्टर ने बच्चों को जो टॉफी दी थी उसे ‘मार्श मेलो’ कहते हैं। वह फोम की तरह मुलायम थी।फंडा यह है कि इस थ्योरी के मुताबिक धैर्य ऐसा गुण है जो दुनिया के सबसे सफल लोगों में जरूर होता है। यह गुण इंसानों की शक्ति बढ़ाता है, जिससे वे कठिन परिस्थियों में भी निराश नहीं होते। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news अदृश्य होने की कामना से प्रेरित बॉलीवुड फिल्में By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:34:00 GMT खबर है कि रणवीर सिंह के साथ ‘मि. इंडिया’ का नया संस्करण बनाया जा रहा है। अदृश्य हो जाने की कथा पर राम गोपाल वर्मा ‘गायब’ नामक फिल्म बना चुके हैं। इस तरह की फिल्म विगत सदी के छठे दशक में ‘मि.एक्स’ के नाम से बनी थी। ‘मि.एक्स’ के नायक अशोक कुमार, बोनी कपूर की ‘मि. इंडिया’ में चरित्र भूमिका में नजर आए। नायक के पिता ने अदृश्य होने के ज्ञान को विकसित किया था और अशोक कुमार उस वैज्ञानिक के सहयोगी तथा मित्र थे। क्या इसी तरह नए संस्करण में अनिल कपूूर, अशोक कुमार अभिनीत भूमिका निभाएंगे? क्या श्रीदेवी अभिनीत भूमिका दीपिका या आलिया भट्ट अभिनीत करेंगी?ज्ञातव्य है कि जब सलीम खान और जावेद अख्तर का अलगाव हुआ था, तब दो पटकथाएं लगभग लिखी जा चुकी थीं। सलीम खान ने जावेद को एक पटकथा चुनने को कहा और उन्होंने मि. इंडिया चुनी। सलीम खान अलगाव से इतने आहत हुए कि उन्होंने दूसरी पटकथा ‘दुर्गा’ कभी किसी को सुनाई ही नहीं। देव आनंद की बहन के पुत्र शेखर कपूर लंदन में चार्टर्ड अकाउंटेंट थे, परंतु वे फिल्म बनाना चाहते थे। अंग्रेजी उपन्यास ‘मैन वीमैन एंड चाइल्ड’ से प्रेरित मासूम उन्होंने बनाई।बहरहाल, मि. इंडिया के निर्माण में शबाना आजमी ने अदृश्य रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बोनी कपूर, सतीश कौशिक की ‘लगान’ से प्रभावित हुए और उन्होंने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘प्रेम’ के निर्देशन का अवसर दिया। अमरीश पुरी का संवाद ‘मोगेम्बो खुश हुआ’ उतना ही लोकप्रिय हुआ, जितना शोले का संवाद ‘कितने आदमी थे रे सांभा’। नारद मुनि अदृश्य होकर मनचाहे स्थान पर समाचार देने पहुंच जाते थे। आम आदमी भी अदृश्य होकर अपने परिवार के लिए सुविधाएं जुटाना चाहता है। विरह झेलते प्रेमी भी कामना करते हैं कि काश! वे अदृश्य होकर अपनी प्रेमिका के पास पहुंच जाते। अगर सचमुच अदृश्य होने का वरदान मिले या विज्ञान ही अदृश्य होने का कीमिया खोज ले तो जीवन अपना रोमांच खो देगा।मि. इंडिया के क्लाइमैक्स में नायक अदृश्य होने वाले यंत्र को त्यागकर आम आदमी की तरह लड़ता है और खलनायक मोगेम्बो की पिटाई करता है। आश्चर्य यह है कि यही दर्शक राजनीति के क्षेत्र में मोगेम्बो को चुनता है। अमिताभ बच्चन की इच्छा गब्बर का पात्र अभिनीत करने की थी, परंतु रमेश सिप्पी जानते थे कि अवाम इसे पसंद नहीं करेगी। गौरतलब है कि मि. एक्स, मि. इंडिया और गायब में अदृश्य होने वाले पात्र का आकल्पन पुरुष की तरह किया गया है। अदृश्य होने की क्षमता कभी स्त्री पात्रों को नहीं दी गई।यह सुखद खबर है कि फौज में उच्चतम पद स्त्रियों को दिया जा सकेगा। आबिद सूरती धर्मयुग के लिए ‘डब्बूजी’ नामक कार्टून बनाते थे। उन्होंने अनेक कथाएं और उपन्यास भी लिखे हैं। उनकी एक कथा में पात्र को समुद्र तट पर एक चश्मा मिलता है, जिसे लगाते ही वह अदृश्य हो जाता है। अदृश्य होकर वह अपने परिवार और मित्रों के बीच जा पहुंचता है। उसे घोर दुख होता है कि किसी को उससे प्रेम नहीं था और वह उनके जीवन में तकई उपयोगी नहीं था। स्मरण आता है कि एलिया कजान के उपन्यास ‘द अरेंजमेंट’ में नायक की कार दुर्घटनाग्रस्त होती है।अस्पताल में वह नीम बेहोशी में यह सुनता है कि डॉक्टर को आशंका है कि उसकी याददाश्त जा सकती है। वह याददाश्त जाने का अभिनय करता है तो सारे रिश्तों का खोखलापन उजागर हो जाता है। गौरतलब है कि हमारे बारे में अन्य क्या सोचते हैं, यह जान लेना सुविधाजनक व्यवस्था को भंग कर देता है। सत्य से सामंजस्य स्थापित करने के लिए बड़ा साहस चाहिए। गायब होने का कीमिया हासिल करने वाले व्यक्ति के मन में देखे जाने की इच्छा जागृत होती है तो वह वस्त्र धारण करता है।वस्त्र दिखाई देते हैं, मनुष्य नहीं। इस तरह के मनुष्य का नाम नागरिकता के रजिस्टर में कैसे दर्ज होगा? बहरहाल, मि. इंडिया के नए संस्करण में बहुत संभावनाएं हैं। रणवीर सिंह आधी फिल्म में दिखाई नहीं देंगे, परंतु मेहनताना पूरा पाएंगे। क्या नए संस्करण में सलीम और जावेद को क्रेडिट दिया जाएगा? Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today मि. इंडिया फिल्म का पोस्टर। Full Article
india news सरकार के नाजायज तर्कों पर सुप्रीम कोर्ट का जायज गुस्सा By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:37:00 GMT देश में स्वच्छ कानून व्यवस्था की दुहाई के बीच सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा का भरी अदालत में यह कहना कि ‘देश में कानून नहीं बचा, पैसे के दम पर हमारे आदेश रोके जा रहे हैं, कोर्ट को बंद कर दो। अब देश छोड़ना ही बेहतर है’ मौजूदा सरकारी सिस्टम का एक विश्लेषण है। अदालती आदेशों की अवमानना सरकारी फितरत है।हर सरकार अपने नजरिये से अदालत की अवमानना करती है और अपनी सहूलियत से आदेशों की व्याख्या करती है। टेलीकाॅम कंपनियों के मामले में जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं, वे चौंकाने वाली हैं। आर्थिक मोर्चे पर जूझ रही सरकार को टेलीकॉम कंपनियों से 1.47 लाख करोड़ वसूल हो जाएं तो सेहत तो सरकार की ही सुधरेगी या अदालत की? कोर्ट को बकाया की फिक्र है और सरकार बेफ्रिक।क्या दूरसंचार विभाग का एक डेस्क ऑफिसर अदालत के स्पष्ट आदेश को यह कहकर रोक सकता है कि न कंपनियों पर बकाया भुगतान का दबाव बनाए और न ही कोई कार्रवाई करे। डेस्क ऑफिसर के इस फरमान से सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश रुक गया जिसमें उसने टेलीकॉम कंपनियों को एजीआर की पूरी रकम 23 जनवरी तक चुकाने को कहा था।सबसे बड़ा सवाल यह है कि डेस्क अफसर बिना सरकारी शह के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नहीं मानने की हिम्मत जुटा सकता है? या वसूली की इस कार्रवाई के पीछे सरकार का कोई इंट्रेस्ट है? इस पूरे मामले कि एक सच्चाई यह भी है कि जिन कंपनियों से यह वसूली होनी है, उनके पास लौटाने को कुछ नहीं है।दूर संचार विभाग ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाकर कहा है कि अभी टेलीकॉम कंपनियों पर कोई कार्रवाई न की जाए। विभाग यह नहीं बता पा रहा है कि कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए। स्पष्ट तौर पर बताना चाहिए कि कार्रवाई नहीं करने के तर्क के पीछे सरकार का रुख क्या है? आदेश पारित हो जाने के बाद आदेश की अवमानना करना कितना उचित है?टेलीकाम कंपनियों से जितनी बड़ी रकम की वसूली होनी है, उससे बड़ी मुश्किल यह है जो सरकार अदालत में बता नहीं पा रही है कि कंपनियों को एजीआर की यह रकम चुकाने के लिए भी बैंकों से लोन लेना पड़ेगा। दूसरी बात वे सारी टेलीकॉम कंपनियां इस वक्त घाटे में चल रही हैं। इस घाटे को पूरा करने के लिए 40% तक डेटा चार्ज भी बढ़ाया गया। बाद में देनदारियों को घाटे में जोड़कर दिखाया, लेकिन फिर भी बकाया नहीं चुकाया जा सका।देश में संचार क्रांति के बावजूद टेलीकाॅम कंपनियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं है। प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ में कंपनियां एक-दूसरे को पछाड़ने और आगे निकलने की होड़ में फंसी हैं। हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं। सरकार की मुश्किल समझ में आ रही है कि देश की चार बड़ी टेलीकॉम कंपनियों को बंद होने से कैसे बचाया जाए।एक तरफ कोर्ट का आदेश है तो दूसरी तरफ इन कंपनियों पर मंडराता खतरा। आर्थिक रूप से देश में बन रहे नकारात्मक माहौल के बीच इन कंपनियों की गिरती हालत से कई लोगों के बेरोजगार होने का भी डर है। सरकार अगर गंभीरता से अदालत में तर्क रखती तो उसे तो काेर्ट से फटकार सुननी नहीं पड़ती, हो सकता है इन कंपनियों को पैसा चुकाने का समय भी मिल जाता। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today फाइल फोटो। Full Article
india news संतुलित रहेंगे तो उपेक्षा असर नहीं करेगी By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:41:00 GMT धीरे-धीरे यह बात तय हो गई है कि मनुष्य सबसे ज्यादा आहत अपनी उपेक्षा से होता है। कोई हमारा अपमान कर दे, तो भी चलता है। अपमान करने वाला बड़ा है, समर्थ है तो हम उस अपमान को स्वीकार कर लेते हैं। वहीं यदि अपमान करने वाला छोटा है तो भी अपने आपको समझा लेते हैं कि ठीक है, इसके मुंह क्या लगना..।ऐसा ही मान के मामले में भी है। मान मिले तो लोग खुद को समझा भी लेते हैं कि जो-जितना मिल रहा है, ठीक है। ज्यादा अहंकार के चक्कर में नहीं पड़ें। लेकिन, यदि किसी की उपेक्षा हो जाए तो वह बड़ा परेशान हो जाता है। इस दुनिया में मनुष्य से मनुष्य ने जितने बदले लिए, उनके पीछे बड़ा कारण उपेक्षा भी रहा। कोई भी उपेक्षित नहीं रहना चाहता।किसी भिखारी को या तो आप कुछ दे दो या साफ इनकार कर दो, वह चुपचाप चला जाएगा। यदि उसे अनदेखा कर खड़ा रखा तो जाते-जाते वह भी दो बात सुनाकर चला जाता है। आज हम मनुष्यों के साथ ऐसा ही हो गया है। यदि कोई हमें उपेक्षित कर दे कि झगड़ा चालू..। भारत के परिवारों में सदस्यों के बीच सर्वाधिक शिकायत इसी बात की रहती है कि हम सबके साथ रहते हुए भी उपेक्षित हैं।पत्नी को शिकायत है पति पूछते नहीं, पति की शिकायत है पत्नी उपेक्षा करती है। ऐसा घर के बाकी सदस्यों में भी एक-दूसरे के प्रति हो सकता है। इसलिए जब कोई उपेक्षा करे, आप बिलकुल तटस्थ हो जाएं, संतुलित हो जाएं। बस, फिर उपेक्षा भी अशांत नहीं करेगी। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news संघ प्रमुख की सलाह पर क्या भाजपा आत्मावलोकन करेगी By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:44:00 GMT राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने एक पुस्तक के विमोचन पर गांधी को उद्धृत करते हुए कहा कि अगर गलती हो जाए तो उसकी जिम्मेदारी लेते हुए उसका प्रायश्चित किया जाना चाहिए। देश के गृहमंत्री ने माना कि चुनाव में कुछ नेताओं द्वारा गलत नारे या स्तरहीन आरोप लगाने से पार्टी को दिल्ली चुनाव में नुकसान हुआ। शायद यही कारण था कि नए पार्टी अध्यक्ष ने बिहार से एक केंद्रीय मंत्री को बुलाकर सख्त हिदायत दी कि भड़काऊ और सांप्रदायिक बयान देना बंद करें।पार्टी के इस मोदी काल (जिसे पार्टी का स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है) में दिल्ली की हार इस दल की पिछले दो सालों में सातवीं हार है। कहते हैं हार से सीख मिलती है, लेकिन ताजा जानकारी के मुताबिक भाजपा आगे आने वाले चुनावों में भी इसी के इर्द-गिर्द अपनी पूरी चुनावी रणनीति बनाएगी। यानी बिहार चुनाव में भी ध्रुवीकरण वाले मुद्दे उभरेंगे। क्या भाजपा के पास कोई और विकल्प नहीं है? क्या दिल्ली सरकार की तरह बिहार में भी चुनाव पूर्व के कुछ महीनों में दिल्ली की तरह का सक्षम प्रशासन व जनोपादेय विकास देकर वोटरों को नहीं खींचा जा सकता है?चुनाव जीतने के लिए इसी मुद्दे पर टिकना क्यों जरूरी है? बिहार में तो आबादी घनत्व देश के अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा है, लिहाजा जनता को सामान या सुविधाओं की डिलीवरी राजस्थान सरीखे कम आबादी घनत्व वाले राज्यों के मुकाबले काफी आसान है। ऐसे में वन्दे मातरम् न बोलने वालों को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वालों या ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सा..को’ कहलवाने वाले बयानवीरों को बेलगाम छोड़ना जरूरी है। संघ प्रमुख ने कहा कि गांधी अपने को कट्टर सनातनी हिंदू कहते थे। सनातन हिंदू विविध पूजा-पद्धति के अनुयाइयों में भेद नहीं करता।लेकिन, क्या आज की भाजपा ऐसे नेताओं के खिलाफ कोई करवाई न करते हुए इसकी मूक इजाजत भी देती है? कई बार ऐसे बयानवीरों की सुरक्षा भी बढ़ा दी जाती है और इस भड़काऊ बयान के पुरस्कार स्वरूप अक्सर ऊंचे सदन की सदस्यता से भी नवाजा जाता है। नतीजा यह होता है कि पार्टी की नज़र में अच्छा बनने की होड़ में आक्रामक हिंदुत्व का प्रदर्शन होता है। भाजपा नेतृत्व को ऐसे बयानवीरों से बचना होगा, ताकि विकास का माहौल बने। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत। Full Article
india news ‘पैरासाइट’ से बॉलीवुड क्यों शर्मिंदा न हो? By Published On :: Tue, 18 Feb 2020 18:48:00 GMT हॉलीवुड में आज इस बात पर चर्चा बंद नहीं हो रही है कि किस तरह से एक दक्षिण कोरियाई फिल्म पैरासाइट ने सबटाइटिल की एक इंच की बाधा को पार किया और ऑस्कर में सर्वोच्च पुरस्कार पाने वाली पहली विदेशी फिल्म बनी। मेरे जैसे भारत के फिल्मों के शौकीन के लिए पैरासाइट ने फिर एक बार से वही पुराना सवाल खड़ा कर दिया है कि दुनिया में सर्वाधिक फिल्में बनाने वाला भारत क्या एक ऐसी अच्छी फिल्म नहीं बना सकता, जो एकेडमी पुरस्कार के लायक हो?भारत ने कभी सर्वोत्तम विदेशी फिल्म का पुरस्कार भी नहीं जीता है। ऐसा नहीं है कि उसके प्रयासों में कमी रही। 1957 में इस पुरस्कार की स्थापना के बाद से उसने कम से कम 50 बार प्रविष्टि दाखिल की है। केवल फ्रांस और इटली ही ऐसे हैं, जिन्हाेंने भारत से अधिक बार अपनी प्रविष्टियां दाखिल की हैं, लेकिन उन्होंने कई बार पुरस्कार भी हासिल किया है। केवल यूरोपीय फिल्म पॉवरहाउस ही ऑस्कर में चमके हों, ऐसा नहीं है। 27 देशों की फिल्मों को सर्वोत्तम विदेशी फिल्मों का पुरस्कार मिला है। इनमें ईरान, चिली व आइवरी कोस्ट भी शामिल हैं।भारत के समर्थक इसके लिए कई तरह की दलीलें देते हैं कि भारतीय प्रविष्टि को चुनने वाली कमेटी ने कमजोर चयन किया। जो कंटेट भारतीय दशकों को भाता है वह वैश्विक दर्शकों को पसंद नहीं आता। हमारा घरेलू बाजार ही बहुत बड़ा है और हमें अंतराराष्ट्रीय दर्शकों को खुश करने की जरूरत ही नहीं है। इन सबसे ऊपर, भारतीय फिल्में विश्व स्तर की हैं, लेकिन एकेडमी पक्षपाती है और गुणवत्ता की पारखी नहीं है। इनमें से कोई भी दलील मामूली या सामान्य जांच में भी टिक नहीं सकती।भारतीय फिल्में ऑस्कर ही नहीं, बल्कि हर प्रमुख फिल्म समारोह में लगातार मुंह की खा रही हैं। इनमें से बहुत ही कम कान, वेनिस या बर्लिन में मेन स्लेट में जगह बना पाती हैं। कोई भी भारतीय फिल्म आज तक कान में पाम डी’ऑर या फिर बर्लिन में गोल्डन बियर नहीं जीत सकी। इसलिए यह कहना पूरी तरह भ्रामक है कि दुनिया में फिल्मों का आकलन करने वाले सभी जज भारतीय फिल्मों को लेकर गलत हैं।ठीक है, मीरा नायर ने वेनिस में मानसून वेडिंग के लिए सर्वोच्च पुरस्कार जीता दो दशक पहले 2001 में। और उन्होंने अपने अधिकांश कॅरियर में भारतीय फिल्म उद्योग के बाहर ही काम किया है। सच यह है कि भारत विश्व स्तर की फिल्में नहीं बना रहा है और यह सिर्फ कुछ समय से ही नहीं है। दुनिया के प्रमुख फिल्म आलोचकों द्वारा न्यूयॉर्क टाइम्स से लेकर इंडीवायर तक सभी प्रकाशनों में आने वाली सूचियों पर नजर डालेंगे तो पिछले एक साल, एक दशक या फिर एक सदी या अब तक की टाॅप फिल्मों की सूची में एक भी भारतीय फिल्म नहीं दिखेगी।करीब एक साल पहले बीबीसी ने 43 देशों के 200 फिल्म आलोचकों के बीच कराए गए सर्वे के आधार पर 100 विदेशी सर्वकालिक फिल्मों की सूची बनाई थी। इसमें सिर्फ सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली ही स्थान बना सकी थी और यह फिल्म भी 1955 में रिलीज हुई थी। इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय निर्देशकोंको विदेशी समीक्षकों और वैश्विक दर्शकों के लिए फिल्म बनानी चाहिए। वे मानवीय भावनाओं को झकझोरने में सक्षम महान फिल्में बना सकें और कम से कम एक भारतीय फिल्म तो कभीकभार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान पा सके।चीन, जापान और ब्राजील की फिल्म इंडस्ट्री भी सिर्फ अपने घरेलू दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बनाती है, लेकिन ऑस्कर, फिल्म समारोहों और प्रसिद्ध समीक्षकों के बीच उनका प्रदर्शन भारत से कहीं अच्छा रहता है। अंतरराष्ट्रीय दर्शकों की नजर में आने से पहले ही पैरासाइट दक्षिण कोरिया के सिनेमाघरों में सनसनी फैला चुकी थी। फिर भारतीय सिनेमा के खराब स्तर की वजह क्या है? फिल्में लोकप्रिय संस्कृति से प्रवाहित होती हैं, लेकिन हम सेलेब्रिटी को लेकर इस हद तक जूनूनी हैं कि वह गुणवत्ता खराब कर रहा है।किसी भी अन्य प्रमुख फिल्म इंडस्ट्री मेंसितारे फिल्म के बजट का इतना बड़ा हिस्सा नहीं लेते हैं कि निर्माता के पास स्क्रिप्ट, संपादन और उन बाकी कलाओंके लिए पैसे की कमी हो जाए, जिनसे महान फिल्म बनती है। कई बार स्क्रिप्ट स्टार को ध्यान में रखकर लिखी जाती है न कि कहानी को और यही सबसे बड़ी वजह है कि हमारी फिल्मों के प्रति अंतरराष्ट्रीय आलोचक उदासीन रहते हैं।भारत को इससे बेहतर की उम्मीद करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जो भारी भरकम भारतीय दल जाता है, उसका फोकस फिल्म के कंटेट की बजाय इस बात पर अधिक रहता है कि हमारे स्टार रेड कारपेट पर क्या पहन रहे हैं। वहां से लौटकर मीडिया भी उन ब्रांडों की क्लिप चलाते हैं, जो भारत में अपना सामान बेचना चाहते हैं, लेकिन इस बात पर कुछ नहीं कहते कि भारत बार-बार खाली हाथ क्यों लौट रहा है। वे बहुत कम की उम्मीद करते हैं और वही पाते हैं।इसे बदलने के लिए घरेलू फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अधिक से अधिक लोगों को इस मध्यमता को पहचानने की जरूरत है और एक विश्व स्तर का कंटेंट बनाने के लिए भीतर से तीव्र इच्छा जगाने की जरूरत है। ऐसा दबाव बनने के कुछ संकेत भी हैं। पिछले कुछ सालों में बड़े स्टार वाली फिल्में जहां धड़ाम हो गईं, वहीं कम बजट की और अच्छी कहानी वाली फिल्मों का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा।बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की संख्या स्थिर रहने और लाइव स्ट्रमिंग, डिजिटल गेमिंग के साथ ही स्क्रीन मनोरंजन के कई अन्य विकल्पों के उभरने से भारतीय निर्माताओं को यह समझने की जरूरत है कि व्यावसायिक रूप से बने रहने के लिए क्वालिटी ही एक मात्र रास्ता होगा।तब तक न्यूयॉर्क में रहने वाला मुझ जैसा भारतीय सिनेमा का फैन मैनहट्टन के उस एकमात्र थिएटर में जाता रहेगा, जो हिंदी फिल्म दिखाता है। यह उस देश से जुड़े रहने का एक जरिया है, जिसे मैं बहुत प्यार और याद करता हूं। मैं यह उम्मीद करना भी जारी रखूंगा कि भविष्य में एक दिन मुझे पैरासाइट जैसी एक भारतीय फिल्म मिलेगी। (यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today पैरासाइट फिल्म का दृश्य। Full Article
india news कानून से नहीं, सोच बदलने से ही मिलेगी बराबरी By Published On :: Wed, 19 Feb 2020 23:32:00 GMT सेना में महिलाओं को कोर कमांडर बनाने का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया। इस फैसले के जरिये रूढ़िवादी सोच पर कोर्ट के प्रहार ने हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया है। क्या कोर्ट के फैसले से ही हमारी आधी आबादी को बराबरी का दर्जा मिल जाएगा? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि बराबरी का दर्जा नारों और वादों की ही बात होकर रह गई है। सेना में भी अधिकार लेने के लिए महिलाओं को 17 वर्ष की लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। फिर आम जीवन में तो सपने जैसा है, क्योंकि हर छोटे-बड़े काम में तो कानूनी फैसले लाए नहीं जा सकते न।जिस बराबरी के दर्जे की आदर्श बातें हो रही हैं, उनके लिए लंबा इंतजार ही करना पड़ेगा। जहां पर कानूनी बाध्यता के चलते महिलाओं को मौका दिया भी जा रहा है, वहां केवल औपचारिकता ही नजर आती है। इसको मौजूदा राजनीतिक ढांचे से समझा जा सकता है। पंचायतों में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने का कानून बन गया है। महिलाएं स्थानीय चुनाव जीत भी रही हैं पर बाद में होता क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। पंचायतों और निकायों में महिलाएं पंच और पार्षद तो चुनी जा रही हैं पर उनके साथ चलने लगा है एक शब्द-पीपी।पीपी यानी पार्षद पति-पंच पति। चुनाव महिलाएं जीतती हैं और राज करते हैं उनके पति। शत-प्रतिशत भले न सही पर ज्यादातर मामलों में हो ऐसा ही रहा है। मतलब साफ है। महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने में शायद समय लगेगा। कितना यह तो नहीं पता, लेकिन देश और दुनिया में आदर्शों से सीख लेनी होगी। घर में बचपन से शुरू होती है लाइन- तू लड़की है। अरे वो लड़के वाले हैं।अरे घर तो पुरुष ही चलाते हैं। इसी तरह की बातों ने हमारी सोच को बदलने से रोका है। दुनिया में हमारे देश का नाम रोशन करने वाली बैडमिंटन सुपर स्टार साइना नेहवाल का उदाहरण ही देखिए। जब वे पैदा हुईं, तब उनकी दादी ने एक महीने तक उनका मुंह नहीं देखा था। उन्हें पोते की चाह थी। बात सोच की है। इसलिए उस इलाके में पुरुष प्रधान समाज हावी है। महिलाओं के अनुपात के नजरिये से देखें तो 30 वें स्थान पर।दूसरी ओर केरल, जहां महिलाएं, पुरुषों के अनुपात में सबसे अधिक हैं। एक हजार पुरुषों में 1084। वहां शत-प्रतिशत साक्षरता और महिलाओं को काम करने की आजादी है। केरल की महिलाएं न केवल देश में बल्कि विदेश के भी बड़े से बड़े अस्पताल में नर्सिंग का दायित्व निभाते हुए मिल जाती हैं। एक और उदाहरण है, महिला-पुरुष अनुपात में शीर्ष पांच राज्यों में शुमार छत्तीसगढ़ का। तीजन बाई किसी पहचान की मोहताज नहीं।पंडवानी गायिका-पद्मश्री-पद्म विभूषण। पूरे राज्य के लिए गौरव। यही कोई चार साल पुरानी बात है। देश के राष्ट्रपति ने चुनिंदा लोगों को राष्ट्रपति भवन में भोज पर आमंत्रित किया था। उनमें से एक तीजन बाई भी थीं। तीजन बाई ने ऐन वक्त पर राष्ट्रपति का आमंत्रण स्वीकार नहीं किया, क्योंकि तीजन बाई को नातिन हुई थी। तीजन से पूछा गया कि आप क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा था- नातिन घर में आई है। इससे बड़ा अवसर मेरे लिए कोई और नहीं हो सकता।इस तरह की सोच ही सार्थक परिणाम दे सकती है। और सोच दिखावे से नहीं, मन से निकलती है। मन तैयार होता है बचपन से दी गई शिक्षा से। घर में बताइए। स्कूल में पढ़ाइए। समाज में बताइए। काम से जताइए तब सोच बदलेगी। तब हमें बराबरी पर खड़ा करने के लिए कानून की जरूरत नहीं पड़ेगी।सोच बदलेगी तब हम कह सकेंगे-तुम और मैं हैं आधे-आधेहम दोनों से है पूरी दुनियाइस दौर में कदम बराबर हैंजितनी मेरी उतनी तेरी दुनिया Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news आपकी नम्रता ही ऊंचाई पर ले जाती है By Published On :: Wed, 19 Feb 2020 23:35:00 GMT क्या विनम्र होना, किसी के आगे झुक जाना कमजोरी या मूर्खता है? आजकल विनम्र व्यक्ति को लेकर कुछ लोग ऐसा ही मान लेते हैं। वेदों में कुछ मंत्र तो गज़ब के आए हैं। एक मंत्र है- ‘नम इदुग्रं नम आ विवासे नमो दाधार पृथिवीमुत द्याम्। नमो देवेभ्यो नम ईश एषां कृतं चिदेनो नमसा विवासे।।’ इसका मतलब है- नम्रता ही ऊंची है, मैं नम्रमा की उपासना करता हूं।उस नम्रतारूपी परमेश्वर ने पृथ्वी और स्वर्ग को धारण किया है। सब देवों के लिए नम्रतापूर्वक नमस्कार। जो पाप मैंने किए हैं, वो सब नम्रता से दूर करता हूं। यहां नम्रता शब्द को परमेश्वर कहा गया है। परमात्मा को निरहंकारी हृदय ही पकड़ सकता है। अहंकार गिराने के लिए विनम्रता बड़ी उपयोगी होती है। तीन अक्षरों का मंत्र है- ‘ऊँ नमो’। इसमें ऊँ और नमो दोनों भगवान के नाम बताए गए हैं।नाम शब्द नम धातु से बना है और इसी में नम्रता, नमस्कार समाया हुआ है। महापुरुषों ने परमात्मा को संबोधित करते हुए प्रार्थना की है- ‘हे नम्रता के सम्राट, अपनी नम्रता तू हमें दे दे’। ईश्वर सचमुच बड़ा विनम्र है। सबकी मदद करता है और अपने किए हुए का उसे अहंकार भी नहीं होता।नमो यानी नमने वाला, झुकने वाला। नम्रता का एक अर्थ लचीलापन भी होता है और जिसमें लचीलापन होगा, उसमें तनाव भी कम होगा। इसलिए खूब काम कीजिए, नाम-पद-प्रतिष्ठा कमाइए, लेकिन अपनी नम्रता बचाए रखिएगा। एक दिन यही नम्रता आपको उस ऊंचाई पर ले जाएगी, जहां आप सफल भी होंगे, प्रसन्न भी रहेंगे..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news सिर्फ इश्तिहार से तो नहीं रुकेगा राजनीति का अपराधीकरण By Published On :: Wed, 19 Feb 2020 23:38:00 GMT उत्तर बिहार के एक जिले में एक अपराधी किस्म के नेता के बारे में मतदाताओं की राय कुछ इस तरह है, ‘भले ही वह खतरनाक गुंडा है पर सिर्फ अमीरों को लूटता है, गरीबों की शादी में अक्सर मदद करता है’। यह तथाकथित रोबिनहुड अपराधी प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर लोकसभा में जनता के ऐसे आशीर्वाद की वजह से चार बार पहुंच चुका है।ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का भारतीय राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ यह फैसला कि राजनीतिक दल किसी प्रत्याशी को टिकट देने के कारण और उस पर मुकदमे का पूरा ब्योरा इश्तिहार के जरिये जनता को बताएं, शायद ही कारगर हो। पिछले 15 सालों में अपराधियों के चुनाव में जीतने का चांस किसी शरीफ प्रत्याशी की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा है और यही कारण है कि अपराधियों को टिकट देने में साढ़े तीन गुना (2004 में 486 और 2019 में 1506) वृद्धि हुई।इस दौरान संसद पहुंचने वाले अपराधियों की संख्या 125 से बढ़कर 236 हो गई। बिहार में सजा की दर मात्र नौ प्रतिशत है, यानी सौ में से 91 छूट जाते हैं। केरल में इसके ठीक उलट सौ में से 91 को सजा होती है। ऐसे में किसी प्रत्याशी पर कितने मुकदमे हैं, यह जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि बिहार या उत्तर भारत का मतदाता यह जानता है कि जो अपराधमुक्त है वह भी दूध का धुला नहीं है और जिसके खाते में मुकदमा दर्ज है, उसके छूटने की संभावना भी 91 फीसदी है।अदालत ने यह भी कहा है कि राजनीतिक दल इश्तिहार में यह भी लिखें कि किस कारण से अपराधी चरित्र के प्रत्याशी को अन्य गैर आपराधिक चरित्र वाले के मुकाबले बेहतर मानकर टिकट दिया गया। जाहिर है, पार्टियां एक ही जवाब देंगी कि गलत फंसाया गया है और अभी दोष सिद्ध नहीं हुआ है।दरअसल, स्वस्थ जनमत बनाने की पहली शर्त है, लोगों का तार्किक और वैज्ञानिक सोच का होना और दूसरी शर्त है सभी सूचनाएं उपलब्ध होना। अगर एक व्यक्ति या गांव सिर्फ इसलिए किसी को वोट देता है कि वह अपनी जाति का है या ऐसा गुंडा है जो जाति के लोगों को नहीं सताता तो शासन का पिरामिड कैसा होगा, समझा जा सकता है। जरूरत सोच बदलने की है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news क्या हॉलीवुड का ‘जोकर’ भी शहरी नक्सली है? By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 00:06:00 GMT मैं निराश हूं। मुझे उम्मीद थी कि ‘जोकर’ को बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिलेगा। शुक्र है कि जोकिन फीनिक्स को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिल गया। जोकर न केवल एक महान फिल्म है, बल्कि यह आज के समय में एक साहसिक राजनीतिक बयान भी है। खासतौर से यहां भारत में रहने वालों के लिए। यह एक ऐसे छोटे व्यक्ति की कहानी है, जो अपनी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए बहुत मेहनत कर रहा है, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो बिना किसी कारण के लगातार और हर मोड़ पर उस पर धौंस जमाते हैं और परेशान करते हैं, जिससे उसकी निजता भी खतरे में पड़ जाती है।इस फिल्म को देखकर आपको अहसास होगा कि काल्पनिक शहर गॉथम कितना वास्तविक है। अब यह सिर्फ कॉमिक बुक की कल्पना नहीं है। यह वह दुनिया है, जहां आप और मैं रहते हैं। यह सब जगह रहने वाले आम लोगाेंकी कहानी है। जो उस समय आसानी से चोट खा बैठते हैं, जब किसी की परवाह न करने वाली असभ्य दुनिया प्रभुत्व के अपने बेढंगे सपने के पीछे अपनी धुरी पर घूमती है। ये वो हैं जो सबसे असुरक्षित और सबसे हारे हुए हैं। इन्हें सबसे अधिक तनाव यह बात देती है कि उनके अपने लोग ही नहीं समझते की असल में हो क्या रहा है। वे राजनीति द्वारा उनके चारों ओर बनाए गए कल्पना और शक्ति के प्रेत के पीछे भागने में व्यस्त हैं।टाॅड फिलिप्स द्वारा लिखी इस शानदार प्रतीकात्मक कहानी में अंतत: जोकर एक तरह की अनिच्छा से अवज्ञा का एक कदम उठाकर अपनी क्रांति को प्रज्ज्वलित कर देता है, जो उसे खुद के बारे में सोचने की हिम्मत देता है। इससे उसके चारों ओर की दुनिया में यह ज्वाला भड़क उठती है। हर जोकर सड़क पर होता है, लड़ता हुआ, दंगा और आगजनी करता हुआ। वे एक जोशीले हीरो की तलाश में थे, जो परिवर्तन के लिए प्रेरित कर सके, जो इस दुनिया को सभी के लिए रहने का एक अच्छा स्थान बना सके। और अपने नायक जोकर में उन्हें वह नजर आ गया। यहां पर उसे तलाशना नहीं पड़ेगा।हीरो यहीं है, उनके बीच में। वे ही हीरो हैं। जोकर जो भी करता है वह उनके गुस्से और दुखों की छवि है। फिलिप्स ने अपनी फिल्म से यही संदेश दिया है, जिसे भुलाने में हमें लंबा समय लगेगा। यह उस साहस के बारे में है, जो कमजोर में हताशा से पैदा होता है। ऐसा साहस जो अपनी आवाज को पाने के लिए हर तरह के डर और अनिश्चितता को खारिज कर देता है। यह अकेले, हारे हुए, डरे हुए लोगों का साहस है। यह साहस निडर और बहादुर बने रहने के लिए अपने चारों ओर की दुनिया को चुनौती देता है। यही है जो नायकत्व के लिए जरूरी है और जोकर हमारे समय का हीरो है।जोकिन फीनिक्स ने अपने भाषण में पुष्टि की कि जब उन्हें ऑस्कर मिला तो भीड़ ने ठंडी सांस ली। वह पहले भी अपनी अंतरात्मा से बात कर चुके हैं। गोल्डन ग्लोब में उन्हांेने जलवायु परिवर्तन पर बात की थी। बाफ्टा में उन्होंने नस्लवाद पर बात की। अन्य जगहों पर लैंगिक भेदभाव और महिलाओं को उनकी वाजिब पहचान न मिलने पर बात की। उन्होंने दुनिया में बढ़ रही असमानता पर बात की, जहां 2000 अरबपति 4.6 अरब गरीब लोगों से अमीर हैं।जैसा कि ऑक्सफैम ने इस साल दावोस में ध्यान दिलाया था कि 22 अमीर लोगों के पास अफ्रीका की सभी महिलाओं से अधिक संपत्ति है। भारत के एक फीसदी अमीर लोगों के पास हमारे 95.30 करोड़ लोगोंसे चार गुना अधिक संपत्ति है, ये लोग देश की आबादी का 70 फीसदी हैं। लेकिन, इससे हम मुद्दे से हट जाएंगे।फीनिक्स ने बताया कि किस तरह से सिनेमा का मनोरंजन से अधिक एक बड़ा उद्देश्य है। यह उद्देश्य मूक लोगों को आवाज देना है। उन्होंने दुनिया बदलने की ताकत को इस माध्यम का सबसे बड़ा तोहफा बताया। चाहे यह लैंगिक असमानता हो, नस्लवाद हो, समलैंगिकों के अधिकार हों या फिर अन्य सताए लोगों के हक। यह अंतत: एक बढ़ते अन्याय के खिलाफ एक सामूहिक लड़ाई थी। उन्होंने कहा कि ‘हम एक राष्ट्र, एक व्यक्ति, एक जाति, एक लिंग और एक प्रजाति को प्रभुत्व का हक होने और दूसरे का इस्तेमाल और नियंत्रण की बात कर रहे हैं’।उन्होंने धर्म या जाति का जिक्र नहीं किया, लेकिन अगर उनके जहन में भारत होता तो यह जिक्र भी होता। उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी के लिए भी लालच को जिम्मेदार ठहराया। करोड़ों पशु-पक्षी गायब हो गए हैं, करोड़ों विलुप्त होने की कगार पर हैं, यह सब हमारी वजह से है, हमने उनसे कैसे बर्ताव किया। उन्होंने दूध और डेयरी इंडस्ट्री और उसकी निर्दयता के बारे में भी बात की। एक पूर्ण शाकाहारी (वीगन) फीनिक्स ने कृत्रिम गर्भाधान, बछड़ों को उनकी मां से दूर करना और चाय व कॉफी के लिए दूध के अनियंत्रित इस्तेमाल पर बात की।उन्हाेंने एक अधिक मानवीय दुनिया बनाने की बात की, जहां पर पशुओं को हमारी दया पर न जीना पड़े। उनका भाषण उनके दिवंगत भाई रिवर फीनिक्स की इस कविता से खत्म हुआ : ‘प्रेम से बचाने दौड़ें और शांति अनुसरण करेगी।’ जब जोकर ने सड़कों पर दंगे देखे तो उसने ठीक यही किया। वह जिसके लिए लड़ रहा था वह केवल शांति थी। उन लोगांंे से शांति, जो उसे अकेला नहीं छोड़ते। उनके और उसके जैसों के लिए शांति जो बढ़ते अन्याय से आहत हो रहे थे।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today ‘जोकर’ फिल्म का पोस्टर। Full Article
india news आधुनिक गांवों से ज्यादा सफल हैं जमीन से जुड़े भारतीय गांव By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 00:16:00 GMT आपमें से बहुत से लोगों ने एक्शन से भरपूर हॉलीवुड की टीवी सीरीज ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ और ‘ग्लेडिएटर’ जैसी फिल्में देखी होंगी। इन सीरीज और फिल्म के युद्ध वाले दृश्य मुख्य रूप से आइत-बेन-हदू में फिल्माए गए हैं, जो दक्षिणी मोरक्को का सबसे मशहूर किला है, जिसका प्रवेश द्वार बहुत भव्य है। इस वैश्विक प्रसिद्धि के बावजूद मोरक्को पर्यटन हॉलीवुड से इस कनेक्शन और सीरीज व फिल्म की दुनियाभर में प्रसिद्धि का फायदा अब तक नहीं उठा पाया है। लेकिन भारत में कोंकण के तटों पर बसे एक छोटे से गांव ने हॉलीवुड या बॉलीवुड से कोई कनेक्शन न होने के बावजूद कुछ ऐसा किया है, जिससे मोरक्को पर्यटन कुछ सीख सकता है।महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में स्थित गांव कालींजे देश के किसी भी अन्य गांव जैसा ही है। इसकी आबादी 900 से भी कम है। इतनी कम आबादी के बावजूद यहां के युवा गांव में ही या आसपास नौकरी तलाशने के बजाय सपनों के शहर मुंबई चले गए। इससे कालींजे में मैनग्रोव, जंगल, पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) और फिशिंग (मछली पकड़ने) में गिरावट आने लगी थी। मार्च 2019 में आबादी में ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाली गांव की बुजुर्ग महिलाओं के बीच मरीन इकोलॉजी (समुद्री पारिस्थितिकी) को लेकर जागरूकता बढ़ाने के जो प्रयास शुरू किए गए थे, वे अब रोजगार के अवसरों में बदलने लगे हैं। वह भी कुछ ही महीनों में।गांव के ऐसे बुजुर्गों को 6 महीने तक प्रशिक्षण दिया गया, जिनके पास घर पर करने को कुछ नहीं था। फिर 6 दिसंबर, 2019 को मुबंई से 130 पर्यटकों का पहला दल यहां ट्रिप पर आया। जहां 30 ग्रामीणों ने रुचि दिखाई और शुरुआती प्रशिक्षण लिया, वहीं 10 लोग टूरिज्म सर्किट का हिस्सा बने। उनमें से चार महिलाएं पर्यटकों को मैनग्रोव ट्रेल, पारंपरिक फिशिंग और बर्ड वॉचिंग के लिए ले जाती हैं, जबकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी फॉर मैनग्रोव कायकिंग से प्रशिक्षण प्राप्त दो पुरुष पर्यटकों को वॉटर स्पोर्ट्स के लिए ले जाते हैं। बाकी चार बोट सफारी करवाते हैं।फाउंडेशन से जुड़े संदेश अंभोरे गांव में बनाए गए सभी होमस्टे में ठहरते रहते हैं और स्थानीय लोगों को गांव में जैवविविधता के महत्व के प्रति जागरूक करते हैं। चूंकि गांव के घर काफी बड़े होते हैं और वहां कई कमरे खाली भी पड़े रहते हैं, इसलिए गांव ने होमस्टे के लिए प्रति व्यक्ति, प्रति रात 500 रुपए लेने का फैसला लिया है। शाकाहारी खाना 125 रुपए और मांसाहारी 175 रुपए में मिलता है। एक पारंपरिक फिशिंग टूर 100 रुपए से 250 रुपए का पड़ता है और ग्रुप के आकार पर निर्भर करता है।समुदाय सशक्तिकरण की इस पहल में ज्यादातर ऐसे बुजुर्ग काम कर रहे हैं जो रिटायर हो गए हैं और 60 साल के होने के बाद उनके पास कुछ करने को नहीं है। या फिर इसमें ऐसी गृहिणियां रुचि ले रही हैं जो घर के नीरस कामों से ब्रेक लेना चाहती हैं। ये सभी सोचते हैं कि गांव की जैवविविधता को नष्ट होने से बचाना उनका फर्ज है। इनमें से ज्यादातर के लिए पैसा आकर्षण नहीं है, बल्कि व्यस्त रहना और जीवन में उद्देश्य होना ज्यादा बड़ा आकर्षण है।इस समूह की ज्यादातर महिलाओं ने प्राइमरी स्कूल से आगे पढ़ाई नहीं की है और न ही कभी कोई बिजनेस किया है। उनकी प्रतिबद्धता का यही मुख्य कारण है। स्वाभाविक है कि थोड़ी-बहुत आय से भी वे उत्साहित बनी रहती हैं। मैनग्रोव फाउंडेशन की ऐसी पहलों को महाराष्ट्र के अन्य तटीय शहरों में शुरू करने की योजना है। राज्य की करीब 350 लोकेशंस को साझा ग्रिड से जोड़ने और बेहतर सुविधाएं देने की बड़ी योजना है।फंडा यह है कि जमीन से जुड़े रहना सिर्फ इंसानों पर ही नहीं बिजनेस के आइडियाज पर भी लागू होता है। इससे टिकाऊपन बना रहता है। इसके लिए बस समुदाय सशक्तिकरण और जागरूकता की आवश्यकता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news चक दे इंडिया और महाकवि कबीर By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 00:20:00 GMT हाल में आदित्य चोपड़ा और निर्देशक शामित अमीन की शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘चक दे इंडिया’ दूसरी बार देखने का अवसर मिला। फिल्म पुन: इस तथ्य को रेखांकित करती है कि भारत का अस्तित्व उसकी विविधता में एकता नामक आदर्श के कारण ही है, जिसे खंडित करने के प्रयास लगातार हुए हैं।ज्ञातव्य है कि शामित अमीन यूगांडा से एक तानाशाह द्वारा खदेड़े गए लोगों में से एक रहे हैं। उनका दर्द फिल्म की हर फ्रेम में नजर आता है। फिल्म का सार यह है कि भारत महाकवि कबीर की विविध रेशों से बुनी हुई चादर की तरह ही रहा है। महाकवि कबीर हर कालखंड में प्रासंगिक रहे हैं और आज सबसे अधिक हैं। पारंपरिक शिक्षा से वंचित संत कवि कबीर सदियों से पढ़े-लिखे लोगों का आदर्श रहे हैं। उनके ‘ढाई आखर प्रेम’ की धुरी पर साहित्य सदियों से घूम रहा है।.फिल्मकार के नायक का नाम भी कबीर है। वह भारत की महिला हॉकी टीम का कोच है। प्रशिक्षण कैम्प में विविध प्रांतों से आए हुए खिलाड़ी अपने साथ अपनी प्रांतीयता की संकीर्णता भी लाए हैं। कोच कबीर उन्हें इस संकीर्तणता से मुक्त कराता है। एक घटना द्वारा उन खिलाड़ियों का एक टीम बनना दिखाया गया है। रेस्तरां में जब एक अहंकारी पुरुष महिला खिलाड़ी का अपमान करता है तो सारी महिलाएं दंभी लोगों की जमकर पिटाई करती हैं। इस घटना से उन्हें एकता और टीम स्पिरिट का महत्व समझ में आता है।भारत में खेलों का नियंत्रण करने वाले आला अफसर महिला टीम को धन नहीं देना चाहते। यह तय किया जाता है कि पुरुष टीम और महिला टीम के बीच मैच खेला जाएगा और परिणाम तय करेगा कि महिला टीम को धन दिया जा सकता है क्या? रोमांचक मैच में पुरुष टीम जीत जाती है, परंतु सभी पुरुष खिलाड़ी महिलाओं के जुझारूपन की प्रशंसा करते हैं। कमेटी महिला टीम को धन उपलब्ध कराती है।एक क्रिकेट खिलाड़ी की सगाई महिला हॉकी टीम की एक सदस्य से तय की गई है। महिला तर्क देती है कि सगाई की रस्म टूर्नामेंट के बाद भी की जा सकती है, परंतु क्रिकेट खिलाड़ी महिला हॉकी टीम को हेय समझता है। रिश्ते की इसी गांठ को फाइनल मैच में खोला गया है, जब दो महिलाओं के बीच अधिकतम गोल मारने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। खिलाड़ियों के बीच एकता की भावना उनके व्यक्तिगत रिश्तों में पड़ी गठानों को भी खोल देती है।चक दे इंडिया महज एक खेल फिल्म नहीं है, वरन् यह भारत के समाज का आईना भी है। इस कथा का नायक कोच कबीर है। भारतीय टीम की ओर से पाकिस्तान के खिलाफ खेले गए मैच में उससे एक भूल हो जाती है जो किसी भी खिलाड़ी से हो सकती है, परंतु उसके धर्म के कारण यह अफवाह फैलाई जाती है कि उसने जान-बूझकर गलती की है। अफवाह के कारण उसे अपना पुश्तैनी घर छोड़ना पड़ता है। घर की दीवार पर गद्दार लिख दिया गया है। बाद में सभी जान जाते हैं कि कबीर की खेल नीति के कारण ही टीम ने विश्वकप जीता है।टीम भारत लौटती है तो क्रिकेट खिलाड़ी महिला से विवाह का प्रस्ताव रखता है। महिला कहती है कि यह एक तरफा रिश्ता युवक की तरफ से था, परंतुु अब मेरी भी अपनी अलग पहचान बन चुकी है। अत: इस एक तरफा रिश्ते से वह इनकार कर देती है। इस तरह इस महान फिल्म में बहुत गहराई है और अर्थ की अनेक परतें भी हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में कोच कबीर अपने पुश्तैनी घर लौटता है। पूरा मोहल्ला परेशान है। एक बालक दीवार पर लिखे हुए गद्दार शब्द को मिटा देता है। कबीर अपनी हॉकी स्टिक उस बच्चे को देता है। यह प्रतीक है कि एक पीढ़ी अपना अनुभव और विरासत युवा पीढ़ी को दे रही है।फिल्म में बार-बार महाकवि कबीर की पंक्तियां दोहराई गई हैं। दूरदर्शन ने अन्नू कपूर अभिनीत ‘कबीर’ नामक फिल्म बनाई थी। उसका पुन: प्रदर्शन किया जाना चाहिए। कबीर ऐसी दवा है, जिससे समाज को लगे सभी रोगों का इलाज किया जा सकता है। पेनीसिलीन की खोज के पांच सौ वर्ष पूर्व कबीर नामक एंटीबायोटिक हमें प्राप्त हो चुका था। वर्तमान समाज में इस कबीर एंटीबायोटिक का प्रतिरोध पुरातन अफीम से किया जा रहा है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today फिल्म ‘चक दे इंडिया’ का पोस्टर। Full Article
india news आर्मी लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह बोलीं- पुरुष हमारे खिलाफ नहीं, सरकार उनके कंधे पर बंदूक रखकर चला रही थी By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 05:04:59 GMT नई दिल्ली. थलसेना में महिला अफसरों को कई सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार बराबरी का हक मिल गया। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक अहम फैसले में थलसेना में महिला अफसरों की स्थाई कमीशन देने का रास्ता साफ कर दिया। अब तक सिर्फ पुरुष अफसरों को ही परमानेंट कमीशन मिलता था। शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत अधिकतम 14 साल की सर्विस पूरी करने के बाद स्थाई कमीशन का विकल्प महिलाओं के लिए नहीं था। 11 महिला अफसरों ने थलसेना में बराबरी के हक के लिए 13 साल पहले अपने संघर्ष की शुरुआत की थी। लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह भी इन अफसरों से एक थीं। उन्होंने थलसेना में महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिए जाने की मांग से जुड़ी याचिका दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल की थी। लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह दैनिक भास्कर के साथ इस बातचीत में अपने इस संघर्ष के बारे में विस्तार से बता रही हैं...सवाल: आपकी वर्षों की मेहनत सफल हुई। ये सफर कितना मुश्किल रहा?जवाब: लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह : ये सफर सच में काफी मुश्किल था। हर वो सफर शायद मुश्किल ही होता है, जो बिल्कुल नया रास्ता खोलने के लिए तय किया जाता है। असल में फौज पुरुषों के दबदबे वाली एक संस्था है। हमें सबसे पहले तो उस मानसिकता से ही लड़ना था, जो महिलाओं को मौके देने से भी घबराती है। जिस तरह घर के बड़े-बुजुर्ग कई बार अपने बच्चों के लिए इतने फिक्रमंद हो जाते हैं कि उनकी उड़ान में बाधक बन जाते हैं, फौज भी महिलाओं को लेकर यही रवैया रखती है। हमारी लड़ाई पुरुषों से नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक सोच से रही है।सवाल:जब आपने सेना को बतौर करियर चुना था, तब सोच आज से कहीं ज्यादा मजबूत रही होगी। उस दौर में किसी महिला के लिए सेना में जाना कितना चुनौतीपूर्ण था?जवाब: हां। उस वक्त डॉक्टर और टीचर जैसे दो-तीन ही विकल्प थे, जिन्हें महिलाओं के लिए ठीक समझा जाता था। लेकिन मुझे हमेशा से ही भारतीय सेना आकर्षित करती थी। पिताजी भी फौज में थे और उन्होंने ही मुझे पंख दिए कि मैं ये उड़ान भर सकूं। मैं एनसीसी में सी सर्टिफिकेट ले चुकी थी और एक ग्लाइडर पाइलट भी थी। हम लोग तब एनडीए में फ्लाइंग के लिए जाया करते थे। वहां मैं कैडेट्स को देखकर सोचा करती थी कि मुझे भी आर्मी में ही जाना है। 1991-93 में मैंने ग्रेजुएशन किया। इत्तेफाक से उसी दौरान महिलाओं की शॉर्ट सर्विस कमिशन के जरिए भर्ती शुरू हुई। 1993 में पहली महिला अफसर कमीशन हुई थी। मैंने 1995 में भारतीय सेना जॉइन की। मेरा चयन थलसेना, वायुसेना और नौसेना, तीनों के लिए हो गया था। लेकिन मैंने थलसेना को ही चुना। आज मुझे लगता है मेरा ये फैसला सही भी था।सवाल:क्या इतने साल की सर्विस के दौरान आपको कभी लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा?जवाब: नहीं। मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि मेरे जेंडर के कारण कभी मेरे साथ कोई भेदभाव हुआ हो। मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकती हूं कि देश में महिलाओं के लिए सेना से ज्यादा महफूज और गौरवशाली कोई अन्य संस्था नहीं है। हां, यहां उनके लिए पुरुषों की तुलना में मौके सीमित जरूर थे। यानी बराबरी के मौके नहीं थे। लेकिन इसे लैंगिक भेदभाव कहना शायद ठीक नहीं होगा। ये एक नकारात्मक शब्द है।सवाल:लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे लैंगिक भेदभाव कहा है। कोर्ट में सुनवाई के दौरान तो केंद्र सरकार ने महिलाओं को स्थाई कमीशन देने का विरोध करते हुए यह भी तर्क दिया था कि जवानों को महिला अफसरों से कमांड लेना ठीक नहीं लगेगा। इस पर आप क्या सोचती हैं?जवाब: ये बेहद गलत तर्क है। जब हम एक अफसर की यूनिफॉर्म में होते हैं तो हमारा महिला या पुरुष होना मायने नहीं रखता। जवान उस यूनिफॉर्म से कमांड लेते हैं। जवानों पर उंगली उठाना पूरी तरह से गलत है। इस सुनवाई के दौरान कई जवानों ने मुझसे यह व्यक्तिगत तौर पर कहा है कि सरकार हमारे कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहती है। जवान महिलाओं को स्थाई कमीशन देने के खिलाफ नहीं हैं।सवाल:क्या जवानों और पुरुष अफसरों ने भी इस पूरे संघर्ष के दौरान आप लोगों का साथ दिया?जवाब: हां। उन सभी का साथ हमें मिलता रहा है। लेकिन जब भी इस तरह का कोई बड़ा फैसला लेना होता है तो हर कोई उसकी जिम्मेदारी लेने से बचता है। यही इस मामले में भी होता रहा। फौज और रक्षा मंत्रालय, दोनों ही इस फैसले को खुद से लागू करने से लगातार बचते रहे। उनके सामने दिक्कत ऐसी थी कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने घंटी बांध दी।सवाल:कोर्ट जाने के बारे में आप लोगों ने कब और कैसे सोचा?जवाब: जब ये अहसास हुआ कि मैं फौज नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन फौज मुझे छोड़ रही है। 2006 में एक पॉलिसी आई थी। इसके तहत हमारे पुरुष साथियों को तो स्थाई कमीशन मिल रहा था, लेकिन महिलाओं को नहीं। ये हमें साफ तौर पर गलत लगा। जब हम लोग चुने गए थे, उस वक्त पूरे देश से सिर्फ 20 महिलाओं का ही सेना के लिए चयन होता था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये चयन कितना मुश्किल था। इसके बावजूद हमें कुछ सालों की सर्विस के बाद सेना छोड़ देने को कहा जा रहा था। तब हमने तय किया कि हम चुप नहीं रहेंगे। कुछ महिला अफसरों ने मिलकर संबंधित अफसरों से मिलना शुरू किया। इनमें लेफ्टिनेंट कर्नल संगीता सरदाना, संध्या यादव, रेणु नौटियाल, रीता तनेजा, रेणु खीमा, मोनिका मिश्रा और प्रेरणा पंडित शामिल थीं। हम तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी से लेकर राहुल गांधी, रेणुका चौधरी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और वृंदा करात जैसे कई नेताओं से मिले। हम चाहते तो थे कि ये मामला कोर्ट के दखल के बिना ही निपट जाए, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो हमारे पास कोर्ट जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा। तब 2007 में हम दिल्ली हाईकोर्ट गए।सवाल:2007 में शुरू हुई आपकी कानूनी लड़ाई 2020 में जाकर पूरी हुई। क्या इस दौरान काफी कुछ गंवाना भी पड़ा?जवाब: बहुत कुछ गंवाना पड़ा। 2010 से 2020 का समय मेरा गोल्डन पीरियड था। अगर ये फैसला तब लागू हो गया होता तो दरमियानी सालों में मुझे कितने ही मौके मिल चुके होते। कई प्रमोशन, ट्रेनिंग से मैं वंचित रह गई। वो तमाम मौके जो स्थाई कमीशन वाले अफसरों को मिलते हैं, मुझे नहीं मिले। लेकिन मुझे खुशी है कि जो मौके हमें नहीं मिले, हमारी बेटियों को अब जरूर मिलेंगे। ये तसल्ली है कि हमने उनके लिए तो दरवाजे खुलवा दिए हैं।सवाल:सरकारें लंबे समय तक इस फैसले को लागू करने से बचती रही थीं। क्या आपको लगता है कि इस फैसले को लागू करने में कुछ चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं?जवाब: मुझे नहीं लगता कोई बड़ी चुनौतियां आ सकती हैं। सरकारें इससे इसलिए बचती रहीं क्योंकि कोई भी इतने बड़े फैसले की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था। जब हम कोर्ट गए थे, तब देश में कांग्रेस की सरकार थी। अब सरकार बदले भी 6 साल हो चुके हैं। 15 अगस्त 2018 को प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से ये बात कही थी कि उनकी सरकार ये कदम उठाने जा रही है। इसके बाद भी ये संभव तभी हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुनाया। हालांकि, सरकार में शामिल कुछ लोगों का हमें हमेशा समर्थन मिलता रहा है। मीनाक्षी लेखी जी का तो विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहूंगी, जिन्होंने शुरुआत से इस लड़ाई को लड़ा है। दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन्होंने इतने इतने साल हमारी ये लड़ाई लड़ी और एक पैसा भी फीस के रूप में हमसे नहीं लिया।सवाल:सेना में शामिल होने की इच्छा रखने वाली देश की लड़कियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?जवाब: उनसे यही कहना चाहती हूं कि हमने जो संघर्ष किया, वो असल में उन्हीं के लिए है। हमने एक बंद दरवाजा खोल दिया है। दुनिया को कर दिखाने का हमें मौका न देकर उन्होंने भारी भूल की थी। अब लड़कियों के लिए पूरा आसमान खुला है और मुझे यकीन है कि हमारी बेटियां आसमान से भी ऊंची उड़ान भरने में सक्षम हैं। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today Interview lieutenant colenel seema singh|Army Women Officer Lt Col Seema Singh Bola: Men not against us, government was running with gun on their shoulders Interview lieutenant colenel seema singh|Army Women Officer Lt Col Seema Singh Bola: Men not against us, government was running with gun on their shoulders Interview lieutenant colenel seema singh|Army Women Officer Lt Col Seema Singh Bola: Men not against us, government was running with gun on their shoulders Full Article
india news कैलेंडर के लिए बनाई पेंटिंग्स और नैतिकता By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 19:48:00 GMT एक सफल लोकप्रिय फैशन गुरु ने एक कैलेंडर जारी किया है, जिसमें कुछ मॉडल और फिल्म कलाकारों के साहसी स्थिर चित्र हैं। इस तरह का कैलेंडर वे हर वर्ष जारी करते हैं। इस कैलेंडर को आम आदमी केवल काला बाजार से ही खरीद सकता है। इसकी कीमत इतनी अधिक है कि यह सबके बस की बात नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि तस्वीरों में निर्वस्त्र व्यक्ति नजर आते हैं।इन तस्वीरों को अश्लील नहीं कहा जा सकता, परंतु इनमें नारी शरीर के दिलकश मोड़ उजागर होते हैं। नैतिकता के स्वयंभू चौकीदार नारी देह का ताप सहन नहीं कर पाते। फिल्म पर सेंसर बोर्ड के नियम लागू होते हैं, परंतु कैलेंडर पर यह नियम लागू नहीं होते। किसी भी फिल्म या उपन्यास के खिलाफ अश्लीलता का मुकदमा टिक ही नहीं पाया। वेबस्टर डिक्शनरी में दी गई अश्लीलता की परिभाषा से प्रेरित इंडियन पेनल कोड के अश्लीलता विषयक कानून बने हैं।राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स पर भी अश्लीलता का मुकदमा कायम किया गया था, परंतु निर्णय कलाकार के पक्ष में गया था। केतन मेहता की फिल्म ‘रंगरसिया’ में इसका प्रमाणिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। जलप्रपात के नीचे पानी से अठखेलियां करती हुई महिला के स्थिर चित्र से एक विज्ञापन फिल्म प्रेरित हुई है। राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में भी इसी तरह के दृश्य हैं।ज्ञातव्य है कि फिल्म 1 सेकंड में 24 फ्रेम चलती है। मनुष्य का मस्तिष्क और कैमरा एक जैसा काम करते हैं। गुजरे जमाने में मूलगांवकर नामक पेंटर कैलेंडर के लिए पेंटिंग्स बनाता था। उसकी कृतियों में पुरुष, स्त्रियों से अधिक कोमल नजर आते थे। गोरखपुर स्थित एक प्रेस द्वारा जारी पुरातन आख्यानों की किताब में भी इसी तरह के चित्र दिए जाते थे। आज कैलेंडर की उपयोगिता घट गई है, क्योंकि मोबाइल पर सभी कुछ उपलब्ध है। इसके बावजूद कैलेंडर प्रकाशित होते हैं।एक दौर में शराब का एक खिलंदड़ व्यापारी दर्जनभर स्त्रियों के साथ समुद्र तट पर जाता था। वहां लिए फोटोग्राफ्स का इस्तेमाल कैलेंडर बनाने में किया जाता था। वह बैंक से कर्ज लेकर व्यवसाय खड़े करता था, परंतु कभी कर्ज अदा नहीं करता था। उसके भागने के लिए एयरपोर्ट अलर्ट घोषित करने में विलंब किया गया। हर चोरी में व्यवस्था की भागीदारी रहती है जो पांचवीं फ्रेम की तरह होकर भी दिखती नहीं। भारतीय कथा फिल्म के जनक एक समय दादा साहेब फाल्के ने भी चार रंग के कैलेंडर प्रिंट करने का काम किया था।तांबे या पीतल की एक गोल तश्तरी में 100 वर्ष का कैलेंडर ही होता है। इसे घुमाने पर मनचाही जानकारी प्राप्त हो सकती है। राजकुमार हिरानी की ‘थ्री ईडियट्स’ में ‘चमत्कार-बलात्कार’ भाषण की घटना में हुए अपमान की तारीख पात्र छत पर पानी की टंकी पर अंकित कर देता है और कहता है कि कुछ वर्ष पश्चात इसी दिन हम मिलेंगे और देखेंगे कि कौन कहां पहुंचा। कैलेंडर में एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग का इस्तेमाल नहीं होता।देह को स्पष्ट दिखाने वाले चित्रों का ही उपयोग होता है। कुछ पर्यटक ऐतिहासिक स्थानों पर अपनी यात्रा का दिन लिख देते हैं। कुछ प्रेमी अपनी प्रेमिका का नाम लिख देते हैं। फिल्म गीतकार भी तारीख का इस्तेमाल करते हैं। जावेद अख्तर ने फिल्म ‘तेजाब’ के लिए गीत लिखा था- ‘एक..दो..तीन...चार..’। गीता दत्त का गाया जन्मदिन की बधाई का एक गीत वर्षों आशा भोसले द्वारा गाए गीत की तरह बजाया गया और किसी भी पक्ष ने एतराज दर्ज नहीं किया। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news कितना ‘उत्कृष्ट’ है हमारा काम और बर्ताव? By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 19:53:00 GMT रेल यात्रियों को बेहतर सुविधाएं देने के लिए 400 करोड़ रुपए की लागत से अक्टूबर 2018 में ‘उत्कृष्ट’ योजना शुरू की गई थी। इसके तहत करीब 300 उत्कृष्ट रेल डिब्बों में कई आधुनिक सुख-सुविधाओं के अलावा एलईडी लाइट्स लगाई गईं और बिना बदबू वाले टॉयलेट्स बनाए गए। अब सीधे 20 फरवरी 2020 पर आते हैं। इन 17 महीनों में डिब्बों के टॉयलेट्स और वॉश बेसिन से स्टील के 5 हजार से ज्यादा नल चोरी हो गए।रेलवे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि 80 उत्कृष्ट डिब्बों से स्टील के फ्रेम वाले करीब 2000 आईने, करीब 500 लिक्विड सोप डिस्पेंसर और करीब 3000 टॉयलेट फ्लश वाल्व भी गायब हैं। कुला मिलाकर बदमाशों ने रेलवे के सबसे शानदार उत्कृष्ट डिब्बों में जमकर उत्पात मचाया और टॉयलेट कवर्स और सोप डिस्पेंसर्स तक नहीं छोड़े।जब भी मैं यात्रा कर रही जनता के द्वारा नुकसान पहुंचाने की खबरों के बारे में पढ़ता हूं, मुझे जापान की रेल याद आती है। ये न सिर्फ इसलिए शानदार हैं, क्योंकि साफ हैं, समय पर चलती हैं और सरकार इनमें सबसे अच्छी सुविधाएं दे रही है, बल्कि ज्यादातर जापानी भी यह सुनिश्चित करते हैं कि इन सुविधाओं का कोई भी दुरुपयोग न करे। लेकिन नुकसान पहुंचाने और चोरी को स्पष्ट ‘न’ है! जापान में रेल यात्रा को लेकर एक कहानी है।एक गैर-जापानी ने ट्रेन में सफर करते हुए अपने पैर सामने वाली बर्थ पर रख दिए, क्योंकि वहां कोई नहीं बैठा था। जब स्थानीय जापानी यात्री ने उसे ऐसा करते देखा तो वह उसके पैरों के बगल में बैठ गया और गैर-जापानी यात्री के पैर अपनी गोद में रख लिए। वह यात्री चौंक गया। तब स्थानीय यात्री ने कहा, ‘आप हमारे मेहमान हैं और हमारी संस्कृति हमें मेहमान का अपमान करने से रोकती है, लेकिन हम किसी को अपनी सार्वजनिक संपत्ति का इस तरह अपमान भी नहीं करने देते!’ ऐसी टिप्पणी सुन उस मेहमान की चेहरे की आप कल्पना कर सकते हैं।यही कारण है कि मुझे अहमदाबाद के रीजनल पासपोर्ट ऑफिस (आरपीओ) द्वारा एक साधारण गृहिणी उर्वशी पटेल की खराब स्थिति को देखते हुए एक घंटे के अंदर पासपोर्ट देने जैसे कार्य हमेशा बहुत अच्छे लगते हैं। 51 वर्षीय उर्वशी गुजरात के नडियाड में अपने 21 वर्षीय बेटे और 18 वर्षीय बेटी के साथ रहती हैं।उनके पति 54 वर्षीय विलास पटेल पिछले 8 सालों से केन्या की राजधानी नैरोबी में रह रहे थे। विलास को वहां डायबिटीज के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया था और उनकी स्थिति सुधर रही थी। लेकिन अचानक उनका शुगर लेवल गिर गया और सोमवार को वे डायबिटिक कॉमा में आ गए। एक घंटे में उनकी किडनी फेल हो गईं और डॉक्टरों ने उन्हें सोमवार को ही मृत घोषित कर दिया।उर्वशी अपने पति का अंतिम संस्कार करने के लिए केन्या जाना चाहती थीं, लेकिन उनका दिल टूट गया, जब उनका वीज़ा खारिज हो गया, क्योंकि उनके पासपोर्ट की 6 महीने से भी कम की वैधता बची थी और 29 मई को इसकी समाप्ति तारीख थी। उन्होंने मंगलवार को ऑनलाइन वीज़ा फॉर्म भरने की कोशिश की जो वैधता की समस्या के चलते खारिज हो गया था।चूंकि बच्चों के पासपोर्ट में ऐसी कोई समस्या नहीं थी, इसलिए वे नैरोबी चले गए। दु:ख और सदमे के साथ उर्वशी बुधवार को सुबह 11 बजे अहमदाबाद आरपीओ पहुंचीं। उन्होंने अधिकारियों को अपनी परिस्थिति बताई और एक घंटे के अंदर ही उर्वशी को पासपोर्ट जारी कर दिया गया। वे गुरुवार को नैरोबी के लिए निकल गईं।अगर आपके पास शक्ति है तो वैसा ही करें, जैसा अहमदाबाद आरपीओ ने किया। और अगर आप नागरिक हैं तो वैसा करें, जैसा जापानी नागरिक ने मेहमान के साथ किया।फंडा यह है कि देश हर क्षेत्र में दूसरे देशों से बहुत आगे निकल सकता है, अगर हमारा काम और व्यवहार ज्यादा से ज्यादा ‘उत्कृष्ट’ हो। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news आज मेरे पास गरीबी है, गंदगी है और दीवार है By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 19:58:00 GMT ‘उफ तुम्हारे उसूल, तुम्हारे आदर्श! किस काम के हैं तुम्हारे उसूल! तुम्हारे सारे उसूलों को गूंथकर एक वक्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती।’ इस माह 45 साल पूरे कर रही दीवार फिल्म का डायलॉग। दीवार अभी खबर है। यूं तो केजरी‘वाल’ की जीत के वक्त से ही और क्रिकेटप्रेमियों के लिए नए राहुल... केएल राहुल की बैक टू बैक शानदार पारियों के वक्त से ही। लेकिन अभी ट्रम्प को अहमदाबाद में शाइन करता इंडिया ही दिखे, इसलिए बनाई जा रही दीवार खूब चर्चा में है। सच पर झूठ के रेड कारपेट डालकर शाइनिंग इंडिया में स्वागत करने का सबसे बड़ा खामियाजा 2004 के चुनाव में भाजपा ने भुगता था।फ़िलहाल गुजरात की भाजपा सरकार की तरफ से अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम के पास बन रही 600 मीटर लंबी दीवार से गरीबी ढंकी जा रही है। ट्रम्प के लिए हाइजीन बना रहे इसके लिए इस दीवार के पीछे मौजूद गरीबी की दुर्गंध दबाई जा रही है। ट्रम्प तो कुछ मिनटों में इस बस्ती के पास से गुजर जाएंगे, लेकिन 24x7 इस दुर्गंध में जीने वाले लोगों की भावना जरूर आलेख के शुरू में लिखे दीवार के डायलॉग जैसी होगी।घर आए मेहमान को साफ-सुथरे गिलास में पानी पिलाना शिष्टाचार है, लेकिन परायों को नकली समृद्धि दिखाने के बजाय परिवार को गुणवत्ता वाली जिंदगी दूं तो सार्थक। झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की संख्या पिछले तीन दशकों में दोगुनी हो गई है। एक सरकारी सर्वे के मुताबिक 2011 में मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली में शहरी आबादी का क्रमश: 41 प्रतिशत, 29 प्रतिशत, 28 प्रतिशत और 15 प्रतिशत झुग्गी में रहता है।इन झुग्गियों में औसतन 5 लोग एक कमरे में रहते हैं। दीवार का ही डायलॉग था- ये दुनिया एक थर्ड क्लास का डिब्बा बन गई है... जगह बहुत कम है, मुसाफिर ज्यादा। सिर्फ दिल्ली में ही लगभग सात सौ एकड़ में झुग्गियां हैं और इनमें दस लाख लोग रहते हैं।इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा बुलंद किया था। आज मोदी अपनी हर चुनावी सभा में बड़े एहतियात से मेरे गरीब, मजदूर भाई-बहन बोलते हैं। लेकिन गरीबी हटाई नहीं छिपाई जा रही है।झूठ पर आधारित शासन चलाने वाले ट्रम्प के लिए सच छिपाया जा रहा है। ट्रम्प ने बयान जारी किया- अहमदाबाद के रोड शो में 70 लाख लोग जुटेंगे। प्रशासन कह रहा है एक लाख लोग रहेंगे। पहले बोले 100 झूठ की तरह इस पर भी वे शर्मिंदा नहीं होंगे, लेकिन गरीबी छिपाने की शर्मिंदगी हम जरूर झेल रहे हैं।ताज के पास ट्रम्प को दूषित यमुना से बदबू न आए, इसलिए उसमें 500 क्यूसेक पानी छोड़ा गया है। गरीबी की तरह कभी इस मुद्दे को भी ठीक से संबोधित किया होता तो नौबत नहीं आती। यमुना एक्शन प्लान में 1500 करोड़ खर्च हो जाने और 1100 करोड़ से ज्यादा की एक और योजना के बाद यह नौबत है।व्यापक विरोध के बावजूद मैक्सिको सीमा से घुसपैठ रोकने के लिए ट्रम्प जो दीवार अमेरिका में बनवा रहे हैं, वह आंधी में गिर गई थी। 48 किमी की रफ्तार से आई आंधी ने इसे गिरा दिया। दीवारें गिर जाती हैं। खासकर तब जब वे जनभावना के विरुद्ध हों या सच पर परदा डालने के लिए हों। नमस्ते ट्रम्प। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today फाइल फोटो। Full Article
india news विश्व कल्याण के देवता हैं शिव By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 20:02:00 GMT भगवान शिव कल्याण की विराट परंपरा के प्रतिनिधि हैं। आज दुनिया में जिस तरह का वातावरण है, कल्याण की बड़ी आवश्यकता है। कल्याण शब्द सेवा से भी ऊपर है। सेवा में तो फिर भी कभी-कभी स्वार्थ का भाव आ जाता है, लेकिन कल्याण का मतलब है सेवाओं के सारे स्वरूप एक घटना में समा जाएं। शिव इस मामले में अद्भुत हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनंद के सृजन का उद्घोष है।शिवचरित्र की जितनी कथाएं हैं, उनमें गजब की सच्चाई है। पूरा शिव चरित्र सिखाता है कि सुख और आनंद आप ही के भीतर है। थोड़ा भीतर उतरकर उसे प्राप्त कर लो और फिर दूसरों पर छिड़क दो। अपनी खुशी जितनी दूसरों में बांटेंगे, भीतर उसकी उतनी ही सुगंध बढ़ जाएगी।शिव को सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् इसलिए कहा गया है कि जीवन की सुंदरता की खोज में भले ही पूरे संसार में घूम लें, लेकिन यदि वह आपके भीतर नहीं है तो कहीं नहीं है। हमें उनके इस चरित्र को याद रखना चाहिए। वेदों में तो शिव को अव्यक्त, अजन्मा और सबका कारण बताया है। वे पालक और संहारक दोनों हैं।शास्त्रों में लिखा है देव-दनुज, ऋषि-महर्षि, योगेंद्र-मुनींद्र, सिद्ध-गंधर्व, साधु-संत, सामान्य मनुष्य ये सभी शिव की इसलिए उपासना करते हैं कि ये कल्याण के देवता हैं। आज शिवरात्रि पर जब शिवलिंग पर जल चढ़ाएं तो एक कामना जरूर करें कि हे शिव, केवल मुझ अकेले को नहीं, पूरे संसार का कल्याण कीजिएगा, शांति प्रदान कीजिएगा। यही सच्ची शिवपूजा होगी..। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news अफसरों के राजनीतिकरण से जनता में शासन के प्रति शक By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 20:05:00 GMT मोदी सरकार जॉइंट सेक्रेटरी और ऊपर के पदों पर बाहर से लोगों (विशेषज्ञों) को नियुक्त रही है, जबकि केंद्र के हर पद के लिए 18 योग्य अधिकारी राज्यों से आने को तैयार हैं। माना जा रहा है कि विशेषज्ञों के नाम पर जिन्हें लाया जा रहा है, उनकी एक प्रमुख योग्यता एक खास विचारधारा के लिए प्रतिबद्धता है। अफसरों के राजनीतिकरण का एक नमूना उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली एक मीटिंग में मिला।उसमें एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने जनसंख्या के आधार पर सिविल डिफेंस के प्रखंड बढ़ाने का प्रस्ताव इसलिए रद करने की वकालत की, क्योंकि उसके अनुसार इससे मुसलमानों को लाभ मिलेगा, जिनकी संख्या पिछले 50 वर्षों में बढ़ी है। मीटिंग में बैठे एक अन्य अधिकारी ने मुख्यमंत्री को इस मामले में पत्र लिखा, जिसे मीडिया को भी दिया।शाहीन बाग में भीड़ पर गोली चलाकर एक छात्र को घायल करने वाले युवक को पुलिस पहले तो मूकदर्शक बन देखती रही, फिर बड़े सहज भाव में उससे पिस्तौल लेकर गिरफ्तार कर लिया। अगले कुछ घंटों में डीसीपी ने घोषणा की कि वह युवक आप पार्टी का था। आईपीसी या सीआरपीसी में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि गोली चलाने वाले का राजनीतिक रुझान घोषित किया जाए। हाल ही में चुनाव मंच से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बताया कि कैसे उन्होंने अफसरों को आदेश दिया कि शिव भक्त कांवड़ियों पर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाएं।इसका नतीजा यह था कि एक जिले के उत्साही एसपी ने न केवल कांवड़ियों के पैर धोए, बल्कि वीडियो को मीडिया में और मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुंचाया। पूर्व में केंद्र व राज्य की तमाम सरकारें रोजा इफ्तार करती रही हैं। जिले के अनेक जिलाधिकारी इसका आयोजन करते हैं। सभी दलों के शासन में ऐसा होता रहा है कि अधिकारियों की नियुक्ति में उनके राजनीतिक रुझान को हमेशा वरीयता दी गई।उत्तर प्रदेश में अनेक अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में सक्रिय हुए। हालांकि, प्रजातंत्र की सफलता और जनोपादेयता का आधार सरकार की निष्पक्षता पर टिका होता है। इसके अभाव में सरकारें तो चलती हैं, परंतु रॉबर्ट पुटनम के शब्दों में, इससे सामाजिक पूंजी का जबरदस्त ह्रास होता है जो अंततोगत्वा अशांति पैदा करता है। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news खो गया है दुनिया की प्रशंसा पाने वाला भारत By Published On :: Thu, 20 Feb 2020 20:07:00 GMT हर बार जब मेरी सत्ताधारी दल के नेताओं से बहस होती है और मेरे द्वारा अर्थव्यवस्था, सामाजिक बेचैनी और विभाजित राजनीतिक माहौल पर उठाए बिंदुओं पर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचता तो उनका एक ही जवाब आता है- ‘कम से कम भारत का कद दुनिया में इतना ऊंचा पहले कभी नहीं था’। मैं चौंकता कि इससे पहले ही वे आगे कहते हैं कि ‘पहली बार भारतीय दुनिया में सिर उठा सकते हैं।’ इस दावे की असाधारण असत्यता से भाजपा के प्रचार की ताकत की पुष्टि होती है, जो सोशल मीडिया के जरिये तेजी से फैलता है और इसका बार-बार प्रचारित होना इस दावे को मजबूत बनने के लिए पर्याप्त होता है।लेकिन, सत्य इससे एकदम उलट है। भारत का कद दुनिया में कभी भी नीचा नहीं रहा। ऐसा कहने में मुझे आनंद की अनुभूति होती है। एक विपक्षी सांसद होते हुए भी मैं चाहूंगा कि एक संपन्न लोकतंत्र और विश्व के लिए एक मुक्त और खुले समाज में विविधता को मैनेज करने वाले उदाहरण के रूप में मेरे देश को दुनिया में ऊंचा स्थान और सम्मान हासिल हो।इसकी बजाय, मैं जानता हूं कि कुछ समय से दुनिया उस भारत से परेशान है, जो बहुत ही कट्टर और असहिष्णु दिख रहा है और वह जान-बूझकर अपने ही लोगों के बीच सांप्रदायिकतावादी विभाजन कर रहा है। इस पर अब एक असहिष्णु बहुसंख्यकवाद हावी हो गया है, जिसे दुनिया में कोई पसंद नहीं कर रहा है।दुनिया के हर प्रमुख समाचार पत्र, चाहे वह दक्षिणपंथी वॉल स्ट्रीट जर्नल या फायनेंशियल टाइम्स हो या फिर वामपंथी द गार्जियन या द वॉशिंगटन पोस्ट, सभी ने भारत के बारे में आलोचनात्मक संपादकीय लिखे हैं। इसके अलावा रोजाना की रिपोर्ट हो या ओपेड कॉलम सभी लगातार नकारात्मक हैं। लेकिन आंखों पर पट्टी बांधे भक्तों को यह सब दिखाई नहीं दे रहा है। देश के भीतर भी राजनीतिक मसलों पर अक्सर कम बोलने वाले तटस्थ चेहरों ने भी सरकार को आगाह किया है।पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने कहा कि सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाकर अपने पाले में खुद ही गोल कर लिया है। इसने दुनिया में भारत को अलग-थलग कर दिया है और इसके परिणाम स्वरूप भारत को एक असहिष्णु देश के रूप में पाकिस्तान के साथ जोड़ा जा रहा है। उन्होंने कहा कि ‘हमें दुनिया में कुछ भारतवंशियों और यूरोपीय संसद के कुछ धुर दक्षिणपंथी सांसदों के अलावा कोई भी अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल नहीं है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय समुदाय में आलोचना करने वालों की सूची बहुत लंबी है।’बांग्लादेश के गृहमंत्री असदुज्जामन खान के इस बयान का कि ‘उन्हें (भारत) आपस में ही लड़ने दो’ का जिक्र करते हुए मेनन ने कहा कि ‘अगर हमारे दोस्त ऐसा महसूस करते हैं तो सोचिए कि हमारे विरोधी इससे कितने खुश हुए होंगे।’ फ्रांस के राष्ट्रपति एम्मानुएल मैक्रों और जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के अलावा संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थियों व मानवाधिकारों से जुड़े संगठनों के प्रमुखों ने भी भारत सरकार के हाल के कदमों की व्यापक आलोचना की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चालीस साल बाद एक बार फिर से कश्मीर के मसले पर चर्चा हुई है।अमेरिका में पिछले 25 सालों से दाेनों ही दलों (रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स) में इस बात पर सहमति थी कि भारत-अमेरिका के रिश्ते मजबूत रहने चाहिए, चाहे दिल्ली या वॉशिंगटन में किसी भी दल की सरकार हो, लेकिन पहली बार यह सहमति टूट गई है। डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के सभी प्रमुख दावेदारों ने अपनी चिंता को खुलकर व्यक्त किया है। अमेरिकी कांग्रेस में भी इस पर चर्चा हुई है। 2020 के लिए वार्षिक फॉरेन एपरोप्रिएशन एक्ट में कश्मीर पर नकारात्मक भाषा को शामिल किया गया है। भारत की आलोचना वाले एक प्रस्ताव को सह-प्रायोजक हासिल हो रहे हैं। जैसे कि यूरोपीय संसद में हुआ था।अब हमारे लिए यह पहले से अधिक मायने रखता है कि दुनिया हमारे बारे में क्या सोचती है, क्योंकि अब हम व्यापार और निवेश के मामले में पहले की तुलना में कहीं अधिक विदेशों पर निर्भर हैं। लेकिन, विदेशी निवेश ऐसा काम है, जो भविष्य के विश्वास और भरोसे पर निर्भर करता है, लेकिन यह तेजी से खत्म हो रहा है।हमारी क्रेडिट रेटिंग गिर गई है। सात देशों ने भारत आने को लेकर यात्रा चेतावनियां जारी की हुई हैं। सालों से भारत को विकासशील देशों के लिए एक मॉडल के रूप में देखा जाता था। लेकिन, अब सत्ताधारी दल द्वारा क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उठाए गए विभाजनकारी कदमों ने हमारी इस छवि को नुकसान पहुंचाया है।मुझे भी विदेशों में अपना सिर ऊंचा रखने में गर्व का अनुभव होता था। लेकिन आज मैं अपमानित महसूस करता हूं, जब लोग मुझसे यह स्पष्ट करने को कहते हैं कि भारत में हो क्या रहा है? वे निराशा में सवाल करते हैं कि ‘भारत को आखिर क्या हो गया है?’ इसका दुखभरा जवाब यह है कि हमने उस भारत को मिटा दिया है, जिसकी दुनिया प्रशंसा करती थी।(यह लेखक के अपने विचार हैं।) Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news महिलाओं का स्वास्थ्य और सोच-समझ का दुर्भाग्य By Published On :: Fri, 21 Feb 2020 17:51:00 GMT गुजरात के मशहूर स्वामीनारायण संप्रदाय के एक मंदिर के स्वामी कृष्णनस्वरूप दास ने पिछले दिनों एक प्रवचन के दौरान कहा कि, "यदि महिलाएं मासिक धर्म के दौरान खाना बनाएंगी तो अगले जन्म में वह श्वान पैदा होंगी'। जिस धार्मिक संस्थान से संबंधित ये धर्म गुरु हैं उसी से जुड़ा एक वीडियो वायरल हुआ है। वीडियो में संस्थान द्वारा संचालित एक हॉस्टल की वॉर्डन ने 60 लड़कियों को कपड़े उतारने पर इसलिए मजबूर किया क्योंकि उन्हें शक था कि पीरियड्स के दौरान कुछ लड़कियों ने किचन और मंदिर में प्रवेश किया है।ऐसा करके लड़कियों ने किचन और मंदिर को अपवित्र किया है, इसलिए इतनी लड़कियों को मानसिक त्रास वाली अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। सोच और समझ का दुर्भाग्य सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता। महाराष्ट्र में कीर्तन करने वाले इंदुरीकर महाराज ने तो सारी हद पार कर बेटा और बेटी पैदा करने का फॉर्मूला ही ईजाद कर डाला और बाकायदा कीर्तन के दौरान अपने अनुयायियों को सुनाया। देश सबरीमाला से महिलाओं को खदेड़ने की जद्दोजहद और विचारों की उस धार्मिक लड़ाई से अब तक उबर नहीं पाया है।उस पर किसी ऐसे संस्थान के धर्म गुरु जिसके लाखों अनुयायी हैं, उनका ऐसा बयान देना क्या महिलाओं के साथ मानसिक अत्याचार की श्रेणी में नहीं आता? उस पर दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इन दोनों ही महानुभावों पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई है। भक्तों को भटकाने का माद्दा रखने वाले इन गुरुओं की क्या कोई जवाबदारी नहीं है? क्या महिला सशक्तीकरण की अवधारणा से इन धर्म गुरुओं का कोई वास्ता ही नहीं? इन्हें समझना होगा कि अपने ओहदे और अस्तित्व के लिए घर और बाहर संघर्ष कर रहीं महिलाओं को ऐसे बयान और पीछे ढकेलने का काम करते हैं।शारीरिक संरचना की चुनौतियों के बावजूद महिलाएं बराबरी की बागडोर कसकर पकड़े हुए हैं। ‘वाटर एड’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पीरियड्स के दौरान स्वच्छता साधनों का अभाव दुनिया में महिलाओं की मौत का 5 वां सबसे बड़ा कारण है। देश में सिर्फ 12% लड़कियों को सेनेटरी पैड मिल पाते हैं। दकियानूसी सोच और स्वास्थ्य के बीच की इस रस्साकशी के बीच जरूरत है कि महिलाओं के निजी सम्मान से जुड़ी इस प्राकृतिक परिस्थिति को समझें और उस पर आपत्तिजनक बयानबाजी करने की बजाए उन्हें बेहतर स्वास्थ्य देने की कोशिश करें। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फाेटो। Full Article
india news दिन के 24 घंटे और बदलता व्यक्तित्व By Published On :: Fri, 21 Feb 2020 20:03:00 GMT कभी विचार कीजिएगा कि 24 घंटे में हमारा व्यक्तित्व कितनी बार बदलता है। सुबह आप कोई और होते हैं, दोपहर आपके भीतर कोई और व्यक्ति प्रवेश कर जाता है। शाम होते-होते अपने आपको बदला महसूस करते हैं और रात होने पर तो लगता है, क्या मैं वो ही हूं जो सुबह उठते समय था? एक मनुष्य के भीतर इतने लोग कैसे प्रवेश कर जाते हैं?हमारे शरीर में जो जीवन ऊर्जा है, वह दिनभर में चार बार बदलती है तो हमारा व्यक्तित्व भी बदल जाता है। यदि इसमें संतुलन बनाए रखना है तो योगियों का कहना है अपनी सांस पर काम कीजिए। दिनभर में हम अपने काम-धंधे, नौकरी, व्यापार, परिवार, व्यवहारिक संबंधों पर तो काम करते हैं, लेकिन सांस पर नहीं करते।सांस-क्रिया पर काम करते हुए यदि इसमें संतुलन बैठा दिया तो फिर हम पूरे समय एक ही व्यक्तित्व होंगे जो मूल रूप से हैं। फिर भीतर दूसरा व्यक्तित्व प्रवेश कर हमें अव्यवस्थित और अशांत नहीं करेगा। जिन लोगों की नींद गड़बड़ हो, जो भोजन पर संयम न रख पाएं, उन्हें अपनी सांस पर प्रयोग करना चाहिए।यदि भोजन से पहले सांस को संतुलित कर लें तो भीतर मन जो अधिक भोजन करने का आग्रह करता है, वह चुप रहेगा। आप उतना ही भोजन करेंगे जितनी जरूरत है। ऐसे ही सोने से पहले और सुबह उठने पर सबसे पहले सांस पर काम कीजिए। यदि अन्न और नींद पर नियंत्रण पा लिया तो फिर पूरे समय आपका अपना मूल व्यक्तित्व ही काम करेगा, आप शांत रहेंगे। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article
india news भावना के स्तर पर जांच नहीं सकते तो शब्द और आदत के स्तर पर समझें By Published On :: Fri, 21 Feb 2020 20:06:00 GMT आत्मा का जो मूल स्वरूप है उसका असली गुण प्यार, स्नेह, आनंद, पवित्रता है। आत्मा जो बीज है जब वह अपने असल रूप में आ जाएगी तो उसमें से निकला हर विचार, हर शब्द और हर कर्म स्वत: ही खरा होगा। इसी असलियत और खरे व्यवहार पर हम काम कर रहे हैं। हमें कई बार जीवन जीने के तरीके को, देश में जीने के तरीके, समाज में जीने के तरीके, बिजनेस, प्रोफेशन जो भी हम कर रहे हैं उसको करने के तरीके, लोगों के साथ रहने के तरीके को जांचना और समझना पड़ता है।वास्तव में देखा जाए तो इंसान सही है तो जिंदगी खुद-ब-खुद सही हो जाएगी। आत्मा पवित्र है तो क्या हमारी हर सोच पवित्र है। हमारी हर सोच एकदम साफ है। उसमें कोई मिलावट तो नहीं है? किसी के प्रति थोड़ा सा भी आलोचनात्मक होना ठीक नहीं है। किसी से ईर्ष्या से अगर मैं कुछ बोल रहा हूं तो उसका कुछ और ही अर्थ तो नहीं निकल रहा है। कई बार हम बोल तो मीठा रहे हैं लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि हम सोच कुछ और रहे हों?दूसरा तरीका है हम बोल कुछ रहे हैं लेकिन बोलकर हम कुछ सुनाने की कोशिश कर रहे हैं उनको। मुझे अपने तरीके से कुछ काम करवाना है तो मैं लोगों के साथ कैसा व्यवहार कर रही हूं। यही कुछ चीजें हमारा जीवन जीने का तरीका बन चुकी हैं। अब वो इस स्तर पर चला गया है कि इंसान बतौर कई बार हमें इल्म भी नहीं होता। और फिर वह धीरे-धीरे संस्कार बन जाता है।खुद-ब-खुद बदल जाने के चलते पता भी नहीं होता कि मैं जो सोच रहा हूं वह सही है या नहीं? मान लीजिए मुझे आपको कुछ समझना है और मैं आपको सीधे तरीके से नहीं बता सकती हूं तो मैं उसको घुमाकर आपके सामने किसी दूसरे को सुनाकर कहूंगी। लेकिन इन सब चीजों में हमारी जो भावनाएं होती है वे दूषित हैं। जब हम इंसान बतौर जांचते हैं तो पूरी तरह उसे जांच नहीं पाते।ये तो समझ आ जाता है कि भावना अच्छी नहीं है, लेकिन उतना एहसास नहीं होता और उतना ध्यान नहीं देते कि मुझे अपनी हर सोच हर भावना का पता चल जाए। ये समझ आए कि हर भावना अच्छी, पवित्र है या नहीं और उसे बदला जाए या नहीं। लेकिन संस्कार बदलना है तो भावना को बदलना होगा।हम आसान तरीके से ऐसा कर सकते हैं। हर चीज को भावना के स्तर पर जांच नहीं सकते लेकिन उसे शब्द और आदत के स्तर पर जांच सकते हैं। जो बहुत आसान होता है और सामने दिखाई दे जाता है। इंसान बतौर बदलाव यानी आत्मा के संस्कार को बदला। सोच बदली तो कर्म अपने आप बदल गया। मान लीजिए किसी का संस्कार हमें सुनाने का है, ताना मारने का। तो वह इंसान का असल संस्कार नहीं है। क्यों आत्मा का खरा संस्कार तो पवित्रता है। लेकिन धीरे-धीरे करते-करते मेरा ये संस्कार बन गया कि हमें ऐसे ही सुनाना है। हमें ऐसी बात कहनी है कि दूसरे को समझ आ जाए, लेकिन कई बार वह इससे दुखी भी हो जाता है।कई बार हम इसका ध्यान सोच के स्तर पर नहीं रख पाते हैं। आत्मा की जांच हो और संस्कारों पर काम करें तो सोच अपने आप बदल जाती है। तब हमारा स्वभाव और हमारी आदतें अपने आप बदल जाएंगी। भीतर से आत्मा को बदल दें तो बाहरी परिवेश खुद बदल जाएगा। Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today प्रतीकात्मक फोटो। Full Article